टेलीविजन कार्यक्र्रम निर्माण प्रक्रिया
विश्व में टेलीविजन प्रसारण का आरम्भ अमेरिका में सन 1920 के पास हुआ। 1930 सन तक टेलीविजन इंग्लैंड और अमेरिका, दोनां में काफी विकसित हो चुका था। न्यूयार्क और लन्दन में टेलीविजन स्टेशन स्थापित हो चुके थे। दूसरे विश्व युद्ध के चलते टेलीविजन की लोकप्रियता में जो किंचित रूकावट आई थी, वह युद्ध समाप्त होते ही ख़त्म हो गई। टेलीविजन माध्यम ने संचार के पुराने सारे माध्यमों को पीछे छोड दिया। सन 1948 तक कनाडा, जापान, ऐवं यूरोप के समस्त देशों में टेलीविजन के करोडों दर्शक हो गये थे। सैटलाइट तकनीक के आने तक विश्व के लगभग सारे देशों में टेलीविजन का प्रचलन हो चुका था।
टेलीविजन की ज़बरदस्त लोकप्रियता और तेज़ विकास का कारण इस का घर में सिनेमा का जैसा आनन्द प्रदान करना है। टेलीविजन पर हम मनोरंजन, खेल, समाचार, एवं सामयिक विषयों के कार्यक्रम के अतिरिक्त सैंकडों अन्य विषयों पर आधरित कार्यक्रम देख सकते हैं।
भारत जैसे विकासशील देश के लिए, जहां 75 प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं और अशिक्षा, गरीबी व कुपोषण के शिकार हैं, टेलीविजन को प्राथमिक रूप से शिक्षा के सशक्त माघ्यम के रूप में देखा गया।
भारतीय जनसम्पर्क नीति एवं 1968 की शिक्षा नीति में इस बात को काफी हद तक स्पष्ट किया गया है कि ”मासमीडिया“ को शिक्षा कार्यक्रमों के प्रति अधिक से अधिक प्रतिबद्ध रहना चाहिए। सामाजिक उत्थान एवं परिवर्तन के लिए टेलीविजन को विशेष रूप से सशक्त माघ्यम के रूप में देखा जाने लगा। आनन्द मित्रा के शब्दों में, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू ने टेलीविजन के महत्व को पहचानते हुए ही इसे राष्ट्रीय अजेन्डे पर रखा। इस प्रकार सितंबर 1959 में जब काफी माथापेची के बाद दूरदर्शन के नाम से भारत में पहली बार टेलीविजन का शुभारम्भ हुआ तो मनोरंजन कार्यक्रमों को अंतिम वरीयता पर रखा गया और शिक्षा एवं विकास के कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी गई। इस प्रकार 15 सितंबर 1959 को यूनीस्को की परियोजना के अन्तर्गत भारत में शिक्षा और ग्रामीन विकास में तेज़ी लाने के लिए टीवी के माध्यम को प्रचार प्रसार के रूप में स्थापित करने की पहल हुई। आरम्भ में दिल्ली और आस पास के इलाकों में कुल बीस टीवी सेट लगाये गये, जो 150 से 200 लोग देख पाते। इन्हें टेलीक्लब के नाम से जाना गया। इस परियोजना के पश्चात स्कूली बच्चों के लिए दस हफतों में हर मंगलवार एक घंटा प्रति साप्ताह अलग से स्कूली शिक्षा कार्यक्रम दिखाया गया। 1965 के स्वतन्त्रता दिवस पर भारत में विधिवत टीवी कार्यक्रमों का प्रसारण आरम्भ हुआ। सन 1982 में अशियन गेम्स के समय भारत में रंगीन टीवी प्रसारण आरम्भ हुआ। इस के बाद यह सिलसिला कभी नहीं थमा, दूरदर्शन की पहुंच भारत के कोने कोने में है और 80 प्रतिशत भारतीय इसे देखते हैं। दूरदर्शन के अतिरिक्त अटामिक अनर्जी विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्था, दिल्ली, उतरप्रदेश एवं हरियाना सरकारों के आपसी सहयोग से ‘कृषि दर्शन’ के नाम से किसानों का मार्गदर्शन कार्यक्रम आरम्भ किया गया जो आज संपूर्ण चैनल का रूप ले चुका है।
आज परिदृश्य काफी बदल चुका है। देश में ग़रीबी, अशिक्षा और आर्थिक बदहाली में न्यूनाधिक बदलाव तो आाया है, पर यह आशा से काफी कम है। अभी भी अशिक्षा और ग़रीबी के कारण समाज में वैमनस्य और अनेकों पूर्वाग्रहों का असर बरकरार है। जातिवाद, और धार्मिक कटरवाद का रूप और बिग़ड गया है। सामाजिक न्याय आर्थिक विषमता का शिकार है और कानून व्यवस्था राजनीतिक प्रभावों से कुत्सित है। इन हालात में जनतंत्र की सुरक्षा को बनाये रखने के लिए टेलीविजन की भूमिका को समझना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
प्राइवेट टेलीविजन चैनल चलाने वालों को इन चैनलों के चलाने हेतु धन, विज्ञापन व केबल फीस, डीटीएच या पे चैनल फीस के रूप में प्राप्त होता है। इस कारण इन के कार्यक्रम वित्तीय लाभांश से प्रभावित होते हैं और कार्यक्रम निर्माण पर इस का काफी असर पड़ता है। वही सरकारी संचार माध्यम लालफीताशाही और अन्य हस्तक्षेप के चलते अक़्सर चरमराते नज़र आते है, फिर भी सामाजिक कल्याण का उत्तरदायित्व निभाने का जि़म्मा न्यूनाधिक अभी भी सरकारी संचार माध्यमों, विशेषकर दूरदर्शन पर ही निर्भर करता है। इन हालात में हर हाल में केवल एक जागरूक और माहिर कार्यक्रम निर्माता ही सफल कार्यक्रम निर्माण कर सकता है। आश्यकता है इस परिदृष्य को समझने की, जो सही राह प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
टेलीविजन कार्यक्रम, जन्म और विकास...
टेलीविजन कार्यक्रमों की सूची दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। नये नये विचार और कल्पनायें टेलीविजन कार्यक्रमों की सूरत में हमें देखने को मिलती हैं। कार्यक्रम निर्माण की विधि कार्यक्रम के कथ्य पर निर्भर करती है। मोटे तौर पर हम कार्यक्रम निर्माण परिपाटी को तीन मुख्य भागों में विभाजित कर सकते हैं, 1. फिक्शन 2. नॉन फिक्शन 3. न्यूज़ एण्ड करन्टअफ़ेअयर्स, यथा ‘नाटक, डाक्यूमेंट्री, समाचार एवं सामयिक विष्याधारित कार्यक्रम’।
फिक्शन में नाटक, टेलीफिल्म, सीरीयल, आदि कार्यक्रमों की सूची आती है, जिन में वास्तविक या काल्पनिक घटनाओं का नाट्यरूपांतरण कर के दिखाया जाता है।
नॉन फिक्श्न में डाक्यूमेंट्री, चॅटशो, इन्टरव्यू, संगीत एवं गीत, प्रश्नोत्तरी, डांसशो, खेलकूद के कार्यक्रम, स्त्री एवं बच्चों के कार्यक्रम, सांस्कृतिक एवं सामाजिक विषय संबन्धी कार्यक्रम, ग्रामीण जन आधारित कार्यक्रम, लोक कलाओं व आधुनिक फैशन के कार्यक्रम, सिनेमा से संबन्धी कार्यक्रम, और ऐसे हर तरह के कार्यक्रम षामिल हैं, जो सत्य घटनाओं पर आधारित हों और वास्तविक लोकेशन पर रिकार्ड किए गये हों। इन घटनाओं को कभी कभी नाटय रूपांतरण कर भी प्रस्तुत किया जाता है।
समाचार एवं करंटअफे़यर्स समाचारों के अतिरिक्त, समसामयिक विषयों पर आधारित कार्यक्रम, समाचार सार, दैनिक घटनाओं पर आधारित कार्यक्रम, विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक व ऐसी घटनाओं पर आधारित कार्यक्रम, जिन का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे जीवन पर पड़ता हो और हमारा जीवन प्रभावित होता हो। आर्थिक मुद्धों व खेलकूद पर आधरित चैनल अब अलग से चल रहें हैं।
कार्यक्रम कैसे जन्म लेते हैं?
विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर, चैनल के मुख्य उद्धेश्यानुसार कार्यक्रमों का निर्माण होता है। न्यूज़ चैनल, न्यूज़ व न्यूज़ आधारित कार्यक्रमों, जैसे राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक मुद्धों से जुडे शोज़ को दिखाते हैं। धार्मिक चैनल, धर्माधारित विषयों , प्रवचनों, व तीर्थयात्रा, भक्ति संगीत, योगादि के कार्यक्रम दिखाते हैं। वहीं विज्ञान, खगोल, भूगोल, व अन्य ज्ञानवर्धक विषयों पर नैशनल और इन्टरनैशनल स्तर के चैनल कार्यक्रम दिखाते हैं। कुछ चैनल तो केवल मनोरंजन के कार्यक्रम दिखाते हैं। कुछ केवल खेलकूद से या फैशन से सम्बन्धित कार्यक्रम दिखाते हैं। कार्यक्रम बनाने और इस को दर्शकों तक पहुंचने में एक बड़ी प्रक्रिया जन्म लेती है, जिस को समझना आवश्यक है। इसे हम टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण प्रक्रिया के नाम से जानते हैं।
विचार : Idea
कार्यक्रम चाहे कोई भी हो, इस के बनने में एक विचार की आवश्यकता होती है। यह नवीन, रोचक और दर्शकों में उत्सुकता एवं रूचि जगाने वाला होना चाहिए। यह विचार ऐसा हो जिस से सब से पहले आप स्वयं उत्तेजित हों। जो आप को उद्वेलित कर दे। जिस की परिकल्पना आप की रचनात्मकता को प्रस्फुटित कर दे। यह विचार मौलिक और सारगर्भित होना चाहिए। इस में आप के अतिरिक्त लाखों करोडों लोगों की दिलचस्पी जगाये जाने का जादू होना चाहिए। यह बीज है, जिस पर कार्यक्रम का विशाल पेड़ खडा होगा। इस से ही कार्यक्रम का तानाबाना बुना जायेगा। यह एक निहायत साधारण और मामूली घटना पर आधारित हो सकता है, जिस में असाधारण मानवीय पहलू उजागर हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर किसी ऊंची बर्फीली चोटी पर हवाई दुर्घटना में किसी एक अकेले आदमी का बच जाना और फिर जीवन संघर्ष। विचार में दर्शक की रूचि बनी रहे इस के लिए कौतूहल व जिज्ञासा के क्षण होना लाज़मी है। कहानी में क्रमिक एवं सहज विकास की सम्भावना मौजूद होनी चाहिए, यह स्वाभाविक स्वरूप में विकसित होनी चाहिए और विभिन्न आयामों में खुलनी चाहिए। विचार को कहां तक विस्तार दे सकते हैं? अक्सर यह विचार के स्वरूप और आकार पर निर्भर करेगा कि हम इस को किस समय सीमा में बान्ध लें। क्या यह एक तीन घंटे की फिल्म बन सकता है या तीन साल तक लम्बा चलने वाला सीरियल। बहुआयामी विचार का फैलाव एक लम्बे सीरियल में हो सकता है, जहां एक संक्षिप्त कार्यक्रम कम से कम समय का भी हो सकता है। आप का विचार आप के प्रोडॅक्षन बजट के अनुकूल होना चाहिए।
संकल्पना ;Concept
विचार का विस्तार संकल्पना में होता है। इस में हम विचार के अवयवों को जोडने का प्रयास करते हैं। यह एक नोट होता है जिस की मदद से हम परिसंकल्पना synopsis तैयार करते हैं। इस में कथा तत्व की सम्भावनावों पर ध्यान दिया जाता है। यह एक तरह से उस नक़्शे का संकेत होता है जिस से परिसंकल्पना का निर्माण होता है। इस में मोटे तौर पर कथातत्व की रूपरेखा को उबारा जाता है।
परिसंकल्पना ; Synopsis -
Synopsis में मुख्य रूप से कहानी का तानाबाना बुना जाता है। इस में घटनाओं का स्वरूप क्रमवार बताने की कोशिश की जाती है। यह कार्यक्रम का ख़ाक़ा माना जाता है। इसी खाक़े पर हम वास्तविक आलेख को तैयार करते हैं। यह संकल्पना का विस्तार है, जिस में कथातत्व को खोलने का प्रयास किया जाता है। इस को देख कर कथा के क्रमिक विकास के आदि, मध्य, अन्त रूप में बीज, उत्थान और उपसंहार का ज्ञान होता हैं।
आलेख Script
में हम, हमारे केन्द्रबिन्दु विचार, संकल्पना, एवं परिसंपल्पना का विस्तार करते हैं। जिसे पटकथा का रूप दिया जाता है। इस में मोटे तौर पर और विधिवत रूप से घटनास्थल, समय विभाजन, वेशभूषा, वातावरण, निश्चित घटनाक्रम, कथोपकथन एवं प्रकृति का स्वरूप उभर कर सामने आता है। हमें पटकथा तैयार करते समय तकनीकी बारीकियों में समय नष्ट न कर, इन्हें निर्देषक पर छोड देना चाहिए। मूल आलेख तैयार करते समय, घटनाओं के नियोजन, कथोपकथन, वातावरण, व वेशभूषा का अधिक ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार पटकथा आलेख में स्थान, स्थिति, चरित्र चित्रण, लोक रंग व व्यवहार, काल, परिवेश, रंग ध्वनि एवं आत्मा का ध्यान रखना आवश्यक है। आलेख में केवल उन्हीं बातों का़ ज़िक्र होना चाहिए जो हम टीवी स्क्रीन पर देखना चाहते हों। हमें इन बातों को समझने के लिए गहन अध्ययन और अनुभव की आवश्यकता रहती है, जिस को कडी मेहनत और लगन से ही हासिल किया जा सकता है। फिलहाल हम कार्यक्रम निर्माण से जुडे तत्वों की बात करते हैं।
टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण में बहुत से तत्व एकसाथ जुडे होते हैं। काव्यशास्त्रकार जिस तरह साहित्य अथवा काव्य में विभिन्न विधाओं का विभाजन देखते हैं, बिलकुल इसी प्रकार टेलीविजन अनेकों विधाओं का एक विशाल संगम है। विभिन्न कार्यक्रम हमारे टेलीविजन स्क्रीनों पर 4ः3 और 9ः16 के अनुपात से तस्वीरों की अविरल धारा में दिखाई देते हैं। इन्हें 25 फ्रेम या अब 24 फ्रेम प्रति सैकॅन्ड की गति से शूट, एडिट, और प्रस्तुत किया जाता है। यह फोटो पॅरसिस्टॅन्स आफ विजन ; persistence ऑफ़ विज़न के नाम से जाना जाता है। हमारी आंख जो कुछ भी देखती है वह सैंकडो विभिन्न विध्युत सर्किट से रेटिना में पहुंच कर दिमाग़ तक प्रेषित होता है, हम दो आयामों में आंखों द्वारा देखे दृश्य को देख पाते हैं। विध्युतीय संचार द्वारा केवल एक ट्रांस्मिंटंग सर्किट को एक रसीवर से जोड सकते हैं। इस कमी को दूर करने के लिए टेलीविजन में इमेज का विश्लेशण कर के इस का सम्मिश्रण कर, इसे वास्तविक रूप में जोडा जाता है। यानी जिस सीन को टीवी पर देखना है, इसे पहले विध्युत छाया एलेट्रिकल इमेज में बदला जाता है। इस के बाद इसे क्रमवार विध्युत तरंगों में बांट दिया जाता है और इसी क्रम में इसे रसीवर यानी जहां इसे हमें देखना है, को भेजा जाता है। रसीवर में आकर यह वापस उसी रूप में दुबारा जुड जाती है और हमें दिखने लगती है। मान लो हम कोई नाच कैमरा में रिकार्ड कर के टीवी पर देख रहें हैं, तो क्या होता है कि कैमरा में नाच का यह दृश्य विध्युत छाया में बदल दिया जाता है और टीवी के स्क्रीन पर यह छाया वापस पूर्व क्रम में बदल दी जाती हैं। इस को हम दुबारा क्रमवार परसिस्टंस आफ विजन के कारण ही देख पाते हैं। हम आंख की टिकटिकी 0.1 सैकन्ड में यदि दस निरंतर तस्वीरें स्क्रीन पर देखेंगें तब ही हमें ये दिखेंगीं अन्यथा स्क्रीन पर कुछ न दिखेगा।इन तस्वीरों में गति पैदा करने के लिए हम इन्हें 24 से 30 प्रति सैकंड की दर पर ट्रांस्मिट करते हैं।
टेलीविजन में परम्परागत कलाओं और आधुनिक तकनीकी प्रगति का एक बेजोड संगम देखने को मिलता है। आदिकालीन युग से चले आ रहे संगीत, नाच, गीत, अभिनय, चित्रकला, नाटक, भक्ति, और काव्य के सभी तत्वों एवं स्वरूपों को अंगीकार कर के टेलीविजन ने अपने पिटारे में भर दिया है। यहां शिल्पकार, रंगकर्मी, संगीतकार, गायक, अभिनेता, नेता, समाजसेवक, भक्ति भावना से ओतप्रोत प्रवचन देते व योग सिखाते योगी एवं गुरूजन गर्ज़ कि समाज के हर क्षेत्र से हर रंग और अंग, रस के विषयों को आधार बना कर कार्यक्रमों का निर्माण किया जाता हैं।
मूलभूत आाधार,
किसी भी टेलीविजन कार्यक्रम के निर्माण में कुछ मूलभूत संसाधन जुटाना अत्यन्त आवश्यक है। ये संसाधन कार्यक्रम के घटन और सुव्यवस्था के परिचायक हैं। एक शौकिया और एक सिद्धहस्थ प्रोफेशनल मीडिया कर्मी में इन संसाधनों में और इन की उपयोग्यिता के प्रयोग में अंतर रहता है।
ऐसे तो कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि छोटे स्कूली बच्चे भी अपने हैण्डीकेम से या मोबाइल कैमरा से अपनी फिल्में शूट कर के एडिट कर देते हैं, किंतु इन फिल्मों में और एक प्रोफे़शनल फिल्म मेकर की फिल्म में ज़मीन आसमान का अंतर स्पष्ट झलकता है। इसी अंतर को उजागर कर के हम टेलीविजन प्रोडॅक्शन के आधारभूत तत्वों को जानने का प्रयत्न करेंगे।
टेलीविजन निर्माता जहां तकनीकी एवं प्रबन्धन पक्ष पर अधिक ध्यान देता है, वहीं निर्देश्क, निर्माण के कलापक्ष का भार सम्हालता है। यह दोनों कार्य एक ही आदमी भी कर सकता है, पर यदि यह काम दो अलग व्यक्तियों में विभाजित हो, तो अधिक उचित होगा, क्योंकि निर्देश्क पर प्रबन्धन का अतिरिक्त बोझ पड़ने से कलापक्ष प्रभावित हो सकता है।
सफल निर्देश्क का ध्यान कार्यक्रम के बारीक़ तानेबाने को सही ढंग से बुनने के लिए, सही और उपयुक्त मशीनों और व्यक्तियों की मदद से अच्छी क्वॉलिटी और स्वरूप में प्रस्तुत करने में लगा रहता है। निर्देश्क की पकड़ कार्यक्रम की विषयवस्तु पर गहन होनी चाहिए। शूटिंग से पहले उस ने सारी तैयारी की होनी चाहिए।
तकनीकी पक्ष ; Technical Aspect
कार्यक्रम निर्माण में विभिन्न प्रकार के तकनीकी संसाधनों की आवश्यकता दरकार रहती हैं। इन में इलेक्ट्रानिक कैमरा ; वीडियो एडिटिंग मशीनें ; लाइटें ; डब्बिंग आडियो स्टूडियो, टीवी प्रोग्राम मॉनीटर , स्विचर व आडियो वीडियो मिक्सर, वेक्ट्रास्कोप, सी.सी.यू. कई प्रकार की मशीनरी व अन्य उपकरण दरकार पड़ते हैं, जो सब मानक श्रेणी के होने अनिवार्य है।
किसी भी टी. वी. कार्यक्रम के बनाने के लिए ऊपर कहे उपकरणों की कम से कम ज़रूरत पडती ही हैं।
टी.वी. कार्यक्रम कैमरा के माध्यम से, टेप पर, सी.डी. पर डी.वी.डी पर या हार्डडिस्क पर रिकार्ड होते हैं। इन उपकरणों का प्रसारण स्तर, यानी ब्रॉडकास्ट स्टेंडार्ड का होना आवश्यक है। तब यह बात और भी आवश्यक बन जाती है, जब यह प्रोग्राम आप प्रसारण के लिए ही बना रहे हों। इन उपकरणों का उपयोग केवल अनुभवी व प्रशिक्षित तकनीशनों द्वारा ही होना चाहिए। अन्यथा प्रशिक्षणहीन व अनुभव विहीन व्यक्तियों एवं सस्ते उपकरणों के प्रयोग से प्रोग्राम की क्वॉलिटि ख़राब होगी और इस प्रकार भारी हानि उठाने का भय बना रहेगा। आज कल अच्छे मानक कैमरा व अन्य मशीनें काफी वाजब दामों में लगभग भारत के हर बडे़ शहर में उपलब्ध हैं।
शूटिंग के लिए कैमरा लाइट आदि उपकरण छोटे से ले कर बडे बजट रेंज में भारत के हर बड़े षहर में किराये पर आसानी से उपलब्ध हैं।
न्यूज़ एवं करंटअफे़यर्स प्रोग्राम शूट करने वाले पी.डी. 150 व 170 मार्क के कैमरा 2 से 2.5 लाख रू. तक बाज़ार में उपलब्ध हैं। ये उपकरण विभिन्न वीडियो स्टूडियो वालों के पास भी किराये पर उपलब्ध हैं। इन के साथ सारे रेट व शर्तें पहले ही तय करनी चाहिए वरना बाद में काफी झंझट हो सकता है।
कार्यक्रम शूटिंग ; Program Shooting
हम कार्यक्रम, आवश्यकता के अनुसार, एक कैमरा या एक से अधिक कैमरा से शूट करते हैं। एक कैमरा से किये गये शूट को, सिंगल कैमरा शूट और एक से अधिक कैमरा से शूट किये कार्यक्रम को मल्टी कैमरा शूट कहते हैं।
सिंगल कैमरा षूटिंग : Single Camera Shooting (मकश )
आम तौर पर सिंगल कैमरा ऐसे कार्यक्रम शूट करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है, जिन्हें शूटिंग के बाद हम अलग से एडिट करते हैं। एक ही कैमरा से कार्यक्रम को विभिन्न स्थानों पर अलग अलग शॉट में शूट किया जाता है और इन षॅाटस को बाद में संकलन के समय आपस में मिला कर धाराप्रवाह रूप में जोडा और देखा जाता है। कार्यक्रम, कोई टेलीफिल्म, डाक्यूमेंट्री, फीचर, या समाचार कवरेज अथवा कवरेज पर आधारित कोई अन्य कार्यक्रम हो सकता है। इस में षॉट को बीच में रोक कर अलग अलग ऐंगल और साईज़ में बांट कर षूट किया जाता है, तब इन्हें क्रमवार जोड़ा जाता है और एक लाइन पर एडिट किया जाता है।
सिंगल कैमरा षूट पर जाने से पहले यह ज़रूरी है कि आप ने पोस्ट प्रोडेक्शन यनी संकलन की प्रक्रिया को ध्यान में रख कर अपनी शूटिंग स्क्रिप्ट तैयार की हो और इसी आधार पर शूट कर के लाये होंं। एडिटिंग में षॉट मिलाने में इस से कोई दिक्क़त नहीं होगी। इस प्रकार कहानी के प्रवाह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। आम तौर पर कहानी को छोटे छोटे टुकडों में शूट कर के बाद में इन्हें जोडा जाता है। आलेख तैयार करते समय बहुत से निर्देषक अपने स्क्रिप्ट का विजुअल ब्रेकअप पहले से तैयार रखते हैं। इस से शूट करने में आसानी रहती है और बाद में सही एडिट भी मिलते हैं। पर इस में अपवाद भी हो सकता है, क्यों कि अक्सर देखा गया है कि लोकेशन पर पहुंचने पर अनदेखे कारणों से बहुत बार शूटिंग स्क्रिप्ट में परिवर्तन करने पड़ते हैं, यहां निर्देषक आवश्यकता अनुसार षॉट ब्रेकअप बदल देता है। इस लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि आप को शूटिंग तक़नीक़ का समयक ज्ञान होना चाहिए। आप को शॉट की डिगरी, ऐंगल और लाइन की जानकारी होनी चाहिए।
इस का मतलब यह है कि आप को इस बात का पूरा एहसास होना ज़रूरी है कि आप क्या, क्यों और कैसे शूट कर रहें हैं। इस प्रकार अनेकां बातों का ख्याल रखना पड़ता है जो धीरे धीरे समझायी जायें गी। शूट करते समय षॅाट की निरंतरता ;बवदजपदनपजलद्ध का ध्यान रखना अत्यन्त आवष्यक है। इस से मतलब है कि कहानी ऐसे शूट हो कि एडिटिंग पर इन शॉटस को कहानी दर्शाने में अडचन न आये। यह अडचन कई प्रकार की हो सकती है। जैसे एक ही सीन में आप ने किसी किरदार को एक शॉट में कोट पहने दिखाया और दूसरे में कोट के बिना, ज़ाहिर है कि इन दो शॉट के बीच में शूटिंग बंद की गई हो, शायद चाय की ब्रेक या किसी अन्य कारण से, और वापस सेट पर आते किरदार कोट पहनना भूल गया हो, तो सीन के चलते दर्शक को कितना अटपटा लगेगा कि अभी यह महाशय कोट पहने दिखते हैं तो अभी बिना कोट के, यह याद रखना अत्यन्त आवष्यक है कि दर्शक के ध्यान में बिना कारण के आई इस तबदीली से काफी खलल पड़ता है, उस का ध्यान बंट जाता है और वह कार्यक्रम में रूचि खो देता है।
इसीं प्रकार यिंद एक ही सीन में शॉट के दौरान न बदले स्थान, किरदार ऑफ शॉट अपने स्थान बदल देते हैं, तो यही समस्या उत्पन्न होगी। एक सीन में एक शॅाट में अभी दिन दिखता है और अभी रात, लाईट में यह अचानक के झटके सीन की समय सारणी में झटके उत्पन्न करते हैं। इन सब बातों का फिल्म षूटिंग और एडिटिंग में ध्यान रखना आवश्यक है।
सिंगल कैमरा शूट यदि स्टूडियो से बाहर अउटडोर में है, तो हर चीज़ को पैक किया गया है, इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। खासकर बेट्री, चार्जर, माइक, लाइट, रिफलेक्टर, ट्राइपॉड, बेस, गर्ज़ कि हर चीज़, यहां तक कि सूई धागा तक चेक कर के ले जाना चाहिए। कभी किसी मामूली चीज़ के लिए शूटिंग अटकने से काफी हानि का भय रहता है। अउटडोर में आडियो का विषेष ध्यान रखना चाहिए। आजकल वायरलेस और कॉर्डलेस माइक्रोफोन अच्छी क्वालिटी के उपलब्ध हैं, इन के प्रयोग से आडियो काफी अच्छा रेकार्ड होता है।
मल्टी कैमरा शूटिंग ;डनसजपबंउमतं ैववजपदहद्ध
इइसण् में शूटिंग के मिमए एक से अधिक कैमरा प्रयोग में लाये जाते हैं । यह शूटिंग अक्सर स्टूडियो में किसी बने बनाये सेट पर होती है, पर कहीं अन्यत्र भी सारा सेटअप जोड कर यह शूटिंग हो सकती है। आम तौर पर कार्यक्रम की आवश्यकता के हिसाब से कैमरा दो से दस या और भी कम/अधिक, किसी भी मात्रा में लाये जाते हैं। जांं कोई बडे तामजाम वाला बडा सेट लगा हो और बडी मात्रा में व्यक्ति या कलाकार भाग लेने जा रहें हों, वहां इसी अनुपात से कैमरा भी अधिक मात्रा में लगाये जायेंगें। यह इस लिए कि हमें अधिक से अधिक शॉट में से चुनाव करने की छूट मिले और दृश्य संयोजन के लिए हर एेंगल और दिषा के शॉट जोडे जायें। इस प्रकार सारे उपस्थित लोगों को सही कवरेज मिलेगी और हर प्रकार के शॉट समाहित किये जायेंगे। शॉट में और अधिक विभिन्नता लाई जाने के लिए ट्रेक ट्रॉली, क्रेन, डाली, आदि का प्रयोग होता है, जो इस में जान फूंकते हैं।
आप ने 26 जनवरी के अवसर पर आम तौर पर देखा होगा, किस प्रकार आप परेड के दृश्यों के साथ हवा में उडते लडाकू विमानों, उपस्थित लोगों, झांकियों, और सारे अतिविशिष्ट लोगों को देखते हैं, यह सब एक साथ देख पाना सिर्फ मल्टी कैमरा सेटअप के कारण सम्भव है। यहां लगभग हर सीक्वेनन्स उचित ताल और लय में जुडी होती हैं। यह तब मुमकिन है जब हर व्यक्ति को अपनी भूमिका का पूर्वानुमान और पहले से जानकारी प्राप्त हो। इस के लिए पहले से काम बांट दिया जाता है, हालांकि यह केवल असपसी तालमेल और सुविधा के लिए होता हे पर हर कोई इस का सख्ती से पालन करता है। सारे उत्सव का एक पूर्वनिश्चत खाका बना होता है और हर कैमरापर्सन को पहले से उस का काम समझाया जाता है। इवेन्ट में अलग अलग स्थितियों के लिए अलग कैमरामैन को कवर करने का दिर्नेष होता है। यह कार्यक्रम लाइव टेलीकास्ट हो रहा है तो इसे एडिट करने की आवश्यक्ता नहीं, इस तरह मल्टीकैमरा में एडिटिंग का पैंसा बचता है। इसी प्रकार क्रिकेट मैच में दस बारह या इन से भी अधिक कैमरा अलग अलग जगहों पर विभिन्न एंगल के शॉट लेने के लिए प्लेस किये जाते है। इस से षॉट में विभिन्नता लाई जाती है। अगर एक कैमरा लांग शॉट में फील्ड का दृश्य दिखाता है तो दूसरा तुरन्त बैट से छूटती बाल का मंज़र सामने लाता है, वही अन्य एंगल से फील्डर द्वारा बाल रोके जाने का दृश्य कट होता है। हर कैमरा फील्ड में हो रही हर प्रकार की अलग अलग गतिविध पर नज़र रखने के लिए तैनात होता है। पैनल पर बैठे निर्देश्क को हर कैमरा का शॉट अलग मानीटर पर नज़र आता है और वह तुरन्त स्वीचर को शॉट लेने का आदेश करता है।
स्टूडियो में लाइटें तराफे पर, स्टेंड पर और नीचे ज़मीन पर भी लगी होती हैं। तराफे की लाइटों को आसानी से दाहिने, बाहिने और ऊपर, नीचे किया जा सकता है। प्रकश की व्यवस्था के बाद ध्वनि एक अहम विषय है, जिस पर ज़ोर दिया जाता है। ध्वनि उपकरणों को स्टूडियो में कैमरा,माइक, लैपल, कार्डलेस आदि के द्वारा वी.टी.आर में लगे आडियो मिक्सर के माध्यम से वीडियो रिकार्डर के साथ जोडा जाता है।
पी.सी.आर ;च्तवकनबजपवद बवदजतवस तववउद्ध एक ऐसा कक्ष है, जो आमतौर पर स्टूडियो के एक तरफ सटी दीवार के ऊपर बना होता है, यहां से स्टूडियो में हो रही हर गतिविधि पर नज़र रहती है। यह आम तौर पर स्टूडियो से सोलह से बीस फुट की ऊंचाई पर बना होता है और स्टूडियो की तरफ बड़ा षीषा लगा होता है, जहां से फलोर का सारा क्षेत्र आसानी से देखा जा सकता है। कहीं, कहीं स्टूडियो, फलोर क्षेत्र से दूर भी बना होता है पर वह आम तौर पर ज़्यादा वाजिब नहीं समझा जाता है।
पी.सी.आर में भारी भरकम मषीनों का सलीके से रखा हुआ एक जमावडा सा होता है। इस में लगी हर मषीन और उस पर काम करने वाले हर व्यक्ति का प्रोडक्षन की सफलता या असफलता में महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
स्टूडियो फलोर का हर कैमरा एवं ध्वनि संयत्र पी.सी.आर से जुडा होता है। यहां हर स्टूडियो कैमरा सी.सी.यू यनी कैमरा कंट्रोल यूनिट से जुड कर विजन मिक्सर से जोडा जाता है। जहां सी.सी.यू हर कैमरा का तापमान,फोकस, कलर ल्यूमिनेन्स, कलर टेम्प्रेचर का निरीक्षण व कन्ट्रोल करता है, वहीं विजन मिक्सर से हम अलग अलग कैमरा से दिये षॉट को मानीटर पर देख कर षॉट का चयन रिकार्डिन्ग के लिए करते हैं। वेवफार्म या वेक्ट्रास्कोप से सभी कैमरों का आपसी तालमेल और संयोगिता का संतुलन आंका जाता है।
स्विचिंग मषीन पर बैठा एडिटर या स्विचर निर्देश्क द्वारा चयनित शॉट को स्विच करता है और यह रिकार्ड होने के साथ ही प्रोग्राम जेनरेटिंग मॉनीटर पर भी िंदखता है। हमें मालूम होता है कि हम ने कौन सा षॉट रिकार्ड किया है।
हमारे पास फलोर पर काम कर रहे हर कैमरा का अलग रिकार्डर रखने का भी प्रावधान होता है। पी.जी.एम पर िंदखने वाला दृश्य ही एक साथ रिकार्ड और टेलीकास्ट हो रहा होता है। नीचे फलोर पर काम कर रहे हर कैमरामेन का सीधा संपर्क ऊपर पैनल पर बैठे निर्देषक से टॉकबैक व्यवस्था से जुडा रहता है, इस के द्वारा निर्देश्क कैमरामैन को वांछित शॅाट देने का निर्देश देता है। टॉकबैक के द्वारा निर्देश्क फलोर मनेजर के माध्यम से कार्यक्रम में भाग लेने आये व्यक्तियों को भी आवश्यक निर्देश सुनाता है। फलोर मनेजर इस ।े एक तरह से फलोर पर निर्देश्क के स्थान पर काम कर रहा होता है। स्टूडियो में जिस कैमरा से शॉट रिकार्ड हो रहा होता है, उस के उपर लाल बत्ती जलती है, जो क्यू लाइट कहलाती है।
शूट करते हुए इस बात का ख्याल रखना अत्यन्त आवश्यक है कि आप काल्पनिक रेखा पार नहीं करते हैं, यह रेखा जिसे इमेजनरी लाइन कहते हैं, स्टूडियो में आप के दाहिने और बाहिने हाथ पडे क्षेत्र के बीच होती है। इस रेखा के आरपार व बीच मे आगे व पीछे भी हम ने कैमरा लगाये होते हैं। लाइन क्रॉस करने से दो विपरीत दिशाओं में बैठे व्यक्ति एक ही दिशा में बैठे नज़र आयेंगे और गडबडी उत्पन्न होगी।
स्टूडियो में ऐसा कोई भी कार्यक्रम शूट करने में सुविधा होती है, जिस की शूटिंग के लिए बाहर के वातावरण में शूट करने की स्थिति को टाला जा सकता हो। स्टूडियो, खास कर फिल्म स्टूडियो में तो यथार्थ का क्रम उत्पन्न किया जाता है, किन्तु टेलीविजन स्टूडियो एक सीमा तक ही इस का उपयोग करता है।
आम तौर पर टेलीविजन स्टूडियो में, टाक शो, इन्टरव्यू, म्यूज़िक व डांस शो, गेमशो, फिल्म आधारित शो, बच्चों के कार्यक्रम, व अन्य नॉन फिक्श्न व फिक्श्न कार्यक्रम शूट होते हैं।
कार्यक्रम पूर्वनिर्माण प्रक्रिया
कार्यक्रम विचार, संकल्पना व आलेख तैयार करने के पश्चात हमें इस कार्यक्रम को बनाने के साधन जुटाने हैं। सब से पहले कार्यक्रम निर्माण पर आने वाले खर्चे का अनुमान लगाना अत्यन्त आवश्यक होगा, क्यों कि यिंद हम यही नहीं कर पाये तो हमारी कोशिश जंगल में भटकने के सिवा कुछ साबित न होगी।
कार्यक्रम पर आने वाली सही लागत का अनुमान हमें आलेख के प्रकार और आकार को देखने से पता चलता है। इसी के अनुसार कार्यक्रम का बजट तैयार होगा और खर्च्े का अनुमान लगाया जायेगा।
जैसी कहानी होगी, वैसा ही बजट बनेगा। अगर कहानी में बडे बडे सेट लगने हैं और काफी घोडे़ गाड़ियों और व्यक्तियों के साथ काफी सारी लोकेशनें अैर महंगा स्टारकास्ट दरकार है, तो इसी हिसाब से बजट भी काफी बड़ा होगा। मोटे तौर पर बजट तैयार करते समय निम्न बातों का ख्याल रखा जाता है।
1.कार्यक्रम की व्यवस्था व निर्माण में कितने व्यक्ति काम करेंगें उन का पारिश्रमिक।
2. कार्यक्रम कहां और कितने दिन शूट होगा और वहां कैसे जाया जा सकता है। इस में दरकार ट्रांस्पोर्ट और लोकेशन पर रहने व खाने पीने की व्यवस्था का खर्चा।
3. कार्यक्रम सिंगल कैमरा शूट है या मल्टी कैमरा, किस प्रकार के और कितने कैमरा दरकार हैं। कितने शूटिंग कैसेट, किस प्रकार का लाइट सेटअप, रिकार्डिंग सिस्टिम, सेट, मेकअप, कास्टयूम, म्यूज़िक, आदि की ज़रूरत रहेगी, इन सब खर्चां को इस प्रकार वर्गीर्कृत किया जा सकता है।
1 मानव संसाधन
2 ट्रांस्पोर्ट व लोकेशन, मेस
3 मशीनरी इक्यूपमेंट व रॉस्टॉक
4 सेट, कास्टयूम, मेकअप आदि
5 म्यूज़िक
6 पोस्टप्रोडक्षन, एडिटिंग, डबिंग
7 पब्लिसिटी व पी.आर
इस के अतिरिक्त प्रोडक्शन पर प्रोडक्शन पूर्व किया गया खर्चा भी जोडा जायेगा।
इस तरह हमारे सामने कार्यक्रम निर्माण पूर्व कार्यक्रम के दौरान और कार्यक्रम शूटिंग के बाद कार्यक्रम पर आये खर्चे का ख़ाका तैयार करने में मदद मिलती है।
इन खर्चों को आलेख की आवश्यक्ता के अनुसार आंकना जरूरी है अन्यथा बजट कम पडने की स्थिति में काम बीच में रोकने से खर्चे पहाड से बढ़ सकते हैं, जिस से भारी हानि होने का और सारे कार्यक्रम के चौपट हो जाने का खतरा हो सकता है। इस स्थिति से बचने के लिए कार्यक्रम का एक सही और सटीक शिडयूल बनाना भी ज़रूरी है। इनडोर ‘भीतर’ आउटडोर ‘बाहर’ की शूटिंग का अनुपात तय कर के, बाहर के दृष्यों को पहले निपटाना चाहिए। यदि बाहर मौसम खराब होने के कारण या किसी अन्य कारण से षूटिंग मुमकिन न हो तो भीतर के दृष्य ख़त्म करने की कोषिष करनी चाहिए, इस प्रकार षिडयूल लचीला रखने से षूटिंग रूकने के अवसर कम होगें और नुकसान की सम्भावना भी घट सकती है।
बजट व्यवस्थित करना प्रोडक्षन का एक आवष्यक अंग तो है ही पर यदि षूटिंग की व्यवस्था सुनियोजित ढंग से न की गई हो तो षूटिंग के दिन और समय बढ़ने से भी काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसी लिए यह काम किसी तजरूबेकार प्रोडक्षन कन्ट्रोलर को या प्रोडक्षन मैनेजर को सौंपा जाता है। उसे ज्ञात होता है कि केवल फिजूल में बढ़चड़ कर खर्च करने से कोई कार्यक्रम सफल नहीं होता अपितु व्यवहारिक और उचित ढंग से कार्य का संचालन करने से कम बजट में भी अच्छी क्वालिटी का कार्यक्रम बनाया जा सकता है।
तात्पर्य यह कि स्क्रिप्ट की आवष्यक्ता के अनुसार बजट तय कर के यदि सुनियोजित ढंग से खर्चा नहीं किया गया तो बजट चरमरा सकता है। केवल फालतू पैसे खर्चने से या बडे बजट में निर्माण कर के कार्यक्रम की सफलता सुनिष्चित नहीं की जा सकती है। सही तरीके से और सोचे समझे ढंग से पैसे लगाने पर ही सही नतीजे हाथ लग सकते हैं। यह सब तब मुमकिन है जब आप ने अपना समस्त ध्यान पटकथा की हर बारीकी को ध्यान में रख कर कार्यक्रम निर्माण की व्यवस्था तय की हो। इस लिए षूटिंग का सारा षिडयूल व्यावहारिक तौर पर व्यवस्थित और सुनियोजित होना चाहिए। लोकेषन ‘बेस कैम्प’ से अधिक दूर नहीं रखनी चाहिए, बेस कैम्प छोडने से पहले हर छोटी बडी चीज़ जो षूटिंग में दरकार है, को सुनिष्चित हो कर पैक करना चाहिए, अन्यथा लोकेषन पर ऐन वक्त पर वही चीज़ न मिलने पर षूटिंग रोक देने के कारण काफी समय नष्ट हो सकता है यानी अभी कुछ करने से पहले ही कुछ खोना षुरू हो गया। षूटिंग वाली लोकेषन से कोषिष हो कि लक्षित कार्य समाप्त कर के ही पैकअप हो।
मानव संसाधन के क्षेत्र में भाग लेने वाले तीन प्रकार के कार्यकर्ता होते हैं। एक वो जो तकनीकी पक्ष देखते हैं और दूसरे जो कला पक्ष देखते हैं, तीसरे वो जो प्रबन्धन पक्ष देखते हैं। तकनीकी पक्ष के तहत विभिन्न इंजीनियर,कैमरामैन,साउण्ड इंजीनियर, एडिटर ,लाइट इंजीनियर और टेक्नीषियन, इलेक्ट्रानिक व ग्राफिक इंजीनियर व डिज़ाइनर, विभिन्न मषीनों के आप्रेटर व अन्य कई ऐसे लोग तकनीकी क्षेत्र में आते हैं। वहीं कार्यक्रम अनुभाग में लेखक,निर्देषक,निर्माता, इन के सहायक, आर्टिस्ट, संगीतकार,व अन्य दर्जनों लोग जुडे होते हैं, जो कला पक्ष को देखते हैं।
स्टूडियो,
स्टूडियो, अलग अलग किस्म के लम्बाई व चौडाई में भिन्न हो सकते है। पर एक बात निष्चित है कि इन में न्यूनअधिक कार्यक्रम बनाने के उपकरण एक से लगे होते हैं। जहां नीचे लम्बे चौडे खुले एरिया में कैमरा, सेट, लाइट, व अन्य मषीनें लगती हैं वहीं स्टूडियो की एक तरफ ऊपर पैनल होता है। स्टूडियो की ऊंचाई कम से कम 20 और 25 फुट के बीच में होनी चाहिए। आज कल खुले मैदान में विषाल सेट लगा कर भी मल्टी कैमरा षूट होते हैं।
पी.सी.आर से नीचे स्टूडियो का सारा क्षेत्र दिखता है, पैनल पर कार्यक्रम से सम्बन्धित सारे व्यक्ति विभिन्न मषीनों पर व्यस्त दिख्ेंगे। मुख्यता, निर्देषक, उस के सहायक व पूरी कार्यक्रम टीम के अतिरिक्त बाक़ी सभी विषेषज्ञों में सी.सी.यू आप्रेटर,साउन्ड इंजीनियर,वीडियो ओप्रेटर, विजन मिक्सर, एडिटर, फिल्मरोल ओप्रेटर, टेकनिकल डायरेक्टर, ये सब कार्यक्रम की रिकार्डिंग में अहम भूमिका निभाते हैं।
स्टूडियो से जो भी आडियो वीडियो सिगनल ध्वनि व चित्रों के रूप में कंट्रोल रूम में प्राप्त होते हैं, इन्हें कार्यक्रम की आवष्यकतानुसार रिकार्ड किया जाता है। फिल्म यूनिट से फॉइल षॉट या फिल्म फुटेज कार्यक्रम के लिए ली जाती है और उपयोग की जाती है। इसी प्रकार पहले से षूट की गई फुटेज को लाइव प्रोग्राम के बीच में दिखाया जाता हैं। अक्सर यह फुटेज विजुअल न्यूज़ के तौर पर दिखायी जाती है, यह पहले से रिकार्ड या कहीं से लाइव फीड के तौर पर सीधे कार्यक्रम में षामिल की जाती है।
पी.सी.आर में एक अन्य मषीन इनस्क्राइबर लगी होती है, इस से कार्यक्रम के दौरान एंकर अथवा कार्यक्रम में भाग लेने वाले व्यक्ति को बाक्स में डाल कर स्क्रीन को दो या चार विभिन्न हिस्सों में बांट कर विभिन्न दृष्यों को समानान्तर दिखाया जाता है। इस से तरह तरह के स्पेषल इफेक्ट के इलावा केपषन, बाटम सुपर आदि डालने का काम भी होता है।
कैमरा कंट्रोल व आपरेषन
टी.वी. कैमरा एक डिजिटल इलेक्ट्रानिक डिवाइस है। यह विषेष रूप से बना कैमरा होता है। इस में पहले पहल आधारभूत रंगों के लिए तीन टयूब लगे होते थे, अब यह काम ‘थ्री कलरकैपचेर डिवाइस’ यानी सी.सी.डी करते हैं। यह कैमरा साठ हज़ार रू. से ग्यारह लाख से अधिक की रेंज में बाज़ार में उपलब्ध हैं। षुरूआती दौर में मल्टी लेंस कैमरा स्टूडियो षूटिंग में प्रयोग होते थे, जिन के लेंस बदल बदल कर षॅाट का साइज़ बदला जाता था। पर अब यह काम एक ही ज़ूम लेंस से मुमकिन होता है। ज़ूम लेंस के साथ कन्वर्टर लगा कर ज़ूम रेंज को इच्छा अनुसार घटाया बढाया जा सकता है।
कैमरा आन करने पर व्यूफाइंडर में कैमरे के सामने आया दृष्य नज़र आता है। यह कैमरामैन के लिए षॉट का लपेट, गहराई, लम्बाई और स्पष्टता की सूचना देता है। अब व्यूफाइंडर कलर्ड होने के कारण सही नतीजे सामने होते हैं।
कैमरा के साथ एल.सी.डी मानीटर भी होते हैं। अब सामने का दृष्य जस का तस नज़र आता है, जिस से हमें षॅाट की बारीक़ जानकारी भी प्राप्त होती है। हमारे सामने सारा परिदृष्य, लाइट, दूरी, गहराई, रंग, टेक्सचर, कॉन्टूर, सब साफ झलकते हैं और हम इच्छानुसार दृष्य का फोकस सही कर सकते हैं, प्रकाष की कमियों को ठीक कर सकते हैं। हर पहलू से सेट का निरीक्षण कर के सन्तुष्ट हो सकते हैं।
फलॉर्् पर लगे दो या दो से अधिक कैमरा, एक दूसरे के षॉट अपने कैमरा पर ले कर मैचकट कर सकते हैं। इस तरह हर षॅाट संतुलित नज़र आयेगा।
कैमरा को स्टूडियो में अक्सर डाली, ट्राली, क्रेन, या मात्र कैमरा स्टेंड पर रखा जाता है। यदि षॉट बेस लेवल का हो तो इसे बेस के साथ फिट किया जाता है। ट्राली पर लगा कैमरा दो तरह से प्रयोग में लाया जाता है। इसे गोल अथवा सीधे ट्रेक पर रखा जाता है। ट्रेक पर ट्रॉली रख कर गाडी की तरह आगे पीछे घूमती है। गोल ट्रेक पर ज़ाहिर है, यह गोल ही घूमेगी। इस तरह कैमरा में मूवमेंट पैदा किया जाता है, जिस से षॉट में गति आती है और यह गति जब षॉट में उपस्थित व्यक्तियों या वस्तुओं की गति का बोध कराती है तो षॉट में जान आ जाती है। इस बात को समझना और आगे चल कर इस के निर्वाह को सीखना अत्यन्त आवष्यक है। क्यों कि अक्सर देखा गया है कि कुछ अतिउत्सुक और कुछ अनोखा करने की धुन में कई निर्देषक और कैमरामेन ट्रेक ट्रॉली का उचित ढंग से उपयोग नहीं कर पाते हैं और महज़ मूवमेंट पैदा करने के लिए इस का प्रयोग करते हैं, जब कि इस के उपयोग का सम्बन्ध सापेक्ष रूप से लक्षित विषयीगत वस्तु की गति उजागर करना अथवा वस्तुगत गतिषीलता को उभारना है।
यही बात क्रेन के उपयोग में भी उचित है। क्रेन पर रखा कैमरा न केवल आगे पीछे, दाहिने, बाहिने घुमाया जा सेता है अपितु इसे काफी ऊपर नीचे भी किया जा सकता है। कैमरा हमें दृष्य में मोटे रूप से तीन तरह की गति का बोध कराता है। एक स्थिर गति, इस में दृष्य में दिखने वाले लोग या वस्तु आदि तो हरकत में हो सकते हैं, पर कैमरा अपनी जगह टिका हुआ है। यह स्टेटिक षॅाट कहलाता है।
दूसरा विषयवस्तु की तरफ जाता या इस से पीछे हटता, इस में केवल कैमरा हरकत में रहता है और पात्र अपने स्थान पर, तीसरा कैमरा विषयवस्तु के समानान्तर घूमता है, यह पैरालेल ट्रेक कहलाता है। यानी पहली स्थिति में कैमरा अपनी पुज़ीषन और ऐंगल से किसी वस्तु या व्यक्ति को दर्षाता है, दूसरी स्थिति में कैमरा पात्र अथवा वस्तु की तरफ जाता या इस से पीछे हटता नज़र आता है और तीसरी स्थिति में कैमरा वस्तु या व्यक्ति या समूचे दृष्य के साथ समानान्तर, आगे, पीछे, या गोलाकार धूमता है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि कैमरा की मूवमेंट से दृष्य में प्रवाहात्मकता का बोध आता है जिस से परिदृष्य सजीव हो उठता है। इस के पीछे एक सम्बन्ध तत्व जुडा है जो पात्रों के स्थान और कृत्य के सम्बन्ध से जुडी अहम हरकतों को इंगित करता है।
आप ने नोट किया होगा कि हमारे चलते, उठते बैठते, या ठहरे किस प्रकार हमारा वस्तु सम्बन्ध स्थापित होता व बदलता रहता है, और दृष्य उसी अनुपात से हमारे सामने आते और चले जाते हैं, इसी प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए हम कैमरा को एक स्थान से दूसरे स्थान षॉट के बीच मूव करते हैं। यह प्रभाव हम उपयुक्त षॉट डिविजन कर के हासिल करते हैं। किसी भी षॅाट को जबतक कि न अन्यथा दरकार हो, निरन्तर फोकस में रखना ज़रूरी है। ख़ास कर ऐसे समय जब कैमरा ट्रॉली या क्रेन पर हो, फोकस का विषेष ध्यान रखना अत्यन्त आवष्यक है, ऐसे षॉट अक्सर लम्बी मूवमेंट के और दूरी वाले होते हैं, कैमरामेन जू़म लेंस का प्रयोग करते हैं, और षॉट वाइड से क्लोज़ या क्लोज़ से वाइड ऐंगल के होने के कारण फोकस से हटने का भय रहता है, इस लिए एक फॉलोफोकस मैन साथ रहता है जो कैमरा का फोकस मार्क कर के रखता है और इसे बराबर फोकस में रखता है। दोहरी गति के षॉट में यह सतर्कता बरतना अत्यन्त आवष्यक है।
इस बात से हमें यह भी ज्ञात होता है कि कैमरा स्टूडियो में विभिन्न स्थानों पर लगे होते हैं। इन का प्रयोग निम्न रूप से किया जाता है।
1 स्थिर खडे़ कैमरा- कैमरा सेट पर, अलग अलग जगह अपने स्थान पर, दाहिने, बाहिने, बीच में या आगे पीचे रखे जाते हैं और कैमरमेन षॅाट देते हैं, जिन्हें पैनल पर बैठा डॉयरेक्टर अपनी आवष्यक्ता के अनुसार चुनता है और स्विचिंग पर बैठे व्यक्ति को षॅाट रिकार्ड करने का आदेष देता है।
2 ट्राली पर रखा कैमरा- इस की दिषा, अवधि व फासला तयषुदा होता है। क्यू मिलने पर ट्राली ट्रैक पर सरकायी जाती है और कैमरामेन षॉट खोलता है, यहां कैमरामेन को अत्यन्त सावधानी बरतने की ज़रूरत है। षॉट पूरा करते समय फोकस का ख़ास ध्यान रखना पड़ता है। ट्राली को चलाने के पीछे खासे अभ्यस्त हाथ होने चाहिए अन्यथा अनाडी चालक षॉट की गति बिगाड कर षॉट खराब कर देंगें। चलाते समय किसी भी तरह के झटके नहीं लगने चाहिए, जिन से षॅाट में खलबली नज़र आये।
3 पैडॅस्टल षॉट- यह लचीला तरीका है, स्टूडियो में डॉली, एक तरह की पहियों वाली गाडी जो स्टूडियो की चिकनी फर्ष पर बिना किसी झटके के सरकायी जाती है, इस पर कैमरा रखा जाता है, इस पर रखे कैमरा को बिना जर्क के ऊपर नीचे, आगे पीछे किया जा सकता है, जिस से कैमरा का स्थान और षॉट के ऐंगल को बदलने में आसानी होती है। इस के अतिरिक्त अपनी आवष्यकता के अनुसार आप कैमरा कहीं भी रख सकते हैं, पर यह स्थान उपयुक्त और षॉट की जरूरत के मुताबिक सही होना चाहिए।
लेन्स एवं ऐंगल-
कैमरा लेन्स किसी भी दृष्य के आकार को छोटे, बडे, या मध्यम आकार में बदल सकता है। इस की बनावट में प्रयोग किये गये षीषे की तीव्रता, विषय की स्पष्टता को अभिव्यक्त करने में उपयोगी सिद्ध होती है। कैमरा लेंस अक्सर किसी भी दृष्य को 1.5 डिगरी ऐंगल से 360 डिगरी फिष आई ऐंगल तक के आकार में षूट कर सकता है।
आइरिस व एक्सपोजर-
षॉट के लिए हम कैमरा के मूंह को कितना खोलते हैं और किस अनुपात तक लाइट भीतर जाने देते हैं। कैमरा लेंस के भीतर झांकने पर आप देख सकते हैं, एक बैरल सा बना होता है और वहीं आप को बहुत सारे ब्लेडों का एक वर्त नज़र आयेगा, इसे आइरिस कहते हैं। यह लेंस अपरचर को नियंत्रित करता है और सी.सी.डी पर गिरने वाले प्रकाष को नियंत्रित करता है। इस को लेंस के दहान पर लगी एक रिंग को घुमा कर बदला जा सकता है। यह एक स्केल है जिस पर ;ि.ेजवच वत जतंदेउपेपवद दनउइमतेद्ध नम्बर लगे होते हैं, इन के अनुसार आप लेंस के भीतर जाने वाले प्रकाष के अनुपात को अपनी ज़रूरत के हिसाब से बदल सकते हैं। ऐसा करने से दो नतीजे तुरंत हाथ आते हैं।
1 यह प्रकाष की मात्रा को नियमित करता है जिस से पिक्चर की स्पष्टता और उस का रेखांकन सही झलकता है।
2 यह सीन की गहराई ;कमचजी वि पिमसकद्ध उभारने में मदद देता है जिस से वस्तु सही फोकस में रहती है।
एक्सपोजर कंट्रोल-
जैसा कि आप जान गये होंगे कि लेंस अपरचर अधिक खोलने पर प्रकाष भीतर अधिक मात्रा में प्रवाहित होगा,इस तरह क्षीन प्रकाष में भी हमें अच्छे नतीजे मिल सकते हें। कम रौषनी में तीक्षण लेंस अधिक्तम 1.5/फ स्टॉप अपरचर पर क्षीण लेंस 5.6/फ स्टॅाप से अधिक बेहतर नतीजे देगा।
आइरिस को एक हाथ की उंगलियों से, रिमोट कंट्रोल द्वारा या आटो आइरिस से कम अधिक किया जा सकता है।
उपयुक्त एक्सपोजर के लिए यह आवष्यक है कि रौषनी न इतनी कम हो कि सब कुछ अस्पष्टता में उलझ जाये और न ही इतनी अधिक कि सब कुछ धुलता लगे। यानी एक्सपोजर संतुलित और सटीक हो। आप सही एक्सपोजर डिगरी को अपने विवफांइडर या मॉनीटर पर तुरन्त देख कर चेक कर सकते हैं। यह देखना आवष्यक है कि जिस तरह का रिज़ल्ट आप चाहते हैं वह उत्पन्न हुआ है कि नहीं।
फोकस ;थ्वबनेद्ध
कैमरा उन सब वस्तुओं को सही और स्पष्ट फोकस में दिखाता है जो इस की तयषुदा फोकल रेंज में आती हों। हालांकि देखने में यह भी आता है कि कुछ नज़दीक और दूर रखी वस्तुऐं समान रूप से फोकस में दिख रहीं हों, पर इन की गहराइ के बोध में अछा खासा अंतर स्पष्ट नज़र आयेगा, जो कि कुछ सेंटीमीटर से लेकर अनन्त सीमा तक हो सकता है। यह फोकस के क्षेत्र की गहराई दर्षाता है, जिसे डेप्थ आफ फील्ड ;क्मचजी वि पिमसकद्ध कहते हैं। इसी प्रकार फोकस में आये क्षेत्र को, जहां तक कि हमें चीज़ें स्पष्ट फोकस में दिखती हैं, फोकल दूरी या फोकल डिस्टेन्स;थ्वबंस क्पेजंदबमद्ध कहते हैं। इस के बाद चीज़ें धुंधली या आवुट आफ़ फोकस;व्नज वि विबनेद्ध दिखती हैं। जहां तक आप के कैमरा का ज़ूम लेंस दूर की वस्तु के निकटतम जा कर फोकस टच कर पाता है, वह आप का ज़ूम सेटिंग या अन्य षब्दों में लेंस ऐंगल ;स्मदेम ंदहसमद्ध है। इन के परिर्वतन से षॉट में परिवर्तन होता है।
जैसा कि आप जानते हैं कि षॉट का वर्त 1.5 डिगरी से 360 डिगरी का हो सकता है, पर टेलीविजन में अक्सर 5 डिगरी से 50 डिगरी एेंगल के ही षॅाट प्रयोग में लाये जाते हैं। अक्सर हमारे टी.वी. स्क्रीन की लम्बाई और ऊंचाई का अनुपात 4ः3 होता है, इसी हिसाब से हम अपने षॉट का फ्रेम तय करते हैं। लेंस की फोकल लेंगथ, यानी वह दूरी जिस के फासले में दूर व निकट दोनें स्थानों की वस्तुऐं साफ नज़र आ रहीं हों,को ध्यान में रख कर ही निर्देषक अपना फ्रेम और षॉट तय करते हैं। इस प्रकार आप 5 डिगरी से 50 डिगरी या अधिक और प्रकारान्तर से इस को बदल कर षॉट कमपोज़ कर सकते हैं।
इस तरह हमें निकट, मध्यदूर व दूर के षॉट कमपोज़ करने को मिलते हैं। इस प्रकार जब तक कि न हमें इस की ज़रूरत हो, हम षॉट में किसी भी हिस्से को डिफोकस नहीं होने देते हैं। कई बार षॉट कलोज़ होता है और बैकग्राउन्ड बर्न करता है या अवांछित होता है, तो इसे हम जानबूझ कर डिफोकस में रखते हैं, यहां फोरग्राउंड को जानबूझ कर बैकग्रउंड से अलग किया जाता है, इसे षैलो फोकस कहते हैं। ऐसे षॉट में जो दूर का हो और जिस में हम हर पहलू को साफ फोकस में रखना चाहते हैं, जहां लोग अलग अलग दूरियों पर स्थित हैं और लम्बा चौडा क्षेत्रफल है, यहां कोषिष होती है कि नजदीक़ सामने के विषय से लेकर अंतिम छोर तक सब साफ दिखे, इसे डीप फोकस कहते हैं। इस में प्रकाष के संतुलन का ख़ास ख्याल रखना पडता है। जब हम दो वस्तुओं अथवा व्यक्तियों के बीच फोकस बदलते रहते हैं, इसे षिफ््ट फोकस हकते हैं। ओवर एक्सपोज़र से बचने के लिए एन.डी.फिल्टर का प्रयोग करना चाहिए।
विभिन्न कैमरा ऐंगल क्यों
हम टी.वी. पर दो आयाम की तस्वीर ही देखते हैं, हमें अच्छा लगता है, जब हम एक तस्वीर को अलग अलग कोण से देखते हैं, इस से हमारी वस्तु को अच्छे से देखने की उत्सुकता और इच्छा षांत होती है। हमारी ज्ञानइन्द्रयों की जिज्ञासा षांत होती है और हमें वस्तु की परिपूर्णता का आभास होता है। यही कारण हैं कि हम आयाम बदल बदल कर विभिन्न ऐंगल के षॉट लेते हैं। उपयुक्त कैमरा ऐंगल षॉट को अर्थ प्रदान करता है, वही कैमरा के फ्रेम को व्यर्थ आडा तिरछा या छोटा बड़ा करके चित्र की प्राकृतिक छवि को बिगाडने से षॉट के अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
आम तौर पर 20 से 27 डिगरी के षॉट टी.वी. पर प्राकृतिक दिखते हैं। पर हम 5 से 50 डिगरी के षॉट का उपयोग बहुत महारत से करते हैं, यह अधिक भी हो सकता है।
वास्तव में हम षॉट को मोटे तौर पर तीन प्रकार में बांट देते हैं। एक वाइड ऐंगल, जिस में अधिक से अधिक क्षेत्र आ सकता है, दूसरा सामान्य ऐंगल, यह 20 से 25 डिगरी का षॉट होता है और लांग-मिड या मिड षॉट के लिए प्रयोग किया जाता है, तीसरा नैरो ऐंगल षॉट होता है जो 5 से 10 डिगरी के बीच होता है, इस में वस्तु को निकट से देख सकते हैं।
कैमरा को 20 से 25 डिगरी ऐंगल पर रख कर भी हम नज़दीक और दूर के षॉट ले सकते हैं, पर यह काम कैमरा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हिलाये बिना नहीं हो सकता है। इस बीच षॉट रोकना पड़ सकता है, जिस में काफी समय लगता है।
हालांकि अच्छा यही है कि हम सामान्य ऐंगल को न बदल कर दूरी और गहराई के अनुपात को बिगाडे बिना षूट करें पर विभिन्न ऐंगल से षूट करने से निष्चित रूप से जो सीन में विविधता उत्पन्न होगी, वह अन्यथा नहीं हो सकती है।
जैसे संकुचित स्थान में वाइड ऐंगल लेंस के प्रयोग करने से स्थान की सारी जगह नज़र आयेगी और आकार में भी फर्क नज़र आयेगा, इस से षॉट में नज़र आते लोग सिकुडे नज़र नहीं आयेंगें।
लेंस ऐंगल से हम जान सकते हैं कि हमारा कैमरा एक स्थान विषेष से किस आकार का सीन कवर करने वाला है। जहां नैरो ऐंगल लेंस एक आदमी का बड़ा सर दिखा रहा होगा वहीं वाइड ऐंगल दस आदमियों को छोटे आकार में दिखायेगा।
वाइड ऐंगल
इस में 30 से 60 डिगरी या इस से अधिक रेंज के षॉट में एक लम्बे चौडे क्षेत्रफल को दर्षाया जा सकता है। इस में मोटे तौर पर तो इस क्षेत्रफल में उपथिस्त हर वस्तु नज़र आयेगी पर जहां बड़े आकार की वस्तुऐं साफ नज़र आयेंगी वहीं छोटे आकार की चीज़ों की सूचना इतनी स्पष्ट नहीं होगी। उदाहरणता क्रिकेट मैच को देखते समय स्टेडियम के सम्पूण क्षेत्रफल को दषर्क व खिलाडियों के समेत दिखाने के लिऐ वाइड ऐंगल का प्रयोग किया जाता है, इस में हर वस्तु व व्यक्ति षामिल होगा पर इन को इस दूरी से आसानी से पहचानना मुमकिन नहीं होगा। छोटी वस्तुऐं तो षायद ठीक से नज़र भी न आ जायें। ऐसा षॉट आम तौर पर एक स्थान के समग्र चित्र को प्रस्तुत करने के लिए लिया लाता है, बाद में जब यहां के कलोज़ या मीडियम षॉट दिखाये जाते हैं, तो हम इन्हे पहले के पूर्व संदर्भ के साथ जोड कर देखते हैं, जो दृष्यां में निरन्तरता का बोध कराता है।
इस ऐंगल की अपनी खूबियां व दोष हैं। खूबी यह है कि इस में समग्र दृष्य समाहित होता है और हमें उपस्थित लोगों की संख्या एवं वहां के समूचे वातावरण के चित्र का सामान्य अनुमान प्राप्त होता है। यह चित्र हमारी यादाष्त में अंकित होता है, जो बाद के सम्बन्धित दृष्यों के साथ तालमेन बिठाने में सहायक सिद्द होता है। इस प्रकार हम एक समूचे घटनाक्रम को सिलसिलेवार रूप में अन्य छोटे एवं मध्य दूरी के दृष्यों के साथ जोड कर एक निरन्तरता में देख पाते हैं। यानी जब हम इस ऐंगल के षॉट के बाद कहीं खिलाडियों के या स्टेडियम के अथवा गेंद के या दषर्क के कलोज़अप या मिड षॉट देखते हैं तो हमारी पूर्वस्मृति में संचित दृष्यों के साथ यह जुड कर एक सिलसिला बनाते हैं।
दोष यह हैं कि इस में बारीक़ दलीलें उभरती नहीं दब जाती हैं। सब्जेक्ट छोटा और दूर नज़र आता है। फ्रेम के नज़दीक आने पर सब्जेक्ट खण्डित नज़र आता है।
नैरो ऐंगल
यदि वाइड ऐंगल में सम्पूर्ण दृष्य नज़र आता है तो नैरो ऐंगल में उस का कोई विषेष अंग निकट से देखा जा सकत है। जैसे पहले वाइड ऐंगल में जहां समूचे स्टेडियम को देख पा रहे थे पर चीज़े छोटी और दूर दिखती थीं वहीं अब स्टूडियो का सारा भाग न दिखे पर चीज़े नज़दीक और बडी दखिंगीं। यह 5 से 15 डिगरी का षॉट हो सकता है जिस में बैट हाथ में लिए बैटस्मैन के अतिरिक्त स्टम्प और वीकेटकीपर भी दिख रहा हो।
नैरो ऐंगल में टेलेसकोप की तरह किसी चीज़ को काफी क़रीब से देख सकते हैं। यहां फोकस का खास ध्यान रखना पडता है, क्यों कि बहुत नज़दीक होने के कारण ज़रा भर जुम्बिष भी षॉट का संतुलन और फोकस बिग़ाड सकती है। यह भी मुमकिन है कि तस्वीर पहले जैसी स्पष्ट और प्रभावषाली न दिखे क्यों कि इस ऐंगल में चौडाई और गहराई सिमटने और गोलाई उचकने का डर रहता है, इस लिए कैमरा एहतियात से सम्हालना आवष्यक है। यहां सचमुच सांस रोक कर काम करने वाली बात है। कैमरा स्टेंड पर सही बैलेंस किया जाना चाहिये, नहीं तो षॉट टेडा दिखेगा। इन सब बातों का विषेष ध्यान रखना ज़रूरी है,न हो तो कैमरा वाइड ऐंगल पर रख कर सब्जेक्ट के निकट जा कर कलोज़ षॅाट तो ले ही सकतें हैं।
नार्मल ऐंगल
यह 20से 27 डिगरी का होता है। यह न अधिक दूर और न अधिक नज़दीक अपितु मध्य दूरी का ऐंगल है, यह उपयुक्त और काफी समीचीन प्रयोग है।
ज़ूम लेंस ;र्ववउ समदेमद्ध
ज़ूम लेंस आमतौर पर 3ः1 से 42ः1 या इस से अधिक अनुपात के होते हैं। यह आप स्वयं हाथ से आप्रेट कर सकते हैं या बटन दबा कर आटो आप्रेटिंग मोड पर आप्रेट कर सकते है। इस को आगे पीछे कर के षॉट के आकार को घटा बढ़ा कर नैरो, मीडियम और वाइड ऐंगल में बदला जा सकता है। इस का प्रयोग सधे हाथों से होना चाहिए, अन्यथा हाथ ढीला होने पर षॉट में अधिक हिलना डुलना और झटके के साथ डिफोकस का भय रहता है। इस तरह जू़म सधा हुआ, स्पाट, बिना खलबली के ,सटीक , नपातुला सही आंका और सोचा समझा होना चाहिए। इस से काफी नाटकीयता उभारी जा सकती है।
इस का प्रयोग दो प्रकार से विषय वस्तु को निकट लाने यानी जूम इन और विषय वस्तु से दूर जाने यानी जूम आउट के रूप में होता है। कैमरा में मैन्यूअल और आटो जूम लगा होता है, जिस में से आप अपनी ज़रूरत के हिस्साब से चयन कर सकते हैं। आप अपने स्थान पर स्थिर अथवा चलते विषयवस्तु को अपने नज़दीक, मध्य या दूर फोकस कर सकते हैं। जिस रफतार से यह काम करेंगें इसे जूम की गति या स्पीड कहते हैं। आप धीमी गति, मध्यम गति, तेज़ गति या क्रैष जूम कर सकते हैं। पर यह अर्थपूर्ण और नियंत्रित होना चाहिए। जूम इन या आउट करने से पहले लक्षित विषय पूरी तरह जूम इन कर के फोकस तय करना चाहिए इसे टच फोकस कहते हैं, इस से जूम का रेंज फिक्स होता है और अब इस फासले तक आप षॉट के दौरान कभी भी इसे नज़दीक या दूर करेंगें तो षॉट डिफोकस नहीं होगा।
आज कल स्टूडियो कैमरा के पैन रॉड पर षॉट बॉक्स लगे होते हैं, जो बटन दबाते षॉट देते हैं, यह काफी आसान तरीका है, जिस से तुरन्त लांग, मिड या कलोज़ षॉट पर जाया जाता है। पहले के मुकाबले यह काफी आसान तरीका है। पहले पहल षॉट बदलने के लिए कैमरा में लगी लेंस पलेटे बदलनी पडती थीं, जिस में अधिक समय लगता था, अब जूम लेंस से षॉट तुरंत बदल सकते हैं, ऐसा ही षॉट बक्स से भी संभव है।
जूम और हलचल
जूम के प्रभाव को अधिक प्रभावषाली और अभिव्यक्ति पूर्ण बनाने के लिए इसे दृष्य में हो रही ऐक्षन के साथ जोड कर इस का प्रयोग होना चाहिए। दौडती कार के साथ अगर आप इसे पैन के साथ इन या आउट करें गे तो अछा जमेगा।
कैमरा प्लेसमेंट
षूटिंग के लिए कैमरा कहां पर रखें? यह एक अहम निर्णय है, कैमरा किस जगह से ऐक्षन रिकार्ड कर रहा है, यह कवरेज के नतीजे को दर्षायेगा। कैमरा को हम विषयवस्तु के संदर्भ में मोटे तौर पर तीन रूप से प्लेस कर सकते हैं। 1.विषयवस्तु की तरफ ऊपर से नीचे देखते,2. विषयवस्तु की बिलकुल सीध में, आंख की सीध में देखते,3. और इस के नीचे से ऊपर देखते। पहला षॉट टॉप ऐंगल कहलाता है, दूसरा आई लेवल और तीसरा लो ऐंगल।
टॉप ऐंगल में विहंगम दृष्टि का बोध होता है, इस में ऊंचाई से नीचे देखने के कारण विष्यवस्तु क़द में दुबकी लगती है, क्षेत्रफल चौडा नज़र आता है, नाटक में किसी नाटकीय प्रभाव को यह बहुत खूब ढंग से उभार सकता है।
लो ऐंगल में इसी प्रकार विषयवस्तु का आकर बढ़ जाता है, यह भी नाटकीयता को उजागर करता है। किसी के प्रभाव व उपस्थिति को बढ़ा देता है।
आई लेवल टू षॉट के लिए उपयुक्त समझा जाता है।
षॉट का अर्थ क्या है।
कैमरा एक बार खुलने से ले कर बन्द होने तक षॉट कहलाता है। हम कैमरा के ऐंगल और फोकस के बारे में आप को बता चुके हैं। षॉट में इन का काफी महत्व होता है। कैमरा का फ्रेम जितना अधिक या कम रखा गया हो, उतना ही ये क्षेत्र दिखायेगा और जिस तरह के ऐंगल और साईज़ का यह सबजेक्ट दिखायेगा वैसा हमारा षॅाट कहलायेगा। तात्पर्य यह कि कैमरा अपने फ्रेम में जिस साइज़ का क्षेत्र दर्षाता है वह षॉट का हिस्सा बनता है। जो कुछ फ्रेम के भीतर है, बस वही षॅाट का अंग है। इस प्रकार हम केवल आवष्यक वस्तुओं को ही फ्रेम में षामिल करते हैं। फ्रेम संतुलित और सार्थक होना बहुत आवष्यक है। इस का मतलब यह है कि फ्रेम में दिखने वाली हर वस्तु सुसम्बन्ध और स्पष्ट नज़र आनी चाहिए। एक व्यक्ति का षॉट बिलकुल फ्रेम के बीचों बीच रहने पर ष्षायद इतना अच्छा न लगे जितना ऑफ सेंटर में लगे गा। इसी प्रकार दो व्यक्तियों के बीच अगर टू षॉट में आपस में बहुत फासला रखा गया है और दोनों के बीच का फ्रेम एकदम खाली है, तो यह संतुलित षॉट नहीं होगा। पात्रों को षॅाट के हिसाब से एडजेस्ट करना चाहिए और फ्रेम को बराबर संतुलित रखना चाहिए। एक, एक षॉट जोड कर एक सीक्वेयन्स तैयार होती है और विभिन्न सीक्वेयन्स एक सीन बनाते हैं।
जैसे, एक सीक्वेसन्स में एक चोर पुलिस से भागता हुआ एक घर में घुस जाता है और वहां पर रह रही अकेली महिला को बन्दूक की नोक पर चुप रहने का आदेष देता है। पुलिस चोर को तलाषती घर में घुस जाती है। महिला चोर के भय से पुलिस से झूठ कहती है कि चूर घर में नहीं आया है। इस एक घटना को फिलमाने के लिए हम इसे कुछ इस प्रकार लिख कर फिलमायेंगें।
पहला षॉट समय, दिन सायंकाल लोकेषन सड़क
लांगषॉट टॉपऐंगल 20 सैकन्ड
चोर सड़क पर भाग रहा है
पुलिस के 5 से 6 व्यक्ति उस के पीछे
भाग रहे हैं, कैमरा पेन के साथ ज़ूम इन करता ऐक्षन के निकट
आने लगता है, चोर मोड की तरफ भागता है। कट
दूसरा षॉट 05 सैकन्ड
मिडषॉट, खाली फ्रेम में चोर प्रवेष करता है ष्षॉट तेजी से ज़ूम अवुट होता है ,अब फ्रेम में चोर के पीछे भागती पुलिस भी दिखती है।
इन दो षॉट को जब हम एडिटिंग पर मिलायेंगें तो हमें इस बात का पता चलेगा कि हम ने एक सोचे और व्यवस्थित रूप से एक बात कहने की कौषिष की है।
षॉट के प्रकार
मोटे तौर पर हम षॉट को तीन शगों में विभाजित करतें हैं। दूरी के लिए, लांग षॉट, कम दूरी के लिए, मिड षॉट, और निकट का, कलोज़ अप। इस के अतिरिक्त, अतिदूर, एॅक्सट्रीम लांग, मंजली दूरी का, मिड लांग और भव्य निकटता का, बिग कलोज़ अप, षॉट के आकार के आधार पर विभाजित किये जा सकते हैं। हलांकि यह विभाजन अंतिम नहीं। इस के अतिरिक्त षॉट में पात्रों की उपस्थिति के आधार पर भी हम इसे, सिंगल, टू , थ्री षॉट और फुल षॉट में बांटते हैं।
क्या इस प्रकार सीन को षॉट में बांटना ज़रूरी है? कैमरा तो बस ऑन करते ही अपने आप तस्वीरें लेना षुरू करता है, फिर इतनी सरखपाई किस लिए?
वर्षां से फिल्म बनाने की एक तकनीक दुनिया में पनपी और विकसित हुई है, जिस को आधार बना कर हर फिल्म बनाने वाला फिल्म को अपने अन्दाज़ और ज़रूरत के हिस्साब से बनाता है।
जिस प्रकार भाषा की अपनी मानक षब्दावली होती है, जिस से अक्षर और वाक्य बनते है, ठीक वैसे ही फिल्म के लिए विजुअल व्याकरण है, जिस का निर्माण, षॉट, दृष्य और घटनाओं से होता है। इस व्याकरण को विष्व स्तर पर पहचान मिली है और यह फिल्म बनाने का मानक रूप धारण कर चुका है। इस के बतार्व में एक सहजता है, जिस से कैमरामेन और निर्देषक का कार्य सम्प्रेषनीय और सरल हो जाता है।
षॉट को फ्रन्टल यानी बिलकुल सामने से, साइड यानी दायें व बायें तरफ से, 3/4 सामने मुख से, या बिलकुल पीछे से लिया जाता है।
हम यह जान गये हैं कि विभिन्न षॉट जोड कर एक सीन तैयार किया जाता है। विभिन्न सीन, एक घटनाक्रम यनी सीक्यूंस को जन्म देते हैं और इस घटनाक्रम से एक कथानक ‘नरेटिव’ जन्म लेता है। हम अक्सर छोटे छोटे षॉट को जोड कर एक सीन और इन सीनों से एक घटनाक्रम का निर्माण करते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि किसी कैदी को जेल से भागने का विचार आता है और वह गुप्त रूप से इस की योजना बनाता है, फिर इस योजना के अनुरूप भागने का प्रयत्न करता ह,ै पर नाकाम रहता है, तो यह एक निहायत ही दिलचस्प कहानी है, जिस की मुख्य घटना एक कैदी का जेल से भागने की कोषिष आदि दर्षना है। इस घटना के विभिन्न आयाम हैं, जिन के अनुरूप एक कहानी का घटन स्टोरी बोर्ड के रूप में तैयार किया जायेगा। यह घटना जो कि अपने आप में एक संपूर्ण कथा है, या किसी बड़ी कथा का एक हिस्सा हो सकती है।
कैदी के मन में भागने का विचार ज़ोर पकड़ रहा है। वह अपने आस-पास के माहौल का जायज़ा लेता है। वह अकेला कैदी है जिसे कोठरी बंद कमरे में कैद किया गया है। कोठरी के दरवाज़े पर एक पहरेदार रहता है, दोपहर षाम एक आदमी खाना दरवाज़े पर लगे कटअउट से थमाता है, कैदकोठरी में रौषनी और हवा के लिए दीवार की एक तरफ ऊपर एक रैषनदान है, कैदी का बाहर की दुनियां से किसी प्रकार का अन्य सम्पर्क नहीं है।
इस परिदृष्य को अगर हम एक लांग षॉट पर कैमरा रख कर दर्षायें गें तो कहानी की घटना तो दिखे गी, पर कहानी में जो द्वन्द्व है, और कैदी के मन में जो उथल-पुथल है, वह कहीं नज़र नहीं आयेगी। और फिर क्या हम सारा दिन घटनाओं के घटित होने की प्रतीक्षा करते रहें ?। षायद नहीं, क्यों कि वास्तविक समय और , स्क्रीन समय में काफी अन्तर होता है। स्क्रीन पर हम कुछ ही घंटों में एक पूरे युग का इतिहास दर्षाते हैं। जिस के लिए हम फिल्म की विषेष तकनीक का प्रयोग करते हैं।
इस सब को उभारने के लिए हमें उस तकनीक का सहारा लेना होगा जिसे षूटिंग तकनीक कहते हैं और जिसे हम षॉट डिवीजन में समझा चुके हैं।
परम्परा गत रूप में हम पहले कोठरी में बैठे कैदी को ऐक लांग षॉट में स्थापित करके कहानी को आगे बढायेंगे। पर इस को नाटकीय रंग देने के लिए हम घटना को आरम्भ से ही उठान देने के लिए, कैदी के लिए खाना लाते आदमी का जेल की तंग गली से कोठरी की तरफ आने का षॉट दिखायेंगें। इस पर कोठरी में बैठे कैदी के एकदम चौंकने का षॉट इनटरकट करते हैं, जो इन के रिषते की व्याख्या करता है। कैदी दरवाजे तक पहुचता है, हम भीतर से दरवाज़े पर लगे कट अउट का कलोज़ षॉट लेते हैं, जहां से खाने की पलेट भीतर सरकायी जा रही है, हम कैदी के चेहरे के हावभाव दिखाने के लिए उस का कलोज़अप दिखाते हैं। उस का चेहरा तना और फिक्रमंद है। वह रौषनदान की तरफ सर घुमाता है, हम उस के नज़रये से रौषनदान का एक कलोज़अप लेते हैं। हम एक फ्रंटल षॉट में कैदी को रौषनदान से नज़रें हटाते हुए दिखाकर खडे होकर कैमरे की तरफ आते दिखाते हैं, यहां कैदी के पीछे से हम उसे कटअउट के पास दो हाथों में रखी पलेट ले कर वापस अपने स्थान पर बैठते दिखाते है।
इस प्रकार षूट करने से कथातत्व के साथ माहौल और चरित्र उभर कर सामने आते हैं। इस तरह की षूटिंग के लिए विधिवत षूटिंग पलान बनाना आवष्यक है। आप ने नोट किया कि हम ने कहानी के एक अंष को अलग अलग षॉट में बांटा, तब इसे इस घटनाक्रम में रखने की कौषिष की जहां यह एक दूसरे से मेल खायें। इस सारी षूटिंग में हम षॉट आगे पीछे कर के भले लें, यानी पहला षॉट अपनी सुविधा से पहले लें यां अंत में, पर इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवष्यक है कि सब षॉट एडिटिंग टेबल पर जुडने चाहिए।
कहने का मतलब है कि अलग अलग षॉट में षूट करने के पष्चात, जैसे हम ने सोचा है उस प्रवाह में कहानी जोड नहीं पाये तो ज़ाहिर है कि षूटिंग में कुछ त्रुटियां रहीं हैं, जिन पर षूटिंग के समय ध्यान नहीं गया है।
यहां यह बात समझना बहुत ज़रूरी है कि फिल्म बनाना सिटिल फोटोग्राफी से बहुत मिलता जुलता होने के बावजूद, इस रंग में बिलकुल अलग है कि आप किसी भी कहानी या फंक्षन का कोई भी फोटोग्राफ उठा कर देखेंगे तो वह अपनी जगह परिपूर्ण होगा। इस को सीक्यूंस में देखने की जरूरत नहीं होगी। जैसे आप अपने दोस्त की षादी के फोटेग्राफ देख रहें हैं, तो आप कोई सा भी फोटोग्राफ उठा कर देखना षुरू करें गें, ऐसा षायद उस की वीडियो देखते नहीं करेंगे। यहां आप को कहानी प्रवाहमय और आपस में जुडी नज़र आनी चाहिए।
अब हम देखते हैं कि हमारी अभी तक की फिल्म कैसी दिखती है। हम एक व्यक्ति को क़ैदी के लिए खाना लाते देखते हैं। फिर क़ैदी को खाना लेते और खाना लाने वाले आदमी को जाते देखते हैं। अगर यह प्रवाह हम कहानी को दे पायें तो हम ने सही षूट किया है। अन्यथा कहानी में जोड न मिलने के कारण कहानी में अनावष्यक उच्छाल नज़र आयेंगा, जो कहानी में बाधा उत्पन्न करेगा जिस से कहानी अवरूध होगी और दर्षक कहानी में दिलचस्पी खो देगा।
इस प्रकार कहानी का षॉट डिवज़न ऐडिटिंग को ध्यान में रख कर किया जाता है। कहानी छोटे छोटे टुकडों में षूट कर के बाद में आपस में जोडी जाती है।
किसी के षादी का वीडियो देखते अगर आपने दूल्हे को गेट से अन्दर क़दम रखते ही मंडप पर दुलहिन के साथ फेरे लगाते देखा तो आप को अटपटा लगता है, क्योंकि आप को इस बीच का ऐक्षन मिसिंग नज़र आता है, यहां षॉट में सीन जम्प खा गया, जो आप को खटका, हां इस बीच अगर कहीं बारातियों को खाना खाते दिखाया होता, या बारातियों की चहल पहल व औरतों के गाने बजाने के कुछ दृष्य जोडे गये होते तो इन कटअवे षॉट के कारण दर्षक को कुछ भी बीच में अटपटा न लगता और वह सारी कहानी निरन्तर प्रवाह में देखता। कटअवे षॉट समय गुज़रने का अहसास दे गया, जिस के कारण बाद में वापस मंडप पर नया दृष्य जुडने से कोई समस्या नहीं हुई।
इस प्रकार कहानी का कथातत्व विकसित होता है। यानी कथातत्व को फिल्म के माध्यम से आगे बढाया जाता है। वास्तव में फिल्म मेकिंग अथवा टेलीविजन कार्यक्रम बनाने की तकनीक, फोटेग्राफी का ही आधुनिक विकसित रूप है। जहां पेंटिंग या स्टिल फोटो देखते समय हम इन्हें क्रमवार देखने को बाध्य नहीं, वहीं फिल्म या टी.वी. में मूवमेंट का समावेष होने के कारण, इस की निरन्तरता में व्यवधान से हम इस में दिलचस्पी खो देते हैं, क्यों कि हमारी दृष्टि में इस के विवरण अधूरे और छिन्नबिन्न होते हैं।
कट
एक षॉट से दूसरे के बीच कैमरा बंद होता है, इसे कट कहते हैं। एडिटिंग पर जब हम षॉट से षॉट मिलाते हैं तो इसे ‘ज्वाइन’ जोड कहते हैं। एक षॉट को दूसरे से मिलाने के अलग अलग तरीके हैं जिसे ट्रांज़िषन कहते हैं। हम षॉट को सीधे कट से दूसरे कट के साथ मिलाते हैं, इसे कट टु कट मिलाना कहते हैं। इसी प्रकार एक षॉट को दूसरे में विलीन करते डिज़ालव के द्वारा, फेड इन व आवुट के द्वारा, वाइप के द्वारा और अन्य ट्रांज़िषनल इफेक्ट से आपस में जोड सकते हैं। पर इस तरह षॉट को आपस में मिलाने के पीछे एक तथ्य काम करता है और यह बिना किसी मतललब के नहीं होता है।
जहां घटनायें एक के बाद एक तुरन्त समानान्तर घटती दिखानी होती हैं, वहां हम एक षॉट से दूसरे पर तुरन्त कट करते हैं और परलेल एकषन उभारने के लिए सीन वाइप भी करते हैं। किन्तु जहां एक सीन से दूसरे के बीच समय का व्यवधान है, वहां हम डिज़ालव का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हम एक स्थिति से दूसरी पर आने के लिए क्रास फेड का प्रयोग करते हैं। हम कईं तरह से षॉट की इस पंचुयेषन का प्रयोग करते हैं।
मोंटाज
रूस के विष्वप्रसिद्ध फिल्ममेकर लीयो कुलषोव ने फिल्म तकनीक में मोंटाज पर बहुत बल दिया है। कुलषोव वास्तव में अमरिका के हालीवुड सिनेमा से काफी प्रभावित थे। उन का मानना है कि फिल्म स्टेज ड्रामा से एकदम बिलकुल अलग विधा है। स्टेज पर एक डांसर को देखते हुए हम अपनी जगह बैठे, एक निष्चित फासले और ज़ाविये से देख रहें होते हैं। इस अनुपात में डांसर का आकार सारे षो के बीच लगभग एक जैसा दिखे गा, यानी हम इसे लगातार एक लांग षॉट में देखते रहेंगें। अगर इसे ऐसे ही ज्यूं का त्यूं षूट किया जाये तो पर्दे पर यह बिलकुल बेकार नज़र आयेगा। क्यों कि यहां न तो मुख की मुद्रायें नज़र आयेंगीं और न अंग प्रत्यांग की भाव-भंगिमायें ही प्रभावपूर्ण लगेंगीं। यदि इसी डांस को फिल्म के या वीडियो के अनकां षॅाट में बांट कर आपस में क्रमवार जोडकर मोंटाज के रूप में दिखाया जाये तो ग़ज़ब का डांस सामने नज़र आयेगा।
मोंटाज एक्षन को गति और मायने प्रदान करता हैं। इस से महत्व के नुक्तों को उभारा जाता है, जिस से आप के कथन की स्पष्टता व्यक्त होती है।
इस प्रकार कहानी को रोचक बनाने के लिए मोंटाज के रूप में तैयार किया जाता है। जिस तरह संगीत में स्वरों के माध्यम से एक धुन बनाइ जाती है और उस धुन में आरोह और अवरोह के क्षण होते हैं, कहीं किसी स्वर पर अधिक बल दिया जाता है तो किसी को बिलकुल छोड दिया जाता है, ठीक इसी तरह सीन को बनाने में षॅाट के उतार चढाव ;ेंबमदकएकमेबमदकद्ध का प्रयोग किया जाता है। एक षॉट दूसरे का प्रतिपूरक होना चाहिए न कि अलग थलग लगना चाहिए। आम तौर पर इस के लिए हम आसान त्रिदेव तकनीक यानी ट्रिप्ल टेकनीक का प्रयोग करते हैं। इस में लांग, मिड, और क्लोज़अप का क्रमषः एक के बाद दूसरे का उपयुक्त ढंग से आरोह व अवरोह के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह काफी आसान तरीका है। सीन का एक फुल षॉट ‘मास्टर’ ले कर बाद में मिड और क्लोज़अप लिए जाते हैं, एडिटिंग में आप के पास षॉट जोडने में किसी प्रकार की दिक्कत के अवसर कम हो जाते हैं। क्यों कि आप के पास हमेषा एक मास्टर षॉट पहले से तैयार है। अब इन षॉटस को त्रिदेव तकनीक के क्रम से एडिट किया जाता है। यानी लांग षॉट फिर मिड और कलोज़अप औैर वापिस कलोज़, मिड और लांग षॉट दे कर सीन का क्रम बनाया जाता है। दो व्यक्तियों के आमने सामने बातचीत की मुद्रा में बैठे हम उन के ठीक आगे से और एक दूसरे के कांधे के उपर से षॉट लेते हैं।
प्वाइंट आफ व्यू
यह विषयीगत ;ेनइरमबजअमद्ध विषयगत ;वइरमबजपअमद्ध एवं तटस्थ ;दमनजतंसद्ध कैमरा ऐंगल, कैमरा प्वाइंट आफ व्यू कहलाते हैं। यहां कैमरा तीन परिप्रेक्ष से काम में लाया जाता हैं। एक, जहां कैमरा किसी दृष्य को तटस्थ इंगित करता है, दूसरा जहां व्यक्ति विषेष या वस्तु को चित्रित करता है, तीसरा जहां कैमरा व्यक्ति विषेष का स्थान लेता है, और उस की दृष्टि से देखता है।
एक नायिका के नदी में कूदने जाने का दृष्य लेते हैं। वह तेज़ दौडती जा रही है, उसे कैमरा दौडते दिखाता है, यह ओब्जेकटिव षॅाट है, बीच में वह नदी का प्रवाह देखती है और हम उस की दृष्टि से देखे प्रवाह को देखते हैं, यह सबजेकटिव षॅाट है, क्यों कि यह नायिका के प्वाइंट आफ व्यू से लिया गया है।
इस बीच रेल की पटरी पर भागती ट्रेन का एक तटस्थ षॉट भी दिखाया गया जो हमारी चिंताजन्य उत्सुकता को जगाता है। यह विधान मांटाज को पूरे तौर पर अंकित करता है।
टी.वी. और कलोज़अप
टेलीविजन को आमतौर पर कलोज़अप का माध्यम कहा जाता है। छोटे स्क्रीन पर बडे वाइड ऐंगल के दृष्य अधिक समीचीन नहीं दिखते। क्यों कि इन में अक्सर मुख्य दलीलें दब जाती हैं और केवल एक बडा विस्तार ही नज़र आता है। जब कि मिड और कलोज़अप षॉट काफी आत्मीयता उभारते हैं और स्पष्ट और नज़दीक दिखते हैं, इस के बावजूद वाइड ऐंगल षॉट टी.वी कार्यक्रमों में अपना विषष्ट और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। क्रिकेट का मैदान हो या कोई बडा संगीत का दमाल या बडे खुले मैदान में किया गया कोई षो, इन में वाइड ऐंगल या लांग षॉट का जो असर है उस की पूर्ति किसी अन्य षॉट से नहीं हो सकती। किन्तु फिर भी यही हक़ीक़त है कि टेलीविजन में अधिक ज़ोर मिड षॉट और कलोज़अप पर ही दिया जाता है।
टाइमिंग
हर षॉट की टाइमिंग का ध्यान रखना आवष्यक है। षॉट ज़्यादा लम्बा न ज़्यादा छोटा होना चाहिए। यह जितनी देर भी है, स्क्रीन पर सार्थक लगना चाहिए। यह एक अहम फैसला है कि आप षॉट को कितनी देर स्क्रीन पर बने रहना देना चाहते है। अगर इस फैसले में कोई ग़लती हुई तो कथा का प्रवाह बाधित होगा और षॉट अपना प्रभाव खो देगा। कोई भी षॉट ज़रूरत से अघिक या कम स्क्रीन पर नहीं टिकना चाहिए। एक षॉट के बाद दूसरे का चयन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। यह काम काफी सूझबूझ और महारथ का है। एक लांग षॉट पर दूसरा लांगषॉट जर्क पैदा करेगा, इसे टालना बेहतर है। उपर दिया गया त्रिदेव तकनीक हालांकि एक सार्थक विधान है पर यह भी केवल सांकेतिक है। षाट का महत्व संबन्धित वस्तुस्थिति और विषय की अनुरूपता पर निर्भर करेगा। षॉट का चयन करते समय तकनीकी पक्ष का ख्याल रखना आवष्यक है।
षॉट का संयोजन इस प्रकार से हो कि कथातत्व बाधित न हो और दर्षक को कुछ भी असंगत, अटपटा, या दुरूह न लगे। षॉट के क्रमिक विकास में झटके या जम्प न हों। इस लिए सब षॉट के आपसी संबन्धतत्व को ध्यान में रखना ज़रूरी है।
इस के अतिरिक्त कैमरा मूवमेंट का विषेष ध्यान रखना जरूरी है, यह सार्थक, एवं वैचारिक होना चाहिए। हमें कैमरा को रेंगने से लेकर तेज़ हरक़त में चलाना पड़ सकता है, हमारा कैमरा संतुलित, एकदम ‘स्मूथ’ और सहज रहना चाहिए। यह चरित्रों अर्थात विषयवस्तु को गति प्रदान करता है। इस में प्रकाष, फोकस, व क्षेत्रसीमा का ध्यान रखना आवष्यक है। हर स्थान पर रंग, एवं प्रकाष संतुलित हो।
कैमरा मूवमेंट के समय जब हम कैमरा किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के निकट ले जाते हैं, या इसे ज़ूमइन करते हैं, तो ज़ाहिर है कि हम इसे उभारना चाहते है। और यदि कैमरा इस से दूर ले जाते हे। या ज़ूम अवुट करते है तो षॉट में और अन्य वस्तुओं, व्यथ्क्तियों एवं माहैल को षामिल करना चाहते हैं। ज़ाहिर है कि कैमरा के मूवमेंट का एक विषेष उद्धेष्य और अर्थ होता है। इस लिए यह अछी तरह सोचा समझा और सअभिप्राय होना ज़रूरी है।
यदि आप कोई उत्सव या पर्व लाइव क्वर कर रहें हैं तो इस की पूर्व जानकारी और अघ्ययन होना अत्यन्त आवष्यक है। अन्यथा ऐनवक्त पर आप हैरान हो कर कुछ जानकारी हासिल करने के लिए केवल इधर उधर भागते और हाथ पैर मारते रह सकते हैं। इस पर्व का समयक ज्ञान, रस्समों और संस्कृति की पहचान, उपस्थित सभी विषिष्ट व्यक्तियों की पहचान और उन के सही नामों का ज्ञान आवष्यक है। तभी आप अपने सही षॉट दे पायेंगें। इस प्रकार यह पर्व सार्थक रूप में दर्षकों तक प्रसारित हो पायेगा।
आप को महाभारत में संजय का काम निभाना है, इस लिए अपनी समस्त इन्द्रियों, खास कर अपनी आंखों और कानों को सदैव चौकन्ना रखना है, दृष्य श्रव्य मीडिया में इन की सतर्कता पर ही तो सब कुछ निर्भर करता है।
प्रकाष व्यवस्था
आप चाहे स्टूडियो में षूट कर रहें हों या बाहर लोकेषन पर आप की प्रोडक्षन की सफलता में प्रकाष व्यवस्था की एक विषेष भूमिका है। यह विषयवस्तु की स्पष्टता, रंग, बनावट, लक्षण व भावभंगिमा को उभारने में मदद करती है। मोटे तौर पर हम प्राकृतिक प्रकाष की दो स्थितियां पहचानते हैं, एक जब खिली धूप होती है और दूसरी, जब आकाष बादलों से पूरा ढका होता है। खिली धूप, सख्त तेज़, चमकीली और नीलिमा के पुट में दिखती है, जबकि बादलों से भरा आकाष हर तरफ एक सी मन्द रौषनी छितराता है। खिली धूप का तेज़ प्रकाष हार्डलाइट और बादलों से छितरा आकाष सॉफट लॉइट कहलाती है। यही प्रभाव हमें सेट पर हार्ड या सॉफट लॉइट लगाते मिलता है। किन्तु टंगस्टन लेम्प या हैलोजन के प्रकाष में एक पीलापन हावी रहता है, इस लिए षूटिंग इनडोर हो या अवुटडोर, हमें प्रकाष का अनुपात नियंत्रित करना पड़ता है। इस के लिए जहां बाहर उपलब्ध लॉइट को कम या अधिक किया जा सकता है, वही कैमरा के अपरचर और फिल्टर को सही बैलेंस कर के भी उपलब्ध प्रकाष को षूटिंग की ज़रूरत के मुताबिक घटाया या बढ़ाया जा सकता है।
यह सब इस लिए कि कैमरा हमारी आंख की तरह दिखता तो है पर होता नहीं है। जहां हम अपनी आंखों से अपने आस पास का समग्र परिदृष्य तीन आयामी रूप में देखते हैं, वहीं कैमरा एक स्पाट दृष्य भर देख पाता है। कैमरा रंगों का प्राकृतिक रंगारंग विधान वैसे नहीं देखता जैसे कि हम तुरन्त आंख खोलते ही देख पाते हैं। हलांकि आजकल अतिसूक्ष्म उपकरणों वाले कैमरा चकित करने वाले नतीजे देते हैं, पर इन के लिए भी प्रकाष को व्यवस्थित करना आवष्यक है, क्यों कि ये प्रकाष को इच्छित रूप में संतुलित और अभिव्यक्त नहीं कर पाते।
प्रकाष रंगों को प्रकट करता है। इस में एक प्रक्रिया काम करती है, प्रकाष के मूल रंगों में लाल, हरा, और नीला है, ये अन्य सारे रंगों के साथ मिल कर नाना प्रकार के गुल खिलाते हैं। एक कलर पिक्चर बनाने में कैमरा लैंस इमेज को एक जैसी तीन प्रणालियों में विभक्त कर के गुज़ार देता है, यहां कलर फिल्टर सीन में रंगों का अंषविषलेषण करता है और तत्संबद्ध लाल, हरा, पीला वीडियो सिगनल उत्पन्न करता है। ये सिगनल टी.वी. सेट के या मानीटर के फासफोरस में प्रतिक्रिया पैदा कर के रंगों को इस प्रकार छिटकते हैं कि यह आपस में गुलेमिले दिखते हैं।
कैमरा वस्तुविषेष को देखता है। कैमरा इस वस्तु पर गिर रही रौषनी से उत्पन्न कलरटेम्प्रेचर के अनुपात से इस वस्तु के रंग और आकार व बनावट का संज्ञान लेता है, वस्तु अपनी प्रकृति के हिसाब से और कलर तापमान के अनुसार कुछ रंग जज़ब करती और कुछ छिटक देती है। जो रंग जज़ब होते हैं वे दिखते नहीं हैं और जो जज़ब नहीं होते वह उस वस्तु का रंग कहलाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कैमरा के देखने के पीछे काफी तत्व काम करते हैं, हमारी आंख की तरह यह जस का तस नहीं देखता। हमारी आंख स्वतंत्र रूप और बिना किसी बाहरी मदद के किसी दृष्य को तुरंत हमारे सामने प्रस्तुत करती है, पर कैमरा में यह काम एक्सपोजर कंट्रोल की मदद से व अन्य प्रकाष आदि को नियंत्रित कर के ही होता हे।
मिसाल के तौर पर हम किसी के माथे पर लटों की छाया खुली आंखों आसानी से नोट करते हैं पर कैमरा के द्वारा इसे उभारने के लिए हमें हार्ड रिफलेक्टर का प्रयोग करना पडेकगा, जिस से लटों की छाया गहरा जायेगी और कैमरा इसे पकड पाये गा। इस लिए यह महत्वपूर्ण है कि प्रकाष व्यवस्था को सेट पर एकदम जगमग दीवाली करना न समझा जाये। ना ही इस का मक़सद किसी स्थान , स्थिति अथवा वस्तु को मात्र प्रकाषित करना है। यह कैमरा की अनुपात में वस्तुस्थिति, स्थान को सही रंग और आकार में दर्षाने का एक सषक्त स्रोत है।
हम अक्सर सेट पर किये गये प्रकाष प्रबन्ध को अपने कलर मॉनीटर पर चेक करते हैं और पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही षॉट लेते हैं।
षूटिंग के लिए जहां दिन में बाहर सूरज का प्राकृतिक प्रकाष उपलब्द्ध होता है, वहीं भीतर व रात को बाहर भी प्रकाष की व्यवस्था विभिन्न प्रकार से की जाती है। प्रकाष में अंतर्निहित खूबियों का और कार्यक्रम में इस की उपयोग्यता व प्रयोग के तरीकों का समयक ज्ञान होना अत्यन्त आवष्यक है।
हमें प्रकाष को पहले से उपलब्द्ध साधनों जैसे बिजली के लेम्प, टयूब लाइट अथवा बाहर दिन के प्रकाष या रात में चान्द तारों व अन्य स्ट्रीट लाइट के बावजूद कैमरा और कार्यक्रम की आवष्यक्ता के अनुसार अधिक और व्यवस्थित ढंग से लाइटें लगा कर करना पड़ता है।
दिन को सूरज की रैषनी को अपनी ज़रूरत के अनुरूप करने के लिए हम अनेकों हार्ड व सॉफट रिफलेक्टर और कभी डे लाइट के साथ फिल्टर एवं एच.एम.आइ लाइट का प्रयोग करते हैं। रात को हैलोजन, टंगस्टन, एच.एम.आइ, बेबी, व अनेकों स्पॉट लाइट लगा कर सेट को प्रकाषित करते हैं अन्यथा ऐसा न करने की सूरत में हमारी षूटिंग के नतीजे बहुत ही मायूसकुन और भयानक हद तक अख़रने वाले होंगे।
कोई भी सीन प्रकाषित करने के लिए प्रकाष के स्रोत को ध्यान में रखना होता है। जहां से प्रकाष आकर सेट को प्रकाषित कर रहा है, वह प्रकाष का स्रोत है। दिन में यह कमरे में गिरती सूरज की किरणों का प्रकाष हो सकता है, रात में टेबल लेम्प या गली से आते स्ट्रीट लेम्प की रौषनी आदि, हर अलग स्रोत के साथ लाइट की व्यवस्था उसी अनुसार होगी।
प्रकाष, व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों को स्पष्टता प्रदान करता है और इन्हें हमारी मनःस्थिति के लिए स्वीकार्य या अस्वीकार्य बनाता है। हमारा मन जहां अनुकूल प्रकाष व्यवस्था न होने की स्थिति से उत्पन्न अस्पष्ट और खन्डित चित्रों की और खिन्न हो कर रूचि खो देता है, वहीं स्पष्ट और सही संदर्भ में प्रकाषित चित्र हमें आकर्षक, सुन्दर और रोचक लगने के कारण हमारा ध्यान अपनी ओर खेंचे रखते हैं।
आम तौर पर प्रकाष को निम्न रूप से व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं।
1. हम कैमरा के एक्सपोजर कन्ट्रोल ‘अपरचर’ से कैमरा को बाहर की उपलब्ध रौषनी के अनुरूप ऐडजेस्ट कर के षूट कर सकते हैं, इस में अक्सर अन्डर या ओवर एक्सपोजर की आषंका रहेगी और यह हमेषा एक समजौता ही होगा।
2. हम लाइटे लगा कर या दिन में रिफलेक्टर लगा कर प्रकाष अपनी आवष्यक्ता से व्यवस्थित कर के विषय-वस्तु की ज़रूरत के अनुसार घटा-बढा लेंगें, यह सही तरीका होगा।
इस से यह बात साफ होती है कि हम प्रकाष को कृतिम रूप से अपनी उपयोग्यता के अनुसार संचालित कर सकते हैं।
प्रकाष का एक निष्चित चरित्र है। यह दिन के उगने से ले कर षाम को डूबने तक बढ़ता घटता रहता है। इसे हम यकायक महसूस नहीं करते हैं, कैसे एक कमरे की रौषनी सुबह, दोपहर, षाम में बदलती गई हमारा ध्यान इस पर इतनी षीघ्रता से नहीं जाता जितना कि इसे कैमरा तुरन्त पकड़ता है।
ज्ैसा कि हम इस से पहले भी कह चुके हैं कि रौषनी बुनियादी तौर पर दो तरह की होती है, एक हार्ड और दूसरी सॉफट। हार्ड लाइट सीधी तेज़ होती है और छाया बनाती है, सॉफट लाइट फैली और छितरी होती है और किसी छाया को नहीं उभारती। इसी लिए बादलों के बिना आकाष से आती सूरज की रौषनी में छाया उभरती है और बादलों से भरे अकाष के प्रकाष में छाया नहीं उभरती है। हार्ड लाइट चित्र को चटक उभारती है पर इस से उगी छाया चित्र का कुछ हिस्सा ढक भी सकती है। सॉफट लाइट में माडलिंग और टेक्सचर उभर नहीं पाते, दब जाते हैं।
कैमरा के कलर टेंम्प्रेचर को सुंतलित रखने के लिए कलर फिल्टर का प्रयोग होता है।
संक्षिप्त में हम यह मान कर चलते हैं। कि हम रौषनी की दरकार मात्रा को उपलब्द्ध रोषनी की मात्रा घटा बढा कर एवं लेंस अप्रचेर कम या अधिक खोल कर नियन्त्रित करते हैं।
लाइट को कब कहां और कैसे रखें।
लाइट को अपनी विषयवस्तु के आगे पीछे हम कई प्रकार से रखते या प्लेस करते हैं। ये स्टूडियो के चारों तरफ बंधे तराफे पर लटकाई जाती हैं। जिस को ऊपर नीचे दायें बायें सरका सकते हैं। इन्हें ज़मीन पर रखे स्टेंड पर रखा जाता है। इन को बिलकुल नीचे ज़मीन पर किसी सहारे से टिका कर रखा ‘लो की’ के लिए रखा जाता है। इस प्रकार लाइट को हम ऊपर, नीचे, दायें, बायें, आगे, पीछे, और सीधे स्थानों पर ज़रूरत के मुताबिक रख सकते हैं। लाइट लगाते इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह षॉट के फ्रेम में न दिखे। इस प्रकार हम टॉप लाइट, लो लाइट, फ्रन्ट लाइट, साइड लाइट, और बैक लाइट लगा कर सेट की लाइटिंग कर सकते हैं।
सामने की लाइट 10डिगरी और 50डिगरी के लेंस ऐक्सेस से परे लगाई जाती है ताकि चेहरे की बनावट उभर कर सामने आये और यह धंसा या सिकुडा न लगे।
साइड लाइट यह तस्वीर के कोण उभारती है और इस की स्प्ष्टता को प्रखर करती है। इसे एज लाइट भी कहते हैं।
बैक लाइट इस से विषयवसतु और बैग्रउन्ड के बीच की गहराई उभरती है, जिस से दोनों के बीच का फासला नज़र आता है। तस्वीर के पीछे गहराई का बोध होने से तस्वीर दो आयामों में नज़र आती है।
हमें इस बात का अनुमान हो चुका है कि कैमरा को लाइट प्राकृतिक और कृत्रिम रूप से उपलबद्ध करायी जा सकती है। दृष्य की लाइट का स्रोत इस की मात्रा को निर्धारित करेगा। मिसाल के तौर पर अगर हम घर में पढाई्र करते छात्र को कुर्सी पर बैठे टेबल पर टेबल लेंम्प के प्रकाष में कोई पुस्तक पढते देखते हैं, तो ज़ाहिर है कि प्रकाष टेबल लेंम्प से आरहा है, जिसे एक टेस्ट लाइट से प्रकाषित कर के टेबल लेंम्प के प्रकाष का प्रभाव उत्पन्न किया जायेगा। इस की जगह अगर हम केवल टेबल लेम्प की लाइट में षूट करेंगें तो षायद ठीक से चीजें़ दिखाइ्र्र भी न दें।
अक्सर तस्वीर के तीनों आयामों की अनुभूति उजागर करने के लिए हम इसे तीन कोणों से प्रकाषित करते हैं।
1. की लाइट ;ामल सपहीजद्ध यह प्रकाष का प्रमुख स्रोत है, इस से विषयवस्तु के बाहरी अवयव और आयाम उजागर होते हैं। यह परछाई बनाती है, इसे दो से अधिक कम स्थितियों में इस्तेमाल करते हैं।
2. फिल लाइट ;पिसस सपहीजद्ध यह हार्ड लाइट की प्रचन्डता को हल्का करती है, जिस से परछाई धुल जाती है, इस से प्रकाष में संतुलन आता है और दृष्य में सामान्य प्रकाष के गुण नज़र आते हैं। इस प्रकार यह एक तरह से कीय लाइट की परिपूरक है।
3. बैक लाइट विषयवस्तु के पीछे से लगाई जाती है। यह सब्जेक्ट के पीछे बैकग्राउन्ड के बीच के फासले को फिल करती है। इस से सीन में गहराई झलकती है। यह सीन में लम्बाई, चौडाई और गहराई के तत्व उभारती है। किन्तु इस को लगाते ध्यान रहे कि अलग-थलग न दिख कर सारी प्रकाष योजना का अंग लगे और इस से बैग्राउन्ड में बर्न होता न दिखे। मतलब कि यह आगे लगाई लाइट से अधिक तेज़ नहीं हो, अन्यथा सामने का हिस्सा क्षीन प्रकाषित नज़र आयेगा।
लाइटों का प्रयोग विषय, पात्र और वातावरण के अनुरूप होना चाहिए। जहां एक से अधिक व्यक्ति सेट पर हैं, वहां हर व्यक्ति को ध्यान में रख कर प्रकाष को व्यवस्थित करना होगा।
लाइट की मात्रा और दिषा को बारनडोर, गोबो, फलेग्स, कुकी, स्पिल रिंग, स्नूट, आदि से तय किया जाता है। लाइट फिक्स करते हुए इस बात का विषेष ध्यान रखा जाता है कि यह व्यक्ति के चेहरे और बाक़ी षरीर के बीच संतुलित डंग से डाली गई हो अन्यथा नतीजे ऊलजलूल हांगें।
‘की’ लाइट को बायें तरफ चेहरे और सर के ऊपर सामने से रखते हैं।
फिल लाइट को कैमरा से 5से30डिगरी हट कर एडजेस्टेबल लेवल पर रखते हैं।
बैक लाइट को सब्जेक्ट के पीछे सर की ऊंचाई से डालते हैं।
प्रोफील यानी चेहरे के एक तिहाई भाग को नाक की सीध में ‘लिट’ करते हैं। कार्यक्रम में यदि एक से अधिक लोग षामिल हैं तो उसी अनुपात से अलग लाइटे बांट दी जाती हैं। विभिन्न समूह पर लाइट डालते हर समूह की अपनी फिल लाइट होगी।
स्टूडियो में अक्सर लाइट फर्ष से दस से बारह फीट ऊपर तराफा पर बन्दी होती है। पहले यह आम तौर पर लकडी का होता था पर अब स्टील के बने ग्राउन्ड आपरेटिड होते हैं, जिन्हें फर्ष से ही ऊपर नीचे घुमा सकते हैं। इस पर लगभग हर तरह की लाइट बन्दी रहती है, जिन में मुख्य रूप से आर्च, एच.एम.आइ, इनकन्डेसेन्ट, स्विंग, कीय, फ्रेन्ट, क्रास, टॉप, बैक, किकर, आई, फिल आदि लाइटें प्रमुख हैं।
ध्वनि ;ैवनदकद्ध टी.वी. पर तस्वीर के साथ आवाज़ मात्र सुनाई दे, इतना ही काफी नहीं। आवाज़ की क्वालिटी, कषिष, लेवल और प्रवाह किसी प्रकार बाधित नहीं होना चाहिए। इन बातों का ध्यान एक साउन्ड इन्जीनियर ही रख सकता है, क्यों कि इसे इस के विज्ञान का समुचित ज्ञान होता है।
आवाज़ एकदम साफ, छनी हुई, और बिना व्यवधान के संतुलित होना ज़रूरी है। इस में अनावष्यक जम्प नहीं हों, मतलब, यह कहीं पतली, कहीं भारी न हो और न ही इस में अक्समात उत्थान पतन हो। न कहीं घुटी और कहीं तीक्षण लगे। आवाज़ स्क्रीन पर बोलने वाले लोगों के होंठों से मेल खानी चाहिए, यानी यह सही सिन्क में हो। यह चित्रित वातावरण के अनुरूप हो। यह नियन्त्रित, कर्णप्रिय, और आकर्षक लगे। यह सब तब मुमकिन है, जब आप ने आवाज़ की उपयुक्त तकनीक का प्रयोग कर के रिर्काडिंग की होगी। आम तौर पर देखा गया है कि आवाज़ की छोटी छोटी गलतियों पर ध्यान न देने से आवाज़ की गुणवत्ता को भारी क्षति पहुंचती है। इस लिए आडियो रिर्काडिंग और डब्बिंग पर उचित ध्यान देना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
आवाज़ के ख़राब होने से कार्यक्रम की सम्प्रेष्णा बाधित होती है, दर्षक इस में रूचि खो देता है। इस लिए सफल नतीजों के लिए अच्छे साउन्ड रिर्काडिस्ट और उपयुक्त आडियो रिर्काडिंग सिस्टम, ‘माइक्रोफोन, लेपल, वायरलेस, कार्डलेस आदि रूपों में मिलते हैं,’ का प्रयोग करना ठीक है। आवाज़ को सही लेवल में रिकार्ड करने के लिए आम तौर पर हम 0 से 05 डेसीमल साउन्ड में रिकार्ड करते हैं। आडियो के सभी उपकरण मानक क्वालिटी के हों। आजकल बाज़ार में आडियो रिर्काडिंग के काफी अच्छे उपकरण उपलब्ध हैं, जिन से रिर्काडिंग करने पर डब्बिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती है।
गन माइक, यूनी डॉयरेक्षनल व मल्टी डॉयरेक्षनल होती हैं। इन का प्रयोग बडे सेटों पर और आउट डौर में भी किया जाता हैं। ये बहुत ज़ोरदार माइक हैं, इन्हें बूमरार्ड के साथ लटका कर एक लम्बे चौडे क्षेत्र पर उपस्थित चरित्रों को क्वर करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यहां इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि बूम रार्ड या माइक कैमरा में नहीं दिखे।
बाहर के ऐसे षॉट जो ज़्यादा वाइड हैं, बाद में अलग से डब्ब हो सकते हैं। वैसे अगर आप वायरलेस माइक इस्तेमाल करते हैं तो इस की ज़रूरत न पडे।
देखा जाये तो आडियो रिर्काडिंग मुलतः आडियो इंजीनियर या आडियो रिर्काडिस्ट की जिम्मेदारी है, पर आप को स्वयं इस के प्रति काफी सतर्क रहना ज़रूरी है। क्यों कि कभी कभी ज़्यादा काम के कारण या किसी अन्य कारण से माहिर और मंजे लोग भी इस काम में चूक कर बैठते हैं, जिस के कारण बाद में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। घर के षांत वातावरण में षूटिंग करते बाहर के अवांछित षोरगुल को टालना चाहिए। आवाज़ में माहौल की ध्वनियों का समुचित मिश्रण इसे विष्वस्नीयता प्रदान करता है। आवाज़ में समय, स्थान, स्थिति व वातावरण की अनुकूलता का बराबर ध्यान रखना ज़रूरी है।
कार से उतरते कार के दरवाज़े को बंद करने की आवाज़ वस्तुनुकूलता दर्षाती है, सुबह के समय सूरज उगने के साथ परिंदों की चहचहाट समयानुकूलता का परिचय देती है। पहाड से गिरते झरने का षोर स्थानानुकूलता को व्यक्त करता है। इस तरह आवाज़ का एक संदर्भ होता है और यह इसी को प्रकट करती है। आवाज़ जड़ वस्तु में जान फूंकती है। यह वातावरण को जीवंतता और सार्थकता प्रदान करती है।
आवाज़ का गणत्व कितना हो, समस्या तब उत्पन्न होती है जब काफी षोरगुल में हम कोई वार्तालाप रिकार्ड कर रहें हों। यहां सबजेकट के काफी निकट जा कर ष्ूट करना पड़ता है और यूनीडाइरेक्ष्नल से ष्ूट करना पडता है, ताकि बाकी भीड़ की आवाज़ दब जाये।
इस प्रकार आवाज़ को रिकार्ड करते समय बोलने वाले के फासले एवं उपस्थित माहौल का ध्यान रखना आवष्यक है। एक व्यक्ति कैमरा के निकट और दूसरा दूर है, यह दूरी ऑडियो में नज़र आनी चाहिए। सीन फेड-इन और आउट करते, आडियो भी फेड-इन और आउट करना चाहिए। अन्यथा आडियो अचानक रूक जाने से आडियो में ‘जर्क’ महसूस होगा। एक षॉट से दूसरे पर कट करने के समय ऑडियो मैचिंग होना बहुत ज़रूरी है। कलोज़अप और लांग षॉट की कटिंग में इस का ख़ास ख्याल रखना पडता है। कुल मिला के आवाज़ साफ सुथरी कानों को भाने वाली और विष्वस्नीय होनी चाहिए।
साउन्ड के स्पेषल इफेक्ट अलग से रिकार्ड कर के आडियो मिक्सिंग के समय आडियो ट्रेक के साथ मिलाये जाते हैं।
स्टेज सैटिंग
आप ने नोट किया होगा कि आजकल टेलीविजन प्रोग्रामें में अक्सर बहुत भ़डकीले रंगारंग तामजाम वाले सेट प्रयोग किये जाते हैं। चाहे कोई भी षो हो स्टेज को काफी महत्व दिया जाता है। न्यूज़ और करंटएफयेर्स से ले कर टॉक षो, इन्टरव्यू, म्यूज़िक या डांस या कोई गैम षो गर्ज़ कि जो भी षो हो इस की थीम के अनुसार इस का सेट तैयार किया जाता हैं। कहीं इस में फलेक्स तो कहीं बोर्ड या फाइबर षीट का भी प्रयोग होता है। इसे बैकग्राउन्ड में एनीमेंषन एवं क्रोमा से भी तैयार किया जाता है।
सेट हमेषा कलात्मक भाव-भ्ूमि व मूड को भी ध्यान में रख कर बनाया जाता है। टेलीविजन और स्टेज के सेट में मूल अन्तर यह है कि यहां हमें सेट षूटिंग की आवष्यक्ता को ध्यान में रख कर बनाना होता है, यहां स्टूडियो में किसी भी वस्तु अथवा स्थान के केवल उस हिस्से को बनाने की आवष्यक्ता है जो कि हम वास्तव में अपने कार्यक्रम में दिखाना चाहते हैं। स्टेज का सेट तैयार कर के ही कैमरा प्लेसमेंट और लाइट लगाने का काम किया जा सकता हैं, इस लिए तब तक षूटिंग प्लान तय करना कठिन होगा जब तक कि न हमारा सेट तैयार हो। इस सब का एक ख़ाका पहले काग़ज़ पर तैयार किया जाता है और बाद में इसे वास्तविक षकल दी जाती है। सेट पर कलाकारों के आने जाने की व्यापक व्यवस्था होनी चाहिए।
टेलीविजन फिक्षन जहां अक्सर वास्तविक घरों में षूट होते हैं, वहीं नॉन-फिक्षन षो के लिए सेट स्टूडियो में खडे किये जाते हैं। घरों में षूट होने वाले सीरियलों के बैकड्राप भी काफी तामजाम वाले और अक्सर आज कल के नवधनिक परिवारों के ही देखने को मिलते हैं, क्यों कि अक्सर कहानियां इन्हीं लोगों के इर्द गिर्द बुनी जाती हैं। पर यह कोई रूल नहीं, एक सामयिक ट्रेंड या मात्र कुछ समय के लिए प्रभावित करने वाली बात है। सेट वास्तविकता को दर्षाने वाला और समय, स्थान व पात्रानुकूल होना ज़रूरी हैं। सेट को जानकार डिज़ाइनर बनाना चाहिए। आलेख की आवष्यक्ता के अनुसार सेट डॉयरेक्टर, सेट का ख़ाका तैयार करके डॉयरेक्टर को दिखाता है और उस की अनुमति से इस पर काम षुरू करता है। सेट की हर वस्तु आसानी से कैमरा की दृष्टि और एंगल की रेंज में फिट आनी चाहिए। सेट में व्यर्थ का जमावाडा नहीं दिखना चाहिए, यह किसी जोखम में डालने वाला नहीं हो और इस को दुबारा प्रयोग करने में कोई विषेष दिक्कत नहीं हो। तात्पर्य कि यदि इस पर काफी सारे एपीसोड षूट होते हैं तो यह कुल मिलाकर अधिक खर्चीला होने पर भी काफी किफायती साबित होगा।
मेकअप
टेलीविज़न में मेकअप की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। मेकअप व्यक्ति को कैमरा में अच्छा दिखने के उपयुक्त बनाता है। यह इस लिए कि साधरण रूप से सुन्दर दिखने वाला व्यक्ति भी कभी बिना मेकअप के बगैर कैमरे में इतना सुन्दर नहीं लगेगा जितना कि वह वास्तव में है। इस का एक कारण है कि मेकअप के साथ जुड कर लाइट हमारे मुख व षरीर में निहित कुछ विजुअल कमज़ोरियों को ढकती है और किन्हीं खूबियों को आकषर्क रूप से उभारती है। इस प्रकार हमारी ‘लुक’ कुल मिलाकर खूबसूरत व संतुलित नज़र आती है। षायद यही कारण है कि मजे हुए डॉयइरेक्टर कभी भी अपने पसंद के मेकअप आर्टिस्ट के स्थान पर किसी सूरत में भी, उस से कमतर व्यक्ति पर समझौता नहीं करते।
मेकअप से हम कार्यक्रम में भाग लेने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व को ताज़ा और आकर्षक बनाने में मदद करते हैं। इस से उसे अच्छा महसूस होता है और उस का नैतिक साहस बढता है, वह प्रोग्राम में अधिक दिलचस्पी लेने लगता है। मेकअप चेहरे की झुर्रियां छिपाता है, अनावष्यक रूप से उभरे या धंसे मुख के हिस्सों को समतल रूप देता है। पसीने से लथपथ चेहरे को ताज़गी प्रदान करता है। आंखों के नीचे उभरे गढे भर देता है। सर की चांद की अनावष्यक चमक को हटाता है। बालों की सजावट से चेहरे को और आकर्षक बनाता है। किन्तु यह सब उसी हद तक होना लाज़मी है जहां तक यह आंखों को भाने वाला और प्राकृतिक नज़र आता हो।
इस तरह हम समझ गये कि साधारण रूप से कैमरा के सामने आने पर सुन्दर दिखने वाला व्यक्ति, बिना मेकअप के पसीने के कारण या बाहर धूप में चल के आने के कारण, कैमरा के बारीक लैंस में थका हुआ और उखडा, उखडा लग सकता है, वही मेकअप के कुछ हलके टच उस के चेहरे को फ्रेष और ताज़ा लुक दे सकते हैं। इस प्रकार चेहरा एक तरह से कैमरा फ्रेंडली बन जाता है। मेकअप से चेहरे में नाक, त्थुडी, जब्डे, को सही आकार और लचक मिलती है। आंखों की लाषें उभर आती हैं और चेहरे में तरावट व ताज़गी नज़र आती है।
मेकअप चरित्र के अनुरूप और समय संदर्भ के मुताबिक होना अत्यन्त आवष्यक है। इस से एक 20 साल के नौजवान को 70 साल के बूडे़ का रूप दिया जाता है। मेकअप चेहरे को बिलकुल बदल कर रख सकता है। यह केवल लीपा पोती का काम नहीं, इस का असर बहुत ज़ोरदार होता है। यह एक अभिनेता को हैरत की हद तक किसी भी व्यक्ति का चेहरा दे सकता है। बेनकिंगसले को महात्मा गांधी बना सकता है।
आमतौर पर टेलीजिन में मेकअप की खास आवष्यक्ता नाटकों या सीरियलों के चरित्रों के लिए अधिक ज़रूरी समझी जाती है, पर इस के अतिरिक्त हर टेलीविजन षो में भाग लेने वाले व्यक्ति, कलाकार, न्यूज़रीडर, व अन्य ऐसे सब लोग जो किसी भी टी.वी. कार्यक्रम में भाग ले रहें हों, का मेकअप करा लेना आवष्यक है। इस की अहमियत को समझते, आजकल आये दिन टी.वी. कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में दिखने वाले नेता एवं राजनेता अच्छे से अपना मेकअप करा के षो में भाग लेते हैं।
पोषाक पोषाक की अहमियत टी.वी कार्यक्रमों में किस क़दर बढ़ गई है, यह हमें सीरियलों में पात्रों द्वारा पहने गये डिज़ाइनर आवुटफिट, साडियों के ब्रैंड और इन के द्वारा पहने अन्य वस्त्रों से बाजार में आये फैषन के उफान से पता चलता है। ऐसे तो हर टी.वी चैनल का अपना पोषाक सामग्री भन्डार होता है, पर जब तक कि न अन्यथा दरकार हो, अक्सर लोगबाग अपने खुद के पहने पोषाक में अधिक सुविधायुक्त महसूस करते हैं। विभिन्न षोज़ के लिए कास्टयूम अलग अलग सुजाये जाते हैं और इस के लिए चैनल में विषेषिज्ञ होते हैं। पोषाक की अगुआई का केन्द्र बना टी.वी. न सिर्फ स्त्रियों अपितु पुरूषों के फैषन की ट्रेंन्ड भी अपने कार्यक्रमों द्वारा प्रचारित कर रहा है। अब यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ कोकप्रिय सीरियलों में पात्रों द्वारा पहने गए कपड़े, गहने, यहां तक कि बिन्दी और सिन्दूर तक लोगों में इतने लोकप्रिय हुए कि इन की बाज़ार में मांग दुगनी, तिगनी हो गई।
पोषाक हमेषा पात्र और समय, स्थान, एवं युग अनुकूल होनी चाहिए। एतिहासिक संदर्भ में बनाये कार्यक्रमों में इस का विषेष ध्यान रखना अत्यन्त आवष्यक है। इस के लिए खूब रिसर्च कर के ही पोषाक का चयन करना चाहिए।
षो में भाग लेने वाले व्यक्ति पोषाक से लद्धे नहीं नज़र आने चाहिए, न ही अधिक चुस्त कपडे पहने हों जिन में उठना बैठना तक कष्ट दे रहा हो। पोषाक षरीरपर फिट नज़र आये और इस में सहजता झलक रही हो।
ऐडिटिंग असल में किसी भी कार्यक्रम की सफलता का राज़ कुषल एडिटर की एडिटिंग में छिपा होता है। इस की अहमियत का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कभी जो षॉट आप ने बेकार समझ कर रद्ध किया होता है उसी को एडिटर महारत से ऐसे चिपकाता है कि उस ष्षॅाट का घ्वनिर्थ ही बदलता है और यह आप का इनामी षॉट कहलाता है। किसी भी फिल्म का वास्तविक स्वरूप एडिटिंग की मेज़ पर ही तय होता है। यह वह जगह है जहां पर आप के काम का वास्तविक लेखा जोखा नज़र आता है। एक षॉट से दूसरा जोड कर कथा तत्व का सारा तानाबाना मिलाया जाता है। जैसा कि हम पहले कह चुके है कि आप ने अपनी एडिटिंग की सुध ष्षूटिंग के दौरान ही रखी होनी चाहिए। हर सीन केष्षॉट और फ्रेम का ब्यौरा नरेषन या डॉयलाग लाइन के अनुसार क्यू षीट या डोपषीट;क्वचम ैममजद्ध में दर्ज किया होना होना चाहिए।
षूटिंग में जो भी अनावष्यक या फालतूष्षूट हो जाता है, जिस में रद्ध किये गये षॅाट, पात्रों द्वारा की गई ग़लतियां, जैसे ग़लत बोले हुए डॉयलाग या एन्ट्री, एक्सिट अथवा एक्षन, या वातावर्ण की अनावष्यक ध्वनियां षोर, गर्ज़ कि कुछ भी ऐसा जो फिल्म की जरूरत के मुताबिक नहीं है, एडिटर निकाल लेता है। बाकी बची षूटिंग की फुटेज कोष्षॉट से षॅाट मिला कर कहानी को दर्षक की रूचि के मुताबिक तैयार किया जाता है। यहां एडिटर पहले स्थापित एडिगिंट के नियमों का सखती से पालन कर के ही फिल्म को सही एडित करता है। हर पहले ष्षॅाट का दूसरे से सम्बन्ध जुडना अनिवार्य है, अन्यथा कथा तत्व बाधित होगा और कहानी में अवरोध पैदा होगा। डॉयलाग से डॉलाग, षॉट से षॉट मैच करना चाहिए। लुक यानी देखने की दिषा, मैचिंग होनी चाहिए। सिंक यानी कहे हुए वाक्य का होंठों की हरकत से मिलान होना चाहिए। सारी ऐक्षन आपस में जुडी नज़र आये यानी आप उठते बैठते चलते जिस भी हरकत में नज़र आ रहें हैं यह आने वाली एक्षन से अलग और कटी न दिख कर जुडी और सम्बन्धित हो। ष्षॉट प्रवाहमय ढंग से नरेटिव को दर्षाने चाहिए। कट-इन और कट-अवे षॉट जोड कर हम किसी भी जम्प कट को टाल सकते हैं।
न्यूज़ स्टोरी या डाक्यूमेंट्री की संकलित फुटेज को क्रमवार आपस में एक अनुक्रम में रखा जाता है जिस के साथ विजुआल के मुताबिक नरेषन को जोडा जाता है।
क्रासकटिंग में दो समांन्तर दृष्यों, स्थतियों, या विषयों को आपसी सम्बन्ध स्थापित करते आपस में कट किया जाता है, जैसे पुलिस और डाकओं की दो अलग स्थतियों को परसपर जोड कर समांन्तर दिखाना। इस से कहानी में नाटकीय प्रभाव पैदा होता है, दर्षक का कौतूहल जागता है और यह दर्षक के ध्यान को बान्धे रखता है। जहां कैमरामैन किसी भी दृष्य को एक्षन समाप्त होने पर ही कट करता है वहां एडिटर को यह छूट होती है कि वह एक्षन को बीच में कट कर के अन्यत्र एक्षन पर ओवरलेप कर जोड दे। एक लम्बें फासले को बीच के क्लोज़अप से कम कर दे, जैसे रेस में दौडते घोडों के बीच क्लोज षॅाट कट कर फासले के क्वर करने का अहसास पैदा करना। कटिंग में कन्टीन्यूटी नहीं टूटनी चाहिए। समय, सीन, विषयवस्तु, स्थान के षॉट में परिवर्तन करते समय आवष्क्तानुसार ट्रांसेषनल इफेक्ट जैसे फेड, वाइप, डिसलव, आदि का प्रयोग सुन्दर लगता है।
आजकल नॉनलीनियर एडिटिंग ने एडिटर के काम को पहले की निस्बत आसान कर दिया है। कम्पयूटर की हार्डवियर और साफटवियर पैकेज में वीडियो कैपचरिंग स्टारेज और एडिटिंग सम्भव होती है। इस में रियलटाइम चार ट्रेक वीडियो और आठ ट्रेक से अधिक आडियो एक साथ, एक समय देखा, सुना और ऐडिट किया जा सकता है। ष्षूटिंग फुटेज केपचर कर के टाइम लाइन पर या आफ लाइन एडिट हो सकती है। इस में लम्बे ष्षूट के केवल जरूरी षॉट को क्यू कर के कैपचर किया जाता है, जिन्हें बाद में एडिट कर सकते हैं।
टेलीविजन समाचार निर्माण
समाचारों का संचार हम तक समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, और अब इन्टरनेट के माध्यम से होता है। जहां समाचार का स्रोत हर समाचार माध्यम के लिए लगभग एक जैसा होता है, वहीं समाचार इक्कठ्ठा करना, इसे संकलित करना, व बाद में पाठक, श्रोता व दर्षक तक पहुचाने की सारी प्रक्रिया अलग-अलग संचार माध्यमों में एक जैसी नहीं होती है।
स्माचार पत्र, रेडियो और टी.वी. तीनों में समाचार ‘इनफलो’ और ‘अउटफलो’ यानी समाचार प्राप्त करने और इसे संचारित करने के स्वरूप में काफी अन्तर नज़र आता है। यह अन्तर हालांकि समाचार के तथ्य में नहीं अपितु माध्यमों में प्रयोग किये गये तकनीक और तरीकों के आधार पर अधिक नज़र आता है।
अख़बार मे संपादक की दृष्टि समाचार के पाठ पर, अख़बार की स्थान सीमा और इसी अनुपात से भाषा के घठन, वाक्य विन्यास, और सुन्दर अलंकरण पर रहती है, जबकि रेडियो केवल श्रोता के सुनने की क्षमता और कम समय में काफी सारी जानकरी श्रोता तक पहुंचाने की कोषिष करता है। वहीं टी.वी. के समाचार संपादक को षब्दों के साथ चित्र भी जोड कर देखने होते हैं। रेडियो और टी.वी. में मूल अन्तर इसी बात का है कि रेडियो पर कथन की प्रामाणिकता कहे गये षब्द की सत्यता पर निर्भर करती है और टी.वी. तत्काल दृष्य जीवंत प्रस्तुत करता है। रेडियो के समाचारवाचक को हम प्रत्यक्ष देख नहीं सकते और उस की आवाज़ से हम उस की पहचान बनाते हैं, जबकि टेलीविजन में सब कुछ स्क्रीन पर सामने साफ नज़र आता है। इस लिए टी.वी. के दृष्य श्रव्य माध्यम में समाचार प्रस्तुतीकरण का तरीका बहुत हद तक रेडियो से अलग हैं। अख़बार को जहां हम दिन में कई बार पलट-पलट कर पढ़ सकते हैं, पर टेलीविजन में हालांकि समाचार के बुलटिन दोहराये जाते हैं, पर हम इसे अपनी सुविधा से बार बार वैसे नहीं देख पाते हैं जैसे कि अख़बार देखते हैं। इस प्रकार न्यूज़ चैनल में न्यूज़ रीडर को समाचपर पढते समय अधिक सावधान रहना पडता है। कोई भी ग़लती सुधारने की यहां बहुत कम संभावना है।
टेलीविजन, समाचारों का संग्रह अपने राष्ट्रीय एवं स्थानीय न्यूज़ रिपोर्टरों के अतिरिक्त पारंपरिक तरीकों यनी विभिन्न न्यूज़ एजेंसियों जैसे पी.टी.आइ, यू.एन.आइ व अन्य के अतिरिक्त अर्न्तराष्ट्रीय एजेंसियों व अपने द्वारा नियुक्त स्ट्रिंगरॅों द्वारा करता है।
टेलीविज़न समाचार में घटनास्थल पर सम्बन्धित स्थान के चित्रों के साथ समस्त परिदृष्य का आंखों देखा विवरण लाइव क्वरेज के साथ रिपोर्टर हमें तत्काल दिखाता है, हमें लगता है हम स्वयं घटनास्थल पर खडे होकर सब कुछ अपनी आंखों के सामने घटित होता देख रहे हैं। यह सब आघुनिक सैटलाइट की संचार तकनीक से सम्भव हो पाया है। माइक्रोवेव आर सैटलाइट ने दूरस्थ स्थान से ओ.बी.वैन के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाइव कवरेज भेजना सम्भव बनाया है। किसी भी घटना की ख़बर पाते ही स्थानीय ब्यूरो की न्यूज टीम, जिस में रिपोर्टर, कैमरामैन, ओबी वैन आपरेटर और वैन का ड्राइवर होता है, प्रभावित स्थल पर पहुंच कर अपनी रिपोर्ट मुख्यालय में दर्ज करते हैं। यह रिपोर्ट तत्काल लाइव भी बुलटिन में षामिल की जाती है। यही नहीं रिपोर्टर से संपर्क होते ही न्यूज़ रीडर आपस में बातचीत कर के घटना की पड़ताल करते हैं, जिस में अक्सर स्थानीय प्रत्यक्षदर्षी भी षामिल किये जाते हैं। हर न्यूज़ चैनल का राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर एक मुख्यालय ब्यूरो होने के अतिरिक्त ज़िला स्तर पर हर ज़िले में रिपोर्टरों की टीमें तैनात होती हैं। हर चैनल के डिस्ट्रिक्ट ब्यूरो के पास एक ओ.बी.वैन होती है। इस तरह राज्य की राजधानी व इस के आस पास के हर स्थान की हर छोटी बडी घटना की ख़बर तुरंत और तत्काल फाइल हाती है। राज्य के मुख्यालय यानी राजधानी में बैठे प्रमुख कारस्पांडेन्ट की निगरानी में राज्य भर में फैले समस्त रिपोर्टर व कैमरामैन अपना कार्य करते हैं। लगभग हर रिपोर्टिंग टीम में कम से कम एक रिपोर्टर और एक कैमरामैन होता है। दोनो मिलजुल कर और पूरे तालमेल के साथ काम करते हैं।
रिपोर्टर का काम मौखिक ब्यौरा, समाचार की विवेचना, घटनास्थल पर मौजूद लोगों से बातचीत कर उन की तत्काल प्रतिक्रिया जानना, और कैमरामैन तत्सम्बन्धित स्थान, व्यक्तियों, वस्तुओं आदि का चित्रांकन कर अपनी रिपोर्ट की फीड देते हैं। रिपोर्टर आरम्भ और बीच, बीच में सिक्रीन पर दिखता है और जब कैमरा रिपोर्टर से हट कर सम्बन्धित दृष्य पर जाता है, तब दृष्य के साथ हम रिपोर्टर की आवाज़ बैकसिक्रीन नरेषन में सुनते हैं। वैसे तो यह बात आम है कि तस्वीर एक हज़ार षब्द्ध के बराबर होती है, पर टेलीविजन रिपोर्टर तथ्यों को आपस में जोडने और घटनास्थल का वस्तुस्थिति पर प्रकाष डालने के लिए कैमरामैन द्वारा षूट किये जा रहे दृष्यों को सरल बातचीत की भाषा में व्यक्त करता है। इस से दर्षक को जानकारी लेने और स्थिति समझने में आसानी होती है। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आजकल समाचार प्रसारण केन्द्र एक समय अपने साथ एक से अधिक, कई लोगों से एक अथवा एक से अधिक स्थानों से जुड कर विभिन्न लोगों से सम्पर्क कर के उन से बातचीत कर सकते हैं और उन की राय ले सकते हैं। हम ऐसे न्यूज़ बुलटिन रोज़ देखते हैं जहां न्यूज़रीडर न्यूज़रूम से विभिन्न स्थानों पर नियुक्त अपने रिपोर्टरों से बातचात कर घटनास्थल की व्यापक जानकारी हम तक पहुंचाने में जुटे नज़र आते हैं। यहां विषेषज्ञों की राय और आम लागों की प्रतिक्रिया व टिपन्निया भी तत्काल प्राप्त होती हैं। यह सब आधुनिक सैटलाइट के माध्यम से संभव हो पाया है।
इस से यह बात स्पष्ट होता है कि टेलीविजन रिपोर्टर न केवल भाषा-षैली एवं प्रस्तुतीकरण में सिद्धहस्थ होना चाहिए अपितु उसे विषेष रूप से हर तरह के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विषयों का समयक ज्ञान होना चाहिए। यही नहीं, उसे साम्यिक विषयों की जानकारी के साथ ही विभिन्न विषेषज्ञों, सरकारी व गैर सरकारी प्रतिष्ठानों, विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक संघठनों, और जनता में जानेमाने व्यक्तियों के साथ निजी संपर्क और अच्छे संबन्ध होना आवष्यक है। न्यूज़ एंकर की तरह रिपोर्टर भी बातचीत में माहिर और हाज़िरजवाब होना चाहिए। उसे टी.वी. में बोलचाल की भाषा के महत्व की जानकारी व मानक षब्दों के उपयुक्त प्रयोग की व्यावहारिक समझ होनी चाहिए। बिगड़ी और टूटी फूटी भाषा से परहेज़ करना चाहिए।
ध्यान रहे कि टेलीविजन दृष्य-श्रव्य माध्यम है, और दर्षक की अपेक्षा अटेलीविजन पर न्यूज़ देखना है, यानी कहे गये षब्दों को वह चित्रवत देखना चाहता है। इसी लिए जिस बुलटिन में कथ्य के साथ दृष्य जुडे नहीं होते वह ‘ड्राइ’ कहलाता है। अख़बार आदमी पढ़ता है, लिखित षब्द बिम्ब प्रस्तुत करते हैं और हम अपने पूर्वानुमान एवं अनुभव के आधार पर अपनी कल्पना से इन बिम्बों को चित्रवत महसूस करने लगते हैं। यहां षब्द और वाक्य का गठन पाठक की विषय में रूचि जगाने के लिए किंचित अलंकृत, रूपक या समासयुक्त भाषाषैली में भी संभव है, पर टी.वी. में भाषा साधारण, सहज, और बोलचाल की ही उचित मानी जाती है। कम षब्दों में अधिक कहना ही टी.वी. का गुण माना जाता है। बुलटिन की समय सीमा 5 से 30 मिनट नियमित होने के कारण समय को विवेकषील ढंग से प्रयोग किया जाता है।
समाचार के महत्व और उस के प्रस्तुतीकरण में अख़बार और रेडियो की निस्बत टेलीविजन की प्राथमिकता एवं प्रसतुतीकरण का ढंग बिलकुल अलग है। यह अन्तर मूलता ढांचागत हैं, रेडियो हालांकि बहुत हद तक टेलीविजन के क़रीब है,पर रेडियो केवल श्रवन के लिए षब्द चुनता है, जबकि टेलीविजन षब्दों और वाक्यों का चयन दृष्यों में निहित सूचनाओं को प्रेषित करने के लिए करता है।
इस प्रकार टेलीविजन स्टोरी में संक्षिप्त परिचयात्मक कथन के बाद कहानी का दृष्यात्मक ब्यौरा झलकना चाहिए। यह ब्यौरा बैकसिक्रीन नरेषन के साथ अथवा न्यूज़ एंकर द्वारा पार्षव में तत्काल पढ़ा जाता है। यही कारण है कि टेलीविजन समाचार लिखते समय बुलटिन सम्पादक को इस बात का पूरा ख्याल रहता कि दर्षक टी.वी. पर न्यूज़ सुनने से न्यूज़ देखना अधिक पसंद करते हैं। यहां वाक्य दिखाये जा रहे चित्रों की उस कमी को पूरा करते हैं जो कि हम दिखा नहीं पाते या जहां कुछ अस्पष्टता दूर करने की ज़रूरत हो। ज़ाहिर है कि दर्षक स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का मात्र घटित ब्यौरा सुनने में इतनी रूचि नहीं रखता, क्यों कि यह काम तो रेडियो भी निभा लेगा, यहां दर्षक की रूचि वास्तविक घटनास्थल को देखने की होती है। इस का प्रभाव रेडियो और अख़बार से अधिक तीव्र और तुरन्त होता है।
न्यूज़ में दृष्यों के साथ आंकडों, ग्राफिक्स, एनीमेषन और फोटो का भी सुनियोजित प्रयोग होता है। बॉटम सुपर, और सिक्रीन सिप्लिट यानी सिक्रीन को बराबर दो या चार भागों में बांट कर, एक ही समय अक्षरों, अंकों, तस्वीरों, ग्राफिक्स, एवं दूसरे स्थान की लाइव कवरेज को दिखाया जाता है। करेकटर जेनरेटर, डिजिटल कम्पयूटर इफेक्ट, अमेगा, इनस्क्राइबर आदि का प्रयोग कर के दृष्यों को एनीमेषन द्वारा तैयार कर के घटनास्थल के वास्तविक चित्र आने तक दिखाने का प्रयत्न होता है। ट्रैन दुघर्टना, बम ब्लास्ट, के दृष्य इस प्रकार तैयार करके, दिखा कर वास्तविकता का बोध कराया जाता हैं।
न्यूज़ बुलटिन कैसे बनता है।
समाचार चैनलों पर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज़ बुलटिन आखिर बनते कैसे हैं? यह एक निरन्तर प्रक्रिया है। हर नयूज़बुलटिन के लिए न्यूज़ स्टाफ की अपने एडिटर के साथ मीटिंग होती है। दिनभर की पूर्वानुमानित घटनाओं का ब्यौरा तैयार किया जाता है। बाक़ी न्यूज़ टेलीप्रंटर, फैक्स, टेलीफोन, व अन्य मीडिया स्रातों से इक्कठ्ठा की जाती है। समाचार संबन्धित सारी कहानियों के लिए पूर्वनिष्चित रूप से संवाददाता व कैमराटीम नियुक्त की जाती हें। कुछ स्टोरीज़ पहले से कवरेज के लिए दी होती हैं और कई ऐसी जो तत्काल प्राप्त सूचनाओं पर आधरित हो, न्यूज़ रिपोर्टर को तुरन्त कवर करने भेजा जाता है। यदि घटना अधिक प्रभावी हो तो ओ.बी.वैन भेजी जाती है।
कुछ कहानियां जिन के लिए रिसर्च की अपवष्यक्ता हो, रिसर्च स्टाफ की निगरानी में तैयार की जाती हैं। हर चैनल में एक रिसर्च सेल होती है, जो व्यापक षोध के पष्चात न्यूज़ स्टोरी तैयार करते हैं। यह काम अत्यन्त महत्वपूर्ण और जटिल होता है, पर टी.वी. इस तरह की रिपोर्टगिं से समाज के सामने बहुत ऐसे कडवे सच लाने में सफल रहा जिन्हें हम षायद कभी न जान पाते। रूटीन न्यूज़ के अतिरिक्त इन का काम, गहन छानबीन करना, दस्तावेज़ी सबूत इक्कठ्ठा करना, मामले की तह तक पहुंच कर सारे सच को सार्वजनिक करना, कहानी के उपयुक्त फाइल षॉट, अपनी या अन्य लाइब्रेरी से जुटाना आदि होता है।
प्रोडक्षन सहायक स्टूडियो में रिकार्ड होने वाले न्यूज़ सम्बन्धित हर कार्यक्रम की रिकार्डिंग की व्यवस्था सुनिष्चित करता है। न्यूज़ प्रोडक्षन स्टाफ में प्रोडयोसर, प्रोडक्षन असेसटेंट, डायरेक्टर व अन्य टेक्नीषन पूरा योगदान देते हैं।
न्यूज़ स्क्रप्ट की कापियां साफ टाइप करके या हाथ से लिख कर हर सैक्षन को दी जाती हैं, जो अपनी आवष्यक्ता के अनुसार इस का उपयोग करते हैं। टेलीकास्ट होने से पहले न्यूज़ का एक ट्राईरन यानी एक तरह का ख़ाका तैयार किया जाता है। इस में ख़बरों की अहमियत के हिस्साब से बुलटिन में इन का स्थान तय किया जाता है। इस क्रम में कुछ स्थान आखरी समय तक आने वाली महत्वपूर्ण खबरों के लिए खाली छोडा जाता है। इस बीच अगर कोई बडी खबर फूटती है तो इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बना कर पहला स्थान दिया जाता है। यहां तक कि किसी लाइव कार्यक्रम को रोक कर इस को दिखया जाता है या इस कार्यक्रम अथवा न्यूज़ के चलते इसे बार बार बडे अक्षरों में स्क्ररीन पर बाटम या बक्स में सुपर कर के दिखाया जाता है। बाद के आने वाले बुलटिन में इसे मुख्य समाचारों में लीड समाचार बना कर पेष किया जाता है।
न्यूज़ रीडर अपनी कापी कभी कभी अपने हाथ से लिख कर तैयार करते हैं। वे अपनी सुविधा से इस पर विराम व अन्य भाषा सम्बन्धी त्रुटियों के निवारण के अतिरिक्त व्यक्तियों, स्थानों के उचित उचारण आदि पर पूरा ध्यान देते हैं और इस पर काफी मेहनत करते हैं। यदि कहीं किसी षब्द को बोलने में कठिनाई महसूस होती है तो उस का सरल पर्याय खोजते हैं। किसी वाक्य की अस्पष्टता को दूर करने के लिए स्टोरी के लेखक की मदद लेते हैं।
कार्यक्रम निर्माता और सहायक निर्माता भी अपनी न्यूज़ कापियों पर षूटिंग कमान्ड और आवष्यक नोट लिख कर रखते हैं। न्यूज़ के बीच कहां कैसे विजुअल और षॉट जोडने हैं, इन का उल्लेख स्क्रप्ट में किया जाता है। इन सब को जोड कर ही न्यूज़ बुलटिन की सही समयसीमा का अनुमान होता है। आज कल डिजिटल स्पेषल इफेक्ट, ज़ीनो, पेंटबाक्स, इनस्क्राइबर, आदि ने तो विजुअल न्यूज़ को काफी आकर्षक रूप प्रदान किया है। कैमरा के बीच देखते हुए टेलीप्राम्पटर को अपने स्थान से नियन्त्रित कर न्यूज़ रीडर हार्डकापी देखकर इसे पढ़ सकते हैं, और इस तरह न्यूज़ पढ़ कर सुनाने की जगह श्रोता से बात करते लगते हैं, जिस से न्यूज़ एंकर के साथ निकटता अनुभव होती है और दर्षक का ध्यान न्यूज़ में बना रहता है।
समाचार वाचक के लिए यह आवष्यक है कि उस के हावभाव और संवेदनषीलता न्यूज़ के कथ्य और संदर्भ के अनुरूप हों। किसी दुःख्द समाचार को सुनाते चेहरे पर हावभाव भी समचार के भावनुकूल हों। खुषी का समाचार देते चेहरा मायूस और बेवजा तना नहीं दिखे और दुखद समाचार देते चेहरे पर प्रसन्नता झलकती नज़र नहीं आये। यही नहीं समाचार का स्वर भी भाव और विषय के अनुरूप हों। यह आवष्यक है कि घटित घटना के उदवेगों का प्रभाव समाचारवाचक के हावभाव, डीलडौल और बोलचाल की षैली में नज़र आये। इन बातों से प्रतीत होता है कि एक सफल न्यूज़ रीडर का एक कुषल एक्टर होना भी इतना ही ज़रूरी है। क्यों न हो, आजकल के न्यूज़ रीडर पब्लिक में स्टार का दर्जा रखते हैं और लोगों से ढेर सारी प्रषंसा भी बटोरते हैं।
समाचार, कार्यक्रम निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग है। समाचार चैनल में समाचारों के अतिरिक्त साम्यिक विषयों पर चर्चायें, बहसें, ग्रुप-डिस्कषन, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक मुद्धों पर चर्चा के कार्यक्रमों के अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर डाक्यूमेन्ट्री भी दिखयी जाती हैं।
टेलीविजन न्यूज़ में एक स्टोरी को न्यूनतम समय में दर्षाना होता है, इस लिए इसके वाक्य विन्यास को बातचीत की षैली के अधिक निकट रखा जाता है। यहां जो दृष्य तस्वीरों के द्वारा सामने आता है उसे और जिस की कमी तस्वीरें पूरा नहीं कर पाती उसे, लिखित वाक्यों से पूरा किया जाता है। टेलीविजन में हमेषा प्राथमिकता विजुअल में झलकते दृष्य को दी जाती है। आप के पास एक स्टोरी को स्पोर्ट करने के लिए जितनी मात्रा में अधिक विजुअल है, उतना ही अच्छा।
न्यूज़ एकदम स्पष्ट और सटीक होनी चाहिऐ। इस में किसी तरह के षक़ या अस्पष्टता की कोई गुंजाइष नहीं झलकनी चाहिए। यह तथ्यों पर आधरित सत्य को बयान करने वाली होनी चाहिए और बिना पूर्वग्रह और दुर्भाव के होनी चाहिए। किसी भी स्तर पर संप्रेषणा दूषित न हो अन्यथा दर्षक का ध्यान भटक सकता है, इस लिए कठोर और कठिन वर्ण-विन्यास के स्थान पर सहज एवं सरल भाषा का प्रयोग करना चाहिए। जितना संभव हा,े टेकनीकल व दुरूह भाषा के लिए सरल भाषा स्वरूप को चुनना चाहिए। कभी भी दर्षक की बुद्धिमता को कम नहीं आंकना चाहिए और ना ही यह मान लेना चाहिए कि दर्षक को पहले से हर चीज़ की जानकारी है। कभी भी यह महसूस न हो कि दर्षक एक निषक्रिय उपस्थिति मात्र है।
न्यूज़ आलेख तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखना भी आवष्यक है कि घटनायें वर्तमान में घटित,ताज़ा,और साम्यिक हों। काल संबन्धी परिदृष्य में वर्तमान काल का हवाला भाषा पर प्रभावी हो और भाषा वर्तमानकाल संदर्भ में लिखी गई हो। जैसे ‘कल यमुना पुषता इलाके में आग की भयंकर दुर्घटना में दो आदमी जिन्दा जल गए’ के स्थान पर इस ख़बर को और ताज़ा बनाये रखने के लिए ‘यमुना पुषता इलाके में आग की एक वारदात में कल दो आदमियों के ज़िन्दा जलने का ख़बर मिली है’ का प्रयोग इसे वर्तमान के निकट बनाये रखता है।
म्ुख्य समाचारों का चयन फिर मध्य में समाचारों के प्रवाह को बनाये रखने का संतुलन और अंत में किसी भी सूरत में दुखद समाचार को टालने की कोषिष करनी चाहिए। वैसे ही न्यूज़ एंकर न्यूज़ बुलटिन के समाप्त होने पर राहत का सांस लेने के अन्दाज़ में प्रसन्न चित दिखते हैं, इस समय दुःखद समाचार पढ़ना किंचित विसंगति उत्पन्न कर सकता है। परन्तु न्यूज़ राउन्ड-अप में मुख्य समाचारों को दोहराने में इस बात की उपेक्षा की जा सकती है। किसी भी सूरत में कापीराइट और ब्राडकास्ट कोड आफ कंडक्ट का उलघंन नहीं करना चाहिए।
समाचार कैसे प्राप्त होते हैं
टी.वी. स्टेषन विषेषकर न्यूज़ चैनल को आनन-फानन में खबर कहां से और कैसे मिलती है! आजकल की तेज़तरार कम्यूनीकेषन तकनीक के होते यह प्रष्न अधिक महत्व नहीं रखता है। सब जानते हैं कि सूचना के साधनों में क्रांतिकारी हद तक प्रगति हुई है और बदलाव आया है। इस के बावजूद आज भी खबरों का पहला मुख्य स्रोत पारंपरिक न्यूज़ एजेंसियां जैसे पी.टी.आइ, भाषा, यू.एन.आइ आदि के अतिरिक्त आधुनिक सैटलाइट, माइक्रोवेव से वी.सैट, ओ.बी.वैन द्वारा वीडियो फीड के अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर नियुक्त रिपार्टरों द्वारा भेजे फुट सोलजर डिस्पेच, कूरियर, वीडियोफोन, वायरलेसफोन, टेलीफोन जैसे अन्य माध्यमों से न्यूज़ सेंटर तक रिपोर्ट फाफट फाइल होती है।
इस कार्य के लिए लगभग सब न्यूज़ चैनल अपने रिपोर्टर नियुक्त करते हैं। यदि वीडियो फीड पहुंचाने में अभी समय लगता हो तब भी रिपोर्टर न्यूज़ सेंटर फोन पर बात कर के रिपोर्ट दर्ज करता है। अपने न्यूज़ एंकर से जुड कर लाइव ब्यौरा देने के अतिरिक्त उस के प्रषनों का उतर दे कर स्थिति पर प्रकाष डालता है। हर न्यूज़ चैनल की न्यूज़ मानीटरिंग सैल बाकी दुनिया की रेडियो, टी.वी. एवं अख़बारों की न्यूज़ छांटकर अपने मतलब की न्यूज. का चयन करती है, और इसे संबद्ध स्रोत की अनुमति से अपने बुलटिन में षामिल करती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि टी.वी. रिपोर्टर न्यूज़ चैनल के आंख, मूंह और टांगों का काम करते हैं। किन्हीं स्थितियों में रिपोर्टर को स्वयं कैमरा भी थामना पड़ सकता है, इस लिए आज कल ऐसे रिपोर्टर अधिक मांग में हैं, जो कैमरा और रिपोर्टिंग दोनो में माहिर हों। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि एक टी.वी. रिपोर्टर को सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति होने की आवष्यक्ता है। न्यूज़ तक उस की पहुंच होना, इसे लिखना, रिकार्ड करना और एडिट करने की क्षमता होने के साथ ही न्यूज़ प्रस्तुत करना, इन्टरव्यू करना, स्टूडियो या इस से बाहर कहीं अन्य स्थान पर हो रहे लाइव प्रसारण में न्यूज़ ऐंकर से जुडना और तत्काल रिपोर्ट देना जैसे रूटीन काम सहज रूप से सम्पन्न कर पाना ही रिपोर्टर को चैनल में बनाये रखता है। इस के अतिरिक्त अच्छी लेखन कला और बोलचाल की आकर्षक षब्दावली का ज्ञान होना, वैचारिक परिपक्वता के साथ स्वतन्त्र विचारधारा का मालिक होना, सामाजिक विषमता का ज्ञान व इस में पैठ, विवेचनात्मक व निर्णयात्म्क बुद्धि के साथ आत्म संयमी व साहसी होना, मीडिया की व्यापक जानकारी, मज़बूत इरादे, आत्मानुभवी, खुषमिजाज़ और खुषनुमा होने के साथ अच्छी आवाज़ का धनी और आत्मविष्वासी होना एक सिद्धहस्थ न्यूज़ रिपोर्टर की असली पहचान है।
लोकेषन से रिपोर्ट करते हुए सीधे कैमरा में देख कर रिपोर्ट का संक्षिप्त परिचय देने के बाद कैमरा मैन घटना के स्थान की तस्वीरें दिखाने लगता है, रिपोर्टर अपनी कमेंटरी जारी रखता है। रिपोर्टर को घटना स्थल पर हाज़िर देख कर घटना की वास्तविक्ता और विष्वस्नीयता स्थापित होती है।
ऐसे समय रिपोर्टर को ध्यान रखना चाहिए कि उस के बोले षब्द रटे हुए या नीरस न लगे, कहे गये षब्दों और वाक्यों का संबन्ध दिखाये जा रहे स्थान के चित्रों व भाव भूमि से मेल खाना चाहिए। दर्षक को आभास होना चाहिए कि वह घटनास्थल पर आप के साथ खडा है और आप उसे घटना के संबन्ध में वस्तुस्थिति से अवगत करा रहे हैं।
टेलीविजन पर साक्षत्कार करने में, रिपोर्टर, एक माहिर और सफल साक्षात्कारकर्ता होना चाहिए। यह एक कला है, इस कला को सीखा जा सकता है और इस में हमेषा सुधार की गुंजाइष होती है। किसी कलाकार, राजनेता, समाजसेवक, या विषेषज्ञ से टेलीविजन पर इन्टरव्यू लेते समय इस के उद्धेष्य को ध्यान में रखना आवष्यक है, आप को यह क्यों? किस लिए? और कैसे करना है।
एक सफल इन्टरव्यूवर अपने मेहमान के बारे में जितनी आवष्यक हो, उस से कहीं गुना अधिक जानकारी इक्टठा करता है। प्रष्नावली की एक सूची पहले से अपने पास तैयार रखता है। हालांकि इस सूची को देख कर प्रष्न नहीं किये जाते हैं ब्लकि इसे संदर्भ सूची की तरह अपने पास रखा जाता है।
इन्टरव्यू में बोलने का अधिक अवसर मेहमान को दिया जाता है, पर उसे लक्षित विषय से भटकने न देकर, इस से बान्धे रखना व इस पर प्रकाष डालने को उत्साहित करना होता है। उस की राय, उस का कथन, और उस के विचार अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस बात का ध्यान रहे कि बातचीत वाद विवाद में नहीं बदले। अपने मेहमान को बेवजह आहत नहीं करना चाहिए। इस प्रकार बिना ठेस पहुंचाये उस से ऐसी सारी जानकारी या वे सब बातें लोकहित में कहलवानी चाहिए जो अन्यथा वह आसानी से कहने को तैयार नहीं हो। इस सम्बन्ध में लतामंगेषकर के साथ प्रीतीष नान्दी द्वारा किया गया इन्टरवयू एक आदर्ष इन्टरव्यू है। यहां लतामांगेषकर से उन के जीवन संबन्धी ऐसे अनछुए पहलू और बातों को किस सहजता व आत्मीयता से पूछ कर दर्षकों के सामने उजागर किया था, जिन को कोई अन्य अनुभव विहीन पत्रकार नहीं कर पाता।
इसी प्रकार करण थापर के साक्षत्कार अत्यन्त सटीक, बेबाक़ और रोचक होने के साथ ही बहुत नुकीले होने पर भी अपने मेहमान को आहत करने वाले नहीं होते हैं। वीर सिंघवी बहुत सहजता से अत्यन्त गहन, गम्भीर और जटिल प्रष्नों के उतर अपने मेहमान से बहुत ही आत्मीय बातचीत में बुलवाते हैं।
इस प्रकार हम जान सकते हैं कि कैसे कड़वे से कड़वे सच को भी हम बहुत पुरसकून और सौहार्दपूर्ण ढंग से अपने मेहमान से बुलवा सकते हैं। इस के लिए तेज़-तरार होने का अर्थ अपने मेहमान पर एकदम टूट पडना और उसे बोलने का अवसर प्रदान किये बगैर सवालों की झडी लगाना नहीं है।
इन्टरव्यू करने वाले व्यक्ति के प्रष्न लम्बे नहीं होने चाहिए। अक्सर देखा गया है कि कई रिपोर्टर विषय सम्बन्धी लम्बी चौडी भूमिका खुद ही कह डालते हैं और बाद में मेहमपन से राय भर पूछते हैं और मेहमान का संक्षिप्त सा उतर इन्टरव्यू के उद्धेष्य को ही ख़त्म कर देता है।
इसी प्रकार खुद ही बयानबाज़ी में उलझ कर मेहमान से अपने बयान के पक्ष में राय मात्र पूछना, जैसे ‘आजकल यह जो दहेज की मार है और इस से सम्बन्धित प्रताडना, वहषत, और क़तल के किस्से आये दिन अख़बारों और टी.वी. में देखने को मिलते हैं, इन की वजह से समाज में हाहाकार मची है, क्या इस के लिए खुद औरतें भी ज़्म्मिदार नहीं हैं? आप क्या कहें गें ? ‘जी हां, औरते भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं’ यहां देखा गया कि पत्रकार सारे स्टेटमेंट और राय खुद पेष कर के मेहमान के बोलने लायक षायद ही कुछ छोडता है। पर अगर प्रष्न इस ढंग से पूछा जाये,‘ समाज में असाध्य रोग सी बढ़ती इस दहेज प्रथा का आखिर कुछ तो हल होगा?’
सम्भव है कि मेहमान हमें समुचित राय भी देगा और अपने सुजाव भी सुजायेगा। इन्टरव्यू में अत्याधिक षिष्टाचार और मुहावरों की फालतू झडी लगाने से अच्छा है कि बहुत नुकीले और मतलब के मुद्धों पर सीधे आया जाये। इन्टरव्यू खुषनुमा और मित्रतापूर्ण माहौल में होना चाहिए और अपनी प्रष्नावली देख कर प्रष्न नहीं पूछने चाहिए। अपने मेहमान को सहज महसूस होने देना चाहिए।
टेलीविजन डाक्यूमेंट्री आलेख
न्यूऩ चैनल में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, घटनाओं, स्थानों, व्यक्तियों, वैज्ञानिक विषयों, भूगोलिक परस्थितियों, परिंदों, चरिंदों और हर तरह के ऐसे विषयों पर, जो आम दिलचस्पी को उजागर करने वाले हां और ज्ञान एवं सूचना बढ़ाने वाला हों, पर डाक्यूमेंट्री बनाई और दिखाई जाती है। डाक्यूमेंट्री अक्सर वास्तविक तथ्यों और सत्य घटनाओं पर आधरित होती है। इस में जीवन के जटिल से जटिल पहलू को साधरण और मनोरंजक डंग से दर्षाने का प्रयत्न किया जाता हैं कभी कभी तथ्यों का नाटय रूपांतरण कर के भी दिखाया जाता है। मान लीजिए हम ताजमहल पर डाक्यूमेंट्री बना रहें हैं तो वर्तमान ताजमहल तो ह,ै पर उस के बनाने के पीछे जो घटनाक्रम व व्यक्ति हैं, इन्हें हम आसानी से एक परिवेष और इनके चरित्र गढ़ कर नाटकीय रूपांतरण कर समझाने का प्रयत्न करते है। इस की बहुत उमदा मिसाल टी.वी. पर ष्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’ डाक्यूड्रामा सीरीज़ है।
इस का एक पूर्वनिष्चत आलेख तैयार किया जाता है और बाद में इसे बनाने के संसाधन जुटाये जाते हैं। मान लो आप को अमरनाथ यात्रा पर इस वर्ष डाक्यूमेंट्री बनाने को दी गई है, तो आप क्या करें गें? षायद समय अभाव का बहाना बनाकर, चैनल की लाइब्रेरी में जा कर पिछले कई वर्षें से रखी गई यात्रा की फुटेज को छांट कर और कुछ पूर्व लिखे आलेख पढ़ कर, एक नई स्क्रप्ट तैयार करेंगें, इस के मुताबिक लाइब्रेरी की फुटेज के षॉट और अमरनाथ गुफा से आये इस वर्ष के ताज़ा दृष्य जोड कर 15 से 20 मिनेट का कार्यक्रम तैयार करेंगें। चैनल की तत्काल ज़रूरत तो इस प्रकार आप ने पूरी की और षायद इस के लिए आप को सराहा भी गया, पर यह खानापूर्ति का काम वास्तविक डाक्यूमेंट्री बनाने के काम की पूर्ति नहीं कर सकता, इस के लिए वास्तविक स्थान की ताज़ा जानकारी के लिए स्थान विषेष पर जा कर पूरा अनुसंधान कार्य कर के आलेख तैयार कर के षूट करना होगा, आप को अन्तर अपने आप समझ में आयेगा। आप देखेंगे कि यात्रा में पहले की निस्बत काफी तबदीली आयी है, षायद आप कुछ नये जोख्मिं या नई समस्याओं की और सरकार का ध्यान आकर्षित कर पायें या फिर आप को कुछ ऐसे नये तथ्य कहने और दिखाने को मिलें जहां पहले किसी का ध्यान नहीं गया हो। बासी पुरानी फुटेज इन ज़रूरतों को पुरा नहीं कर पायेगी।
अनुसंधान डाक्यूमेंट्री की प्रथम आवष्यक्ता है। इस से फालतू के पचडों से काफी हद तक छुटकारा मिलता है। यदि विषय के बारे में, स्थान के बारे में अहम जानकारी इक्कटठा नहीं की गई है तो स्थान विषेष पर ऐन षूटिंग के समय यह जानकारी खोजने में काफी समय, धन और काम के दिन बर्बाद हो सकते हैं। बेहतर यही है कि जिस विषय वस्तु पर डाक्यूमेंट्री बननी है, उस के बारे में पहले से गहरी खोजबीन की जाये। इस कार्य के लिए आवष्यक्ता अनुसार रिसर्च स्कालर नियुक्त किये जाते हैं या लेखक स्वयं इस की जानकारी संग्रह कर, आलेख तैयार करता है। रिसर्च सामग्री और वास्तविक टीवी आलेख में कार्यक्रम निर्माण की दृष्टि से काफी अन्तर रहता है। रिसर्च सामग्री से आलेख का लेखा-जोखा तैयार होता है, जो टेलीविजन स्क्रिप्ट के कलेवर के लिए मास और हडियों का काम करता है, पर इस में रक्त का संचार और प्राण लेखक फूंकता है। लेखक के लिए यह आवष्यक है कि वह मात्र इतिवृत पर निर्भर न रहे। तथ्य तो केवल स्वरूप का आधार है पर अभिव्यक्ति का उचित प्रयोग इन तथ्यों को प्रभावी रूप से सफल संप्रेषणा में बदल सकता है। इसी लिए सफल लेखक तथ्यों को एक बार जानकर अपने ज़ेहन के हवाले करता है और कुछ अवकाष बाद इन्हें याद कर लेखनीबद्ध करता है। इस प्रकार वह तथ्यों को टीवी की चित्रवत षैली के अनुरूप डाल कर, अपने आलेख को तैयार करता है।
आम तौर पर आरम्भ में विषयवस्तु का परिचय दिया जाता है, इस के बाद कहानी को विकसित करने के लिए क्रमिक रूप से तथ्यों को चित्रित करने का प्रयास होता है, जिस में संबन्धित विषय के हर अच्छे बुरे पहलू को उजागर करने का प्रयत्न किया जाता है। अन्त में सारे बिन्दुओं को निर्णयात्मक ढंग से जोड कर समेटा जाता है।
कुछ विषय प्रष्नों का उतर खेजने वाले होते हैं, तो कई प्रष्न उजागर करने वाले। कुछ विषय समस्याओं के संर्घषण को अभिव्यक्त करते हैं तो कुछ समादान सुजाने वाले होते हैं। जबकि कुछ का देय मात्र जानकारी बांटना होता है या जानकारी बढाने के साथ ही विवेकषील बुद्धि को जगा कर तर्कसंगत और विषलेषणात्मक गम्भीरता प्रदान करना होता है। गर्ज़ कि आप ने विषय को किस दृष्टिकोण से देखा और प्रस्तुत किया यही इसका कलेवर बनता है, जिसे ट्रीटमेंट कहते हैं।
ट्रीटमेंट दो स्तर पर असर करता हैं। एक, कन्टेंट के गठन के समय, दूसरा षूट करते समय। आमतौर पर विषयवस्तु का गठन ही इस का षूटिंग ट्रीटमेंट तय करता है। पर कभी कोई अत्यन्त रचनाषील डॉयरेक्टर इस का अपवाद भी हो सकता है, जो अपनी अलग छाप छोड जाता है।ष्षूटिंग स्क्रिप्ट और डाक्यूमेंट्री की बुनावट प्रस्तुति का एक आवष्यक अंग हैं। कई बार तकनीकी बारीकियों में उलझ कर विषयवस्तु की मूल भावना दब जाती है, इस लिए टीवी कार्यक्रम बनाते हुए अपनी तकनीकी महारत से हैरान न करने के स्थान पर सूचना को क्रमबद्ध रूप से दर्षक तक पहुंचाने का प्रयत्न करना अधिक सार्थक होगा। यहां दर्षक को उस की इच्छा के दृष्य सामने रखने में ही आप की सफलता निहित है, इस लिए इस का पूर्वानुमान होना ज़रूरी है कि दर्षक किस तरह के षॉट की अपेक्षा करता है।
हमें यह पता होना ज़रूरी है कि अमुक स्थिति के लिए कौन सा षॉट उपयुक्त है। उदाहरण के तौर पर सैब के बाग़ में पेडों पर कीटनाषक दवाई छिडकने की प्रक्रिया को दिखाने के लिए पहले एक लांग षॉट में पूरे बाग़ के साथ दवाई छिडकने वाले व्यक्ति को दिखाया जायेगा, लांगषॉट में होने के कारण व्यक्ति की पहचान और गतिविधि अधिक स्पष्ट नहीं है, दर्षक चाहेगा कि वह व्यक्ति को नज़दीक से देखे और जान सके कि आखिर वह वास्तव में कर क्या रहा है। इस उत्सुकता को षांत करने के लिए हम मिडषॉट पर आते हैं और अधिक व्याख्या के लिए हम काम करते व्यक्ति को व्यस्त हाथों दवाई का घोल तैयार करते दिखने के लिए उस कि हाथों का क्लोज़षॉट लेते हैं और घोल तैयार करने की विधि को दर्षाते हैं, इस बीच उस के चेहरे का एक क्लोज़अप कट करते हैं जो इस काम में उस की तन्मयता और अभिरूचि को व्यक्त करता है।
हम हर षॅाट दर्षक की उस उत्सुकता को षांत करने के हिसाब से तय करते हैं, जहां हमें पता होता है कि वह इस से आगे क्या देखना चाहेगा। इस का एक तर्क विधान है, जो हम स्पष्ट कर चुके हैं। इस प्रकार हम कार्यक्रम को दर्षक की कामना के अनुरूप रखने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि षॉट तय करने से पहले इस की उपयोगिता को ध्यान में रखा जाता है, हम विभिन्न ऐंगल और साइज़ के षॉट इस लिए नहीं लेते कि हमें अपनी महारत दिखाने का चाव होता है, हम यह काम दर्षक की उत्सुक्ता को षांत करने के लिए करते हैं और इसी लिए विभिन्न आयामें को उस के समक्ष रखने का प्रयत्न करते हैं, ताकि वह वस्तु का सर्वांगीय रूप देख ले।
रिसर्च को आधार बनाकर षूटिंग स्क्रिप्ट तैयार करके हमें षूटिंग षेडयूल बनाना चाहिए। डाक्यूमेंट्री की नरेषन सारी फुटेज एडिट करने के बाद जोडी जा सकती है। नरेषन अलग से रिकार्ड करके बाद में मिक्स की जा सकती है। कई बार नरेषन पर विजुअल पेस्ट किये जाते हैं। संगीत और साउन्ड इफेक्ट आडियो मिक्सिंग में मिलाये जा सकते हैं।
आलेख में इस बात का ध्यान रखना आवष्यक है कि किसी भी प्रकार के कापीराइट का उलघंन न किया गया हो, न किसी की भावनाओं को बिलावजह आहत किया गया हो। यह सब लचीचे मुआमले हैं और इन के बारे में सतर्कता बरतनी आवष्यक है। किन्तु ठोस सबूतों के आधार पर दर्ज, किसी भी कहानी को दर्षाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। इस के लिए तथ्यों को दस्तावेज़ी रूप में अपने पास सुरक्षित और दर्ज रखना अत्यन्त आवष्यक है, अन्यथा ठोस सबूतों के अभाव में दर्षाया सच भी बहुत भारी पड़ सकता है।
हक़ीकी पहलू
टीवी न्यूज़ न अख़बारी पत्रकारिता है और न रेडियो प्रस्तुतीकरण। इस में दृष्य-श्रव्य की व्यापकता से आंख, कान को भरोसा करने वाले दृष्य देखने और सुनने को मिलते हैं। पर इस सब के बावजूद एक बहुत बड़ी दिक्कत है और वह है समाचार माध्यमों पर वर्ग विषेष का वर्चस्व। यहां आप वही देखते हैं जो दिखाना यह वर्ग अपने हित में समझता है। इस प्रकार समस्त मीडिया समाज के प्रभावषाली और षक्तिषाली लोगों की वास्तविक पकड़ में आने के कारण, यह इन्हीं के हितसाधन में जुटा है। इस का असर हम साफ इन के द्वारा अपनायी गई आम मीडिया पॉलसी में देख सकते हैं।
आज न्यूज़ वो नहीं है जो साधारण घटनाक्रम में घटित होकर बनती है। घनाओं को सिलैक्टिव रूप से न्यूज़ के द्वारा उन की विषेषता और आकार से कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर दर्षकों के संमुख परोसा जाता है। इस सम्बन्ध में कई तरह की एजेंसियां जुटी रहती हैं, जो लोगों से पैंसा लेकर उन के निजी हितों के फायदे और नुकसान की देख-रेख में न्यूज़ को बनाने, बिगाडने, चलाने, और रोकने में कार्यरत रहते हैं। यह अपने क्लाइंट को लगातार न्यूज़ में रखने के लिए या उस का प्रचार करने के लिए कई प्रकार से मीडिया को प्रभावित करते हैं और मीडिया को इन एजेंसियों से कारोबार में फैलाओ का और मुनाफे का लाभ मिलता है। यह एक कुचक्र और कुतन्त्र के रूप में फैला हुआ व्यवसाय बन गया है।
यहां एक लगातार युद्ध की सी स्थिति बनी रहती है। यहां ग्राहक बड़ी करोड़पती कम्पनियों के मालिक या काफी धनवान व्यक्ति या उध्योगपती होते हैं, जो अपने कारोबार को बढ़ावा देने व अपनी छवि को साफपाक रखने में व अपने कारोबार के हितों की रक्षा के लिए इन एजेंसियों की सेवाओं को खरीदते हैं, और इस प्रकार ये जनता की राय और रूजान अपने पक्ष में करने में किसी हद तक कामयाब रहते हैं। इन एजेंसियों का अधिक्तर फैलाओ विभिन्न जनसम्पर्क या पीआर ग्रुप के रूप में, मीडिया कंसेलटेंटस व कुछ तथाकथित जनहित संस्थाओं के रूप में सामने आया है।
इस परिदृष्य में न्यूज़ चैनलों की साख्त और निष्पक्षता काफी हद तक षक़ के दायरे में पड़ने की गुंजाइष से इनकार नहीं किया जा सकता है। समाज में, समाज कल्याणकारी मीडिया को विषुद्ध बाज़ारू रूप देने में इन चैनलों का बहुत बड़ा हाथ है, जो टीआरपी का रोना रो कर ऊलजलूल मुद्धों, बूतप्रेत व अंधविष्वास बढ़ाने वाली फर्ज़ी कहानियों को 24 घंटे अपनी चैनलों पर परोसने में व्यस्त हैं। सनसनी, क्राइम, सैक्स, और वीभत्स को ब्रेकिंग न्यूज़ बना कर प्रचारित और प्रसारित करने की इन चैनलों में एक होड सी लगी है।
सामाजिक मूल्यों के विघटन में ऐसे कार्यक्रम दिखाने से और तेज़ी आती है न कि इन में कोई सुधार होता है। दिन प्रति दिन ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों का कानून अपने हाथ में लेकर गुनेहगारों को दण्डित करना, यहां तक कि मार देना, समाज में और अराजकता को बढ़ावा देता है। समाज में व्याप्त जीवंत समस्याओं के गहन विषलेषण और गम्भीर चर्चा के स्थान पर बहुत सतही और भटकाव उत्पन्न करने वाली, हास्यास्पद स्तर की बहसें और चर्चायें, पूर्वर्निधरित नतीजों को ध्यान में रख कर आयोजित होती हैं। अक्सर यह चर्चायें गिने चुने राजनीतिज्ञों, कुछ मीडिया कर्मियों, समाजसेवी संस्थानों के पेज 3 व्यक्तियों और कुछ विषेषज्ञों और संभ्रांत भीड़ को इक्कटठा कर, आयोजित होती हैं। इस प्रकार ऐसे कार्यक्रमों में किसी भी प्रकार के गहन सामाजिक अध्ययन व विषलेषण की कमी साफ झलकती है।
इन सब बातों के बावजूद भारतीय टीवी चैनल आज संसार के चन्द गिने चुने टेलीविजन चैनलों की बराबरी में खडे हैं। इन चैनलों के भारत में करोडों दर्षक होने के अतिरिक्त विदेषें में भी लाखों की तैदाद में दर्षक हैं। केबल टीवी से सैटलाइट और अब डिजटल डीटीएच के सफर तक भारतीय टीवी इन्डस्ट्री आज एक विकसित रूप धारण कर चुकी है। यहां के चैनल आपरेटर आज सब से आधुनिक मषीनों से लेस हैं। एक से बढ कर एक माहिर ब्राडकास्टर, हज़ारों मीडिया गै्रजुएटस, पोस्टगै्रजुएटस, हर वर्ष मीडिया स्कुलों से प्रषिक्षित होकर इन चैनलों में जगह पाते हैं और काम, नाम और पैंसा कमाते हैं। अब वो दिन दूर नहीं जब टेलीविजन मीडिया में काम करने वाला हर व्यक्ति इस बात को काफी अच्छी तरह समझ जाये गा कि मीडिया की षक्ति का सही उपयोग समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधित्व और कल्याण की कामना में है। जिस प्रकार से तकनालजी सस्ती और व्यापक रूप में सब के पास पहुंच रही है, इसे देखते लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब इस का प्रयोग मसि और क़लम की तरह होने लगेगा और रूस के प्रसिद्ध फिल्मकार लीव कुलषोव के कथन अनुसार सही सिनेमा या कहें तो सही टेलीविजन कार्यक्रम जनता के सामने आयेंगें।
इस प्रकार यह बात अब स्पष्ट हो गई कि टीवी कार्यक्रम बनाने के जितने विभिन्न विषय है, उतने ही इन कार्यक्रमों के बनाने के तौर तरीके भी हैं।
ऐंकर या प्रसेंटर आधारित कार्यक्रम
एक पूरा न्यूज़ बुलीटिन अकेला न्यूज़ ऐंकर आप के सन्मुख बयान करता है। आप ने देखा होगा कि हर दर्षक को लगता है कि न्यूज़ रीडर उसे ही देख रहा है। ऐसा न्युज़ रीडर का लगातार कैमरा में देखने के कारण होता है। जब भी किसी कार्यक्रम के ऐंकर को दर्षकों को संबोधित होकर बोलना होता है तो वह फलोर पर आन कैमरा में देखता है। कौन सा कैमरा आन है, इस का पता कैमरा के ऊपर जल रही लाल बती से चलता हैं। ऐंकर सारा कार्यक्रम अकेले प्रस्तुत कर रहा हो तो उसे एक स्थान पर खडा करके उस के पीछे एक नीला पर्दा डाल कर उस के विभिन्न षॉट ले कर ऐंकरिंग पूरी की जाती है, बाद में क्रोमोकीय से कोई भी बैकड्राप सेट कर के ऐंकर को दिखाया जाता है। इस से ऐंकर स्टूडियो से निकल कर कहीं भी पहुंच जाता है, जब कि वास्तव में वह अपने स्थान से हिला भी नहीं होता है।
ऐंकर आधारित फिल्मीगीत मालाओं व अन्य ऐसे कार्यक्रमों में गीतों के बीच में ऐसे ही ऐंकर को दिखाया जाता है। किसी भीष्षो में एक ऐंकर चार चांद लगाता है। कुछ षो बलकि चलते सफल ऐंकरों के बलबोते पर ही हैं। ऐंकर आधरित अनेकों प्रकार के कार्यक्रम हैं जो एक न्यूज़ या मनोरंजन चैनल की सफलता में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं। रियेलटी षो, क्यूईज़ष्षो, गेमषो, चेटषो, आदि अक्सर सफल और चोटी के कलाकारों की ऐंकरिंग के कारण ही लोगों में काफी लोकप्रिय को गये।
टीवी ड्रामा और सीरीयल
एक अच्छी कहानी, अच्छा उम्मदा अभिनय, माहौल की अच्छी अक्कासी, खुबसूरत कैमरा वर्क, एडिटिंग, लाइटिंग और बढिया साउन्ड ट्रीटमेंट से युक्त कार्यक्रम, एक टीवी ड्रामा होता है। फिल्म में ऐक्षन पर ज़ोर दिया जाता है, टीवी ड्रामा में पात्रों की आपसी रिऐक्षन को अधिक उभारा जाता है। इस लिए अधिकतर कलोज़ कटिंग के षॉट देखने को मिलते हैं। यहां पर कथोपकथन पर अधिक बल दिया जाता है, बातों के ज़रिये कथातत्व को विकसित किया जाता हैं। पर यह रेडियो नाटक नहीं है। इस में ज़िन्दा चलते फिरते हाडमास के पात्र हमारे सामने सारे कार्यकलाप करते दिखते हैं। टेलीविजन नाटक या सीरियल फिल्म तकनीक का ही आरोपन है। यहां छोटे स्क्रीन के कारण और बजट कम होने की वजह से प्रोडक्षन को सीमित संसाधनों में पूरा करना होता है। आजकल सालों लम्बे घिसटते सास बहू के सीरियल के साथ अभी तक दर्षकों को बान्धे रखने वाले मालगुडी डेज़ सीरियल भी देखने को मिलते हैं।
सीरियल बनाने के लिए काफी धन और मेहनत दरकार होती है। एक अच्छी कहानी के चयन के बाद उस का पायलेट तैयार होता है, जिसे चैनल को प्रसतावित किया जाता है। अगर चैनल इसे मंज़ूरी देती है तो कम से कम एक महीने के एपीसोड तैयार कर के देने होंगे, जिस का मतलब लाखों का खर्चा। चैनल पर आने के बाद सीरियल की सुलभता का आकलन टीआरपी रेटिंग देख के होगा।
सीरियल विभिन्न प्रकार की श्रेणी में विभाजित किये जा सकते हैं। पर सब का मूल उद्धेष्य जनता का मनोरंजन करना और अधिक विज्ञापन जुटाना होता है। फिर भी कथातत्व, चरित्रविधान, काल, परिवेष, भावानुभाव, के आधार पर विषयवस्तु को डवलेप करने के लिए अलग अलग ट्रीमेंट के आधार पर, आजकल सीरियलों को अधिकतर लक्षणाधरित ‘जेनरिक’ रूप से वर्गीकृत किया जाता है। भक्ति भावना और पौरानिक कहानियों पर आधरित सीरियल एपिक कहलाते हैं, वहीं प्रेमप्रसंगों पर आधरित सीरियल इमोषनल ड्रामा, ऐतिहासिक सीरियल, पीरियोडिक और हंसी मज़ाक वाले हलके फुलके व्यंग का पुट लिए सीरियल कामेडी कहलाते हैं, सनसनी और भूत-प्रेत की कहानी वाले सीरियल हारर्र और कत्ल व जुर्म पर आधारित कहानियों के सीरियल क्राइम थ्रलर कहलाते हैं।
व्यावसायिक परिवेष और वर्तमान स्थिति
पिछले दषक से भारत में दुनिया के देषों की निस्बत टेलीविजन इन्डस्ट्री में सब से अधिक विकास देखने को मिला। भारत में तीन सौ से अधिक टेलीविजन चैनल हैं, जो दुनिया में तीसरे स्थान पर माना जाता है। 1980 के बाद भारत में टेलीविजन का बहुत तेज़ी से विकास हुआ है। टेलीविजन चैनलों ने पिछले दषक से कोटि स्तर के टेलीविजन ऐंकर, न्यूज़ रीडर, रिपोर्टर, स्क्रिप्ट राइटर, डॉयरेक्टर, अभिनेता, गायक, तकनीषन और असंख्य तरह के मनेजर व अन्य कार्यकर्ता सामने लाये। इन सब के सम्मिलत प्रयासें ने, लोगों द्वारा दुनिया को देखने का नज़रिया बदल दिया और इन की सोच में सकारात्मक परिवर्तन आने लगा। दुनिया की दूरियां पाटने का एक नया सिलसिलाष्षुरू हुआ।
भारतीय टेलीविजन चैनल स्वामित्व के लिहाज़ से सरकारी और निजी क्षेत्र में बंटे हैं। सरकारी क्षेत्र में दूरदर्षन भारत के टेलीविजन इतिहास में मील के पत्थर की हैसियत रखता है। यह भारत का सर्वप्रथम टेलीविजन चैनल है और आज भी इस के दर्षकों की संख्या करोड़ों में है, क्यों कि यह भारतीय टेलविजन का सब से विकसित और विस्तृत टेलीविजन नेटवर्क है। सरकारी और निजी दोनों टेलीविजन चैनल, न्यूज़, करंटएफियर्स्ा, मनोरंजन व अन्य सारे तरह के कार्यक्रम 24 घंटे लाखों, करोडों दर्षकों के आगे परोसते हैं। इन कार्यक्रमों को बनाने का खर्चा प्राइवेट चैनल कार्यक्रम प्रायोजकों और किसी हद तक केबल आपरेटरों से वसूलते हैं। दूरदर्षन भी प्रायोजित कार्यक्रम दिखा कर किसी हद तक अपने खर्चे की भरपायी करने का प्रयत्न करता है, पर दूरदर्षन एक विषाल नेटवर्क है और इस में हज़ारों की संख्या में लोग कार्यरत है, यह एकमात्र चैनल है जो अभी भी सामाजिक सरोकारों और सरकारी विकास नीतियों से सापेक्षता जुडा है, इस लिए इस के खर्चे का भार सरकार वहन करती है।
केबल आपरेटर केबल के माध्यम से विभिन्न चैनलों के कार्यक्रम अपने ग्राहकों तक हर स्थान में पहुंचाने का कार्य करते हैं, यह सेवायें केबल आपरेटर ग्राहक से पैंसा वसूल कर उपलब्ध कराते हैं और इस का कुछ हिस्सा चैनल आपरेटर को देते हैं। कुछ चैनल मुफत होते हैं, वे कोई पैंसा नहीं लेते , यह चैनल ‘फ्री टु एयर’ कहलाते हैं। आजकल डिष ऐंटिना टीवी सेटलाइट के माध्यम से सीधे, बिना केबल के, टीवी कनेक्षन एक सेटाप बाक्स के द्वारा देते हैं। यह डिजिटल क्वालिटी प्रसारण प्रणाली है, जिस में तस्वीर काफी साफ और बिना जेनरेषन की हानि के देखने को मिलती है।
दूरदर्षन ने अपना एक अलग डिष टीवी नेटवर्क प्रारम्भ किया है, इस के कनेक्षन के लिए एकमुषत रक़म भर कर आप सारी फ्री टु एयर चैनल मुफत देख सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण और प्रसारण एक व्यवस्थित उध्योग का रूप धारण कर चुका है। इस का वार्षिक टर्नटोवर करोडों रूपये से अब अरबों रूपये तक पहुंच गया है। यदि आप इस व्यवसाय में रूचि रखते हैं, तो आप के आगे इस व्यवसाय से जुडने के अनेकों अवसर और सम्भावनायें स्पष्ट मौजूद है।
अगर आप के पास रचनात्मक कलाओं, ललित कलाओं और संगीत, नाटक, आदि का अनुभव, ज्ञान या षौक है, तो आप को मनोरंजन चैनल के साथ जुडने का प्रयत्न करना चाहिए। और अगर आप सांमाजिक, रातनीतिक विषयों में माहिर है अथवा पत्रकारिता में अनुभव एवं रूचि रखते हैं तो आप को समाचार चैनल के साथ जुडने का प्रयत्न करना चाहिए। आजकल षिक्षा, विज्ञान, फैषन, खेल, स्वास्थ, भक्ति, संगीत, भूगोल, इतिहास आदि गर्ज़ कि जीवन के अनेकों विषयों पर, एक अलग चैनल देखने को मिलता है, जहां आप अपनी योग्यिता के अनुसार स्थान पा सकते हैं।
वर्तमान सम्प्रेषणा के स्वरूप में इन्टरनेट टीवी के रूप में एक और कड़ी का इज़ाफा हुआ है। यह भारत में अभी विकसित रूप में नहीं पनपी है, पर भविषय में यह बहुत ज़ोरदार रूप लेने वाली है। इन सम्भवनाओं और इस परिदृष्य को सामने रख कर आप अपनी भूमिका तय कर सकते है।
एक सक्षम टीवी प्रोडयूसर, डॉयरेक्टर, एक्टर, कैमरामेन, एडिटर, टैक्निषन, मनेजर, या अन्य छोटा या बड़ा पदाधिकारी बनने के लिए अथवा चैनल का मालिक बनने के लिये यह आवष्यक है कि आप के पास इस क्षेत्र की समयक जानकारी एवं अनुभव हो। पहले की बात अलग थी जब मात्र संयोग से इस क्षेत्र के साथ जुडकर लोग अथक मेहनत कर के नाम, यष और खासा धन भी कमा लेते थे। अब लेकिन यह एक उध्योग का रूप धारण कर चुका है। यहां कामयाबी का अर्थ है होड के बाज़ार में लगातार टिके रहना, यहां तैयार मानवसंसाधन को वरीयता है। कुछ सरकारी व गैरसरकारी ऐसी चैनलों को छोड कर, जिन के सरोकार आज भी जनकल्याणकारी विकासषील कार्यां से जुडे है और सामूहिक हितसाधन के लिए क्रियरत हैं, अक्सर बाकी सारी ही टीवी चैनलों का मुख्य उद्धेष्य मुनाफा कमाना और बाजार में सब से आगे टिके रहना है। इस लिए ये किसी भी कीमत पर दर्षकों की पुतलियों को अपनी चैनल से बान्ध कर रखना चाहते हैं ताकि इन की टीआरपी बदस्तूर बनी रही। यही कारण है कि आजकल बडे सिने स्टार छोटे टीवी स्क्रीन पर नज़र आ रहे हैं, इस से दर्षक इन कार्यक्रमों को अधिक तैदाद में देखते हैं, हलांकि इन की कीमत बहुत अधिक होने से कार्यक्रम का बजट भी काफी बढ़ जाता है पर इस रूप में चैनल को कमाई भी इसी अनुपात से अधिक होती है।
इस प्रकार दूरदर्षन के सीरियलों, नाटकों में जो सादगी, अपने आसपडोस का माहौल, और एक तरह का अपनापन नज़र आता था, उस का स्थान आज ग्लेमर के चटख रंगों में सजी कोठियों, राजषाही तडक-भड़क भरे पोषाकों, चमकीले चेहरों के पीछे जीवन की वास्तविकता से कोसों दूर कही जाने वाली तिलस्म होष्रूबा के पात्रों और कहानी के पेच लिए फेमली सीरियलों ने ले लिया है। इन में अधिकतर कहानियां बहुत ही घिसी पिटी स्टॉक थीमों, व्यर्थ के प्रेम प्रसंगों, घरेलू झगडों, औरतों को हीनमीन आंसुओं और व्यर्थ अहंकार में उलझें फिज़ूल के झगडों के इर्दगिर्द बुनी हुई होती हैं। लेकिन कुछ लोग आज भी बहुत रोचक ढंग से सामाजिक परिवेष से जुडे सार्थक सीरियलों को बराबर बना कर दिखाते हैं।
दूरदर्षन हो या प्राइवेट निजी चैनल, सब का अपना ‘इन-हाउस’ प्रोडक्षन डिपार्टमेंट होता है। यह विभिन्न अनुभागों में बंटा होता है। दूरदर्षन में कार्यक्रम के अनुसार ही अलग अलग सेक्षन बने हैं। प्रारम्भ के दिनों में दूरदर्षन का एक राष्ट्रीय और कुछ क्षेत्रीय भाषओं के चैनल थे। अब राष्ट्रीय नेटवर्क, मुख्य राष्ट्रीय चैनल, विभिन्न राज्यों में उन की क्षेत्रीय भाषा चैनल, जैसे, कष्मीरी, पंजाबी, उडिया, बंगला, नार्थ-ईस्ट, आदि के अतिरिक्त उर्दू-हिन्दी भाषा चैनलों के साथ, मनोरंजन, कला, संस्कृति, खेल, समाचार, की अलग चैनल दूरदर्षन अपने दर्षकों को दिखा रहा है।
इन सब चैनलों के कार्यक्रम निर्माण के लिए दूरदर्षन के पास हज़ारों प्रषिक्षित मीडिया कर्मी, मनेजर, फाइनानषियल एक्सपर्ट और मार्केटिंग एक्सपर्ट के अतिरिक्त आधुनिक्तम मषीनरी और इक्यूपमेंट उपलब्ध है। दूरदर्षन साल भर में हज़ारों घंटे कार्यक्रम स्वयं निर्माण करने के अतिरिक्त कार्यक्रम निर्माण की बडी आपूर्ति के लिए बाहर के स्वतन्त्र कार्यक्रम निर्माताओं और कार्यक्रम निर्माण कम्पनियों से अपनी ज़रूरत के अनुसार विभिन्न योजनाओं के तहत कार्यक्रम निर्माण कराता है।
दूरदर्षन बाहर की कुषल मीडिया संसथानों, व्यक्तियों, एवं कम्पनियों के साथ कई प्रकार के करार के तहत कार्यक्रम बनवाता या खरीदता है। जिन में से कुछ मुख्य रूप से इस प्रकार से हैंः
कमीषन्ड कार्यक्रम
प्रायोजित कार्यक्रम
स्ववितपोषित कार्यक्रम और
‘अक्वीज़िषन’ उपार्जन योजना के तहत खरीदे कार्यक्रम।
इन सब योजनाओं की समस्त जानकारी दूदर्षन की वेबसाइट पर विस्तार से उपलब्ध है। यहां हम संक्षिप्त में कुछ विषेष बातें ही बताते हैं।
कमीषन्ड कार्यक्रम के लिए समय-समय पर दूरदर्षन अपनी आवष्यक्तानुसार बाहर के निर्माताओं से कार्यक्रम निर्माण के लिये प्रस्ताव आमन्त्रित करता है। इस की सुचना समाचारपत्रों व दूरदर्षन की वेबसाइट पर विज्ञापन के द्वारा दी जाती है। बाहर के निर्माता अपने प्रस्ताव कार्यक्रम की आवष्यक्ता के हिसाब से तैयार कर के और दूरदर्षन की षर्तां को ध्यान में रखते हुए बनाते हैं। प्रस्ताव के साथ कहानी की रूपरेखा के अतिरिक्त अगर यह नॉन-फिक्षन है तो एक एपीसोड का स्क्रिप्ट और यदि फिक्षन है तो चार एपीसोड का स्क्रिप्ट, बजट, यानी खर्चे का ब्यौरा, अपनी प्रोडक्षन टीम की पूरी जानकारी व दूरदर्षन की प्राससिंग फीस के रूप में रू.10000. हज़ार से ले कर रू.25000.हज़ार तक का डिमान्ड ड्राफट संलग्न रखते हैं। इन प्रस्ताओं को दूरदर्षन की एक चयन कमीटी जिस में बाहर के जाने माने एक्सपर्ट मेंम्बर भी षामिल होते हैं, छांटती है, और पारित करने के लिए अनुमोदित करती है। यह कमीटी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अलग गठित की जाती है। प्रस्ताव पारित होने की सूचना निर्माता को डाक द्वारा दी जाती है और इस के बाद निर्माता दूरदर्षन के साथ एक अनुबन्ध कर लेता है जिस में एक निषचित अवधि के भीतर कार्यक्रम बनाकर देने की बात के अतिरिक्त कार्यक्रम की गुण्वता का दूरदर्षन की मूलभूत आवष्यक्ता के अनुरूप रखने की षर्त रखी होती है। कार्यक्रम बनाने के लिए दूरदर्षन बैंक गारंटी के समक्ष अग्रिम धन राषि का समय समय पर कार्यक्रम की तैयारी के हिसाब से भुगतान करता है।
प्रायोजित कार्यक्रम की श्रेणी में पारित होने वालेष्प्रस्ताव का तौर तरीका भी लगभग कमकीष्न्ड कार्यक्रम जैसा होता है, पर इस के लिए दूरदर्षन धन की व्यवस्था नहीं करता है। इस के लिए धन आप अपनी जेब से लगाते हैं फिर बाद में प्रायोजक तलाष कर, अपने लगाये धन को कुछ मुनाफे के साथ वसूल करने की आषा करते हैं। यह किंचित जोख़म का काम है। आप को प्रस्ताव के साथ नमूने के तौर पर एक से चार ऐपीसोड पहले से बना के देने को कहा जाता है। इस के लिए काफी धन की आवष्यक्ता पडती है, जिस की आप ने पहले से व्यवस्था की होनी चाहिए। प्रस्ताव पारित होने पर एक से तीन मास के कार्यक्रम की अग्रिम खेप भी आप से मांगी जा सकती है, जिसे आप को तैयार रखना है। इस लिए आवष्यक है कि आप ने इन सारी बातों को पहले से अच्छी तरह सोचा समझा हो। अगर आप की तैयारी पूरी है तो आप को एक टाइम स्लाट अलॉट होता है। इस की फीस आप से वसूली जाती है, इस टाइम स्लाट में, जिस की अवधि 5 मिनेट से ले कर एक घंटा या इस से अधिक भी हो सकती है, आप अपना कार्यक्रम टीवी पर दिखा सकते हैं। इस टाइम स्लाट में आप को कुछ फ्री टाइम प्रायोजकों के विज्ञापन चलाने के लिए भी मिलता है। इस में आप प्रायोजकों से पैंसा वसूल कर उन के विज्ञापन दिखाते हैं। इस प्रकार आप के खर्चे की भरपाई और कमाई का साधन पैदा होता है। दूरदर्षन कमीष्न्ड कार्यक्रम एवं खुद बनाये कार्यक्रम के लिए भी प्रायोजकों की व्यवस्था करता है। इस के लिए दूरदर्षन की अपनी मार्केटिंग सेल कार्यरत रहती है।
स्ववितपोषित कार्यक्रम बनेने के प्रस्ताव एवं इस को पारित कराने की प्रक्रिया भी न्यूनाधिक कमीष्न्ड अथवा प्रायोजक कार्यक्रम जैसी है, पर यहां मूल अन्तर यह है कि दूरदर्षन आप से आरम्भ में कुछ समय तक बीज रूप में पैंसा अपनी जेब से लगाने की अपेक्षा करता है। बाद में कार्यक्रम की सफलता अथवा असफलता को ध्यान में रख कर इसे आगे चलाने के लिए स्वीकारा जाता है। दूरदर्षन द्वारा चलाये गये आप के सारे एपीसोडों की टीआरपी रेटिंग देख कर तयषुदा कीमत अदा की जाती है और यदि टीआरपी अच्छी है तो कार्यक्रम को जारी रखा जाता है। ऐसे कार्यक्रम, निर्माता, प्रायोजकों को और लोकरूचि को ध्यान में रख कर बनाते हैं, इस कारण दूरदर्षन के अधिक्तर मनोरंजन कार्यक्रम अब इसी आधार पर बनाये जाते हैं।
‘अक्वीज़िषन’ केटगरी के कार्यक्रम दूरदर्षन कभी कभी आवष्यक्ता पडने पर टेंडर निकाल कर प्राइवेट निर्माताओं के पास पहले से तैयार ऐसे कार्यक्रम खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है जो कभी कहीं किसी प्राइवेट चैनल या दूरदर्षन पर टेलीकास्ट नहीं हुए हों अथवा हो गये हों। ऐसे कार्यक्रम चयन कमीटी द्वारा देखपरख कर कुछ निषिचत अवधि के लिए खरीदे जाते हैं अवधि समाप्त होने पर निर्माता इन्हें अन्यत्र बेच सकता है।
इन सब बातों से आप कदापि यह निषकर्ष न निकाले कि धनाभाव में आप मीडिया में कुछ भी नहीं कर सकते हैं। जिन के पास धन नहीं है, उन के लिए भी एलेक्ट्रानिक मीडिया में धन और यष कमाने की असंख्य सम्भावनायें भरी पडी हैं। अपनी योग्यता और टेलेंट के बल पर कई लोगों ने इतना यष और धन कमाया है कि वे खुद के टीवी चैनल और प्रोडक्षन हाउस सफलता से चला रहे हैं।
एलेक्ट्रानिक मीडिया आज हज़ारों मीडिया कर्मियों को रोज़गार प्रदान कर रहा है। जिस में सैंकडों टेक्नीषन, कलाकार, पत्रकार, अभिनेता, गायक, खिलाडी, फिल्म मेकर, ऐंकर, वीजे, सेलीब्रिटी, होस्ट आदिष्षामिल हैं। टेलीविजन मीडिया में तरह तरह की पोज़़ीषनों व नौकरियों की ट्रैनिंग के लिए देष में जगह जगह आज मीडिया स्कूल और कालेज खुले हैं। इन में विधिवत टेलीविजन पत्रकारिता में डिग्री डिपलोमा व पोस्टग्रेजुएट डिपलोमा का प्रषिक्षण दिया जाता है। इस के अतिरिक्त कैमरा, लाइट, साउन्ड, एडिटिंग, एनीमेषन ग्राफिक्स, डॉयरेक्षन, प्रोडेक्षन के अतिरिक्त न्यूज़ रीडर, ऐंकर और अभिनय सीखने का प्रषिक्षण दिया जाता है।
इस सम्बन्ध में मानक संस्थाओं में पूना का फिल्म और टेलीविजन इन्सटीटयूट, कोलकता का सत्यजीतरे इन्सीटीटयूट व अन्य जाने माने कालेज और विष्वविध्यालय जिन की जानकारी आसानी से इन्टरनेट पर प्राप्त की जा सकती है, आरम्भिक स्तर से ले कर उच्चतम स्तर तक का प्रषिक्षण दे रहें हैं।
आरम्भिक दौर में कुछ स्वाध्यायी लोग स्वेच्छा से बिना किसी पूर्व प्रषिक्षण के इस क्षेत्र में आये, इन्हों ने अपनी असीम रूचि इस क्षे़त्र में दिखायी और केवल अपनी षिक्षा, मेहनत, लग्न, और दृढ़ निष्चय के बल पर इस क्षेत्र में महारत प्राप्त कर के सफलता हासिल की। किन्तु आजकल की दुदियां में जहां मीडिया में सब कुछ अब काफी व्यवस्थित रूप से चल रहा है, बिना प्रषिक्षण और अनुभव के जगह पाना बहुत कठिन है। अच्छा है कि हम सारा जीवन सीखने में न लगा कर अपने आप को एक कुषल कारीगर की तरह बिलकुल तैयार रखें और इस व्यवसाय के सारे गुण-दोष जानने और इसे अपनी काबलियत की बेहतरीन हद तक सीखने और बरतने का प्रयास करें। अपनी त्रुटियों को समझने और दूर करने के लिए भी यह प्रषिक्षण संस्थायें बहुत फायदेमंद साबित होती हैं।
सफल मीडिया कर्मी बनने के लिए किसी मान्यता प्राप्त संस्था, कालेज, या युनीवर्सिटी से प्रषिक्षण पाना ज़रूरी है। इस से आप का आत्मविष्वास काफी हद तक बढता है। आप को ज्ञान तो प्राप्त होता ही है साथ में अपनी त्रुटियों को दूर करने का अवसर भी मिलता है। यहां अनुभवी षिक्षकों से ज्ञान प्राप्त कर के आप को इस का लाभ मीडिया में काम करने पर अवष्य मिलता है। क्योंकि मीडिया में घुसना इतना कठिन भले न हो पर यहां लगातार जमे रहना इतना आसान नहीं। सरकारी हो या प्राइवेट, मीडिया में आपकी अच्छी ट्रेनिंग, अनुभव और सतत सतर्कता ही आप की जीवन रेखा है।
मीडिया कर्मी को अपने देष, दुनिया की हर छोटी बड़ी घटना पर नज़र होनी चाहिए और इस को समझने के लिए उस ने विषलेषणत्मक और विवेचनात्मक बुद्धि के प्रयोग का गुण अपने में पैदा किया होना चाहिए। वह साहसी, आत्मसंयमी, सत्यनिष्ठ, और दूरदृष्टा हो। उसे अपने आस पास घट रही घटनाओं, समाज को प्रभावित करने वाले सोच, और सामाजिक रिषतों, मूल्यों, व जीवन षैली में आ रह नित नये बदलाव की गहरी समझ होना अत्यन्त आवष्यक है। इस के लिए उसे संसार के भूत, वर्तमान और भविष्य का अध्ययन और समझ होनी चाहिए। सामाजिक, सांस्कृतिक, एतिहासिक, धरोहर का समयक ज्ञान होने के साथ ही कला, संगीत और विज्ञानादि की भी समझ होनी चाहिए।
यह देखते हुए कि आजकल हर जेनर की एक नयी चैनल खुल रही है, यह और भी आवष्यक है कि आपने अपना व्यक्तित्व बहुआयामी बनाया हो। भले आप किसी एक विषेष जेनर को ही बाद में प्राथमिकता दें। दूरदर्षन ने भी इसी दिषा में अपनी चैनलों का और अघिक विस्तार किया है। संस्कृति पर आधारित डीडी भारती, खेलकूद के लिए डीडी स्पोर्टस, न्यूज़ के लिए डीडी न्यूज़, क्षेत्रीय भाषाओं की अलग चैनलें, संसद की गतिविधयों के सीधे प्रसारण व देष की सामाजिक राजनीतिक समस्याओं पर प्रकाष डालने और सरकार द्वारा इन के समाधान में उठाये कदमों पर चर्चा के कार्यक्रम प्रसारण के लिए संसद चैनल आदि दूरदर्षन श्रंखला के विस्तार का स्वरूप है। यहां भी योग्य मीडिया प्रोफेषनल की हमेषा ज़रूरत बनी रहती है।
प्राइवेट चैनल भी अब इसी प्रकार अपना विस्तार कर रहे हैं। म्यूज़िक, ट्रैवल, विज्ञान, फैषन, फिल्म, हैलत्थ, बिज़नेस, और न जाने कितने ही विषयों पर आये दिन चैनल खुल रहे हैं, इन सब को सैंकडों की तैदाद में योग्य और अनुभवी व्यक्तियों की ज़रूरत रहती है। इस लिए यहां रोज़गार के विपुल अवसर मौजूद है। बस यह ध्यान रहे कि जिस प्रकार एक कुषल डाक्टर, इन्जीनियर या बिज़नेस मनेजर बनने के लिए मानक प्रषिक्षण की आवष्यक्ता होती है, वैसे ही मीडिसा में भी प्रषिक्षण अनिवार्य है।
टीवी च्ैनलों को लगातार कार्यक्रमों की, सीरियलों की आवष्यक्ता बनी रहती है, जिस के लिए इनके इन-हाउस प्रोडक्षन एक सीमा तक ही कार्यक्रम जुटाने मे सफल होते हैं। बाक़ी कार्यक्रम ये प्राइवेट प्रोडक्षन कम्पनियों से बनवाते हैं। इस तरह ये प्राइवेट कम्पनियां भी टीवी कार्यक्रम बनाने में काफी व्यस्त रहती हैं और इन को कुषल और अनुभवी तकनीषनों, लेखकों, कार्यक्रम निर्माताओं, निर्देषकों और एक्टरों आदि की आवष्यक्ता लगातार बनी रहती है। इन के साथ जुड कर भी आप को, आप के काम का सही मूल्य, नाम और षोहरत प्राप्त हो सकती है।
दूरदर्षन के अतिरिक्त सूचना प्रसारण मंत्रालय के तहत काम कर रहे बहुत से अन्य मीडिया विभाग, जैसे फिल्मस डीवजन, डीएवीपी, सूचना प्रसारण विभाग व अन्य मन्त्रालयों के अपने सूचना विभाग हर वर्ष योजनाबद्व रूप से काफी मात्रा में बाहर के निर्माताओं व कार्यक्रम निर्माण संस्थाओं से, लोगों में विभिन्न सामाजिक विषयों की जानकारी और जागृति संचारित करने के लिए विभिन्न सामाजिक मुद्वों पर फिल्में और टीवी कार्यक्रम बनाने के लिए अनुबन्ध करते हैं। इस की व्यापक जानकारी सूचना प्रसारण मंत्रालय और अन्य विभागों के वेबसाइट पर उपलब्ध है।
टेलीविजन विज्ञापन व्यवसाय जो पहले से मौजूद विज्ञापन कम्पनियों का ही विस्तार है, भी टेलीविजन के लिए सरकारी, गैरसरकारी और सब से अधिक उध्योग जगत के लिए विज्ञापन फिल्मों का निर्माण करते हैं। इस में छोटे बच्चों से लेकर बडे बूढों तक को मॉडिलिंग का काम मिलता है। यहां कैमरामेन, कापी राइटर, डायॅरेक्टर और सभी टीवी तकनीषनों की आवष्यक्ता बराबर बनी रहती है। यह कम्पनियां अच्छा मेहनताना भी देती हैं।
सरकार ने षिक्षा के व्यापक विस्तार के लिए योजनाब्द्व रूप से सैटलाइट इन्स्ट्रक्षनल टेलीविजन की एक बड़ी परियोजना 1975 में प्रारम्भ की जिस के तहत बडे पैमाने पर टेलीविजन के माध्यम से षिक्षा का प्रचार प्रसार सारे देष में प्रारम्भ किया गया। आज इस योजना ने काफी विस्तार पाया है। एनसीआरटी, और इगनो, में टी वी कार्यक्रमों के माध्यम से षिक्षा पर काफी कार्य होता है। इन संस्थानों के साथ जुडकर भी प्रोडक्षन का कार्य हो सकता है। ज्ञानदर्षन, विज्ञान चैनल, कृषिचैनल में भी कार्यक्रम निर्माण का काफी काम हाता है और इन्हें कार्यकुषल प्रोफेषनल व्यक्तियों की हमेषा आवष्यक्ता रहती है।
टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण के पक्षों पर हम ने यह विहंगम दृष्टि डाल कर आप के सामने केवल मोटे तौर पर कुछ परिचयात्मक विवरण रखे हैं। यह क्षेत्र इतना व्यापक और फैला हुआ है कि इसे किसी एक पुस्तक में समाहित नहीं किया जा सकता है। हर विषय और हर कार्यक्रम के निर्माण पर अलग से एक किताब लिखी जा सकती है। कैमरा, एडिटिंग, लाइट, लेखन, निर्देषन आदि पर विस्तार से लिखा जा सकता है। आषा है आप इस पुस्तक को इसष्योजना का पहला सोपान समझ कर हमें प्रेरित करेंगें।
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