"प्रवाह वितस्ता का" महाराज कृष्ण शाह, जम्मू कश्मीर राज्य के सुप्रसिद्ध हिंदी /अंग्रेजी के लेखक , कवि , नाटकार , टेलीविज़न कार्यक्रम निर्माता निर्देशक और अभिनेता है। इनको इनके उत्कृष्ट कार्य के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार द्वारा २००८ में पत्रकारिता और जनसंचार में "भारतेंदू हरिश्चंद्र "सन्मान से और हिंदी संस्थान लखनऊ ने २०१५ ने "सौहार्द " सन्मान से इनके भाषा साहित्य के क्षेत्र में समुचित योगदान के लिए सम्मानित किया। फिल्ममेकिंग के अतिरिखत ये पिछले ६ वर्ष से विभिन्न कॉलेजों में जर्नलिज्म और मास् कम्युनिकेशन भी पढ़ाते हैं :
प्रवाह वितस्ता का
प्रवाह वितस्ता का
आगमन
देश आजाद हो गया है। 1947 में ब्रिटिश भारत छोड़ चुके हैं। किन्तु कश्मीर में स्थिति असामान्य है। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह विलय को ले कर जितनी दुविधा में हैं उससे कहीं अधिक दुविधा में कश्मीर में रह रहे तकरीबन साढ़े सात लाख हिन्दू हैं, जिन्हें कश्मीरी पंडित के नाम से जाना जाता है। भारतवर्ष के विभाजन के समय प्रिंसली स्टेटस को यह अधिकार दिया गया कि वह भारत अथवा पाकिस्तान में से जहां चाहिए उस देश के साथ विलय कर सकते हैं। । महाराजा की पाकिस्तान के साथ स्टैंड सिटिल (साम्यिक करार) संधि होने के बावजूद पाकिस्तान ने, खाने-पीने की वस्तुओं, नमक और पेट्रोल को कश्मीर भेजने पर रोक लगा दी-कश्मीर में अकाल की स्थिति पैदा हो गई उसके बाद कबाईली लड़ाकू और पाकिस्तानी फौज ने मिलकर कश्मीर पर आक्रमण बोला। आक्रमणनकारी पहले सादे लिबास में आधुनिक हत्थियारों के साथ पुंछ सियालकोट और रामकोट के इलाके से घुसे फिर मोहरा पावर स्टेशन जला दिया-श्रीनगर में, घुप अंधेरा छा गया, मुज़फराबाद, कुपवारा, गुरेज़, बारामुल्ला-पर हमला हुआ।कुछ महीनों की घोर दुविधा में फंसे रहने के बाद जब पाकिस्तान ने कबाइली हमलावरों को कश्मीर हड़पने के लिए भेजा, तो विवश होकर एक मुस्लिम बहुल्य राज्य के महाराजा ने भारत के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए। कश्मीरी पंडितों ने राहत की सांस ली। पर पाकिस्तान ने इस बीच कश्मीर के एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया था। ‘शारदा ’ जैसा तीर्थ खो गया-पर श्रीनगर, बारामुला, कुपवाड़ा गुरेज़ बच गया। माउंट बेटन को महाराजा ने बड़े साफ शब्दों में लिखा था कि वे शेख अब्दुल्ला को अपनी कार्यकारणी सरकार में पीएम नियुक्त करना चाहते हैं। यनी सरकार महाराजा की ही होगी-जब तक चुनाव होंगे। किन्तु विलय की संधि पर हस्ताक्षर करते ही कषमीर के महाराजा को दरकिनार किया गया और उस के बेटे करण सिंह को सदरे रियसत बनाया गया। महाराजा हरि सिंह को अपने बेटे से मरते दम तक यह मलाल रहा।सितम्बर 1951 में जम्मू-कश्मीर में पहले चुनाव हुए। शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की नेशनल काॅन्फ्रेंस ने राज्य की बागडोर संभाली और जम्मू कश्मीर की पहली विधानसभा को शेख साहब ने संबोधित किया।
1951-52 में कश्मीर में फिर उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। शेरे कश्मीर ने संविधान सभा में डिकरी पास करके जमीनदारी से संबंधित कानून में परिवर्तन लाकर जमीन किसानों के नाम करने का एलान किया- शेख फ्रांस और रूस की क्रांति से प्रभावित थे. वहीं अमेरिका की डेमोक्रेसी के कायल भी थे। असम्बली के पहले उद्घोष मे ही उसने इस तरह की घोषणा करके कश्मीरी पंडितों को असमंजस में डाल दिया। श्रीनगर के अधिकांश कश्मीरी पंडित जमीनदारी व्यवस्था से बहुत करीबी तौर पर जुड़े थे। इनमें से काफी लोगों की जमींदारी और चकदारी फूली-फली थी और इनका अधिकांश जीवन व्यापन इसी पर निर्भर था। अब जबकि जमीनदारी का अंत होने वाला था...पढ़े-लिखे नौकरीपेशा कश्मीरी पंडित नौकरियों से अधिक चिपके रहे। जो लोग लड़कियों को पढ़ाना या नौकरी कराना बुरी बात मानते थे, उनको आनेवाले दिनों की सख्ती और कष्टों का अहसास होने लगा था। दबी जुबान सरकारी नौकरीपेशा लोगों का भाव और मान भी बढ़ने लगा। पढ़ाई को पहली प्राथमिकता मिली और अब कश्मीरी पंडित को अपनी जिजीविषा केवल पढ़ाई-लिखाई में दिखने लगी। कश्मीरी पंडितों ने समय की नजाकत को पहचान लिया और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर बल देने लगे कि यदि अपने समाज को आगे रखना है तो बच्चों को जम कर पढ़ाओ। कुन्ती जेलखानी और मोहन लाल जेलखानी ऐसे बहुत से लोग इस अभियान के प्रथम सांकेतिक स्तम्भ हैं। पूर्व राजा महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला में आपसी तनातनी के नतीजे में जवाहर लाल नेहरू को महाराजा हरिसिंह के अधिकारों में कभी लानी पड़ी-महाराजा सोचे थे कि विलय का प्रपत्र उन्होंने साइन किया है और वे अभी भी सारे अधिकार अपने पास रखते हैं। जबकि शेख अब्दुल्ला का कहना था कि कश्मीर में राजशाही खत्म हो गई है और लोकशाही शुरू हुई है। शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के निर्विवाद एकमात्र ऐसे जन-प्रतिनिधित्व हैं, जो हुकूमत करने के लिए संपूर्ण बहुमत के साथ प्रजा द्वारा चुने गए हैं। इस अर्तिविरोध ने राजा हरिसिंह को कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया-उनकी रानी कांगड़ा में अपने मायके चली गई और कम उम्र बेटे करण सिहं को कश्मीर का युवा नेता और सदरे-रियासत तैनात किया गया। इस बात से बेहद दुखी हरिसिंह अंतिम समय तक मुम्बई में पेड़र रोड स्थित बंगले में अपने बीवी-बच्चों सेे दूर एक तनहा ज़िन्दगी गुज़ारने पर विवश हुए... इस बात का कश्मीर राजनीति पर काफी प्रभाव पड़ा। कश्मीर राजनीतिक अखाड़े में बहुल साजिशें, विश्वासघात और गुन्डागर्दी व फसाद के दौर ने जन्म लिया, जिससे कश्मीरी पंडितों को प्राणों की सुरक्षा का भय उन्हें कमजोर करके तोड़ देता। शेर-बकरा लड़ाई और खानाजंगी जगह-जगह सिर उठाती- यह सब उत्पात जेलखानी मुहल्ला के इर्दगिर्द वाले इलाके में कुछ अधिक ही हो रहा था-आये दिन तरह-तरह के फसाद इस मुहल्ले को एकजुट किए थे। सभी परिवारों के एक साझे आंगन में चैकटी लगा कर और बदलते परिदृश्य पर विचार करते अकसर अपनी सुरक्षा की चिंता रहती- चारों और मुसलमान बहुल्य इलाके थे। इसके बावजूद भी पंडितों के प्रति अभी भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं दर्शाया जाता- जेलखनी मुहल्ला के बाद नवा कदल, फिर नवाहटा, जामा मस्जिद और हारी पर्वत का पवित्र और किल्ला-पर्वत के दामन में मुसलमानों की दरगाह, सिखों की छठी पादशाही गुरूद्वारा और पर्वत के शिखर पर शारिका भगवती का मंदिर, यहां सारे श्रीनगर के पंडित ब्रह्ममूर्ति में ही नंगे पांव, नगर की, हर गली-कूचे से दौड़े चले आते-आरती नमाज़, दरूद और अखण्ड पाठ की ध्वनि- लहरी के मिश्रित स्वर-संगम का समां, अनूठी अध्यात्मकता से भर देता- लोगों का ईश्वर से प्रेम, अकीदा और ईश्वर में अखण्ड विश्वास को दर्शाता यह दृश्य अद्भुद था-सब एक-दूसरे की खैरियत जानते-अपने प्रभू का स्मरण करते उससे सब की भलाई और स्वास्थ्य की प्रार्थना करते- माहौल भाई-चारे और मानवता से भरा इस को देखते राजनीतिक उपद्रव से उभरी स्थितियां बहुत, बौनी दिखती और लोग इन पर फब्तियां कसते और इन का मजाक उड़ाते।
श्रीनगर वास्तव में झेलम नदी के दोनों किनारों पर बसा एक पुराना ऐतिहासिक शहर है, जिसे प्रवरसेन ने छठीं शताब्दी में बसाया था-यह शहर कश्मीरी इतिहास के अनेकों आयाम, उतार-चढ़ाव, बसना और विनष्ट होना, जुल्म, जवर के बीच पनपती और परवान चढ़ती मानवता का अजब दौर-दौरा देखा है। इस शहर के बीचोंबीच, गांव-कदल से हब्बा-कंदल, गणपत यार, भान मुहल्ला, फते कदल, नौवा कदल, जान कदल, और आली कदल और दूसरी तरफ इन्हीं के बिलकुल सामने से गुजरते द्रब्यार , कन्य कदल....इसी दौर में श्रीनगर के जेलखानी मुहल्ला आॅली-कदल में दस-बारह घरों का एक कश्मीरी पंडित टोला रह रहा है। इस टोले के अधिकतर पंडित पढ़े-लिखे, छोटी-बड़ी सरकारी नौकरियों पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं। महोनलाल जेलखानी की शादी को एक आध साल हो चुका है। छोटे भाई चूनी लाल जेलखानी सरकारी स्कूल में अध्यापक के कार्य पर नियुक्त हैं। वे स्कूल में अंग्रेजी के बहुत अच्छे टीचर माने जाते हैं। अंग्रेजी लिट्रेचर में बहुत दिलचस्पी है और लाहौर से पढ़ाई पूरी की है।
मोहन लाल जेलखानी की पत्नी मुश्किल से 13 साल की छोटी गुडिया सरीखी नाबालिग़ बच्ची है। मोहन लाल जेलखानी खुद भी अभी छोटे हैं और इसी साल बारहवीं पास की है। मोहन लाल की बीवी कान्ता भी नवीं में पढ़ रही है और अभी आगे पढना चाहती है। किन्तु समय कठिन है, पिता की सोच प्रगतिषील होने के बावजूद विवश है। पीछे ग्रहस्थ की लम्बी गाडी जो खीचनी है। सब कुछ सोच विचार कर किया है। अभी दो लडकियों की षादी करेंगें तभी आगे और तीन लडकियों का ब्याह हो पायेगा, और फिर दो लडके भी हैं उन की पढाई लिखाई षादी सब होना अभी बाकी है। अकेला आदमी कितना कुछ कर पायेगा। सो जो भी करना है ,सोच विचार कर योजनबद्ध करना होगा। बार-बार शादियों पर अलग अलग खर्च नहीं कर सकते। कुन्ती के पिता दीना नाथ कौल ने श्रीनगर के एस पी कालेज से ग्रेजुऐशन की थी,राज्य के कस्टम विभाग में इन्सपेक्टर की नौकरी छोड कर हाईकोर्ट में मुख्य सहायक के पद पर काम करना ज़यादा उचित लगा क्यों कि अफवाह थी कि कस्टम विभाग को निरस्त किया जायेगा। दीनानाथ किसी भी रूप में जीवन में कोई अनिष्चता मोल नहीं लेना चाहता था सो कम तनखाह और छोटी पोस्ट पर स्थायित्व के आशवासन को वरीयता दी। यही सोच अपने सात बच्चों के लालन पालन और उनके जीवन को दिषा और दशा देने की युक्ति भी अपनायी। सब से बडी बेटी मनमोहनी का ब्याह आइ. एन. चक्को के साथ तय हुआ । चक्को साहब पहले कश्मीरी थे जो अकउटेंट जनरल के पद पर रिटायर हुए। इस के बाद कुन्ती के पति मोहन जी भी अकंउटेंट जनरल के दफतर में आडिटर पद पर रिटाइयर हुए। मोहन लाल जी ने भर्सक प्रयत्न किये कि विभागीय प्रमोशन की परीक्षा एस. ए. एस पास कर के पदोन्नित पा लें पर सात बार इस परीक्षा में बैठने के बाद भी इस बादा को लांघ न सके। इस बात का उन्हें काफी मलाल रहा कि हर तरह से दफतर के काम में अत्यन्त दक्ष होने के बावजूद भी दफतर की ंिखची हुई एक बारीक रेखा को पार न करने के कारण दफतर में अपने कई मातहात ज्यूनियर मुलाज़िमों से भी पिछड गये। हालांकि उन की काबलियत और काम करने की मुस्तैदी और अनुभव के आगे सारा दफतर सर झुकाता था और उन्हें उचित मान देता था पर उनके मन
का मलाल इस से दूर न हुआ।
कुन्ती से ब्याह होने के बाद मोहनजी रोज़गार की तलाश में वादी से निकल कर शेष भारत में आ गये। यहां 1941 से 1951 तक रहने के बाद जब वह घर वापस आये तो कुन्ती ने इस समय का उपयोग अपनी पढाई लिखाई पूरा करने में किया था। कुन्ती षादी के बाद भी लगभग आठ से नौ साल अपने मायके में अपने पिता के पास रही और प्रो. पी एन गंजू एवं प्रो. फिदा हुसैन, प्रो. पी एन गुरटू से दीक्षा ले कर बी ए बी टी पास किया व सरकारी मासटरानी बन गई। मोहन लाल जेलखानी को प्रतिष्ठित अकाउन्टेंट जनरल के दफ्तर में नौकरी मिली है और पत्नी को अध्यापिका का पद मिला है। इस तरह जेलखानी परिवार में दूसरी पीढ़ी के सदस्य पढ़े-लिखे होकर सरकारी पदों पर आसीन हुए हैं। घर में आर्थिक स्थायित्व का अहसास आ गया है पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। अपने पदों की प्रतिष्ठा को न केवल बनाए रखना है, अपितु सीढ़ी पकड़ कर आगे की मंजिल तक चढ़ना है। बच्चों को अच्छी तालीम देनी है और घर का जीर्णउद्धार करना है। अभी च्ुान्नी देवी, कृष्णा देवी,फूला देवी जी और अवतार कृष्ण व इन्दू भूष्ण की भी पढाई लिखाई व शादी होनी हैं।
मोहन लाल जेलखानी की पत्नी कुन्ती देवी अत्यन्त सुंदर और सुशील स्त्री है। यह वह जमाना है, जब लड़कियों को पढ़ाई और नौकरी में लगभग नहीं के बराबर भागीदारी थी। लड़कियां बालिग होते ही दूसरे परिवारों में वंशबेल बढ़ाने और गृहस्थी संवारने में ही शुक्र मनाती थी। इस दौर में कुन्ती जेलखानी स्कूल में पढ़ाने का काम करने लगी। मोहल्ले बिरादरी में जो इस बात को तरक्की और खुशहाली की राह मानते थे, उन्हें प्रेरणा मिल रही थी पर अभी अक्सर औरतें पुरातनवादी विचारों से जुड़ी थीं। उनकी नजर में मोहन लाल जी की मां के खोटे भाग्य थे। बहु के होने का सुख नसीब नहीं। बहु नौकरी के चक्कर में गांव-गांव जा रही है... देखो तो भला क्या जमाना आया है, घर की लाज को इस तरह बाहर मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने में शर्म भी नहीं आती... कुन्ती देवी पर इन बातों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता. उसे मालूम था कि वह किस प्रकार का जीवन और कैसी गृहस्थी चाहती हैं।---------------------------------------------------------------------
नवोदक
1951-52 में कश्मीर में फिर उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। शेरे कश्मीर ने संविधान सभा में डिकरी पास करके जमीनदारी से संबंधित कानून में परिवर्तन लाकर जमीन किसानों के नाम करने का एलान किया- शेख फ्रांस और रूस की क्रांति से प्रभावित थे. वहीं अमेरिका की डेमोक्रेसी के कायल भी थे। असम्बली के पहले उद्घोष मे ही उसने इस तरह की घोषणा करके कश्मीरी पंडितों को असमंजस में डाल दिया। श्रीनगर के अधिकांश कश्मीरी पंडित जमीनदारी व्यवस्था से बहुत करीबी तौर पर जुड़े थे। इनमें से काफी लोगों की जमींदारी और चकदारी फूली-फली थी और इनका अधिकांश जीवन व्यापन इसी पर निर्भर था। अब जबकि जमीनदारी का अंत होने वाला था...पढ़े-लिखे नौकरीपेशा कश्मीरी पंडित नौकरियों से अधिक चिपके रहे। जो लोग लड़कियों को पढ़ाना या नौकरी कराना बुरी बात मानते थे, उनको आनेवाले दिनों की सख्ती और कष्टों का अहसास होने लगा था। दबी जुबान सरकारी नौकरीपेशा लोगों का भाव और मान भी बढ़ने लगा। पढ़ाई को पहली प्राथमिकता मिली और अब कश्मीरी पंडित को अपनी जिजीविषा केवल पढ़ाई-लिखाई में दिखने लगी। कश्मीरी पंडितों ने समय की नजाकत को पहचान लिया और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर बल देने लगे कि यदि अपने समाज को आगे रखना है तो बच्चों को जम कर पढ़ाओ। कुन्ती जेलखानी और मोहन लाल जेलखानी ऐसे बहुत से लोग इस अभियान के प्रथम सांकेतिक स्तम्भ हैं। पूर्व राजा महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला में आपसी तनातनी के नतीजे में जवाहर लाल नेहरू को महाराजा हरिसिंह के अधिकारों में कभी लानी पड़ी-महाराजा सोचे थे कि विलय का प्रपत्र उन्होंने साइन किया है और वे अभी भी सारे अधिकार अपने पास रखते हैं। जबकि शेख अब्दुल्ला का कहना था कि कश्मीर में राजशाही खत्म हो गई है और लोकशाही शुरू हुई है। शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के निर्विवाद एकमात्र ऐसे जन-प्रतिनिधित्व हैं, जो हुकूमत करने के लिए संपूर्ण बहुमत के साथ प्रजा द्वारा चुने गए हैं। इस अर्तिविरोध ने राजा हरिसिंह को कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया-उनकी रानी कांगड़ा में अपने मायके चली गई और कम उम्र बेटे करण सिहं को कश्मीर का युवा नेता और सदरे-रियासत तैनात किया गया। इस बात से बेहद दुखी हरिसिंह अंतिम समय तक मुम्बई में पेड़र रोड स्थित बंगले में अपने बीवी-बच्चों के साथ दूर एक तनहा ज़िन्दगी गुज़ारने पर विवश हुए... इस बात का कश्मीर राजनीति पर काफी प्रभाव पड़ा। कश्मीर राजनीतिक अखाड़े में बहुल साजिशें, विश्वासघात और गुन्डागर्दी व फसाद के दौर ने जन्म लिया, जिससे कश्मीरी पंडितों को प्राणों की सुरक्षा का भय उन्हें कमजोर करके तोड़ देता। शेर-बकरा लड़ाई और खानाजंगी जगह-जगह सिर उठाती- यह सब उत्पात जेलखानी मुहल्ला के इर्दगिर्द वाले इलाके में कुछ अधिक ही हो रहा था-आये दिन तरह-तरह के फसाद इस मुहल्ले को एकजुट किए थे। सभी परिवारों के एक साझे आंगन में चैकटी लगा कर और बदलते परिदृश्य पर विचार करते अकसर अपनी सुरक्षा की चिंता रहती- चारों और मुसलमान बहुल्य इलाके थे। इसके बावजूद भी पंडितों के प्रति अभी भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं दर्शाया जाता- जेलखनी मुहल्ला के बाद नवा कदल, फिर नवाहटा, जामा मस्जिद और हारी पर्वत का पवित्र और किल्ला-पर्वत के दामन में मुसलमानों की दरगाह, सिखों की छठी पादशाही गुरूद्वारा और पर्वत के शिखर पर शारिका भगवती का मंदिर, यहां सारे श्रीनगर के पंडित ब्रह्ममूर्ति में ही नंगे पांव, नगर की, हर गली-कूचे से दौड़े चले आते-आरती नमाज़, दरूद और अखण्ड पाठ की ध्वनि- लहरी के मिश्रित स्वर-संगम का समां, अनूठी अध्यात्मकता से भर देता- लोगों का ईश्वर से प्रेम, अकीदा और ईश्वर में अखण्ड विश्वास को दर्शाता यह दृश्य अद्भुद था-सब एक-दूसरे की खैरियत जानते-अपने प्रभू का स्मरण करते उससे सब की भलाई और स्वास्थ्य की प्रार्थना करते- माहौल भाई-चारे और मानवता से भरा इस को देखते राजनीतिक उपद्रव से उभरी स्थितियां बहुत, बौनी दिखती और लोग इन पर फब्तियां कसते और इन का मजाक उड़ाते। श्रीनगर वास्तव में झेलम नदी के दोनों किनारों पर बसा एक पुराना ऐतिहासिक शहर है, जिसे प्रवरसेन ने छठीं शताब्दी में बसाया था-यह शहर कश्मीरी इतिहास के अनेकों आयाम, उतार-चढ़ाव, बसना और विनष्ट होना, जुल्म, जवर के बीच पनपती और परवान चढ़ती मानवता का अजब दौर-दौरा देखा है। इस शहर के बीचोंबीच, गांव-कदल से हब्बा-कंदल, गणपत यार, भान मुहल्ला, फते कदल, नौवा कदल, जान कदल, और आली कदल और दूसरी तरफ इन्हीं के बिलकुल सामने से गुजरते द्राव पार, कन्य कदल.... फतेह कदल के बाद आली कदल में ही जेलखानी मुहल्ला है। यहीं पर मोहन लाल जेलखानी के माता-पिता ने फतेह कदत भात मुहल्ला के कौल परिवार मे अपने बेटे के लिए लड़की देखी थी। लड़की का पढ़ा-लिखा होना... माहेन लाल की मां को सशंकित कर रहा था... बेशतर औरतें उसे डरा रही भी थी कि बहु की चाकरी करनी है तो पढ़ी-लिखी लड़की को बहु बनाओ। कुछ औरतें तो इसका स्वांग रचा कर उसके सामने इस बात की एक झलक भी पेश करतीं कि कैसे पढ़ी-लिखी बहु...सवेरे देर से जागेगी और तुम्हें उसे चाय-नाश्ता देना पड़ेगा-वह तो नौकरी पर जाएगी और तुम्हें घर के काम-काज करने पड़ेंगे... तुम क्या उम्र भर यूं ही नौकरानी बनी रहोगी-तुम्हें अपना कोई होश-हवास नहीं अरी! नौकरी करने वाली बहु तुम्हारे घर को बसाएगी या नौकरी करेगी-मोहन जी की तो तकदीर खराब है... जो नौकरीपेशा लड़की से शादी होवेगी-बेचारा ज़िन्दगी भर सुखी गृहस्थी को तरसेगा-यह सब बातें तो थीं ही... आचार-विचार और चरित्र तक दूषित होने की बातें सुनते ही... बेचारी मोहन लाल की माता जी का कलेजा बैठ जाता-पर उसके पति देव ए अंग्रेजी स्कूल से मैट्रिक पास थे-उसने अंग्रेजी मेमों को देखा था-उनकी पारिवारिक जिन्दगी और सोच-विचार के बारे में किताबों में पढ़ा था-वह नए विचारों का आदमी था-उसका भाई एजुकेशन डिपार्टमेंट में खुद नौकरी कर रहा था और अच्छे पद पर आसीन था-घर में भारतीय संस्कृति और परचमी संस्कृति का संगम था-भारतीय संस्कृति के मौर्य और गुप्ता कालीन सभ्यता के सांस्कृतिक उत्थान में और कश्मीर के सांस्कृतिक उत्थान में और कश्मीर की इस समय की सांस्कृतिक प्रगति का और इसमें स्त्रियों के योगदान का उन्हें पूरा ज्ञान था।
मोहनलाल के भाई से बहस में कोई जीवन पाता-स्त्रियों की आजादी, पढ़ाई और जागरुकता के वे बहुत पक्षधर थे-अपने मोहल्ले और मोहल्ले से बाहर भी स्त्रियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करते-घर में पढ़ी-लिखी लउ़की का बहू बनकर आना और नौकरीपेशा होना एक मिसाल कायम कर देता है। उसने मां का हौंसला बढ़ाया और मोहनजी की शादी के लिए तैयार किया। चुन्नीलाल धर्मवान होने के साथ ही अपने जमाने की प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। उनकी नजर में धर्म का प्रगतिशील पथ ही उचित पथ है-दकियानूसी आडम्बरों से मुक्त मनुष्य ही सदी धार्मिक हो सकता है।
वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित कश्मीरी जनमानुष भी था- खासकर सांस्कृतिक रूप से। कश्मीर में एक खामोश सांस्कृतिक क्रांति के दौर के बीज रंगकर्मियों और लोक कलाकारों ने बोने शुरू किए थे। आॅल इंडिया पीपुल्स थियटर के प्रभाव में कई कश्मीरी नौजवानों ने रंगमंच की स्थापना नगर में की थी-यह मंच पहले तो पारसी थियेटर से प्रभावित होकर नाटक खेलता था... फिर सामाजिक सरोकारों से जुड़े विष्ज्ञयों पर नाटक खेलने लगा-इसके साथ श्रीनगर के शीर्ष बुद्धिजीवी जुड़ गए-सोशल रिफाॅर्म यानी सामाजिक बदलाव की लहर सारे कश्मीर में इन गतिविधियों से एक कड़ी के रूप में पनपने लगी। कश्मीर के मास्टर जिन्दॅ कौल, दीनानाथ नादिम आदि ने स्त्रियों की शिक्षा और स्वतंत्र जीवन व्यापन के लिए सरकारी नौकरी करने को न केवल समर्थन दिया अपितु इसको लेकर कश्मीरी कौम में जागरुकता फैलाने के लिए इसे प्रचारित किया- मोहन लाल जेलखानी का विवाह इन्हीं दूरदर्शी विचारों और सांस्कृतिक उत्थान की अनेकों मिसालों मंे से एक था-नई सोच, नई जीवनधारा से जुड़ने का एक प्रबल संकल्प! आज जब हम बच्चों को 30-32 साल की उम्र तक पढ़ाते हैं और 40 के होते वह स्टेल हो जाते हैं- उन दिनों जब लड़कियों का मासिक धर्म शुरू होने से पहले उन के ब्याह की चिंता मंे मां-बाप इधर-उधर रिश्ता तलाशने मंे लग जाते और इन्हें ब्याह देते-जब... लड़कियों को पर्दों और बुर्कों में रखा जाता। जब लड़की के जवान होते मां-बाप का चैन लुट जाता... वह जमाना जिसमें लड़कियां एक बार विधवा होकर उमर भर अनब्याही रह जाती। कश्मीरी पंडितों में सामाजिक बदलाव की एक लहर ने जन्म लिया-शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए रूढ़ियों की भेड़ियां उखाड़ फेंकने की क्रांति ने जन्म लिया-इसी काल को राजनीतिक स्तर पर नया कश्मीर के उद्भव और विकास की नींव का काल कहा गया।
उन्नीसवीं शती से बीसवीं शती के इस यात्राकाल ने सांस्कृतिक क्रांति का रूप धारण किया। इसी क्रांति के सहारे कौम को आगे बढ़ाने का संकल्प दृढ़ हुआ-‘आजाद’ महजूर और रसूलमीर की कविताओं ने चिंतन और भाव-भूमि के बदलाव के ताजा बीज बोए थे, जिन्हें जनमानस ने गीतों और धुनों में रचकर आत्मसात किया था। संतों और सूफियों की वाणी ने पहले ही जीवन के सार और अर्थ की व्याख्या प्रदान की थी, किंतु राजनीति की राहें इसी प्रकार फलने-फूलने की जगह बहुत जटिल और दुराग्रहों से मलिन होने लगी। हालांकि आरंभ में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जिस नए कश्मीर का सपना देखा गया और जवाहर लाल नेहरू ने जिसे बल दिया। उसी पर काले बादल मंडराने लगे थे।-----------------------------------------------------
तनातनी का दौर
शेख अब्दुल्ला की ताकत और लोकप्रियता ही उसकी दुश्मन साबित होने लगी। युवराज करण सिंह को भी वही समस्या सताने लगी, जो शायद हरिसिंह को सता रही होगी। पर जवाहर करण सिंह को बहुत कुशलता से संभाले थे और करण सिंह ने शेख अब्दुल्ला के इरादों को भांपना शुरू किया। एक राजनीतिक टोला इस बात से पूरी तरह उखड़ा नजर आ रहा था कि शेख साहब एक डिक्टेटर की तरह काम कर रहे हैं। उन्हें नेहरू की केंद्रीय सरकार से भी कोई सरोकार नहीं। बखषी गुलाम मुहम्मद, डी पी, दर, गुलाम मुहम्मद सादिक और कई अन्य नेता प्रगतिवादी सोच के थे और शेख अब्दुल्ला के खिलाफ भी। इलेक्शनों में जिस तरह से शेख साहब के खड़े किए गए नुमाइंदे बिला मुकाबला कामयाब करार दिए गए और विपक्षी दलों के फार्म खारिज हुए। यह शेख साहब के बदले हुए रूप को और भारत के लिए ख़तरे की घंटी को उजागर कर रहा था-पर जिस प्रकार से शेख साहब की असेम्बली ने विलय के दस्तावेज पर लोकशाही की मोहर लगा ली और बहुत तफसील से शेख साहब ने अपने पहले असेम्बली उदबोधन में साफ किया कि मुस्लिम बाहुल राज्य होने के बावजूद भी वे पाकिस्तान को न चाह कर हिन्दुस्तान से क्यों विलय स्वीकार करते हैं, उसे देखकर किसी तरह की संशय की गुंजाइश न थी। उन्होनंे अपने भाषण मे साफ कहा, सदियों की गुलामी, नाबराबरी और पिच्छुड़ेपन को खत्म करने के लिए कश्मीरी अवाम को मजहबी ज़ंगीरों से मुक्त होकर एक कल्याणकारी सैक्यूलर राज्य के साथ जुड़ने में अधिक औचित्य नजर आता है। इसी भाषण में इन्होंने पंडितों को दुःखी करने वाली बात भी कह डाली कि जागीरदारी और जमीनदारी का अंत करके वे जमीन किसानों को दे रहे हैं। 9 अगस्त, 1953 को कश्मीर के इतिहास में एक विचित्र और बहुत ही भयंकर दिन आया। शेख साहब को कैद किया गया-सारे शहर पर जैसे वज्र गिर गया। दंगे-फसाद भड़के...9 अगस्त, 1953 के दिन शेख अब्दुल्ला को राज्य के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उनके कैबिनेट में डिप्टी प्राइमिनस्टर बख्शी गुलाम मुहम्मद के राजनीतिक टोले ने कश्मीर की कमान अपने हाथ में ली है। शेख अब्दुल्ला के कैबिनेट ने उनमें अवश्विास जता कर अलग कर दिया-असेम्बली के फलोर पर शेख को बहुमत प्रदर्शित करने का अवसर नहीं दिया और उसे मुल्क के विरुद्ध साजिश रचने के आरोप में जेल में नज़रबन्द किया गया। इस समाचार के आते ही...सारे कश्मीर में जगह-जगह शेख के समर्थकों ने बवाल मचाना शुरू किया और सारे कश्मीर में अफरातफरी का आलम फैल गया। किन्तु बख्शी साहब इस स्थिति के लिए पहले से तैयार दिखे। उन्होंने आनन-फानन में हालात काबू करने के लिए प्रशासन और अपने समर्थकों को तैनान किया हुआ था। शेख साहब को जैसी आशा थी वैसा जन-आंदोलन वाला विरोध खड़ा नहीं हुआ और लोगों ने फिर से मामूल का जीवन जीना शुरू किया। किन्तु शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता इस घटना के बाद कभी कम नहीं हुई। कश्मीर में वो मुसलमान तबका जो मुस्लिम कान्फ्रेंस का हामी था और शेख से नाराज़ था अब शेख से सवाल करने लगा। इधर भारत समर्थक प्रगतिशील तत्वों ने शेख साहब के असली मंशा का भांडा फोड़ने का दावा अवाम में पेश किया। जो शेख साहब अपने-आपको डेमोक्रेसी और सैक्यूलरइज़्म का हीरो कहाते थे, वे वास्तव में कश्ीमरी अवाम का एक निर्विवाद मुसलमान बादशाह बनना चाहते थे-शेख अब्दुल्ला को डेमोक्रेसी और समाजवाद या सैक्यूलरइज़्म से दूर का वास्ता नहीं-वे अवाम को सिर्फ गुमराह कर रहे थे। ऐसी ही दलीलें देकर शेख को बदनाम किया जा रहा था। इधर इन दलीलों की सच्चाई को सिद्ध करने के लिए शेख के भड़कीले भाषण और अब बदले तेवर आम लोगों को भी हैरान कर रहे थे। कल तक शेख साहब सारे कश्मीर को भारत के साथ विलय के फायदे गिनाते नहीं थकते थे, आज रातों-रात मुश्किल में पड़ते ही उन्होंने पाकिस्तान पेलबिसिट ‘रायशुमारी’ और इसलाम का राग क्यों अलापना शुरू किया...? कश्मीर की राजनीति को एक गहरा घाव दिया गया-जो आज तक भर नहीं पाया। ऊपर-ऊपर से हालात शांत लग रहे थे। पर भीतर एक मंथन के कारण काफी कुछ हिल रहा था। बख्शी गुलाम मुहम्मद ने शहर के छठे बदमाशों, गुंडों और लुटेरों को अपनी तरफ कर दिया। इस तरह इनके मुंह बंद होने से बलवों में कमी नज़र आने लगी। लोग शांति से अपने-अपने काम में जुट गए-बख्शी ने केंद्र सरकार की मदद से नया कश्मीर पुनर्निमाण का नारा लगाया। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए बख्शी ने लोकलुभावन प्राइमनिस्टर की छवि बनानी शुरू की। कम पढ़ा-लिखा होना और आम आदमी-सा होना अवाम में दर्शाया-जगह-जगह जश्न मनाने शुरू किए और लोक-कलाकारों, दस्ताकरों, किसानों, मज़दूरों को अपने साथ करने के लिए उनके रंग में रंगे दिखे। कश्मीरियों ने शेख अब्दुल्ला को एक तरह से जैसे रातोंरात भुला दिया हो ऐसा लगने लगा।(1953 में) बक्शी गुलाम मोहम्मद ने कश्मीर का प्रधानमंत्री बनते ही सामाजिक और आर्थिक सुधारों का एक प्रगतिशील दौर कश्मीरियों के लिए प्रारंभ किया-इसमें प्राइमरी क्लास से युनिवर्सिटी स्तर तक सभी व्यावसायिक और गैर व्यावसायिक सरकारी संस्थानों में शिक्षा मुफ्त करने का अहम फैसला कश्मीरियों की प्रगति के लिए मील का पत्थर साबित हुआ- ज़मीनदारी के खात्मे और जमीनदारों को मुआवजे का--बिल भी वास्तव में बख्शी ने ही लागू किया-बख्शी ने बिजली, सड़कें, पानी और राशन बहुत सस्ते दामों लोगों को मुय्यसर करना शुरू किया। गांव-गांव सड़कों के जाल बिछने लगे और बिजली पहुंचने लगी। कश्मीरी जनमानस में एक नए जोश और नई उमंग ने जन्म लिया। पुर्नोत्थान के इस दौर के साथ कश्मीरी नौजवान बढ़-चढ़ कर जुड़ने लगे। बख्शी साहब ने सांस्कृतिक उजागरता के दौर का आवाह्न किया कि कलाकारों, संगीतकारों और रंगकर्मियों के जीवन में एक नई जान भर आई। रेडियो कश्मीर जिसकी स्थापना अस्थायी रूप में पोलो ग्राउंड के मैदान में कुछ तम्बू खड़ा करके हुई थी, अब विधिवत् जीरो ब्रिज के समीप एक बहुत ही रमणीय स्थल पर स्थापित हो गया था। इसके साथ घाटी के कलाकारों और बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा समुदाय जुट गया और रेडियो कश्मीरी जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका था। गांव में जहां लोगों के पास अभी इतने साधन न थे कि वे रेडियो खरीद सके, पंचायतों को रेडियो दिए गए, जहां लोग समूहगत रूप से रेडियो प्रसारण सुनने लगे थे। कश्मीर को एक आधुनिक समाज में बदलने के लिए इन आधुनिक संचार माध्यमों ने क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अहम् भूमिका निभाई।--------------------------------------------------------------------- वितस्ता किनारे ...........
और अगस्त 1953 को माहेन लाल जेलखानी और कुन्ती जेलखानी को ईश्वर ने एक सुपुत्र दे दिया। इसका नामकरण गणपतयार के पारिवारिक गुरू महाराज राधाकृषण ने नौंवे दिन काहन्पेथर पर किया। कुन्ती के मायके से उसकी मां-बाप, भाई-बहिन बधाई लेकर आए-खूब जश्न हुआ-सारे मुहल्ले में बांटी गई और काफी दिनों घर में गहमागहमी रही। लड़का हुआ है नामकरण पर काफी नाम सुनाए गए। चुन्नी लाल...लड़के के चाचा ने एक वाक्य में कहा, अशोक.... अशोक नाम कैसा है गुरू महाराज....गुरूजी ने और सारे लोगों में एक स्वर सहमति भर दी-हां, अशोक द ग्रेट ;।ेीवां जीम हतमंजद्ध बच्चे की पत्री गुरूजी ने जन्म के दिन ही तैयार की थी। मोहन लाल को पास बुलाकर गुरूजी बोले-‘तुम बड़े भाग्यवान हो, तुम्हारे घर में भगवान शिवजी के आशीर्वाद से शोडष कला संपन्न पुत्र ने जन्म लिया है। शुरू में पढ़ाई में कमजोर होगा, उसकी चिंता मत करना। किसी सरकारी पद पर ही तरक्की करता आगे बढ़ेगा। हां इसको तस्वीरों का काफी शौक होगा। सोचने-समझने में.... ‘गुरूजी कहीं चित्रकार तो नहीं बनेगा।’ ‘अरे तो उसमें क्या बुराई है,’ चुन्नी लाल ने भाई को समझाया...‘गुरूजी मेरा भाई वास्तव में यह जानना चाहता है कि यह लड़का कुल कुटुम्ब का वंषबेल आगे बढ़ाएगा!’ ‘गुरूजी मुसकुराए और बोले ‘प्रबल ग्रहों का मालिक है। आपको पता भी न लगने देगा, कब पढ़ाई पूरी की और कब अपना रास्ता खोज लिया। हां इसको 10-12 साल घर से दूर नहीं ले जाना.... यहां बेशक अपने दादा,दादी के पास रहे...मोहन जी... खुश रहो... सब ठीक है... अपने पीछे भाई ही लाएगा...’। चुन्नी लाल मुस्कराये तो राधाकृष्ण जी नाराज़ हुए... ‘क्यों मेरी बात का विश्वास नहीं यदि ऐसा’ नहीं हुआ तो जो कहोगे वो करने को तैयार हूं।’ पंडित जी का ऐसा विश्वास किस आधार पर टिका है। चुन्नी लाल एक सुलझे दिमाग़ के आदमी हैं। साइंस पढ़ी है, दुनिया देखी है। जानते हैं लिंग का निर्णय गणित और ज्योतिष के क्रिया-कलाप से इतर कहीं प्रकृति के बीज फल पर निर्भर है, पर पुरोहित का मन रखने को कह दिया, ‘हमें इतना ज्ञान कहां, आप तो भूत, भविष्य, वर्तमान देख सकते हैं।’ ‘मोहन जी... कहीं लिखकर रखो. यह राधाकृष्ण का वचन है, दूसरी संतान भी बेटा ही होगा।’ चुन्नी लाल... थोड़ा उखड गए... ‘महाराज, यदि बेटी होगी तो क्या बुराई है?’ राधाकृष्ण, ‘आह! ऐसा कौन कहता है? जिस घर में सरस्वती या लक्ष्मी ने जन्म नहीं लिया वह भी कोई घर हुआ... उस घर में तो समझ लो सोना, चांदी सब कुछ होकर भी कांति नहीं, कांतिहीन.... षारिका, सारिका यही तो नींव है... नीवं ही न हो तो घर कैसा?’ चुन्नी लाल अब ठीक है, तो गुरूजी अब मैं भी आपका पक्का मुरीद हुआ। ‘राधाकृष्ण... ना भी होते तो बोलो मेरे वज़न में कुछ कमी आती? पर तुम्हारा कुछ घट बढ़ जाता... जीवन बहता दरिया है... बेटे... इसे जैसे चाहो देखो... वैसे दिखेगा.... प्यास हो तो पानी अमृत है, और डुबो जाए तो महाकाल.... हर शिव ओं.... एक भयंकर मौन छा गया... गुरूजी ने सारे वातावरण को गंभीर कर दिया पर इस बात को भांपते ही वे ज़ोर से शंखनाद करके मंत्र उच्चारण करने लगे और कुंड में अग्नि प्रज्वलित कर दी। काहनेथर का हवन शुरू हुआ। स्त्रियों के गाने-बजाने और उत्सव के माहौल से जेलखानी मोहल्ला गूंज रहा था-मोहन लाल की खुशी में सब शामिल थे। मोहन लाल एक देव स्वरूप आदमी है। किसी से ऊंचे स्वर मं बात नहीं। बुजुर्गों का बेहद लिहाज़ और छोटों से प्रेम भाव, मोहन जी सब की नज़र में एक सज्जन पुरुष हैं और दफ़्तर में इसी सज्जनता के लिए लोग इनका गुनगान करते नहीं थकते। मोहन जी की पत्नी कुन्ती देवी भी मिलनसार हैं, पर घर मोहल्ले की स्त्रियों से गंभीरतापूर्वक व्यवहार है। अपने से छोटी और अपने से बड़ी सब महिलाओं से मर्यादा और नियमानुसार व्यवहार रखा है। अशोक की माता जी कुन्ती देवी का समय स्कूल और ससुराल में रम गया। पर एक चिंता बहुत सता रही थी। स्कूलों में टीचरों की कमी खास कर महिला टीचरों की कमी के कारण शहर से महिला टीचरों को गांव के स्कूलों में पढ़ाई आरंभ कराने के लिए अनिवार्य रूप से भेजा जाता। आज नहीं तो कल कुन्ती देवी का भी नंबर आना है। तब अशाोक का वह क्या करेगी-अब अशोक को प्यार से सब काका कहने लगे थे। और काका बहुत प्यारा बच्चा साबित हो रहा था। नैननक्श में बहुत कुछ अपनी मां और पिता पर ही गया है। देखो आंखें बिलकुल अपनी मां जैसी है और नाक एकदम जैसे पिता की चिपकाई गई है। काका को सब प्यार दे रहे थे, पर कुन्ती देवी की आशंका को कोई नहीं समझ रहा था। काका चार-पांच वर्ष का होगा तो इसे बोर्डिंग में... पर यहां यह सब संभव कहां? मोहन लाल जेलखानी पत्नी की इस तरह के सोच से बेखबर अपनी गृहस्थी में मस्त हैं। उनका नपा-तुला-सा संसार है। मां-बाप-भाई-बहिन और अपना परिवार इसके बाद आॅफिस और वापस घर अपने परिवार में। वे अक्सर आॅफिस तक पैदल चले जाते- आली कदल से उन्हें एक मील दो कदम ही लगते। कभी-कभार घोड़ा-गाड़ी (तांगा) पर गांव कदल तक या हव्वा कदल तक जाकर वहां से फिर पैदल जाते। आते-जाते सब जान-पहचान वालों से दुआ-सलाम होती। रास्ते में ससुराल भी पड़ता, पर मजाल है कि बिना खास बुलाए वे कभी अपनी ससुराल की चैखट तक गए हों। उस सूरत में भी न जाते जब पत्नी गई होती। एक आद दिन मायके रह कर पत्नी स्वयं अपने घर लौट आती। काका के आने के बाद दोनों पति-पत्नी काका की पढ़ाई-लिखाई की चिंता करने लगे थे। किसी भी सूरत में काका सरकारी स्कूल में नहीं भेजना है। यहां बहुत देर से पढ़ाई शुरू होती है। पढ़ाई का रंग-ढंग भी इतना आधुनिक नहीं खासकर अंग्रेजी तो छठी जमात के बाद ही शुरू होती है। टीचर भी क्या मेहनत करते हैं? बच्चे भी अलग-अलग माहौल से आते हैं। हमारा बच्चा बिगड़ सकता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर दोनों मियां-बीवी ने यही सोचा कि थोड़ा-बड़ा होते ही शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी काॅन्वेंट ‘टेंडल बिसको स्कूल’ में काका का दाखिला करा देंगे। खजांचियों के मुहल्ले मे कोई बद्रीनाथ है-जो ‘टेंडेल बिसको’ में नौकरी करते हैं। मोहन जी की उनसे जान-पहचान है। दूर का कुछ रिश्ता है। बद्रीनाथ किन्तु बहु-सख्त आदमी है। अंग्रेजों की तरह बहुत ही अनुशासित जीवन जीता है। ईमानदारी और बेबाकी में उसका जवाब नहीं-मोहन जी ने बद्रीनाथ से संपर्क किया। स्कूल में फीस, और एडमिशन का तौर-तरीका समझने के लिए। बद्रीनाथ के घर मोहन जी आज से पहले कभी नहीं गए थे। जरूरत ही नहीं पड़ी थी। रास्ते में घाट पर या दुकान पर चलते-फिरते ‘नमस्कार’ हो जाती और दीन-दुनिया के बारे में बात होती। इतवार का दिन है। महोन जी आॅफिस का कोई काम घर नहीं लाते। सो, आज बिना किसी को बताए बद्रीनाथ के पास चले गए। वहां पहुंचकर बद्रीनाथ के पास चले गए। वहां पहुंचकर बद्रीनाथ से इधर-उधर की बातों में स्कूल के माहौल और एडमिशन प्रक्रिया के बारे में पूछने लगे। बद्रीनाथ का मकान दो मंजिला था। दोनों मंजिल में केवल बद्रीनाथ का परिवार रहता था-बद्रीनाथ के चार बेटे और एक बेटी है। सब बच्चे हैं और दो को सरकारी स्कूल में दर्ज किया है, दो अभी दर्ज करने लायक नहीं समझे जाते... हालांकि मोहन जी की नज़र में दोनों को घर में ष्ठंेपब उवकमष् में डाला गया होना चाहिए था... बेटी अभी छोटी एक आध साल की ही है। मकान दोमंजिला है इसलिए परिवार दरमियाना लगता है। बद्रीनाथ मोहन जी का आशय समझ गए। भीतर-ही-भीतर हंसने लगे। यह आदमी इतना उतावला क्यों है। अभी बच्चा पांच-छह वर्ष खेल-कूद में बिताना चाहिए... फिर अच्छा तगड़ा होकर स्कूल जाएगा तो कुछ सहज रहेगा। इस पर भी अंग्रेजी का भूत सवार है। ‘कैच देम यंग’ बद्रीनाथ मोहन जी की बातें कान लगाकर सुन रहे थे पर भीतर से कुछ और ही कोलाहल मचा था। यह दोनों पति-पत्नी नौकरी कर रहे हैं। बाप-दादाओं की थोड़ी बहुत हैसियत अच्छी है, मेरी तरह प्राइवेट स्कूल में कलम नहीं घिस रहे। यही लोग अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ा सकते हैं। मैं चाह कर भी नहीं, वहीं रहकर भी नहीं किसी बच्चे को वहां पढ़ा सकता हूं। अगर रमण जी वहां के टेस्ट में पास होता तो फीस में कंसेशन मिलती.... तब भी इतने थोड़े पैसे लेकर क्या पढ़ाता वहां उसे। पढ़ाई के साथ सैंकड़ों लफड़े हैं, वहां... ‘मोहन जी... अच्छा है... सयाना आदमी इसी को कहते हैं... आज से ही कल के बारे मंे सोच के रखना चाहिए... टेंडल बिस्को साहब ने स्कूल नहीं बनाया है, यह पूरी संस्था है.. जहां पर बच्चों को भविष्य के लिए तैयार किया जाता है, अनुशासन के साथ आमोद-प्रमोद के खेल इत्यादि सब कुछ.......क्या बच्चों की ट्रेनिंग होती है... यह तो हम सोच भी नहीं सकते, भाग्यशाली लोगों के बच्चे ही यहां पढ़ने आते हैं। हमारे बच्चे उनके साथ पढ़ाई कर पाएंगे, यह सोचना चाहिए। आमतौर पर बड़े-बड़े रईसों और पैसे वालों के बच्चे ही पढ़ने आते हैं। हमारे बच्चों को अक्सर उनके आगे हीनभावना का अहसास होता है और कुछ अच्छा बनने की जगह-वह और पिछड़ जाते हैं। वैसे सरकारी स्कूल ही क्या बुरे हैं। मैं तो कहता हूं कि जिस तरह से सरकार पढ़ाई पर ज़ोर दे रही और खर्चें कर रही है, युनिवर्सिटी डिग्री तक पढ़ाई मुफ्त, आपका एक रूपया भी खर्च नहीं होगा... मैं आपसे क्या कहूंगा, आप तो खुद जानते होंगे। दो, दो टीचर है आपके घर में.... क्या चुन्नी लाल जी से इस बारे में बात नहीं की...? वे तो खुद गर्वमेंट टीचर हैं...। जी उनकी भी राय यही है कि बच्चे को ‘कान्वेंट’ में ही भेजना चाहिए... अब आपने जो बात कही, कि वहां हीनभावना... का अहसास... तो मैं तो दुविधा में पड़ गया हूं... ख़ैर। अभी तो काफी समय है... मैं बस आपसे थोड़ी जानकारी प्राप्त करने के लिए आया था। चलो इसी बहाने मिल तो लिए। बद्रीनाथ की घरवाली चाय और बाकीरख्वानी लेकर आई- कश्मीरी कवल ‘खोस’ में समावार से कहवा डालते वह बच्चे के लिए मुबारक कहते बोली कि इनकी बातों पर ध्यान मत देना, कुन्ती बहन बहुत सयानी और विदुषी हैं, वह जो कहें, वैसा ही करना... आप शायद जानते न हो... मैं पांचवीं जमात तक उनके साथ पढ़ी हूं। फिर अचानक घरवालों को लगा कि मैं काफी बड़ी हो गई हूं और मेरा स्कूल छूट गया... खैर! यह तो दैव लिखित होता है, पर आप इनकी बातों पर नहीं जाना-हमारे बच्चों में क्या कमी है, कमी साधनों की है इन्हों ने कितनी कोशिश की रमण को बिस्को में एडमिशन मिले पर कहां, अपने भाग्य में कहां, इसी को कहते हैं... चिराग तले अंधेरा...। मोहनजी पहली बार किसी पत्नी को पति की ऐसी बखिया उघेड़ते देख कर असमंजस में पड़ गए। उन्हें बद्रीनाथ पर दया आने लगी। क्या बद्री की अपने बीवी की नज़र में जरा भर की इज्ज़त नहीं। क्या उसकी पत्नी को एक अनजान आदमी से इस तरह खुलकर पति के सामने ही बतिया देना चाहिए। पर कश्मीरी पंडित समाज हालांकि मर्यादा के बंधन में सख्ती से बंधे होने के बावजूद भी, औरतों को स्वतंत्रता के सामाजिक प्रभावों से अनछुआ नहीं रह पाएगा। एक जड़ समाज मे अभिव्यक्ति के स्पंदन का यह अविर्भाव था और शोभावती को जाने-अनजाने मंदिर, अस्थानों या सामाजिक समारोहों में इस बात की प्रेरणा मिली थी कि सच बोलते डरना नहीं चाहिए... इस बात का अहसास बद्रीनाथ को हो चुका था और उसकी इसी सत्यवृत्ता को वह दीवाना भी था और उसका सम्मान भी करता था। मोहन जी के भाव को भांपते बद्रीनाथ को उसे सहज कराने के लिए अपनी पत्नी की बात का समर्थन किया। ‘बात तो शोभा ने सोलह आने सच कही है, देखो यही फायदा होता है एक घर की लक्ष्मी की मंत्रणा का, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे बड़े भाई साहब पर यह फैसला छोड़ देना चाहिए... वैसे सही बात तो शोभा ने कह डाली, हम अपने सीमित साधनों के कारण ही ऐसे बड़े खर्चीले स्कूल में बच्चे नहीं भेज पाते। पर तुम्हारी बात अलग है। तुम डबल इनकम ग्रुप हो। अगर एक की तनख्वाह बच्चे की पढ़ाई पर जाए तो एक तो घर, गृहस्थी चला सकता है। देखो जब लड़का एडमिशन के लायक होगा, मैं खुद प्रिंसिपल साहब से तुम्हें मिलाऊंगा... एक बात का ध्यान रहे, एडमिशन होने के बाद बच्चे का कुछ महीनों में टेस्ट होगा-वो उसमें पास होना चाहिए-इस लिए बच्चा तीन साल का होते ही घर में तैयार करना, शुरू करो ताकि वह स्कूल में जल्दी पिकअप कर सके।’ कश्यप बन्धु, प्रेमनाथ बज़ाज आदि जो शेख अब्दुल्ला के समर्थक रहे थे और जिन्होंने महाराजा पर जोर दिया था कि कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो, शिक्षा में सुधार करके शिक्षा सबके लिए अनिवार्य और मुफ्त फराहम की जाये... एक न्यायसंगत और कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो... कश्मीरी हिन्दुओं में जागृति और सामाजिक सुधार की राहें प्रशस्त करने में ऐसे सामाजिक सुधारकों का बहुत बड़ा योगदान रहा। शादियों में दहेज जैसी बिदत और फिजूलखर्ची व पोशाक पहनावे में किफायत और सादगी लाने में इन्होंने बहुत कर्मठता से योगदान दिया। उस समय की नौजवान पीढ़ी में जेलखानी परिवार के चुन्नी लाल जेलखानी और मोहनलाल जेलखानी इन नए विचारों से काफी प्रभावित थे। इन्होंने इन विचारों को अपने जीवन मंे आत्मसात किया था। इस तरह इस परिवार में प्रगतिशीलता का पथ प्रशस्त हुआ। आडम्बरों को दरकिनार कर यह परिवार जीवन के कड़े संघर्ष में जुट गया। कुन्ती जेलखानी ने कश्मीर में स्त्रियों के पढ़ाई-लिखाई को अपने जीवन का मकसद बना लिया और इस कार्य को पूरा करने के लिए समस्त निष्ठा से जुट गई। यह एक तरह से साक्षरता फैलाने का अनोखा तजरूबा था। गांव-गांव स्कूलों के दौरे शुरू हो गए और स्कूल को पढ़ाई की व्यवस्था के प्रकार के साथ ही गांव के जनमानस में सैकड़ों वर्षों की गुलामी, पिछड़ेपन के कारण पनपी जहालत से अभिभावकों को निकाल कर अपने बच्चों को शिक्षा के द्वार तक लेकर आना और शिक्षा हासिल करने के लिए उत्प्रेरित करना एक प्रमुख उद्देश्य रहा। इस तरह एक क्रांतिकारी सोच से जुड़ने और अपने दायित्व को पहचानने के कारण, कुन्ती जेलखानी आम घरेलू स्त्रियों की प्रतिस्पर्धा का भी विषय बनने लगी। एक तरफ पारिवारिक जीवन का समय काम-काज में बंटने लगा, जिससे परिवार में थोड़ी परेशानी होने लगी, पर दूसरी ओर कुन्ती ने जो जीवन घर से बाहर देखा उसकी उसे किंचित कल्पना तो थी पर आज तक ऐसा अहसास कभी नहीं हुआ था। उसने प्रथम दर्शता अपनी आंखों से गरीब और निरीह सीधी-साधी कश्मीरी महिलाओं का शोषण, मूक, गरीबी और पिछड़ेपन से युक्त जीवन चक्र को देख लिया था और उसे यकीन था कि शिक्षा एकमात्र ऐसा अस्त्र है, जो इन गरीब औरतों की जहालत, गरीबी और शोषण की बेड़ियां तोड़ने में सहायक सिद्ध हो सकती है। चुन्नी लाल जेलखानी ने अपना सारा जीवन शिक्षा विभाग को समर्पित करने का फैसला किया। घर में हर तरह के समाचार पत्र, पत्रिकाएं और लिट्रेचर उन्होंने मंगाना शुरू किया। देश और दुनिया से खुद को जोड़ने और इसे समझने में उनकी बहुत रूचि थी। वे कश्मीर की हर स्थिति को बारीकी से अध्ययन करते और इसे अपनी डायरी में दर्ज करते-उनके अपने व्यवसाय यानी शिक्षक के तजुर्बों में इन घटनाओं की समझ काफी काम आती-कश्मीर के विषय माहौल में एक संतुलित सोच रखकर ही आदमी अपने को और अपने इर्द-गिर्द को भले के लिए बदल सकता था। उन्होंने अपनी भाभी कुन्ती जेलखानी के जीवट और हिम्मत की कदर की। घर में उनके बच्चे को बहुत लाड़ और प्यार के साथ देखभाल करनी शुरू की। अशोक जेलखानी इस प्रकार अपने पिता से अधिक अपने चाचा की देख-रेख में होश संभालने लगा। श्रीनगर को शंकराचार्य के शिखर से देखते बनता है। एक कटोरे सा शहर। यहां चढ़ाओ और ढलान है। कहीं, कहीं समतल भी। लोग व्यथ की सतह से सटे पर व्यथ के प्रकोप से हटे हुए-इन्हीं ढलानों पर बसे हैं। शहर के बीचोंबीच गुजरता दरिया जीवन की रेखा है। इसके घाटों पर छोटे-छोटे बोट के घर हैं। इनमें कश्मीर की जनता के संचार और जीवन व्यापन से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने वाले एजेंट रहते हैं। यह अपनी नावों में गांव से शाली, गन्दुम, लकड़ी, सब्जी गर्ज की जीवन की जरूरतों के हर सामान को, इन नावों में भर कर लाते हैं और ले जाते हैं। यह इस तरह से शहर की सांस की नली है। व्यथ के हर घाट पर इनकी ही रसाई है। यही दरिया पार कराते हैं और दो किनारों पर बसी दुनियां को तुरंत जोड़ते हैं। अभी मोटरगाड़ियों का वो जमाना नहीं है, जो हम आज देखते हैं-माल मवेशी और आदमी अभी भी डोंगों, नावों में एक जगह से दूसरी जगह ढोये जाते हैं। जेलखानी मुहल्ले से भान मुहल्ला चढ़ने के लिए नाव से सफर ज्यादा दिलकश और आसान समझा जाता है। इन नाव मालिकों के अपने घर-बार इन्हीं डोंगों में पलते-बसते हैं। इनकी अपनी भाषा, संस्कृति और एक अलग जीवन शैली है, जो कश्मीरी पंडितों के आचार-विचार और व्यवहार की काफी कदर करती है। दोनों के जीवन मूल्यों में जमीन-आसमान का अंतर होने पर भी दोनों का जीवन एक दूसरे के बिना कोई सोच ही नहीं सकता। इनकी आपसी समझ-बूझ जीवन व्यापन के प्रतिपूरक मानदंडों पर बहुत खरी उतरती है। हांजी, पंडितों के लिए हमाल से लेकर दैनिक सुख-सुविधाओं की सेवाओं को आज की भाषा में (डोर स्टेप) यानी दहलीज पर मुय्यसर रखता है और बदले में पडितों से जीवन व्यापन के लिए आवश्यक वस्तुओं का भरण-पोषण पाता है। दोनों की भूमिकाएं और सीमाएं निश्चित हैं और विश्वास के तार से जुड़ी है। उधर नवहटा और निचले शहर में जिन्दगी एक निरन्तर संघर्ष में पनप रही है। यहां कामगर, कारीगर और दस्तकारों के छोटे-बड़े टोले आबाद हैं। यहीं से कारीगिरी और दस्तकारी के नमूनों ने कश्मीरी प्रदेश को मुगलों, अंग्रेजों, जर्मनी और दुनिया के कोने-कोने में रहने वालों को कश्मीरी कला का मुरीद बनाया-शहर के मुख्य बाजार अमीरा कदम रेजिडेंसी रोड आदि में इन कारीगरों के कला के नमूने बड़े शो-रूमों में सजे पड़े हैं... अभी अक्सर शोरूम कश्मीरी पंडित ही चलाते हैं... पर कश्मीर की कला की जितनी तारीफ होती है, इन कलाकारों का जीवन उतना ही शोषण चक्र में लिप्त है। इसी कारण यहां का भूखा-नंगा कामगर सोजनकारा, दस्तकार, रंगरेज और कालीनबाफ अथक मेहनत के बावजूद सराफों, व्यापारियोें, दलालों और कारखानदारों के चंगुल में फंस कर फड़फड़ाता है। बाहर से अत्यन्त शांत और सौम्य पर भीतर से शोषण के ताप से उबलते इन लोगों के भीतर विद्रोह के ज्वालामुखी भरे पड़े हैं। पर इनमें विद्रोह और विरोध के स्वरों को मजहब के सभी स्वर ठंडक प्रदान करते हैं और यह सबर के जीवन में अपना दिन गुजार रहे हैं। इनमें कुछ नवजवान जिस किसी तरह आठ दस जमात पढ़े-लिखे होकर सरकारी नौकरियों और स्कूलादि में मास्टर, टीचर, चपरासी, क्लर्क के पद भी पाने लगे हैं। चूनी लाल जेलखानी जो (इस्लामिया स्कूल) नेशनल स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने का काम करते हैं... नवा कदल के गुलाम मुहम्मद से काफी निकटता महसूस करते। गुलाम मुहम्मद ने आठवीं पास करके टीचर के लिए कोशिश की थी, पर स्कूल ने टीचर के लिए दसवीं पास होना अनिवार्य शर्त रखी थी-जब तक दसवीं पास हो तक तब चपरासी की नौकरी ही सही-कम से कम कालीनवाफी के काम से तो छुटकारा मिलेगा। किसी भी सूरत में धागों के बुनने में आखून की सरपरसती में जीवन नहीं बिताना चाहता है। वह सोचता, यह कालीन तो अमीरों के दरीचे बनकर कमरे सजाते हैं। पर अपने जीवन में अंधकार भरते हैं। उसे कालीनबाफी का पुश्तैनी कमरतोड़ काम बिलकुल बेकार नजर आता। उसके मन में शेख अब्दुल्ला की तरह पढ़-लिख कर अपने कौम और मिलत की रहबरी करने का जुनून था। चूनी लाल से वह इन बातों को धीरे-धीरे खोलने लगा। चूनी लाल के आगे जीवन का एक अलग ही रूप एक अलग ही रंग उभर आया था। उसने कभी नहीं सोचा था कि जो नकदी, गहना, कालीन, शाल और दुशाले घर में पड़े हैं, इनके पीछे कितनी स्त्रियों की नाजुक उंगलियों, उनकी आंखों और जीवन की अतुल्य पूंजी का समोवश जुड़ा है। इन कारीगरों की मेहनत का फल और ही लोग लूट रहे थे। इस व्यवस्था में अभी कोई अंतर न आया था। चूनी लाल को गुलाम मुहम्मद कई बार अपने साथ अपनी बसती में लेगया, इन घरेलू कारखानों में ले गया और शोषण के कुचक्र को इस तरह निकट से देखकर चूनी लाल का मन दहल उठा-उसने अपनी डायरी में लिखा, क्या आजादी के बाद भी यह जारी रहना चाहिए, क्या केवल जमीन की अदला-बदली ही एक बहुत बड़ा मसला था, क्या मुहाशरे से शोषण की व्यवस्था को खत्म करने का कोई भी तरीका नहीं .... अगर इसको नहीं बदला गया तो मुसलमानों में बेकरारी बढ़ती जाएगी और वह इस बेकरारी को कोई भी रूप दे सकते हैं, जो शायद उनके अपने हित में भी न हो। इन बातों से अगल और जुदा कश्मीर में हर कोई बख्शी की दरियादिली और पुर्नोत्थान की योजनाओं से लाभान्वित होने के लिए किसी-न-किसाी प्रकार से यह जताने की कोशिश कर रहा था कि वह अपने काम में दक्ष और माहिर है। मंत्री और संत्री ने एक ऐसे तन्त्र को जन्म दिया, जो पैरवकारी, जीहजूरी और रिश्वतखोरी में व्यस्त रहने लगा। इस तरह परंपरागत मूल्यों से जुड़े लोगों का मन हताशा और बेइतमिनानी से भरने लगा। वे आशंकित होने लगे कि हो न हो इन कारणों से फिर लोग गुलामी के शोषक दौर में चले जाएं। चूनी लाल जेलखानी इन समस्याओं का समाधान व्यक्तिगत चरित्र निर्माण और मूल्य संवर्धन में मानते। उन्हें यकीन था कि अगर हर इंसान अपने चरित्र को सुदृढ़ और सशक्त कर ले तो सामाजिक बुराईयां व भेदभाव स्वतः नष्ट होंगे। व्यवस्था भीतर से बाहर झलकती है। ईमानदारी और सच्चाई व्यक्तिगत गुणावगुण पर निर्भर करता है। चूनी लाल विवेकानंद स्वामी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। एक तरफ रूढ़िवादी धार्मिक अनुष्ठानों का वे विरोध करते तो दूसरी और व्यक्तिगत व्यावहारिक धर्म पर बल देते। व्यक्ति के सतकर्म को मुक्ति का मार्ग समझते। चूनी लाल स्वामी विवेकानंद की समस्त रचनाओं और उनकी जीवनी को आत्मसात किए थे। नित्य आश्रम जाना, योग करना, योग सीखने और सिखाने पर जोर देना, उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। दुनिया भर के दाहिने और बाहिने (दक्षिण और वाम पंथों) के अध्ययन के पश्चात् वे इस नतीजे पर पहुंचे थे कि प्राकृतिक मनुष्य एक हिंसक पशु है और संस्कृति और धर्म उसे मानव बनाते हैं... सामाजिकता मनुष्य की कुछ स्वतंत्रता छीनती है, पर उसे परिपूर्णता भी प्रदान करती है। ऐसी स्वतंत्रता जो आत्मघाती हो भला किस काम की। आत्मनिग्रह और आत्मबल संयम से ही प्राप्त होता है और संयम स्वतःस्फूर्त होना चाहिए, व्यक्ति में भी और समाज में भी। अशोक के जीवन दर्शन पर इन बातों का बहुत प्रभाव पड़ने वाला है। क्योंकि मां और बाप से अधिक अशोक के व्यक्तित्व के विकास में इन विचारों के सान्निध्य की अपनी भूमि तयशुदा है। बाप अकाउंटेट जनरल के दफ्तर में बहुत व्यस्त हैं। आॅडिट के दौरे शहर और शहर से एतर गांव कस्बों में लगते हैं। घर एक एक, दो दो सप्ताह बाद भी आना नसीब होता है। हालांकि इसमें टीए-डीए और अन्य छोटे-छोटे भत्तों में कुछ पैसे जेबखर्च के लिए बचाना उसने अपने साथियों से सीख लिया था, पर अपनी पत्नी, बच्चे और मां-बाप से दूर, इस रेजगारी की कमाई में वह तनिक भी रूचि नहीं रखता था, उसे सुबह-शाम घर पर रहना और रात अपने परिवार के साथ बिताना अधिक अर्थपूर्ण लगता था। गुलाम मुहम्मद चूनी लाल के जीवन दर्शन की सराहना करता पर उसका मत बहुत स्पष्ट है कि जहां व्यक्ति का चारित्रिक बल उसकी जीवन की नींव तय करता है, वहीं समाज की परिस्थितियां, जन्म, स्थान, शिक्षा, दीक्षा और माहौल भी व्यक्तित्व के अनुरूप होना आवश्यक है। वह चूनी लाल से अक्सर कहता एक जहां बीज सही भूमि, खाद और आबोहवा मिलने पर फलदार वृक्ष का रूप धारण करता है वहीं उसी का भाई दूसरा दाना जमीन, खाद और सही आबहवा न मिलने के कारण पनप ही नहीं पाता-चूनी लाल कहते पत्थरों से स्वतः अंकुर फूटने से लेकर वनों बियाबानों में रसदार फलों से लदे पेड़ों, पौधों, फूलों और फलों के साक्ष्य देता जो केवल कुद्धरत की छत्रछाया में उगते और विनिष्ट होते हैं। बहस लंबी चलती पर दोनों एक-दूसरे के पक्ष प्रतिपूरक थे। नतीजों की चिंता के बगैर, दुर्भाव से कोसों दूर यह मानसिक कसरत के क्षण उन्हें बहुत सुख देते... समय बह रहा था और व्यथ के पानी की तरह उतार-चढ़ाओ से भरपूर बह रहा था। व्यथ इस शहर की ही नहीं, सारी घाटी का सांस्कृतिक और आर्थिक कर्म मार्ग है। यह यहां के हिन्दु, मुसलमान, सिख और सब मज़हबों के जीवन की कड़ी में जोड़ने वाली माला का कार्य करती हैं-इसके घाट पर, हर कोई लाभान्वित होने को उतरता है। अशोक को अपने ननिहाल आज सजा-धजा कर अपनी स्नेहल माता अपने वक्ष से सटाये, इसी व्यथ में खेह रही एक बोट में ले जा रही है। अशोक का परिचय इस ऐतिहासिक नदी के साथ आज पहली बार हो रहा है। कल अशोक का वार्षिक जन्मदिन था और आज अब कुन्ती जी के मां-बाप ने अपनी लाडली बेटी को मायके दावत पर बुलाया है। पतिदेव, मोहन जी इस वक्त साथ नहीं गए, वे दफ्तर से अवकाश नहीं लेते। यह उनका नियम है। बिना किसी गंभीर कारण के वे दफ्तर से एक दिन भी गैरहाजिर नहीं रहना चाहते। शाम को छुट्टी होने के बाद वे भी कुन्ती जी के मायके यानी आपनी ससुराल पहुंच जाएंगे। इस तरह मोहन जी आज अपने ससुराल में शाम को भेाज पर आएंगे, रात वहां रहकर कल अपने घर वापिस आएंगे, कल रविवार है वो तबीयत से घर पर आराम करेंगे। कुन्ती जेलखानी का मायका, प्रतिष्ठित और अभिजात, कश्मीरी पंडित परिवारों में से एक है। उसके पिता जी दीनानाथ कौल, लाहौर युनिवर्सिटी से डबल ग्रेजुएट हैं। उन्होंने अंग्रेजी फारसी का गहन अध्ययन किया है और यही कारण है कि पांच बेटियों और दो बेटों का ग्रेजुएट (लेबल स्तर) तक पढ़ाया। कहने में यह बात बहुत आसान लगती है, पर याद रहे कि आज जबकि अपार सुविधाओं का दौर है और शिक्षा के लिए सरकार ही अरबों रूपए खर्च करती है, यह तो जमाना था जब राजशाही थी और शिक्षा की सुविधाएं सीमित थी, व लड़कियों की शिक्षा इतनी आम न थी। दीनानाथ कौल और उनकी पत्नी अरूंदती का जीवन कितना सुदृढ़ और संकल्प कितना पक्का हुआ होगा। इन्होंने पांच कन्याओं का ऐसा लालन पालन किया कि सब अपने जीवन में उच्च पदों तक पहुंची और अपनी संतानों को भी शिक्षा, दीक्षा देकर समाज में प्रतिष्ठा का पात्र बनाया। यह कुन्ती के मां-बाप का असीम और अथक जुझारू रूप ही हैं, जो अब उनके संतति के लिए कर्मठता का और संसार में किन्हीं भी स्थितियों से मुकाबला करने का हौंसला दे रहा है। अशोक बहुत ही आकर्षक रूप का बालक है। एक वर्ष का होने पर अब वह गोद त्याग कर जमीन पर लोटने और हाथ-पांच मारने को आकुल रहता है। नाव पानी के बीचों बीच जा रही है। इधर से उधर, उधर से इधर नावों का कारवां चल रहा हे। कश्मीर में बसंत अपने चरम यौवन पर है। महीनों कड़ाके की ठंड के बाद मकान की खिड़िकियों, झरोखें को लोगों ने खोल दिया है और मकान के खिड़की की दमदार में बहता नावों में बैठे यात्रियों को तन्मयता से देख रहे हैं। बयार में बसंत की उन्मादक ठंड पसरी है, जो सारे सुक्ष्रुप्त जगत के जगाएगी और पुनः प्राणमय बनाएगी। नावों में बोटों में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, विदेशी सैलानी भी आ-जा रहे हैं। एक विदेशी जोड़े की नजर कुन्तीजी और उनके बच्चे पर पड़ी-इस तरह मां-बेटों की सुन्दरता ने उनका मन मोह लिया-बोटमैन को इशारा करके नाव कुन्तीजी की नाव के समीप लाए और अपना कैमरा निकाल कर कुन्ती जी से कहने लगे, हम आपके बच्चे की तस्वीर लेना चाहते हैं। कुन्तीजी को हालांकि पहले अजीब लगा पर दूसरे ही क्षण उन्होंने वापिस अंग्रेजी में जवाब दिया, हां-हां क्यों नहीं, आपको अच्छा लगा है, आप इसकी तस्वीर खींच सकते हैं... कश्मीरी महिला को इस तरह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते अंग्रेजी जोड़े के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई, इन्होंने ने केवल बच्चे की तस्वीर ली बल्कि बच्चे समेत मां के साथ अपनी भी तस्वीरें खिंचवाई। कुन्ती जी का पता नोट किया और लंदन जाकर बाद में तस्वीरों के प्रिंट भी भिजवा दिए। नाव भानमुहल्ला के आगे के घाट पर रूक गई-कुन्ती जी अपने लाडले के साथ आज पहली बार अपने मायके में कदम रख रही हैं। कुन्ती जी के बहिन, भाई और मां-बाप सब सवेरे से ही दोनों मां-बेटे की बाट जोह रहे हैं। दीनानाथ जी कुन्तीजी के पिताजी ने कई बार घाट तक आकर देखा कि उनकी लाडली कहीं आ गई है कि नहीं, फिर गफारा को खास हिदायत दी कि बिटिया के आते ही खबर करने आए, गफारा की नजर कुन्ती जी पर पड़ते ही वह उनके मायके की तरफ दौड़ने लगा-गफारा खुश था, कुन्ती जीजी आज बहुत दिनों बाद मायके आ रही है, लगभग बछड़े-सा कुलांचे भरता दौड़ने लगा, उधर से स्वयं दीनानाथ खुद कुन्ती जी की अगुआई में तेज-तेज घाट की तरफ आ रहे थे। उन्हें किसी मित्र ने खबर कर दी थी कि बिटिया को घाट चढ़ते देखा है। अशोक को सीने से लगाते दीनानाथ की खुशी का ठिकाना न रहा। बहुत खुश होकर अपनी लाडली बिटिया का स्वागत करते उसे घर ले आए। घर सब में कुन्ती जी के बस आने भर की प्रतीक्षा थी-सारा घर स्फूर्ति, जोश और खुशी से भर गया। सबने इस घड़ी के लिए खास तैयारी कर रखी थी। काका (अशोक) की मासियों में बहुत उत्साह और ममता का भाव स्पष्ट दिख रहा था। दोनों मामा जी अपनी बहिन से छोटे थे पर अपने (नवासों) पर एकदम फिदा दिखते-अभी दोनों काफी छोटे थे। सब से छोटा मामाजी, इन्दूभूषण कौल जिन्हें प्यार से सब इन्दू पुकारते, दो, तीन वर्ष ही काका से बड़े थे। दीनानाथ जी काका (अशोक) के नाना काफी पढ़े-लिखे होने की वजह से ही संयत और रौबदार व्यक्तित्व के मालिक हैं। घर में अनुशासन और सदाचार के साथ व्यक्तिगत इच्छा-अनइच्छा का भी मान-सम्मान होता है। पांच बेटियां, दो बेटे और खुद मियां-बीवी के अतिरिक्त पिता और माता अभी जीवित हैं। परिवार ममें हर तरह का सुख और संतोष है। बेटियों को पढ़ा-लिखा कर संभ्रांत पंडित परिवारों में ब्याहा है और लड़के अभी छोटे हैं। बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ाई कर रहा है और छोटा लड़का अभी पांच साल का हो गया है। काका, से केवल चार साल बड़ा होने के कारण काका को अपने से काफी छोटा समझता है और उसका अभी से ध्यान रखता है। कुन्ती जी के घर में प्रवेश करते ही सबने खुशी से स्वागत किया और काका को बहुत प्यार दिया-हर किसी ने छोटा-बड़ा कोई न कोई तोहफा काका को थमाया-काका के नन्हें मन, बुद्धि में इसकी कोई छाप रह पाई हो यह बताना मुश्किल है, पर इस बात से यह जाहिर तो हो ही जाता है कि मातामाल (ननिहाल) में काका को ढेरों प्यार मिलता रहा। पंडित दीनानाथ ने व उनकी पत्नी अरूंधती ने इस प्यार दुलार में कभी कमी नहीं आने दी। काका के बड़े मातामाल यानी नानी का मायका शहर के प्रतिष्ठित पंडित सतलाल (परिवार) सपरू था, इनके एक भाई उस समय पुलिस में थानेदार थे और अपनी विलक्षणता के कारण नगर भर में काफी चर्चित थे। इनका नाम सतलाल सपरू था और सत यानी सत्य पर चलने की ठान रखी थी-इन्होंने अपने रौबदाब का खासा दबदबा बनाए रखा था-हालांकि अंदर मन से बहुत दयालु और नर्म थे पर आवाज खासी भारी और तेज थी-मुंह खोलते ही गाली की जड़ी लगाते-इनसे तांगे-इक्के वाले ही नहीं अपने को तीसमार खां समझने वाले गुंडे लफंगे भी खौफ खाते थे। सतलाल का बदलते दौर की नब्ज पर हाथ था, जानते थे आगे क्या होने वाला है, अक्सर अपने दोस्तों से कहते, जितना खुश रह सकते हो रहो, जाने फिर कभी यह दौर हमारी जिन्दगी में देखने को नसीब होगा-उनके पास छोटे-मोटे उठाईगीरों से लेकर बड़े सेंधमार चोरों की पूरी तफसील रहा करती। कोई उनकी नजर से बचा नहीं था-आदमी हो या औरत सबके जनम-मरण का ब्यौरा उनके दिमाग में रिकाॅर्ड था-और अजीब मस्तानापन सारे व्यक्तित्व में छाया रहता। अशोक (काका) को देखने आज वह भी अपनी बहिन के घर आया था-साथ में उसकी बीवी भी थी-दोनों ने ढेर सारे खिलौने काका के लिए लाए थे और काका को देख-देख कर खुश हो रहे थे-काका ने उनकी लम्भी उठी हुई मूंछे पकड़ रखी थी-मानो कह रहा हो वाह रे मामा साब, इतनी रौबदार मूंछे...! कुन्ती काफी थक गई थीं-दिन भर मायके में गहमागहमी रही। अब वह घर लौटना चाहती थी, पर थकान से चूर शरीर एक कदम भी चलने को तैयार नहीं था-पर उसने घर में कह रखा था कि शाम को दिन ढलने से पहले वापिस आ जाएगी-जाने के लिए माता-पिता, भाई-बहिनों से रूखसत लेती हुई तैयारी करने लगी.... तो मां ने नाराज़ होते कहा, अरी! तो फिर आई ही क्यों थी? भला यह भी कोई आना हुआ...? अभी हमने काका को जी भर कर देखा भी नहीं कि तुम जाने लगी हो। चूनी जी कांता की बहिन भी इतनी जल्दी बहिन के वापस जाने से खुश न थी, बोली, माना कि शादी के बाद लउ़की पराई हो जाती हे, पर साल-छः महीनो तो रात-दो रात मायके रह सकती है ना।
किन्तु दीनानाथ जी ने सबको खामोश किया, कुन्ती का बैग उठाकर वह कहने लगे, चलो बेटी, अगर उनसे आज ही वापिस आने को कहा है तो आज ही जाना उचित होगा, बाद में बेशक तुम परमिशन लेकर हफ्ता भर हमारे साथ ठहरना-सब चुप हो गए-दीनानाथ की बात सुन घर में इसी तरह अंतिम होती, उसके बाद किसी को बोलने का सवाल ही नहीं था, कुन्ती, काका को गोद में उठाकर निकलने लगी।
दीनानाथ ने कुन्ती से कहा, अब दामाद जी को भी साथ लेकर आना, वे तो खास बुलाने पर भी नहीं आते क्या इतना बिजी रहते हैं? कुन्ती नहीं आप कहलवा भेजेंगे तो आ जाएंगे। वैसे भी वे शिष्टाचार में नहीं पड़ते। दीनानाथ शिष्टाचारी तो हैं, पर पता नहीं यहां आते क्यों...? नहीं, नहीं बाबूजी वे तो चलने को तैयार रहते हैं...बस मैं कहती हूं कि होवुर (ससुराल) बिना बुलाये कभी नहीं जाना चाहिए-इज्जत के साथ बुलाने पर ही शोभा और मर्यादा से ससुराल में साल खाना चाहिए- लगता है तुम्हारी हर बात मान लेते हैं, मोहन जी। कुन्ती हंसते हुए... मानेंगे क्यों नहीं हम भी तो उनकी हर बात का मान रखते हैं। दीनानाथ, शाबाश बेटी, मैं जानता हूं तुम सब बहिनें सयानी हो, बस एक बाप को और क्या चाहिए. पगड़ी का मान बना रहना चाहिए। कश्मीरी पंडित को अपनी पगड़ी के मान की चिंता इस दौर में फिर सताने लगी थी। समय करवट बदलते देर नहीं लगाता। कल तक जम्मू-कश्मीर में एक हिन्दू राजा का राज था, घाटी में मुसलमानों का बाहुल्य होने के बावजूद भी हिन्दु को राज्य का संरक्षण प्राप्त होने के कारण अपना आप सुरक्षित लगता था। हालांकि इस सुरक्षा का अधिक श्रेय वह अपने मुसलमान भाईयों को ही देते। यहां का मुसलमान जो कुछ सौ वर्ष पहले स्वयं हिन्दू था, मजहबी जुनून से दूर एक साफ-सुथरी ईमानदार जिन्दगी जीने में यकीन रखता था। पर सियासी उठा-पटक के चलते मज़हब को कभी ढाल तो कभी कट्टार बनाकर इस्तेमाल करने की जो शुरूआत 1931 में हिन्दू महाराजा के खिलाफ खिलाफत की जंग छेड़ कर हुई थी, वो अंदर ही अंदर सक्रिय थी-शेख साहब को कैद करने के बाद अवसरवादी और फिरकापरस्त ताकतों ने इस आग में घी डालने का काम जारी रखा था। सारे कश्मीर में अभी भी अफवाहों का बाजार गर्म था। कश्मीर के मसले पर हालांकि बख्शी गुलाम मुहम्मद ने बल और युक्ति से लोगों की जुबानें खामोश कर दी थीं पर शेखर साहब अपने दल-वल के साथ एक आहत शेर की तरह गुर्रा रहे थे। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल इस बात से काफी चिंतित थे कि आखिर कैसे बिना किसी ठोस सबूत के वे शेख को एक लंबे अर्से तक नजरबंद रख सकते हैं। एक लोकतांत्रिक देश की मान्यताओं और प्रतिष्ठाओं पर न केवल सार्वजनिक रूप से अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा था। इन परिस्थितियों के चलते, माहौल में शक, अविश्वाास और अल्पसंख्यक हिन्दु समाज में भय का बीज, पनपने लगा था। अब हारी पर्वत ब्रह्ममूर्ति में अकेले जाते मन घबराता, कुछ मुस्लिम युवक आते-जाते यात्रियों, भक्त, भक्तिनों पर फबतियां कसने लगते, गंदे मज़ाक और छेड़ के मुहावरे सुनाने लगते, जो काफी कष्ट देने वाले और दर्दनाक होते। जानबूझ कर पाकिस्तान में मुसलमानों कीे खुशहाली की बातें होती और आजाद कश्मीर रेडियो के हवाले से सुनी बेसिर पैर की खबरों को खूब नमक मिर्च मिलाकर दोहराया जाता। इस बात की शिकायत शहर के कुछ प्रतिष्ठित पंडितों ने बख्शी साहब से की तो बख्शी साहब ने पुर-असर मुसलमान, मौलवियों और लोगों को बुलाकर एक सभा आयोजित की और उन्हें शहर के अमन-चैन की जिम्मेदारी के साथ अल्पसंख्यक हिन्दुओं के मान-सम्मान का जिम्मा सौंपा-इस काम में किसी कोताही के लिए सीधे तौर उन्हें जवाबदेह बनाया-सारे संभ्रांत मुसलमानों ने बख्शी साहब को आश्वस्त किया कि सियासी मतभेद को दरकिनार कर वे ऐसे तत्वों को काबू में कर देंगे, जो अल्पसंख्यकों में गलत संदेश फैला रहे हैं, और उन्हें परेशान करते हैं। अमन कमीटियों और हिन्दू-मुसलमान सौहार्द, सभाओं का आयोजन हुआ-और समाज में उद्धण्ड और गैरकानूनी व गैर जिम्मेदार तत्वों पर नकेल डाली गई। यह मान-मर्यादा और भाईचारे की प्रतिष्ठा को बचाए रखने में बहुत हद तक कारगर सिद्ध हुआ। पर इससे मूल समस्या का समाधान नहीं हुआ-मूल समस्या सांप्रदायिकता का जहर था-इस जहर को शेखअब्दुल्ला की गिरफ्तारी को बहाना बनाकर कट्टरपंथी मुसलमान समाज में फैलाने में हर प्रकार से तत्पर रहते थे। इधर कश्मीर में सियासत के नाटकीय उतार-चढ़ाव के बीच जनता अपना दैनंदिन जीवन अपने रंग में रंगते जी रही थी... हिन्दुओं के त्यौहार पर्व पर मेले-रेले का समां बंध जाता-अक्सर मुसलमानों के खास वर्गों में इन त्यौहारों का बहुत इंतजार रहता और इनसे काफी उम्मीदें भी बंधी होतीं। खासकर शिवरात्रि पर हिन्दु घरों में कुम्हार मटटी के सारे नए बर्तन लेकर आता, जिसमें रसोई में खाना पकाने से लेकर पानी भरकर रखने वाले बड़े घड़े तक होते कुम्हार सारे बर्तन एक बड़ी-सी टोकरी में भर कर पीठ पर लाद कर पंडितों के घर ले जाता-यहां उसका स्वागत पारंपरिक रूप से आरती उतार कर होता-तब वो घर के भीतर बर्तन रखता और बदले में चावल, घी, तेल, नमक और रुपए इत्यादि ले जाता। इस पर्व पर दूर गांव से शहनाई बजाते भाण्ड संगीत की स्वर लहरियों में सारे नगर को डुबो देते। शहनाई और ढोल बजते और सारा नगर झूम उठता-शिव रात्रि, अक्सर फरवरी के अंतिम सप्ताह या मार्च के पहले या दूसरे सप्ताह में आती, यह त्यौहार बसंत के आगमन से, तनिक पहले आता जो बसंत की हवाओं को त्वरित घोड़ों पर वादी में आने का संकेत देता। बर्फ का गिरना इस त्यौहार पर लाजमी माना जाता-हर घर में देर रात तक भगवान शंकर की पूजा होती। कुम्हार द्वारा लाए गए बर्तनों को सजा कर बड़े घड़े को शिवजी और छोटे को पार्वती का रूप दिया जाता। छोटी कवलियों को नक्षत्र-देवादि और एक खास आकार के खुले बर्तन को भैरव और एक छोटे शिवलिंग को पूजने की क्रिया प्रारंभ होकर मध्य रात्रि तक जारी रहती-हर घर से शंखनाथ की गूंज गूंजती और सुबह मंदिरों में लोगों का तांता बंधा रहता-यह पर्व स्त्रियों के लिए विशेष महत्व का होता-उन्हें घर की साफ-सफाई करनी पड़ती और एक तरह से सारे घर की लिपाई-पुताई करके रखना होता-क्यों न हो शिवजी महाराज के ब्याह की वर्षगांठ जो मनानी होती। ब्याहता स्त्रियों के मायके से शिवरात्रि के पांचवे दिन खास भोग आता-जिसमें अखरोट नान और कहीं-कहीं मास भी बेटियों के घर भेंटस्वरूप भेजा जाता। यही समय होता था, सर्दियों की स्कूली छुट्टियों के समाप्त होकर फिर से स्कूल खुलने का-कुन्ती की पोस्टिंग हालांकि नेशनल गल्र्स स्कूल नवाकदल में हुई थी-जो घर से पैदल 10 एक मिनट का रास्ता था, पर घर की व्यवस्तताओं ने उसे काफी थका दिया था और वह चाहती थी कि अभी इतनी जल्दी छुट्टियां खत्म न हो-पर चुन्नी लाल घर बेठे-बैठे अब बोर होने लगे थे-वे चाहते थे कि स्कूल जल्दी खुल जाएं-उन्हें दरअसल अपने पेशे से खासकर बच्चों से बेहद लगाव था-वे बच्चों को पढ़ाने और खुद पढ़ने के सिवा जीवन में किसी अन्य बात को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझते, यहां तक कि शादी को भी नहीं। उन्होंने आजन्म शादी न करने का एक तरह से व्रत ले रखा था-उनका अधिकतर समय योग साधन और धार्मिक पुस्तकों खासकर विवेकानंद के आश्रम में ही व्यतीत होता-हालांकि वे समाज से बहुत जुड़े हुए थे, पर उन्होंने खुद को किसी लहर में बहने नहीं दिया था। वे एक तटस्थ दशर््क सबकुछ देखकर जी रहे थे। इसकी वजह शायद जीवन के उतार-चढ़ाव हों, कैसे वे अपने मामा जी के पास पलने-बढ़ने लगे और उन्हीं के बेटे कहलाए और चुन्नी लाल धर से चुन्नीलाल जेलखानी हुए... उन्हें इन बातों को भी सोचना व्यर्थ लगता-जीवन के गूढ दर्शन के पीछे कभी उन्हें तिकोन तो कभी गोल वृत तो कभी चकोर के से संदर्भ दिखते तो कभी एक अथाह सीधी रेखा, जिसे देखते कभी यह नहीं कहा जा सकता कि इसे दाहिने से बायें खेंचा गया है या बायें से दाहिने। मोहन जी इससे अलग सोच वाले यथाजीवी आदमी हैं। उन्हें ईश्वर ने वो सब कुछ दे दिया, जिसकी उन्हें कल्पना भी न थी। सरकारी नौकरी, सुंदर, सुशील, उच्च शिक्षा प्राप्त बीवी और फूल-सा सुंदर बच्चा-वे गणपतयार आते-जाते भगवान गणेश जी को आभार प्रकट करते और उनसे एक ही आशीष मांगते कि उनकी कर्तव्य परायणता में कभी कोताही न हो और वो निश्चित जीवन जीते रहे। मां-बाप की सेवा और परिवार का प्रेमपूर्वक लालन-पालन यही उनके जीवन का मुख्य ध्येय था। यूं तो अशोक के जन्म से कुछ महीने पहले और उसके बाद निरन्तर कश्मीर के आकाश पर अस्थिरता और अनिश्चिता के बादल हमेशा मंडराते रहे, पर यह स्थिति भयावह तब हेा जाती जब किसी विशेष राजनीतिक घटना का खामियाजा यहां की अल्पसंख्यक हिन्दू जनता को भुगतना पड़ता-जो कि अशोक के जन्म के इर्द-गिर्द भी कुछ यही हालात देखने को मिले थे। जब जवाहर लाल नेहरू जी ने 16 अगस्त को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली के साथ काफी सारी बैठकों के बाद एक संयुक्त बयान जारी करके वादी में सबको हैरत में डाल दिया, और हिन्दू जनता को निराशा के गर्त में डुबो दिया, बख्शी साहब को अपने सारे मंसूबों पर और अभी तक की, की गई अपनी सारी मेहनत पर पानी फिरता नजर आया-वे बौखला कर नेहरू जी की अदूरदर्शता पर चिल्ला रहे थे। अगर यहां पेलीबिसिट ही कराना था तो शेख साहब को क्यों कैद किया, मुझे अब लोग क्या दर्जा देंगे। लोगों की नज़र में मैं क्या कहलाऊंगा? उधर कश्मीरी पंडितों को अपना भविष्य ही चैपट नजर आने लगा था। पेलीबिसिट का अर्थ पाकिस्तान ही होगा, नेहरू जी यह क्या कह रहे हैं? पर ऐलान हो चुका था-20 अगस्त को संयुक्त बयान जारी करके एक पेलिबिसिट प्रशासक की नियुक्ति अप्रैल 14 तक की जानी थी, जिसकी देख-रेख में यह मामला सुलटा दिया जाना तय हुआ-हालांकि भारत ने इस प्रक्रिया के लिए पाकिस्तान से किन्हीं मूलगत विषयों पर आपसी रजामंदी का निबटारा होना आवश्यक करार दिया था-न वो आपसी रजामंदी कभी बन पाई और ना दोनों देशों में कोई नियत दिखी-इसके विपरीत पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ एक सामरिक संधि कर डाली, जिससे नेहरू जी की आंखें खुल गईं और उन्होंने दुबारा पाकिस्तान पर विश्वास नहीं किया। -----------------------------------------------------------------
नई डगर
इसी बीच बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू कश्मीर राज्य के संबंध शेष भारत से और सुदृढ़ करने के उपाय उठाए और 14 मई, 1954 को राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अन्य अनुच्छेदों को भी जम्मू-कश्मीर पर लागू किया। इधर कश्मीर में शांतिप्रिय लोगों की जान में जान आ गई-बख्शी साहब ने जश्नों के दौर और आतिथ्य सतकार के पर्व मनाने शुरू किए, देश-विदेशों से डेलिगेट्स कश्मीर आकर काॅन्फ्रेसिंग करने लगे। 21, 22 दिसंबर, 1955 को रूस के बुगेयरियन और क्रिस्चोव ने कश्मीर की यात्रा की और कश्मीर को भारत का अटूट अंग घोषित किया। हालात काफी हद तक सामान्य हो गए थे। लोग अपने काम-काज में जुट गए थे और सबकी चाह बस किसी तरह पढ़-लिख कर सरकारी नौकरियों का पद पाना था।
इसलिए पढ़ाई पर बल दिया जाता। गांव-गांव, स्कूल, अस्पातल और कढ़ाई बुनाई के प्रषिक्षण केन्द्र खुलने षुरू हुए। जिसने भी आठ दस जमातें पढ़ी होतीं तो उसे सरकार कोई न कोई नौकरी दे देती। और यही सोचकर सबने मुफ्त पढ़ाई के फैसले का मन से स्वागत किया था।जवाहरलाल नेहरू षेखअब्दुल्ला के प्रति अत्यंत चिंतित थे। वे दुनिया को गलत संदेष नहीं देना चाहते थे, बिना किसी ठोस सबूत के षेख साहब को आखिर कितनी देर जेल में रख सकते। सो उन्होंने षेख साहब की रिहाई के लिए बख्षी को मना लिया और ष्षेख साहब रिहा हो जाएं। पर षेख साहब के सोचे हुए नया कष्मीर के सारे मनसूबे को बख्षी ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उधर बख्षी की गद्दारी के प्रति षेख के मन में रोष भी था। सो छूटते ही धर्मस्थलों पर उन्होंने भारत और बख्षी के खिलाफ जहरीली आग उगलनी षुरू की। जिससे एक बार फिर कष्मीरी पंडितों में बेइतमिनानी फैलने लगी। उन्हें कष्मीर का और अपना भविष्य असुरक्षित और अनिष्चित लगने लगा।चुन्नीलाल, मोहन लाल और जेलखानी मुहल्ला ही नहीं समस्त श्रीनगर के कष्मीरी पंडितों में सुगबुगाहट तेज हो गई। षीतलनाथ की स्थली, गनपतयार और रैनाबाड़ी में पंडितों ने आपस में संपर्क स्थापित करके अपने मुस्लमान भाइयों में अभी तक कायम असर-ो-रसूख का इस्तिमाल करके हालात का जायजा लेकना आरंभ किया, भारत के खिलाफ जहर उगलने के बावजूद भी और हजरतबल के धर्मस्थल से मुस्लमानों के धार्मिक उद्वेगों और जजबातों को भारत के खिलाफ भड़काने के बावजूद भी षेख साहब कदम-कदम पर अपने कार्यकर्ताओं को सख्त हिदायते देते कि किसी भी रूप में अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौधों, सिखों, या किसी और कौम पर कोई आंच न आने पाएं। षेख साहब के जेल से छूटते ही अनंतनाग और श्रीनगर में सारे कष्मीर ने उमड़कर उनके भाषन सुने और उन्हें अपना निर्विवाद नेता घोषित किया। कष्मीर से लेकर भारत के संसद तक इस बात की चिंता गहन होने लगी कि अब इस सैलाब को कैसे रोका जाए। किंतु बख्षी की हिकमत अमली ने फिर अपना जलवा दिखाया। षेख साहब हज पर जा रहे हैं सुनकर वह उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, पर नेहरू जी ने मना किया और हज पर जाने की अनुमति प्रदान की। हज पर जाने के बाद षेख साहब वो गलती कर बैठे जिसकी नेहरू जी ने उम्मीद की थी। षेख साहब ने षत्रु देषों से मुलाकात की जिसमें चीन के चुअनलाई भी षामिल थे और भारतीय प्रषासन के खिलाफ बयान दिया। इस प्रकार भारत को मौका मिला और राजद्रोह के इलजाम में षेख साहब को नजरबंद कर दिया।फिर बेइतमिनानी फैल गई। श्रीनगर के कुछ इलाकों में दंगाइयों ने पंडितों की दुकानें लूटी और पत्थराव किए। एक बार सारे जेलखानी मुहल्ला में भय और संत्रास छा गया। हब्वा कदल ज्यादा सुरक्षित है या गनपतयार। लोग अलग-अलग तरीके से सुरक्षा के उपाय सोचने लगे। सबको बादमबारी में फौज के संरक्षण में जाना चाहिए। सबको एक ही जगह एक साथ रहना चाहिए। चूनी लाल बेखौफ होकर रेडियो से खबर सुन रहे थे। उनको यकीन था कि और तूफानों की तरह यह भी बस ऊपर से निकल जाएगा। जो भी हो भय और संत्रास में वादी में स्कूलों, काॅलेजों को अनिष्चित रूप से बंद कर दिया था। चूनी लाल और कुंती जी को अवकाष का समय मिला। चूनी लाल ने अपने अध्ययन में मन लगाया और कुंती जी अषोक की पढ़ाई पर ध्यान देने लगीं। उसने नर्सरी टाइम और बच्चों की षिक्षा में काम आने वाले खिलौनों से अपने बच्चों को षिक्षा की पहली पहचान कराने का षुभ आरंभ किया। अब अषोक लगभग तीन साल पूरे करके चैथे साल में प्रवेष कर चुका था। वह अपनी मात्र भाषा के साथ ही अंग्रेजी के षब्द भी स्पष्ट बोलने लगा था। जो उसे अपनी पढ़ी लिखी मां अपनी मात्र-भाषा के साथ बोलना सिखाती। हाथ को हैंड, नाक को नोज़, आंख को आइ, और होंट को लिप कहते हैं। षुरूआत षरीर के अंगों के नामों से की गई। तस्वीरों और ड्राइंग से विभिन्न वस्तुओं से परिचय कराया गया। चलते फिरते घूमते घामते हर समय अषोक के मस्तिष्क में कोई नई जानकारियां प्रवाहित की जाती ताकि उसके पर्सेप्शन्स डिवेलेप हों। इस काम में मोहन जी से अधिक चूनी लाल जी भी कुन्ती जी का हाथ बंाटते-चूनी लाल जी अषोक को अपने अध्ययन कक्ष में ले जाकर, ढेर सारे मैगजीन (बच्चों की सचित्र) देखने को देते। इन तस्वीरों में अषोक अतयन्त रूचि लेते, खासकर काॅमिक कार्टून के अंक जो तब टाइमाज के साथ बराबर विधिवत आते, अषोक उन तस्वीरों को देखकर पहले-पहल फाड़ देता, आहिस्ता आहिस्ता इन्हें देखना फिर षायद संबंध तत्व से जानना भी आरंभ किया। यह एक संयोग था या भविष्य के प्रति एक प्राकृतिक सांकेतिक लक्षण कि अषोक कार्टून के सचित्र मैगजीन में तीसरे, चैथे वर्ष से ही दिलचस्पी दिखाने लगा, इस चीज को चूनी लाल जी के तीव्र मस्तिष्क ने देख लिया और इन्ही कार्टूनों को अषोक के साथ अपने षिक्षक का संबंध उन्होंने स्थापित किया। उनका लक्ष्य था, अषोक की चेतना को तर्क बुद्धि के स्तर पर लाकर बिस्को स्कूल के आने वाले नर्सरी टेस्ट के लिए तैयार करना-चूनी लाल जी, मोहन जी की तरह दफतर और घर की दुनिया में ही सिमटे नहीं थे। वे बहुत खुली आंख से दुनिया देख लेते, पर दुनिया के पचडे़ में न पड़ कर एक अध्यात्मिक राह खोजने में कार्यरत रहते। उन्हें सच्चा अध्यात्मक सुख वास्तविक जीवन के सत्य को बिना पूर्वाग्रह देखने समझने और उससे निपटने में अधिक समीचीन लगता। टकराहट से अच्छा है समन्वय, दूषित वातावरण को स्वच्छ करना होता है न कि तहस नहस करता-हम किस चतुराई से घर की हर चीज को बचा कर सफाई करते हैं। षीषे जैसे नाजुक से नाजुक चीज पर खरौंच तक आने नहीं देते, यही अमल हमें सार्वजनिक जीवन में अपनाना चाहिए। बिना दम्भ, द्वेष और ईष्र्या के अपना कार्य करना चाहिए। अशोक ने चूनी लाल जी के मन में घर कर दिया था-चूनी लाल जी के शादी, ब्याह, संतान कुछ भी नहीं। एक तरह से घर, गृहस्थ में भी एक वनवासी के तपस्वी जीवन में अशोक को वह अत्यंत अनुराग से देखने लगा था। ममता जिसे स्त्रियों के साथ ही अधिक जोड़ कर देखा जाता है, वास्तव में पुरूषों में भी उसी तीव्रता से भरी होती है। मां इस जज्बे से नौ महीने पहले परिचित हो जाती है। कोख में पालती है, छाती का अमृत पिलाती है, पुरूष स्नेह देता है-निःस्वार्थ स्नेह देने की अपार क्षमता है पुरूष में... पर संसार की कठोर कर्मठता ने पुरूष को इस राग के प्रति अवहेलना भर्तना सिखाया-इसे खुले प्रदर्शित करना कमजोरी माना गया-और इन भावों को छिपा कर जीना और व्यवहार करना उसकी प्रकृति जैसे बन गई। अशोक को लेकिन एक ऐसे आदमी का संरक्षण और सान्निध्य मिल रहा था, जो दुनियादारी के दिखावे से कोसों दूर था-जिसने आत्मा की शुद्धता के साथ जीव पर्यन्त जीने का गुर सीख लिया था। अशोक के जीवन में व्यावहारिकता में जीवन के निकट रहकर जीने के लिए यही बात शायद सबसे जिम्मेदार थी। अशोक को तरह-तरह की तस्वीरों मंे काफी रूचि रहती, पर जीवन में तस्वीरों से अलग कुछ खास कोने भरने होते हैं, कहीं जगह बनानी होती है और कहीं जगह छोड़नी भी पड़ती है। यह एक लाहेअमल है, जिसमें ज्ञान, विज्ञान, गणित, राजनीति, अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म सब समाहित है। चुन्नी लाल चाहते थे कि अशोक शीघ्रातिशीघ्र बड़ा हो, ताकि वह उसे यह सब बातें बता और सिखा सकें पर कुन्ती को अभी एक छोटे से मसले का हल तलाशना था, बिस्को स्कूल में अशोक का दाखिला इतना आसान न होगा-खूब मेहनत से इसे तैयार करना होगा-अशोक की समझ में नहीं आता कि आखिर हर कोई यह किस तरह की बात करता है। उसने मोहल्ले के बच्चों को सुबह सवेरे स्कूल जाते और शाम को स्कूल से वापसि आते देखा था। रोज देखता था पर कहीं कोई इस बात के लिए खास तैयारियों में नहीं जुट जाते, बच्चे को आसमानी रंग की कमीज़, खाकी का निकर पहना कर, बस्ता कंधे से लटका कर स्कूल जाते आते देखा था। लड़कियां सफेद पायजामा और नीले आसमानी रंग का कुर्ता पहनकर स्कूल पढ़ने जाती। पर अशोक को यह कहां भेजा जा रहा है। वह किशनी से पूछेगा। किशनी एक आध साले अशोक से बड़ी है और उसकी चचेरी बहिन है, एक ही मोहल्ले में रहते हैं। हालांकि अशोक को मोहल्ले के बच्चों से ज्यादा उठना-बैठना या खेलना न था पर किशनी बहुत सलीकेमन्द बच्ची थी और अशोक से काफी हिलमिल गई थी। वो अशोक को समझा रही थी, तुम बहुत भाग्यवान हो, तुम्हें सारे कश्मीर के सबसे बड़े और बढ़िया स्कूल में पढ़ाई करने का मौका मिला है, जानते हो वहां अंग्रेजी मेमें पढ़ाती हैं। सब अंग्रेजी में होता है बोलना, चालना, उठना-बैठना यहां तक कि खाना-पीना भी अंग्रेजी में होता है।
तो क्या हुआ, नाक को नाक न कहकर नोज़ कहने से कुछ फर्क पड़ता है क्या? अशोक किशनी से पूछता-अरे! बहुत फर्क पड़ता है, अंग्रेजी में नाक को नोज़ कहते ही आदमी की नोज़ उठी हुई साफ दिख जाती है... तुम मेरी नाक पकड़कर एक बार नोज़ बोल के देख तुझे लगेगा, मेरी नाक सच में है... मैं नहीं पकड़ता तेरी गन्दी नाक। अरे धता! तू अंग्रेजी पढ़ ही नहीं सकता क्यों?तेरे को अंग्रेजी सीखनी है तो रोज मेरी नाक को ऐसे पकड़ कर नोज़ बोला कर। मैं नहीं करूंगा ऐसा.. कहकर अशोक घर के भीतर घुस गया-किशनी पीछे देखती रह गई-यह तो बड़ा उल्लू निकला अब यह अंग्रेजी कैसे सीखेगा। चलो मैं परेशान क्यों होने लगी, वैसे अभी यह बहुत छोटा है, थोड़ा और बड़ा होगा तो शायद मेरी नाक पकड़ ले। मैं उसे अपनी नाक पकड़ने को कहती तो शायद पकड़ भी लेता... पर ममी नाक पकड़ कर ही तो नोज़ कहती है, जो भी चीज़ अंग्रेजी में सिखाती हैं इसे हाथ से छूकर बताती हैं। नोज़, आई, हैण्ड, फिंगर, थम्ब, टो, हैड, हियर मुझे बिस्को स्कूल जाने के बगैर ही सब पता है। पर कैसा होता होगा अंग्रेजों का बिस्को.... मैं क्यों नहीं पढ़ सकती वहां?बुद्धि क्या है? ज्ञान क्या है? कौन देता है यह सब? कहां से आये हम? क्यों कर आये? क्या प्रयोजन है हमारा? क्यों झगड़े हैं दुनियां में? प्रश्नों का अन्त नहीं। चुन्नी लाल जी के आगे-पीछे दौड़ते-भागते इन प्रश्नों में बच्चों का पढ़ाई-लिखाई और खुद की आत्मा का अवलोकन, सतत रहस्य मंे लिपटे कुछ ठोस उतर तलाशते प्रश्नों के मध्य जीवन की उलटबांसियां। जैसे फूल मालाओं-सी टंगी है-जिन्हें अकसर शर्द ऋितु में तोड़ कर धागे में स्त्रियां पिरो कर मकानों के छजों और बाहरी दीवारों में धूप में सूखने को छोड़ देती हैं। विचारों को जवाबतलबी की खातिर ऐसे ही टांग कर सुखाने को छोड़ा जाता है। गृहस्थ के चक्कर में आटे-दाल के मोल-तोल में जीवन के गंभीर प्रश्न छूट जाते हैं। अध्यात्म की गुंथियां उलझ कर रह जाती हैं। मनुष्य थका हारा एक दिन आंख बंद करके सब प्रश्नों पर विराम लगा देता है। पर चुन्नी लाल जी इतने से हारने वाले नहीं-ढेर सारे मनीषियों के बीच रहने का फैसला किया है। भारत में वेद, पुराण से लेकर चीन, यूरोप के हर मनीषी का अध्ययन करना उन्होंने शुरू किया-अक्सर हमने जिन छोटी-बड़ी बातों को ईश्वर की इच्छा और नियति के योग पर छोड़ कर अपनी विवशता को दर्शाया है, वहीं चुन्नी लाल जी किसी भी तथ्य के मूल गूढ रहस्य को समझने के लिए अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि का प्रयोग करते... आज उन्हें यही प्रश्न परेशान कर रहा था कि आखिर मनुष्य में बुद्धि और ज्ञान का संचार होता कैसे है। एक शिशु के समझ की मात्रा कैसे विकसित होती है? उसकी परिकल्पना कैसे उजागर होती है। चुन्नी लाल ने इस बात का जवाब किताबों में खोजना शुरू किया। यहां बहुत विद्वानों ने विभिन्न तर्क से एक मूल बात समझाने का प्रयत्न किया जहां पहले-पहले अक्सर विद्वान मानते थे कि बुद्धि भीतर की ग्राह्यता पर निर्भर है, जिसकी कुछ मूलभूत आश्रय बाहर से मिलते हैं और जो दैवी योग से जागृत होकर मनुष्य की सोच को विकसित करती है यानी मैं एक बालक हूं और बुद्धि मेरे भीतर चेतना रूप में अभी सुशुप्त अवस्था में है, ज्यों, ज्यों मैं बड़ा होता जाऊंगा इस अन्तः चेतना का विकास होगा और तब मुझे विकसित बुद्धि के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होगी-इसमें सबसे पहले आत्मज्ञान यानी खुद को जानने का अत्यन्त महत्व है। खुद को दो रूप में जाना जा सकता है एक तो जो मैं शरीर रूप से इस संसार में विदित हूं... और दूसरा जो मेरे भीतर आत्मा का अंश है। मेरे शरीर के अंग, नाक, कान, आंख, चरण मुझे किन्हीं अनुभूतियों से अवगत कराते हैं, जो वास्तव में मेरे भीतर पहले से सुशुप्तावस्था में मौजूद है, और जिन्हें बाह्य संपर्क मंे आने से मैं शारीरिक अवयवों से जानता हूं , पहचानता हूं। पर जानना और पहचानना दो अलग-अलग अवस्थायें हैं-यह बाद के मनीषियों ने खुलकर समझाया। किसी भी वस्तु का अस्तित्व उस मात्रा से कहीं बहुत न्यून या अधिक हो सकता है, जितना कि हम उसे जानते हैं। मेरा संसार सीमित है, जबकि वास्तव में संसार असीमित है, पर संपूर्णता में देखा जाये काल को अपनी सीमित परिधि से बाहर निकल कर देखें तो न कहीं फासले हैं और न कहीं वह सब ऐसा है, जो मैं अपनी सीमित अस्तित्व के कारण देख या समझ पाता हूं। बच्चे को कैसे जीवन के लोहलंगर से वाकिफ कराया जाये, क्यों नाक को दूसरी भाषा में नोज़ कहने से ही उसके ज्ञान की वृद्धि होगी या कुछ और करने की आवश्यकता है। कुन्ती जी के विचारों में अशोक को अंग्रेजी स्कूल के नर्सरी की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयार करने का मतलब उसे आरम्भिक अंग्रेजी की अक्षरों से पहचान, वाक्य पटल और थोड़ी-सी गिनती और साधारण जोड़ और तोड़ यानी मायनस प्लस वाले रिडल याद कराने हैं। चुन्नी लाल इसे काफी नाकाफी मानते। उनका मत था अशोक को सबसे पहले अच्छे से अपनी देखभाल करनी सिखानी है, सुबह उठते उसे खुद अपने सारे काम करने आने चाहिए। वह उठकर दांत साफ करे, नहाये, जूते पालिश करे, अपनी वर्दी खुद पहने-शाम की सैर पर जाये-और कुछ पढ़ाई भी करे। पहले उसे नियम संयम आने चाहिए। दोनों की सोच परस्परक प्रतिपूरक थी प्रतिरोधक न थी-सो दोनों ने मिलकर अशोक पर अपने प्रयोग आरम्भ किये। अशोक की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आ रहा था, बस उसे लगने लगा था कि उसके लिए कुछ खास तैयारियां की जा रहीं हैं। कोई बात है जो शायद बहुत कठिन है और चाचाजी और ममी को परेशान कर रही है। पिता जी बहुत इत्मीनान से कहते कि इसे अपनी मुहिम अपना रास्ता खोजने में स्वयं मदद करेगी।अशोक सोच रहा था-बाकी बच्चे भी तो स्कूल जाते हैं, क्या उनको भी यही सब कराया जाता है, जो मुझे करने को कहते हैं। अशोक की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी-बिस्को स्कूल की कल्पना की तस्वीर किशनी ने उसके मस्तिष्क में उकेरी थी। वह तन्मयता से स्कूल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में अपने चाचाजी और माताजी के साथ पूरा सहयोग कर रहा था।आखिर वो दिन आया जब अशोक को सुबह प्रातः काल ही नियम से जगाया गया-ब्रश करके नहा-धोकर उसे नयीं बुशर्ट-किट और गुलाबी टाई (सफेद बुशर्ट, भरे रंग की किट और गुलाबी रंग की छोटी टाई पहनाई गई, पैरों में भूरे रंग के मोजे और नये चमचमाते चमड़े के जूते) पहनाये गये। यह वह जमाना था जब अभी भी घरों में लकड़ी की खड़ाओं ही पहनी जाती-बाहर जाने पर भी लोग खडाओं पहन कर जाते-हिन्दू अक्सर चमड़े के जूते घर से बाहर उतार देते और घर में पैर साबुन से या मिट्टी से धो लेते। अशोक पर स्कूल की वर्दी खूब निखर उठी। वह बहुत सुन्दर और भोला-सा बच्चा मन को हर लेता। सारी तैयारी कर ली गई।टेंडिल बिस्को, स्कूल शहर का सब से पुराना मिशन स्कूल है। इसकी स्थापना पहले पहल टेंडेल बिस्को नामक अंग्रेजी व्यक्ति ने मिशनरी स्कूल के रूप में फतेहकदल के पास की। इनका बखान कश्मीर के इतिहासकारों ने ही नहीं सर लाॅरेंस ने अपनी पुस्तक वेल आॅफ कश्मीर में भी किया है। इस स्कूल के उच्चि कोटि के मापदण्डों के और अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति के कारण सारे जम्मू-कश्मीर में इसका नाम और दबदबा था। अब इस स्कूल को फतेह-बदल से अमीराकदल, में लाल चैंक के पास ले जाया गया था। इस तरह आली कदल से अब यह स्कूल खासी दूरी पर आ गया था-यहां से तांगे इक्के पर चढ़कर ही लोग अमीरा बदल जाते थे।1959 के बसंत के दिन चरम सीमा पर है। बादामी बाग में बादाम के फूलों की झड़ी लगी है। सारा वातावरण मद, मस्ती और सुगंध से भरा है। अशोक को मां और पिताजी मोहन लाल एक टांगे पर बिठा कर अमीराकदल के बिस्को स्कूल में ले जाते हैं। प्रिंसिपल इरिक्क बिस्को जो अब अपने पिता टेंडेल ब्रिस्को के स्थान पर स्कूल की देख-रेख करते थे, पहले से कुछ बच्चों के अभिभावकों और बच्चों से मुलाकात में व्यस्त थे। थोड़ी देर एक बड़े हाॅल में अशोक अपने माता-पिता के साथ लकड़ी के बेंच पर बैठ गया-हाल की छत काफी ऊंची लग रही थी-दीवारें सफेद एकदम दूध-सी धुली लग रही थी और दीवारों पर सजे फुल लाइफ साइज चित्रों में एक अनोखा आकर्षण था-यह विश्व के महान विचारकों, सांइटिस्टों और हस्तियों की तस्वीरें थी जिनमें अधिकतर यूरोप के ही थे। अशोक केा इन तस्वीरों की अलग वेशभूषा और मुद्रायें ही आकर्षित कर रहीं थीं-हाल के एक खास दीवार पर एक आदमी बुरी तरह ज़ख्मी किसी सलीब पर टंगा दिख रहा था-एक अति ममतामयी मां अपने शिशु को गोद में लिए स्तनपान करा रही थी। सलीब से ट।गे व्यक्ति के चित्र में भयानक दर्द की कहानी दिख रही थी, पर उसके चेहरे पर दर्द के भाव न थे। उसकी गर्दन सिर्फ एक तरफ मुड़ी थी-और चेहरे पर दाढ़ी थी-वह अपना और आत्मज़ लग रहा था। अशोक ने पिताजी से पूछा यह कौन है? क्राइस्ट यही वह महान व्यक्ति है, जिसने धर्म की खातिर अपने ऊपर ढेरों जुल्म सहे। और मानवता के लिए इस सलीब से उतर कर पुनः जीवित हुआ। यह ईसाइयों के ऐसे देखता है जैसे हमारे श्रीकृष्ण है।अशोक हाल के गेट तक गया और बाहर खुले मैदान में फुटबाॅल खेलते बच्चों को देखा-सब बच्चे बाल के पीछे दौड़ रहे थे और इसे लातों से उछाल रहे थे-अशोक का मन यह देखकर प्रसन्न हो रहा था। यह तो बड़ी मज़ेदार जगह है। कुछ बच्चे सी, सा खेल रहे थे, कुछ झूला झूल रहे थे। वाह! यहां तो मौज भी बहुत है। तभी अंदर से प्रिंसिपल साहब ने बुलाया। अशोक अपने मां-बाप के साथ भीतर चला गया-प्रिंसिपल के कमरे में बड़ी मेज़ के पीछे प्रिंसिपल कुर्सी पर बैठे थे और मेज़ पर कलम दवात, कलेण्डर, कुछ कागज़ और डायरी थी। कमरे की साजढावट आकर्षक थी। यहां भी कुछ हस्तियों के चित्र लगे थे। बिस्को साहब ने अशोक को देखा और नाम पूछा, क्या नाम है तुम्हारा।‘माई नेम इज़ अशोक जेलखानी, सन आॅफ मिस्टर मोहन लाल एण्ड कुन्ती जेलखानी, आई लिव ऐट आॅलीकदल श्रीनगर।’बिस्को ‘ओह! गुड तो तुम पूरी तैयारी करके आया हो.... गुड। भई आप टीचर हैं... और जानते हैं बच्चे की जिम्मेदारी, पर यहां बहुत कुछ करना होता है, अच्छी अंग्रेजी के साथ मैथ भी अच्छा होना मांगता है।’हम अशोक को पास करके एडमिशन अभी दे देता है, पर इसका असली फैसला तीन महीने के बाद होने वाले टेस्ट में होगा, अगर इसने हमारे स्टेंडर्ड के हिसाब से परफार्म किया तो ठीक है, नहीं तो आपको इसके लिए कुछ अलग सोचना होगा...’‘यह जिम्मेदारी मैं लेती हूं। यह टेस्ट में आपको डिसापइंट नहीं करेगा। मैं इसको खूब पढ़ाऊंगी। ‘ठीक है, ठीक है... ऐसा ही होना चाहिए।’स्कूल में एडमिशन के दिन अशोक ने एक अन्य बालक को भी स्कूल आते देखा था। यह लड़का भी अपनी मां और बाप के साथ आया था-इसके मां-बाप अशोक के मां-बाप से बहुत खुलकर मिले थे-दोनों में काफी बातें हुइ्र-खासकर दोनों बच्चों की माताओं में-यह मोहन जी ने अशोक से कहा, जानते हो यह कौन हैं, यह हमारे कश्मीर के मायानाज ब्राडकास्टर हैं, प्राण किशोर... तुम इनसे हमेशा मिलना चाहते थे ना, लो आज मिल लो।प्राण जी ने अशोक को अपनी गोद में उठाकर उसे प्यार किया, पुचकारा और उनके बेटे से भी हाथ मिलाकर दोस्ती की। इस तरह एक ऐतिहासिक दिन का शुभारंभ हुआ-प्राण जी से अशोक जेलखानी काफी प्रभावित रहे और सारे जीवन में दोनों बच्चों की इकट्ठे तालीम पाने के कारण मेल-जोल की शुरूआत एक सुदृढ़ मित्रता के संबंध मंे पनप उठी। अशोक जी से जब भी प्राण किशोर जी के बारे में बात करते हैं तो वह बेहद इज्जत, अहतराम और प्यार से उनके और उनकी पत्नी शांता जी के बारे मंे बताते हैं। आगे इन बातों का ज़िक्र खूब आएगा।अशोक को बिस्को में दाखिला तो हो गया था पर अभी विशेष परीक्षा का समय बाकी था। इधर अशोक को बिस्को में दाखिल कराया उधर मोहन जी को फिर एक खुशखबरी सुनने को मिली। वह फिर से बाप बनने वाले हैं। यह सुनकर सारा परिवार खुशी से झूम उठा। अशोक को भी बताया गया कि जल्द ही उसके साथ खेलने के लिए उसकी मां एक प्यारे से बच्चे को जन्म देने वाली है। यह एक ऐसा समाचार था, जिसको बच्चा अपनी सीमित बुद्धि के अनुसार ग्रहण करता है। बच्चा मां के पेट में पल रहा है। अशोक के मन में बहुत से सवाल कौंध रहे थे। जाहिर है हर छोटा बच्चा अपने आस-पास के जगत से ऐसे ही परिचित होता है। उसे बहुत परोक्ष और असापेक्ष रूप से ये बात मालूम पड़ती हैं जो उसके मूलभूत जीवन और जीवन पर्यन्त मरण से संबंधित होती है। यही बताने के लिए शायद ऐसे तीज-त्यौहारों का हमारी जिन्दगी मंे हमारे पूर्वजों ने अविष्कार किया हो, जिनसे हमंे जीवन की छोटी-मोटी बातें मरहलेवार समझ मंे आती है। बसन्त में एक ऐसा दिन सोंथ है, जो बसन्त के प्रथम दिवस का होता है। जिसमें बच्चे बढ़-चढ़कर भाग लेते। ग्रामीण इलाकों के बच्चों को इस दिन का खास इंतिजार रहता-सर्दियों की सारी कबार्ड-और फालतू चीजों के ढेर को बांध कर गांव की सीमा से बाहर जला दिया जाता और लौटते हुए उसी जगह पर एक अखरोट रखकर रोप दिया जाता-कुछ महीनों में रोपे हुए अखरोट के स्थान पर एक नन्हा सा पौधा उगा दिखाई देता-जिसके चारों ओर गोलार्द्ध में बाड़ लगाई जाती-कुछ वर्षों के अंतराल मंे यह फलदार अखरोट का बृहद वृक्ष बन जाता-यह जीवन में सतकर्म के फल का पर्याय था-इस पेड़ का फल कोई एक व्यक्ति नहीं, पूरा गांव खाता, यही फल तीज-त्यौहारों पर बेटियों के मायके से जाता और उन्हें इन फलों की प्रतीक्षा रहती। यह फल ही नहीं होते, भावनाओं में पिरोय रिश्तों के महीन मनके और तार होते, जो उन्हें सामाजिक रिश्ते के बंधन से जोड़े रखते। मायके से कुन्ती के लिए आज यही फल लेकर स्वयं उसके पिता आए हैं। उन्होंने अशोक के लिए कपड़े और अपनी बिटिया के लिए साड़ी और फलों की टोकरी लाई है। वे यहां का पानी तक नहीं पीते हैं। यहां सीधे बाकी तीन बेटियों के लिए फल और वस्त्र लेकर जाएंगे। दिन भर के लिए तांगा बुक किया है और आजका पूरा दिन बेटियों को समर्पित किया है। आज उनकी बाछें खिल रही हैं। बेटियां अपने-अपने घरों में अपनी गृहस्थी खूब जमा रही हैं। मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा के साथ अपना जीवन स्थापित कर रही हैं। सवेरे कुन्ती जी के यहां निकलने से पहले दीनानाथ कौल जी ने पर्वत में माता के दरबार में शीश नवा कर खूब पूजा की, फिर विधिवत् उनसे प्रार्थना की कि उनके परिवार को अनिष्ठ से बचाए रखना-तब आते हुए पीर साहब के दरबार को सलाम किया और आते-जाते सब लोगों को बसंत के आगमन की बधाई दी।
कुन्ती जी के मन में एक परेशानी थी कि गर्भवती होने के कारण वह अशोक पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगी और कुछ ही महीनों मे उसके टेस्ट होने थे, तभी डाक से स्कूल की तरफ से चिट्ठी आई। आपको प्रिंसिपल से अपने बच्चे के संबंध में तुंरत मिलने की ताकीद की जाती हैं, चिट्ठी पढ़कर मोहन जी, कुन्ती जी और चुन्नी लाल अशोक के विषय में गंभीरता से सोचने लगे। आखिर क्या बात हो सकती है! पर उन्होंने बहुत अच्छा किया, जो अशोक से कुछ न पूछा-दोनों पति-पत्नी दूसरे रोज बिस्को स्कूल में हाजिर हुए। इरिक बिस्को ने हंस कर दोनों का स्वागत करते हुए कहा, आप कुछ ज्यादा घबरा गए हैं, वैसे सच तो यह है कि बात इतनी कम अहम भी नहीं है, जबकि यह बात बच्चे के इस स्कूल में पढ़ाई के मामले में हो- ‘आखिर क्या हुआ है...सर।’ परेषान मां-बाप पूछने लगे।
नहीं होना वोना कुछ नहीं-आपके बच्चे पर, आप का ध्यान बहुत कम है। ऐसे नहीं चलेगा, यह वैसा प्रोग्रेस नहीं दिखा रहा है, जैसा कि मैं एक्सपेक्ट करता था, क्या हुआ...? आप दोनों ही पढ़े-लिखे हैं और आप तो टीचर हैं खुद। मुझे बहुत अफसोस होगा, अगर तीन महीने में इसकी हालत कम-से-कम बाकी अच्छे बच्चों के बराबर नहीं होती तो उस सूरत में हम इसे यहां रखने की सलाह नहीं देंगे, हमारे नियम बहुत कड़े हैं... बस सिर्फ तीन महीने हैं आपके पास... श्रनेज जीतमम उवजीेए ठीक है, ‘मैं वादा करती हूं... तीन महीनों में मैं इसे बाकी अच्छे बच्चों से भी काबिल बना दूंगी।’ ‘मुझे यही आशा है आपसे।’कुन्ती जी ने बिस्को साहब को आश्वासन तो दे दिया, पर यह सब होगा कैसे? एक तरफ पांव भारी है, दूसरी तरफ नौकरी का झंझट और फिर वादी में हालात अभी फिर धुंधलकों में घिरे हैं। बहुत सारे कार्य हैं, एक तरह से पूरी जंग का ऐलान हो चुका है और यह जंग कुन्ती जेलखानी को जीतनी है। यही समय है धैर्य को बनाए रखने का-हिम्मत और हौंसले से अशोक को तैयार करने का।घर पहुंच कर उसने अशोक को अपने पास बुलाया और उससे बहुत प्यार से पूछने लगी।तुम को क्या पसंद है, उमर भर अनपढ़ रहकर ज़िन्दगी में धक्के खाना, पढ़े-लिखों से पीट जाना, दुनियां जहान की गुलामी करना या पढ़-लिख कर कुछ इज्ज़त, नाम और शोहरत पाना-अशोक को यद्यपि कुछ जयादा समझ नहीं आया पर एक बात उसे साफ समझ आ रही थी कि मां कुछ खास करने को कह रही हैं- ‘देखो चुप मत रहो, बोलो जैसे मैं कहूंगी वैसा करोगे?’हां, मैं वही करूंगा।तो सुनो, आज से तुम मेरे साथ सुबह चार बजे नींद से जागोगे-इस घड़ी में चार बजे का अलार्म मैं रखती हूं-यह घड़ी हमें जगाएगी। घड़ी की यह घंटी सुनते ही तुम जागोगे, नहा-धोकर, अपनी पढ़ाई शुरू करोगे और याद रखो यही एक रास्ता है और कुछ नहीं... समझे।आज्ञाकारी बालक ने अपनी मां का कहा, धर्मादेश की तरह विनम्र रूप से माना, मां के कहने पर पूरा अमल किया, सुबह-सवेरे नींद का परित्याग करने में बड़े-बड़े शूरवीर भी आनाकनी करते हैं, पर अशोक ने अपने जीवन मंे मां के कहे हर वाक्य को देवादेश माना और वही करने लगा, जो मां ने कहा। इस प्रकार अशोक एक नियमित जीवन में बंध गया-इसका फल भी बहुत अच्छा मिला-तीन महीने बाद की परीक्षा में उसने बिस्को साहब को हैरान कर दिया-स्कूल के सभी मापदण्ड में वह बड़ी कामयाबी से आगे बढ़ रहा था-स्विमिंग, खेलकूद, पढ़ाई और बोलचाल में वह निपुणता हासिल करने लगा था। एक बार फिर स्कूल से बिस्को साहब का पत्र आया, जिसमें उसने अशोक के साथ मां-बाप को भी मुबारकबाद और शाबाशी दी थी और कहा था कि उम्मीद है यह काम जारी रखेंगे। अशोक ने कुशल तपस्वी की तरह निंद्रा, आलस्य और अकर्मन्यता का परित्याग कर कठोर कर्म का रास्ता अपनाया और बहुत छोटी उमर से ही अथक मेहनत से सूजबूझ से लगन और साधना से फल प्राप्ति और लक्ष्यपूर्णता के गुर सीखने शुरू किए। उसकी समझ में यह बात बहुत गहरे उतर गई कि बिना कठोर परिश्रम के जीवन में और कोई चारा नहीं है। अगर सबको खुश रखकर खुश रहना है तो दूसरों की अपेक्षाओं पर पूरा उतरना है, जिम्मेदारियों को समझना और पूरा करना है। यह बातें शायद इसी संदर्भ और इतनी ही तीव्रता से समझ न आई हों, पर अशोक के समस्त जीवन पर इस तरह की प्रक्रिया से गुजरने की बुनियादी और शुरूआती दिनों की छाप, सारी जिंदगी पर पड़ी, साफ और स्पष्ट नजर आएगी। छोटे बच्चे में अपने प्रति जिम्मेदार होने की जो भावना बहुत छोटी सी उमर में जागी, उसका असर समस्त जीवनकाल पर सार्थक रूप में नजर आया-यह एक संयोग था और शायद ऐसा संयोग हर किसी के नसीब में नहीं होता यहां तक कि एक ही खून के रिश्तों में और एक ही मां से जने अनेकों बच्चों में भी कदाचित इसे नहीं दोहराया जा सकता। इस बात की गहनता इस तथ्य को भी किसी हद तक स्थापित करती है कि एक जैसे अवसर उपलब्ध होने के बावूद भी दो व्यक्तियों की परिवेश बिलकुल एक-सी होने के बावजूद भी, दोनों व्यक्तियों के विकास के मार्ग और दशा जरूरी नहीं है कि एक जैसे हांे। इसीलिए मनीषियों ने विभिन्नता को स्वीकारते हुए भी एक जैसे सामाजिक न्याय और अधिकारों की बात की और इसकी पैरवी की। यही वास्तविकता इनसानी जीवन को संतुलित रख सकती है। बराबरी का मायने या मतलब कभी नहीं कि सभी एक जैसी योग्यता, समान और प्रकृति प्रदत अवसरों में उत्पन्न हुए हैं, समानता का अर्थ है विषमता को पाटना, न्यायसंगत और साभिप्राय बनाना- एक नवजात की सीमाएं उसके साथ भेदभाव का कारण नहीं बनें।-------------------------------------------------------
संशय या सत्य ?
पाकिस्तान के इरादे और हौंसले पस्त नहीं हुए थे। वह अपनी चालों से बाज नहीं आ रहा था। पाकिस्तान ने कश्मीरी मुसलमानों को धर्म के व इस्लामी भाईचारे के नाम पर वरगलाने की मुहिम काफी तेज कर दी थी। फौज के जनरल अयूब खां ने पाकिस्तानी हकूमत की बागडोर अपने हाथ में ली थी और वह भारत के खिलाफ अपने प्रपोगेंडा तन्त्र से इसलामी रेशों और कश्मीर में जर उगल रहा था। दूसरी ओर अमेरिका भी पाकिस्तानी फौजी हकूमत की ही पुश्तपनाही कर रहा था। पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर में बहुत हाईपावर ट्रांसमिशन लगाकर एक रेडियो स्टेशन कायम किया गया था, जो खुद को आजाद कश्मीर कहता था, जबकि वास्तव में वह हिस्सा पाकिस्तान ने फौजी कार्यवाही करके जबरन हरिसिंह के राज्य से छीन लिया था। आजाद कश्मीर से नफरत, इशतियाल और फिरकावाराना फसाद खड़े करने के कार्यक्रम नशर हो रहे थे-यह सब कार्यक्रम भारत और हिन्दू विरोधी होते और इनमें कश्मीरी मुसलमानों पर भारतीय अत्याचार के मनगढंत कहानियां प्रसारित की जाती-यही नहीं इस रेडियो को सुनकर कश्मीरी मुसलमानों मंे हिन्दू भारत के प्रति नफरत और इस्लामी पाकिस्तान के प्रति महोबत का पाठ पढ़ाया जाता। इस जहर का असर कम करने के लिए और कश्मीरी अवाम को अपना सच कहने के लिए, रेडियो कश्मीर ने भी खूब तैयारी की। रेडियो कश्मीर ने किन्तु ‘आज़ाद कष्मीर’ रेडियो की तरह जहर नहीं उगला। रेडियो कश्मीर हजारों वर्षों से चली आ रही कश्मीरी सभ्यता और संस्कृति का एक मुख्य केंद्र और गहवारा बना। इसने बहुत अहम और मुख्य भूमिका अदा की। कश्मीरी मनुष्य को भावनाओं के मायनों में समाज में संप्रेषित करने के लिए यहां मीर गुलाम रसूल नाज़की, प्राण किशोर, किदार शर्मा, पुष्कर भान, सोमनाथ साधू, बशीर भट, मोती लाल साकी, मोहन निराश, गुलाम हसन साजनवान, तिबदबकाल, नसीम अख्तर, राजबेगम, माहेन लाल ऐमा ने रात-दिन एक करके कश्मीरी अवाम को एक ऐसा प्लेटफाॅर्म मुय्यसर किया जो इनके जीवन का एक मुख्य अंग बन गया। इस स्टेशन ने सोच, समझ, भाव और भाषा को एक समुचित दिशा प्रदान की। इसका एक बहुत बड़ा योगदान रहा। सामाजिक चेतना, विकास और मनोरंजन का अथाह सागर सिद्ध हुआ यह स्टेशन। यहां से समस्त वादी की प्रतिभा स्फुटित होकर विकसित हुई। जिसमें नामी गलोकार, मौसीकार, लेखक, नाटकार, और तरह-तरह के शायर उभर सके। रेडियो कश्मीर ने कश्मीर के रंगकर्मियों को अपने रेडियो नाटकों में पेश किया, इन नाटकों की ख्याति और इनमें दिलचस्पी के कारण लोगों ने जिस किसी तरह भी हो रेडियो सेट खरीदने शुरू किए। मीडियम और शाॅट वेब पर चलने वाला यह स्टेशन वादी के एक कोने से दूसरे कोने तक लोगों की रोजमर्रा ज़िन्दगी का एक आवश्यक अंग बन चुका था, कश्मीरी गाने और संगीत, नाटक, खबरें, फिल्मी गाने, फौजी भाईयों के प्रोग्राम, ग्रामीणों के प्रोग्राम स्त्रियों के प्रोग्राम और साहित्य के प्रोग्राम, हर तरह की रंगत कश्मीर की फिज़ा में बिखेरने वाले रेडियो स्टेशन ने आम कश्मीरी के मन में घर बना लिया। पाकिस्तानी झूठ का प्रचार अब कश्मीरी आम आदमी के हलक से न उतरता था-पर रेडियो कश्मीर की खबरों में भी किन्हीं कारणों से वह पारदर्शिता नहीं अपनायी जाती जिसकी लोग अपेक्षा करते। नौजवानों में रेडियो के कार्यक्रमों को सुनना और इनमें भाग लेना गौरव की बात मानी जाने लगी थी। रेडियो आर्टिस्ट को विशेष सम्मान मिलना शुरू हो गया था। अब संभ्रांत कुलीन परिवारों से भी लड़के-लड़कियां रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेने में गर्व महसूस करते। प्राण किशोर की पत्नी शांता कौल, आपकी फरमाईश कार्यक्रम बहुत खूबी से पेश करती-रेडियो ने सुधामा जी कौल, ब्रज किशोरी, बशीर भट्ट, उमा खोसला, मनोहर परोहत, त्रिलोक दास, मखनलाल सराफ, आशा जारो, भारती जारो-तबला बेगम, नयीमा बेगम और जाने कितने कलाकारों को कश्मीर के हर घर में बेहद मकबूलियत दिलाई। इनके नामों के साथ हर कोई परिचित हुआ-और इनकी रेडियो अदाकारी ने सबके दिल मोह लिये। सोमनाथ साधू, पुष्कर मान की जोड़ी ने जून डल, मचाया जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम प्रस्तुत किये-जिस कारण इन्हें पद्मश्री पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। गायन में नसीम अख्तर, राजबेगम, गुलाम अहमद कालीनबाफ, तिबदबकाल, डौलवाल, गुलाम अहमद सोफी ने बहुत मकबूलियत पाई। ये सब कलाकार बख्शी साहब के जशन कश्मीर कार्यक्रम में गांव-गांव उनके साथ संगीत और नाटक के शो करते, जिन्हें देखने, सुनने के लिए दर्शकों का मानो सेलाब उमड़ आता-इस सबके पसेपर्दा लेकिन राजनीति मंे बहुत पेचीदगी उत्पन्न हो रही थी। भीतर और बाहर संकट कहीं थमने का नाम नहीं ले रहा था। बाहर के शत्रु तो विधित थे, भीतर के कुछ प्रकट दिखते, कुछ छुप कर वार करते। बख्शी गुलाम मुहम्मद का राजनीतिक कद अगरचि काफी बढ़ गया था पर कुन्बा परवरी, रिश्वतखोरी और गुंडागर्दी ने हाल-बेहाल कर रखा था। जिस प्रकार से छितरे बादलों मंे सूरज लुका छिपी करता है, ऐसी ही हालत कश्मीरी पंडितों के जेहन में थी-अभी उनको सब स्थिर, सुरक्षित महसूस होता पर दूसरे ही क्षण अपना समूचा अस्तित्व शेर के मुंह में नज़र आता।कहीं, कहीं शायद कुछ मुसलमान भी इस बेइत्मिनानी का शिकार था। दुश्मनों के प्रचार ने उसे भारत के खिलाफ आशंकित किया था-सैक्यूलर कद्धरों का दम भरने वाला और भारत से इतिहास पर मोहर लगाने वाला उनका रहनुमा भारत में ही जेल में डाला गया था। यह एक विडम्बना से कम न था।इसी बीच एक दिन गुलाम मुहम्मद ने चुन्नी लाल जी को हैरान करने वाली बात कह डाली, मानो यहां हिन्दुस्तानी फौजें कहर डालना शुरू कर दें और जबरदस्ती बाहर के हिन्दू यहां बसना शुरू हों तो हमारी सुरक्षा की गारंटी क्या है? मान लो यहां ऐसी कोई गड़बड़ी होती है, जिसमें मुसलमान सुरक्षित न रहे तो क्या कुछ तरीका आपके मज़हब में है जो हमें फटाफट हिन्दू बना दें ? चुन्नी लाल का माथा ठनका-यही बात वह कुछ देर पहले सोच रहा था कि अगर अब के कश्मीर में हालात बिगडने दिए गए और भारत सरकार ने थोड़ी भी कोताही बरती तो कश्मीर में शायद हिन्दू सुरक्षित न रहे। कम्यूनल मुसलमानों के तेवर आक्रामक दिखने लगे थे। उनमें से मुंहजोरों ने खासा धन इकट्ठा किया था। 1957 में मार्च मंे हुए एलेक्शनों में बख्शी ने 43 में से अपने 35 गुर्गों को बिलामुकाबला कामयाब कराया था-अस्म्मबली की 75 में से 43 सीटों पर काबिज़ होने के बाद बख्शी के पास अनियंत्रित ताकत आ गई थी। यहां तक कि जम्मू में प्रजापरिषद जैसी पार्टी के हिस्से भी पांच ही सीटें आ सकी थीं। इस बात को देखकर कश्मीर में सोचने-समझने वाला लोकतंत्र की आस लगाये बैठा तबका गहरी निराशा में और आक्रोश में था। इन्हें लगने लगा था कि भारत का प्रजातंत्र कश्मीर में कभी रायज नहीं होने दिया जाएगा-और शायद भारत भी यही चाहता है। इस बात को लेकर एक और आदमी चिंतित दिखाई दे रहा था और वह था बख्शी की काबीना का ही एक नवजवान बायें बाजू की सोच का आदमी जिसका नाम गुलाम मोहम्मद साद्धिक था-उसके साथ उसी के जैसे सोच के कुछ नौजवान और शामिल थे, जिनमें प्रमुख रूप से मीर कासिम और दुर्गा प्रसाद धर शामिल थे। इनमंे से मीर कासिम अनन्तनाग के ब्रंग इलाके के रहने वाले एक किसान-मौलवी परिवार के बहुत ही होनहार चश्मोचराग था-बख्शी के चचेरे भाईयों ने उसकी ताकत का खुलेआम प्रदर्शन किया-उन्होंने रूपया पैसा ऐंठना और शहर को अपनी बाहूबल की नोंक पर चलाना शुरू किया-लोगों ने खासकर कुलीन और संभ्रांत हिन्दू, मुसलमानों ने इस बात की षिकायत जम्मू कष्मीर के पहले रीजेन्ट और अब सदरेरियास्त, जो अब बहुत जल्द रियासत के गर्वनर कहलाने वाले थे और जिन्हों ने अब तक केन्द्र के साथ अपना अच्छा तालमेल कायम कर दिया था, से की। करण सिंह को कष्मीर के लोग अभी भी एक तरह से राजा हरि सिंह का वारिस मानते थे और अब इसे राजा की तरह देखते थे। हलांकि करण सिंह बहुत हकीकत पसंद थे और जानते थे कि राजषाही के दिन खत्म हो चुके हैं। पर एन पर जो संवैधानिक ज़िम्मेवारी बनती थी इसे वे निभाने में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतना चाहत थे उन्हों ने बक्शी के कुटुम्ब की सारी हकीकत से केन्द्र को सूचित करने का कर्तव्य निभाया। दुःखी लोगों की इस गुहार को कि इन्हें बख्षी के चचेरे भाइयों के ज़ुन्म से बचाया जाये, करण सिंह ने तत्काल केन्द्र तक पहुचाई।अब मसला सिर्फ इतना ही नहीं था कि पाकिस्तान मज़हब के नाम पर कष्मीरियों को भडका रहा था और इसी फिराक़ में कष्मीर हडपना चाहता था, अपितु लोगों का लोकतन्त्र और प्रजातान्त्रिक प्रणाली से मोहभंग होने लगा था। लोगों के चहेते नेता जेलों में डाले गये थे ओर लोगों का कष्मीर में प्रजातंत्र पर विष्वास डगमाने लगा था। ष्षहर में इस का असर तेज़ पनपता दिख रहा था और गांव में यह भंकर सांप्रदायिक नफरत की दरारें पैदा करने लगा था। यह बात अलग है कि लोग इसे बाहर खुल कर प्रकट नहीं कर रहे थे और आंखों का लिहाज़ बचाये थे पर दुश्मनों ने दरार डाल दी थी। अपने पड़ोसी के साथ अपनी आंखों का लिहाज बचाये थे, पर दुश्मनों ने उनके दिल में, दरार डाल दी थी, जिसे कश्मीर के अनिश्चित हालात और गहरा चीर रहे थे। 1952 में शेख साहब ने कश्मीरियों को इसी उद्देश्य से एक संविधान देने का प्रयास किया था। किन्तु राष्ट्रीय संघ ने पहले ही एक प्रस्ताव पारित करके 30 मार्च, 1951 को किसी भी ऐसे कानून को मानने से इंकार किया-और उस समय केवल सोवियत गणराज्य ने इसका विरोध किया था। इसीलिए 25 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर की असंबली ने नया संविधान पारित किया और पुराने को निरस्त कर दिया। इसी समय के आस-पास कश्मीर के इतिहास में एक स्वर्णिम घटना घटी-बनिहाल टनल ने जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से निर्बाद रूप से मिला दिया-कहा जाता है कि जिस जर्मन इंजीनियर की देख-रेख में यह टनल बनी थी-टनल के दोनों मुहानों को उसने बीचोंबीच मिलाया था-ऐसे तो हर कोण से वह आश्वस्त था कि दोनों तरफ का मिलान बीच में होगा-पर यदि ऐसा न होता तो उस सूरत में उसने अपने सिरहाने पिस्तौल रखी थी और वह खुद को मार देता, शुक्र है कि दोनों मुहाने निर्धारित रूप से आपस में मिल गए और एक अति मूल्यवान जान बच सकी। इसी टनल को दिखाने बच्चों को स्कूल के साथ बिस्को साहब लेकर गए-यह विज्ञान और इंजीनियरिंग का जीता-जागता करिश्मा था, जिसे हम सिर्फ तिलस्मी किताबों में पढ़ते या सुनते थे। पर आदमी ने अपनी बुद्धि के कौशल पर पूरे भव्य पहाड़ को 7200 फीट की ऊंचाई पर आर-पार चीरकर एक ऐसी राह निकाली, जो किसी अजूबे से कम न थी। बच्चों को एक लाइन में ले जाकर टनल के भीतर ले जाकर टनल दिखाने की अनुमति दी गयी-इतनी लंबी गुफा और इसमें चलती मोटरगाड़ियां और एक तरफ मनुष्यों के चलने की पैदल राह, बिजली के बड़े-बड़े लेम्प और रोशनी से भरपूर राह। कुछ दूर पैदल चलकर बच्चों को बस में बिठाकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाया गया और फिर वापिस लाया गया-कुछ बच्चों को, भय भी लगा होगा-पर अशोक के मन में इस से बढ़कर आज तक कोइ्र एडवेंचर देखने को नहीं मिला-बड़े होने पर जब भी कभी बनिहाल टनल क्रास करते हैं तो वह दिन एकदम आंखों के सामने कौंध जाता है।महाराजा हरि सिंह का एक बहुत ही कुशल सैन्य जनरल जोरावर सिंह था, इसने द्रास, करगिल, असकरदू और तिब्बत के कुछ भाग व नार्थरन फ्रन्टइंयर का हिस्सा कश्मीर में मिलाकर अपने सैन्य बल का अद्भुत प्रदर्शन किया था-इन्हीं अभियानों में शहीद होकर उसने जान दी थी। हरि सिंह के जमाने का कोई भी अदालती स्टैम्प पेपर उठाकर देख लीजिए उस पर लिखा होगा-जम्मू कश्मीर तिब्बत आदि देश। विभिन्न भू-भाग, वेश-भूषा, बोलियों, जुबानों, तहजीबों और धर्म के लोगों की इकाइयों को एक करके डोगरा राजाओं ने जम्मू-कश्मीर की रियासत को विस्तार दिया था। किन्तु राजकुमार कर्ण सिंह के किशोर अवस्था में ही डोगरा का यह राज्य एक विकट समस्या में आ गया जब महाराजा हरि सिंह ने इसे भारत और पाकिसतान में विलय न करके यथास्थिति के प्रस्ताव दोनों देशों को भेजे। पाकिस्तान ने ऊपरी तौर पर महाराजा का प्रस्ताव मान कर जम्मू-कश्मीर की यथास्थिति वाले दर्जे को मंजूरी दे दी, पर भारत ने कोई जवाब नहीं दिया। इस स्थिति से आशंकित पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर का एकमात्र तिजारती रास्ता जो पाकिस्तान के लाहौर में खुलता था, बंद कर दिया-इसके तुरंत बाद कबाइलियों को हथियार देकर सैन्य बल के साथ कश्मीर पर चढ़ाई की और कत्ले आम का बाजार गर्म किया। मीरपुर में हजारों हिन्दुओं को मारा गया। जम्मू में पुंछ और राजौरी में कोहराम मचाया। जम्मू-कश्मीर के राजा की गिनती की सेना इसका कुछ भी प्रतिवाद न कर पाई। इस आक्रमण से त्रस्त राजा ने भारत से मदद मांगी और राज्य के विलय का प्रस्ताव भी प्रेषित किया-इस तरह समस्त जम्मू कश्मीर तिब्बत आदि देश कहे जाने वाले इस भू-भाग का वैधानिक रूप से भारत के साथ उसी प्रकार विलय हुआ, जिस प्रकार अन्य राज्यों का हो गया था। किन्तु राष्ट्रमंडल में हमलावर पाकिस्तान और बचाओ करने वाले भारत को एक-सा देखा जाना ही इस विषय में यूरोपीय देशों खासकर ब्रिटेन और अमेरिका की इस विषय में नेकनियत पर सवाल उत्पन्न करता है। तब से आज तक भारत पाकिस्तान में और कश्मीर में विशेषकर यह विवाद विनाशकारी युद्धों और आतंकवाद का वाहक बना है। चीन ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए 1954 में ही तिब्बत में मुदाखलत करके समस्या खड़ी कर दी थी। भारत का जवाब प्रतिवाद तक ही सीमित विरोध में सिमटा रहा। पंचशील की नीति ने चीन के हौंसले बुलंद रखे और भारत की कोताही के नतीजों में 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा-इस हार के नतीजे में लद्दाख के बड़े भू-भाग पर चीनी कब्जा हो गया-वहां पाकिस्तान पहले ही चीन को जम्मू-कश्मीर की भूमिका का 500 वर्गमील एरिया भेंट कर चुका है। 1962 की जंग ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर सैन्यबल को जगजाहिर कर दिया-पाकिस्तान के फौजी हुकमरानों में प्रथम अयूब खान कोे कश्मीर को फितना बनाकर यकायक फौजी कारवाईयां करके हड़पने का मंसूबा कारगर दिखने लगा-उसने इसी मनसूबे को अमली जामा पहनाने के लिए कश्मीर में दरअंदाज भेजने की तैयारी करनी शुरू की।परिवर्ततन का दौरइन सब बातों से प्रभावित, पर जाहरी तौर से दूर, कश्मीर की आम जनता में नए पनपते राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समीकरण में अपनी जगह तय और सुरक्षित करने की चिंता उजागर हो गई थी। दूर गांव तक शिक्षा के फैलाव का असर दिखने लगा था। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को जिनमें लड़़के-लड़कियां दोनों शामिल थे, लोग स्कूलों में दाखिल करवा रहे थे। सरकार ने, प्राइमरी, मिडल, मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था के जिला अधिकारी और जिला प्रमुख के पद और कार्यालय स्थापित करके इनके जिम्मे स्कूलों में दसवी दर्जे तक की तालीम की निगरानी का जिम्मा सौंप दिया। गांव में प्राइमरी और बुनियादी तालीम फराहम करने के लिए स्कूल प्रारंभ किए गए। किसानों के बच्चे चाव से स्कूल में पढ़ाई के लिए दाखिला लेने लगे। नंगे पांच फटे हाल होने का गम नही, स्कूल में दाखिला लेना और तालीम हासिल करना जरूरी है। पुराने आठवीं, दसवीं पास गांव के शिक्षित पुरुष महिलाओं को पढ़ाने का जिम्मा सौंपा गया-जिसके लिए इन्हें पहले महावार भत्ता दिया जाता, जो बाद में आहिस्ता, आहिस्ता नियमित करके प्राइमरी टीचर कहलाए गए। अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। शिक्षा को इस तरह विस्तार देने के लिए कुन्ती जेलखानी सरीखी प्रशिक्षित अध्यापकों व अध्यापिकाओं के लिए जिम्मेदारी को बोझ बढ़ गया-कुछ सामाजिक स्वैछिक संस्थाओं ने हिन्दुओं के सांस्कृतिक क्रांति की अगुवाई की, भातर सेवक समाज जिसके प्रधान स्वयं नेहरू जी रहे हैं, ने सार्वजनिक सामाजिक उत्थान में उत्साही युवक-युवकों को हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। कश्यप बंधु ने कश्मीरी हिन्दु समाज को एक नई दशा और दिशा दी। रूढ़िवादी सोच को समाप्त करने के लिए नौजवानों का आह्वान किया गया और नाटक, रूपक व पाॅथर के द्वारा सामाजिक बदलाव का बिगुल बज गया-कुन्ती जी इस सबमें बहुत बढ़-चढ़कर भाग ले रही थीं-डिस्ट्रिक लेवल की कई मीटिंगों में उन्हें अध्यक्ष भी बनाय गया और उनके काम की तारीफ भी हुई, पर एक तरफ अशोक की पढ़ाई से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहती, उसे डर था कि वह वापिस अपने पुराने स्थान पर न खिसके, उसकी पोजीशन न केवल कायम रखी थी, अपितु इसमें और निखार लाना था, वहीं उसके पेट में पलता बालक भी अब अपने होने का अहसास दिला रहा था। जिसके कारण कुन्ती जी की दिनचर्या प्रभावित होने लगी थी। वह बहुत चाहती थी कि प्रसव घर पर ही हो। यह नहीं कि अस्पताल या नर्सिंग होम का खर्चा नहीं उठा सकते, अपितु वह हर हाल में अशोक को अपनी नजरों के आगे रखना चाहती थी। अशोक का बिस्को स्कूल में पढ़ना बहुत आवश्यक है अपने पति मोहन जी से वह ताकीद करके कहती। अपने देवर चूनी लाल से भी इस आशय से बताती रहती। चूनी लाल जी हालांकि बताए बगैर भी अशोक के साथ ऐसे रागात्मक रूप से जुड़ गए थे कि अशोक को देखे बगैर उनको खाने तक का मन नहीं रहता।और इसी बीच गुजरते समय ने बसन्त से ग्रीष्म और ग्रीष्म से जैसे सीधे पतझड़ में कुलांच भर दी। पेड़ों के पत्ते जर्द होकर बर्फीली हवाओं से थर-थर कांप कर गिरने लगे थे। किसानों की फसलें अभी ठीक से पक भी न पाई थी कि भारी हिमपात ने सारे कश्मीर को त्रस्त कर दिया-अगस्त अभी बीत ही न पाया था-सितंबर के आखिरी दिन और अक्तूबर का लगने वाला माह था-किसानों की कमर टूट गई, सारी वादी में हाहाकार मच गया-लोगों को इस तरह के पुराने तलरत़ तजरूबों में फसलें तबाह होने की सूरत में फाकाकशी से तड़प-तड़कर जान गंवाने के दिन याद थे-अब कोहराम मचेगा-भूख और इफलास की मारी कश्मीरी जनता को आतातायी नोंच देंगे। पर सारी जनता की हैरत का ठिकाना न रहा, जब सस्ते दामों में सरकारी घाटों पर राशन का प्रबंध होते देखा गया। सचमुच अब दुनियां बदल गई है। मुंह में कौर जाते हैं चारों तरफ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद बख्शी साहब जिन्दाबाद के नारे सुनाई दिए। इसी स्थिति के चलते कुन्ती जेलखानी ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया।अशोक को मातामाल यानी अपने ननिहाल भेजा गया था। वहीं उसे पता चला कि उसकी मां ने एक नन्हें बालक को जन्म दिया है। नन्हें, मुन्ने भाई को देखेन के लिए अशोक का नन्हा-सा दिल मचल उठा था, पर उसने बिस्को स्कूल में इतनी छोटी उम्र में ही अपनी भावनाअेां को जग-जाहिर न होने देने की भी तालीम हासिल कर ली थी। अपनी नानी का बेसबरी से प्रतीक्षा करता रहा। उसे ज्ञात था कि बेटी को देखने मां अवश्य जाएगी। तो वह साथ हो चलेगा। स्कूल से ज्यादा दिन वह बाहर नहीं रह सकता।घर पहुंच कर उसे पता चला कि मां को इसी समय घर से अस्पताल शिफ्ट करना पड़ा है और वह वहां अस्पताल के एक कमरे में नन्हे बालक के साथ है। उसका मन फिर बेचैन हो उठा। वह अपने छोटे भाई को जल्द से जल्द देखना चाहता था।छोटे भाई के जन्म के बाद अक्सर बड़े भाई या बहिन को लगता है कि उसे उपेक्षित किया जा रहा है। घर मंे सबका ध्यान स्वाभाविक है कि नए आगन्तुक पर टिका होता है। कभी-कभी बच्चे इन परिस्थितियों में बहुत अनापेक्षित रूप से नए आए नौनिहाल से बर्ताव करते हैं। वह जानबूझ कर उसे बिस्तर से गिराने का प्रयास करेंगे या उसे पीटने की भी जुर्रत करेंगे। पर अशोक अपने भाई से पहले दिन से प्यार करने लगा। वह उत्सुकता से उसे देखता और उसका माथा चूमता-बचपन में पड़ी इस भ्रातृ प्रेम की नींव सारे जीवन की इमारत को ठोस आधार देती है और अशोक व दिवाकर दोनों भाईयों में प्रेम, सौहार्द और सदाचार का संबंध सुदृढ़ करने में उनके मां-बाप के समयक पालन-पोषण का संवर्द्धक योगदान रहा।
अशोक की पढ़ाई जो अब नियमित चल रही थी-अपने शैशविक दौर को शीघ्र पार करने वाली हैं। स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ, खेल-कूद और अन्य गतिविधियों पर खास ध्यान दिया जाता। अशोक इन गतिविधियों मंे बराबर भाग लेता, इनमें फुटबाॅल खेलना, तैराकी, नाटक और संगीत की गतिविधियों में भाग लेने की स्मृति आज भी अशोक के दिमाग में बिलकुल तरोताजा है।
एक बार स्कूल में पढ़ाई में रफ्तार पकड़ने के बाद अशोक ने कभी अपनी रफ्तार धीमी नहीं होने दी-खेलकूद में अशोक का मन खासा रमा रहता, पर, तैराकी में बहुत दिलचस्पी होने के बावजूद अशोक के मन में यह मलाल बना रहा कि वह कभी भी-डल झील का फासला नेहरू पार्क से निशात तक और वापस निशात से नेहरू पार्क तक पाट नहीं सका। यह फासला आने जाने का लगभग सात किलोमीटर था और अशोक कभी भी एक किलोमीटर जाना और एक किलोमीटर वापस आने से अधिक तैर नहीं पाया। इस बात का उन्हें आज भी खेद है। बिस्को में एडमिशन से पहले अशोक अपने मां के साथ ही नवाकदल गल्र्ज़ स्कूल में जाकर नर्सरी और पहली तक की पढ़ाई हालांकि पूरी कर चुका था। यानी एक तरह से स्कूल के आचार-विचार और अनुशासन का एक खाका पहले से मन में खेंचा था, पर बिस्को में इस खाके से सबकुछ ही अलग था-शायद शुरू मंे इसीलिए अशोक को दिक्कत आई हो। पर जल्द ही अपने आपको किसी भी परिस्थिति के अनुरूप डाल देना शायद अशोक ने अपने बचपन से ही सीख लिया होगा। दोनों भाईयों में प्रेम और सौहार्द का यह संबंध बचपन से आज तक निर्बाध चलता आया है। इस समय जब अशोक अपने जीवन को पलट कर देखता है तो अनेक स्मृति खण्डों में विभाजित इस जीवन की समस्त कड़ियां खुलती हैं। अनेकों प्रसंग धारावह सामने आते हैं। स्कूल में किस प्रकार शिक्षा के साथ ही संस्कृति के आयामों को जोड़ा गया था-नाटक खेलना इस गतिविधि का एक विशेष अंग था-और अशोक को नाटकों में खासी रूचि थी। इसके कारण यद्यपि कई रहे होंगे पर अशोक को लगता है कि उनके धतक चाचाजी चूनी लाल जेलखानी जो अखबार मंगाते, उसमें साप्ताहिक अंक के साथ कार्टून की एक लघु पत्रिका साथ होती-इन कार्टून कहानियों को पढ़ते हुए, चित्रवत संवादों को जब अशोक अपनी कल्पना में देखता तो उसे इसमें चरित्रों में एक्शन का आभास होता। आजकल तो कार्टून नेटवर्क पर बच्चे सीधे ऐसे पात्रों को देख पाते हैं, पर उन दिनों कल्पना के सहारे बच्चे इन पात्रों को जीवंतता प्रदान करते। बच्चों में अपनी कल्पना शक्ति का विस्तार अधिक मात्रा में होता। धीरे-धीरे अशोक के मन में यह चीजें घर करने लगी। उसका रूझान अभिनय, रंगमंच और नाटक की ओर बढ़ने लगा। उसने अपने हाउस टीचर सतलाल राजदान से नाटकों में भाग लेने की अपनी रूचि प्रकट की-सतलाल राजदान एक बहुत बड़े शिक्षाविद रहे हैं। उनकी पुस्तकें स्कूलों में कोर्स में पढ़ाई जाती और वे काफी ख्याति अर्जित कर चुके थे। सतलाल जी ने अशोक को नाटकों में भाग लेने के लिए यद्यपि प्रेरित किया पर जब नाटक में एक रोल (पात्र) के लिए उसका चयन होना था तो उसे नहीं लिया गया-उसके स्थान पर उस समय काफी प्रतिष्ठित और मशहूर प्राण किशोर जी के पुत्र अजय कौल को शायद इसलिए प्राथमिकता दी गई कि वह एक स्थापित कलाकार का बेटा है, तो हो न हो अपने पिता की तरह उसमें भी कलाकार होने के समस्त गुण नैसर्गिक रूप से समाहित हों। अशोक को इस बात का काफी मलाल रहा। उसकी कला की काबलियत पर विश्वास नहीं किया गया, जबकि नाटक मंचित होने के बाद चयन सम्मति को भी इस बात का अहसास हुआ कि उनके चयन की प्रक्र्रिया में मूलभूत खामी थी। यह आवश्यक नहीं है कि जो लक्षण बाप में हैं, वहीं बेटे में हो। अजय आज एक बहुत ही स्थापित और कामयाब इंजीनियर है और अशोक का गहरा मित्र भी। -------------------------------------------
रंगमंच की दहलीज़ पर
कश्मीर की संस्कृति के इतिहास में 1950 से 1987 तक का समय एक तरह से स्वर्णकाल के रूप में स्मरण किया जाएगा-इस काल में राजनीतिक उठा-पठक के बावजूद सांस्कृतिक गतिविधियों में भी एक तरह से बाढ़ आ गइ्र। रंगमंच से जुड़े श्रीनगर के कुछ ऐसे नौजवान लड़के जिन्हांेने रंगमंच को घाटी में ठोस आधार प्रदान किया हर प्रकार से सक्रिय हुए। इनका आलम यह था कि कुछ नौजवानों ने अपना पूरा जीवन ही रंगमंच को समर्पित किया-इनमें से एक राधा-कृष्ण ब्रारू थे। इन्होंने अपने मित्रों के साथ कश्मीर नेशनल थियेटर के नाम से एक नाटक मण्डली बनाई और प्रसिद्ध शीतलनाथ मंदिर के आंगन में खुले रंगमंच को स्थापित कर अनेकों नाटक स्टेज किए। एक तरह से शीतल नाथ का यह अहाता नाटक खेलने वालों का सक्रिय और विधिवत् स्थान बन गया। यहां नल-दम्यन्ती,कृष्ण-सुधामा, सतच-कहवट आदि जैसे धर्मिक और सामाजिक नाटक खेलने का चलन आरम्भ हो गया था।
धीरे-धीरे इस धारा में सभी रंगकर्मी जुड़ गए। यह एक क्रांतिकारी युग था। जब संभ्रांत पंडित परिवारों से जुड़े लड़के, लड़कियां नाटकों में भाग लेने लगे। इससे पहले घाटी में प्रहसन के रूप में नाटकों को केवल भाण्डों ने जीवित रखा था। भाण्ड घाटी के किन्हीं विशेष इलाकों में ही रहते थे। यह मुसलमान धर्मानुयायी थे और इनके साथ हमेशा एक नर्तक किशोर रहता, जिसे बच्चा कहते। भाण्ड प्रहसन स्वांग के द्वारा जनता का अपार मनोरंजन करते। शहनाई, ढोल और ताशे बजाते यह भाण्ड गांव, कस्बों, शहर घूम-घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन करते और बदले में लोगों से चावल, कपड़ा, तेल, नून, मसाले खैरात के रूप में कबूल करते। इन्होंने राजा-रानी से लेकर लकड़हारा आदि तक कई स्वांगों का खुले में मंचन करके लोगों का मनोरंजन तो किया सो किया पर इनके स्वांग और प्रहसन संदेशेां से भरे होते थे, जिनमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सामाजिक संरचना का सत्य सामने आता-हंसी, मजाक में यह भाण्ड कहीं दिल और दिमाग को प्रभावित करने वाली बातों को आम लोगों तक पहुंचाते, कष्मीरी मिज़ाज में छिपे व्यंग्य के पुट को ये तीखी अभिव्यक्ति प्रदान करते।कश्मीरी पंडितों की नाटक मंडिलियां भी समाज सुधार की इन्हीं धारणाओं को आधार बनाकर घटित हुईं। पर ये लड़के-लड़कियां भारतीय प्रगतिशील नाटक संघ से अधिक प्रभावित थे। इसमें इंडियन पीपल्स थियेटर मुंबई का काफी दखल था-भारत में जगह-जगह पहले पारसी नाटक कंपनियां एक विशेष शैली में नाटकों का मंचन कर रहे थे-इसी पारसी थियेटर के आधार पर कश्मीरी पंडितों ने शीतल नाथ में पहले धार्मिक विषयों और फिर सामाजिक विषयों पर नाटक खेलने शुरू किए। अशोक के सोलह-सत्रह वर्ष का होने तक यानी 1968-69 तक कश्मीर में नाटक और रंगमंच काफी हद तक स्थापित हो चुका था-इससे उभरे कलाकारों को रेडियो कश्मीर के माध्यम से समस्त कश्मीर में पहचान, प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त हो चुकी थी-पर जैसी प्रोत्साहवर्धक गतिविधि, सांस्कृतिक फ्रंट पर नजर आ रही थीं, राजनीति और सामाजिक तानाबाना कश्मीरी पंडितों के विरुद्ध उतनी ही तेज गति से बदलने लगा था। जमीन-जायदाद से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडितों को कारोबार में भी धीरे-धीरे निष्कासित किया जा रहा था-खेती-बाड़ी, सरकारी नौकरियां, ठेकेदारी, और पैसे की रसाई मुसलमानों के एक विशेष वर्ग में बढ़ गई थी और ये ताकतवर हो चुके थे। इनका सामाजिक वर्चस्व और बाहुबल खुलकर सामने नजर आ रहा था-इसके आगे बचे-खुचे संभ्रांत पंडित परिवार अपनी रही सही सामाजिक साख को बचाने के तरीके सोच रहे थे। कश्मीरी पंडितों में भविष्य की अनिश्चता को लेकर चिंता गहरी होती जा रही थी। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रशासन से वे धीरे-धीरे अलग और दूर किए जा रहे थे। जम्मू में डोगरा हिन्दू को, कश्मीरी मुसलमान केवल राजनीतिक मुहरे के रूप में प्रयोग कर रहे थे। कश्मीरीप पंडितों के नए पढ़े-लिखे और सोचने समझने वाले नौजवानों कोे नौकरियों में भेद-भाव साफ दिख रहा था-और वे माहौल में घुटन महसूस करने लगे थे। यहां से पलायन का दौर पुनः आरंभ हुआ। राज्य में अच्छे दर्जे में इम्तिहान पास करने के बावजूद भी इंजीनियरिंग और मेडिकल के दाखलों में बरती जा रहीं धांधलियों को देखते, नौकरी में प्रमोशन में बर्ते जा रहे भेद-भाव को देखते, नौकरियों में लिए जाने के भेद-भाव को देखते कश्मीरी पंडितों ने देश के बाकी इलाकों का रूख करना शुरू किया था- इस विकल्प को कष्मीरी मुसलमानों का एक बहुत बडा वर्ग भी अपनाना चाहता था पर उसे हिन्दू भारत का भय दिखा कर डराया जाता। अपने ही वो मुसलमान भाई जो अब अपनी खुषहाली में आम मुसलमानों और हिन्दुओं को शरीक नहीं करना चाहते थे इस तरह के हत्थकण्डें आज़माने लगे थे।अशोक अभी इन बातों से बिलकुल अनजान और बेखबर था-उसका बहुत आत्मीय मित्र रफीक बजाज उसे हारी पर्वत के निकट अपने घर ले जाता-रफीक का घर एक मध्य श्रेणी के परिवार का था मां स्नेहल और मिलनसार थीं, रफीक की अशोक के साथ गहरी दोस्ती की वह काफी कदर करती। अशोक जब भी घर पर आता तो बिना खाना-खिलाए जाने नहीं देतीं। अशोक को इस प्रकार एक मुसलमान दोस्त के साथ रहकर इनके तीज, त्यौहारों और संस्कृति की समझ काफी प्रगाढ़ हो चुकी थी। रफीक भी अकसर अशोक के घर आता और खेलकूद के अतिरिक्त पढ़ाई भी मिलकर करते। अशोक के मन में हिन्दू-मुसलमान में भेद-भाव का कोई कारण नजर नहीं आता-वह मानवता के हर स्तर पर, प्रेम, सौहार्द वात्सलय और अन्तः संबंधों में कोई बहुत बड़ा फर्क महसूस नहीं करता। दोनों की दुनिया में मजहब और रीति-रिवाजों में थोड़ी-बहुत भिन्नता होने के बावजूद भी संवेदनाओं के स्तर पर एक ही जीव तो हैं। जन्म, मृत्यु, जर्रा, रोग और जीवन में उतार-चढ़ाव दोनों पर एक जैसा प्रभाव डालता है। फिर भिन्नता कैसी? वह मनुष्य और मनुष्य में भेदभाव का कारण किसी भी रूप में मजहब के स्तर पर नहीं खोज पाया-हां, सब मनुष्य शक्ल और अक्ल से ईश्वर ने अलग-अलग बनाए हैं, पर भावात्मक रूप से सबमें एक समानता है। यही कारण है कि अशोक शायद कभी भी बहुत जल्दी असहज नहीं होता-उसकी दुनियां बहुत अलग थी। हालांकि अपने चाचा चूनी लाल के धार्मिक विचारों का प्रभाव अवष्य रहा होगा पर धर्मान्धता की यहां कोई गुंजाइश नहीं थी। शायद जो कोई भी स्वामी विवेकानंद की विचारधारा से परोक्ष रूप से भी संबंधित हो जाता है उसके मन-मस्तिक के दरीचे स्वच्छ हवा के लिए हमेशा खुले रहते हैं। रफीक का साथ बिस्को स्कूल छूटने के बाद भी नहीं छूटा-स्कूल के साथ अक्सर ऐसे स्थानों पर घूमने जाते जो यद्दापि कश्मीर के पर्यटन मानचित्र पर न थे, पर अत्यधिक रमणीय और सुंदर होते-यहां खुद का खाना स्वयं बनाने से लेकर कपड़े धोना, साफ-सफाई और अपनी खुद की देखभाल स्वयं करने का नियम होता-इस प्रकार छोटी उम्र से ही बच्चों को स्वालंबित जीवन जीने की सीख इसी प्रकार वास्तविक रूप में दी जाती। कठिन और कठोर यात्राओं पर ले जाकर आत्मबल को सुदृढ़ता दी जाती। यह आरंभिक दौर जीवन की मजबूत नींव रखने के लिए बहुत आवश्यक और सार्थक सिद्ध हुई।इधर कश्मीर की राजनीति निरन्तर हिचकोले खाती हर पल अपने को नए आयामों से जोड़ती, भिड़ती और तोड़ती आगे की विषम सामाजिक जटिलताओं में लोगों के जीवन को तेजी से ले जा रही थी। एक तरफ लोगों में इस बात की खुशी और इत्मिनान साफ झलक रहा था कि पुराने फाकाकशी और निरन्तर शोषण चक्र में पिसते रहने के दिन खत्म हुए, वहीं दूसरी और सोचने-समझने वाले लोग इस नई आजादी में एक तरफ एक नए घनिक वर्ग का वर्चस्व पनपता देख रहे थे और दूसरी और उच्चश्रृंखलता के लक्षण नजर आ रहे थे। पुरानी पीढ़ी के लोगों को नये लोगों का खुलापन और व्यवहार में आजादी की मादकता से एक डर लग रहा था-उन्हें धर्म संस्कार के जीवन से बंधे नियम संयम टूटते नजर आ रहे थे। जहां षराब रईसों और इज्जतमाब लोगों का मशगला समझा जाता, वहीं इसे आम नवजवान खुल्लमखुल्ला पीने लगे थे-इससे एक बुरे असर के तौर पर देखा जा रहा था। बुजुर्ग अपने बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित लगते-और हर मां-बाप की तरह कुन्तीजी भी बहुत चिंतित रहने लगी थीं क्योंकि उन्हें अपने गुप्त सूत्रों से पता चला था कि उनका तबादला सदूर पुंछ के इलाकों में किया गया है और जल्दी ही उनको वहां ज्वाइन करना होगा। नौकरी में ऐसा अवसर आता रहता है, जब अपने घर से दूर जाना पड़ता है, पर इस हालत में जबकि अशोक लड़कपन से धीरे-धीरे टीन एज में प्रवेश कर रहा है, मां की देख-रेख बहुत जरूरी है, कुन्ती जी ने अपने बारे में कभी यह दिक्कत महसूस की थी न इसका कभी ख्याल आया था-घर से कुछ ही पैदल दूरी पर स्कूल था और आज नौ-दस वर्ष से इसी स्कूल में पढ़ाती थी-प्रमोशन का लोभ कौन छोड़ता है-पर प्रमोशन से अधिक यह एक असहाय स्थिति थी, प्रमोशन यह नो, प्रमोशन पुंछ जाना पड़ेगा। डिस्ट्रिक्ट आॅफिसर ने बहुत कड़े शब्दों में कहा था-कुन्ती जी को अपने मुंहबोले देवर चूनी लाल में अपार आस्था थी-जानती थी कि पिता अशोक के साथ कुछ अधिक ही वात्सल्य बर्तते हैं और कभी अनुशासन में रखना नहीं जानते पर चुन्नी लाल जी प्यार के साथ सख्ती भी बर्तते। अशोक पर उनका काफी प्रभाव था। इसलिए अशोक को चुन्नी लाल की संपूर्ण निगरानी में छोड़ कर कुन्ती जी ने पुंछ जाने का मन बना लिया-श्रीनगर से सैंकड़ों मील दूर जम्मू सूबे में बसे इस कस्बे का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। यहां पाकिस्तान ने जम्मू सूबे पर 1947 में और 1965 व 1971 जोरदार तीन हमले किए। किन्तु यहां के मुसलमान जो आबादी में हिन्दुओं से काफी ज्यादा हैं, हमेशा पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देते आए हैं।कुन्ती जी को कुछ समय बाद (1967-68) यह प्रमोशन मिला होता तो शायद अधिक अच्छा लगता-अशोक को साथ ले जाने का मन कई बार किया-ममता ने बहुत मजबूर किया कि बच्चे को अकेला न छोड़ो, पर फर्ज से मुंह नहीं मोड़ सकती। अशोक को अपने साथ ले जाने का मतलब बिस्को स्कूल से निकालना होता-और यही वह नहीं चाहतीं थीं। कुन्ती जी को अपना लक्ष्य पाना है, अशोक इतना अच्छा स्कूल छोड़ कर उसके साथ कहां-कहां दर-दर भटकता रहेगा। इस तरह मां का पल्लू पकड़ते कितने दिन चल पाएगा-हृदय पर पत्थर रखना होगा-ममता को काबू में रखना होगा-पति से दूर बच्चे से दूर, घर गृहस्थी से मीलों दूर, कुन्ती जी ने पुंछ जाने का मन बना लिया-एक बार पुंछ में शिक्षा अधिकारी का पद ग्रहण करने के बाद कुन्ती जी ने यहां का शिक्षा प्रणाली का मन लगाकर अध्ययन किया-उसने पाया कि शिक्षा के संबंध में यह इलाका कश्मीर के पिछड़े इलाकों से भी गया गुजरा है। महिलाओं की शिक्षा के संबंध में यहां अधिक जोर लगाकर कार्य करना होगा। उसने योजनाबद्ध तरीके से यह काम आरंभ किया-स्कूलों का जीर्णोद्धार करवाया, गांव-गांव, गली-नाली जाकर महिलाओं को शिक्षा का महतव समझाना शुरू किया। अध्यापिकाओं को विशेष ट्रेनिंग दी और एक तरह से एक वृहद शिक्षा अभियान को आरंभ किया।कुन्तीजी सुबह-शाम जिस प्रकार लोगों की सेवा में रत रही, शायद इसी बात के फल स्वरूप उनके लाडले अशोक को भी अपने अभीष्ट पथ पर अच्छी प्रगति का फल मिला। छोटे बेटे दिवाकर के बाद कुन्ती जी ने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया। इस समय, अशोक छह-सात वर्ष का रहा होगा। इस तरह अशोक के अतिरिक्त एक भाई दिवाकर, और एक बहिन डाली, कुन्ती और मोहन लाल जेलखानी के वंशबेल बढ़ाने वाले संतान हुए। डाली को भी बराबर लाड़, प्यार से पाला जाने लगा, पर अब कुन्ती और मोहन जी दोनों बच्चों को घर पर ही पढ़ाने लगे। दो में से कोई भी बहुत समय तक विधिवत स्कूल में दर्ज नहीं हुआ। थोड़ा बड़े होने पर दोनों भाई-बहिन मां के साथ ही उनके स्कूल में ही पढ़ाई करते। बख्शी साहब के कार्यकाल में कश्मीर की तस्वीर बाहर की दुनियां के लिए सचमुच स्वर्ग-सी ही हो गई थी। काफी मात्रा में देश-विदेश से सैलानी आते और कश्मीर के सौंदर्य का लुत्फ उठाते। मुंबई से दर्जनों फिल्मकार शूटिंग के लिए कश्मीर आते। यहां की वादियों में गाने फिल्माते। यहां के लोग सच में अपना कामकाज दरकिनार करके इनकी शूटिंग देखने जोक दर जाके उमड़ आते। सबके चहेते सितारे दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, फिरोज खान, संजय खान, मीना कुमारी, मधुबाला, माला सिन्हा न जाने कितने ही सितारों को देखने भीड़ उमड़ती। निशात चश्मेशाही-पहलगांव, गुलमर्ग, कुकरनाग, अच्छाबल मैं ये सितारे शूटिंग करने आते। शम्मी कपूर और शर्मीला टैगोर की फिल्म कश्मीर की कली और बाद में शशि कपूर और नन्दा की जब-जब फूल खिले, राजेन्द्र कुमार-साधना की आरजू इन फिल्मों में कश्मीर के परिदृश्य देखकर यहां के लोगों को खासकर नवजवान पीढ़ी को ये फिल्मी कलाकार और फिल्मी दुनियां के लोग बहुत करीब लगते। वे उनकी फिल्मी लाईफ स्टाइल, बोलचाल और व्यवहार को अपने जीवन में लाने की कोशिश करते। हद तो तब हो जाती जब अक्सर नवजवान खुद को फलां हीरो, हीरोइन की तरह की समझने लगते। बहुत से नवजवान फिल्मों से इस कदर प्रभावित थे कि खुद इनमें काम करना चाहते। कई नवजवान तो मुंबई तक भी पहुंच जाते और अपनी तकदीर आजमाने की कोशिश करते। वहां अक्सर उन्हें घोर निराशा हाथ आती और उनका बुरी तरह सिनेमा की दुनियां के साथ मोहभंग होता। वे रह-रहकर उन कष्टों की कहानियां सुनाते, जो उन्हें मुंबई में झेलने पड़े हों। अक्सर फिल्म यूनिट के साथ कई लोग कश्मीर आते, जिनमें एक्स्ट्रा टैक्निशन और क्रूव के बहुत लोग होते। यहां के किसी स्थानीय लड़के की फिल्मों मंे दिलचस्पी को देखकर वे उसे अपने चंगुल में फांस लेते और अपना हित साध लेने के बाद उसे मुंबई में कहीं दिखाई भी न देते। पर यह तो ऐसे लोगों की बात हुई, जिन्हें मुंबई की फिल्म नगरी का कोई सिर पैर मालूम नहीं हो। जो यहां से मुंबई किसी जान-पहचान के सहारे गए और काफी देर वहां स्ट्रगल करते रहे, उनमें से भी बहुत कम लोग ही सफलता प्राप्त कर पाए। उनकी बात अलग है, जो कश्मीर से बहुतत पहले यानी एक आध पीढ़ी पहले निकले थे, और जिनके व्यवहार और आचरण में काफी बदलाव आ चुका था, इनमें, ए.के. हंगल, राजकुमार, सपरू, ऐमा आदि ही ऐसे कलाकार हैं, जो अपनी पहचान बना पाए। आगे चलकर इस कमी को टेलीविजन पूरी करने वाला है, इसका आभास अभी फिलहाल लगभग किसी को न था।------------------------------------------------
फितना हारा....बन्धुत्व जीता -
बख्शी गुलाम मुहम्मद का दौर यद्यपि 1947 के बाद के कश्मीर का सुनहरी दौर माना जाएगा पर जैसे हर दिन का सूरज डूबने के लिए उगा होता है, वैसे ही हर मनुष्य भी अपनी सफलता के अवसान को पहुंचता है। बख्शी रशीद ने बख्शी गुलाम मुहम्मद के लिए काफी गहरे खड्डे खोद रखे थे और अपने भाईयों के प्रेम में लगभग आंख बंद करके बख्शी इन गड्ढों में गिरते गए। यह बात कश्मीर के इतिहास में एक काली सियाह रात की तरह आई कि बख्शी साहब को जवाहर जी ने न जाने किन आरोपों के खातिर, हुकूमत से इस्तीफा दिलवाकर बरतर्फ करके उसी जेल में डाल दिया, जिसमें बख्शी साहब के वजीरअजम बनने पर शेख साहब को डाला गया था।बख्शी साहब के पास कोई चारा नहीं रखा गया या उन्हें साद्धिक साहब को हुकूमत थामनी थी या किसी कमजोर आदमी के हाथ में कमान देकर पसेपर्दा हुकूमत की भाग-दौड़ अपने भाई को सौंपनी थी। बख्शी रशीद ने अपनी कुख्याति के कारण खुलकर सामने आने की कभी जुर्रत तो नहीं दिखाई पर बख्शी साहब के काबीना में वित्तमंत्री रहे षम्सउद्दीन को वजीरअज्म बनाकर एक कठपुतली सरकार का सपना पूरा किया।पर देवी को कुछ और मंजूर था। 28 दिसंबर, 1963 को हजरत मुहम्मद साहब का पाक तबरूक, जिसकी हजरत बाल मस्जिद तीन सदियों से जकारतगाह है, जुम्मे की नमाज के बाद नदारत पाया गया। सारा कश्मीर मातम, गुस्से और विद्रोह से उबल उठा। चारों ओर सियाही छा गई। सियाह लिबास में औरतें, मर्द, बच्चे, बूड़े-जवान सड़कों पर जोक दर जोक चारों तरफ से अपना सीना पीटते सल्लेहवलेसलाम रसूल या अल्ला का आर्तनाद करते जुलूसों में उमड़ रहे थे। हालात जबर्दस्त तनावपूर्ण हो चुके थे। मुसलमानों के इस दुख और ग़म गुस्से में वादी के सभी हिन्दू, सिख और ईसाई, बौद्ध बराबर शामिल हुए पर सारे अल्पसंख्यक खासकर कश्मीरी पंडित बुरी तरह सहमे और घबराए ईश्वर से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना में जुट गए। क्यों, एक बार भी यदि कोई झूठमूठ ही सही इस बात की अफवाह उड़ाता कि यह काम किसी हिन्दू ने किया है तो शायद ही कोई हिन्दू वादी में जीवित बच पाता।मुसलमानों खासकर उस समय के सोचने, समझने वाले बुद्धिजीवी और विवेकपरक मुसलमानों के धैर्य और सूझबूझ की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। तब वास्तव में जनून पर जब्त बहुत हावी था। मुसलमानों ने भाईचारे और सद्भाव पर लेशमात्र भी दाग नहीं लगने दिया। सब असली चोर को पेश करने की मांग कर रहे थे और हुकूमत से मोयेमुकदस की बहाली और वापसी के लिए जोर डाल रहे थे। कश्मीर से केंद्र सरकार तक हिल गई। जवाहर लालजी ने राजा कर्ण सिंह के नेतृत्व में एक खुफिया टीम कश्मीर रवाना की और लगभग चार दिन बाद जब कर्ण सिंह जी खुद एक आम शहरी की तरह हजरतबाल की मस्जिद तक अपनी निजी कार में जिस पर कोई सरकारी चिह्न तक न था, अपने ड्राईवर और स्टाफ के एक अन्य आदमी के साथ पहुंच गए। जैसे ही राजा कर्ण सिंह मस्जिद पर पहुंचे उन्हें हजारों लोगों ने घेर लिया-ये लोग एक सप्ताह से यहीं डेरा डाले थे और अपने घरों को नहीं लौटे थे। अचानक लोगों के चेहरों पर खुशी की एक लहर दौड़ गई, उन्हें अब भी यकीन था कि उनका बादशाह इस घड़ी में उनके साथ है। तमाम लोग, बूढ़े-बच्चे, जवान उन्हें हाथों में उठाने लगे, उनके हाथ चूमने लगे।कर्णसिंह ने शहर के बुजुर्गों और अपने अमले के अफसरों से सलाह-मशविरा किया। दरगाह के चारों तरफ से पहरेदार हटाए गए और घोषणा की गई कि जिस किसी ने भी तबर्रूक ले लिया हो वह इसे अपने स्थान पर चापिस स्थापित करे। यह हिकतअमली काम कर गई और तबर्रूक अपनी जगह वापिस पाया गया। इसके बाद तबर्रूक की पहचान हुई और स्थिति फिर से सामान्य होने लगी।इस बीच, लेकिन पाकिस्तान ने अपने रेडियो से काफी दुष्प्रचार करना आरंभ किया था और मुसलमानों को फिरकपरस्ती के लिए उकसाने का प्रयत्न किया था। पर शहर में जो एक्शन कमिटी घटित की गई थी, जिसके सदस्य वरिष्ठ और तजुर्बेकार मौलाना मसूदी थे-उनके नेतृत्व में एक शिष्टमंडल गठित हुआ, जिसमें डाॅ. फारूख अब्दुल्ला, मौलवी फारूक, मुफ्ती जलालुद्दीन मौलवी मोहम्मद यासीन, मोहम्मद अब्बास और गुलाम रसूल शामिल थे।इन सब बातों से बेखबर और मजहब और सियासत के इस जोड़-तोड़ से कोसों दूर अशोक और रफीक, रफीक के घर पर इमतिहान की तैयारी कर रहे थे। उन्हें अशोक से बात करते यकायक याद आया कि अशोक को आए हुए काफी समय हुआ है और शहर में हालात काफी गंभीर हैं, उसके घर वाले कहीं परेशान न हों, अशोक और रफीक पढ़ाई की अपनी दुनियां में इस कदर मग्न थे कि बाहर कया हो रहा है, इसका कुछ भी अनुमान नहीं था। अशोक को बस इतना पता था कि रफीक के माता-पिता और बाकी घर के सदस्य ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि सबकुछ जल्दी ठीक-ठाक हो-कहीं किसी बेगुनाह पर इलजाम न लगा दिया जाए और जिन्होंने इस प्रकार का जघन्य अपराध किया है, उन्हें खुदाताला उनके किए की सख्त से सख्त सजा दे। मुसलमानों के इस गम और गुस्से में वादी के सब हिन्दू, सिख शामिल हुए। तबर्रूक की वापसी और प्रतिष्ठित बुजुर्ग पीर मीरकशाह ðारा इसकी पहचान करने पर सबने भाव-विभोर होकर खुदा का शुक्र किया और चारों ओर अल्लाहो अकबर, हर-हर महादेव और सतश्री अकाल के नारों से सारी वादी गूंज उठी। सब मजहबों की यह आपसी खादारी ही कश्मीरी मुशतरका खून की गवाही देता था-ऐसे खून को बहाने का साजिशें दुश्मनों ने हमेशा पसेपर्दा और सामने आकर करने की कोषिषें। पर अशोक और रफीक के प्रेम, सौहार्द और भाईचारे पर कभी आंच नहीं आई। हालांकि दुश्मनों ने हिन्दू विरोध, नफरत और जहर फैलाने में कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ी थी। पर अभी मीरकशाह ऐसे खुदा दोस्त बुजुर्ग और बा ऐतबार खुदा के पाक बन्दे कश्मीर में मौजूद थे। ऐसे पीर, फकीर और चिंतक, इनसानी दुनिया को एक ही नजर से देखते। इनके मन में सियासी मैल और ðेष नहीं था-ये पाक, पवित्र और ईमानदार लोग थे। इनके कारण कश्मीर जब तक बचा तो बचा...जेलखानी परिवार अत्यंत चिंतित था। अशोक को सवेरे चाचा जी रफीक के पास छोड़ गए थे और अभी तक दोनों का कोई पता न था। हालात हालांकि बहुत सुधर चुके थे। हफ्तों बाद आज बाजार में फिर गहमा-गहमी थी। लोग मुतबरक तबर्रूक के मिलने पर आपस में गले मिल-मिलकर बधाई दे रहे थे और अलाहो अकबर कहकर खुशी जाहिर कर रहे थे। हिन्दू भी अपने मुसलमान भाईयों से गले मिलकर खुश-खबरी का स्वागत कर रहे थे। पर अभी राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी था-सब मुट्ठियां भींचे तटस्थ प्रतीक्षा कर रहे थे। सबकी नजर ष्मसोदीन की हुकूमत गिरने पर थी। शाम चार बजते ही शाम होने लगी थी-जनवरी की ठंड ने कोहराम मचा रखा था-झील डल में कोहरा जम गया था और इस ठंड में अशोक को नहीं जाने देना चाहिए था-कुन्ती जी को बहुत अफसोस हो रहा था, उन्होंने ऐसी गलती क्यों की।अचानक अशोक को एक प्रश्न मन में कौंध उठा। उसका नन्हा-सा मस्तिष्क अजीब उलझन में उलझ गया। वह सोच में पड़ गया कि क्या ऐसा प्रश्न रफीक से पूछना चाहिए। एक बार ध्यान देकर सोचने से उसे लगा कि पता नहीं रफीक इस प्रश्न की तह तक जा भी सकेगा। उसने बहुत धैर्य से काम लेते प्रश्न अपने चाचाजी चूनी लाल से पूछने का मन बनाया। रफीक उससे कह रहा था, जानते हो अनवर चाचा कह रहे हैं कि तुम्हारे चाचाजी को आने में देर हो गई है, अब तुम आज रात यहीं रूकोगे।अशोक को चाचाजी के लिए चिंता हो रही थी। पता नहीं इतनी देर क्यों लगा दी। वो तो 3 बजे तक आने के लिए कह गए थे। अब तो पांच बजने लगे हैं। हे भगवान! चाचाजी ठीक तो हैं?अशोक यह सोच रहा था कि चाचा जी की आवाज सुनाई दी। सब घर वालों ने राहत की सांस ली। रफीक के पिता जी ने अशोक के चाचा को किसी अनिष्ठ के उनके द्वारा कल्पना की भनक नहीं पड़ने दी, पर जैसे चूनी लाल को देखते सबकी जान में जान आ गई, चूनी लाल सारी स्थिति ताड़ गए और हंस कर कहने लगे, आप लोग इतने घबराए लग रहे हैं, अभी हमारे दिलों का खून इतना पतला नहीं हुआ कि कोई किसी को मार दे, यह तो ऐसी जगह है कि जहां दूसरों के लिए लोगबाग हंसते हुए जान दे देते हैं पर किसी को बेवजह, बेकसूर मार नहीं देते, वैसे ख्वाजा साहब आप ही बताएं जो कुछ इधर हुआ किसी और जगह हुआ होता तो खुदा खैर करे क्या हाल हुआ होता? ख्वाजा साहब ने बहुत आत्मीयता और प्यार से, चूनी लाल पर निगाह जमाते हुए कहा, असतकफिरूलला, अलाह तेरा शुक्र है, मैं जेलखानी साहब को क्या जवाब देता, उनसे कैसे दुबारा आंख मिला पाता? खुदा हम सब पर रहमत बरसाओं सबको अपने फैज़ की आबयारी दें। चलो अब काफी देर हो चुकी है, आज यहीं आराम करो।चूनी लाल,- नहीं, रह तो लेते पर जैसे आप यहां फिक्रमंद थे, वैसे वो भी वहां फिक्रमंद होंगें, बस मुझे काका को लेकर निकलना चाहिए।खाजा साहब ने ड्राइवर को बुलाकर दोनों को घर तक छोड़ने का आदेश दिया।अशोक और चूनी लाल सही सलामत घर पहुंचाए गए। घर में इन्हें देखते ही सबकी जान में जान आ गई। चूनी लाल को एहसास हुआ कि उसने आने में इतनी देर कर दी और घर वालों को परेशानी में डाल दिया। पर घर में किसी ने इस बारे में कोई सवाल नहीं किया। केवल, सब रह-रह कर कह रहे थे कि परमात्मा का शुक्र है आप सही-सलामत घर पहुंच गए।एक बार फिर फजा में मस्जिदों से दरूद खानी, मंदिरों से आरती और गुरूद्वारों से अखण्ड पाठ के स्वर गूँज उठे। माहौल में जो कसाव और तनाव पैदा हुआ था, वह छंट गया और सारी घाटी मे फिजा अपने रंग में आ गई। शमसुद्दीन को हटाकर बख्शी को फिर से प्राइममिनिस्टर बनाने की अफवाहें फैलने लगी। ऐसा होता तो निश्चित रूप से बड़ा बवाल मच जाता-क्योंकि मुतबरक तबर्रूक के गायब होने में रियासत के बेशतर लोग बख्शी रशीद पर शक कर रहे थे। पर ईश्वर ने हाकिमों को सदबुद्धि दी। नेशनल कांफ्रेंस में बाएं बाजू के एक बहुत ही कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति गुलाम मुहम्मद साद्धिक को सर्वसम्मति से सदन का नेता चुनकर प्राइमिनिस्टर बनाया गया-जो बाद में मुख्यमंत्री कहलाए और सदरे रियासत राज्यपाल कहलाए गए।अशोक को अपना प्रश्न बुरी तरह बेचैन किए था। चाचा जी से पूछना चाहिए, रफीक मुसलमान है और वह खुद हिन्दू...? रफीक के परिवार वाले ईश्वर की आराधना मस्जिद में करते हैं और हम मंदिर में... हिन्दू और मुसलमान क्यों हैं? हिन्दू को मुसलमान से डरने की कया वजह हे? क्यों ऐसा है? आखिर रफीक और उसके घर के लोग कितना प्यार करते हैं उससे और रफीक को हमारे घरवाले कितना चाहते हैं। फिर यह क्योंकर कहा जाता है कि कोई अन्य रफीक-सा ही मनुष्य किसी अन्य अशोक जैसे मनुष्य को मार सकता है? उसकी हत्या कर सकता है। पाकिस्तान रेडियो क्यों मुसलमानों को भड़काता रहता है? पर दूसरे ही क्षण अशोक ने इन बातों को अपने मस्तिष्क से खारिज किया और अपने प्रश्नों को अनुतरित ही टाल दिया। शायद इससे बढ़कर यह बात अधिक आवश्यक है कि मुझे अब के परीक्षा में अच्छे अंक लेकर पास होना है। मेरा ध्यान केवल अपनी पढ़ाई पर केंद्रित होना चाहिए। इन प्रश्नों को मुझे पास भी फटकने नहीं देना चाहिए। यह जानना अधिक आवश्यक है कि मौसम क्यों बदलते हैं। मुझे मैथ में बहुत मेहनत करनी है। मुझे सब ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करना है। यही सोच रहा था कि अचानक एक अन्य प्रश्न ने कौंध कर सारे अस्तित्व में खलबली मचा दी। ईश्वर के लिए परेशान इतने लोग हैं तो क्या ईश्वर वास्तव में कहीं है? अगर है तो वह कहां रहता है, किसको दिखाई देता है। ओफ! अभी यह सब नहीं... अशोक स्कूल आते-जाते घर में हर जगह लोगों को, ईश्वर खुदा और अन्य देवी, देवताओं, पीर, फकीरों की पूजा-अर्चना और बन्दगी करते देखता। यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक था। हर चिंतनशील मनुष्य छोटी उम्र से ही अपने इर्द-गिर्द मजहबी गतिविधियों से प्रभावित होकर इस बारे में अवश्य सोचता है? और कश्मीर जैसे स्थान में मजहब का दखल जीवन के हर रंग और रूप में ऐसा हिलमिल गया था कि यह हर किसी के सोच का एक बुनियादी और अहम हिस्सा बन गया है।किन्तु अशोक के घर में मजहब का बुनियादी ढांचा बहुत व्यावहारिक और समय परिपक्व था। घर के किसी भी सदस्य में किसी अन्य धर्म अनुयायी के प्रति रोष, वैमनयस्य या पूर्वाग्रह की कोई बात नजर नहीं आती। माहौल खुला और स्वतंत्रतापूर्वक था। यहां पर कर्मशीलता को धर्म से जोड़कर देखा जाता। इस तरह काका के मन में बचपन से ही किसी धार्मिक विद्वेश की जरा भर भी गंुजाइश नहीं रही और ना ही इस प्रकार की मानसिकता ने कभी आगे घेर लिया। रफीक का भी लगभग ऐसा ही जीवन परिवेश उसे एक नेक, होनहार और काबिल वकील सिद्ध होने में सहायक रहा होगा। यह अत्यन्त आवश्यक है कि अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म या आडम्बर की अपनी ढाल बनाकर या हथियार बनाकर घर के बुजुर्ग बच्चों को धर्मान्धता के रास्ते पर न धकेल दे, जिन्होंने भी ऐसा किया उनहें पछताना पड़ा और कश्मीर इसकी एक जीती जागती मिसाल है।अशोक के मन, वचन और कर्म में एक दृढता आने लगी है। वह नियमपूर्वक अपने कार्य कर रहा है। स्कूल, खेल और घर की पढ़ाई का समय उसने बांट कर रखा है। वह एक असहाय बच्चे की परवषता को छोड़ कर स्वालंबन की ओर अग्रसर हो रहा है। दिवाकर को मां पुंछ अपने साथ ले गई है। डाली अभी छोटी है, सो उसका मां के साथ जाना तो निश्चित था ही। अशोक मां को अपने से दूर महसूस करके कभी-कभी रोने लगता है। पर उसे सारी बातें मां ने एक वयस्क लड़के की तरह समझा दी है। वह कहकर गईं हैं कि किस तरह अब आगे के जीवन में उसे अधिकाधिक मां के आंचल को छोड़कर जीवन की कठोरताओं का अकेले मुकाबला करना होगा। अशोक को अपनी मां के रूतबे और रौबदाब पर काफी गर्व होता, पर दूसरे ही क्षण वह सोचता कि यह सरकार एक क्षेत्र की मां को दूसरे क्षेत्र में क्योंकर भेजती है। क्या सरकार को इतना भी अहसास नहीं कि माताओं के परिवार किस तरह बिखरते हैं। अशोक को अपनी छोटी बहन और भाई की याद आती तो मन रोने को करता। आंगन में सब बच्चों को खेलता देख अक्सर वह अपने भाई-बहिन को देखने को तरसता पर मां ने कहा है, यह काफी लंबा समय होगा... जो उसे अकेले केवल, चाचा जी, दादाजी और पिताजी के साथ ही बिताना होगा। घर में केवल दादी ही एक महिला बची हैं। वह शरीर से अभी इतनी कमजोर तो नहीं कि गृहस्थी न संभाल सके, पर यह उम्र अब उसके कामकाज की नहीं रही। मोहन जी और चूनीलाल लगभग आधे काम स्वयं करने लगे थे। पर दादी जी को उनके किए काम में त्रुटि ही त्रुटि नजर आती। अगर उन्होंने बिस्तरा बिछाया तो उनहें लगता कि चादर सही नहीं बिछी है। चुपके से दुबारा ढंग से बिछा देती। अशोक जी की फूफियां...आकर अपनी मां की काफी देखभाल करने लगी थी।यह समय है और किस तरह कितनी जल्दी बीत जाता है, तब पता चलता है जब आदमी कुछ पल इसे पलट कर देखने लगता है। अशोक अपने बचपन की इन यादों को और अपनी अपरिपकव बुद्धि के परिपक्वता की ओर हो रही यात्रा के आयामों को जब देखता है तो उसे इतिहास और जीवन एक विसंगत गुत्थी सा नजर आता है। कभी-कभी ये घटनाएं जो हमारे जीवन के इर्द-गिर्द घटती हैं और हमारे अपने काबू से बिलकुल परे होती है। हमे और हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करके रखती है।गुलाम मुहम्मद साद्धिक के दौर में एक ऐसी ही घटना घटी, जिसने पल भर के लिए अशोक को बहुत तेज धार में बहा लिया पर ईश्वर की कृपा कहिए या घर के संस्कारों का अच्छा प्रभाव कि यह अबोध बालक बाल-बाल बच गया और हमें आज एक सुलझे व्यक्तित्व और सफल आदमी के रूप में खड़ा मिलता है। हुआ यूं कि रैणाबाड़ी की किसी हिन्दू लड़की को अपने प्रेमजाल में कोई मुसलमान लउ़का फंसा गया या यूं कहे कि एक हिन्दु लड़की का मन एक मुसलमान लड़के पर आ गया। दोनों निम्न-मध्य वर्ग के थे और इसलिए समाज की उन पर नजर थी। उन्होंने कश्मीरी समाज के मूल्यों को तोड़ा था। हालांकि यही काम जब सम्भ्रांत और प्रतिष्ठित लोग करते है। तो किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। पर साद्धिक की हकुमत के खिलाफ दाएं बाजू की सोच के पंडितों और मुसलमानों के लिए एक फितना खड़ा करने का भरपूर मसाला एक बम की शक्ल इख्तियार कर गया। पंडितों ने इस रिश्ते का विरोध किया और एक पूरी मुहिम छेड़ दी-बात कहीं की कहीं पहुंच गई-क्योंकि इस बात ने एक आंदोलन का रूप ले लिया-जिसमंे पडित समुदाय के नए-पनपते मासूम लड़के-लड़कियों को कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने तत्काल फायदों की भरपाई के लिए मजहब के नाम पर इस्तेमाल किया। अशोक इस जुनून में पड़ने से बाल-बाल बचा। क्योंकि यह वह समय था जब जुलूसों की अगुवाई में अशोक की कम उम्र के लड़कों, लड़कियों के हाथ में धर्म के परचम थमा कर कश्मीरी पंडित नेता अपनी हारी हुई और वादी में अस्तित्व के लिए आखिरी जंग लड़ने पर आमदा हुए थे। पर अफसोस कि वह लड़ाई नहीं एक कमजोर कौम का आर्तनाद था, जो एक लड्डू और एक लाठी के बल से हमेशा के लिए खामोश किया गया। इसके बाद कश्मीरी पंडित दुबारा अपने हक के लिए संगठित नहीं हो पाए। अशोक 10-11 साल का रहा होगा-इस उत्पात ने उसके मन में एक खलबली मचा दी। हर तरफ कश्मीरी हिन्दू इस बात पर विमर्श और विचार कर रहे थे कि मुस्लिम बहुल वादी का चरित्र जिस तरह हिन्दू हितों के खिलाफ मोड़ा जा रहा है, वहां हिन्दू का भविष्य क्या है? हालांकि यह सोच उतनी ही गलत थी जितना कि मुसलमानों का यह सोचना कि हिन्दू भारत के साथ रहने पर उनका भविष्य क्या होगा? इस प्रकार की दुयी की सोच जहर का काम कर रही थी, जो नवजवान पीढ़ी को कुछ अलग सोचने पर मजबूर कर रही थी। इसके कुप्रभाव से अशोक को बचाने के लिए चुन्नी लाल ने अशोक का ध्यान किताबों और खेल-कूद में लगाए रखने की नई-नई तरकीबें निकाली। उनका मत था कि समाजी नाबराबरी की जड़ में मजहब नहीं, बल्कि सदियों से चला आ रहा वो शोषण चक्र है, जहां कुछ गिने-चुने लोग ही समस्त संसाधन अपने कब्जे में करके बाकी लोगों को जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी गुलामी करने पर विवश करते हैं। अपने गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए वे लोगों को मजहबी फितनों, फसदों में उलझाए रखते हैं। सिर्फ सही और साइंसेसी तालीम ही लोगों को सच से अवगत करा सकती है। और अशोक को सामाजिक सच की तहों तक विवेकपूर्ण ढंग से ले जाने के लिए उसे एक दोष रहित शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है, जो किसी हद तक बिस्को के स्कूल में उसे मिल रही थी।------------------------------------------------
आंतरिक यात्रा
प्रगतिशील समाज ने धर्म, जाति के आधार पर मनुष्यों को बांटने की नीति का विरोध किया। पर राजनीति में प्रगतिशीलता का अर्थ समाज की कमजोर जातियों व अल्पसंख्यकों का अगुवा बनकर उन्हें भेड़ों की तरह वोटों के लिए हांकने में बदल गया। संस्कृति और सभ्यता के उत्थान में किन्तु शुरूआती दौर में प्रगतिशील लेखकों, कवितयों, नाटकारों और सामाजिक, कार्यकर्ताओं ने एक सार्थक भूमिका निभाई। कश्मीर में नाटकों का जो सिलसिला शीतलनाथ के परिसर से शुरू हुआ था, वह सरकारी संरक्षण में और विकास पाने लगे। रेडियो ने कलाकारों को स्थापित तो कर ही दिया था और रेडियो श्रोताओं में कुछ शौकियां भी एक्टिंग और गायन के लिए रेडियो में आॅडिशन देने पहुंच जाते। इस तरह इस कला ने जहां पहचान स्थापित की वहीं जम्मू-कश्मीर कलचरल अकादमी की स्थापना करके जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के तीनों प्रांतों के कलाकारों के काफी उद्भव मिला-कश्मीर में जगह-जगह नाटकों का मंचन और नाटक प्रतियोगिताएं आरंभ की गई। स्कूलों, काॅलेजों में भी नाटकों और सांस्कृतिक गतिविधियों को खास बढ़ावा मिला-अशोक को सिनेमा, थियेटर और रेडियो नाटक से खास लगाव हो रहा था। वह विधिवत् रेडियो कश्मीर से प्रसारित होने वाले नाटकों को सुनता। प्राण किशोर, पुषकर भान, सोमनाथ साधो, उमा खोसला, मनोहर परहोती बशीर भट्ट आदि की आवाजों को वह पहचान लेता। ये कोटि के रेडियो कलाकार बहुत मकबूल थे और नवजवान पीढ़ी के प्रबल प्रेरणास्रोत। अशोक का मन जल्द से जल्द पढ़ाई पूरी करके इस माहौल में कूदने को बेचैन होता। पर अभी तक उसने स्टेज पर खेले जाने वाला एक भी नाटक नहीं देखा था। हां स्कूल के नाटकों को छोड़ कर। पर अपनी इस तमन्ना को अशोक ने अपने घर में किसी पर प्रकट नहीं होने दिया। यहां तक कि इस बारे में उसने अपने चाचाजी को भी नहीं बताया। वह चुपचाप उस मौके की ताक में था, जब उसे स्टेज पर कोई भूमिका निभाने को मिले। उसने अंग्रेजी साहित्य में इब्बसन, बर्नाड शा, शेक्सपियेर के नाटकों को पढ़ने की ठान ली। स्कूल लाइब्रेरी से एक-एक कर नाटकों का अध्ययन शुरू किया। जितना वह नाटकों का अध्ययन करता उतना उसकी उत्सुकता भारतीय नाटक और स्टेज के विषय में जागती। समस्या सिर्फ इतनी थी कि वह कहीं खुल के इस विषय में बात नहीं कर पा रहा था। उसे लगा शायद अभी वह इस काम के लिए बहुत छोटा है। पर अब तो उसने दसवीं पास की है। वह अब यह बातें नहीं जानेगा तो कब जानेगा। एक दिन बात-बात में उसने अपने चाचाजी से पूछ ही लिया कालीदास और शेक्सपियेर में कौन श्रेष्ठ है?चाचाजी कुछ देर प्रश्न की तह तक गया। अचानक लड़के के दिमाग में यह सवाल कैसे उत्पन्न हुआ। चूनी लाल जी अंग्रेजी साहित्य के अच्छे पाठक थे और उन्होंने शाकुन्तलम का हिन्दी अनुवाद भी पढ़ा था। पर मूल संस्कृत पढ़े बिना वे कैसे कह पाते कि कालीदास के नाटककार में शेक्सपियेर जैसा क्या है, या नहीं है। फिर भी अशोक को उनहोंने निराश नहीं किया, बोले, यदि ऐसा कहें कि कालीदास भारत के शेक्सपियेर हैं तो गलत न होगा। अशोक को जवाब मिल गया, कालिदास कालिदास हैं, और शेक्सपियेर शेक्सपियेर। अशोक ने दसवीं पास करके ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और अब स्कूल से रिजल्ट की प्रतीक्षा थी। यह समय पढ़ाई से इतर बाहर घूमने-फिरने का था। लड़कपन से धीरे-धीरे निकल कर जवानी की ओर कदम बढ़ाने का समय ऐसे में अक्सर मन और कर्म में उत्सुकतावश परिवर्तन भी होना स्वाभाविक है। कुछ तो बायोलाॅजिकल बदलाव और कुछ माहौल के कारण आदमी अपने चिंतन, मनन और कर्म क्षेत्र को विकसित करना चाहता है। वह अंदर से बाहर आने लगता है। अभी तक वह केवल ग्रहण कर रहा हेाता है, अब वह कुछ देना भी चाहता है। वह अपनी सीमित सी परिधि जीवन रेखा से बाहर कदम रखना चाहता है। यही दौर जीवन के आने वाले समय का निर्णायक दौर होता है। अशोक का कला प्रेम उसे उन लोगों और ठिकानों की ओर खींच रहा था जहां यह गतिविधियां हो रहीं थीं। गांवकदल की चढ़ाई चढ़ते ही पुरूषयार के पास प्रेमनाथ छटू (मास्टरजी) का प्रेम संगीत निकेतन हैं। यहां पर संगीत का अभ्यास कर रहे लड़के-लड़कियों की टोलियां निकलती तो उनकी चहक और फुर्ती देखते बनती। व्यस्त गली-मुहल्ले, तेज-तेज धरते पगों को किनारे करते, मोटर, टैम्पू, सड़क के दोनों तरफ खिले-खिले सजे-धजे बाजार और दुकानें... यहीं प्रेम संगीत निकेतन के बराबर में रंगमंच का बोर्ड लगा है। इसे आते-जाते अशोक कई वर्ष से देख रहा है। यहां से घाटी के नामवर मशहूर कलाकारों को भी आते-जाते देखा है। मन में कई बार यहां आकर इन कलाकारों से मिलने की इच्छा होती पर हमेशा संशय और अतिरिक्त सावधानी रोक लेती और अशोक कदम वापिस लेता। शहर के मशहूर अभिनेता माखन लाल सराफ को अक्सर यहां अशोक देख लेता। वह उनसे बात करना चाहता। वह उन्हें कहना चाहता कि मैं नाटकों में भाग लेना चाहता हूं। पर दो चीजें रोक रही थी, एक तो यह कि घर वाले उसे डाॅक्टर, इंजीनियरि बनाना चाहते थे और अभिनेता बनने की बात को शायद घर में कोई ध्यान भी न देता-दूसरी यह कि अभी उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई थी। अभी घर में इस बात क लिए कोई राजी न होगा कि वह अपना समय पढ़ाई की जगह नाटक खेलने जेसे फोकट के काम में नष्ट करें। नाटक खेलने वालों को उनके व्यस्न के कारण प्रतिष्ठित और अनुशासन में बच्चों को रखने वाले माता-पिता चिंता की दृष्टि से ही देखते। यद्यपि इनकी कला की काफी तारीफ होती पर इनके लाइफस्टाइल को अभी वह सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाई थी जिसके यह हकदार थे। अशोक की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह घर में कह सके कि वह करना क्या चाहता है।लेकिन घर में इस बात से भी बड़ी परेशानी यह थी कि पुंछ से वापिस ट्रांसफर होने के कुछ ही वर्ष में अशोक की माताजी का पहले बारामुला और अब अनन्तनाग तबादला किया गया था। लगातार घर से दूर रहने के कारण उसे अशोक की अब बहुत चिंता हो रही थी। अशोक अब बहुत नाजुक दौर में है। और उसको अपनी पढ़ाई मंे व्यस्त रहना होगा। अशोक की जागरुकता और परिपक्वता को देखकर लेकिन उसकी माता जी कहीं इस तरफ से आश्वस्त लगती कि अशोक कभी किसी कुप्रभाव में या कुसंगति में नहीं पड़ सकता। फिर भी उसने गांव के जीवन से अशोक को अवगत कराने के लिए गर्मियों की छुट्टियां अनन्तनाग में बिताने के लिए अपने पास बुलाया। अशोक ने हालांकि स्कूल के साथ वादी की बहुत-सी जगहों का भ्रमण किया था। जिनमंे सदूर गांव के बहुत अंदरूनी इलाके भी शामिल थे, पर स्कूल के साथ सप्ताह भर पिकनिक या सैर-सपाटे अथवा ट्रैकिंग पर जाना एक बात है और इस तरह अपनी मां के साथ अपने परिजनों के साथ, छोटे भाई और बहिन के साथ अनन्तनाग में महीना भर रहना अशोक को उत्साह और उत्सुकता से भर गया। वह नए सिरे से उन सब जगहों को देखेगा, जहां बचपन में स्कूल के साथ गया था। अच्छाबल, पहलगांव, कुकरनाग और डकसुम के नाममात्र से...उसके मन में कुतूहल और इन स्थानों के प्रति आकर्षण जाग गया। वह खुश होकर मां के पास अनन्तनाग के लिए रवाना हुआ।यहां का जीवन हालांकि काफी सीधा-साधा और कम चहल-पहल वाला था, पर यहां मां के पास विभिन्न क्षेत्रों से कोई न कोई मिलने आता। वह भी स्कूलों के दौरे करती और कभी-कभी अशोक को भी साथ ले जाती। अशोक के स्कूल में छुट्टियां खत्म होने पर सरकार स्कूलों में छुट्टियां घोषित करती। इस प्रकार सरकारी स्कूलों की छुट्टियां कुन्ती जी अपने घर पर बिताती। अशोक के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का यह स्वर्ण अवसर उसने खोज लिया था। गांव-गांव घूमते और हर जगह अपनी माता का सम्मान होते देख अशोक काफी खुश हो रहा था। कुन्ती जी ज्यूंकि अधिक महिला विद्यालयों में जाती तो अशोक को काफी संकोच होता। वह अध्यापिकाओं और लड़कियों से बहुत शर्माता और इसीलिए गांव देखने निकल जाता। अनन्तनाग में उसको यह देखकर हैरानी हुई कि यहां से कुछ ही दूर मुहिरपुर गांव में कश्मीर के ‘फोल्क’ लोक कलाकारों का एक समूचा गांव आबाद है। उसे कहीं से पता चला कि यहीं आसपास वे अपना ‘पाॅथर’ शो करने वाले हैं। अपने नए-नए बने मित्र राकेशजी को साथ लेकर अशोक भी भाण्डों का पाॅर्थर देखने गया-एक मशहूर कलाकार सुबहान भगत की मण्डली एक नए प्रहसन को खुले मैदान में खेलने जा रहे थे।अशोक इन कलाकारों का अभिनय, प्रस्तुति और कहानी प्रेषित करने के अंदाज से जबरदस्त प्रभवित हुआ। सैकड़ों लोगों को मात्र अपने अभिनय के बल पर बांधे रखे इन कलाकारों ने बिना सैट, लाइट या किसी म्यूजिकल इफेक्ट के दर्शकों को हंसाया और रूलाया। एक साम्यिक कहानी, जिसमें किसान, जमीनदार और शासक वर्ग के पात्रों के द्वारा एक लचीले तंत्र के अंतः संबंध को उजागर किया गया था और जिसमें किसान की सामान्य बुद्धि के उपयोग से जमीनदार और शासक वर्ग के पात्रों को बुरी तरह छकाया गया था, जनमानस के मन को काफी रिझा गया। इस मंच और इस कला की लोकप्रियता और इसके तत्काल प्रभाव से अशोक हैरान हो रहा था। उसको एक बात समझ में आ गई थी कि कथ्य और अभिनय का सम्यक प्रयोग सम्प्रेषणा को प्रभावशाली बनाता है। विषयवस्तु स्थिति और स्थान अनुरूप हो तो प्रस्तुति में चार चांद लगते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है दर्शक और उसका सोच व मन। घर जाकर उसने अपनी डायरी में यह सब बातें नोट की और इन्हें कभी व भुलाया। यहां पर अपने मित्रों और माता जी के संपर्क में आए हर व्यक्ति ने अशोक को विशेष प्यार और स्नेह दिया। इसी असना में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना घटी, अशोक को वह अहसास हुआ, जो हर व्यक्ति को जीवन में कभी-न-कभी कहीं न कहीं पहली बार होता है। एक शादी में अपनी मां के साथ जाने पर कुछ ऐसा ही अशोक के किशोर मन के साथ हुआ...ये लोग कुन्ती जी के खास पहचान वाले थे और दूर के कुछ रिश्तेदार भी। इनके घर में लड़के की शादी थी-मेहमानों का खासा जमघट था और काफी लोग आए थे। अशोक इतने सारे लोगों के बीच खुश नजर आ रहा था, उसने पेंट, शर्ट और आलवूल वालों का वी गले वाला स्वेटर पहना था। फिरोजी रंग की स्वेटर में वह काफी आकर्षक लग रहा था। वह बालकनी में खड़ा नीचे सहन में आए हुए लोगों को तरह-तरह से व्यस्त देख रहा था। तभी पीछे से बालकनी में किसी ने प्रवेश किया अशोक ने मुड़ कर देखा तो जैसे किसी ने दिल को निकाल कर अपनी मुट्ठी में कर दिया। वह स्तब्ध इस सारी भीड़ में आई सबसे सुंदर लड़की को एकटक देख रहा था और लड़की का आधा मुंह खुला का खुला रह गया। वह अशोक को टिकटिकी बांधे देखने लगी। अशोक को लगा जैसे सारी बलकानी में चांदनी छिटक गई है और वह इसी में नहा रहा है। लड़की ने जोर से हंसी का ठहाका लगाया। पलकों पर दोनों हथेलियां रखकर तेज वापिस मुड़ कर भाग गई। अशोक की मन की पहली घंटी बज गई थी। उसे किसी ऐसी अनुभूति ने घेरा था, जो इससे पहले उसने कभी न जानी थी। वह बेचैन होकर इस लड़की को बार-बार देखना चाहता था। अब सारी शादी की भीड़-भाड़ में वह इसे ही खोज रहा था। उसकी इस खोजी निगाहों से बचते वह लड़की, शादी का समारोह छोड़ कर घर चली गई और काफी बेचैन होकर, उसी परिदृश्य को बार-बार देखने लगी। उसके मन की बेकरारी उसे किसी पल भी घर में चैन नहीं दे रही थी। पर वह जानती थी कि अशोक उससे काफी दूर है। और ऐसे सपने सजाना कोई मायने नहीं रखता। अपने मन को संयम में करके वह इस बात को जितना भुलाना चाह रही थी उतनी ही बेकरारी बढ़ रही थी। उसने फैसला किया कि बेशक वह शादी में जाएगी और उसकी तरफ एक नजर भी नहीं देखेगी। उसे पता चलेगा, कुछ नहीं हुआ है। मैं क्या उसकी कोई कर्जदार हूं। मैं शादी का समारोह छोड़कर क्यों घर बैठी रहूं। लड़की वास्तव मंे अपने मन को झूठे तर्क देकर यह समझाने का प्रयत्न कर रही थी कि उसे देखने में कोई हर्ज नहीं है। इधर अशोक अपने मन की बात किसी से कहना चाहता था। पर वह किसी व्यक्ति को अपने भरोसे के काबिल नहीं समझ रहा था-शादी का समारोह समाप्त हो गया-मेहमान अपने घरों को चले गए। अशोक काफी दिनों उस लड़की को दुबारा देखने का प्रयत्न करता रहा। पर बिना अता-पता के उसे कहां खोज लेता। वापिस श्रीनगर जाने पर घर में काफी दिनों तक इस बात की कसक मन को तड़पाती रही और इस तरह यह अशोक का पहला क्रैश था। जिसे लोग अक्सर इनफेच्युएशन कहकर भुला देते हैं।एकाएक अशोक को कई प्रश्नां ने घरे लिया। सहसा उसे यह क्या हो गया है, जो बेकरार रखता है। क्या यही प्रेम होता है? कया अब मैं बड़ा हो गया हूं और प्रेम के काबिल भी? ओफ! यह सब क्या माजरा है। सवाल और गहराता गया आखिर आदमी, आदमी क्यों हैं बंदर नहीं! क्या प्रयोजन है यहां जीने का! समय बहुत कम है सवाल बहुत ज्यादा और इन सवालों से निकल कर इन्हें रद्द करते या टालते हुए अपनी राह निकालनी है। एक बार इन प्रश्नों के उत्तर खोजने बैठा तो जीवन निकल जाएगा। पर इतने अनुतरित प्रश्नों के संग जीना कितना अजीब और मुश्किल लगता है। खासकर इस लड़की की यह तड़प।शहर गांव से जुदा है। आदमी, आदमी से जुदा है। फिर भी सब यही कहते हैं कि कोई फर्क नहीं है। सब समान है। सब उसी ईश्वर की संतान है। पर एक ही ईश्वर की संताने इतनी भिन्न इतनी जुदा क्यों। क्यों इतने लड़ाई, झगड़े और झंझट हैं और इन सबमें मैं क्यों फंसूं? मुझे इसमें पड़ने की क्या आवश्यकता है। कहीं यह संसार भाण्डों का एक बड़ा-सा जश्न ही तो नहीं? सच! बिलकुल ऐसा ही है यहां नाटक देखने में असली पर सब नकली-ओढ़ा, रटा और धोया हुआ। पर यह सोच खतरनाक है। नाटक है तो मैं भी इसे नट की तरह खेलूंगा। कुषलता और कुशाग्रता से।यही समय होता है जब आस-पास के हमउम्र लोगों से संपर्क करने की जरूरत महसूस होती है। एस पी काॅलेज में दाखिले के बाद अशोक ने अपने व्यवहार अपनी जरूरतों में जो बदलाओ नोट किया उसमें, एक कलाकार के जन्म की तड़प थी। कोई्र है... जो उसके भीतर से बाहर आना चाहता है। जिसे बाहर लाने के लिए वैसी स्थिति और स्थान व अवसरों को पहचानना और स्थापित करना आवश्यक है। काॅलेज में सांस्कृतिक गतिविधियों का जो भी थोड़ा-बहुत माहौल था, वहां तक पहुंच बनाना, इतना आसान नहीं था-इसी दौरान अशोक को वे साथी मिल गए, जिनके उसे बराबर तलाश थी। सबसे पहले ज़ाहिद जो इन दिनों बरबरशाह में रहता था और बाद में उसका परिवार हाॅरवन की खूबसूरत जगह रहने गए। जाहिर जोशीला, फोक्सड और अत्यंत निपुण और काबिल लड़का था। शिया मुसलमान होने के बावजूद उसे लिट्रेचर, नाटक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दीवानगी की हद तक दिलचस्पी थी। वह अशोक के काफी करीब आ गया था। उसने अशोक को टैगोर हाल में नाटकों के मंचित होने की बात बताई। अशोक को बहुत अजीब लगा कि शहर में रहने के बावजूद और नाटकों में इतनी दिलचस्पी होने पर भी उसे यह मालूम न था कि टैगोर हाल भी कोई जगह है जो एस पी काॅलेज से ज्यादा दूर भी नहीं और वहां नाटकों का मंचन होता है। शहर के नामी गरामी नाटकार, कलाकार, वहां एकत्रित होते हैं। नाटकों का यह बहुत बड़ा प्रदर्शनी स्थल है। यहां आपके शहर के नामवर एक्टरों को स्टेज पर जीता-जागता अभिनय करते देख सकता है और उनसे मिल भी सकते है। जाहिद की इस बात की पुष्टि तेज-तिक्कू और अशोक जाफरानी ने की-तेज तिक्कू गांधी काॅलेज का स्टूडेंट था और एस.पी. काॅलेज यारों से मिलने-जुलने आता और अशोक जाफरानी सीनियर स्टूडेंट था। काॅलेज छोड़कर वह हिन्दी लिट्रेचर में एम.ए. करने का विचार रखता था। चारों दोस्त इस तरह से किसी न किसी रूप से लिट्रेचर और नाटकों से जुड़े थे। शहर में काफी हाउस बुद्धिजीवी लोगों के उठने-बैठने का एक बहुत ही सक्रिय स्थान था-यहां नई और पुरानी पीढ़ी एक-दूसरे से हमकलाम होती। यहीं शहर के राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल की नब्ज का अंदाजा होता। बैरों की भाग-दौड़, काफी के दौर, कभी न खत्म होने वाली बहसों के सिलसिले, यह एक तरह से मधुमक्खियों का भिन्नभिन्नाता छज्जा-सा लगता। अक्सर लोग शाालीनता में सजे-धजे यहां अपना लोहा मनवाने की होड़ में जुट जाते-यह एक आत्मीय स्थल भी था-यहां पर रेजीडेन्सी रोड का मशहूर बाजार था-जो शहर की रौनक और जनून था-पास के सिनेमा हाल और वुमन-काॅलेज में पढ़ने वाली खूबसूरत लड़कियां-इसे कश्मीर का पेरिस कहने को मन करता-दिलकश अंदाज और दिलफरेब नजारे...नौजवानों का मेला...यहां से गुजरते कभी कोई अदंाजा भी न करता कि कश्मीर में एक नासूर पल रहा है... जो इसे एक दिन नरक के गर्त में डालने को सक्रिय है।-------------------------------------------------------रंगमंच की ओर
अशोक और उसके दोस्त काॅलेज से निकल कर यहीं शाम को इकट्ठा होते। जाहिद खाते-पीते कश्मीरी शिया परिवार से था। सब दोस्तों में सिर्फ उसके पास स्कूटर था। पर वह स्कूटर किसी दुकान के सामने खड़ा करके अपने मित्र मंडली के साथ हो लेता-शुरू-शुरू में सब यार काफी हाउस में बैठते...पर रोज ही जाहिद से काफी के पैसे चुकाना किसी को मंजूर न था-तय किया गया कि सब पैसे ‘पूल’ करके काफी पिएंगे। इस तरह कुछ समय और यहां आना जाना लगा रहा-शहर, घर, दुनियां में क्या हो रहा है, यहां इस पर विचार होता-अशोक और उसके मित्र दुनियां की राजनीति से अधिक दुनियां के नाटकों पर बात करना पसंद करते। अशोक के मन में अनन्तनाग में देखी लड़की का अहसास अभी दबा नहीं गया था। पर इस अहसास को वो अपने दोस्तों के साथ नहीं बांटता। हर दोस्त उसे अपनी कुछ-कुछ सच्ची-झूठी प्रेम कथा सुनाता और उससे ऐसा वाकई सुनने की उम्मीद करता पर अशोक ने कभी इस बात को किसी दोस्त पर जाहिर नहीं होने दिया-वह चुपचाप घंटों उस लड़की की तस्वीर को आंखें बंद करके निहारता-उसे महसूस करता। उसके मन में सहसा विचार आता क्या वो भी कहीं मेरे बारे में ऐसे सोचती होगी। हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है अब तक उसे कोई मिल भी गया हो।अशोक जाफरानी अशोक जेलखानी से एक-दो श्रेणी आगे है और उमर में भी एक-दो वर्ष अधिक है। इसलिए जाफरानी का रवैया जेलखानी के साथ बड़े भाई जैसे है। जाफरानी जो अशोक की मासूमियत, साधा मिजाजी और शराफत के कारण इस बात से, चिंतित था कि कहीं इसे कोई गलत साथ न मिले और यह गुणवान व्यक्ति गलत राह न जाए, एक संरक्षक-सा अशोक के साथ बना रहा। जाफरानी के घर में थियेटर का महौल उसके चाचा जी हृदय नाथ गुरूटो के कारण था-हृदय नाथ गुरूटो कश्मीर के एक लाजवाब स्थापित स्टेज, रेडियो अभिनेता थे। अशोक जाफरानी का इस कारण टैगोर हाल में नाटक देखना वाजिब था-यही नहीं, बचपन से घर वालों के कम दखल के कारण और घर में आजाद वातावरण के कारण उसे कहीं आने-जाने पर अधिक पूछताछ भी न थी-उसके पिताजी हालांकि इस बात का पूरा धयन रखते कि अशोक जाफरानी (कुका) कहीं गड़बड़ी तो नहीं कर रहा। पर स्वच्छन्द और स्वतंत्रता का सदोपयोग अशोक जाफरानी को अच्छा आता था। वह एक तरह से अपनी म्येच्यूरिटी को अच्छे से दर्शाता। काफी हाउस में बैठे लोगों को वो बैठे ठाले कहता-पर काफी हाउस जिसे इंडिया काफी हाउस के नाम से जानते है, ही मिलने-जुलने का केंद्र था। शहर का हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति यहां किसी न किसी रूप से जुड़ जाता।नाराज और हारे हुए राजनीति में असफल रहे लोग यहां आकर जुनूनी बन जाते। लिट्रेचर में हाथ-पैर मारकर बहुत कम या कुछ भी हासिल न कर पाए व्यक्ति, मिलकर कामयाब कहे जानेवाले लोगों की बखिया उधेड़ते रहते। लेकिन आपाधापी के इस माहौल में जीवन का एक कटु सच झलक रहा था। कश्मीर के वातावरण खासकर राजनीतिक वातावरण में सबकुछ सही नहीं हो रहा है।भाई-भतीजा वाद, रिश्वतखोरी, साम्प्रदायिकता और लूट-खसोट के आधार पर कुछ लोग अपार धन-सम्पति कमाने में सफल हुए। सरकारी ठेके और धांधलियों के रिकाॅर्ड तो़ कुचक्रों से एकाकएक लोग दौलत बटोर रहे थे। चरस की खेती और कारोबार फल-फूल रहा था। कोई रोक नहीं... इस अचानक आए परिवर्तन से मूल्यों में तेजी से गिरावट आ रही थी। पारिवारिक और सामाजिक मूल्य बहुत तेजी से गिर रहे थे। नौजवानों में इस माहौल से बेकारी और बेकरारी फैल रही थी।जाहिद, कुका (अशोक जाफरानी) तेज तिक्कू और अशोक (काका) भी नवजवान थे। सादिक के पश्चात् मीर कासिम ने कश्मीर के सी एम का पदभार संभाला था।केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और राज्य में भी कांग्रेस की सराकार ही थी। इन्दिरा गांधी कश्मीर के दौरे पर आई थीं।अपने पिता की तरह वह भी शिकारे में बैठकर झेलम नदी के रास्ते सारे शहर का दौरा कर रही थी। अशोक को धुंधली-सी याद ने घेर लिया-अपनी मासी चूनी जी की गोद में वह झेलम के तट पर जवाहर लाल नेहरू की प्रतीक्षा अपार भीड़ में कर रहे थे, जब नाव पास आई तो नेहरू जी की नाव किनारे के बहुत करीब से गुजरी थी... जब अशोक ने नेहरू जी को वेव किया था और नेहरू जी बहुत करीब आकर उसका गाल सहला गए थे।बचपन की सुन्दर यादों को ताजा करती तह-ब-तह यादें जमा हो रहीं थी। कश्मीर की राजनीतिक उठा-पठक में 60 के दशक के बाद अब स्थायित्व और अमन-चैन का दौर चारों तरफ विद्यमान था। लगता था कश्मीरी मुसलमानों का पाकिस्तान समर्थक टोला कहीं इतिहास की तहों में दबकर विलीन हो गया है। पैसे और धनिक तबके के रौबदार उत्थान के बावजूद सरकार की लोकसमर्थक नीतियों के कारण लोगों में आशा बाकी थी। स्वास्थ्य, शिक्षा और खेती में क्रांतिकारी उन्नति का पथ प्रशस्त लग रहा था। सूखे और सैलाब से अब वो कहर न ढलता, जो पहले पहल आम था। निम्न वर्ग के पढ़े-लिखे नौजवान भी नौकरियों में ऊंचे पदों तक पहुंच बनाने लगे थे।किन्तु कश्मीर के जनमानस में जिस व्यक्ति केंद्रित शक्ति की पूजा का एक मूक निमंत्रण सर लारेंस ने अपने दौर में दर्ज किया था, वह कश्मीरियों की मानसिकता में यथावत बना हुआ था। लोकशाही को बार-बार शासक की व्यक्गित कुशलता से आंकना उनकी जैसे आदत बन गई है। इन्हें लोकतांत्रिक रूप से बनाई सरकार में भी व्यक्ति केंद्रित पार्टी को श्रयेस्कर मानने का ही जज्बा भरा हुआ था। जवाहर लाल नेहरू इस बात को भली-भांति समझते थे, इसीलिए हमेशा ऐसे व्यक्तियों की खोज में रहते जिसे धुरी बनाकर कश्मीर के रथ को हांक सकते। पर यही रवैया शायद कहीं आत्मघातक सिद्ध होने वाला था। जवाहर जी के मन को यह बात सदा कुरेदती थी कि शेख अब्दुल्ला को बिना किसी संगीन अपराध के आखिर कितनी देर जेल में रखा जा सकता है? इस बात से अपने जमीर को साफ रखने के लिए उन्होंने शेख को एक मौका दिया था। उसे सलाखों से आजाद घूमने दिया था-वे पाकिस्तान गए और वहां उनका भव्य स्वागत हुआ। वे कश्मीर के मसले को हमेशा के लिए हल करना चाहते थे-पर शायद दैवी इच्छा कुछ और थी-27 मई, 1965 को जवाहर जी की मृत्यु हो गई और सबकुछ ठप हो गया।इन्दिरा गांधी को जय प्रकाश नारायण इसी बात का बार-बार स्मरण दिलाते। उनका मानना था कि 1971 के बाद शेख अब्दुल्ला की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। बंगलादेश एक हकीकत बन चुका है और धर्म के नाम पर बना देश क्षेत्र के नाम पर और सांस्कृतिक दूरी के नाम पर बंट गया। शेख का मन परिवर्तित हुआ था-जयप्रकाश नारायण ने इन्दिार गांधी से शेख का समझौता कराया-पाकिस्तान को दरकिनार कर शेख इन्दिरा अवार्ड, अमल में लाने की प्रक्रिया तेज हुई। 1971 के बंगलादेश युद्ध ने भारत की पोजीशन मजबूत कर दी थी-पाकिस्तान बुरी तरह हार चुका था- पाकिस्तानी जनरल निपाज़ी ने अपनी फौज समेत भरतीय जनरल मानिक शाह के सामने घुटने टेक दिए थे। 90 हजार से अधिक युद्धबंदी भारत की जेलों में पहुंच गए थे। कश्मीर में पाकिस्तानी हामियों का टोला गिद्धों की तरह अपने टिकानों में छिपते नजर आते थे। कश्मीर ने इस दौर में सचमुच आजादी की सांस लेनी शुरू की थी। हर तरफ खुली फिजा महक उठी थी। सैलानियों का चारों ओर बहाव था और अशोक का मन कुछ कर गुजरने की उमंग से भरा था। देश के नवजवानों को युद्ध की जीत से एक आत्मविश्वास का अनुभव हो रहा था। अभिव्यक्ति को बल मिल रहा था और इस वक्त चुप रहना एक अपराध होता-अशोक ने अपनी मित्र मण्डली के साथ नित्य मिलने का कार्यक्रम बनाया-टैगोर हाल में किसी कश्मीरी वैरायटी शो का मंचन हो रहा है, यह खबर जाफरानी ने अशोक को सुनाई-इस शो को देखना तय हुआ-किसे मालूम था कि इस पहले शो को देखते ही अशोक के जीवन में एक विचित्र मोड़ आएगा, जो उसे उम्र भर के लिए इसी क्षेत्र में अग्रसर करेगा। चारों दोस्तों ने काॅफी हाउस में मिलने के बाद टैगोर हाल में ‘माखन लाल सराफ’ का शो देखने का फैसला किया। हाल में दाखिल होने पर अशोक जेलखानी को पहली बार थियेटर में बैठकर दर्शकों के साथ कश्मीरी शो देखने का अवसर मिला था- ष्षो कितनी देर चलेगा’,उसे एकाएक ख्याल आया और अशोक जाफरानी से पूछा। चलो निकलते हैं... घर चलते हैं, जाफरानी ने बहुत बेरूखे होकर जवाब दिया-क्यों तुम घर में कहकर नहीं आए? जाहिद ने बहुत सहजता से पूछा-अशोक को लगा कि शायद उसे यह बात नहीं पूछनी चाहिए-दोस्त समझेंगे कि मैं अभी घर वालों की उंगली पकड़ कर ही चल रहा हूं। पर उसे यह भी चिंता हो रही थी कि तनिक भी देर होते घर में पिताजी और दादी काफी चिंतित हो जाते हैं। चाचा जी जानते हैं कि मैं अब दोस्तों के साथ कुछ समय काॅफी होम में बिताता हूं, क्यांेकि कई बार उन्होंने यहां मुझे काॅफी की चुस्कियां लेते जाहिद और अन्य मित्रों के साथ देखा है। अशोक ने ज़ाहिद की बात का जवाब नहीं दिया और चुपचाप नाटक शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही देर में हाॅल की सारी लाइटें बुझा दी गईं और हाॅल में घुप्प अंधेरा हो गया-अंधेरे के साथ एक गहन सन्नाटे को चीरती... नाटक आरंभ होने की घोषणा सुनाई देने लगी। अशोक का दिल धड़कने लगा। वह न जाने किस अतिरिक्त उमंग से भर गया। धीरे-धीरे स्टेज पर टंगा लंबा काला पर्दा दोनों ओर से खुलने लगा और नाटक आरंभ हुआ-अशोक ने हर पहलू पर ध्यान देना आरंभ किया, उसे अनन्तनाग में खेले गए भाण्डों के नाटक की तुलना में यह नाटक ओहा-पोह से भरा और कहानी की गतिशीलता में शिथिल नजर आया। इसमें जीवन की वास्तविकता को अतिनाटकीय ढंग से प्रस्तुत करने की सायसता थी। अशोक सोचने लगा कि यह तरीका बहुत परंपरागत पारसी थियेटर के ओहा-पोह से मिलता है, जो वे शिवाला में अपने मामा जी इन्दू भूषण के साथ देखने जाता। अचानक स्टेज की लाइटों के प्रकाश में आधे प्रकाशित आॅडिटोरियम में उसने इन्दू जी को भी अगली कतार में बैठा देखा। इन्दूभूषण, अशोक जेलखानी से सिर्फ तीन-चार साल बड़ा है। वहीं अशोक को थियेटर के बारे में बहुत बातें कहता-उसे थियेटर और संगीत से काफी लगाव है और उसने अपने लिए एक बेंजू भी खरीद लिया है। वह नाटकों में पार्शव संगीत के लिए कई वाद्य भी बजाता है। उसे देखते ही अशोक का मन आश्वस्त हुआ कि यहां आकर कोई गलती नहीं की है उसने, क्योंकि घर में पूछे जाने पर वह कह सकता है कि इन्दू मामाजी भी तो वहां थे। खैर! नाटक ‘मांगेय’ का एक बहुत अच्छा प्रभाव यह हुआ कि अशोक ने माखन लाल सराफ का नाटक ग्रुप रंमंच विधिवत ज्वाइन करने का मन बनाया-उसने अपने मित्रों से कहा कि वे भी इस बात पर सोचे...चारों ने रंगमंच जाना तय किया... रंगमंच में इस समय पहले ही बहुत कलाकार काम कर रहे थे-जिनमें मक्खन लाल सराफ, बन्सी भट्टू, जवाहर वान्चू, बन्सी रैना, अशोक जालपुरी, शिब्बन, मंजू... बिहारी काक, रत्नलाल रैना, ब्रज किशोरी, बशीर मंसूर और आलोक ऐसे सब स्थापित कलाकार थे। इनमें से ब्रजकिशोरी एक ऐसी महिला कलाकार थी, जिसकी ख्याति और सफलता ने कश्मीरी महिलाओं को स्टेज और रेडियो नाटकों में भाग लेने के लिए उत्साहित और प्रेरित किया। हालांकि ब्रज किशोरी से पहले कश्मीर की एक बहुत ही क्रांतिकारी महिला ब्राडकास्टर शांता कौल ने बन्दूक उठाकर कबाइली हमलावरों से लोहा लेने की ठानी और इसी जज्बे के साथ ब्राडकास्टिंग से जुड़ी-इनकी आवाज ने दर्जनों महिलाओं को स्टेज और रेडियो से जुड़ने के लिए प्रेरित किया-एक नई पीढ़ी जिसमें आशा जारू, भारती जारू दोनों बहिन अग्रिम कतार में सामने आई। स्टेज के साथ जुड़ गई-भारती जारू एक मंजी हुई और खूबसूरत अदाकार साबित हुई -यही भारती रंगमंच में बैठी थी-जब अशोक जेलखानी, जाफरानी और तेज तिक्कू ने रंगंच के दरवाजे पर दस्तक दी, तीनों ने सोचा भी न था कि एक निहायत खूबसूरत और बेबाक लड़की दरवाजा खोलकर उनका स्वागत करेगी। अभी तक इस लड़की को सारे शहर में अभिनेत्री के रूप में कोई नहीं जानता था। यह भी इन तीनों ही की तरह रंगमंच में दाखिला लेने आई थी।
कैसा मक्खन जैसा मुलायम है तू... रहता कहां है, लगता है आते-जाते तुझे मैं देखती रही हूं।’ ब्रज किशोरी अशोक की थाह ले रही थी-वह ऐक्टर बनने आया है या यूं ही राह चलता सूंघ कर जाने वालों में से है। अशोक ने जवाब दिया कि वो उसे जानता है और यह भी जानता है कि वह कितने भाई-बहिन है। जाहिर है छोटा-सा शहर है और इस छोटे से शहर के छोटे से कोने में तो सिमट गए हैं हम सब। ये तुम्हारे दोस्त हैं-- ‘हां’ अशोक ने अपने दोस्तों का परिचयन कराया और वहां उपस्थित सब कलाकारों ने अपना परिचय दिया-अशोक ने उन्हें यह भी बताया क उसने और उसके दोस्तों ने उनका शो देखा और पसंद किया-हालांकि अशोक की राय कुछ और थी पर वह यह अभी किसी पर जाहिर नहीं करना चाहता था, क्योंकि अभी तो उसने इस क्षेत्र में कदम भी नहीं रखा था। वह अभी से अपनी राय देता तो उसे शायद ही कोई पसंद करता, क्योंकि नाटक के विषय में उसकी राय बहुत अलग थी, जिसे जानकर वहां बैठे कलाकार ज़्यादा खुश न होते। इन्हीं बातों के चलते सराफ साहब यनी माक्खन लाल सराफ भी आए और इन लड़कों के आने का कारण जान गए। एक रजिस्टर निकाल कर उसमंे से एक, एक पेज का टाइप किया गया फार्म निकाला गया-फार्म टाइप करके किसी सरकारी दफ्तर से ‘साइकलोस्टाइल’ कापी किया गया था-फार्म की कीमत और मेम्बरशिप फीस मिला कर पांच रुपए बनते थे। ज़ाहिद के बगैर किसी की जेब में फालतू के पांच रुपए न थे। ‘सराफ’ साहब ने फार्म भरवा लिए और मेम्बरशिप दो किस्तों में देने की छूट थी। रंगमंच का मेम्बर बनकर अशोक और उसके दोस्त खुश हो गए। अब सभी को अगले नाटक के मंचित होने की प्रतीक्षा थी। अगला नाटक शुरू होते ही सबको रोल मिलेंगे। पर यह सब इतना असान न था। साल भर यहां आते रहने की क्रिया थी। कब कोई नाटक हाथ लगे, तब जाकर उसकी कास्टिंग हो, तब रोल मिले। चारों दोस्त बहुत उतावले हो रहे थे। रंगमंच की रोज़ाना बैठकों मंे जाकर... दोस्तों का दायरा बढ़ रहा था। इस मंडली में एक से बढ़कर एक सूरमा कलाकार था। सो इन चारों दोस्तों को सबसे जूनियर जानकर अभी फालतू के कामों में लगाया जाने लगा। कोई भी सीनियर कलाकार किसी भी काम के लिए इन्हे दौड़ाने लगे। कभी बोतल में पानी भरना है तो कभी चाय के झूठे कप धोने हैं, कभी बाज़ार से पान, सिगरेट और पकौड़े व नदरमुंजिपा लानी है। काफी समय यही करते हुए जाहिद तंग होने लगा। वो सिर्फ अपने दोस्तों का मन रखने की खातिर ही अब यहां तक आता-शाम होते, कुछ लोग गिलास और बोतल-लेकर पकौड़ों और नंदमुजियों के साथ, बियर या व्हिस्की के जाम भी लगा लेते। अशोक के मामाजी इन्दूभूषण को इस बात का पता चला कि अशोक ने रंगमंच जाना शुरू किया तो वह भी रंगमंच पर आने-जाने लगा-उसे यही चिंता थी कि कहीं उसका भांजा, कोई गलत राह न पकड़ ले। पर मंच और नाटक से जुड़ना उसे कभी गलत न लगता-बात घर तक पहुंच गई-अब अशोक की जवाबदेही का समय आ गया था। शाम को देर से घर लौटने के उसे कई बहाने सुझाये गए। पर जब चाचाजी चुन्नी लाल ने एकदम पूछा कि तुम क्या वहां नाटकमंडली में बैठे रहते हो तो अशोक ने हठात जवाब दिया ‘हां’ और कौन होता है तुम्हारे साथ?’ मैं, ज़ाहिद, अशोक जाफरानी और कई कलाकार आते हैं, वहां कुछ दिनों में वे लोग पुषकर भान जी और सोमनाथ साधू जी का रेडियो नाटक ‘ग्रेंड रिहर्सल’ शुरू करेंगे, मुझे भी उसमें रोल मिलेगा।’ ‘तो क्या तुम एक्टर बनना चाहते हो!’ कुछ देर चुप रहने के बाद अशोक कहने लगा, ‘ऐक्टर बनना कुछ बुरा तो नहीं।’ ‘नहीं बात बुरे-भले की नहीं हो रही है, बात यह है कि तुमने यह ऐक्टिंग में जाने का मन बनाया है या यूं ही हाॅबी के तौर पर कल्ब ज्वाइन किया है?’ अशोक ने इस विषय मंे इस तरह कभी सोचा नहीं था-उसका मन एक अनायास रूप से थियेटर की तरफ खिंचता गया था-जैसे अनन्तनाग की लड़की की तरफ मन दौड़ने लगा था, कुछ इसी प्रकार अब थियेटर से लगाव होने लगा था। पात्रों के चरित्र बनकर वह भी स्टेज पर आना चाहता था-उसमें भी कला की क्षमता ठाठे मारती नज़र आ रही थी- पर अभी जो प्रश्न उत्पन्न हुआ था, वह गंभीरता से पूछा गया था और इस प्रश्न का जवाब दिल से नहीं दिमाग और विवेक से ही दिया जाना था। ‘फिलहाल तो हावी है, पर इसे कैरियर भी तो बनाया जा सकता है।’ अशोक के इस जवाब से चाचाजी कुछ हद तक संतुष्ट हुए बोले, ‘ठीक है, एक बात ध्यान से सुनो जीवन में जो भी करना चाहो, उसे खूब समझदारी, ईमानदारी, मेहनत, लग्न से करते हुए कोशिश करो कि तुम इसे बेहतर और सही ढंग से कर पाओ, किसी भी काम की कामयाबी का राज़ उस काम को करने वाले व्यक्ति मे निहित होता है, यह कभी नहीं भूलना, इसलिए जो कुछ भी करो... सोच-समझ कर गहरी सूझबूझ से करना।’ अशोक को लगा कि मामला संगीन है। यह महज़ तफरीह की या षगल की बात नहीं, अपितु एक ज़िम्मेदारी का काम है। वह काफी रात गए तब इस बारे में सोचता रहा, वह नाटकों के इस संसार में क्यों जा रहा है। उसकी सोच ने जड़ पकड़नी शुरू की, उसे अहसास होने लगा कि, यह महज़ समय बिताने वाली बात नहीं, ना ही यह मौज़-मस्ती के लिए यार दोस्तों के साथ कुछ खेल, खेलने वाली बात है। यह बात मनुष्य के जीवन से जुड़ी है। उसके सारे व्यक्तित्व से जुड़ी है उसके सारे भविष्य से जुड़ी है। उसे बहुत कुछ जानना और सीखना होगा। इस काम को अवसरों की उपलब्धता पर नहीं छोड़ा जा सकता-अवसर स्वयं उत्पन्न करने पड़ेंगे। चाचाजी के शब्दों ने सोच की कई धाराओं को एक साथ प्रवाहित किया-वह यह सब ज़ाहिद के साथ बांटना चाहता था- ज़ाहिद एक कुलीन और प्रतिष्ठित सरकारी प्रशासनिक सेवारत आफीसर का बेटा है। उसका जीवन पहले से काफी ढर्रे से चल रहा है। वह कश्मीर आर्ट्स एम्पोरियम में असेस्टेंट मैनेजर है और उसका कैरियर निश्चित है। जाफरानी भी युनिवर्सिटी में एम.ए. कर रहा है। जालपुरी भी नौकरी कर रहा है... मैं...? अशोक सोच में पड़ गया-सारी मित्र मंडली में वह ही अकेला आदमी है, जो अपने भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता। क्यों? शायद इसलिए कि अभी उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है... अभी ग्रेजुएशन के दो साल बाकी है, अभी से इस विषय में इतनी चिंता करना ठीक नहीं। अशोक ने संसार में थियेटर के उद्भव और विकास के बारे में सोचना और जानना आरंभ किया-दोस्तों से लाइब्रेरी से चाचाजी से जहां से भी बन पड़ा पुस्तकें मांग कर पढ़नी शुरू की। भारत की ही तरह यूनान, फ्रांस, रूस और समस्त यूरोप का अपना थियेटर है। रंगमंच में नाटक अब जल्द ही खेलना शुरू हो रहा था। माखन लाल सराफ इस नाटक का निर्देशन कर रहे थे। नाटक ग्रेंड रिहर्सल ही ज़ाहिद सरकारी नौकरी में था और घर से भी अच्छा खाते-पीते घटाने का था इसलिए उसके पास इस बात की अधिक चिंता नहीं थी कि उसे कब को करना क्या है? अशोक और ज़ाहिद में बहुत पटती थी क्योंकि ज़ाहिद बौद्धिक परिपक्वता से भरा था और कभी बेकार की बातें नहीं करता था। उसका चुना गया। इसे पुष्कर भान और सोमनाथ साधू जैसी दो महान रेडियो के नाटकारों ने रेडियो के लिए लिखा था, यह वर्तमान नजवान पीढ़ी पर लिखा गया नाटक था और इसीलिए इसमें काफी सारे नौजवानों की आवश्यकता थी। इस नाटक में माखनलाल सराफ स्वयं प्रोफेसर की भूमिका और ब्रजकिशोरी ने प्रोफेसर की पत्नी की भूमिका निभाई। नाटक के रिसर्हसलों से लेकर नाटक के मंचन तक जिस अनूठी प्रक्रिया से अब तक चारों मित्रों को गुज़रना पड़ा, वह कड़ी परीक्षा से कम न थी। बात-बात पर तथाकथित सीनियरों ने झिड़कियां सुनाई, हर जगह के छोटे-बड़े काम कराए और ऐसा अहसास दिलाया कि अभी उन्हें इस क्षेत्र में मातहत रहकर काम करके ही किसी अच्छे रोल की कभी अपेक्षा करनी होगी। इस नाटक के प्रदर्शन पर हाॅल में दर्शकों की खासी मौजूदगी थी-शहर के बड़े-बड़े लेखक, नाटककार, रंगकर्मियों के अतिरिक्त स्वयं नाटक के लेखक पुष्कर भान और सोमनाथ साधो भी नाटक देखने पधारे थे। अशोक ने पाश्र्व विंग से दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों में श्री प्राण किशोर और उनकी पत्नी श्रीमती शांता कौल को भी देखा। आज इन सब हस्तियों के सामने वह स्टेज पर पहली बार अपनी कला का प्रदर्शन करेगा, पर क्या कोई उसे नोटिस करेगा। बहुत सारे नौजवनों में एक नवजान की भूमिकमा उसे भी मिली है। यूं तो संवाद बहुत हैं, पर इन संवादों से किसी पात्र विशेष का चित्रण नहीं हो रहा... खैर। भूमिका तो है, निभानी है। अशोक और अन्य कलाकारों ने इस नाटक का सफल मंचन किया। सभी दर्शकों ने जगह-जगह तालियों से भी कलाकारों को प्रोत्साहित किया... परंतु अशोक के मन में इस बात की कमी खटकती रही कि इस नाटक के मंचन में अतिरिक्त कृत्रिमता से संवाद बुलवाये गए। अति नाटकीयता और ओहो-पोह का सहारा लिया गया। जाहिद ने इस नाटक में कोई भूमिका नहीं की थी। उसने बैक स्टेज का काम हाथ में लिया था। किन्तु ऐन मौके पर वह बैक स्टेज के काम से निवृत किया गया, सो उसने दर्शकों में जाकर अपने मित्रों के अभिनय कौशल को परखा-उसकी राय अशोक से बहुत मिलती थी-नाटक में बनावटीपन कतई नहीं होना चाहिए यह एकदम रियल टु लाइफ लगना चाहिए... अभी इन बातों को समझने का काफी समय था।-------------------------------------------------------------- प्रयोगी रंगकर्म
जाहिर है कि मखन लाल सराफ, पुरानी पारसी थियेटर परंपरा और उभरती आधुनिक नाटक परंपरा के संक्रमण काल में खड़े नाटककार थे और अशोक जेलखानी व उसके मित्रगण आधुनिक काल के बिलकुल द्वार पर प्रविष्टि के लिए तत्पर थे। उन्हें नाटक की संकलनत्रैयी में बाधक तत्वों को बिलकुल खारिज करने की जरूरत महसूस हो रही थी। अशोक का मत था कि दर्शक पहली नज़र में कुछ देर के लिए सेट के वैभव से प्रभावित होता है, पर जब नाटक संवादों के माध्यम से और पात्रों के अन्तःसंबंधों की निबाघ प्रक्रिया को पकड़ लेता है, तो सेट पर से आप वस्तुएं गौण रूप धारण करके दर्शक के दिमाग से उतर जाती हैं। इसलिए स्टेज पर दर्शक के लिए पात्रों का अभिनय अतिविशिष्ट हो जाता है। दर्शक पात्रों के क्रियाकलापों से जुट जाते हैं, उनको पात्रों के चरित्र, वाक्य, ध्वनियां पकड़ लेती हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं रहती कि राजा सिंहासन पर है या खड़ा... वे उसके अभिनय और तात्पर्य पर अधिक ध्यान देते हैं। दर्शकों के मन से मंच सजा दो मिनट में गायब होती है। इस मंच सजा को दिखाना आवश्यक है क्या? यह प्रश्न अशोक के मन में कौंध उठा-उसने प्रतीकों में सोचना शुरू किया-उसे भाण्डों के वे नाटक स्मरण हुए जो खुले में सैंकड़ों लोगों के बीचों-बीच खेले जाते। अशोक जम्मू-कश्मीर में नाटक की दशा और दिशा बदलने के विचारों से ओत-प्रोत हो रहा है, यह शायद उसे खुद भी पता न रहा हो पर हुआ ऐन ऐसा ही। एक नौजवान लड़का जम्मू-कश्मीर के मंच पर तूफानी परिवर्तन लाने के विचारों से जूझ रहा था-उसे दर्शक को प्रभातिव करने, और बांधे रखने के लिए सम्प्रेषण को एक अलग स्वरूप प्रदान करना पड़ेगा। स्टेज पर नाटक खेलते हुए प्रकाश और ध्वनि प्रभाव से बहुत हद तक समय और स्थान के संक्रमण को दर्शाया जा सकता है। बाहरी आडम्बर जैसे स्टेज पर माहौल पैदा करने के लिए पर्दों, प्रापर्टी और मलबूसे को त्याग कर दर्शकों के माइंड में पहले से उपस्थित विचार-अनुभव आधारित चित्रों को प्रतीकों से सजा करके उन्हें उन चीज़ों के मंच पर उपस्थिति का आभास मात्र देकर उन्हंे शेष नाटक से जोड़ना-यह बहुत जोखिम का खेल था-इसे सुनने और इस पर विश्वास करने को शायद ही कोई तैयार होता-पर अशोक को सुषुप्त यादाशत अर्थात् ‘सबकांषेस मेमोरी’ पर यकीन था। वह जानता था यह संभव है। उसने अपने दोस्तों को विश्वास में लेकर एक नाटक के इसी पद्धति पर खेलने की प्रक्रिया प्रारंभ की। इसी सोच ने वसंत थियेटर की एक तरह से नीव डाली-अषोक का कहना है कि ‘वसन्त थियेटर में हमने एक नाटक (भंगो) बाबा डिके द्वारा लिखा शुरू किया-यहां तक जाहिद ने और अशोक ने इकट्ठे उसका निर्देशन किया। मैं मैन रोल कर रहा था-यहां तक इस समय तक, (यह नाटक कलाकेंद्र ने पहले भी किया था) सबने हमारी तारीफ की। यहां तक मैंने कुछ भी जानकारी किताबों से नहीं ली थी-इसके प्रदर्शन के बाद प्राण किषोर जी ने मुझे नाटकों के क्राफ्ट पर एक पुस्तक भेंट की। मुझे पता चला कि बिना किसी जानकारी के भी मैंने आत्मज्ञान से ही सारी तकनीकी बातें अपने नाटक में शामिल की थी। यह बहुत दिलचस्प था। जाॅफरानी ने कश्मीर युनिवर्सिटी में लाइब्रेरी से काफी हिन्दी और मराठी नाटकों के हिन्दी अनुवाद छांट रखे थे। डाॅ. रमेश कुमार शर्मा अध्यक्ष हिन्दी विभाग ने उसे एक लंबी सूची लिखवाई थी, जिसमें इन नाटकों का जिक्र था। जाॅफरानी ने अशोक को यह नाटक पढ़ने के लिए दिए और कुछ खुद भी पढ़ रहा था। मन काफी विषय केंद्रित होता-वह विषय से भटकता नहीं। जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदलने जा रहा था। साद्धिक साहब की हुकूमत के बाद मीरकासिम को इंडियन नेशनल कांग्रेस की तरफ से कश्मीर का सीएम बनाया गया। कासिम साहब दूर देहात के रहने वाले थे। उनकी राजनीतिक सोच काफी परिपक्व थी। उन्होंने गांव का होने के कारण कश्मीर में आंतरिक गांव के किसानों, मज़दूरों और आम लोगों की बेहबूदी के लिए सोचना शुरू किया-उनके दौर में गांव के लोगों को पहली बार लगा कि उनकी बात को भी बल मिल रहा है। हालांकि शहर में रहने वाले इलीट तबके को मीर कासिम का सीएम होना अखर रहा था और उनको लग रहा था कासिम गांव के लोगों और गांव के हित ही अधिक वरीयता पर रखते हैं। वास्तव में यह सब कोरा बकवास और प्रलाप के सिवा कुछ ना था। कश्मीर की राजनीति में हर तरह के हथकंडे एक-दूसरे के विरुद्ध अपनाने का एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक सिद्ध शस्तर है। कभी यह गांव-शहर कभी हिन्दू-मुसलमान, कभी भारत-पाकिस्तान और कभी क्षेत्रीय भाषायी और यहां तक कि खानदानी रसाकशी के अंतविरोधों को शह देकर उभारा जाता-इसके नतीजे में इसके कवर में पल रही नितान्त रिशवतखोरी, कालाबाजारी, चरस की खुलेतौर स्मगलिंग और ब्लैकमनी व काले करतूतों पर आसानी से पर्दा पड़ा रहता- अशोक की नज़र अपने इर्द-गिर्द घटित होते रोज के इस महानाटक से नहीं हटती। वह समाज में पल रहे नाटकीय तत्वों के प्रभावों से अतिशय रूप में प्रभावित महसूस करता-उस अमर में जब उसके अन्य दोस्तों का समय रीगल चैक में ज़नाना काॅलेज के सामने लड़कियों को काॅलेज से आते-जाते देखने में व्यतीत होता, जब लड़कियां हजूम में काॅलेज के गेट से निकलती लगता किसी फंुवारे का फुलड गेट खुल गया और सफेद पानी के झरने फूटने लगे... खूबसूरती में लाजवाब सुंदर लड़के, लड़कियां हमेशा एक दूरी बनाए वहां टहलते, भटकते निकलते, सामने रीगल सिनेमा में बारह चार के शो में कई लड़के, लड़कियां छिपकर अक्सर प्रेम की फुहारों का रसास्वादन भी करते पर अशोक का मन इन बातों से हटकर जीवन के कुछ गंभीर प्रश्नों के अर्थ खोजने में लगा रहता। जीवन का ध्येय क्या है? हमारे होने का मकसद क्या है? यह प्रश्न शायद हर वयस्क होते किशोर के मन में किसी-न-किसी स्तर पर कहीं-न-कहीं कौंधता है। हम अगर हैं तो क्यों हैं? कश्मीरी मनीषयेां, मुनियों, ऋषियेां ने जीवन की इस रहस्यमय गुत्थी को सुलझाने के अनेक प्रयत्न किए और इसके नतीजे में एक मानवपरक बन्धुत्व से भरपूर जीवन की पद्धति को जन्म दिया। कहीं यह बुद्धमत, कहीं शैवदर्शन, कहीं इस्लाम कहीं अन्य धार्मिक विश्वासों के मूल में छिपे मानवतावादी संदेशों को समेट कर अपने जीवन में डालने का प्रयत्न किया। कठिन प्राकृतिक स्थितियों में रहने के अध्यव्यवसाय ने कश्मीरियों को जीवन के सत्य के अधिक निकट पहुंचाया था। वे जीवन के रंगों, अंगों की अच्छी व्याख्या कर पाते-इसी अनुभूति को आधार मानकर इन्होंने जीवन को परिष्कृत आनंद को सबसे ऊंचा स्थान दिया था। जीवन को अध्यात्म के करीब ले जाकर इसी आनंद को प्राप्त करने का जरिया बनाया था। पर जितना कश्मीरी जनता, जीवन को जटिल से सुगम बनाने का प्रयास करते, उतना उन पर अनेकों प्रकार से बाहरी और भीतरी राजनीतिक, सामाजिक उथल-पुथल के कारण उपजी स्थितियों और विद्रूपों का सामना करना पड़ा। अशोक को इतिहास में अधिक आनेवाले कल के सुनहरे सपनों में खोने में अधिक आनंद आता-वह अपना पथ प्रशस्त करके अपने आपको इस प्रकार सक्षम देखना चाहता था, जहां पर पहुंच कर वह अपने बुद्धिबल से कोई परिवर्तन ला सके और थियेटर उसे एक बहुत प्रभावशाली माध्यम के रूप में नज़र आता। उसे अभिनय के माध्यम से अपने-आपको व्यक्त करने में अधिक सहजता महसूस होती। वह समझ गया था कि वह एक सफल और कुशल अभिनेता बनना चाहता है। शहर में जितने भी संस्थान थे, उनके द्वारा प्रदर्शित नाटकों की शैली और प्रस्तुति में उसे काफी कमियां नज़र आतीं। इन नाटकों पर पारंपरिक कथोपकथन, लंबे संवादों के बोझिल ओहा-पोह भरे दृश्य और पारसी शैली के नाटकों का काफी प्रभाव था। यहीं रेडियो कश्मीर श्रीनगर ने कश्मीरी मानसपटल को जैसे आत्मसात कर लिया था। यहां सोमनाथ साधो और पुष्करभान की जोड़ी ने क्रांतिकारी स्तर पर ब्राडकास्टिंग में एक युग-प्रर्वतक रूप से कार्यक्रमों का निर्माण करके, कश्मीर के कला सौंदर्य को निखारने का काम शुरू किया, वहीं प्राण किशोर के नाटक विभाग ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्य पर आधारित नाटकों के मोहन निराष ðारा किये गये कश्मीरी व हिन्दी रूपांतरण बहुत सफलता से प्रस्तुत किए। चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास टेल आॅफ दू सिटीज के रेडियो रूपांतरण ने कश्मीरी नौजवानों को अंग्रेजी साहित्य के पढ़ने में प्रेरित किया तो ‘हयवदन’ जैसे नाटक ने कश्मीरी रंगकर्मियों के रंगमंच पर नए प्रयोग करने को प्रेरित किया-मोहन निराश ने इन नाटकों का कश्मीरी रूपांतरण ऐसी सिद्धहस्तता और कौषलपूर्ण व रूचिकर तरीके से किया था कि नाटक कष्मीरी भाव भूमि का ही रंग अंग नज़्ार आते। ये किसी भी रूप से किसी अन्य भाषा के नाटक नहीं लगते-लगता,ै जैसे इनका जन्म ही कश्मीरी भूमि से हुआ है। सच में , यह कश्मीर में, साहित्य, कला और ब्राडकास्टिंग का सुनहरी दौर था। मरियेमा बेग़म और उमा बहन के स्त्रियों के कार्यक्रम कीं कश्मीरी स्त्री समाज में एक खास पहचान थी। इस कार्यक्रम की पकड़ सीधे कश्मीरी जनमानस में स्त्री समाज के नब्ज़ पर थी। यह कार्यक्रम ग्रहनी कश्मीरी स्त्रियों का अत्यधिक चहेता कार्यक्रम था। मचामा और जूनडब, ने तो धूम मचा रखी थी-सवेरे दफ्तर जाने से ठीक एक आधा घंटा पहले ‘जूनडब’ कार्यक्रम आरंभ होता-पहले इसका समय सवेरे 7ः30 रखा था बाद में 8ः00 का था। कश्मीर में खास ही कोई घर होगा, जिसमें रेडियो हो और वह लोग यह प्रोग्राम न सुनते! यह एक फीचर था, जिसमें सरकार का प्रतिनिधित्व एक अफसर करता और उसका परिवार और नौकर जनता के भावों को अभिव्यक्त करते। यानी, आग़ा साहब जोकि परिवार के मुखिया थे और कहीं सरकारी आफिसर भी थे, एक साफ-सुथरी, ईमानदार सरकारी अहलकार की इमेज को प्रस्तुत करते वहीं उसकी बीवी ‘आॅगबाय’ एक अवसत पढ़ी-लिखी कश्मीरी मुसलमान परिवार की ग्रहनी को, प्रतिनिधित्व करती-छोटे दो बच्चे, ननकूर और निकलाल’ एक आदर्ष परिवार को दर्शाते। ‘आगसाबं के परिवार को जनजीवन से जुड़े तमाम तरह के दैनंदिन मसलों को किसी-न-किसी रूप से दोचार दिखाते और ‘आग-साहब’ के साथ ‘मामा’ नौकर के माध्यम से इन मसलों पर विचार-विमर्श करते। इस फीचर की खूबी यह थी कि इसने अपने वजूद को आम लोगों के दैनिक जीवन से जोड़ रखा था। शहर गांव में होने वाली सारी छोटी-बड़ी घटनाओं का इस फीचर के साथ किसी-न-किसी रूप में संबंध जुड़ा होता-यही कारण है कि यह फीचर लोगों की भावनाओं को मुखरित करने का एक सफल मंच बना था। सबसे अधिक 16 साल रेडियो कश्मीर से लगातार प्रसारित होने के कारण इसमें काम करने वाले सभी मुख्य पात्रों, आग़साब (सोमनाथ साधो) मामा (पुष्कर भान) आग़बाय (मरियमा बेग़म) को भारत सरकार ने पद्मश्री से सुशोभित किया। इसी माहौल, ऐसी ही प्रेरणाप्रदत स्थितियों में अशोक जेलखानी ने आगे आकर कश्मीर के थियेटर की डोर अपने हाथों में ली। और खुशकिस्मती यह थी कि राज्य और केंद्र की प्रोत्साहन योजनाएं भी इन्हीं दिनों ज़ोर पकड़ रही थी। श्रीनगर में टैगोर हाल में कलचरल अकादमी नाटकों का एक फेस्टिवेल आयाजित करती। यहां वादी की सभी नाटक मंडलियों को, जो कलचरल अकादमी के साथ रजिस्टर्ड होती फेस्टिवल में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता। इन नाटक मंडलियों को अकादमी वार्षिक रूप से वित्तीय सहायता के रूप में कुछ रक़म धन के रूप में भी प्रदान करती-हालांकि यह रक़म मामूली थी और इसके लिए लंबी-चैड़ी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता-फिर भी इससे इन नाटक मंडलियों से जुड़े कलाकारों को अपनी ‘हाॅवी’ को आगे बढ़ाने में मदद ज़रूर मिलती। अशोक जेलखानी, अशोक जाफ़रानी, ज़ाहिद, अशोक ज़ालपुरी, विजय धर, कुलभूषण वान्टू और भी अन्य साथियों ने जिस ‘बसन्त थियेटर’ की नींव ‘भंगों’ नाटक से डाली थी उसी को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। मंगों नाटक ‘बसन्त थियेटर’ ने 1970 में मंचित किया-यह नाटक पहले कलाकेंद्र भी खेल चुका था, किन्तु अशोक जेलखानी ने तभी इसको नए अंदाज में खेलने की ठान ली थी और अशोक का तजरूबा काफी सफल रहा-इस नाटक को जोकि बाबा डिक्की का लिखा था, जाहिद हुसैन और अशोक जेलखानी ने सह-निर्देशन में मंचित किया था। इस नाटक ने पारंपरिक शैली से मंचन की विधा को निकालने का प्रयास किया और प्रयास सफल रहा। इस नाटक ने न केवल बड़े पैमाने पर दर्शक दीर्घा को प्रभावित किया अपितु कश्मीरी में रंगमंच और रेडियो के सबसे अग्रनीय और श्रेष्ठ युगपुरुष प्राणकिशोर को अत्यन्त उत्साहित और प्रभावित किया-उन्होंने गदगद होकर कहा श्जीम दमू समंकमत पद जीमंजतम पे इवतदश् कश्मीर को थियेटर का नया रहनुमा मिल गया है। प्राणजी ने अशोक जेलखानी को अपने मूल्यवान साहित्यिक लाइब्रेरी कोष से ;भ्पेजवतल व िूवतसक जीमंजतमद्ध नाम की पुस्तक भेंट की। आज के दौर का कोई भी युवक इस बात की अहमियत को समझ सकता है कि किस तरह एक उभरते कलाकार को हमारे सीनियर कलाकार हौंसला देते। प्राणकिषोर जी की इस बात को अशोक जेलखानी नम आंखों से वर्णित करते हैं। उन्हें आज भी उतनी ही श्रद्धा और उतना ही स्वेद होता है, प्राण जी के प्रति उनका मन आभार से भर जाता है। अशोक जी कहते हैं कि उनके जीवन में यदि कोई आदर्श व्यक्ति कला के क्षेत्र में रहा है तो वे श्री प्राणकिशोर हैं। प्राणजी की दी हुई पुस्तक को पढ़कर अशोक जेलखानी को संसार भर के थियेटर के साथ जुड़ने का अवसर मिला। अशोक का कहना है कि इस किताब में दिए गाये आणुनिक कला प्रयोगों से और आधुनिक थियेटर प्रयोगों को वे पहले से ही न जान किस प्रेरणा से अपने मन में संकल्पित किए थे। उनहें आश्चर्य हुआ जब अपनी संकल्पना के अनुरूप इन प्रयोगों को इस पुस्तक में वर्णित पाया। यहां पर कहना असंगत न होगा कि प्राणकिशोर जी की दूरदर्शता और परख एक सुपात्र को प्रोत्साहित कर रही थी, प्राणकिशेर अशोक से सदैव प्रसन्न होकर कहते ‘मुझे तुम पर मान है।’ 9 मई, 1970 को श्रीनगर में दूरदर्शन की नींव डाली गई। उस समय अशोक को शायद इस बात का अहसास था या नहीं कि इस संस्थान में उसके बाकी जीवन का एक बहुत बड़ा कार्यकाल गुज़रने वाला है। अशोक के मन मे एक ही बात की धुन सवार थी कि कुछ करके दिखाना है। ऐसा कोई काम जिससे नाम हो, संतोष हो और आदमी जीवन के संपर्क में रहे। अशोक ने अपनी योग्यताएं बढ़ाने के लिए ज्ञार्नाजन के माध्यम खोजने आरंभ किए। पुस्तकें एक बहुत बड़ा स्रोत साबित हुई। पुस्तकों के अतिरिक्त थियेटर से लगाव और जुड़ाव जीवंतता को बनाए रखता। इसी बीच जीवन में आगे-पीछे, दाएं-बाएं बहुत कुछ फटाफट घटित हो रहा था। 14 अक्तूबर की श्रीनगर से अमृतसर तक पहली साइकिल रेस का आयोजन हुआ। ऐसी बातों से नौजवान खुश होते। इन्दिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम में नौजवानों की उमंगों और जज़्बों का ख्याल किया गया था-रेडियो से पहले यूथ प्रोग्राम और फिर यूथ-चैनल युवा वाणी शुरू की गई। इस चैनल ने तमाम वादी में धूम मचा दी। यहां नाटकारों, रंगमंचकर्मियों, संगीत कल्बों, गायकों, लेखकों और हर हुनर के नौजवान को मंच मिला-इन नौजवानों ने अपनी कला और अपने हुनर से बाकी सारे नौजवानों में जोश भरना शुरू किया-इसका नतीजा स्पष्ट निकला, हमें गुलाम नवी, शेख, विजय मल्ला, आरती तिक्कू, कैलाश मेहरा, शांति लाल सिद्ध, संतोष सिद्ध, महाराजकृष्ण षाह और दर्जनों कलाकार मिले। महाराज षाह (म.क. शाह) अनन्त नाग ज़िले के मटटन गांव में रहने वाला एक युवक कुछ ऐसे ही सपने संजोए था... जैसे कि अशोक और उसके मित्र। महाराज शाह ने डाॅ. रत्न लाल शान्त के निर्देशन में उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ के मषहूर नाटक ‘जोंक’ में मुख्य भूमिका निभाई थी। रेडियो से आॅडिशन पास किया था और एक छोटा-सा संगीत और नाटक क्लब ‘अमर ड्रामाटिक कल्ब’ गांव में ही स्थापित किया था-मटटन में रंगमंच का एक अपना दीर्घकालीन इतिहास रहा है। श्रीनगर से आए एक फारिस्टर श्री राधाकृष्ण ने यहां रंगमंच की नींव डाली थी। कृष्ण-सुदामा, राजा हरिश्चंद्र, नल≠न्ती जैसे नाटक खेले जा चुके थे, श्री अमरनाथ जोगी और उसके साथियों ने शुरू की, उसे आगे चलकर सर्वश्री कृष्णलाल, रामेश्वर नाथ खार, हीरालाल मुक्खी, भास्करनाथ भवानी ---, व अन्य दर्जनों, नौजवानों ने आगे बढ़ाया। यहां विधिवत् हर वर्ष रामलीला और कृष्णलीला का आयोजन किया-जिसे देखने हिन्दुओं से भी ज्यादा मुसलमाना आते। सारे कस्बे में आस-पास के गांव से लोग आकर ये लीलाएं देखेते। इसकी मंच व्यवस्था और निर्वाहन बहुत सलीके से किया जाता। दृश्य परिवर्तन के बीच श्री पृथ्वीनाथ शेर रामायण की व्याख्या करते और दानवीरों के नाम माइक पर बोलते। यह आजकल की टीवी कमर्शिल ब्रेक-सा होता। व्यापारी अपने दुकानों और सेवाओं व माल का खुलकर इस मंच से प्रचार करते-नौजवान अपने मित्रों के नाम कोड-भाषा मे ंसंदेश प्रसारित करवाते। इन संदेशों में तीखे और मसालेदार वाक्यों का प्रयोग होता-कुल मिलाकर इन दिनों सारा वातावरण त्यौहार के रंग में रंग जाता। यह समय आमतौर पर सितंबर के अंत और नवंबर के आरंभ का होता, इसलिए किसान की ज़मीनदारी से अवकाश प्राप्त कर चुके हेाते और इनके मनोरंजन का यह बहुत मूल्यवान समय होता। मैं (महाराज षाह) इसी रंगारंग भूम में पला-बड़ा हूं। मैंने स्वयं इन लीलाओं में श्रीराम और श्री कृष्ण की भूमिकाएं निभाईं। भगवान की इन लीलाओं मंे हिन्दू जनता की आस्था देखकर मैं हैरान रह जाता-बड़े-बुजुर्ग मेरे पांव छूते और मनोकामनाएं मांगते-हमारे गांव के एक सज्जन के यहां शादी के आठ-दस साल तक भी कोई संतान न हुई थी। वे स्वयं बहुत धार्मिक और आस्थावान थे-उन्होंने रामलीला में बढ़-चढ़कर चन्दा दिया-और लीला के लिए चनइसपब ंककतमेे ेलेजमउ जिसे हम सवनक ेचमंामत कहते हैं-अनुदान में दिया-जिस दिन मुझे धनुष-बाण तोड़ कर सीता स्वयंवर का दृश्य अभिनीत करना था-ये सज्जन मेरे पैरों में गिरकर रोने लगे और कहने लगे, ‘हे प्रभु वचन दीजिए कि अगली रामलीला में हम अपने पुत्र को आपके चरणों मंे लेकर आऐं।’ मेरे मुंह से हठात् निकला ‘वचन दिया ऐसा ही होगा’, उन सज्जन ने भावभीनी आंखों से मुझे देखा और चरणों में फूल रखकर गये, मेरी आंखों से आंसू बह निकले। मैंने उनकी पत्नी को देवालय में काफी बार रोते देखा था। मैं नहीं जानता कि किस तरह हुआ हो पर अगले वर्ष में ये सज्जन सच में नन्हें से बच्चे को लेकर अपनी पत्नी के साथ आए और मेरी पूजा-अर्चना करके इसे मेरे चरणों में डाल दिया-मैंने इस बात का सदैव ध्यान रखा कि यह श्रद्धा और भक्ति उस छाया, उस रूप की हो रही है, जिसे हम अपना ईश मानते हैं। मुझे इस आस्था का मान रखना चाहिए था, पर समय व्यतीत होने के साथ मेरी आस्था ऐसे नाटकों और लीलाओं में खत्म हो गई थी। मेरे सामने समाज का कुरूप चेहरा आने लगा। मैंने अपने कस्बे में नए तरीके से नाटकों का चित्रण शुरू किया-जहां पहले नाटकों के विषय धार्मिक होते वहां मैंने सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं पर लिखा एक घरेलू प्रकरण मंचित करने का फैसला किया, नाटक का नाम भी ‘फैसला’ ही था और यह रमेश मेहता ने लिखा था। नाटक में एक विधवा को कैसे घर में प्रताड़ित किया जाता है, इसका चित्रण था। नौजवान पीढ़ी ने इस नाटक को बहुत पसंद किया पर बड़े-बूढ़ों ने मुझसे बात करना तक छोड़ दिया-श्रीराम के प्रतिबिंब में देखने वाले नौजवान लड़के को अत्याचारी सास के रूप मंे देखना उन्हें नागवार गुज़रा-मैं नहीं जानता था कि लोग इस तरह धार्मिक आस्था में इतने गहरे डूबे होते हैं। मुझे बहुत दुःख हुआ जब एक बुजुर्गवार मुझे दूसरे दिन नागबल में एक कोने मंे लेकर बुरी तरह कोसने लगे, ‘हमने तुम्हारी कैसी छवि मन में बसाई थी, तुमने कैसे उस छवि को एक पल मंे मिट्टी मंे मिला दिया, तुम्हें इस रोल को नहीं करना चाहिए था।’ मैं चुप रहा, उनको यह समझाना कि यह सब नाटक होता है, बनावटी होता है, बेकार था, वे भी जानते हैं सब, पर... इन सब बातों से मुझे एक निष्कर्ष निकालने में बहुत सुविधा हुई कि अभिव्यक्ति का तीव्रतम माध्यम अभिनय, मंच और अन्य प्रसारण माध्यम हैं। प्रसारण माध्यमों से लोगों की सोच सच में बदली जा सकती है। लोगों की जहालत और अपनी अशिक्षा को बहुत हद तक ख़त्म किया जा सकता है। मैंने ठान ली कि दुनियां में कुछ करना है तो यही काम करूंगा, चाहे कुछ भी हो। उधर शायद श्रीनगर में भी कुछ नौजवान इसी स्तर पर सोच रहे थे। अशोक उन में सबसे गंभीर रूप से इस सोच को कार्यान्वित करने के कार्य में जुट गया था। इधर 1971 के जनवरी मास से ही कश्मीर के हालात फिर तेज़ी से बदलने लगे-शेख साहब, बेग़ साहब, शाह साहब व कई अन्य नेताओं को कश्मीर से बाहर करके जेलों में डाला गया। कश्मीर में एक आतंवकादी संगठन ‘अलफता’ को घाटी में बदअमनी फैलाने के जुर्म मंे पकड़कर इसके रंगरोटों को जेल भेजा गया। इसी बीच 30 जनवरी, 1971 को भारतीय एयरलाईन्ज का जहाज़ अगवा करके पाकिस्तान के लाहौर शहर ले जाया गया। यह घटनाएं, कश्मीर के भविष्य से काफी हद तक जुड़ी है। क्योंकि ‘अलफता’ के लोगों के साथ नरमी बरतना, शेख साहब के साथ दिल्ली अकार्ड के तहत नेशनल काॅन्फ्रेंस को हुकूमत सौंपना और मकबूल बटट को फांसी देकर उसके पैरवकारों को खुला छोड़ना, ऐतिहासिक भूलें साबित हुईं। साद्धिक साहब ने कश्मीर के भारत के साथ संपूर्ण विलय की, जिस प्रक्रिया को शुरू किया था, मीर कासिम इसे आगे बढ़ा रहे थे। पाकिस्तान की बंगलादेश में अपमानजनक हार के बाद कश्मीर का मसला ठंडे बस्ते में पड़कर सड़ रहा था-पर 12 दिसंबर, 1972 में साद्धिक के बाद जब मीर कासिम कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें तीन वर्ष के भीतर ही अपनी कुर्सी शेख साहब को सौंप कर दरकिनार होना पड़ा-इसके बाद कश्मीर में कांग्रेस हाशिये पर आ गई और सत्ता में वापिस आने के लिए अपने ही हाथों खड़ा किए एक बहुत बड़े हिमालय को लांघना अब इतना आसान न था। कांग्रेस के कार्यकर्ता, जिन्हें मुफ्तखोरी और सरकारी संरक्षण कि एक तरह से लाइसेंस मिली हुई थी-अब उन लोगों के मातहत हो गए थे, जिन्हें कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जी भर कर उपेक्षा की थी और ऐसा होना स्वाभाविक भी थी। वादी में इन फितनापरस्त लोगों को ज़्यादा महत्व और बल नहीं दिया जाता जैसा कि आज देखने को मिलता है। इन के प्रति एक तरह का सामाजिक बहिष्कार किया जाता, पर अब राज्यतंत्र की डोर इन्हीं लोगों के हाथ में सौंपी गई थी और अब कांग्रेस के कार्यकर्ता अलग-थलग पड़कर सत्ता के गलियारों में अपने स्तर पर प्रशासनिक बैसाखियां तलाशने में जुटे थे। केंद्र में कांग्रेस मज़बूत स्थिति में था, इसलिए कुछ कांग्रेसी नेताओं का केंद्रीय विभागों में अभी भी खासा दबदबा था, पर राज्य में स्थिति बदल चुकी थी। अब ठेकेदारों, प्रशासनिक नियुक्तियों और नई रोज़गार योजनाओं में नेशनल कांफ्रेंस के वफादार कार्यकताओं को प्रश्रय व वरीयता और बल दिया जाता। जमात-इस्लामी को अर्से से ऐसी स्थिति की प्रतीक्षा थी। वे कांग्रेस को वादी में विवश और लाचार देखकर खुश हो रहे थे। कश्मीर के इसी राजनीतिक और सामाजिक पटल पर दूरदर्शन श्रीनगर ने अपना प्रसारण आरंभ किया-अशोक जेलखानी को फ्लोर मैनेजर के लिए दूरदर्शन से इक्ट्रव्यू आया। इक्ट्रव्यू में विशेषज्ञों ने 18-19 वर्ष के नौजवान आदमी को बेहद अनुभवी पाया। इतनी कम उम्र में ही इसने एक्टिंग और निर्देशन मंे नाम कमाया था और काफी इनाम भी प्राप्त किए थे। अशोक को फ्लोर मैनेजर की नौकरी मिली। इस नौकरी ने अशोक को एक नए माध्यम के साथ जोड़ा। यह फिल्म से मिलता-जुलता था और शहर में तेज़ी से अपने पैठ और पहुंच बना रहा था। स्टेज की तुलना में इसकी पहुंच एक साथ हज़ारों दर्शकों तक बन पाती। फ्लोर मैनेजर के पद को समझने में अशोक को अधिक समय न लगा। और इन्हीं दिनों वर्ष 1972-73 के बीच दिल्ली के टेलीविजन कार्यशाला में टेलीविजन कार्यक्रम प्रशिक्षण के लिए अशोक को भेजा गया। प्रशिक्षण के दौरान जहां टीवी की कार्यक्रम निर्माण प्रणाली के मुख्य और मोटी बातें सीखने का अवसर मिला, वहीं इनकी मित्रता टीवी के कई कर्मचारियों से हुई, जो आगे चलकर इनके अच्छे सूत्र साबित हुए। एक दिन अशोक दरियागंज में एक पुस्तक भंडार में घुस गए और हिन्दी के व हिन्दी में अनूदित मराठी, नाटकों के अनुवाद छांटने शुरू किए। तभी इसने यहां, ‘एवं इन्द्रजीत’ ‘कोणार्क’ ‘पंछी ऐसे आते हैं’ ‘किसी एक फूल का नाम लो’ ये सारे नाटक छांट निकाले , इन नाटकों को पढ़कर अब अशोक को एक उमंग ने घेर लिया-वह जल्द से जल्द कश्मीर लौट कर अपनी नाटक मंडली के साथ इन सब नाटकों का मंचन करना चाहता था। उसके हौसले बुलंद थे-क्योंकि कुछ ही समय पहले बसंत थियेटर ने मोती लाल क्यूमो का लिखा प्रहसन ‘मांगय’ किया था, जिसे यूथ फेस्टिवल निदेशालय ने प्रथम पुरस्कार दिया था। इसका निर्देशन अशोक जेलखानी ने ही किया था। इसके बाद अशोक को टीवी में नौकरी मिली-अब यह अपने टीवी की कार्यशाला में टीवी नाटक और स्टेज नाटक के अन्तःसंबंधों पर भी काफी जानकारी हासिल कर चुका था। उसे यह बात भी समझ में आ गई थी कि कश्मीर में थियेटर के लोगों में क्या कमियां हैं। यह सब जानकार ही वह कश्मीर के थियेटर में कुछ नए प्रयोग करना चाहता था। जो कुछ प्राॅडक्शन तकनीक, स्टेज एक्टिंग, संगीत के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ इसे वह अपने मित्रों के साथ बांट कर स्टेज पर लाना चाहता था। प्रशिक्षण में अशोक को पता चला कि रूस के अग्रणीय रंगमंचकार स्टेनस्ला व्हिसकी ने रगंमंच और अभिनय का किस प्रकार बारीकी से सामंजस्य बिठाया है। अभिनेता को कैसे अपने शरीर पर और अवचेतन पर अभिनय की खास तकनीक से नियंत्रण आता है। स्टेज पर दृश्य और श्रव्य के आपसी तालमेल को किस प्रकार प्रकाश और ध्वनि के सम्मिश्रण से व अभिनेताओं के लयातम तादात्मय से पिरोया जा सकता है। इन सब बातों से ओत-प्रोत अब अशोक कश्मीर पहुंचकर अपनी कार्यशाला के अनुभवों को अपने मित्रों के साथ बांटना चाहता था।------------------------------------------------------------------वसंतागमन
जिस प्रकार कहावत है कि बहार अपने आने की तैयारी शीतकाल मे ही करती है, वैसे ही शीतकाल में डार बिल्डिंग में थियेटर कल्बों का वातावरण बाहर की ठंड के अनुपात से काफी गर्म रहता। बसंत के आते फूलों के खिलने के साथ ही नाटकों के मंचन की शुरूआत होती। यह समय नाटकों के मंचन के लिए इसलिए भी अनुकूल रहता, क्येांकि सर्दियों में अथक मेहनत और परिश्रम के बाद स्टूडेंट्स ने परीक्षाएं दी होतीं और अब वे रिज़ल्ट की प्रतीक्षा में खाली समय का उपयोग, आमोद-प्रमोद के लिए कर पाते-श्रीनगर में कुछ युवकों में थियेटर देखने की आदत-सी पड़ गई थी। अक्सर स्टेज से जुड़े अभिनेता और बाकी कलाकार व तकनीशियन अपनी जानकारी में रहने वाले लोगों को टिकट बेचते या ‘पास’ दे आते-इस तरह हाल में श्रोता जुटाए जाते। अशोक जेलखानी की टीम यनी बसंत थियेटर के सदस्यों ने काॅलेज के स्टूडेंट्स युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स और चारों दोस्तों के अतिरिक्त राह चलते लोगों को भी अपना ड्रामा देखने के लिए मनाना शुरू किया-इसके लिए ख़ासी मशक़त से भी गुरेज़ नहीं किया गया। जम्मू-कश्मीर की कल्चरल अकादमी ने नाटकों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विकास के लिए क्लबों को रजिस्टर करना शुरू किया था और बसन्त थियेटर भी एक रजिस्टर्ड क्लब था-रजिस्टर्ड क्लबों को अकादमी उनकी कार्यकुशलता देखने के पष्चात अनुदान रूप मंे कुछ रूपए भी देती। इससे नाटकों के मंचन में कुछ हद तक वित्तीय सहायता मिल जाती। किन्तु अक्सर डार बिल्डिंग में कमरे के किराये का पैसा ‘क्लब’ के सदस्य अपनी जेब से देते। इस बिल्डिंग में संगरमाल, नटरंग, अभिनव भारती, अलंकार के अतिरिक्त और भी कई ‘क्लबों’ ने कमरे किराये पर ले रखे थे। शाम होते ही सब यहां जमा हेाते और हर कमरे में किसी-न-किसी नाटक का रिहर्सल के लिए लड़के-लड़कियां एकत्रित हो जाते। खुशी की बात यह थी कि अब मुसलमान नौजवान लड़के-लड़कियां भी नाटकों के मंचन में सक्रिय हो रहे थे। सजूद सैलानी और अली मोहम्मद लोन जैसे प्रतिष्ठित नाटकारों के नाटक भी मंचित होने लगे थे-पर यह सब तभी हो पाया, जब अशोक जेलखानी ने नाटकों के मंचन में एक क्रांतिकारी बदलाव की अगुवाई की। दिल्ली से प्रशिक्षण पूरा करने के बाद अशोक जेलखानी अपने सहकर्मी मित्र के साथ मुंबई गए। मित्र रविभूषण मिश्रा वास्तव में अशोक के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हेाकर इस मित्र ने अशोक को अपने साथ मुंबई आने का न्यौता दिया-इनके मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री मे काफी अच्छी जान-पहचान थी और इन्हें यकीन था कि एक बार अगर अशोक फिल्मों में ब्रेक ले लेता है तो इसे काफी सफलता प्राप्त होगी। इनका परिचय काफी सफल फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं से कराया गया और इन्हें एक निर्माता ने फिल्म भी आफर की-पर उन्होंने यह भी कहा कि तब आप नौकरी नहीं कर पाएंगे। ऐसा फैसला अशोक अकेले अपने मां-बाप से पूछे बगैर कतई नहीं करना चाहता था। घर लौट कर जब यह प्रस्ताव मां-बाप के सामने रखा गया तो कुन्ती जी यानी अशोक की मां ने साफ कहा कि हम तुम्हें अपनी नज़रों से दूर नहीं जाने देंगे, टेलीविजन एक नया माध्यम है, एक दिन इसमें तुम्हें फिल्मों से भी अधिक यष मिलेगा। नहीं, कश्मीर नहीं छोड़ना है। इस नोट पर सब खामोश हो गए। अशोक अपनी मां का फरमाबरदार बेटा, चुपचाप-वापिस दूरदर्शन के दफ्तर में अपनी ड्यूटी पर चला गया। दिल्ली से साथ लाए नाटकों में से बादल सरकार का ‘एवं इन्द्रजीत’ पढ़कर अशोक को अजीब बेकरारी ने घेर लिया-यह समय कश्मीर के राजनीतिक पटल पर भी अजीब उतार-चढ़ाव से भरपूर था। 1974 के नवंबर माह में पार्थसारथी और अफज़ल बेग़ ने श्रीमती इन्दिरा गांधी, प्रधानमन्त्री भारत सरकार और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नाते एक इकरारनाम साइन किया, जिसे दिल्ली अवार्ड के नाम से जाना गया। इसकी पृष्ठिभूमि किन्तु पाकिस्तान के दिसंबर 3 1972 के भारत पर हमले के गर्भ में छिपी पाकिस्तान की हार में लिखी गई थी। 12 दिसंबर, 1972 को साद्धिक साहब की मृत्यु के बाद मीर कासिम कश्मीर के मुख्यमंत्री बने थे और अब 1974 मे ंदिल्ली अवार्ड के बाद सत्ता का हस्तान्तरण शेख-साहब के हाथों मंे दिया गया। ‘एवं इन्द्रजीत’ के मंचन से पहले इस प्रकार, ऐसा नाटक श्रीनगर में कभी नहीं हुआ था। यह कश्मीर में युवा उत्कर्ष की घोषणा जैसा था। कश्मीर-दिल्ली अवार्ड के बाद जब शेख साहब ने कश्मीर की बागडोर संभाली तो लोगों को इत्मिनान हुआ कि अब आगे की ज़िन्दगी सुख-चैन से बीतेगी। लोगों में शांति और खुशहाली की उम्मीद जागी। इस माहौल ने लोगों को सांस्कृतिक गतिविधियों मंे रूचि लेने का अच्छा अवसर प्रदान किया। कश्मीरी संस्कृति और राज्य के बाकी क्षेत्रों की संस्कृति के विकास व संरक्षण के लिए कल्चरल अकादमी आगे आकर काम करने लगी। रेडियो कश्मीर ने और नाटक-गीत विभाग ने अपनी पैठ कश्मीर के हर जिला, हर गांव में और सुदृढ़ कर दी-यहां के लोगों मंे छिपे कलाकारों को मंच प्रदान किया और इसके नतीजे में बड़गाम, अनन्तनाग, त्राल, सोपोर, बारामुला, व अन्य जिलों से काफी कलाकार उभर कर रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेकर सफलता पाने लगे। चारों तरफ़ कलाओं के प्रोत्साहन का माहौल बन कर खिलने लगा था। टीवी के नए माध्यम ने भी सारे कलाकारों को एक नई उम्मीद प्रदान की थी, इसी माहौल के बीच ‘एवं इन्द्र्रजीत’ का मंचन नए हस्ताक्षर की स्थापना के रूप मंे सिद्ध हुआ। इस नाटक को संयोगवश ‘नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ दिल्ली क कुछ अध्यापकों ने देखा, जिनमें सोन टक्के और कविरत्न भी शामिल थे। ये लोग यहां किसी प्रशिक्षण कैम्प के सिलसिले में आए थे, और यहां पर कुछ लड़के-लड़कियों को एक पखवाड़े का प्रशिक्षण दे रहे थे। ‘एवं इन्द्रजीत’ से बहुत प्रसन्न होकर इस नाटक की चर्चा इन्होंने अपने संस्थान के स्टूडेंट्स तक पहुंचाई और उन्हें कहा कि कैसे कश्मीर में स्वप्रेरित और स्व-शिक्षित लोग थियेटर में नए आयाम जोड़ रहे हैं। यहां कश्मीर से एक नौजवान अभिनेता वीरेन्द्र राज़दन भी अध्ययनरत था। अपने क्षेत्र और लोगों की ऐसी तारीफ सुनकर उनका मन गर्व से फूल गया, उन्होंने कश्मीर आकर अशोक जेलखानी से मुलाक़ात की और उन्हें उनकी सफलता के लिए बधाई दी। वीरेन्द्र राज़दान ने थियेटर और सिनेमा और टीवी में अपने अभिनय के जौहर दिखाकर खुद खासा नाम कमाया। इस नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ को संयोगवश दूसरे या तीसरे शो में उन दिनों के पहले से काफी चर्चित और स्थापित अभिनेता एम.के. रैना ने भी देखा। एम.के. रैना ने अपने अभिनय के जलवे बिखेर कर काफी सुर्खियां बटोरी थीं और ‘नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ के स्टूडेंट के तौर पर नस्सीर-उ-दीन शाह, ओमपुरी आदि की ही तरह सफलता प्राप्त की थी। रैना इस नाटक से कितने प्रभावित रहे यह इस घटना से समझ सकते हैं। एम.के. रैना वास्तव में श्रीनगर में अपने पुश्तैनी घर से, जहां उनकी अच्छी-खासी किताबों की लाइब्रेरी थी और जिनमें से अधिक्तर किताबें, लिट्रेचर और थियेटर पर थी, इन किताबों को अब दिल्ली अपने निवास स्थान ले जाने के लिए आए थे। किन्तु अशोक जेलखानी का नाटक और अभिनय देखकर इन्हें मन में कुछ और सूझा। अशोक जेलखानी ने एम.के. रैना का हाालांकि काफी नाम सुना था, पर दोनों में कोई फाॅरमल परिचय नहीं थी और दोनों एक-दूसरे को निकट से नहीं जानते थे। इस बात से बेखबर कि एम.के. रैना क्या चाहते हैं, अशोक जेलखानी को एम.के. रैना की तरफ से एक मुलाकात का न्यौता बहुत प्रसन्नता से भरने वाला सिद्ध हुआ। ज्यों ही एम.के. रैना ने अशोक जेलखानी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की, अशोक का मन प्रसन्नता से भर गया। रैना साहब अब तक कश्मीर से दिल्ली में कार्यरत काफी सफल और प्रतिष्ठित रंगकर्मी और अभिनेता स्थापित हो चुके थे, दोनों की मुलाकात में काफी सारी बातें थियेटर और समूचे माहौल आदि पर हुई अशोक ने नोट किया कि एम.के. रैना के पास किताबों से भरा एक भारी-भरकम बैग है, सोचा दिल्ली निकल रहे हैं, तो कुछ खरीदारी की होगी, या... पर मीटिंग खत्म होने के समय एम.के. रैना बड़ी सौम्यता से अशोक से बोले, ‘मैं ये किताबें अपने यहां के घर से दिल्ली के घर ले जा रहा था, पर कल तुम्हारा नाटक देखकर लगा कि वहां से अधिक यहां इनका सही उपयोग होगा, क्या तुम यह भेंट स्वीकार करोगे, देखो इसके साथ एक दायित्व भी जुड़ा है।’ अशोक को लगा जैसे हीरे-मोतियों भरे अनेक खजाने उसे देने की बात की हो और कह रहा हो कि इन्हें लोक-कल्याण के लिए उपयोग में लाने का दायित्व अब तुम्हारे ज़िम्मा है... अशोक का मन हर्ष-उल्लास और संतोष से भर गया, उसका माथा अपने वरिष्ठ भाई के प्रति आभार में झुक गया और उसने इस सद्भाव को मन की गहराईयों से मंजूर किया... यह वाकिया अशोक को काफी बड़ी सीख भी दे गया, जिसे उसने जीवन भर याद रखा और वह सीख थी कि ज्ञान बांटने की चीज़ है और बांटने से यह समृद्ध होता है। एक परंपरा जो काफी प्राचीन काल से कश्मीरी जनमानसक में पनपी और फलीभूत हुई है कि बड़े छोटों को कैसे प्रोत्साहन, मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इन्हीं परंपराओं ने हमारे अंदर सामूहिक हित और सामाजिक ज़िम्मेदारी के अहसास को जन्म दिया था-मंच पर काम करने वाले लोग अब भी इस परंपरा और ज़िम्मेदारी को समझते हैं व इसका मान और पालन करते हैं। यह प्रथा आज के व्यक्तिवादी सोच से बिलकुल अलग है। व्यक्तिवादी सोच दूसरों को नीचे खेंच कर खुद ऊपर जाने की प्रेरक है पर सामाजिक हित में अपना हित समझने वाली सोच ने सबकी राह प्रशस्त और उजवल करके अपनी राह तलाशने का बीड़ा उठाया होता है। जब अधिकतर लोगों को देश-दुनिया में उन सबके योगदान से हो रही उन्नति के फल से कुछ चालाक लोग मिलकर उन्हें इस फल से वंचित करते हैं और संसाधनों पर अपना हक़ और कब्जा जमाते हैं तो उपद्रव होते हैं। बदअमनी फैलती है और मारा-मारी का माहौल पैदा होता है। आज कमोबेष ऐसा ही हम होता देख रहे हैं। ‘एवं इन्द्रजीत’ के सफल मंचन और मंच विधा की नयी तकनीक के प्रतिपादन ने अशोक जेलखानी को न केवल एक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई बल्कि छोटी उम्र में ही इसे एक स्थापित कलाकार का दर्जा भी दिलाया। इस नाटक की खूबी यह बताई जाती है कि पहली बार श्रीनगर के टैगोर हाल में, किसी नाटक में ध्वनि, प्रकाश और अभिनेताओं का संयोजन इस प्रकार से हुआ था कि दो घंटे के नाटक में केवल एक बार पर्दा गिरा। नाटक एक बार शुरू होकर अन्त में ही रूक गया। कहीं कोई पर्दा नहीं गिरा न कोई दृश्य बदलने के लिए बार-बार स्टेज पर प्राॅप्स बदले गए। किन्तु खूब बात यह रही कि इस सबका भरपूर अहसास दर्शकों को ध्वनि, प्रकाश के प्रभावों से ऐसा दिया गया कि दर्शक दीर्घा में बैठे सारे लोग, कभी यह महसूस नहीं कर पाये कि दृश्य न बदले गए हों। इतना ही नहीं, इस नाटक में एक युवती ने बहुत बढ़िया काम किया, वह आगे चलकर कश्मीर की प्रमुख अभिनेत्रियों में गिनी जाने लगी। इस अभिनेत्री को कश्मीर का हर खास, आम इसके अभिनय कौशल के कारण जानने लगा, इसका नाम भारती जाड़ू (ज़ारू) है। भारती का यह पहला हिन्दी नाटक था। भारती और आशा दोनों बहिनों ने कश्मीर के रंगमंच, रेडियो और टी.वी. में ख़ासा नाम कमाया-आशा जाड़ू अब संगीत-नाटक निदेशालय से जुड़ी है और भारती अभी भी फ्रीलांस (शोकिया) अभिनय करती हैं। दोनों अशोक के बारे में बहुत तारीफें करती हैं। भारती ने बातों-बातों मंे कहा कि उसका मन इस आदमी की अत्यन्त प्रबुधता और सकुमार सहजता व सौम्यता पर हज़ार बार न्यौछावर होने को होता-बहुत प्यारा और सहृदय साथी रहा हमारा। स्त्रियों की इज़्जत करना कोई इनसे सीखे। लड़कियां इसकी कम्पनी में हमेशा न केवल सुरक्षित महसूस करती अपितु जिस प्रकार से यह लड़कियों में विश्वास जगाते उससे इनके साथ काम करने वाली सारी लड़कियां एक स्वतन्त्रता, और आत्मविश्वास से भर जातीं। इन्हें कितना भी तंग करते या इन पर कितने भी फिकरे कसते ये कभी बौखलाते नहीं, थियेटर में लड़कियां हर काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती और अभिनय के अतिरिक्त प्राॅडक्शन के बाकी काम भी सम्हालती। वसन्त थियेटर की डार बिल्डिंग के सबसे ऊपरले तल पर हमारा कमरा था और हम रोज़ शाम को इस्टो जला कर चाय बनाते, चाय कमल ककड़ी और चावल के आटे से बनी विशेष पकौड़ियों जिन्हें कश्मीरी ‘नदिर मोंजि’ कहते हैं के साथ पी जातीं। अब चाय बनाने और जूठे कप धोने के लिए, पानी निचले तल से चार पौड़ियां चढ़कर लाना पड़ता। इसके लिए हर रोज़ बारी-बारी हर सदस्य पानी की बाल्टी नीचे से लाता। इसमें सिर्फ लड़कियों को छूट दी गई थी। सारे लड़के अपनी बारी पर बिना कहे नीचे से पानी की बाल्टी भर कर लाते, अशोक जेलखानी, जो कि अब ग्रुप के लीडर और खास प्रतिष्ठित कलाकार व आफीसर भी थे, भी अपनी बारी के दिन पानी कि बाल्टी निचले तल से भर कर लाते। यहां सब एक जैसे थे-सब एक साथ मिलजुल कर काम करते थे और सब अपनी ज़िम्मेवारी और दायित्व समझते थे-अशोक काम के समय एकदम एक सख्त और कठोर व्यक्ति में बदल जाते, किसी से कोई रियायत नहीं बरते-काम में ग़ज़ब का अनुशासन पालन पहली शर्त थी। इसके साथ कोई समझौता नहीं, वह अक्सर ‘मो-त्से-तुंग’ का यह मशहूर मुहावरा दोहराते, ‘डोंट मिक्स पलेजर विथ द बिज़नेस’ काम के बाद लड़कियों के निकलते ही ये लोग बोतल खोलकर बैठ जाते और पीने पिलाने के दौर शुरू होते। यहां वह सब कुछ होता, जिसको श्रीनगर का अवसत मध्यम वर्ग अपने घरों में पर्दें में रखकर करता-हमें मन में काफी उत्सुकता रहती कि हम भी देखें ये लोग आखिर हमारे बाद यहां करते क्या हैं, एक दिन जानबूझ कर अपनी कोई चीज़ थियेटर में भूल कर आई, कुछ समय बाद जब वे वापिस थियेटर वह चीज़ लाने गई तो देखा सारी बिल्डिंग मंे कोई नहीं है। सब तरफ सन्नाटा है। सारे कमरों के बाहर ताले पड़े हैं। बाहर पास के नानवाई से पता करने पर, जान गई कि सब लोग कोई ‘फिल्म’ देखने गए हैं। मन में बहुत अफसोस हुआ-दूसरे दिन पता चला कि सब लोग रीगल में ‘पेपीलाॅन’ देखने गए थे, ‘डस्टन’ हाफमेन और ‘मेक क्ूयन्सी’ का सब में ज़बरदस्त क्रेज़ था और यह फिल्म व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बनी थी, जिसके हम दिल से दीवाने थे।’ भारती जी से बात करके लगता है कि वह उन क्षणें को उन पलों को काफी निकट से संजोये हैं। उनकी आंखों में लेकिन एक अश्रुधारा से तैर रही थी, जब इसका कारण पूछा तो कहनी लगीं कि ‘वे दिन जैसे अचानक कहीं खाई में खो गए हों, शायद हम अब बूढ़े हो गए हैं, शायद हम अब बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए या फिर कश्मीर से निकाले जाने के कारण ऐसा लगता हो। अंधेरा रौशनी के आते मिट जाता है। आदमी आंखें खोलकर दुनियां देख पाता है। पर कुछ लोगों को दूसरों को निरन्तर अंधेरे मं रखने में ही अपनी भलाई नज़र आती हैं। वे नहीं चाहते कि जो दुनिया का सच उजाले में लोग देख सकते हैं, वह वे देख पाए। ऐसे लोगों के कारण हमारा जीवन नरक बन जाता है। किसी को गुमां भी न था कि हमारे बीच कुछ लोग, ऐसी तमना और ऐसा सच लेकर जी रहे हैं। वे मौके की तलाश में हैं। हम सब रंगकर्मी जीवन की विभिन्न अटखेलियों, रंगों, अंगों और भावनाओं व भंगिमाओं को, सहृदय तक पहुंचाने में जुटे थे। हमारे पैरों तले कोई धरती उकेर कर ले जा रहा था। किन्तु सृजनरत लोगों को भविष्य का सांप सूंघ जाता है। हम अपने इर्द-गिर्द हो रहे अंधेरे के फैलाओं को भांप और नाप रहे थे। सोहन लाल कौल कश्मीर विश्वविद्यालय में उर्दू में एम.ए. में अध्यनरत था। एक निहायत मेहनती, होनहार और काबिल लड़का। विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग को उसकी काबलियत पर नाज़ था। खूबसूरत नवजवान जाने क्यों कभी शेव नहीं करता। घने काले बाल, चमकता चेहरा, तेजस्वी, रंग-रूप कद नाटा दरमियाना, यह नवजवान ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर अशोक जेलखानी से इस कदर प्रभावित हुआ था कि लनगभग रोज़ रेज़ीडेन्सी रोड पर उसे देखने के लिए काफी देर रूका रहता। पर देखने के बाद हाथ मिलाकर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटाता। उसे लगता कि कोई भी औपचारिक बातचीत उसके परिचय के लिए काफी नहीं थी। वह काफी सारी बातें करना चाहता था। पर, किसी परिचय के अभाव में यह सब कैसे मुमकिन हो। एक साल इस तरह गुज़र गया। अशोक जेलखानी की प्रमोशन हो गई और वह प्रोड्यूसर बन गए। नाटकों में काफी नाम कमाने के कारण अब उस समय के स्टेशन डायरेक्टर शैलेन्द्र शंकर ने अशोक को नाटक ही करने को दिए। यह एक चैलेंजिंग जाॅब था। क्यों? अक्सर नाटक किसी बहुत ही अनुभवी और सिद्धहस्त निर्माता को ही बनाने को दिए जाते। एक बिलकुल कनिष्ठ निर्माता को नाटक का निर्माण कार्य देकर डायरेक्टर पर सब सवालिया उंगली उठा सकते... बल्कि अधिकतर ने, इस बात को लेकर फिकरे कसने भी शुरू किए थे। अशोक इस अवसर को अपने थियेटर के अनुभव और दिल्ली में टी.वी. के प्रशिक्षा के अनुभव पर पूरा उतरने के रूप में देख रहा था।----------------------------------------------------------------नये आयाम
हरिकृष्ण कौल, कश्मीर के जाने-माने हिन्दी और कश्मीरी साहित्य के स्थापित कथाकारों में से थे। उनके कई रेडियो नाटक लोगों ने बहुत पसन्द किए थे। हिन्दी में उनका ख़ासा नाम राष्ट्रीय स्तर पर चमका था। उनकी कहानियां प्रमुख पत्रिकाओं में छप चुकी थी-पेशे से काॅलेज प्रोफेसर, मिज़ाज से हलके-फुलके व्यंग्य के पुट लिए वे कश्मीर के स्थपित स्टार लेखकों मंे से थे। इन्हीं का लिखा एक नाटक कश्मीरी में टी.वी. के लिए बनाने का अशोक ने फैसला किया, इस नाटक का नाम ‘दस्तार’ यनी ‘पगड़ी’ रखा गया। यह नाटक एक सुपरहिट नाटक सिद्ध हुआ। इसमें कश्मीर की अत्यन्त खूबसूरत और दिलकश व निहायत कमसिन लड़की जलवा अफ़रोज हुई जो बाद में एक मंजी हुई कलाकार के रूप में रेडियो, टी.वी. और स्टेज पर एक दशक तक छायी रही। इस लड़की को बच्चा-बच्चा एक अनोखे नाम से जानता... ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ यह संवाद दफतर में काम करने वाला एक विरिष्ठ कर्मी इस लड़की को देखकर नाटक से प्रेरित होकर लिखा गया था, पर यह कश्मीरी जन-मानस की मानसिकता पर अत्यन्त फिट हो गया था। एक बुजुर्गवार कर्मचारी दफ्तर में आई नई, और यंग स्टोनों को देखकर फिर से अपने जवानी के ख्वाब देखने लगता है, इस चक्कर में वह सिर से पगड़ी हटा कर बचे-खुचे वालों में डाई लगाने, लगता है तरह-तरह से जवान दिखने की कोशिश करता है और अपने रूतबे और पोस्ट का रौब भी लड़की पर जमाना चाहता है, इस तरह लड़की को इम्प्रेस करके उससे प्यार की पेंग बढ़ाना चाहता है, लड़की अफसर की इस नियत को भांपती है और उसे बेवकूफ बनाती है। वह इसी दफ्तर में काम कर रहे दो नवजवानों से मिलकर इसका भांडा-फोड़ देती है। यह एक अति उत्कर्ष वाली काॅमड़ी थी-लोग एक्टरों का अभिनय, शाॅट और सीन के तालमेल और बैकग्राम्ड में दिए गए म्यूज़िक और ध्वनि के इफेक्टों से बहुत प्रभावित हुए थे। शाम को प्रसारित होने के बाद, हर जगह हर घर में इस नाटक की चर्चा हुई, इसमें भाग लेने वले मुख्य कलाकार, हृदय नाथ गुरूटू (वरिष्ठ आॅफीसर) ‘तेजतिक्कू’ अशोक जालपुरी (क्लर्क) और रीता जलाली स्टोनों, रातों-रात स्टार बन गए। हर घर, मुहल्ले और बाजार में इसी नाटक की चर्चा महीनों चली, और गुस्टू साहब का कहा यह संवाद ‘राम लगय चान्यि लीलाय’ लोगों का तकिया कलाम बना। वास्तव में गुरटू जब भी रीता को नाटक में देखते तो उसका स्वागत इसी संवाद से करते और जब वह इनसे अलग होती तो यही संवाद दोहराते-सारे नाटक का यह एक ‘पंचवर्ड’ साबित हुआ और अब दर्शक भी रीता से यहीं कहने लगे, ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ और गुरटू साहब से विशेष इसरार करते कि वह आंखें वैसे ही आसमान में गाड़ कर दुआ की मुद्रा में हाथ उठाकर एक बार कह दें ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ इसका अर्थ होता है‘राम में तेरी लीला पर वारी जाऊं’। इस नाटक की सफलता ने अशोक जेलखानी का सिक्का टी.वी. नाटक निर्माता, निर्देशक के रूप कायम किया। अभी तक कुछ लोग जो अशोक के स्टेज नाटकों को देखकर इसे गिमिक मास्टर पुकारते, और कहते कि स्टेज लोगों को अचम्भित करने की जगह नहीं, अब अचानक मानने लगे थे कि नहीं भई, ‘कुछ तो बात है इस आदमी में... और यही बात नवजवान और मेधावी उर्दू लिट्रेचर के स्टूडेंट सोहन लाल को अशोक की तरफ खेंच रही थी। सोहन लाल का मन इसी प्रकार कुछ कर गुज़रने को बेकरार था। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए, सोहन लाल ने अब दूरदर्शन जाकर अशोक जेलखानी से मिलने की ठानी-वह कश्मीर विश्वविद्यालय की बस से जो जीरू ब्रिज पर रूकती, उतर कर लगभग रोज़ दूरदर्शन के जंगले को लांघ कर अशोक के कमरे तक पहुंचता। दरवाज़े पर लगे, पर्दें को हलके हटाता अंदर झांक कर वापिस निकलता-उसे कभी अशोक स्क्रिप्ट में व्यस्त नज़र आता तो कभी कलाकारों के साथ रिहर्सल करते, इस तरह बिना कुछ कहे वह निकल जाता-अशोक ने ताड़ लिया कि यह नवजवान रोज़ आता है, सिर्फ नज़र भर देखकर जाता है, जरूर इसमें कुछ राज़ है। एक बार रेजिडेन्सी मोड़ पर अशोक मित्रों और कलाकारों के साथ खड़ा था कि उसकी नज़र सामने मोड़ के दूसरे किनारे खड़े सोहन लाल पर पड़ी। अशोक ने सोहन लाल को इशारे से पास बुलाया। अशोक ‘लगता है मैंने तुम्हें दूरदर्शन में कई बार देखा है’ तुम क्या करते हो।’ सोहनलाल: मैं पढ़ाई कर रहा हूं, मेरा नाम सोहन लाल कौल है और मैं आपसे े मिलना चाहता हूं। अशोक: हां तो इसमें दिक्कत क्या है, तुम दफ्तर तो आते हो-कभी भी मिल लो-कहां पढ़ते हो? सोहन लाल: युनिवर्सिटी उर्दू में एम.ए. कर रहा हूं। अशेक: तुम ऐसा करो, कल चार से पांच के बीच में आओ, कुछ लिखा हो तो साथ लेते आना... सोहन लाल: (चेहरे पर सुर्खी छा गई) दिल की गति बढ़ गई और सोहन लाल को यह आदमी बिलकुल सहज और आसान लगा। वास्तव में एक साल पहले सोहन लाल ने एक नाटक लिखा था, यह नाटक कश्मीरी भाषा में ‘ग्रद्ध’ शीर्षक से लिखा था-ग्रद्ध कश्मीरी में, गिद्ध को कहते हैं। नाटक लेकर सोहन लाल अशोक जी के पास दूरदर्शन दफ्तर गया, वहां नाटक सौंप कर वापस आया। एक महीने तक जेलखानी के यहां से कोई खबर नहीं आई। सोहन लाल के मन में तरह-तरह के सवाल उठना स्वाभाविक था, हो सकता है नाटक पसंद नहीं आया हो, इसलिए कोई बात नहीं हो रही। या हो सकता है अभी तक पढ़ा ही न हो। कितने मसरूफ रहते हैं। फिर और भी मंजे हुए नाटकारों के नाटक पास में पड़े धूल चाट रहे होंगें फिर अपनी तो अभी इतनी अवकाल भी कहां कि जाकर पूछे भई बताओ तो सही नाटक पसंद आया या नहीं। अरे तो क्या हुआ, और कोशिश करेंगे पर कुछ तो कहो... इसी सोच में जब एक महीने से भी अधिक बीत गया तो सोहन लाल की अचानक मुलाकात अशोक जेलखानी से के.एम.डी. बस स्टेन्ड के पास हुई। यह तब लाल चैक के पीछे बड़शाह ब्रज की तरफ जाने वाली सड़क के पूरब से उत्तर की तरफ जाते दाहिने हाथ पर था। यहां युनिवर्सिटी की बस से उतरते सोहन लाल की नज़र अशोक जेलखानी पर पड़ी जो किसी दोस्त के था सिगरेट के कश लेते बातों में व्यस्त थे। तभी अशोक ने भी सोहन लाल को देखा और पास आने का इशारा किया-हाथ मिला कर अभिवादन के बाद छूटते ही कहा कि तुम्हारा नाटक मैंने पढ़ लिया-इसके बाद अशोक ने खड़े-खड़े ही नाटक के हर पहलू पर सोहन लाल से विस्तार से बात की। सोहन लाल एकदम आश्चर्यचकित देखता रह गया-उसने सोचा भी न था कि अशोक जेलखानी इस तत्परता और बारीक-बीनी से स्क्रिप्ट का निरीक्षण और पाठ करते होंगे। इस भेंट के बाद सोहन लाल कौल और अशोक जेलखानी में आपसी समझ-बूझ और मित्रता बढ़ी। सोहन लाल ‘अशोक जेलखानी के स्टेज पर अभिनय के जौहर देखकर दंग रह गया। ‘पंछी ऐसे आते हैं’ के शो को देखने साहन लाल अपने युनिवर्सिटी के मित्रों को साथ ले आया था। इस नाटक में लंबी ‘सोलोल्यूकी’ स्वागत कथन को जिस खूबी के साथ दर्शकों को अपने साथ बांध कर रखते, अशोक जेलखानी ने प्रस्तुत किया, दूसरे रोज़ इसका ज़िक्र थियेटर के दर्शकों में ही नहीं अपितु श्रीनगर मे ंउस समय के सारे प्रमुख पत्रों में था-इंडिया काफी हाउस के भीड़ भरे हाॅल में शायद ही कोई कोना खाली था, जहां लोग इस नाटक की चर्चा नहीं कर रहे थे। सोहन लाल कौल भी अपने दोस्तों के साथ काफी हाउस में यह सूरत देखकर बहुत स्तब्ध सा लगा रहा था। अशोक जेलखानी के अभिनय और निर्देशन का वह मोहतात हो चुका था। सब इस ग्रुप की मन से प्रशंसा कर रहे थे। यहां यह कहना अनुचित न होगा कि दर्शकों के वर्ग में बहुत बड़ी तादाद कश्मीरी मुस्लिम लड़के-लड़कियों की भी थी। इस नाटक में एक मुस्लिम अभिनेत्री ने ग़ज़ब का काम किया था। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक पटल पर कमोबेश शांति दिख रही थी-शेख साहब ने हकूमत संभालते ही-कृषि संबंधित गैरहाज़िर जमीनदारों के बेदखल करने का कानून पास किया-इसके बाद बचे-खुचे हिन्दू ज़मींदार ज़मीनों से बिल्कुल वंचित किए गए और ज़मीन खेतिहर को मिली जो अधिकांश मुसलमान थे। जम्मू में जम्मू युनिवर्सिटी कायम हुई-और मुंबई जम्मू के बीच एक सुपरफास्ट रेल चलाई जानी नियत हुई। जम्मू , जहां पिछले कई वर्षों से कुछ खासा विकास नहीं हुआ था, विकास के मानचित्र पर आने लगा। कलचरल अकादमी के तत्वाधान में जम्मू में अभिनव थियेटर का निर्माण हुआ। इस से जम्मू की नाट्य संस्थाओं का बहुत उत्साह जगा-यह थियेटर उस समय अपने आप में अत्याधुनिक साउंड और लाइट सिस्टम से लेस था-यहां पर अकादमी के फेस्टिवल अलग से होने लगे और जम्मू में नाटक की विधा को प्रोत्साहन मिला। शेख साहब ने सरकारी अहलकारों की तनख्वाहें केंद्र के बराबर कर दीं। अब डी.ए. केंद्र के सूचकांक के बराबर कर दिया जाने लगा। किन्तु इमरजेंसी के बाद इन्दिरा गांधी एलेक्शन हार गई-और जनता पार्टी के लीडर मुरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने। कश्मीर की राजनीति में भी इस का असर साफ देखने को मिला। जिस कांग्रेस ने शेख साहब के साथ उकार्ड करके सत्ता हस्तांतरण की-वह अब राज्य की राजनीति में अलग-थलग दिख रही थी। कांग्रेस के कार्यक्र्ता, जिन्हंे केन्द्र काफी भाव देती और जो पिछले 20-25 साल से निर्बाध राज कर रहे थे, अब राज छिन जाने से अवाम में बहुत हद तक बेअसर हो गए थे। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता ऐतिहासिक बदले की भावना से पेश आ रहे थे। निचले तबके के कांग्रेस कार्यकर्ता, जिनका रोज़गार कांग्रेस पार्टी से जुड़ा था, अब यतीमों की तरह लग रहे थे। नेशनल कांफ्रेंस जो कि पहले ‘पेलिबिस्ट फ्रंट’ था, के कार्यकर्ता जिनके घरों में कांग्रेसी मुसलमान रिश्ता नहीं जोड़ते अब अपनी बेटियों के लिए और बेटों के लिए रिश्ते खोजने में लगे थे ताकि सामाजिक शासन लौट आए। दिल्ली की सत्ता से बेदखल राज्य की सत्ता से दूर, राज्य के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को जमाते-इस्लामी के पैरवकार जंचने लगे-इनकी घनिष्ठता जमात के लीडरों से बढ़ने लगी। एक दल तो पूरा ही जमात समर्थक बना। इस फ्रिक्शन ने वादी के माहौल में साजिशों के जाल बुनने शुरू किए। अचानक ही, साहित्य और कला के इतिहास और भाषा के उद्धभव व विकास के सिलसिले में भ्रामक लेखों का छपना, प्रचारित होना और इस तरह के वाद-विवादों का चर्चा में आना प्रारंभ हुआ। कश्मीर की सदियों से चली आ रही रिवायतों पर एक अलग दृष्टिकोण से बहस छेड़ी गई। 30 जून, 1977 में शेख साहब ने वादी में पूर्ण बहुमत से इलेक्शन जीते-इसके बाद कांग्रेस हाशिये पर नज़र आई-इसी वर्ष 25 जून को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने श्रीनगर का दौरा किया था। अक्तूबर 7, 1978 में वल्र्ड बैंक के प्रेसीडेंट राबर्ट मेकनमारा श्रीनगर आए। दुनिया को यह जताया गया कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत के साथ अंतिम है और इस पर कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसी दौर में वादी के लोक-कलाकार और संगीतकार व गायकों के जत्थे दुनियां भर के दौरे पर निकले और दुनियां की बड़ी-बड़ी राजदानियों मंे अपनी कला के जौहर दिखाए गए। संगीत-नाटक विभाग रेडियो, दूरदर्शन और राज्य सरकार की कल्चरल अकादमी व सूचना प्रसारण मंत्रालय मिलकर जम्मू-कश्मीर की कलाओं के विकास के लिए काम करने लगे। श्रीनगर में बेखौफ महिलाएं, बच्चे, बूढ़े जवान रात-दिन घूमते-घामते नज़र आते। रेडियो पर लोकप्रिय गायकों के गीत कश्मीरी जीवन के रहन-सहन का पर्याय बन गए-नई पीडी के गायकों में विजय मल्ला, गुलाम नबी शेख, रहमत-उ-ल्ला खान, शमीमा देव, (बाद में षमीमा आजाद), कैलाश मेहरा, आरती तिक्कू ने धूम मचाई और नई आवाज़ों ने नए संगीत और धुनों से सम्मोहन बिखेर दिया-कश्मीर का एक अलग रंग और अपनी अलग संस्कृति को इन कलाकारों ने स्वर दिये ।इन कलाकारों को कालजयी धुने प्रदान की कषमीर के मूल्यवान रत्न भजन सोपोरी जी ने। भाजन जी आज भारत ही नहीं विष्व के प्रख्यात संगीतकारों मे गिने जाते है। नसरउल्ला खान, वीरेन्द्र मोहन का अपना एक महत्वपूर्ण योगदान रहा इस सब में। इनके कई संगीत कार्यक्रम यहां टैगोर हाॅल और अभिनय थियेटर में भी पेश हुए। इन कलाकारों ने टी.वी. पर अपने शो दिए और लोगों में यष व षोहरत पाई। इसी माहौल में हमारा कश्मीर का नाटक सांस ले रहा था-जो भाषा की हदें लांघ गया था-कश्मीरी थियेटर में एक तरफ प्यारे रैना अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी नाटकों के हिन्दी एवं कश्मीरी रूपान्तरण पेश कर रहे थे। तो दूसरी ओर अशोक जेलखानी बंगला, उड़िया, कन्नड़, हिन्दी और मराठी नाटकों के हिन्दी रूपान्तरण स्टेज पर ला रहे थे। कश्मीर की दर्शक दीर्घा को इस प्रकार अपने देश ही नहीं, सारे विश्व के नाटकों का मंचन देखने को मिल रहा था। यह इस बात को और महत्वपूर्ण बनाता है कि कश्मीरी युवा वर्ग सीमित भौगोलिक दायरे को लांघ कर विश्व भर से जुड़ने का प्रयास कर रहा था। इस प्रयास को आगे बढ़ाने में अशोक जेलखानी ने एक अग्रण्य भूमिका निभाई। पर यह तब मुमकिन हो सका, जब श्रीनगर में एक प्रबुद्ध दर्शक वर्ग पहले से मौजूदा था। यह दर्शक साहित्यिक रूचि रखता था और साधारणीकरण बोध से परिचित था-दर्शक और नट-नटी सबको इस बात का अहसास था कि काव्य की सम्प्रभुता में बाधक तत्वों को किस तरह दूर किया जाता है। और इसमें सबसे अच्छी महारथ अशोक-जेलखानी ने प्राप्त की थी। अशोक को दर्शकों की नाटक में रूचि बनाए रखने के तत्वों का खयाल रहता। लंबे बोझिल संवाद और शिथिल कथोपकथन को वह रोचक बनाने के लिए कई बार बदल भी देते। सोहन लाल कौल उर्दू साहित्य का विद्यार्थी था पर नाटकों से खासा लगाव था इसलिए अंग्रेज़ी, हिन्दी, मराठी नाटकों का अध्ययन भी करता-विश्व भर के कहानीकार और नाटककार से परिचय रखता। सोहन लाल ने अशोक जेलखानी के बसन्त थियेटर मे ंएक ऐक्टर जो मुंबई से आया था और एक भूमिका निभा रहा था, उसके मुंबई जाने पर उस पात्र की भूमिका स्टेज पर निभाई-इसके बाद अशोक जी के साथ ‘कस कुस प्रारान’ ‘दोन कोहन अन्दर’ ‘हेनरुक क्योम’ ‘अंडर सेक्रेटरी’ अंतोन चेखव’ ‘सोलह जनवरी की रात’ और ‘राहें’ नाटक दूरदर्शन के लिए लिखे। ‘राहे’ में अशोक जेलखाने ने सोहन लाल के निर्देशन में अभिनय किया। सोहल लाल कौल स्वयं दूरदर्शन में नौकरी के लिए प्रयासरत था और अशोक ने उसे इसके लिए अगाह किया था। आज सोहन लाल कौल को अपनी ग़लती का अहसास है। उसका कहना है कि मुझे यहां नौकरी नहीं करनी चाहिए थी, मैंने उर्दू में डाक्टरेट किया था, यहां आकर मैंने अपनी सारी क्रियेटिवटी खो दी। सोहन लाल कौल की यह टिप्पणी बहुत मायूस कर देती है। पर शायद यह एक सच्चाई है। जिस सच्चचाई का अहसास अशोक जेलखानी ने उसे दिलाया था-हालांकि ऊपरी तौर पर देखें तो लगता है कि सब ठीकठाक चल रहा है। पर अशोक जेलखानी बिना निजी अनुभव के ऐसी राय कदापि न देते। जब रचनात्मक सोच कायदे कानून और अफसरशाही की बंदिशों में बंध जाती है तो कलाकार घुटन महसूस करता है। उसे अपनी रचना प्रक्रिया अफसर को समझानी मुश्किल होती है। दफ्तरी नज़रिया अफसरों के मंतिक के कारण भी रचनात्मकता में बाधक बनता है। दफ्तरी तौर-तरीके खाना-पूर्ति और औपचारिक उठा-पटक में उलझे रहते हैं। हालांकि अशोक ने शायद ही कभी दफतरी तवालत को अपनी रचनात्मक क्रिया के आड़े आने दिया हो पर एक बार दफतर पटा गले में पड़ने के बाद आदमी को वही करना पड़ता है, जो आदेशित होता हो। इस बात पर यहां यह कहना अवान्तर न होगा कि एक बहुत ही काबिल निर्माता बशीर बड़गामी ने कश्मीरी में एक लाजवाब टेलीविजन फिल्म ‘हबाॅखातून’ बनायी इसके बाद उसे कई प्रकार से प्रताड़ना सहनी पड़ी। इन्दिरा गांधी जब आपातकाल में लोगों का विश्वास खोती नज़र आ रही थी, तो उन्होंने अपने प्रचार-प्रसार और कांग्रेस की नीतियों की प्रचार व्यवस्था मज़बूत करने के लिए, सरकारी संचार माध्यमों का इस्तेमाल भी किया-एक समाचार फीड दिल्ली से श्रीनगर आया और इसे शाम के बुलेटिन में शामिल करने को कहा गया था-फीड जब प्रीविव हुआ तो देखा गया कि पार्टी कार्यकर्ता बेमन होकर इन्दिरा जी का भाषण सुन रहे हैं, आमतौर पर भाषण के बाद ‘जय हिन्द’ नारा लगाने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल भर जाता, पर इसमें इन्दिरा जी ‘जय हिन्द’ बोलती तो लोग वापस कुछ नहीं कहते और भाषण समाप्त होने पर किसी ने ताली भी नहीं बजाई... टेप के केस जिसमें टेप रखा गया होता था, में एक काग़ज़ चिपका अशोक को मिला इस पर लिखा था-प्लीज ऐड क्लिेप इन द एंड। ‘कृपया आखिर में तालियां जोड़ दें’ अपने राष्ट्र की एक पावरफुल प्रधानमंत्री के भाषण पर कोई जब खुश नहीं हुआ तो हमें उस खुशी को अलग से पैदा करने को कहा गया, यह भूमिका शायद आज भी अधिक नहीं बदली है।’ प्राइवेट चैनलों में भी नहीं, वहां जो पैसा फेंकता है वह कुछ भी भजवा सकता है। एक अन्य घटना वादी के ‘शेर’ से जुड़ी है। ‘शेरे कश्मीर शेख मुहम्मद अब्दुल्ला-श्रीनगर स्टूडियो में लोगों से मुखातिब होनेे आए।’ यह शायद 1978 के इलेक्शन के संबंध मंे ही है, लोगों से उनका संबोधन रिकाॅर्ड हुआ-वे अपने स्टाॅफ के साथ निकल पड़े-अशोक की नज़र ‘डाइस’ पर पड़े उनके चश्में पर पड़ी-‘शेख’ साहब अपना चरचमा स्टूडियो में भूल गए। अशोक ने चश्मा उठाकर अपने स्टाॅफ को दिखाया-स्टाॅफ के लोग इसे आंखों से लगा कर चूमने लगे-कुछ ने यहां तक कहा कि वापिस ही मत दो किसी दिन यह आपके पास इनकी नायाब निशानी के तौर पर बहुत मूल्यवान समझी जाएगी। आज यह शब्द एक व्यंग्य की तरह लग रहे हैं-पर यह शेख साहब का वर्चस्व था। ऐसे किस्से कितने हुए होंगे। जब अधिकारियों से एक राय नहीं रहे होंगे। पर अशोक ने मुंह लगना नहीं सीखा था-इसके संस्कार और शिक्षा बिलकुल अलग थी। हर हाल में अपने सीनियर का कहा मानना और उसे इज्जत देना छोटों को प्यार और सम्मान देना-कोई इससे सीखे। इन्होंने अपने कैरियर में कभी यह नहीं सोचा कि बस इन्हें नाटकों मंे महारत है तो नाटक ही करेंगे। टीवी में इनकी भूमिका इन्हें एक कार्यक्रम निर्माता के रूप में दी गई हैं। कार्यक्रम कोई भी हो यह इसे उतनी ही खूबी के साथ बनाते हैं, जैसे नाटक बनाते, इसीलिए, म्यूजिक साहित्य, खेल-खिलाड़ी, बच्चों के प्रोग्राम, खतों के जवाब... हर तरह के कार्यक्रम इन्होंने टीवी में प्राॅड्यूस किए। इनकी इस कामयाबी से कुछ लोग हताश भी थे और इन्हीं की हताशा ने अशोक जेलखानी को एक बार बड़े विचित्र संकट में डाला। एक अभिनेत्री जो किसी भी नज़रिये से अशोक जेलखानी के व्यक्तित्व और उसकी साख के बराबर न थीं, दूरदर्शन निर्देशन से यह शिकायत कर आई कि अशोक ने उससे बुरे शब्द कहे और अभद्र भाषा का प्रयोग किया-यह बात तो किसी के गले नहीं उतर सकती। निदेशक ने चुपचाप स्वयं इस बात की तह तक जाने का फैसला किया। उसने अशोक या किसी अन्य व्यक्ति से इस बात का जिक्र नहीं किया और न इस महिला को कहीं और यह बात कहने की सलाह दी। इस महिला को वास्तव में कुछ नाराज़ अभिनेताओं ने उकसाया था और ऐसा करने का लालच दिया था। इन्हंे अशोक बुक नहीं करता-अशोक इन बातों से बेखबर था-एक बार उसके पास ऐसा नाटक आया, जिसमें इस विशेष महिला कलाकार की ज़रूरत महसूस हुई। इसके साथ वे नाराज़ कलाकार भी बुलाए गए-नाटक में काम करते-करते इस महिला ने सबका भंडाफोड़ किया और अशोक से पैर पकड़ कर माफी मांगने लगी-जब अशोक ने पूरा वृतान्त सुना तो वह दंग रह गया। उसे इन लोगों की बुद्धि पर अफसोस हुआ-पर अशोक का मन धीर था-कभी अधीर नहीं होता। सबको क्षमा किया-सब निदेशक के पास जाकर साफ-सफाई देने लगे। निदेशक ने अपने सूत्रों से जो जांच करवाई थीद्व वह बिलकुल यही बयान करती। निदेशक ने सबको कड़ी सज़ा सुनाने का फैसला सुनाया-तुम सब हमारे इदारे के काबिल नहीं, तुम्हें यहां झांकने की भी इजाजत नहीं देता। पर अशोक ने आगे आकर सबको माफ करने की पैरवी की और इन पर प्रतिबन्ध लगते-लगते रह गया। ऐसा व्यक्ति कोई दूसरा होगा...। शायद बहुत अभी है... इस भावना को सोहन लाल कौल अशोक जी की कमज़ोरी भी कहता है। वह कहता है कि यह अपवाद की हद तक शरीफ है। किसी को मनाह नहीं करते और नुकसान भुगतते है। इनकी रचनात्मक क्षमतायंे प्रशासनिक कार्यों में दब कर रह गई। केन्द्रीय सरकार की गेज़िटेड जाॅब, शोहरत, और रूतबा उम्र केवल 24, 25 वर्ष और खूबसूरत और स्वस्थ-ऐसे नौजवान के घर वालों को आए दिन लड़की वालों से कितने रिश्ते आ रहे होंगे ! यह कोई भी समझ सकता है। जिन लड़कियों की दाल नहीं गल रही थी-उनमें कुछ ने दूरदर्शन मंे काम कर रहे हर अभिनेता-अभिनेत्री के चरित्र पर ही सवाल करने शुरू किए। किसी भी लड़की के साथ अशोक को देखकर उसके उस लड़की से प्यार और ब्याह के चर्चे शुरू हो जाते। पर अशोक ने जैसे ब्याह, थियेटर और टीवी से ही रचा लिया हो। वह घर में इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता। घर वालों ने भी रिश्ता भेजने वालों को खबर कर दी थी कि अभी लड़का तैयार नहीं है। इसी बीच एक परिचित लड़की ने अपनी जगह ठान लिया कि कैसे भी हो, इस विश्वामित्र की समाधि भंग कर सके? उसने घर में पैठ बनाई। मां-बाप और चाचाजी का विश्वास जीता और अशोक से निकटता दिखाने लगी। वह मंदिरों मं जा-जाकर व्रत और प्रार्थनाएं करने लगी। उसने अपनी ओर से शत प्रतिशत अशोक को अपना पति मान लिया था-पर अशोक ने कभी इस बात के लिए उसे एनकेरेज नहीं किया। इसी में वह एक मशहूर पीर बाबा के पास चली गई। यह पीर अनन्तनाग के शांगस इलाके में बहुत मशहूर था-पीर के पास कुछ देर बैठते ही लड़की ने अपने मन में पीर से प्रश्न किया कि क्या उसकी शादी अशोक से होगी। पीर जो आमतौर पर किसी के प्रश्न का सीधे जवाब न देकर, एक अनाप-षनाप सा बकता रहता और लोग अपने सवालों के जवाब उस बकवास में खुद तलाशते, इस लड़की से सीधे मुखातिब हुआ और कहने लगा, ‘दोबारा ऐसा विचार मन में नहीं लाना, कभी शेर की शादी किसी बिल्ली से होते देखी है?’ लड़की कांप उठी-जैसे किसी ने उसका सारा धन लूट लिया हो-उसे अचम्भा, हैरत और दुःख हुआ-वह यहां आई ही क्यों-उसके मन में जो था वो था-उसके अशोक से जानने की कोशिश की होती-अब तो अशोक भी न कभी राजी होगा। अपनी अकल और किस्मत को कोसती इस लड़की ने बहुत मुश्किल से अशोक का ख्याल मन से निकाला। अशोक को लड़की की ऐसी भावना जानकर अत्यंत दुःख हुआ। उसने कभी यह नहीं सोचा था कि उस लड़की की मंशा उससे शादी करना है। वह शायद उससे दूरी बनाए रखता जैसा कि वह अन्य लड़कियों से रखता था। इस घटना के बाद अशोक लड़कियों से और सावधानी बरत कर व्यवहार करने लगा। वह किसी भी तरह किसी लड़की के मन को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था। पर ऐसा उसके अपने वश में न था। स्टेज और स्क्रीन पर उसके निर्देशन में काम करने वाली लगभग सारी लड़कियां उसको अपने निकट समझती। कुछ शायद बेहद प्यार भी करती थी। जहां जवानी और खूबसूरती होती है वहां यह एक स्वाभाविक भावना है। पर इस भावना को मर्यादा के भीतर अशोक ने हमेशा बाध्य कर रखा। किसी से धोखा, छल या गलत व्यवहार नहीं किया। अपनी भोली और ईमानदार जिन्दगी को कभी कोई दाग नहीं लगने दिया। शायद यही कारण है कि आज भी हर महिला कलाकार अशोक जी का नाम अतिरिक्त मान और मर्यादा से जोड़कर लेती हैं। उनकी नेकी और इनसान दोस्ती की दलीलों का कोई हिसाब नहीं। उनके मातहात ‘अधीनस्थ’ कर्मचारी उन्हें बहुत मान देते हैं। प्यार देते हैं, हमेशा उनकी और उम्मीद की निगाह से देखते हैं। थियेटर ने जहां अशोक को एक अनुशासन की जीवन शैली दी वहीं दारू की आदत यहीं शायद लग गई। और दारू पीने में शायद ही यह कभी उन्नीस रहे हों। शाम पांच बजते ही इनको एक अजीब बेकरारी घेरती और शाम किसी पब में गुजारते-जहां चार दोस्त मिलकर जाम टकराते और दुनियां भर की बातें होती। इतना कुछ होने के बाद भी एक अनोखी बात भी देखने को मिलती-कभी यह महीनों दारू के बगैर भी रह लेते। इन्हें नशे का गुलाम बनना कतई मंजूर नहीं था। अपने आप पर इतना काबू रखना कोई इनसे सीखे। मेरी मुलाकात अशोक जेलखानी से दूरदर्शन के एक कार्यक्रम पर हुई। मुझे एक डाक्यूमेंटरी की आॅन स्क्रीन लाईव नरेशन करती थी-अशोक उन दिनों फ्लोर मैनेजर थे। मुझे फ्लोर पर निर्देश देने वाला यह खूबसूरत नवजवान बहुत पसंद आया। इसने मुझे बहुत सहज महसूस होने दिया और अपने निर्देश चिह्न समझाए। हालांकि अब तक मैं कई ऐसे कार्यक्रम एंकर कर चुका था-पर यह अपनी ड्यूटी निबाह रहे थे। कार्यक्रम खत्म होकर हमने हाथ मिलाए और मैं ड्यूटी रूम से पचास रुपए का चेक लेकर निकलने लगा। तभी इन्होंने आकर मेरा नाम पूछा और मैंने परिचय दिया। वहां ड्यूटी रूम में प्यारे रैना भी थे-उन्होंने भी मेरी बहुत तारीफ की और इस कार्यक्रम के निर्माता-बीएल कौल ने तो मुझे यह कार्यक्रम साप्ताहिक करने का न्यौता दिया। मैं बहुत खुश था। मैं वास्तव में युनिवर्सिटी अपनी पढ़ाई आगे जारी करने के सिलसिले में शहर आया था। जेब खर्च और बाकी खर्चों के लिए रेडियो और टीवी में कुछ काम भी कर लेता। हालांकि मेरी दिली चाहत थी-नाटकों में काम करना। युनिवर्सिटी में मुझे टैगोर हाल के नाटकों के बारे मंे पता चला। प्यारे रैना जी ने अपना क्लब संगरमाल ज्वाइन करने का न्यौता दिया-इसे आजकल एनएसडी से आया एक लड़का देख रहा था-जिसका नाम चंद्रशेखर था-चंद्र ने नाट्य संस्था से अभिनय में डिप्लोमा किया था-और मैं इसे अपना सौभाग्य समझ रहा था कि चन्द्र के साथ काम करने का मौका मिलेगा। कुछ समय पूर्व श्री मोती लाल क्योमू जी ने मुझे नाट्य संस्था में भेजने का प्रस्ताव दिया था। पर घरेलू परेशानियों के कारण मैं नहीं जा सका था। मुझे एम ए 1973 में ज्वाइन करना था। इन्हीं परिस्थितियों के कारण मैं एक साल देरी से अब ज्वाइन कर पाया था। मैं शहर में एक अभिनेता के रूप में स्थापित होकर रेडियो टीवी में काम करने का इच्छुक था-संगीत, साहित्य के भी कार्यक्रम में भाग लेता था। नाटकों में भाग लेने के लिए मैंने चंद्रशेखर के निर्देशन में एक नाटक में काम करने का रिहर्सल शुरू किया। हम लोग गांव से शहर में किराये पर रहते, मेरे साथ मेरे अन्य मित्र भी थे। रिहर्सल में देर लगती तो वे लोग नाराज़ हो जाते। शाम को सब अगर देर से आएंगे तो खाना कैसे बनेगा? इन दिक्कतों को नजरन्दाज़ करते हुए जब छह महीनों से भी अधिक समय हम केवल रिहर्सल ही करते रहे और नाटक मंचित न हो पाया तो मेरा चंद्रशेखर के साथ मतभेद होने लगा। वास्तव में चंद्र का ध्यान रिहर्सल से अधिक सड़क के दूसरे किनारे पर रह रही एक लड़की की खिड़की पर अधिक रहता, जिसके साथ अन्त में उसकी शादी हुई। पर इससे पहले एक अनोखी बात हुई, हम रिहर्सल कर रहे थे कि अशोक जेलखानी, जाफरानी, चन्द्रा और कुलभूषण वान्टू हमारे कमरे में दाखिल हुए-कुछ देर रूके और चले गए-जाते हुए अशोक जाफरानी ने मुझे रिहर्सल खत्म होने के बाद ऊपर बसन्त थियेटर के कमरे में आने को कहा। इनके निकलते ही चंद्रशेखर बहुत बौखलाया-उसने मुझे ऊपर जाने से साफ मनाह किया-पर मैं इसके बावजूद गया। ‘पगला घोड़ा’ कार्तिक था। रिहर्सल कर रहे थे। मैं अंदर चला गया और अशोक जाफरानी ने बताया कि वह मेरे सारे टीचरों को जानता है और युनिवर्सिटी में एम ए हिन्दी कर चुका है। मुझे बहुत अच्छा लगा-रोल करोगे।लेकिन मैं तो कर रहा हूं। देखा वह नाटक होना होता तो आज तक हो नहीं गया होता-तुम वक्त क्यों बर्बाद कर रहे हों। मुझे लगा बात में दम है। और मुझे इनके साथ काम करना चाहिए-मैंने हां कर दी और मुझे कार्तिक का रोल दिया गया। कश्मीर की घाटी में हिन्दी में लिखने वाले गिने-चुने लेखकों, कवियों का एक ग्रुप था। यह पठन-पाठन व अध्यापन के साथ ही, हिन्दी लेखन में भी कार्यरत थे। इन लोगों ने कई बार, एक संस्था बनाने की कोशिश की। और बना भी ली, पर इन संस्थानों का दम जल्द ही घुट जाता-जाने क्यों एकजुट नहीं हो पाए-अगर इन्हें कोई चीज़ जोड़ती थी तो वह स्टेज, रेडियो और टीवी था। यहां ये लोग अपने नाटक, वार्ता या अन्य विषय के संबंध में आते-जाते एक दूसरे से मिल लेते और ऐसे आपसी चर्चा में बहुत व्यावहारिक स्तर पर छिड़ जाती। एक बार ऐसी ही चर्चा अशोक जेलखानी के स्टेज हुए नाट ‘एवं इन्द्रजीत’ पर छिड़ गई-कश्मीर के एक जाने-माने हिन्दी साहित्यकार, ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर बहुत खुश हो गए थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इस कदर एक नौजवान इस नाटक को अपनी बेहतर समझबूझ के बल पर मंचित कर सकता है, यह लेखक शशिशेखर तोषखानी थे और इन्होंने एक अन्य कश्मीरी लेखक हृदय कौल भारती को इसका समाचार दिया-भारती यह मानने को तैयार नहीं थे कि वादी में ऐसी परिपक्व समझ का रंगकर्मी है जो ‘एवं इन्द्रजीत’ स्टेज कर पाए। पर दूसरे, तीसरे शो में भारती जी भी यह नाटक देखने गए और अचंभित हुए। पर भारती जी इतनी जल्दी अपनी राय बदलने वालों में नहीं, सोचा कि चलो, इस आदमी का एक तुक्का सही लगा। पर जब भारती जी ने इस नौजवान को लगातार एक से बढ़कर एक नाटक स्टेज पर लाते देखा, तो इसके ‘फैन’ बन गए। फैन भी ऐसे कि इसे अपना छोटा भाई कहने लगे। हृदय कौल भारती न केवल जम्मू-कश्मीर के स्थापित कथाकारों और आलोचकों में से एक है, अपितु उनकी दिलचस्पी सिनेमा और टीवी में अन्य समसामयिक लेखकों से कहीं अधिक थी। इन्होंने दिल्ली में रहकर सिनेमा का गहन अध्ययन किया था और फिलम्ज़ डिविजन, रेडियो आदि संचार माध्यमों में काम भी किया था। अशोक जेलखानी को न केवल एक सफल रंगकर्मी और बहुत सफल टीवी निर्माता, निर्देशक मानते हैं अपितु इनका कहना है कि दूरदर्शन की अफसरशाही में एक बार कदम रखने के बाद क्रियेटिवटी कहीं पिछले जमाने की बात हो जाती है। हालांकि प्राण किशोर जी इस बात से अधिक सहमत नहीं दिखते, प्राण जी ने अशोक जेलखानी को बचपन से देखा है। इनका सुपुत्र अजय और अशोक एक साथ पढ़ते थे-दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना था-प्राण जी का कहना है कि ‘गोल मटोल’ बड़ी-बड़ी आंखों वाला निहायत ही आकर्षक लड़का उनके बेटे के साथ कभी-कभी राजबाग उनके घर पर आता-उसे देखकर हमेशा बहुत अच्छा लगता-प्राण जी एकदम से इस घटना को पचास-पचपन साल पहले एक दिन से जोड़ते हैं। जब अशोक जी पहली बार प्राण किशोर जी के बेटे के साथ्रा उनके घर पर आए। अपने बेटे अजय के साथ एक सुंदर गोल-मटोल लड़के को प्रवेश करते हुए प्राण जी ने देखा कि इसकी मोटी-मोटी खूबसूरत आंखों में ऐसा आकर्षण था, जिससे हर कोई उसकी तरफ खींचे बिना नहीं रहता। अजय और अशोक दोनों बिस्को मेमोरियल स्कूल में एक साथ एक ही क्लास में पढ़ते थे। प्राण जी ने दोनों दोस्तों को एक साथ जवान होते देखा-कहने का तात्पर्य यह है कि अशोक जेलखानी प्राण जी के बेटे के समकालीन हैं और प्राण जी के बेटे समान हैं। सो प्राण जी अशोक जी के बारे में कुछ भी कहने से पहले इस बात से खुद को आश्वस्त करते हैं कि जिस व्यक्ति के बारे में बोल रहे हैं वह हालांकि उनसे उम्र में उनके बेटे के बराबर हैं पर उसी कार्यक्षेत्र से जुड़ा है जिसे कि प्राण जी ने अपना जीवन धर्म बना लिया है। एक तरह से एक ही कालावधि के आगे पीछे दोनों एक ही कार्य से जुड़े हैं। एक को वरिष्ठ गुरू का दर्जा हासिल है और दूसरे ने अभी-अभी कला की दुनियां में रंगमंच और टीवी के माध्यम से काफी सफलता अर्जित की है। प्राण जी कहते हैं कि वह बिना किसी अतिरिक्त लगाव या स्नेह के एक तटस्थ रूप विवेचक की दृष्टि से जब अशोक जेलखानी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर नज़र दौड़ाते हैं तो उन्हें वह समय याद आता है जब अशोक जेलखानी ने उनके बेटे अजय के साथ वसन्त थियेटर की स्थापना की। उस समय श्रीनगर शहर में दो-चार नाटक मंडलियां सक्रिय थीं-जिनमें कलाकेंद्र, रंगमंच, नवरंग, आदि अच्छा काम कर रहे थे। इसी समय ‘बसन्त थियेटर’ का उद्भव अशोक जेलखानी के नेतृत्व में हुआ-उस ग्रुप के सबसे सक्रिय सदस्यों मंे अशोक जाफरानी, अशोक जालपुरी, तेज तिक्कू आदि भी थे।----------------------------------------------------------------- थियेटर फेडरेषनप्राण जी ने हमारे इस दृष्टिकोण की पुष्टि की है कि साठ और सत्तहर की दहाइयां कश्मीर के रंगमंच के इतिहास में सुनहरी भाग था। यह वह समय था, जब कश्मीरी रंगमंच गांव-गांव में फलने-फूलने लगा। इस समय ने कश्मीर के रंगमंच को नए आयाम दिए। इन वर्षों में न केवल भारत की विभिन्न भाषाओं के चुनींदा मशहूर नाटकों का श्रीनगर में मंचन हुआ, अपितु इनसे प्रेरित होकर कई अच्छे कश्मीरी नाटक भी लिखे और स्टेज किए गए, इस प्रकार रंगमंच को एक नई क्रांति का युग मिला। इस क्रांति को फलने-फूलने में अशोक जेलखानी ने अपना एक विशिष्ट योगदान दिया, जो बहुत महत्वपूर्ण है। अशोक जेलखानी ने नाटक मंचन की विधा को एक नई दिशा प्रदान की। उनके नाटकों के निर्देशन की सुन्दर छटा प्राण जी को उस समय दिख गई जब 1971 में पहली बार ललित सहगल के हिन्दी नाटक ‘हत्या एक आकार की’ को देखने का इन्हें अवसर मिला। प्राण जी कहते हैं कि इस नाटक को इन्हांेने दम साध कर देखा-प्राणजी की नजरों के सामने पले-बढ़े बच्चे से अब जवान हुए उस व्यक्ति का कद काफी ऊंचा दिखने लगा, जिसने ऐसा नाटक-निर्देशित किया था। प्राण जी अशोक जेलखानी के निर्देशित लगभग सभी स्टेज नाटक देखने का एक तरीके से तहया कर बैठे थे। इन्होंने शायद ही कोई नाटक छोड़ा हो। प्राण जी आगे कहते हैं कि अशोक जी के निर्देशन में मंचित कुछ नाटकों के मूल स्टेज रूप इन्होंने दिल्ली और कलकत्ता में भी देखे थे और यह महसूस कर रहे थे कि अशोक जेलखानी के नाटकों का निर्माण स्तर किसी रूप में भी इन नाटकों की तुलना में कहीं कम नहीं आंका जा सकता। प्राण जी ने महसूस किया कि समय गुजरने के साथ अशोक जेलखानी के नाटकों के मंचन में स्थिरता, गहनता और कथ्य की गहराई तक जाने की क्षमता प्रफुल्लित होकर सामने आने लगी। इस प्रकार से नाटकों के ऐसे मंचन को देखते हुए प्राण जी को भीतर से विश्वास होने लगा कि जिस चीज को थियेटर के आरंभिक दौर से आगे निकालते हुए उन्होंने पौधे के रूप में सींचा था वह अब फलदार वृक्ष का रूप लेने लगा है। इस आशवस्त मन से प्राण जी अपने इर्द-गिर्द से खुश हो रहे थे। वह परंपरा जो इन्होंने इप्टा से कश्मीर में लाई थी अब आगे प्रशस्त पथ पर चलने लगी है। प्राण किशोर जी जिस प्रकार से अशोक जेलखानी के मंचित हर नाटक का विस्तारपूर्ण विवरण देते हैं, इस बात से ही यह स्पष्ट होना चाहिए कि इन नाटकों का प्रभाव कितना गहन रहा होगा। प्राण जी ने ‘जगदीश चंद्र माथुर के कोणार्क’ बादल सरकार के ‘एवं इन्द्रजीत’ मधुराय के ‘किसी एक फूल का नाम लो’ अली मुहम्मद लोन के नाटक ‘चिनार’ विजय तेन्दुलकर के नाटक ‘गिद्ध और पंछी’ ऐसे आते हैं बादल सरकार के ‘सारी रात’ सुरेन्द्र वर्मा के ‘सूर्य की अंतिम किरण, से पहली किरण तक’ और मुद्रा राक्षस के ‘संतोला’ एवं बादल सरकार के ‘पगला घोड़ा’ के मंचन का विशेष जिक्र किया है। सारे नाटक बसन्त थियेटर के बैनर तले खेले गए और अशोक जेलखानी ने डायरेक्ट किए। इसमें से सुरेन्द्र वर्मा का नाटक, ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ अलंकार थियेटर ने प्रस्तुत किया था। इस नाटक में और ‘गिद्ध’ में महाराज षाह ने भी प्रमुख भूमिकाएं निभाईं थी और अशोक जी को असिस्ट भी किया था। प्राणजी आगे कहते हैं कि 1974 में कश्मीर के प्रमुख थियेटर कर्मियों ने कश्मीर में रंगमंच के विकास और उन्नति के लिए एकजुट होकर कश्मीर थियेटर फेडरेशन का गठन किया-इस फेडरेशन ने हज़ारों दर्शकों तक पहुंच बनाकर नाटकों के सामाजिक महत्व और पहलू से इन दर्शकों को परिचित कराया। फेडरेशन की सफलता से यह बात साबित हो गई कि बिना सरकारी अनुदान के और सरकारी संरक्षण के भी यदि नाटक कर्मी और रंगकर्मी मिलकर काम करें तो किस प्रकार एक क्रांतिकारी प्रबलता से सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं। वास्तव में प्राण किशोर ऐसे कर्मठ और दिशानिर्देशक रंगकर्मियों ने इस फेडरेशन की अगुवाई की और घाटी के रंगकर्मियों को वह प्लेटफाॅर्म प्रदान किया जिसकी यहां शिद्दत से आवश्यकता महसूस की जा रही थीं। फेडरेशन ने विधिवत यहां ड्रामा फेस्टेवल संयोजित किए। इस फेस्टेवल का लोग बहुत तत्परता से प्रतीक्षा करते। पहले ही फेस्टिवल में अशोक जेलखानी के निर्देशन में प्रस्तुत नाटक, बादल सरकार द्वारा आलेखित ‘एवं इन्द्रजीत’ को बेस्ट प्ले का अवाॅर्ड दिया गया। इस संदर्भ में प्राण जी एक महत्वपूर्ण बात की और इशारा करते कहते हैं कि फिल्म ‘महजूर’ के संकलन के सिलसिले में जब वे कलकत्ता में थे तो वहां कोई साल भर से बादल सरकार का यह नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ बंगला भाषा में स्टेज हो रहा था। नाटक स्वयं बादल सरकार कि निगरानी में मंचित हो रहा था। यहां घाटी में इसी नाटक का हिन्दी रूपान्तरण अशोक जेलखानी पेश कर रहे थे-प्राण जी के जेहन में कलकत्ता के संस्करण की छाप अभी धुली नहीं थी... और जब अशोक जी की प्राॅडक्शन देखने का अवसर मिला तो प्राण जी के शब्दों में बंगला नाटक की तुलना में हिन्दी रूपान्तरण और मंचन कहीं भी उन्नीस नहीं लगा-प्राण जी अत्यंत खुश थे कि अशोक जेलखानी ने बराबर की टक्कर का नाटक खेला था। उपरोक्त फेडरेशन के लगभग हर फेस्टिवल में अशोक जेलखानी हर वर्ष अवाॅर्ड प्राप्त करते गए। 1975 में ‘किसी एक फूल का नाम लो’, मधुराय, 1976 में ‘चिनार’ अल्ली मुहम्मद लोन, के नाटक का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक अवाॅर्ड स्वयं उस समय के सबसे कदावर राजनीतिक व्यक्तित्व मुख्यमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने इन्हंे दिया।-------------------------------------------------------------------संस्मरण अशोक जेलखानी ने केवल हिन्दी नाटकों का ही सफल मंचन नहीं किया अपितु श्री मोती लाल क्योमू के कश्मीरी प्रहसन मांगेय को निर्देशित करके यह साबित कर दिया कि इनमें कश्मीरी थियेटर को एक नया अयाम देने की प्रबल क्षमता है। प्राण जी ने अशोक जी को अपने रेडियो ड्रामा में भी काम करने के अनेक अवसर प्रदान किए पर यह यात्रा बहुत संक्षिप्त रही, क्योंकि इसी बीच इनकी नियुक्ति दूरदर्शन में हुई। घाटी के अग्रणीय वरिष्ठ रेडियो नाटक और मंच के अभिभावक का दर्जा रखने वाले श्री प्राण किशोर कौल जिन्हें प्राण किशोर और सब करीबी लोग प्राण जी के संबोधन से जानते हैं, एक दिलचस्प बात बताते हैं। रेडियो से सेवानिवृत्ति के बाद प्राण जी मुंबई में फिल्म और टीवी जगत से जुड़ गए। यहां इन्होंने कई फिल्मों के स्क्रीन प्ले और टीवी सीरियल लिखे जिनमें ‘गुल-गुलशन गुलफाम’ काफी मक़बूल रहा-इस काम में व्यस्त होने के बावजूद भी प्राण जी और अशोक जी में कभी संपकर्म नहीं टूटा-प्राण जी की नज़र बराबर अशोक जेलखानी की ब्राडकास्टिंग यात्रा पर रही। प्राण जी का कहना है कि वह हर उस नौजवान की खोज-खबर रखते हैं, जो उनकी नजरों के सामने बड़ा हुआ और समाज में किसी न किसी रूप में अपना मूल्यवान योगदान देता रहा। प्राण जी क्योंकि टीवी के लिए लेखन और निर्देशन का कार्य भी करते हैं, इसलिए अशोक जी के संपर्क में रहना एक संयोग की बात भी है, पर बात संयोग की ही नहीं, कलात्मक और रचनात्मक स्तर पर एक तरह की परिपूरकता और समरसता की भी है। प्राण जी मानते हैं कि उम्र के अलग-अलग पड़ाओं पर होने के बावजूद भी जो कलात्मक समरसता का संबंध है, वहां दोनों में साधारणीकृत संवेग स्तर का रिश्ता अब एक तरह की मित्रता का समरूप हो गया है। अशोक जेलखानी को कलात्मकता की पैनी दृष्टि और आंकलन की सूझबूझ पर जो बात यहां प्राण जी ने कही है वह इस बात का प्रमाण है कि अशोक जेलखानी की पकड़ किस संजीदगी से अपने कार्यक्षेत्र पर है। एक सीरियल निर्माता ने प्राण जी से उनके एक फिल्म स्क्रिप्ट को दूरदर्शन सीरियल में बदलने की जिद की-प्राण जी ने उन्हें काफी समझाया कि यह आलेख ‘फिल्म के लिए लिखा गया है और इसे सीरियल में लिखना शायद समुचित नहीं, पर जिद्ध करके प्राण जी से इस ‘फिल्म स्क्रिप्ट’ का सीरियल प्रपोजल बना कर वह निर्माता अशोक जेलखानी के पास दिखाने ले आए। अशोक जी ने प्रथम दृष्टि में ही प्रपोजल को यह कहकर मनाह किया कि यह फिल्म के लिए अच्छा है सीरियल के लिए नहीं-इस बात से अशोक जेलखानी की बारीकबीनी और मीडिया की अंडरस्टैंडिंग का पता चलता है। ऐसे कितने ही अवसर और मोड़ आए, जहां अशोक जेलखानी ने अपनी सारर्गिभित प्रतिभा का परिचय देकर सामने वाले को अचंभित कर दिया है। अशोक जेलखानी के थियेटर ग्रुप के साथ बहुत लड़के-लड़कियां जुटे इनमें एक बहुत ही निपुण सुंदर और प्रतिभा की धनी लड़की राजकिरण है-राजकिरण एक सहज, सुलझी और प्रबुद्ध लड़की होने के साथ ही एक विदुषी रंगकर्मी के रूप में बसन्त थियेटर में खुद को स्थापित कर सकी। -बसन्त थियेटर से जुड़ने से पहले राजकिरण संगरमाल थियेटर के साथ कुछ एक प्राॅडक्शन करके नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा में अपने नाटक में ग्रेजुएशन करने गई थी-वह घाटी की पहली एनएसडी ग्रेजुएट है। श्रीनगर वापिस आने के बाद उसे कुछ मित्रों ने बसन्त थियेटर से जुड़ने की सलाह दी। पर कुछ अन्य मित्रों ने मनाह किया और कहा कि तुम्हारी अशोक जेलखानी जैसे घमंडी लड़के से नहीं निभ पाएगी। दूर से देखने पर इस बात में राजकिरण को बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। उसे अशोक बहुत घमंडी किस्म का व्यक्ति लग रहा था। राजकिरण भी ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर अशोक जेलखानी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उसके मन में, इस गुणी-मानी खूबसूरत नौजवान को जो एक सधा हुआ अभिनेता होने के साथ ही एक मंजा हुआ स्टेज निर्देशक भी साबित हो रहा था, जानने की उत्सुकता बढ़ने लगी। शहर में हर किसी की जुबान पर अशोक जेलखानी का जिक्र था। कोई उसके गुण तो कोई ऐब बयान करता-पर चर्चा हर जगह थी। इस तरह के विरोधाभासी बयानों के बीच राजकिरण कोई ठोस सकारात्मक राय अशोक के विषय में नहीं बना पा रही थी। शायद अशोक को भी मेरे बारे में कहीं पता चल गया-वहां उनके ग्रुप से मुझे संदेशें आने लगे। मैं अधिक देर खुद को रोक नहीं पाई, आव देखा न ताव और मैं उनके ग्रुप में कूद पड़ी, राजकिरण आजकल विदेश में हैं। वहां से उसने सब बातें मेल करते अशोक जी के बारे में बहुत दिलचस्प बातें बताई हैं। इन बातों से अजीम व्यक्तित्व की अपने हमउम्र नौजवान साथियों के दिलों को जीतने और उनका सहयोग पाने की काबलियत उजागर होती हैं। राजकिरण कहती हैं कि काफी देर के बाद जब उसने बसन्त थियेटर के साथ काम करता मान लिया तो पहला नाटक ‘पंछी ऐसे आते हैं’ खेला गया-यह नाटक बहुत हिट हुआ- इस बीच राजकिरण की मुलाकात अशोक से टीवी संेेटर में हो गई। राजकिरण ने पाया की अशोक जेलखानी उन लोगों में से नहीं हैं, जिन्हें अपने और अपने इर्दगिर्द के बारे में जानकारी नहीं होती। अशोक काफी फोकस्ड हैं और अपने काम को अच्छी तरह करना जानते हैं। अशोक के पास एक तय लक्ष्य था और इसको पाने के लिए वह भरसक प्रयत्नशील था। वह अपनी योजनाएं और प्रस्ताव जिस प्रकार से खुले दिल और दिमाग के साथ एक अनुभवी आदमी की तरह समझाते उससे विषय में उनकी गहरी पैठ का अंदाज़ा लग जाता-किसी भी प्रोजेक्ट के सारे पहलू वह खोलकर विस्तार से बयान करते। राजकिरण को जेलखानी के कुछ टीवी ड्रामा और एक कश्मीरी सीरियल में काम करने का अवसर मिला। कश्मीरी सीरियल ‘हरूद’ जोकि श्रीनगर दूरदर्शन का पहला लंबा सीरियल था और जो आजतक लोगों के जेहन में अपनी छाप बरकरार रखे हैं, में राजकिरण ने मुख्य महिला पात्र ‘नैला’ का रोल किया था-राजकिरण को हालांकि इस रोल के लिए इस सीरियल के लेखक अमीन शाकिर ने कास्ट किया था और अशोक जेलखानी ने शुरू में मनाह किया था। अशोक को लगा था कि राजकिरण जिस प्रकार के माहौल में पली-बढ़ी हैं और जैसे वह घाटी से अधिक समय बाहर रही है शायद वह एक मुस्लिम नौजवान महिला के पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाएगी-पर उनकी यह धारणा पहली बार राजकिरण ने गलत साबित की। राजकिरण ने अपनी भूमिका इस कदर सफलतापूर्वक निभाई कि आज तक लोग इस पात्र को नहीं भूले। पर इसके पीछे अमीन शाकिर, अशोक जेलखानी और ‘हरूद’ के बाकी अभिनेताओं का भी बहुत बड़ा हाथ है। राजकिरण को यह जानने में तनिक भी देर न लगने दी गई कि वास्तव में उसे क्या करना है और निदेशक की उसके रोल से क्या अपेक्षा है। शुरू से ही अशोक जेलखानी की यह विशेषता रही है कि वह अपने प्राॅडक्शन के हर मेम्बर को यहां तक कि स्पाॅट ब्वाॅय और टी ब्वाॅय तक को यह अहसास दिलाते कि वह ड्रामा का एक खास हिस्सा है और टीम का बहुत ही महत्वपूर्ण मेम्बर है। एक बार राजकिरण ‘नैला’ के रोल के लिए चुनी गई तो फिर उसको अशोक जेलखानी ने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि इस रोल के लिए वह उसकी पसंद नहीं थी। एक बार राजकिरण की गफलत से दिन भर का सारा शूट बर्बाद हो गया-इस रोज़ अशोक जी स्वयं सेट पर नहीं थे। अशोक जी के प्राॅडक्शन सहायक शायद राजकिरण को कुछ भी गलत करने से नहीं रोक पाए। शाम को जब प्रविव हुआ तो अशोक जी के चेहरे पर गुस्सा और असंतोष साफ झलक रहा था, ‘तुम क्या समझती हो कि तुम क्या कर रही थी? जानती हो अच्छे खासे सीन को जबरदस्ती स्लोमोशन पर डालना पड़ा, क्योंकि तुम ठीक से न दौड़ पाई हो और न सही भाव चेहरे पर ला सकी हो, राजकिरण बहुत दुःखी हुई, उसे मां बने अभी कुछ महीने ही हुए थे और वह अकसर बहुत जल्दी थक जाती। एक ओर उसका ध्यान नवजात बच्चे पर टिका रहता। वह बच्चे को सेट पर साथ ले आती। बच्चे का हालांकि दिन भर खासा ख्याल रखा जाता और एक बार भी मां को बच्चे को छोड़ने के लिए नहीं कहा जाता पर किरण को रोल पर ध्यान टिकाने में कहीं न कहीं खूब मशक्कत करनी पड़ती। किरण ने अषो के कई नाटकों में उनके साथ काम किया वह अषोक की को-स्टार भी रही और दोनो की जोड़ी बहुत सफल रही। ‘हमने कभी अपनी लाइनों का शूटिंग के दिल तक एक साथ रिहर्सल नहीं किया होता, फिर भी सीन पर हम कभी अटक नहीं जाते-हम में ग़ज़ब की केमिस्ट्री काम करती। मुझे बहुत गर्व महसूस हो रहा है कि मैंने कश्मीर के इस नायाब हीरे सरीखे कलाकार के साथ काम किया है। अब जबकि मैं खुद को इसके निकट समझती थी और यह जानती थी कि मैं उसे बहुत हद तक जान पाई हूं मैंने हिम्मत जुटाकर अपने एक प्रोजेक्ट को लेकर उससे स्टेज नाटक खेलने का प्रस्ताव रखा-‘उसने बहुत मुसकुराते जवाब दिया-तुम्हें अभी बहुत कुछ सीखना है’ और अपने काम में जुट गया।’ अशोक एक ऐसा रचनाकार है, जिसने थियेटर को टेलीविजन से जोड़ दिया। इन्होंने टेलीविजन के लिए स्टेज के एक्टरों को तैयार किया। इन्हें स्टेज और टीवी की ऐक्टिंग (अभिनय) का फर्क बताया। दोनों माध्यमों का अन्तर समझाया। यही कारण है कि जब इनके किसी अभिनेता या अभिनेत्री को दूसरे लोग बुक करते तो उन्हें काफी सम्मान और इज्जत दी जाती-किसी भी ऐसे ऐक्टर की काबलियत और हुनर में किसी को कोई शक की गुंजाइश नहीं होती। राजकिरण की इन बातों मंे जबरदस्त सच है। अशरफ शाल, गुल जावेद, जी-एम वानी, प्राणा शंगलू, भारती जारू, रीता जलाली, कमल राजदान, विजय धर, अनिल सिंह, शहनाज़ अशोक जालपुरी, अशोक जाफरानी, इदरीस हैदर, बबलू, तारिक जावेद, परवीन अख्तर, महाराज शाह, मोहन शाह, अयाश आरिफ लगभग सारे आज कश्मीर टेलीविजन के स्थापित कलाकारों में है। सबने अपने प्राॅडक्शन किए और इस फील्ड में नाम कमाया। इन नामों की सूची से सारी पुस्तक भर सकती है। राजकिरण को गर्व है कि नाटक में काम करने वाले नट-नटी को कश्मीर में जहां हकारत की नज़र से देखते थे और ‘भाण्ड’ कहकर घृणा से संबोधित करते, इस पेशे को अशोक जेलखानी ने सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाई। लड़कियां जहां स्टेज पर आने में कतराती थीं वहीं प्यारे लाल रैना, मक्खन लाल सराफ और अशोक जेलखानी के प्रयास और लगातार कोशिशों से संभ्रांत परिवारों से लड़कियां और महिलाएं स्टेज नाटकों में विधिवत भाग लेने लगी। किरण को याद है कि किस तरह बसंत थियेटर में थियेटर के खर्चे के लिए अपने जेब से सबको कुछ न कुछ योगदान देना पड़ता-तब जब कि लड़कियों के पास न्यूनाधिक और कोई नौकरी या काम करने को नहीं होता, तो किरण के बटुए में कुछ रेजगारी या एक आध नोट पड़े रहते-राज को चिढ़ाने के लिए जैफरानी उसके बटुए से पैसे निकालने लगता तो राज उसे मनाह नहीं करती-क्योंकि रिफरेशमेंट के लिए सब कन्ट्रीब्यूट करते पर अशोक जेलखानी राज के पैसे वापस रखवाते। कभी किसी लड़की से रिफ्रेशमेंट के लिए पैसे नहीं लिए जाते। राज को याद नहीं कि कभी जेलखानी साहब चार पौडियां उतर कर नीचे गलीज सी जगह पर लगे नलके से पानी भरकर लाए हों, क्योंकि उन्हें वो हमेशा अच्छे कपड़ों में सजे-संवरे ही दिखते। वे डायरेक्टर थे और आफीसर भी सो शायद ही कोई इनसे पानी लाने की अपेक्षा करता-पर यह बात शायद राजकिरण के समय में न हुई हो। अशोक जेलखानी चार पौड़ियां उतर कर पानी की बाल्टी लाने में शर्म नहीं करते। मैंने कई बार उन्हें स्वयं ऐसा करते देखा। यह शायद उनके स्कूल की शिक्षा का प्रभाव था। वहां बचपन से ही काम के प्रति ईमानदारी और स्वालम्बन की शिक्षा दी जाती थी। एक और घटना को याद करते राज कहती है कि अंतोन चेखव के नाटक ‘सीगल’ में उसे मां का रोल करने को मिला और वह कुछ सुझाव देने को तत्पर थी पर अशोक का मन नाटक में इतना डूब चुका था कि वह अपने अतिरिक्त किसी की नहीं सुनते। हालांकि इस बात का मलाल राजकिरण को काफी दिनों रहा और अशोक को इस ओर कभी ध्यान तक न गया। अपने टीम से सबसे उत्कृष्ट काम हासिल करना कोई अशोक जी से सीखे। ऐक्टर, कैमरा, साउंड, ऐडिटर, यूनिट के हर बन्दे से उसकी योग्यता के अनुसार सबसे बेस्ट काम लेते। काम खत्म होने के बाद हमेशा शाम को बड़ा खाना होता, जिसमें दारू, मीट, चिकेन और हर तरह की तरकारियां खाने को मिलती-पता नहीं इतना अमीराना खाना आता कहां से। राजकिरण अशोक जी को दारू से परहेज करने को कहती-वो मुसकुरा भर देते। आज शायद इन्हें यह अहसास होता हो कि दारू अच्छी चीज़ नहीं। अशोक का मन सामाजिक असंतुलन और समाज में व्याप्त शोषण व अन्याय के प्रति बहुत संवेदनशील रहा है। यही कारण है कि समाज के निचले स्तर से ऊपर आने वालों का वह एकदम एक कदम आगे आकर हाथ थामते। अपने समस्त कार्यकाल मे ंआज तक नौकरशाही का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद भी वह नौकरशाही और लाल फीता शाही से कोसों दूर रहें। अपना काम वह मुस्तैदी से करते हैं और अपने अधीन कर्मचारियों से भी जम कर काम करवाते हैं, पर उनके मन में हमेशा इस बात का ध्यान रहता है कि यहां सब इनसानों का समूह है। इनमें सबके घर गृहस्थी, परिवार, नाते-रिश्तेदार यार दोस्त हैं, जो सब आपस में मानवीयता और मानवीय संबंधों से जुड़े हैं। सब एक सांझा जीवन जी रहे हैं। सभी की आवश्यकताएं लगभग एक-सी हैं। घर, परिवार, मां-बाप और बच्चों से बना यह संसार मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कराता है। इसमें जुटे सारे लोग सभी भिन्नताओं के बावजूद भी मूलतः एक ही स्रोत से आते हैं और सबकी जीवन लीला का अन्त होता है। इस सोच ने अशोक जेलखानी को बहुत हद तक नियतिवादी भी बनाया होगा। तभी तो वे एक बार ज्योतिषि महाराज के चक्र में आकर बहुत परेशान हो गए थे। हुआ यों कि कश्मीर के एक मशहूर ज्योतिष श्रीरघुनाथ जी किकलू, जो काफी देर से इनके घर वालों के परिचित रहे थे, को उन्होंने न जाने क्या सोच कर अपना टीवा ‘जन्मपत्री’ दिखाया। ज्योतिष जी ने जो भविष्यवाणी की उसको सुनकर कोई भी व्यक्ति चिंतित हुए बिना नहीं रह सकता। ज्योतिष महाराज ने इनके शनि की दशा को गलत पढ़ा होगा... उन्होंने जीवन और रोजगार खतरे में बताया। अशोक को वहां मोती लाल खरू ले गए थे। मोती लाल खरू इन दिनों दूरदर्शन के श्रीनगर केंद्र में ही कार्यरत थे। यह समय लगभग 1978-80 का रहा होगा। अशोक इस समय कोई 22, 23 वर्ष की उम्र के रहे होंगे। इस प्रकार का अपना भविष्य जानकर अशोक ऐसा ज्वलन्त और उदीयमान कुलदीपक किसी हवा के निष्ठुर झोंके से कांपने लगा। अभी तो उसके जीवन की शुरूआत ही हुई है। इसी सोच में डूबे अशोक जेलखानी के पास प्राण जी के सुपुत्र और अशोक जी के सहपाठी और मित्र अजय मिलने आए। बातों-बातों में अजय को इस बात का पता चला कि उसके मित्र को कश्मीर के प्रख्यात ज्योतिष ने बहुत चिंताजनक बात कही है और इसी कारण वह विक्षुब्ध है। अजय को भी कुछ पल बहुत चिंता होने लगी। क्योंकि कश्मीरी पंडितों में ज्योतिष विद्या का बहुत जोरदार प्रचलन रहा है। वे अंधविश्वास की हद तक ज्योतिष से प्रभावित है। यह हालांकि एक गौरवशाली अतीत से जुड़ी विद्या है, जिसका कश्मीर में खगोलीय गणित के कारण खासा विकास हुआ था। खगोलीय गणित के माध्यम से ग्रहों, नक्षत्रों व उपग्रहों के स्थान गति व परिवर्तन से संबंधित धरती पर होने वाले परिवर्तनां को परिसूचित परिभाषित और पूर्वानुमानित किया जाता। इसका एक मानचित्र हर व्यक्ति से जोड़कर भी बनाया जाता जिस जन्मकुण्डली या जन्मपत्री कहते हैं। समय गुज़रने के साथ-साथ इस ज्ञान के सूक्ष्म तत्व विलुप्त होने लगे और यह कर्मकाण्डीय ब्राह्मणें के पास प्रक्षेपित अवस्था में सुरक्षित रहा। किन्तु गणित की महिमा के साथ ही ग्रहों के उपग्रहों के बारे में विभिन्न तरह के भ्रम भी जन साधारण के मानसपटल पर अंकित होने लगे। इस बात की खूबी पर ध्यान देना चाहिए कि जब हूबल टेलिस्कोप का आवषकार तो दूर रहा, किसी तरह की दूरबीन तक उपलब्ध न थी, तब खगोलशास्त्रियों ने शनि, मंगल, राहू, केतु, बुध, शुक्र आदि नवग्रहों को तलाशा और इनके बारे में जो अनुमान लगाए वे अंश प्रति अंशक सही निकल चुके हैं। कवियों की कल्पनाओं के यदि इस विज्ञान से अलग करें और अंधविश्वास से इसको दूर रखें तो यह विज्ञान का प्रथम और महत्वपूर्ण पड़ाव है मानव सभ्यता का। अजय ने अशोक की मानसिक स्थिति का सही अंदाजा लगाया। वह भयभीत था। उसके मन में ज्योतिष की भविष्यवाणी से संकोच और संदेह उत्पन्न होने लगा था। अजय ने बहुत बुद्धिमता से काम लिया। कोई और होता तो आज के युग में अशोक जेलखानी के इस अंधविश्वास पर उसे बड़ा-सा लेक्चर देकर निकल जाता, पर इससे मूल समस्या का समाधान नहीं होता। अजय एक नौजवान लड़के को जानता था, वह कश्मीरी संभ्रान्त पंडित कुल से था। उसकी खगोल विज्ञान में काफी दिलचस्पी थी पर वह ज्योतिष को भी सिरे से खारिज नहीं करता। अगर चांद से समुद्र की लहरों पर असर हो सकता है। अगर विद्युतकणों को मेगनिटिक लहरों में बदलकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक प्रेषित किया जाता है, अगर अदृश्य को दिव्य आंखों से देखा जा सकता है। तो दुनियां में कुछ भी हर्फे आखिर नहीं है... यह सोच इस नौजवान ‘अस्ट्रालजर’ की थी, जिसका नाम भी अशोक ही था। कुछ एक दिनों में ही अजय अशोक के पास इस नौजवान ज्योतिष को ले आया। अशोक जेलखानी ने इसकी उम्र और इसका हुलिया देखकर सोचा कि यह क्या ज्योतिषी जानता होगा। खैर, इसने अशोक जी की जन्मकुण्डली पर एक बारीक नज़र दौड़ाई और हट्ात कह उठा-ज्योतिषी ने सब सही कहा है... पर उनकी दृष्टि शायद आपके जन्मयोग पर नहीं गई है। शनि की दशा आपको और अगले सात साल में इसी जगह बड़े-बड़े अवसर प्रदान करेगी। आपका बाल-बांका नहीं हो सकता-अभी कुछ ही महीनों में आपको इसका आभास होने लगे गा। बहुत विस्तार से अशोक गंजू ने अशोक जेलखानी को ज्योतिष के सारी गणनाएं और इनके नतीजे समझाए। इससे बहुत हद तक अशोक संतुष्ट हुए और उनके मन से एक गहरी चिंता का निवारण हो गया। अशोक जेलखानी को कभी बाकी कश्मीरी हिन्दुओं की तरह कम ही देवास्थानों देवालयों, मंदिरों में देखा गया है, पर वह मन से ईश्वर में आस्था रखते हैं और अपने इष्टदेव को मानते हैं। ईश्वर ने भी अपने तरीके से समय≤ पर बहुत विरले तरीके से अशोक को अपने होने का अहसास दिलाया है। उनकी इस तरह की सोच और विचारों को जानकर मैं खुद बहुत अचम्भित हुए बिना नहीं रह सकता। मैंने ईश्वर और जगत के बारे में जब भी सोचा तो मुझे हमेशा यही लगा कि यह विषय मेरी सीमित बुद्धि और विवेक के परे है। ऐतिहासिक रूप से और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वरूप को देखकर, इस बात पर मुझे यकीन होता है कि यदि संसार में किसी महाशक्ति का अस्तित्व है तो वह कदापि ऐसी नहीं है, जैसा कि हम सब सोचते हैं या यकीन करते हैं। शायद यह सच है कि वह उतनी ही बड़ी है जितना कि कोई भी आस्ति और नास्कि का कण। जब संतों ने ही कहा कि ‘ज्यों गूंगे को स्वाद’ तब कौन इसे बखान कर सकता है। पर जब ईश्वर के नाम पर और ईश्वर के लिए कत्लों गारत और जंगोजदल के नजारे सामने आते हैं तो दिल कहता है कि शायद यह मनुष्य का डर है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। सीमित और असहाय का एक असीम और सहायक के प्रति निष्ठा और आस कुछ भी हो अशोक गंजू के कथन ने अशोक जेलखानी को एक तरह से चिंतामुक्त कर दिया-और इसी बात को लेकर दोनों में मित्रता भी बढ़ी। अशोक गंजू न तो नाटक से जुड़ा था, न टीवी से उसका कोई रिश्ता था। बेकार और शादीशुदा होने के बावजूद भी उसने कभी अशोक जेलखानी से किसी मदद की अपेक्षा नहीं की और न ही इससे किसी प्रकार की मदद स्वीकार की। दोनों में प्रगाढ़ और चिरकाल मित्रता बनी रही। इस मित्र को याद करके अशोक जेलखानी की आंखें भर आती हैं। दुनिया भर को भविष्य की वाणी सुनाने वाला यह बेलौस व नेक मित्र अल्प आयु में ही स्वर्ग सिधार गया-पर इससे पहले इसने बहुत चमत्कारी करिश्में किए। कश्मीर में रहते हुए जेलखानी जी के बारे में इसने जितनी भी भविष्यवाणियां की थीं वे सब बकौल अशोक जेलखानी जी चरितार्थ सिद्ध हुईं। कश्मीर से निकलने के बाद कई वर्षों बाद जब लखनऊ षहर यह मित्र अशोक जी को ढूंढता आया-तब दोनों ने विस्थापन में बहुत बुरे दिनों को देखा था। पर अब दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक-ठाक जीवन ढर्रे से जी रहे थे। अशोक गंजू ने दिल्ली में आकर पांचतारा होटलों में रहने वाले विदेशी पर्यटकों से संपर्क साधा और अपनी अच्छी-खासी विदेशी ग्राहकी तैयार की। इनके बारे में कहे गए भविष्यफल इतने सटीक निकले कि बहुत लोगों ने खुश होकर काफी कदरदानी की। माली हालात से भी मदद की। बस अब क्या था-अशोक गंजू का नोएडा में अपना भव्य मकान-गाड़ी सब बन गया-पर अपने मित्र का खयाल कभी मन से न गया सो ढूंढता तलाशता, लखनऊ पहुंचा-लखनऊ मंे एक महत्वपूर्ण घटना घटी, यहां पर अशोक जेलखानी उप-निदेशक पद पर कार्यरत थे और इनके पास एक मुख्य सहायक निदेशक प्राइवेट प्राॅड्यूसर श्री मंजुल का आना-जाना था। एक दिन जब अषोक घर पर अपने मित्र अषोक गंजू के साथ बातों में वयस्त थे तो मंजुल साहब भी पधारे। मंजुल साहब को देखते ही अषोक जी ने कहा कि इन से मिलो यही है गंजू मेरे जिगरी दोस्त जिस के बारे में मैं अक्सर आप से बात करता था। मंजुल जी को याद आया कि इन्हीं के बारे में अषोक जी ने कई बार कहा था, इन्हों ने आगे आकर गंजू जी से हाथ मिलाया और कहा कि किस तरह अषोक जी किसी न किसी रूप से आप की बात करते रहते, पर इस से पहले कि मंजुल जी कुछ और कहते गंजू साहब बोल पडे, साहब यह जो ब्रहम्मूर्ति में उठ कर आप जाप करते हैं, बहुत अधूरे ढंग से और अपूर्ण रूप से करते हैं, पहले इसे सही तरह से करना सीखिये। मंजुल के पैरों तले से ज़िमीन हिलने लगी। मेरे पाठ की त्रुटियों का इसे कैसे पता चल गया? इस बात को उस के बिना किसी को इलम न था, कि पाठ के उच्चारण में उस से कई बार गलतियां होती हैं पर यह एक नितांत गुप्त और निजी बात थी... जो भी हो मुजुल गंजू जी के मुरीद हो गये। हाथ जोड कर कहने लगे कि प्रभू आप ही मुझे सही भी कर दीजिए। अशोक गंजू ने मुसकुराते हुए कहा, ‘सब ठीक होगा, और अपनी क्रिया ठीक कीजिए।’ अशोक गंजू को अशोक जेलखानी बहुत याद करते हैं। उनके अध्यात्मिक स्वरूप का बहुत प्रभाव है इन पर। इसी प्रकार एक सम्मेलन में जालंधर में किसी अध्यात्मिक पुरूष ने कहा था कि आपको बाला जी जाना पड़ेगा। तब अशोक जी मात्र मुसकुरा कर रह गए। ‘भला इतनी दूर मैं कब और कहां जाऊं।’ पर जब इनकी नियुक्ति चिन्नाई के केंद्र में हुई तो एक ही नहीं, कई बार ये सपरिवार बाला जी के दर्शन कर आए। अशोक जेलखानी धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं रखते, किन्तु इनकी निष्ठा ईश्वर में सतत है। यह हर धर्म का सम्मान मन ही मन करते हैं और धार्मिक सतपुरुषों को बहुत इज्जत देते हैं। पर पाखंडियों और रूढ़िवादी व्यक्तियों के धार्मिक प्रपंचों से बहुत नाराज़ और दुःखी होते हैं। बुनियादपरस्त मुस्लमानों और हिन्दुओं को यह मानव की प्रगति में एक बड़ा रोड़ा मानते हैं। किन्तु एक बन्द समाज में, जहां रूढ़िगत सोच को संस्कृति का पर्याय मानकर इनसानों पर कैदोबन्द की तरह लागू किया जाता है। जहां कुछ एक लोग यह नहीं चाहते हैं कि सदियों से दबे-कुचले लोग आगे आकर समाज की तरक्की की डोर अपने हाथों में लेने को सक्षम हो सके। पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो सके। जहां यह उन लोगों को कतई मंजूर नहीं कि हर धर्म, हर जात और हर नस्ल के लोगों को बराबरी के हकूक हासिल हों। जहां औरतों को सदियों से चली आ रही मर्द की गुलामी की जंजीरों में ही हमेशा कैद देखना पसंद किया जाता हो, और जहां कुछ इनसान मालिक और बाकी सारों को गुलामों का जीवन जीने की तकलीफ दी जाती हो-ऐसे रूढ़िवादी सोच के लोगों के जीवन दर्शन और तौर-तरीकों से अशोक जेलखानी को हमेशा एतराज रहा है। हालांकि इन्होंने इस एतराज को खुलकर सामने आकर प्रकट न किया हो पर इन्हें जहां भी इसके विरुद्ध खड़ा होना पड़ा है, इन्होंने किसी चीज़ की परवाह नहीं की है। अपने विचारों को इस युग में दूषित होने से बचा पाना भी एक वैज्ञानिक सोच की ओर इशारा करता है। इतनी उपलब्धियों के साक्षी और इन से अत्यन्त प्रभावित एक और रंगकर्मी व बहुत ही प्रतिष्ठित ब्राडकास्टर व कार्यक्रम निर्माता, डाॅ. गौरीशंकर रैना भी इनकी सारी थियेटर यात्रा के समकालीन रहे हैं। डाॅ. गौरी शंकर खुद एक तरह से उस लहर से जुड़े रहे जो सत्तर के दशक में, जब घाटी में रंगमंच उत्कर्ष पर पहुंच रहा था और अशोक जेलखानी का नाम काफी प्रतिष्ठा पा चुका था। डाॅ. गौरी शंकर अशोक जेलखानी को एक नवयुग के आगन्तुक गुरू के रूप में देखते हैं। इनका कहना है कि ऐसे व्यक्ति से मिलने और इन्हें जानने और समझने की इन्हें प्रबल इच्छा हुई, जो बहुत कम समय में लगातार एक के बाद एक उपलब्धि अपने नाम कर रहा था। गौरी शंकर और सोहन लाल कौल आपस में बहुत गहरे दोस्त रहें हैं। इन्हांने नाटक ‘सन-31’ के मंचन की योजना बनाई, श्रीनगर के टैगोर हाल में अगले रंग-उत्सव की तैयारियां ज़ोरों पर थी। जम्मू-कश्मीर कला, साहित्य और संस्कृति अकादमी का थियेटर वर्कशाॅप यहीं चल रहा था और उसी की गहमागहमी में सब व्यस्त थे। गौरी शंकर रैना सोहन लाल कौल को लेकर अशोक जेलखानी से मिलने चले। गौरी शंकर अशोक जी से हुई इस प्रथम भेंट को इस प्रकार वर्णन करते हैं। एक सजग और कुशल अभिनेता के साथ ही एक ऐसे निर्देशक से चर्चा हो रही थी जो मंच सज्जा, प्रकाश, ध्वनिसंयोजन के साथ कलात्मक सृजन में माहिर थे। बहुत कुछ सुना था, बहुत कुछ देखा था, परंतु यह भेंट मंत्रमुग्ध करने वाली थी। किसी एक शक्तिशाली चुंबक के आकर्षण में बंधा हुआ मैं उनके साथ टैगोर हाॅल के गलियारे से ग्रीन-रूम की ओर बढ़ा जा रहा था। ग्रीन-रूम में अन्य मित्रों से भी मिला परन्तु यह भेंट एक चिरस्थायी-स्मृति के रूप में चिपक कर रह गई। गौरीशंकर रैना और अशोक जेलखानी एक ही संस्था में लगभग एक ही परिसर की दो अलग-अलग बिल्डिंगों में बैठे दूरदर्शन मंे कार्यरत हैं। गौरी शंकर ने दूरदर्शन कार्यक्रम निर्माता के रूप में और मीडिया विशेषज्ञ के रूप में काफी यश अर्जित किया है। आज के संदर्भ में बात करते वह कहते हैं- ‘इतने वर्षों बाद भी इनका व्यक्तिगत वैशिष्ट्य, एक जीवंत व्यक्तित्व, चिंतन और अनुभव प्रभावित करते हैं। कोई भी मिले तो देखते ही समझ जाता है कि एक सुनिश्चित विचार वाले व्यक्ति का सान्निध्य मिला है। गौरीशंकर रैना यह कहते हुए एक बार फिर अतीत के गलियारों में ले जाते हुए कहते हैं, कश्मीर पतझडकालीन लालिमा से घिरा हुआ था, लाल चिनारों के उसी माहौल में इनका नाटक ‘चिनार’ मंचित हुआ। यह अली मोहम्मद लोन साहब ने लिखा था। इसमें निर्देशन के साथ ही श्री जेलखानी ने, मुख्य पात्र, प्रोफेसर सलमान का चरित्र बखूबी निभाया था, यह नाटक किसी दूसरे शीर्षक से रेडियो नाटक के रूप में पहले ही प्रसारित हुआ था.... मगर रंगमंच पर इसका प्रारूप भिन्न था-नाटक का स्वर और योजना विन्यास अलग था। नाटक का प्रारंभ ज़ोरदार था और एक के बाद एक आने वाले चरित्र चुपचाप अवचेतना के स्तर पर काम कर जाते थे। यहां निर्देशक का कौशल नज़र आ रहा था। यह सन् 1976, अक्तूबर का महीना था। 1975 में अली मोहम्मद लोन साहब को उनके नाटक ‘सुय्या’ के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। ‘सुय्या’ ऐतिहासिक नाटक था, परन्तु ‘चिनार’ समसामयिक विषयाधारित! इसको प्रस्तुत करने की चुनौतियां अलग थीं। इसमें नाट्य आलेख नाटक के डिज़ाइन और अभिनय को व अलग से संलेषित किया गया था। इसमें इन्दू रैना (मशहूर अनउंसर) और अशोक जाफरानी ने भी प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं। उनके स्वर और अभिनय क्षमताओं को आंकते हुए निर्देशक जेलखानी ने भव्य और अनुपम रंगमंचीय रचना को प्रस्तुत करने में सफलता पाई थी। जैसे एक कोरे कैनवास पर नए चित्र रचे गए थे। वे सारी धारणाएं नकार दीं गई थीं, जो निर्देशक की स्वायत्ता और कल्प्ना को अवरुद्ध करती हैं। असीमित संभावनाओं का एक व्यक्ति अन्तहीन संभावनाओं के साथ रंगमंच पर नए नाटक शिल्प को प्रस्तुत करने लगा था। इसके बाद गौरीशंकर दिल्ली चले गए और इन्हें अशोक जेलखानी के बाकी नाटक देखने का अवसर नहीं मिल पाया, किन्तु जब दिल्ली से लौटने पर दुबारा मुलाकात हुई तो अशोक जेलखानी टेलीविजन में ड्रामा-प्राॅड्यूसर के रूप में स्थापित हो चुके थे। गौरीशंकर का कहना है कि कश्मीर में पैड़ी चेयेचस्की जैसा टेलीविजन नाटकार उपलब्ध नहीं था। गिने-चुने रेडियो नाटकार या रंगमंच के लिए लिखने वाले ही टेलीविजन के लिए भी लिखते थे और इन्हें अभी टेलीविजन के माध्यम यानी दृश्य-श्राव्य के लिए लिखने का पर्याप्त अनुभव नहीं था। इसलिए जो आलेख इन नाट्यकारों से टेलीविजन ड्रामा के लिए आतें इनमें तकनीकी त्रुटियों के अतिरिक्त कई अन्य सुधारों की गुंजाइश बनी रहती। इसलिए टेलीविजन के नाटकों का निर्माण करते समय काफी सोच-विचार से काम लिया जाता-दर्शकों को ध्यान में रखकर दृश्य संयोजन करना पड़ता और शूटिंग के लिए उपलब्ध सीमित उपकरणों, एडिटिंग की लगभग नहीं के बराबर सुविधाओं को ध्यान में रखकर ही आलेख तैयार किए जाते-इस संबंध में राजेश कौल जी ने बहुत ऐसी बातों की ओर ध्यान दिलाया जिसे आज की पीढ़ी जान कर हैरान हुए बिना नहीं रहेगी। गौरीशंकर ने इस स्थिति का ही अत्यंत समीचीन आकलन करते उस समय के सटीक और सिद्धहस्त व माहिर व्यक्ति अशोक जेलखानी के कार्य कौशल की मीमांसा की है। गौरीशंकर कहते हैं, हर पखवाड़े एक नया नाटक प्रसारित होना था। अभिनेताओं और तकनीशियनों के साथ मिलकर काम करने की अत्यंत आवश्यकता होती। कोई भी चूक सारे करे कराए पर पानी फेर सकता था। क्योंकि यह रन-थ्रू यानी बिना रूके शूटिंग और रिकाॅर्डिंग का युग था। एक बार स्टूडियू में उलटी गिनती के बाद एक्शन बोला जाता तो कट रिकाॅर्डिंग समाप्त होने पर ही होता था। अब आप समझ सकते हैं, आपने जो काम आउटडोर में 16 मि.मि. फिल्म पर शूट किया होता, उसे पहले ही रिकाॅर्डिंग के लिए एडिट कर के तैयार रखा होना चाहिए था, अक्सर यह ड्रामा के किसी सेगमेंट का हिस्सा होता और इसे लाइव ड्रामा के साथ आॅनलाइन जोड़ दिया जाता। सारी व्यवस्था दोषरहित होना ज़रूरी था-संगीत, फिल्म स्ट्रिप और खेले जा रहे ड्रामें के सेट पर बिखरे अभिनेता-इन सबको एक कमांड के तहत लाकर वास्तविक समय में रिकाॅर्ड करना होता। यहां एक बार पैनल पर बैठने के बाद सोचने के लिए शायद ही कुछ बाकी रहता था-जो कुछ होता था वह देखना और करना, बिना उच्चतम कार्यकौशल और अंग्रेजी में (एडिट) के बिना यह कार्य अंजाम देना असंभव था। इसीलिए टीवी निर्देशक पहले से सब तैयारी करते-क्या दिखाना चाहिए और कैसे दिखाना चाहिए, यह निर्देशक के निजी अनुभव, व्यक्तिगत बोध एवं संवेदनाओं पर निर्भर करता-ऐसे ही जटिल समय में अशोक जेलखानी ने जब टीवी नाटकों की कल्पना की तो एक से एक अच्छे नाटक आते रहे कश्मीर में धारावाहक नाटकों की श्रृंखला नेशनल डीडी वन से बहुत पहले अशोक जेलखानी ने आरम्भ की। अपने नाटकों की सफलता का श्रेय हमेशा उन नाटकों के लेखकों, काम करने वाले कलाकारों और तकनीशियनों को दिया। कभी इन्होंने यह नहीं कहा कि यह इनके अकेले की उपलब्धि है। गौरीशंकर जी ने जिस निकटता, सौहाद्र और अपनेपन को इनके सान्निध्य में पाया इसे इस तरह व्यक्त किया है, अत्यंत सरल घाटी का निर शोभित भाव मंच भूमि पर
कहा सुना देखा है सबने जेठ टले सावन की झर-झर
लगन-मग्न चलना निज पथ पर
खामोशी, चिनार और पतझर नील-नदी का वेग निरंतर...।
इस अनुभव को राजेश कौल जी ने अपने तरीके से अत्यंत भावुक और भाव-भीनी शब्दों में व्यक्त किया। राजेश कौल स्वयं एक विशिष्ट ब्राडकास्टर और कार्यक्रम निर्माता रहे हैं। इनको इस बात पर गर्व है कि इन्होंने अशोक जेलखानी जी के साथ इनके प्राॅडक्शन असिसटेंट की हैसियत से अपने ड्रामा कैरियर की दूरदर्शन में शुरूआत की। दूरदर्शन में बतौर प्राॅडक्शन असिस्टेंट नियुक्ति होने के बाद राजेश कौल ने अपनी काबलियत और अथक मेहनत के कारण बहुत जल्द एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम निर्माता के रूप में ख्याति अर्जित की। राजेश कौल एक संवेनदशील और गहन अनुभवी व्यक्ति हैं। इनमंे कला-कौशल के साथ ही मानव संवेदनाओं को मूर्त रूप देने का गजब का कौशल है। कार्यक्रम निर्माण की हर प्रणाली और परिपाटी से खुद को लैस करने वाले इस व्यक्ति की सोच पर और कार्यविधि पर जेलखानी का काफी प्रभाव रहा। गौरीशंकर ने जिस प्रारंभिक काल का उल्लेख करते हुए कहा था कि किस प्रकार एक रन-थ्रू रिकाॅर्डिंग होती थी, इसी संदर्भ में राजेश कौल जी एक ड्रामे की मिसाल देते हैं, जो इन्होंने अशोक जी की निगरानी में किया, इस ड्रामा में एक सीन फ्लैश बैक का है-जिसमें चरित्र के मुख पर दाढ़ी नहीं है और कभी वह वर्तमान में लौटता है तो मुख पर दाढ़ी है। अब शूटिंग तो रोकने का सवाल ही पैदा नहीं होता-जरा से अंतराल में ही सबकुछ होता है। इसके लिए ऐसी व्यवस्था तैयार की गई-एक कमरे में फ्लैश बैक और उसके साथ सटे दूसरे कमरे में वर्तमान का सेट लगा। दोनों के बीच का फासला एक संकरी गली से जोड़ा गया। इस गली में मेकअप विशेषज्ञ निसार बड़गामी स्वयं क्रेप लेकर अंधेरे में खड़ा रहता। और न्यूनतम अंतराल में चरित्र के मुख से क्रेप उतारता और चढ़ाता। समस्त नाटक को देखने के बाद किसी भी दर्शक को यह समझ नहीं आया कि इतनी जल्दी ये लोग चरित्र का हुलिया कैसे बदल पाएं। दोनों ने दोस्तों की तरह 18 वर्ष एक साथ काम किया-इस बीच कई ऐसे भी क्षण आए जब बाहरी तत्वों के हस्तक्षेप के कारण रिश्तों में तनाव भी आया-पर दोनों एक साथ बैठकर सब साफ-सफाई करते आए आगे बढ़ते। इनके जीवन की अपनी अलग-अलग उपलब्धियां हैं-पर आज भी राजेश कौल, अशोक जेलखानी के प्रति सम्मान और आभार के भाव से भर जाते हैं। इन्हें एक बीकन और गाइड का दर्जा ही देते हैं। 1976 में जब राजेश जी की शादी को केवल 10 दिन हुए थे-अशोक जेलखानी ने ‘बेगुर बाॅनाॅ’ नाटक करना था। हुआ यूं कि इस नाटक में एक प्रमुख चरित्र का रोल करने वाला अभिनेता अनन्तनाग में सैलाब के कारण फंस गया। कम से कम एक सप्ताह तक रास्ता खुलने की संभावना न थी। राजेश कौल ने एक अनूठा प्रस्ताव अशोक जेलखानी के सामने रखा, अभी राजेश कौल ड्रामा प्राॅडक्शन में अधिक माहिर नहीं थे और डायरेक्शन में भी इतना अनुभव न था। पर भीतर से कोई आवाज़ दे रहा था, ‘तुम कर सकते हो’ तो इन्होंने वे अशोक जी को रोल करने के लिए कहा और स्वयं पैनल पर बैठने का प्रस्ताव दिया-अशोक जी को इस नौजवान पर पूरा भरोसा था। इन्होंने मान लिया। अशोक जेलखानी की यही तो खासियत रही है, जब भी कोई विपरीत स्थिति खड़ी होती है तो वह अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला लेने में एक मिनट भी वहीं लगाते। रोल खुद करने का मतलब था कम-से-कम समय यानी मात्र आधे दिन में करीब दस, बारह पेज के डायलाॅग याद करना और बिना किसी कट के इन्हंे अन्य अभिनेताओं के साथ अभिनीत करना। कमाल की बात यह है कि यह नाटक सफलता पूर्वक रिकाॅर्ड हुआ, टेलीकास्ट हुआ और काफी सराहा गया। अशोक जेलखानी का रोल देखने वालों को आज भी याद है। कश्मीर एक मुस्लिम बहुल्य आबादी का प्रदेश है। यहां कश्मीर में सब से अधिकतम 99 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं। इनकी संस्कृति और सभ्यता में भारतीय सभ्यता की ही झलक साफ देखने को मिलती। किन्तु राजनीति की उठा-पटक ने यहां के मुसलमानों में एक अजीब बेइतमिनानी को जगाना प्रारंभ किया था। फिरकापरस्त और बुनियाद परस्तों को यहां की मिली-जुली गंगाजमुनी संस्कृति पर अनायस भौंवे चड़ने लगती। वे इस बात से कदापि खुश नज़र नहीं आते कि यहां के हिन्दू और मुसलमान कलाकार मिलजुल कर इस साझी संस्कृति को फलने-फूलने में सजग रूप से कार्यरत है। राजनीतिक स्तर पर इस माहौल के विरुद्ध काफी जोर-शोर से मुहिम छेड़ी जा रही थी। यहां, मुस्लिम महिलाओं को नाटकों में भाग लेने या टेलीविजन कार्यक्रमों में आने पर विरोध के स्वर सुनने पड़ते। पर इन बातों को दरकिनार कर इस केंद्र की शोभा जिन महिला कलाकारों और कर्मचारियों ने बढ़ासई उनमें प्ररमुख रूप से नसीम खान, इनकी छोटी बहन, परवीन अख्तर हफीजा कौसर आदि बहुत प्रमुख रहीं। इन सबने अशोक जेलखानी के साथ या तो कलाकार के रूप अथवा इनके अधीनस्थ कर्मचारी के रूप मंे काम किया। सब इनकी दिल से तारीफ करती। नसीम खान को अक़्सर अशोक जी मेम साहब कहकर पुकारते और वह वापस साहब जी कहकर मुखातिब होती। जिस प्रकार का सौहार्दपूर्ण माहौल यहां था-शायद ही कहीं देखने को मिलता। दूरदर्शन केंद्र वादी के कलाकारों का एक मुख्य केंद्र बिन्दु बन चुका था। यहां पर अदीब, संगीत के उस्ताद, गायक, अभिनेता, उत्कृष्ट कलाकार सब आते। यह एक संगम का रूप धारण कर चुका था-यहां पर काबिल और समझदार निर्माता, निर्देशकों की कोई कमी नहीं थी, एक से बढ़कर एक व्यक्ति ने इस केंद्र को अपने व्यक्तित्व से निखारने का प्रयत्न किया। फारूक नाज़वी, स्व. बशीर भट,ट, बशीर बड़गामी, बशारत, जावेद इक़बाल, मीर मुश्ताक, स्व. जफर अहमद, चमन लाल हक्खू, बंसी कौल, जयकिशन ज्युत्शी, प्यारे रैना, जैसे काबिल और ज़हीन निर्माता-निर्देशक थे। सब एक से बढ़कर एक और इन सबमें अपनी एक अनूठी और विशेष विलगता थी। अशोक जेलखानी की सब भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। यहां पर क्योंकि पेशावराना प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश के रहते आपसी मनमुटाव भी कमोबेश बना रहता पर इससे कभी व्यक्त्गित संबंधों में कटुता या खटास का रूप नहीं लेने दिया जाता-पास ही सटे बण्ड पर बने छोटे कैफेटेरिया और रेस्तरां में अक्सर दूरदर्शन कलाकारों, की गहमागहमी देखने को मिलती-अशोक जेलखानी को इस गहमागहमी का एक केंद्रबिन्दु समझा जाता-यहां अक्सर चाय, काफी व कान्ती का सेवन करने के बहाने लंबी बातचीत और रचनात्मक बहसें होती। इन बहसों व बातों का संबंध अक्सर कला और कला से संबंधित विषयों से लेकर, विश्व काव्य, टीवी, सिनेमा, थियेटर और राजनीति से होता। बहस से माहौल गर्मागर्म रहता। यही प्यार करने वाले जोड़े भी यदा-कदा बैठे नज़र आते। ऐसा लगता कि हम दुनियां के सबसे विकसित और सांस्कृतिक रूप से उद्धात क्षेत्र में बैठे हैं। जो तस्वीर आज का माहौल और राजनीति दुनियां के सामने कश्मीर के संबंध में पेश करता है यह इससे अलग था। यह सोचने-समझने वाले जिजीविषा से युक्त नौजवानों का मंच था। यहां प्रगति और विकास के रास्तों में आए अवरोधों को हटाने का संयुक्त मोर्चा तैयार होता-यह माहौल रचनात्मकता सौंदर्यबोध और अभिव्यक्ति को व्यापकता प्रदान करने का था। यहां किसी भी तरह की बुनियादपरस्ती का कोई प्रश्न ही नहीं उठता-यहां शांतिवीर कौल और शहज़ादी साइयमन जैसे नवयुवक निर्माता निर्देशक और सीतूनन्दा व रूप स्पार्क जैसे अंग्रेज़ी के नवीन कवि और कार्यक्रम निर्माता व दर्जनों अन्य सहृदय और प्रबुद्ध कवि देखने को मिलते। यह माहौल उत्साह और उमंग से भर देता। इस माहौल का एक अहम सूत्रधार अशोक जेलखानी था। इसके साथ अक्सर टेलीविजन के नामी अभिनेता, अभिनेत्रियां और लेखक यहां आते। मैंने 1973 में अनन्तनाग काॅलेज से बीए पास किया-काॅलेज में श्री रत्नलाल शांत मेरे हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर रहे। डाॅक्टर रत्नलाल शांत उस समय हिन्दी और कश्मीरी दोनों भाषाओं के प्रसिद्ध लेखक और कवि हो चुके थे। उनके रेडियो नाटक भी काफी मशहूर थे और हमारा सौभाग्य था कि उन्हें हमारे काॅलेज स्थान्तरित किया गया था-मेरा बी ए में यह अंतिम वर्ष था-इससे पहले मैंने अपने कस्बे में मंच पर कई प्रस्तुतियां पेश की थी। मैंने अपने तरीके से यहां एक परिवर्तन लाया था-मैंने अपने कस्बे में एक ड्रामाटिक क्लब बनाकर रमेश मेहता के कई नाटक ‘टिकट’ वसूल करके बहुत सफलतापूर्वक खेले थे। हमारे क्लब के नाटक लोगों ने बहुत पसंद किए। हमने संगीत में भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया और रेडियो पर कई कार्यक्रम ‘अमर ड्रामाटिक क्लब’ के नाम से प्रस्तुत किए। मेरे क्लब के मात्र नाम लिखने से मेरे पास लोगों की चिट्ठियां पहुंच जाती, यह जोर था हमारे गीतों का जो हम रेडियो पर प्रस्तुत करते। काॅलेज में डाॅ. शांत को यह मालूम पड़ा तो इन्हांेने मुझे अपने ड्रामा ग्रुप में बुलाया और हमने उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक जोंक खेला। कितने दुर्भाग्य की बात है कि कई लड़कियों के इस नाटक में काम करने की इच्छा होने के बावजूद हमें महिला चरित्रों के रोल लड़कों से कराना पड़े। पर यह नाटक देखने काॅलेज की लड़कियां जब सारे प्रतिबंध तोड़कर गेट क्रेश करने लगी तो उनके लिए अलग से शो रखा गया। मुझे इस नाटक ने काफी प्रोत्साहित किया और डाॅ. रत्न लाल शांत ने मुझे प्राण किशोकर साहब और सोमनाथ साधो साहब पर दो अलग-अलग पत्र लिख कर दिए कि मुझे नाटक और संगीत के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अवसर दिया जाए। हालांकि मेरा श्रीनगर जाकर रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेना लगभग असंभव इसलिए था कि शहर में रहने का कोई ठौर ठिकाना न था। और अकसर शहर पहुंचने में ही सारा दिन निकल जाता-तब भी जब मैं किसी भी तरह शहर रेडियो स्टेशन पहुंचा तो मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। क्या मैं सचमुच उन लोगों से मिल पाऊंगा, जिन्हें सुनकर मैं हमेशा इन्हें देखने को तरसता था। गैट से पास बनाकर मैं भीतर घुसा और कमरों पर नाम पटियां पढ़ने लगा। सोमनाथ साधो के कमरे में दरवाज़ा खुला था और कुर्सी पर छरहरे बदन का एक व्यक्ति कुछ फाइलें देख रहा था। मैंने अंदर आने की अनुमति मांगी उसने हामी में सिर हिलाकर अनुमति दी। यह हरगिज साधू साहब नहीं हो सकते। मैं सोचने लगे, लगभग पंद्रह बीस मिनट उन्होंने कोई बात नहीं की अपनी फाइल पढ़ते रहे। शायद वह कोई आलेख पढ़ रहे थे। इतने अन्तराल में मेरा गला सूख गया था और मैं मुश्किल से बात करने का प्रयास कर पा रहा था। बोलो क्या बात है। उनका इतना कहना था कि मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा अरे! यह तो स्वयं साधो साहब हैं। उन्हीं का स्तर... मैंने जेब से उनके नाम का पत्र निकालकर दिखाया। अच्छा! अच्छा! पत्र पढ़कर वे बोले, ‘जल्दी में तो नहीं हो, चलो तुम्हारी रिकाॅर्डिंग कराते हैं।’ मेरे होश गुम थे और मुझे अपने आप पर विश्वास नहीं हो रहा था। इस तरह श्रीनगर मंे मेरा स्वागत हुआ। किन्तु यह सिलसिला अधिक देर न चला, क्योंकि बहुत जल्द मेरी नौकरी स्टेट बैक में लगी और यह सिलसिला टूट गया-मन मार कर मैं मुश्किल से छह-सात महीने बैंक में टिक पाया, नौकरी छोड़कर मैंने 1974 में हिन्दी विभाग में एम ए के लिए दाखिला लिया और शहर से दुबारा जुड़ गया-पर एडमिशन में एक साल का अंतराल बहुत भारी पड़ा-मेरा वज़ीफा अड़चन में पड़ गया और मुझे बहुत बुरे दिनों का सामना करना पड़ा-इन दिनों को रेडियो और टीवी के कार्यक्रमों से आनेवाले पैसों के बूते पर मैंने पढ़ाई जारी रखी। यहीं मुझे मालूम हुआ कि शहर में किसी नवयुवक अशोक जेलखानी ने एक नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ खेल कर काफी वाहवाही लूटी है। मेरे एक सहपाठी प्यारे लाल ने मुझे यह समाचार सुनाया-किन्तु असली विवरण मुझे काव्य शास्त्र के प्रोफेसर डाॅक्टर अयूब प्रेमी से सुनने को मिला। डाॅ. अयूब अक्सर टैगोर हाल नाटक देखने चले जाते-खासकर नाटकों के हिन्दी रूपान्तरण वह कभी न छोड़ते। इन्होंने वसन्त थियेटर के लगभग सारे नाटक देखे थे और इसके पीछे एक वजह था अशोक जाफरानी, जाफरानी यहां हिन्दी में एम ए पूरा कर चुका था-इसलिए विभाग के टीचरों को अकसर पास दे देता और इनवाइट करता। डाॅक्टर अयूब प्रेमी ने मुझे अशोक जाफरानी से परिचित कराया और मैंने उनके थियेटर को जानना शुरू किया-इससे पहले काफी दिनों तक मैं संगरमाल में चंद्रशेखर के साथ रिहर्सल करता रहा। बसन्त में बादल सरकार के ‘पगला घोड़ा’ पर काम चल रहा था। मुझे ‘कार्तिक’ का रोल मिला, पर यह नाटक बहुत अर्से तक अधर में लटका रहा। मुझे बहुत अफसोस हो रहा था। मेरा काफी समय नष्ट हो गया था। इसी बीच अशोक जेलखानी ने इस नाटक को कुछ समय छोड़ देने की बात की और बादल सरकार का ही ‘गिद्ध’ स्टेज पर करने का विचार किया। यह बसन्त थियेटर के साथ मेरा पहला नाटक था। श्रीनगर में मेरी यह पहली स्टेज परफारमेंस थी। इसमें मैंने बाप का रोल किया। मेरी उम्र तब केवल 22 साल थी। इस नाटक की बहुत प्रशंसा हुई और मेरे रोल की तो सब अखबारों में चर्चा हुई। मैं बहुत खुश था। इस तरह अशोक जेलखानी के साथ मेरा पहला अनुभव एक दीर्घकालीन मित्रता और गहन संबंध में बदल गया। मुझे काम के प्रति प्रतिबद्धता और हर मुश्किल को पार करके अपने कार्य को सफल बनाने का मंत्र सारे दुनिया में अशोक जी से बेहतर कोई न सिखा सकता। न मुझमें इस बात को जानने की अहमयत मालूम पड़ती। ‘गिद्ध’ के बाद हमने शंकर शेष के लिखे नाटक ‘फन्दी’ पर काफी समय तक काम किया पर इसके मंचन के समय मैं कहीं और व्यस्त रहा और इसमंे भाग नहीं ले पाया। इसके बाद हमने एक नाटक सुरेन्द्र वर्मा का तैयार किया ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ इस नाटक के लिए मुख्य महिला पात्र के लिए काफी अड़चनों का सामना करना पड़ा। पर अन्त में आशा जारू को लिया गया। यह नाटक मैंने सह-निर्देशक के रूप में किया था और इसमें मैंने प्रतोष का रोल किया था। मेरे लिए अशोक जी एक मार्गदर्शक और गुरू से कम नहीं। न केवल थियेटर और टेलीविजन के क्षेत्र में किन्तु जीवन के बहुत कठिन क्षणों में इन्होंने मुझे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से संभाला। मुझे इस बात का पता भी न चलने दिया कि यह मेरी गलतियों को सुधार रहे हैं। दूसरों की निंदा कभी नहीं करते न आपको करने देंगे। हमेशा ‘खुद को देखो’ पर जोर देते हैं। अपनी असफलता का दोष, दूसरों पर नहीं मड़ने देते। सफलता से बहुत खुश होकर दिमाग़ नहीं खराब होने देते और असफलता से निराश होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहने देते। कभी खाली नहीं बैठे रहने देते। काम क्षमता के अनुसार करते रहने में ही भलाई है। नाटक नहीं होता तो नाटक लिखो, लिखते नहीं हो तो अभिनय करो, कुछ न कुछ क्रिएटिव करते रहो। मेरी तरह ही श्रीनगर में दर्जनों अभिनेता अशेक जी से जुड़ कर काम करके थियेटर और टेलीविजन के क्षेत्र में आगे राह तलाशते रहे थे। इनमें कमल राजदान, रीता जलाली, विजय धर, अनिल सिंह, शशि, तारिक जावेद, मोहन शाह, अशोक जालपुरी, अय्याश आरिफ के नाम प्रमुख हैं। अय्याष आरिफ का कहना है कि 1970 के आस-पास जब उसने थियेटर की दुनिया में आंख खोली तो कश्मीर में थियेटर का प्रचलन अपने उच्चतम शिखर पर था। यह दौर कश्मीर के थियेटर का स्वर्ण युग कहलाने लायक है। और इसी युग ने जहां जिनाब अली मुहम्मद लोन, पुष्कर मान, सोमनाथ साधे, प्राण किशोर, कविरत्न, सजूद सैलानी, मखन लाल सराफ, जवाहर वान्चू और शाम लाल धर ‘बहार’ व नौजवान युवाओं में, --- प्राण चन्द्रा, वीरेन्द्र राजदान, प्यारे रैना, एमके रैना, के.के. रैना, और विशेषकर अशोक जेलखानी जैसे कलाकारों से हमें रूबरू होने का अवसर प्रदान किया। अय्याश आरिफ अशोक जेलखानी से मिलने को वैसे ही उत्सुक दिखते जैसे और नौजवानों की उत्सुकता रही होगी। इनका कहना है कि अशोक जी ने कश्मीर के थियेटर पर उस समय पर्दापण किया जब कश्मीर के थियेटर पर विभिन्न प्रकार की प्रणालियों के नाटक खेले जा चुके थे। कश्मीर में थियेटर नाटक लिखने वाले नाटककार, अपने राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिवेश पर सजग्गता से काफी जागरुक लेखन कर रहे थे। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी नाटकों के प्रति जागरुकता में कमी न थी पर कश्मीर में आधुनिक थियेटर को प्रश्रय देना और इसे सही मायन में पेश करने का श्रेय केवल और केवल अशोक जेलखानी को जाता है। इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाटक मंचित करके नए नाटकारों और कलाकारों को मार्गदर्शन किया। अय्याश ने अशोक जेलखानी के टीवी ड्रामा सीरियल ‘दुच्च’ में काम किया, जिसे तेज तिक्कू और ज़ाहिद ‘नाशाद’ यानी जाहिद हुसैन लिख रहे थे। अपनी पहली मुलाकात में ही जब अशोक जी ने अय्याश को नाम से पुकार कर इज्जत से सीनियर कलाकारों के बीच बिठाकर रोल लिखने को कहा तो अय्याश को यकीन नहीं आया। इतना बड़ा निर्माता किस सादगी और कितनी शफक़त से पेश आता है। अय्याश को लगा कि वह इस शख्स को वर्षों से जानता है। अय्याश को इस आदमी की शख्सियत में कशिश और मित्रता का आभास हुआ। दोनों के प्रेम और मित्रता की जो नींव आज से 30 वर्ष पहले पड़ी आज भी ज्यों की त्यों बरकरार है। इस बीच दुनिया ने कितनी करवट ली और कितना कुछ उखड़, उजड़ गया पर यह मित्रता आज भी बरकरार है। क्योंकि इसके मूल में मानव मूल्यों और सरोकारों की भित्ति हैं। यह कभी एक गुरू के रूप में और कभी अपने परम् हितैषी और भ्राता के रूप में अशोक जी को देखते हैं। अय्याश अपनी कामयाबी का सारा श्रेय अशोक जी को देते कहते हैं कि यदि अशोक जी सही रोल न देते, मुझे लोगों में अदाकार की पहचान न मिलती। उन्होंने हम ऐसे नौजवानों की परेशानियों को शायद सही तौर पर आत्मसात किया था, यह रिश्ता केवल एक ड्रामा निर्माता और कलाकार का न होकर एक मानवीय भ्रार्तभाव और व्यापक इनसानी संबंध का था। हम नौजवानों को जिस सरपरस्ती की आवश्यकता थी वह हमें अशोक जी जैसे अनुभवी लोगों से प्राप्त होती रही, शायद यही कारण है कि हम आग मंे से खरे सोने की तरह तप कर आज भी चट्टान की तरह हर उस जोखिम को पार करने मं कामयाब रहे हैं, जिसने वादी से सांस्कृतिक गतिविधियों को जड़ से उखाड़ने का एक मकरूह सिलसिला शुरू किया था। दूरदर्शन श्रीनगर मंे 1973 से 1976 तक शैलन्द्र शंकर, 1976 से 1979-80 तक एसपीएस किरण, 190-1983 तक ए एस गारेवाल, और 1983-88 तक मज़हर इमाम निदेशक पद पर आसीन रहे। अशोक जेलखानी की सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सब ने इसे सर्वगुणों से संपन्न और सहज व सादगी के व्यक्ति के तौर पर जाना-इस कार्यकाल में कभी भी अशोक जेलखानी के खिलाफ किसी प्रकार की शिकायत या कोई अप्रिय या विपरीत टिप्पणी नहीं लिखी गई। दर्जनों सहकर्मियों, कलाकारों, स्टाफ के अधीनस्थ कर्मियों के साथ अशोक जेलखानी का रिश्ता अत्यंत सौहार्दपूर्वक व मित्रता पूर्वक रहा। 1975 में प्राॅड्यूसर बनने के बाद इन्हंे स्क्रीन पर भी पर्याप्त लोकप्रियता मिली। इनका खतों के जवाब कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय था। स्वयं दर्शकों के खतों के जवाब इस रोचकता से देते कि लोग उन दिनों का पाकिस्तानी हिट सीरियल ‘नीलाम घर’ छोड़कर इनका कार्यक्रम देखते। इस संदर्भ में यह बात बहुत अहम है कि सरहद पार पाकिस्तान में और पाक अधिकृत कश्मीर में भी इस कार्यक्रम की लोकप्रियता कार्यक्रम देखने वालों के भेजे गए तारीफों पत्रों से मालूम पड़ती है। एक महिला दर्शक ने जोर देकर यह बात कही थी कि वह ‘नीलाम घर’ न देखकर ‘आप और हम’ कार्यक्रम ही देखती हैं। यह खत पाकधिकृत कश्मीर से आया था और यह महिला इस कार्यक्रम के लिए विधिवत् पत्र भेजती रहती। दूरदर्शन के एक अन्य व्यक्ति जिन्होंने थियेटर टेलीविजन और टेलीविजन पत्रकारिता व नाटकों के कार्यक्रम प्रस्तुति मंे काफी मान और सफलता प्राप्त की अशोक जेलखानी के बारे में कई दिलचस्प बातें बताईं, इन्हें अशोक जेलखानी के बहुत नजदीक समझा जाता है और इनका नाम शबीर मुजाहिद है। शबीर मुजाहिद और अशोक जेलखानी एक-दूसरे को 1971 सन् से जानते हैं। वास्तव में दोनों एस पी काॅलेज श्रीनगर मंे पढ़ते थे। अशोक जी शबीर मुजाहिद से सीनियर थे और काॅलेज की कलचुरल विंग के मुख्य कार्यकर्ता भी थे। शबीर मुजाहिद स्टेज ड्रामा एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते, यही कारण दोनों को नजदीक लाया। जब शबीर मुजाहिद एस पी काॅलेज में 1971 में आए तो अशोक जेलखानी का नाम पहले ही कश्मीर के रंगमंच पर स्थापित हो चुका था। शबहीर मुजाहिद जेलखानी जी से काफी प्रभावित रहे। 1973 में श्रीनगर में टेलीविजन की शुरूआत के साथ ही दोनों ने यहां नौकरी करना शुरू किया। नौकरी के अतिरिक्त दोनों स्टेज पर भी काफी सक्रिय रहे। टेलीविजन में अशोक जेलखानी को न केवल एक सीनियर अफसर अपितु एक ऐसे साथी के रूप में शबीर जी ने पाया जो हर समय कोई भी किसी भी प्रकार की मदद के लिए तैयार रहते। वो चाहे आॅफिस के काम से संबंधित होता या निजी जीवन की कोई बात होती। अशोक जी के पास एक स्पष्ट और साफ जीवन दृष्टि है, उनमंे किसी तरह का उलझाव या बिखराव नहीं है। वे दो टूक आदमी हैं। झूठी तारीफ या झूठी बात को अपने सामने नकारते हैं। कभी भी किसी का श्रेय अपने ऊपर नहीं लेते, न ही किसी की बेवजह निंदा करते हैं। उन्हें दूसरों की चुगली सुनना, या उसमें दिलचस्पी रखना कतई पसंद नहीं। वह काम के तरीके से अधिक एंड रिजल्ट यानी अंतिम नतीजे पर ध्यान देते हैं। उनको पहले से पूर्वानुमान होता है कि किस कृत्य के क्या नतीजे निकल सकते हैं। इस तरह वह बहुत सावधानी से हर काम करते हैं। शबीर साहब का कहना है कि अशोक जेलखानी से उन्हांेने न केवल टेलीविजन प्राॅडक्शन का काम सीखा अपितु जीवन की फिलोसफी सीखी, जीवन दर्शन को आत्मसात किया। शबीर साहब स्वयं आज श्रीनगर स्टेशन में डिप्टी डायरेक्टर हैं। शबीर साहब अशोक जी के अनुशासन और कार्यकुशलता के कायल हैं। इन्हें अशोक जी से बराबर बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
हाल ही में हुए कामनवेल्थ खेलों में षबीर ने अषोक जी के नेतिृृत्व में काम किया औरसब ने इन खेलों के प्रसारण की जम कर तारीफ की। यह एक अन्र्तराष्ट्रीय इवेंट था औरइस में भारत की प्रतिष्ठता एक तरह से दांव पर लगी थी। इन खेलों का न केवल सफलप्रसारण हुआ अपितु इस प्रसारण की विष्व भर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रषंसा हुई।अषोक जेलखानी भरतीय टेलीविजन ब्राडकास्टिंग सेक्टर के आज बहुत प्रभावषाली और महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके हैं। इतना कुछ करने के बावजूद अपनी धरती और अपने लोगों से बहुत नज़दीक से जुड रहते हैं। इस पुस्तक का एक मुख्य उद्धेष्य इस रिषते ओर इस की सर्वांगीय प्रक्रिया को इंगित करना है।
एक व्यक्ति का जरा भर योगदान कई लोगों का पथ प्रषस्त कर सकता है। एक योग्य व्यक्ति के अनुभव से सरकार को फायदा उठाना चाहिए। खासकर ऐसे आदमी से जो लोक सेवा में कभी कोताही नहीं बरतता, कभी पीछे नहीं हटता-जिसने आज तक कभी आगे आकर इस बात का गिला नहीं किया कि उसकी कभी उपेक्षा हुई। जिसने कभी भी अपने किये हुए काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेष करके जिस किसी तरह बड़े अफसरों से कोई रियायत या सिफारिष नहीं चाही। अषोक जेलखानी को जब जिस योग्य समझा गया उसने अगले को कभी ना नहीं की-बल्कि जब कभी इरादतन भी इन्हें ठेस पहुंचाने के लिए किसी ने यह जानकर उपेक्षा करनी चाही कि इन्हें कोई मामूली काम सौंपा जाये तो इन्होंने इस काम को इस कुषलता से किया कि वह काम गैर-मामूली लगने लगा।
लगातार सफल, नाटक और सीरियल करते रहने से श्रीनगर केंद्र में कई लोग यह सोचने लगे थे कि अगर अषोक जेलखानी ही हमेषा नाटक करते रहे तो उन्हें इस क्षेत्र में अपना लोहा मनवाने का अवसर कब मिलेगा? अषोक जेलखानी इसे नाटक की आसाइनमेंट ली गई और इन्हें खेल-खिलाड़ी का कार्यक्रम दिया गया। इस कार्यक्रम को इन्होंने इतनी कार्यकुषलता से किया कि केंद्र में ही नहीं श्रीनगर केंद्र से बाहर भी यह कार्यक्रम चर्चित हुए। खेल प्रस्तुतिकर्ता की ख्याति इतनी बढ़ी कि इन्होंने राष्ट्रीय इवेन्ट कवर किये और आज अंतर्राष्ट्रीय इवेन्ट के मुख्य कार्यकर्ता रहे। अथक मेहनत, लगन, अपने काम में ईमानदारी और पारदर्षिता इनकी कामयाबी के सौपान रहे हैं।-------------------------------------------------------- खतरे की घंटी
आठ सितंबर 1981 को षेख मुहम्मद अबदुल्ला के देहांत के बाद उनके पुत्र फारूक अबदुल्ला ने कषमीर में नेषनल कांफ्रेंस की बागडोर संभाली और राज्य के मुख्यमंत्री बने। इन्होंने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही विकट राजनीतिक अवसरवाद का सामना किया। कांग्रेस के गुर्गे सत्ता से अधिक देर दूर नहीं रह पाये, इन्हें किसी भी तरह से राज्य की सत्ता में वापसी करनी थी। ये केंद्र में इंदिरागांधी और बाद में राजीव गांधी पर ज़ोर डालते रहे कि फारूक अबदुल्ला को किसी प्रकार सत्ता में कांग्रेस की भागीदारी के लिए मनाया जाये।
फारूक अबदुल्ला इस कुचक्र को पहचानने लगे थे और वे कांग्रेस से इतर, अन्य पार्टियों के संपर्क में रहने लगे। इस बात से नाराज केंद्र ने फारूक के बहनोई गुलाम मुहम्मद षाह को गद्दी का लालच देकर नेषनल कांफ्रेंस में फूट डलवा दी और षाह के साथ भागीदारी में सरकार बनाई। इधर षाह ने राज्य की गद्दी संभाली, उधर फारूक अबदुल्ला के सबर का बांध टूटा। उसने लंदन जाकर भारत विरोधी गुटों से संपर्क करना आरंभ किया। यहां इनकी मुलाकात अमान उल्ला खां जैसे अलगाववादी नेता से हुई-पर जल्द ही फारूक अबदुल्ला इस कुचक्र से बाहर आये। अव्वल तो उन्हें इस बात पर यकीन था कि भारत में कांग्रेस ही अकेली पार्टी नहीं। दूसरे वे कषमीर में अपनी साख खोये नहीं थे। इसका प्रमाण अगले इलेक्षन में उन्हें देखने को मिला, जब जून 1983 में पूर्ण बहुमत से फारूक अबदुल्ला जीत कर आये और सरकार बना ली। कषमीर के क्षितिज से अनिष्चितता के बादल छंट गये, केंद्र में 1983 में मुख्यमंत्री फारूक अबदुल्ला ने गवर्नर से सिफारिष करके राज्य विधान सभा भंग करके राज्य में चुनाव करवाये। राज्य की 76 चुनावी सीटों में संपूर्ण बहुमत के साथ नेका वापिस लौटी। कषमीरियों ने फारूक अबदुल्ला को बहुमत से जिताया-पर कांग्रेस को इस षर्मसार हार के बाद राज्य की गद्दी हमेषा के लिए जाती दिखी। सबर का बांध टूट गया-येन केन प्रकारेण सत्ता तक पहुंचने के लिए षड़यंत्र करके फारूक के बहनोई जी.एम. षाह के साथ गठबंधन सरकार बना ली। लोगों को दिल्ली सरकार के साथ मोहभंग तो हुआ सो हुआ, जज़्बाती कषमीरी जनता को गहरी चोट भी पहुंची। जनतंत्र से विषवास उठने लगा। जिस सरकार को बहुमत से जिताया था, वही ताष के पत्तों की मानिद गिर गई-अवसरवाद, भाई-भतीजावाद और अनैतिकता का बोलबाला सिर चढ़कर बोलने लगा। इस स्थिति का लाभ मज़हबी कट्टरपंथी जमात, जमाते-इसलामी ने उठाना षुरू किया। आम आदमी को यह समझाना षुरू किया कि इसलामी दायरे में रह कर ही और इसलामी राज्य स्थापित करके ही कषमीर में अनैतिक और भ्रष्ट लोगों से निपटा जा सकता है। भारत एक हिन्दू प्रधान देष है। यहां का सारा राजतंत्र भ्रष्ट और अवसरवाद में लिपटा है, फिर यह इसलाम विरोधी भी है, लिहाज़ा जम्मू-कषमीर में इसलामी जमहूरियत या निज़ामारे-मुस्तफा कायम करके ही सही मायनों में लोगों के भले का काम हो सकता है।भोली-भाली जज़्बाती कषमीरी जनता को राजनीति के भंवर में धकेलने वाले अवसरवादी राजनेता जमात के बढ़ते प्रभाव को अनदेखा कर रहे थे।गुलाम मुहम्मद षाह के साथ कांग्रेस का गठजोड़ अधिक देर नहीं चला। फारूक अबदुल्ला और राजीव गांधी के नये गठजोड़ की खबरें फैलने लगीं।
कांग्रेस ने षाह सरकार का साथ छोड़कर धारा 356 के तहत राज्य मे गवर्नर के छः महीनों के राज्य के पष्चात रष्ट्रपति षासन स्थापित किया।
नवम्बर 1986 को लोगों की अटकलबाजी सच साबित हुई। राजीव गांधी और फारूक अबदुल्ला का समझौता हुआ और इस प्रकार राज्य में कांग्रेस की मिली-जुली सरकार ने अब फारूक अबदुल्ल की कमान में राज्य की बागडोर संभाली। कष्मीरी लोगों को राजनेताओं का यह अवसरवाद बहुत कचोटने लगा। इन्हें लगा कि सब राजसत्ता के भूखे हैं और लोगों की किसी को चिंता नहीं। सबसे बुरी बात यह कि प्रजातन्त्र पर लोगों का विषवास डगमगाने लगा। इधर राजीव और फारूक गठजोड़ ने कांग्रेस के कुछ वरिष्ट नेताओं को राज्य में उदासीन बना दिया था-इनको अब अपनी उपयोगिता घटती नजर आने लगी थी। मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद भीतर ही भीतर जमात के लागों से संपर्क साधे थे। राजीव गांधी ने केंद्र की मदद का खजाना 1000 करोड़ रुपये देकर खोल दिया।1987 के चुनाव में मुस्लिम एकता संगठन ‘एमयूएफ’ एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर इलेक्षन में कूद पड़ी-भारी रिगिंग की षिकायतों के बीच कांग्रेस 24 और नेका 39 सीट लेकर फिर से गठबंधन की सरकार बनाने पर राजी थे।इस माहौल में और ऐसी राजनीतिक उठापटक में भीतर ही भीतर एक ज़हर पनप कर अब ऊपर सतह पर झलकने लगा था।जुलाई 13, 1988 को नेषनल कांफ्रेंस ने अपना भव्य स्वर्ण जुबली समारोह मनाया और एक अगस्त 1988 को श्रीनगर क्लब और श्रीनगर टेलीग्राफ दफ्तर के सामने दो बड़े धमाके हुए। इन धमाकों की जिम्मेदारी जे0के0एल0एफ ने ली। एक नया आयाम, एक नया पन्ना कषमीर के इतिहास में खोला गया। आतंकवाद का उद्घोष हो चुका था और अब सरकार लीपापोती में लगी अंधेरे में तीर चला रही थी।सरकारी संचार माध्यमों को पहला निषाना बनाया गया और अब लोगों को इन माध्यमों का रुख बदलने पर आतंकियों ने जोर बढ़ाना षुरू किया।इन संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों को निषाना बना कर डराया-धमकाया और मारा तक जाने लगा।सितंबर की पहली तारीख को कषमीर के पर्यटन केंद्र पर बम विस्फोट करके पर्यटकों को कषमीर में न आने का ऐलान हुआ।सितंबर 3 को बड़े डाकघर पर विस्फोट कर भारतीय डाक के तानेबाने को चुनौती दी गई।सितंबर 18 को डीजी बटाली के घर पर धावा बोला गया, इसमें एक आतंकी मारा गया, 21 आतंकी कलाइषनको राइफलों के साथ गिरफ्तार हुए। सभी आतंकी सरहद पार गुलाम कषमीर से प्रषिक्षण पाकर वादी में कत्ल और गारत का खूनी खेल खेलने को भेजे गए थे।12 अक्तूबर को सारे फितने के पीछे जम्मू-कष्मीर लिबरेषन फ्रंट का हाथ पाया गया।13 अक्तूबर को राजीव गांधी ने वादी का हवाई दौरा करके सैलाब की स्थिति पर विचार करते 53 करोड़ का पैकेज राज्य के लिए दिया और 27 अक्तूबर को षहर के विभिन्न हिस्सों में आतंकियों ने गोलियां चलाकर सब में भय और दहषत फैलाने का कार्य जारी रखा।-----------------------------------------------------खूनी दौर1989, सात जनवरी को पाकिस्तान से प्रषिक्षित इन आतंकियों के बड़े गिरोह को पकड़ा पर जून 1989 तक एक नया आतंकी टोला हिज़बुल इसलामी के नाम से उजागर हुआ। इसने औरतों को पर्दे में रहने और इस्लामी कोड आफ कंडक्ट फालो करने का फतवा जारी किया।5 अगस्त 1989 को जेकेएलएफ ने नेषनल कांफ्रेंस के राजनेताओं को पार्टी छोड़ने का अल्टीमेटम दिया।अगस्त 21, 1989 को नेषनल कांफ्रेंस के ब्लाक पे्रज़ीडेंट मुहम्मद यूसुफ हलवाई को गोलियों का निषाना बनाकर मारा गया।14 सितंबर, 1989 को बीजेपी के प्रेज़ीडेंट टिकालाल टपलू को आतंकियो ने मारा। इससे सारी घाटी सकते में आ गई। टिकालाल बहुत ही लोकप्रिय व्यक्ति थे। समाज में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान उन के भक्त थे। वह गरीबों की पैरवी कोर्ट में मुफ्त करते। स्पष्ट वक्ता और प्रबुद्ध व्यक्ति होने के साथ ही समाज में उनकी पैठ काफी गहरी थी।दिसंबर आठ को केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद की बेटी रूबिया सैय्यद का अपहरण हुआ। इस घटना ने रही-सही कसर निकाल दी। आतंकियों के सामने जिस प्रकार से केंद्र और राज्य प्रषासन ने अपने हथियार डालकर पूर्ण समर्पण का प्रदर्षन करके लोगों को यह गलत संकेत दिया कि घाटी में हालात सरकार के कंट्रोल से बाहर हो गए हैं। आतंकवादी गुट ने अवाम में यह संदेष अपने विजय घोष के साथ भेजा कि भारत और भारतीय दुमछलों का दौर कष्मीर में खत्म हो चुका है, कष्मीर की बागडोर अब उनके हाथ में है।इसमें हालांकि रत्तीभर भी सच्चाई नहीं थी पर लोगों ने जिस प्रकार की राजनीति का सामना पिछले एक दषक से किया था इन्हें इस भ्रमजाल मंे फंसाना आतंकियों के लिए यह घटना वरदान से कम न साबित हुई। रातों-रात सैलाब की तरह लोग सड़कों पर निकल आये और निज़ामे मुस्तफा के जयघोष के साथ आजादी के नारे बुलंद किए। इनमें हिंदुओं के विरुध अपमान और जहर घोलने वाले नारे भी षामिल थे। जगह-जगह हिंदू महिलाओं को अपमानित करना और इन्हें सताना षुरू हुआ। रेडियो और टी.वी. तक स्टाफ का आना-जाना नामुमकिन होने लगा। रेडियो और टेलीविजन के निदेषकों को रोज फोन पर आतंकियों के हुकुमनामें पहुंचने षुरू हुए-‘‘जैसा हम कहते हैं वैसा नहीं किया तो मारे जाओगे’’
श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल घोषित होने के समय राजनीतिक स्तर पर इसका देषभर में चाहे जितना भी विरोध हुआ हो, पर आम जनता ने इस कार्यकाल में एक तरह से राहत की सांस ली थी।
कीमतों में भारी गिरावट के चलते, देषभर मंे खाद्य पदार्थों की सुलभता सुनिष्चित हो गई थी। महंगाई की दर काफी नीचे गिरी थी, भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए प्रषासन ने कमर कस ली थी और कमजोर वर्गों की उन्नति के लिए अनेक नुकाती कार्यक्रमों को लागू किया गया, जिसमें कला और संस्कृति की उद्भव और विकास योजनाओं को प्रोत्साहन और बल मिल रहा था।इस दौर में कला और संस्कृति की सुदृढ़ता के लिए जितने भी कदम उठाये गए थे अब देष में इंदिरा गांधी के न रहने पर राजनीतिक परिदृष्य बदलने के साथ ही इस ओर से ध्यान हटने लगा था। राजीव गांधी ने हालांकि देष की अर्थव्यवस्था को आधुनिक देषों के समकक्ष लाने के लिए सूचना प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तनों की उद्घोषणा की पर अभी बहुत कुछ करने के लिए राजनीतिक इच्छाषक्ति के साथ ही सामाजिक कठिनाइयों से जूझना बाकी था। बोफोर्स तोप सौदा और जातिवादी आरक्षण के संकट ने केंद्र में उथल-पुथल मचानी षुरू की थी। इंदिरा गांधी के निधन के पष्चात जिस तरह से राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को संपूर्ण एक-तिहाई बहुमत मिला था, उसका आधार अब खिसकने लगा था। देष में विखंडन और जातीय समीकरण के बीज हर तरफ पनपने लगे थे। कमजोर केंद्रीय षासन का अर्थ था इन षक्तियों का प्रबल रूप से सामने आना।फारूक सरकार को गिराकर गुलाम मुहम्मद षाह की सरकार के साथ कांग्रेस का गठजोड़ कष्मीर की राजनीति में अवसरवाद का खुला नाच था। आम लोग एक तरफ और नेषनल कांफ्रेंस का फारूक दल दूसरी तरफ इस गठजोड़ से काफी नाराज था। यह गठजोड़ अधिक देर नहीं चला। फारूक का मन अस्थिर हो गया। उसने दूसरे विकल्पों पर अपने पिता की तरह सोचना षुरू किया। जनता में अधीरता आने लगी। यह दौर एक बुरे समय की ओर इषारा करने लगा। नेषनल कांफ्रेंस का वादी में जोर कम करने के लिए केंद्र ने कट्टरपंथी इसलामी दल जमाते-इसलामी के बढ़ते असर को नजरअंदाज करना षुरू किया। यह एक खतरनाक खेल था।1982 में जुल्फकार अली भुट्टो को जिया-उल-हक ने जब फांसी की सजा सुनाई और भुट्टो को फांसी दी गई, तब इसका एक पहलू नेषनल कांफ्रेंस और जमात इसलामी के भयंकर खूनी टकरावों में सामने आया था।कहने का तात्पर्य यह है कि कष्मीर में जिस खुषगवार फज़ा ने 1970 से 1980 के दषक तक सांस लेना षुरू किया था, उसका दम घोंटने का माहौल धीरे-धीरे इसे खत्म करने की कगार पर आने लगा था।अब काफी हाउस में यकायक, काफका, षेक्सपेयर, कालीदास, जूलियस सीज़र, ईलियट और साहित्य के मनीषियों सात्र्र और पेबला नरोदा की जगह फिलिस्तीन, इसराइल, रूस, चीन, भारत और वियतनाम या कोसावो और अर्जेंटाइना के युद्ध पर बहसें होतीं। कष्मीर के इतिहास और सांस्कृतिक गौरव को ग्याहरवीं षती के पष्चात यानी मुसलमानों के षासनकाल के बाद ही गिनती में लिया जाने लगा। कष्मीर का अति अल्पसंख्यक हिंदू भयंकर रूप से त्रस्त और ध्वस्त महसूस करने लगा था। इस बात को 1986 में अनंतनाग में भड़के हिंदू विरोधी दंगों ने साबित किया।यह दंगे केंद्र और राज्य षासन को हिलाने के उद्देष्य से ही क्यों न किए गए हों पर इनका एकमात्र षिकार कष्माीर का हिंदू हुआ। दर्जनों मंदिर रातों-रात गिराये गए और सैकड़ों घरों में घुसकर हिंदुओं को मारा-पीटा और अपमानित किया गया। घर जलाये गए और लूटे गए। ऐसे माहौल में जाहिर है कि कला और संस्कृति का दम घुटने लगा।अब कला के संस्थानांे रेडियो, टेलीविजन, गीत नाट्य विभाग, जम्मू-कष्मीर कल्चरल अकादमी में मुस्लिम कट्टरपंथी तत्वों ने कदम जमाने षुरू किए और इसी अनिष्चितकाल में अषोक जेलखानी के दायित्व और पद की जिम्मेदारियां बढ़ गईं। अषोक जेलखानी श्रीनगर दूरदर्षन में सहायक निदेषक के पद पर नियुक्त हुए। लस्सा कौल दूरदर्षन के निदेाक बने। इससे पहले लस्सा कौल रेडियो कष्मीर में उप-निदेषक थे।वास्तव में अषोक जेलखानी की पदोन्नति सहायक निदेषक के पद पर मजहर इमाम के निदेषक रहते हुई थी। अब हालांकि अषोक जेलखानी का कार्यक्षेत्र बहुत हद तक बदल गया था। कार्यक्रम निर्माता का संबंध उन दिनों प्रमुख रूप से सृजनात्मक कार्यषैली से जुड़ा होता है। पर प्रषासनिक पदों पर आकर यह भूमिका एक निगरान की हो जाती है। इसमें भूमिका एक व्यवस्थापक की हो जाती है। अब इन्हें यह देखना था कि वह स्टेषन को सुचारू ढंग से चलाने में केंद्र निदेषक को कितना सहयोग देते हैं।मजहर इमाम साहब के साथ सहायक केंद्र निदेषक और उप-केंद्र निदेषक के पद पर श्री फारूक नाज़की ऐसे सिद्धहस्त कार्यक्रम निर्माता और माहिर ब्राडकाॅस्टर काम कर चुके थे। इनकी पदोन्नति केंद्र निदेषक के रूप में रेडियो में हुई थी। फारूक नाज़की अषोक जेलखानी को काफी निकट से जानते हैं। अषोक जेलखानी के बारे में फारूक नाज़की साहब बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि अपने समय की नौजवान पीढ़ी में अषोक जेलखानी ने एक मिसाली कैरियर की नींव रखी। इसके लिए वह सबसे बढ़कर श्रेय इनके माता-पिता को देते हैं। माता को अधिक श्रेय इसलिए देते हैं कि उन्होंने खुद समाज में एक अच्छा-खासा नाम और रुतबा पाया हुआ था। वह एक सिद्धहस्त एज्युकेषिनिस्ट होने के साथ ही एक बहुत ही सफल माता साबित हुईं। फारूक नाज़की अषोक जेलखानी साहब के विषय में भी काफी जोर देकर बताते हैं कि ऐसी सद्गुणी पत्नी और स्वयं एक कलाकारों और विद्वानों के परिवार से आई नेक सीरत औरत ने, अषोक जेलखानी के जीवन को उमदा आबायारी दी। प्रेरणा जेलखानी के पिता कष्मीर के जाने-माने साहित्यकारों और विद्वानों में गिने जाते। उनके परिवार में एक से बढ़कर एक कलाकार, साहित्यकार, संगीतकार, सेट डिजाइनर, थियेटर और टेलीविजन के संयोजक, व्यक्तियों ने अपने-अपने रूप में समाज में अपना योगदान दिया है। प्रेरणा जी के सबसे बड़े भाई तेज रैना भौतिकी के प्रोफेसर हैं, उनसे छोटे भुवनेष माहिर सेट डिजाइनर, इनसे छोटे चंद्रषेखर एन.एस.डी. से अभिनय में दीक्षा लेकर सांग एंड ड्रामा डिवीजन में सीनियर पद पर कार्यरत हैं और सबसे छोटे भाई क्षेमेंद्र रैणा... अषोक जी के सबसे निकट रहे। क्षेमेंद्र रैणा एक बहुत ही प्रतिभासंपन्न, बहुआयामी गुणों के कलाकार थे।क्षेमेंद्र रैणा के साथ अषोक जी सुरेन्द्र वर्मा के नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली पहली किरण तक’ नाटक के मंचन दौरान बहुत नजदीक आ गए थे। इस नाटक में क्षेमेंद्र रैणा ने मुख्य पात्र ‘ओकाक’ की भूमिका निभाई थी। समय के बेरहम हाथों ने इस सर्वगुण संपन्न कलाकार को हमसे छीन लिया। क्षेमेंद्र से छोटा भाई पंकज मुंबई में रहता है और एक स्थापित गायक व अभिनेता होने के साथ ही अब अपनी टी.वी. प्रोडक्षन भी करता है।1986-87 में राजीव गांधी, फारूक अबदुल्ला के बीच कष्मीर में इलेक्षन पर संधि हुई। मुस्लिम एकता फ्रंट एक प्रभावषाली संगठन के रूप मंे उभरता दिखाई देने लगा। एक तरह से सारे कष्मीर में मुस्लिम सांद्रदायिकता ने अपनी जड़ें मजबूत करनी षुरू कीं। मजहब के नाम पर, भारत विरोध के नाम पर भारत के धर्म-निरपेक्षतावाद को खोखला और व्यर्थ बताकर मजहबी कट्टरपंथी के नाम पर इन तत्वों ने मुसलमानों को वरगलाना षुरू किया।इसलाम धर्म के इस नई पैरवकारी इस जमात ने, कष्मीर के परंपरागत भाईचारे पर कठोर वज्राघात करना आरंभ किया। इस भाईचारे की सुदृढ़ नींव कष्मीरी कंपोजिट कलचर को जड़ से उखाड़ फेंकना इस जमात का मुख्य अस्त्र-षस्त्र रहा। इस जमात को पुष्तपनाही केंद्र में बैठे कुछ राजनीतिक दल और सीनियर नेता भी कर रहे थे।इस जमात का निषाना कष्मीर के प्रगतिषील और प्रगतिवादी लेखक, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी और प्रचार-प्रसार के माध्यम बनने लगे। प्रचार-प्रसार माध्यमों में मुख्य रूप से रेडियो और टेलीविजन को भारत सरकार की हिंदूवादी सैक्यूलर नीतियों के परिपेक्ष में जनता में प्रचारित किया जाने लगा। इन माध्यमों में कट्टरपंथियों का जोर बढ़ने लगा। कार्यक्रमों के चयन और प्रसारण में इन्होंने दखल देना षुरू किया। इस तरह सारे माहौल में एक तरह से साजिष की बू फैलती दिखने लगी।इससे दूरदर्षन और रेडियो के कार्यक्रम संचालन करने वाले स्टाफ में बेचैनी फैलने लगी।
कुछ सांप्रदायिक मुसिलम जवानों ने रेडियो और टेलीविजन के कार्यक्रम कंटेंट व षैली को नकारना और इसका विरोध करना षुरू किया। पहले-पहल हिंदू, मुसलमान स्टाफ, कैजुअल आर्टिस्ट और प्रसारित विष्य-वस्तु को घाटी के मुसिलम बाहुल्य आबादी के अनुपात से संचालित करने को लेकर राजनीतिक प्रभाव और दखल बढ़ाना षुरू हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता इन कार्यक्रमों से जुड़े कलाकारों, निर्माताओं, निर्देषकों और लेखकों पर बल-प्रयोग से कार्यक्रमों की विष्य और षैली में मुसलमानों और इसलाम की पद्धति के अनुरूप बदलने को कहा गया। चित्रहार, नाटक, संगीत के कार्यक्रम पर अनावष्यक आपत्तियां उठनी षुरू हुईं। संस्कृति के अर्थ और आयाम अब पुरानी परिभाषा खोने लगे।
इसी माहौल में लस्सा कौल ने श्रीनगर स्टेषन के निदेषक का पद संभाला। फारूक नाज़की एक लंबे अंतराल के बाद रेडियो कष्मीर में निदेषक नियुक्त हुए।फारूक नाज़की ने दो से तीन वर्ष फारूक अबदुल्ला सरकार में मुख्यमंत्री फारूक अबदुल्ला के विषेष मीडिया सलाहकार के तौर पर बिताये थे और इस बीच दूरदर्षन और रेडियो की दैनिक गतिविधियों से इनका संपर्क टूट चुका था। एक बहुत प्रभावषाली मुस्लिम जमात का गुट इन्हें दूरदर्षन के निदेषक के रूप में आसीन देखना चाहता था। इस गुट के एक सरगना ..... थे। इनका मुख्य मुद्दा दूरदर्षन की कार्यप्रणाली पर अपना वर्चस्व स्थापित करके फारूक नाज़की को अपना मोहरा बनाना था।फारूक नाज़की ब्राडकास्टिंग के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं। वह इस ग्रुप के प्रेषर का उपयोग करके दूरदर्षन में आना चाहते थे, इसलिए इनकी हरकतों पर ढ़ील दे रहे थे पर षायद नाज़की साहब की पैनी दृष्टि घाटी के माहौल में उपजी हर तरफ की उठा-पटक पर थी और उनको अपनी दिषा तय करने में कठिनाई हो रही थी। कोई भी ताकत उभरते फिरकापरस्त कट्टरवाद से भिड़कर जोखिम नहीं लेना चाहती क्योंकि जो इन ताकतों को टक्कर देने में सक्षम थे और जो इन ताकतों को दबाकर, वादी में सेहतमंद माहौल को उद्भव देते थे वह कहीं पृष्टभूमि में रहकर इनका साथ दे रहे थे। फारूक नाज़की और इनके ऐसे कई विचारक और प्रबुद्ध बुद्धिजीवी खामोष तमाषबीनों में बदलने लगे थे। विवेक पर जनून का जब्त हावी होने लगा था।अषोक जेलखानी की नज़र में स्टेज पर नटों की भूमिका बदल गई थी। अब अलग लोग अपना नया प्रहसन लेकर आए थे और अषोक जेलखानी इस बदलाव को इससे अधिक कुछ न मानते। यह एक अजीब बात है, जिस बात को लेकर रेडियो और टेलीविजन में सारा अल्पसंख्यक हिंदू स्टाफ परेषान था, इसे अषोक जेलखानी एक नए किंतु भद्दे प्रहसन की तरह देख रहे थे। ष्तुम नहीं समझते महाराज, यार यह स्टेज है और इस पर आज कब्जा जमात का हो रहा है, क्योंकि हम लोगों ने (सैक्यूलरवादी) यह स्टेज खुद छोड़ दिया है। सैक्यूलरवाद का अर्थ बदल गया है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ अब सापेक्ष धर्मपक्षधरता हो गया है। देष की सारी राजनीति ही दूषित हो रही है तो...। अपने काम से काम रखना है, नौकरी कर रहे हैं और इसे तब तक सरकारी मानदंड से ही करेंगे जब तक कर पायेंगे...’सहायक निदेषक, भारी-भरकम फाइलों के ढेर, बड़ा मेज-कुर्सी और भव्य कमरा अषोक जेलखानी में जरा भर भी किसी प्रकार की चिंता या भय नजर नहीं आ रहा था। किंतु वास्तव में सबके लिए ही चिंता का विषय था। नरमपंथी मुसलमानों की आवाज घोंट दी जा रही थी।मज़हबी मजलसिसों पर कठमुल्लाओं का जोर बढ़ रहा था। एक तरफ धर्म की आड़ में कैदोबंद के फतवे साद्धिर हो रहे थे, दूसरी ओर धार्मिक उन्माद पैदा करके सारी ताकत अपने हाथ में करने को कुछ लोग सांस्कृतिक मंच हथिया कर इस पर भी गलबा चाहते थे।अब धर्म के नाम पर एक तरफ पाबंदियों के फरमानों और फतवों का दौर षुरू होने लगा, वहीं ‘आजादी’ के नारे बुलंद होने लगे। एक तरफ चरस और अफीम की खेती से नषे का कालाबाजार सरगर्म हुआ जिसकी दौलत से नये महल खड़ा हो रहे थे, दूसरी ओर मजहबी इखलाक और इसलामी लाहे-अमल को नये रूप में परिभाषित करने वाले, औरतों को संस्कृति का नया गुलामाना पाठ पढ़ाने लगे। अफरा-तफरी का दौर साफ दिख रहा था।इसी दौर में मजहब के नाम पर दरारें डालने वाले समाजी नाबराबरी को मजहबी रंग में तौलने लगते हैं। हिंदू को अधिक मिल रहा है, मुसलमान का हक छीना जा रहा है। रेडियो, टी.वी. में अषलीलता की सभ्यता परोसी जा रही है। यह भारतीय सभ्यता हो सकती है पर यह इसलामी अमल के खिलाफ है। भारत ने राज्य की संस्कृति को स्खलित किया है। यहां हिंदू संस्कृति थोपी जा रही है। इसलिए पहला निषाना सांस्कृतिक केंद्र का अर्थ, इन केंद्रों पर काम करने वाले हिंदू कर्मचारी व अधिकारी।लस्सा कौल और अषोक जेलखानी नम्बर एक और नम्बर दो की हैसियत से दूरदर्षन का संचालन कर रहे थे। दोनों ने अपना डेरा दूरदर्षन परिसर में ही जमा रखा था। बाहर निकल कर वे षायद भीतर न आ पायें... यह स्थिति हो गई थी। लस्सा कौल पर आतंकी अपना दबाव बढ़ा रहे थे। इधर केंद्र और राज्य प्रषासन को धुरी पर लाने के लिए राज्य में दूरदर्षन और रेडियो की भूमिका हद से ज्यादा बढ़ गई थी। स्टाफ का अभाव, काम का बढ़ता बोझ, दोनों जने, लस्सा कौल और अषोक जेलखानी अकेले सारा स्टेषन चला रहे थे। दोनों दो सिपाहियों की तरह जूझ रहे थे और मोर्चे पर डटे थे।दिसंबर की ठंडी सिकुड़ती रातों में घर के आराम से दूर, लस्सा कौल और अषोक जेलखानी रात-रात भर जागते सोचते कि आखिर इतना कायाकल्प रातों-रात कैसे हो सकता है? सारी की सारी घाटी के लोग हजूमों में सड़कों पर आकर आतंकवादियों का समर्थन क्यों कर रहे हैं? क्या इस राज्य में कोई बुद्धिजीवी, बुजुर्ग सोचने-समझाने वाले दानिषवर चन्द बंदूकबरदारों के आगे घुटने टेक कर खामोषी से इनके साथ हो गए। सदियों की रिवायतें रातों-रात मिट्टी में मिला दी गईं। जनूनी हिंदू लड़कियों की सूची तैयार की रहे थे। कितनी कहां से उठाकर ले जानी हैं। अब उन लोगों के नामों का एक हिट-लिस्ट भी प्रकाषित किया गया जो आतंकियों के निषाने पर थे। इनमें अषोक जेलखानी और लस्सा कौल का नाम भी था। अषोक जेलखानी और लस्सा कौल दोनों ही इन बातों से जरा भर भी नहीं डरे। अपना काम मुस्तैदी से करते रहे। लोगों को इस बात से आगाह करने की कोषिष करते कि हमारे भीतर दुष्मन घुसा है, दष्मन ने हमारे ही नौजवानों को गुमराह करके हमारे खिलाफ बंदूक थमा दी है। पर दूरदर्षन के स्क्रीन पर आने को कोई भी तैयार न था। न्यूज़ रीड़रों पर जानलेवा हमले हो चुके थे और कुछ महिला कर्मचारियों पर मजहबी पाबंदी आयद की गई थी।पहली जनवरी 1990 को घाटी के सारे सिनेमाहाल जेकेएलएफ ने बंद कराये। आज 20 वर्षों बाद भी एक भी सिनेमाहाल काम नहीं कर रहा है। 19 जनवरी को गवर्नर कृष्णा राव ने त्यागपत्र देकर जगमोहन को कमान सौंपी। इससे नाखुस फारूक अबदुल्ला ने त्यागपत्र दिया और असेंबली त्रिषंकू की तरह लटकने लगी। 19 जनवरी की रात घाटी के हिन्दुओं के लिए कयामत की रात साबित हुई। सारे के सारे मुसलमानों को जगह जगह मसजिदों में लगे लाउड स्पीकरों से हिदायतें दी जा रही थीं कि जहाद षुरू हो चुका है। काफरों को या तो इस का साथ देना होगा या वादी छोड कर जाना होगा। अब राज्य की बागडोर सीधे जगमोहन ने संभाल ली। जब जगमोहन ने अफरातफरी में बिखरे राज्य प्रषासनिक प्रणाली के टुकड़ों को जोड़कर देखने की कोषिष की तो पाया कि कोई भी अंग अपने सही स्थान पर नहीं है। राज्य एक अस्थि-पंजर में बदल दिया गया है। सबसे बेलगाम पुलिस और खुफिया तंत्र है। इसकी जवाबदेही लगभग समाप्त हो चुकी है। खुफिया तंत्र के पास किसी भी प्रकार की कोई भी विष्वसनीय सूचना या रिकार्ड नहीं है। तो सबसे पहले पुलिस और खुफिया तंत्र पर लगाम कसनी है, फिर प्रषासन को हरकत में लाना है। कितने नौजवान छलावे में आकर पाकाधिकृत कष्मीर में प्रषिक्षण पर गए है इसका कोई रिकार्ड क्या किसी की तस्वीर तक कहीं नहीं। यहां तक कि आम आदी मुजरिमों के रिकार्ड तक थानों से गायब हैं।गवर्नर ने मीडिया की भूमिका और इस माध्यम पर मंडराते खतरे को भांप लिया था। जगमोहन मीडिया खासकर दूरर्दान को प्रबल जनषक्ति का साधन मानते। इन्होंने लस्सा कौल के साथ 24 घंटे हाट लाइन पर रहने का निर्देष दिया। जगमोहन कष्मीर की हकीकत से वाकिफ थे। यहां के लोगों को और इनकी नब्ज़ को अच्छे से पहचानते थे। इसलिए इनके साथ मीडिया के द्वारा संपर्क साधना चाहते थे। जगमोहन ने लोगों की सुनवाई के लिए राजभवन के द्वार खुले रखे, दूरदर्षन पर कई बार जनता से संबोधित होकर राज्य की स्थिति पर अपना पक्ष रखा। जगमोहन ने सारे कदम सही दिषा में उठाने षुरू किए। आतंकियों और सरहद पार इनके आकाओं की नींद हराम होने लगी। जगमोहन आतंकियों के चक्रव्यूह को भेदने में सफल हो रहे थे और दूरदर्षन के दो अधिकारी राज्य के लोगों से प्रषासन का सीधी संपर्क साधने में मददगार हो रहे थे।अब काफी हाउस सूना हो गया था। यहां कोई जुम्बिष तक न थी। यह बंद ही हो चुका था। बंसी पारिमू, हस्सरत गड्डा, हृदय कौल भारती, गुलाम नबी ख्याल, रियाज़ पंजाबी आदि की मूल्यवान बहसों को, चर्चाओं को और सौहार्द को तितर-बितर करके बिखेर दिया गया था। उमंगों में उछलता रेज़ीडेंसी रोड़ एक बियाबान में तबदील हो रहा था। यहां लोग कम और भगदड़ ज्यादा दिख रही थी। षहर में फौज, अर्धसैनिक बल और बंकर, षहर को छावनी में बदल रहे थे। हर तरफ जंग का-सा माहौल था। लोगों को सांप सूंघने लगा था।अफसोस कि आतंक पर लगाम कसने वाला सक्षम सिपाही जगमोहन देष की राजनीतिक उठापटक का षिकार हो रहा था। राजीव गांधी और फारूक अबदुल्ला एक जुबान होकर जगमोहन की नियुक्ति का विरोध कर रहे थे। इससे आतंकियों को बल मिल रहा था। लस्सा कौल और अषोक जेलखानी को राजनीतिक संतुलन का ख्याल रखते ऐसी खबरों का भी प्रसारण करना पड़ रहा था जो जगमोहन के प्रयासों पर ही षक की सूई घुमा देते।ऐसे माहौल में ऊब से लड़ना बहुत कठिन होता है। लगातार दिन, रात काम करते षरीर की सीमित षक्ति जवाब देने लगती है। लस्सा कौल और अषोक जेलखानी ने इस ऊब को खत्म करने के लिए पंद्रह-पंद्रह दिन का बारी-बारी अवकाष लेना मान लिया। इंजीनियरिंग स्टाफ भी अब केंद्र में ही डेरा जमाये था। कार्यक्रम स्टाफ मंे उपस्थिति कम रहने लगी थी। बंद, हड़तालों ने दैनिक जीवन को पटरी से उतार फैंका था।अषोक जेलखानी पहले पंद्रह दिन अवकाष पर जायेगा, फिर इनके आने के बाद लस्सा कौल अवकाष पर जायेंगे। इस प्रकार दोनों ही रिफ्रष होकर दुबारा इक्ट्ठे मुहिम में जुटे रहेंगे।05 फरवरी को अषोक जेलखानी अपनी पत्नी और बेटी लूना के साथ मुंबई की सैर पर निकल पड़े।मंुबई पहुंचते ही सारे पुराने यार-दोस्त मिलने आये। सब कष्मीर की स्थिति पर अपडेट चाहते थे। सबका इसरार था अषोक अपने परिवार के संग उनके साथ रहे। मोहन लाल कौल (ऐमा) और ओमकार कौल (ऐमा) दोनों कष्मीरी पंडित हैं और मुंबई में काफी अर्से से रह रहे हैं। मोहन लाल ऐमा का हम पहले भी जिक्र कर चुके हैं। रेडियो के आरंभिक दिनों से ही वे श्रीनगर स्टेषन से जुड़े रहे। इन्होंने रेडियो कष्मीर श्रीनगर के संगीत विभाग को संवारा, सजाया और अत्यंत लोकलुभावना बनाया। राजबेगम, नसीम अख्तर, नबला बेगम सरीखी संगीत और नाटक की नायाब आवाजों को खोजने का श्रेय इन्हें ही जाता है। आज जिस धुन ‘बुम्बरो’ को सब मस्त होकर गाते हैं, यह इन्होंने ही पहले दीनानाथ नादिम के ओपरा ‘बोम्बुर यम्बरजवल’ में कम्पोज़ की थी। ओंकार ऐमा इनके छोटे भाई हैं। ओंकार ऐमा को तो सारी फिल्म इंडस्ट्री जानती है। इन्होंने दर्जनों फिल्मों में चोटी के कलाकारों के साथ महत्वपूर्ण भूमिकायें निभायी हैं। इन्हीं के मेहमान बनकर अषोक जी अपने परिवार के साथ मुंबई में रहे। पंद्रह जनवरी को जब इनकी छुट्टियां खत्म होने को आईं और यह वापिस श्रीनगर जाने का कार्यक्रम बनाने लगे तो मोहन जी ने रोक लिया, बोले कि ओंकार के बेटे की षादी के बाद वापिस जाओगे। पर, ओंकार के बेटे की षादी में अभी महीने भर का समय था। षादी 15 फरवरी को तय हो चुकी थी।इधर अषोक जेलखानी अपनी कमिटमेंट से बंधे थे। उन्हें लस्सा कौल को श्रीनगर जाकर रिलीव करना था ताकि अब वह छुट्टियों मनाकर लौटें। अषोक जी ने मोहन जी को सारी स्थिति समझा दी पर मोहन जी ने काफी इसरार करके रोक लिया। मोहन जी और लस्सा कौल रेडियो में इक्कट्ठे काम कर चुके थे। लस्सा कौल के वे काफी सीनियर रह चुके थे। मोहन जी वैसे भी कष्मीरी मीडियाकर्मियों में एक बुजुर्गवार की हैसियत रखते थे और इसीलिए उनका सब आदर-सत्कार करते थे। उनके कहे को षायद ही कोई टाल देता या इसकी परवाह न करता। मोहन जी ने लस्सा कौल से बात करके अषोक जी की छुट्टियां फरवरी तक बढ़ा दीं। इन्होंने लस्सा कौल से कहा कि वे इन्हें मुंबई फरवरी तक रोक रहे हैं। लस्सा कौल ने मोहन जी की बात मान ली और अषोक जेलखानी को मुंबई और रुकने की अनुमती दे दी।आतंकियों के बेहद दबाबों के बावजूद भी लस्सा कौल दूरदर्षन को बराबर नियम, कायदे से संचालित किये हुए थे। मज़हबी इसलामी षिरियत के अनुसार इस स्टेषन पर केवल मुसलमानों के मज़हब से जुड़ी बातों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। नेषनल नेटवर्क कार्यक्रम और नेषनल न्यूज़ का प्रसारण बंद होना चाहिए। आतंकवादी सोच-विचारों को और इनसे संबंधित न्यूज़ को ही खबरों में स्थान मिलना चाहिए। षहर में इनकी बढ़ती ताकत को बढ़ा-चढ़ाकर पेष किया जाना चाहिए। दिन में तरह-तरह से फोन और चिट्ठियों के माध्यम से यह आदेष लस्सा कौल को आतंकी सरगनों से रोज़ ही मिल रहे थे।लस्सा कौल कष्मीरी भाव-भूमि से जुड़े निहायत विचारषील, बुद्धिजीवि व्यक्ति थे। कष्मीरी मुसलमानों में यह अपने सूफी विचारों के लिए काफी मकबूल थे। कष्मीर की परंपरागत सांस्कृतिक धरोहर के यह पोषक और संरक्षक स्तंभों में से जाने-माने व्यक्ति के तौर पर जाने जाते थे। इनका दिमाग मजहबी संकीर्णता से परे एक वैज्ञानिक भावबोध से जुड़ा था। सारे कष्मीर में इन्हीं प्रगतिषील विचारों के लिए कष्मीरी अवाम में यह काफी लोकप्रिय थे। आज इनका मन कष्मीरियों के दुर्भाग्य पर खिन्न था। कष्मीरी बच्चों को गंदी राजनीति का मोहरा बनाकर बलि का बकरा बनाया जा रहा था। वे अपने सीमित साधनों के अंदर ही रहकर यह बात बहुत स्पष्टता से लोगों के बीच पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे थे।
13 फरवरी को काफी दिनों बाद जब लस्सा कौल स्टेषन छोड़कर एक रात के लिए अपने घर जा रहे थे तब एक सोची-समझी साजिष के तहत घर के बाहर दरवाज़े पर काफी निकट से गोली दाग कर आतंकियों ने उनकी निर्मम हत्या कर दी। सारी घाटी षोक में डूब गई। एक ऐसा व्यक्ति जो सपने में भी किसी का अहित नहीं सोचता था। जिसकी काबलियत और षराफत के आगे बड़ों-बड़ों का सर झुक जाता था, नृृषंस रूप से मारे गए। कष्मीरी पंडितों में लस्सा कौल की हत्या के बाद रोष, गम और गुस्सा इस कदर हावी हुआ कि लाचारी में कुछ न कर पाने की विवषता में इन्होंने कष्मीर छोड़ने पर विचार करना षुरू किया।
स्ंाकेत साफ था। आतंकी हिंदुओं को साफतौर पर निषाना बना रहे थे। सर्वानन्द कौल प्रेमी, उनका सुपुत्र, प्रेमनाथ भट्ट, सरला भट्ट, फिरहिस्त बढ़ती जा रही थी, बिना किसी वजह हिंदू कत्ल हो रहे थे।25 जनवरी को इससे पहले जेकेएलएफ के आतंकियों ने 4 एयरफोर्स अफसरों को मारा था। ये सारे कातिल और खूनी आतंकी आज भी खुले घूम रहे हैं।अषोक जेलखानी, लस्सा कौल का दुःखद समाचार सुनते ही सकते में आ गए। फटाफट वापिस लौअने की तैयारी करने लगे। अगर उनकी छुट्टियां न बढ़ाई होतीं? हो सकता है लस्सा कौल बच गए होते...?? अषोक जेलखानी अपने परिवार के साथ श्रीनगर वापिस लौटने को तैयार ही थे कि मां का फोन आया। ‘‘यहां हालात बहुत खराब हैं, तुम हिट लिस्ट में हो, खबर अखबार में भी आई है। यहां मत आना... हम भी यहां से निकलने की सोच रहे हैं। यहां जंग चल रही है... हिंदओंु को निषाना बनाया जा रहा है।’’अषोक के मुसलमान दोस्तों की राय इससे अलग न थी। ‘‘तुम्हारा यहां आना तुम्हारे लिए जान का खतरा हो सकता है, अभी कष्मीर भूल जाओ...’’अषोक को यकीन तब आया, जब अपने स्टाफ के कुछ लोगों ने इस बात की पुष्टि की कि वापिस आने पर उन्हें भी जान से हाथ धोना पड़ सकता है। अषोक के मन को कोई नहीं रोक सकता, वह युद्ध में पीठ नहीं दिखायेगा। लड़ेगा, वापिस जाकर। केंद्र पर आतंकियों को हावी नहीं होने देगा। इसी सोच के साथ वह मुंबई सेंट्रल से जुहू अपने एक दोस्त से मिलने जा रहा था। उसने देखा एक नवजवान लड़का काफी देर से उसका पीछा कर रहा है। वह मेरीन ड्राइव पर ट्रेन से उतर कर रेस्तरां में घुस गया। यह नवजवान यहां भी पीछा करते पहुंच गया। अषोक की धड़कन अब बढ़ने लगी। उसको मृत्यु की निकटता का अहसास होने लगा। वह लेकिन खामोषी से नवजवान पर नजर रखते हुए एक कुर्सी पर जा बैठा। नवजवान अषोक के पास खड़ा हो गया। अषोक को पक्का यकीन हो गया। टेलीविजन स्क्रीन पर उसका चेहरा कष्मीर का हर आमोखास आदमी का पहचाना था। आतंकी उसका पीछा करते यहां तक पहुंच गए हैं। अब कुछ सेंकेंड का समय है।तभी नवजवान कष्मीरी में बोल पड़ा, ‘‘सर! आप मुझे नहीं पहचानते, पर मैं आपको अच्छी तरह जानता हूं। आप अषोक जेलखानी हैं। मैंने आपको टी.वी. पर देखा है। अषोक की जान में जान आ गई। यह कोई जानकार फेन लगता है। इस प्रकार फेन आगे आकर अक्सर कष्मीर में मिलते। इस बात से हर कलाकार खुष होता और अपने फेन से दिल खोलकर बात भी करता।‘तुम यहां मुंबई में क्या कर रहे हो? अषोक ने पूछा’।‘सर, मैं कष्मीर से यहां भाग आया हूं, मेरा नाम अषरफ है, मैं आपके एक मित्र का भाई हूं... मुझे कुछ पैसे चाहिए, आपको देखकर लगा कि आप मेरी मदद कर सकते हो।’अषोक-‘हां पर तुम, यहां आटर्स एम्पोरियम में क्यों नहीं चले जाते, वहां और भी बहुत कष्मीरी काम करते हैं, हो सकता है वहां तुम्हारा कोई नजदीक का जानकार भी निकल आए?’वास्तव में अषोक को अभी भी डर लग रहा था कि हो ना हो यह कोई भागा हुआ आतंकी हो, जो इनसे आर्थिक मदद चाहता हो।अजनबी नौजवान की आंखें आंसुओं से छलछला उठीं-‘ठीक है, आप पैसा नहीं देना चाहते पर मुझे उन लोगों के पास जाने को न कहें, वे सब मेरा मज़ाक उड़ाते हैं और मुझे पुलिस में देने की धमकी देते हैं, मैं अच्छे परिवार से हूं, जान-बचाकर मिलिटेंटों के चंगुल से खुद को बचाकर यहां भाग आया हूं। लखनऊ में मेरा भाई पढ़ाई कर रहा है, मैं उसके पास जाना चाहता हूं। आप अपने दोस्त से पूछकर मेरी मदद करें। वहां फोन मिलाकर आप अभी मेरे बारे में पता कर सकते हैं...’-क्या नाम है तुम्हारा?-सर मेरा नाम अषरफ है, अषरफ भट्ट...-कितने रुपये चाहिए...-बस, लखनऊ तक का किराया...-अषोक जी ने तीन या चार सौ के नोट जेब से निकालकर नौजवान को थमा दिये। वह खुष होकर षुक्रिया कहकर लखनऊ की गाड़ी पकड़ने चला।अषोक जेलखानी के मस्तिष्क में कई सवाल एक साथ उमड़ रहे थे। अभी-अभी जो नौजवान ने उसे स्थिति बताई वह रह-रहकर इस बात की तरफ इषारा कर रही थी कि घाटी के हालात गैरमामूली रूप और खतरनाक रूप से बदल चुके थे। सारा भारतीय मीडिया इस बात से या तो बेखबर था या जानबूझकर हालात को तोड़-मरोड़कर देखना और बयान करना चाहता था। हकीकत यह थी कि पाकिस्तान से कष्मीर में आतंक प्रायोजित ढंग से चलाया जा रहा था। मज़हब को आड़ बनाकर खूनी खेल बहुत आगे बढ़ चुका था। यह बेरोज़गारी या विकास में पिछड़े होने का मामला नहीं था, न यह फौज और सुरक्षाकर्मियों द्वारा जुल्म करने का प्रतिरोध था, जैसे कि समस्त देष के तथाकथित मेनस्ट्रीम अखबार और मैगजीन लिख रहे थे। पाकिस्तान ने कषमीरियों के मजहबी जनून को जगा कर इन्हें अपने ही खिलाफ कर दिया था। ‘आजादी’ का मोहपाष खड़ा करके बारूद के साथ कष्मीरियों को जकड़ा और जोड़ा था। कष्मीर तबाह हो रहा था... रह-रहकर यहां के सांस्कृतिक और संचार माध्यम निषाने पर लिये जा रहे थे। प्रथम मार्च 1990 को सूचना विभाग के एच.एन. हण्डू जो सह-निदेषक पद पर कार्यरत थे, मारे गए। अषोक जेलखानी के लिए सारे हालात बदल गए थे। वह किसी भी सूरत में वापिस नहीं जा सकता।उसने फैसला लिया-बहुत कठिन, कठोर और दिल को रुलाने वाला फैसला, वह श्रीनगर नहीं जाएगा। और जब यह फैसला लिया तो मिनिस्ट्री आई. एण्ड बी. से संदेष मिला कि उनकी नियुक्ति उप-निदेषक दूरदर्षन श्रीनगर के पद पर हुई है। पर जेलखानी ने सारी स्थितियां अपने विरुद्ध देखते हुए, मिनिस्ट्री से निवेदन किया कि वर्तमान परिस्थितियों में वह श्रीनगर नहंी जाना चाहेंगे। वहां से वह सपरिवार निकल कर मुंबई में षरण लिए हुए हैं। इन्हें श्रीनगर से बाहर कहीं भी नियुक्त किया जाए। चार महीने इसी प्रकार बिना किसी पगार, पैसे और निष्चित स्थान पर रहने के गुजर गए। यह चार महीने अत्यंत तंगदस्ती और साधनहीनता में एक षरणार्थी की भांति गुजर गये। इन दिनों को याद करते अषोक जी उन लोगों की यातनाओं पर ध्यान देने को कहते है जिनके पास कोई सरकारी नौकरी नहीं थी, रोज़गार का साधन नहीं था, जो अन्य परिसंपतियों के साथ अपने रोजगार के साधन भी घाटी में गंवाकर बिलकुल खाली हाथों निकल कर विभिन्न कैंपों में पिछले बीस वर्षों से रह रहे हैं। किसी भी मदद के लिए वे प्रथम वरीयता पर सबसे पहले होने चाहिए।चार महीनों खाली जेबों अपनी तंगदस्ती से जूझने के बाद भारत सरकार ने अषोक जेलखानी को लखनऊ में पोस्ट किया। यहां के निदेषक विलायत जाफरी ने अषोक जी का बहुत सकारात्मक ढंग से स्वागत किया। इनसे बात-बात में पता चला कि लखनऊ में इससे पहले जो भी उपनिदेषक आता उसकी विलायत जाफरी से अधिक नहीं पटती, विलायत जाफरी ने अषोक जेलखानी का नाम स्वयं उस समय के डी.जी. को लखनऊ के लिए प्रस्तावित किया था। जाफरी साहब ने कहीं अपने सूत्रों से अषोक जी की खूबियों के बारे में काफी जानकारी हासिल की थी। इस कारण इनके लिए बात की थी। और अषोक जेलखानी ने विलायत जाफरी को कभी षिकायत का मौका नहीं दिया। कई साल बाद आज भी दोनों में सौहार्दपूर्ण संबंध हैं। विलायत जाफरी को अषोक जेलखानी की तकलीफ के बारे में अपने दोस्त से पता चला था। उन्हें मालूम था कि चार महीने इन्होंने कैसे विकट जीवन का सामना किया है। लखनऊ में इनके रहने का, खाने-पीने का, यहां तक कि घर के सारे सामान का पहले से प्रबंध जाफरी साहब ने करा रखा था। घर की जरूरत पूरी करने के लिए अपनी जेब से पैसे दिये और इन्हें किसी बात की तकनीफ न हो इस बात के लिए खास प्रबंध किये।अषोक जेलखानी एक बार फिर अपने रूप और रंग में आ गये। लखनऊ स्टेषन में दो साल उपनिदषक पद पर कार्य करते हुए इनका निदेषक पद के लिए प्रोमोषन हुआ और इन्हें रांची भेजा गया, पर रांची से इन्हें अधिक अब लखनऊ में मन लग रहा था। अषोक जेलखानी का मन रांची जाने को इसलिए भी तैयार नहीं था क्योंकि बड़ी मुष्किल से गृहस्थी के ताने-बाने को अब पटरी पर ला खड़ा किया था, एक बार इतने कम अंतराल में ही विस्थापन की चोट से उभरना संभव न था। पद का मोह त्याग कर अषोक जी ने विनीत स्वर में सरकार से निवेदन किया कि इन्हें लखनऊ से कहीं और न भेजा जाए। कुछ समय इसी प्रकार गुजर गया पर षीघ्र ही इन्हें जम्मू के स्टेषन पर केंद्र निदेषक के पद के साथ नियुक्त किया गया। यह कार्यक्रम केंद्र न होकर एक तरह से कार्यक्रम संचार केंद्र था। यहां पर किसी भी तरह की कार्यक्रम गतिविधियां नहीं हो रही थीं। ले-देकर एक न्यूज का सैक्षन था, जिसे श्रीनगर के बिगड़े हालात को नजर में रखते, कषमीरी पंडितों के स्टाफ कर्मचारियों के साथ यहां षिफ्ट किया गया था। एक अजीब परिस्थिति थी-यह कार्यक्रम स्टेषन एक कैंप आॅफिस की तरह था। यहां किसी तरह की बुनियादी सहूलियतें तक न थीं।अषोक जी को यहां हर चीज़ नये सिरे से षुरू करनी पड़ी। सिर्फ कुछ महीनों में इन्होंने इस जगह को एक कार्यक्रम उत्पादक व प्रसारण केंद्र में बदल दिया। जम्मू केंद्र आज एक स्थापित टेलीविजन केंद्र है और इस समय षबीर मुजाहिद यहां स्टेषन निदेषक हैं। आज इस केंद्र से न्यूज और समसामयिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त मनोरंजन के बाकी कार्यक्रम भी तैयार किये जाते हैं व प्रसारित किये जाते हैं। इस स्टेषन की सफलता का श्रेय भी अषोक जी को जाता है।जम्मू केंद्र को वास्तव में अषोक जी ने नींव से उठाना आरंभ किया। यहां कषमीर से विस्थापित दूरदर्षन के कार्यक्रम निर्माता एवं इंजीनियरिंग व अन्य स्टाफ मात्र उपस्थिति दर्ज करने आते थे। यहां कार्यक्रम निर्माण की कोई गतिविधि नहीं थी। यह एक कार्यक्रम प्रसारण केंद्र की भूमिका निभा रहा था, जबकि यहां से कार्यक्रमों का निर्माण भी होना था। अषोक जी ने यहां के बिखरे तंत्र को हरकत में लाया और इसका परिचालन करना आरंभ किया। मात्र एक आध साल में इस केंद्र से न्यूज और छुटपुट कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। धीरे-धीरे इस केंद्र ने रफ्तार पकड़ ली और कुषल प्रबंधन के कारण सफलता प्राप्त की।जम्मू-कषमीर में हर स्थान पर छोटे-छोटे निजी हितों की पूर्ति के लिए लोग अक्सर बड़े पूर्वाग्रहों को पनपने का अवसर देते हैं। यहां भी इस प्रकार की अनेक कोषिषें की गईं। जम्मू मंे डोगरी ज़ुबान बोलने वाले अधिक संख्या में रहते हैं। इनका एक अपना मूल्यवान कल्चर है। इनका साहित्य हालांकि अभी अभी प्रारम्भिक अवस्था से आगे निकल कर विकास की राह पर अग्रसर हुआ है किंतु यहां के लोकगीत, संगीत, पोषाक, भवन निर्माण व तीज-त्यौहारों की अपनी खास छाप है। डोगरा राज्य का अपना वैभव व सांस्कृतिक, राजनीतिक इतिहास होने के कारण यहां के लोग मस्त और जिंदादिल हैं। यहां के अधिकतर लोगों का जेलखानी साहब को बहुत सहयोग मिला। बहुत जल्द ही यहां के लोगों को इस केंद्र की विलक्षणता का अनुभव होने लगा।यहां के कलाकार, लेखक, स्थानीय संस्थायें इस केंद्र के साथ जुड़ गईं। सुदूर वनों में रहने वाले गोजर-बकरवाल आदिवासी लोगों को भी यहां अपने जनजीवन और लोक परंपराओं व कलाओं को अभिव्यक्त करने के भरपूर अवसर मिलने लगे। इस केंद्र की पहुंच हालांकि तब इतनी विकसित नहीं थी जितनी कि आज है, फिर भी यहां से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के निर्माण में कष्मीर से विस्थापित हुए दूरदर्षन के कर्मचारियों ने चार-चांद लगा दिये। जेलखानी जी के नेतृत्व में इन कर्मचारियों ने इस केंद्र की एक सुदृढ़ नींव डाल दी। डा. सोहन लाल कौल, सतीष धर, मोतीलाल खरू, सोमनाथ सुमन, रवीन्द्र नाज, अषोक भान, महेष चोपड़ा, ऐसे सिद्धहस्त और गुणी लोग मिले। यहां पर एक और व्यक्ति प्यारे लाल हण्डू का जिक्र करना बहुत जरूरी होगा। हण्डू साहब कष्मीर में न केवल स्टेज और रेडियो मोनो-एक्टिंग और मोनो लाग के अग्रणीय कलाकार रहे हैं, अपितु ये ग्रामीण अंचल पर दूरदर्षन के बहुत ही माहिर कार्यक्रम निर्माता हैं। इन्हें ग्रामीण जनजीवन की सूक्ष्मतर जीवन शैली को दूरदर्षन से जोड़ने का खास अनुभव प्राप्त था। ये अपने मोनोलाॅग खुद लिखते, इन्होंने मचामा सीरियल में सिंगाॅरी, जिंगाॅरी का रेडियो अभिनय दो स्त्रियों के विलक्षण चरित्रों के रूप में इस प्रकार निभाया कि लोग इनकी कला के दीवाने हुए। जम्मू स्टेषन पर उप-केंद्र निदषक के पद पर यह अषोक जी के कार्यकाल में नियुक्त थे। श्री महेष चोपड़ा जी यहां सह-निर्देषक के स्थान पर बाद में नियुक्त हुए। इस प्रकार यहां धीरे-धीरे एक स्टेषन निदषक, उपनिदेषक और सह-निदेषक के अतिरिक्त करीब दर्जन भर कार्यक्रम निर्माता व सह-निर्माता अषोक जी की कमान में काम करने लगे।नतीजा यह हुआ कि टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण की अविरल धारा यहां से फूटने लगी जिसने यहां की स्थानीय प्रतिभा को मंच दिया। इस केंद्र से पहला इनहाउस सीरियल ‘लावारिस’ मुझे बनाने को दिया गया। इस सीरियल का निर्माण श्री प्यारे लाल हण्डू ने किया और कहानी व निर्देषन मेरा रहा। इसमें मुख्य भूमिकाएं स्व. क्षेमेन्द्र रैना, मोहन षाह, काजल सूरी ने निभाई थीं। वहीं इसमें जम्मू के स्थानीय कलाकारों ने काफी सराहनीय भूमिकायें निभाईं। इस तरह जम्मू दूरदर्षन में नाटक सीरियलों की षुरूआत हुई। यहां के प्रमुख निर्माता-निर्देषकों को सामने आने का इस तरह अवसर मिला। टेलीमेन फिल्म्स के षिवदत्त, गोयल फिल्म्स के सुरेन्द्र गोयल, देवेन्द्र कोहली, मनहास, मोहन सिंह, मुषताक काक, विकास हाण्डा, सुधीर जम्वाल, प्रो. मदन मोहन ऐसे कलाकार, निर्माता, निर्देषक, लेखक इस स्टेषन के साथ जुड़ गए। देखते ही देखते यहां का माहौल बदल गया और उपरोक्त व्यक्तियों में से किन्हीं ने अपना आॅडियो, वीडियो स्टूडियो खोला। आज जम्मू षहर में कई आॅडियो-वीडियो स्टूडियो हैं जो दूरदर्षन कार्यक्रमों के अतिरिक्त अपने प्राइवेट वीडियो एलबम और फिल्में भी बनाते हैं। जम्मू में वीडियो और आॅडियो का कारोबार आज एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है। यहां के कलाकार, संगीतकार, नाटककार, गीतकार और अनेकों टेकनीषियन इस रोजगार से जुड़कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं।छूरदर्षन जम्मू में कार्यरत होने के समय भी अषोक जेलखानी को कष्मीर घाटी के बंदूकबरदार आतंकी सरगनों ने डराने-धमकाने की कोषिष की। एक बार जब अषोक जेलखानी जम्मू से दिल्ली किसी मीटिंग से चले गये थे तो इनके घर पर फोन करके इनकी पत्नी से कहा गया कि ‘जेलखानी साहब को कहें कि ज्यादा हाथ-पैर न फैलायें... जम्मू को कष्मीर से दूर न समझें, यह न समझना कि हम बनिहाल की इस तरफ हाथ पर हाथ धरे पड़े रहेंगे... अगर वह अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते, तो आपको पछताना पड़ेगा’...अषोक जेलखानी की पत्नी प्रेरणा जी ने काफी बुद्धिमानी का परिचय देते हुए आतंकियों से षालीन ढंग से समझाते हुए कहा कि उनके पति भारत सरकार की नौकरी करते हैं, आपकी नहीं, जब आपकी हकूमत आएगी तो सोच लेंगे। कई दिन प्रेरणा जी ने अषोक जी से इस बात का जिक्र नहीं किया पर उसे अपने परिवार और बच्चों की सुरक्षा के साथ अपनी और अपने पति के जीवन पर मंडराते खतरे की चेतावनी पर ध्यान था। एक दिन बात-बात में यह बात सुरक्षा एजेंसियों के कानों तक पहुंच गई और अषोक जी के घर के बाहर और दफ्तर में सुरक्षा और सुदृढ़ की दी गई। ये सब दिन अषोक जेलखानी के परिवार को बहुत विचलित कर देने वाले हो सकते थे, पर दोनों मियां-बीवी ने इन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला किया।वास्तव में अषोक जेलखानी जम्मू कष्मीर के बिगड़े हालात में कष्मीर में सांस्कृतिक गतिविधियों पर आये एक लंबे विराम को जम्मू में रहकर मिटाना षुरू किया था। यहां से कष्मीर के केंद्र के लिए भी कार्यक्रम निर्माण का कार्य षुरू हुआ था। कष्मीर में रह रहे कलाकारों और निर्माता-निर्देषकों ने कार्यक्रम निर्माण के लिए जम्मू का रुख किया। वे यहां पत्नीटाप, उद्धमपुर, कुद, बटोत, भ्रदवाह में कार्यक्रम सीरियलों के षूटिंग करने लगे। इस तरह आतंकी रोक के फरमान और फतवों की धज्ज्यिां उडाई जाने लगीं। इस बात से आतंकी काफी परेषान हो रहे थे पर रोजी-रोटी और अपने हुनर और फन को जम्मू-कष्मीर के लोग अधिक देर आतंकियों के फतवों और फरमानों के कैद-ो-बंद में नहीं रख सकते थे। इन्होंने न केवल श्रीनगर दूरदर्षन के लिए कार्यक्रम बनाये अपितु ऐसे कार्यक्रम बनाये जिनसे आतंकियों की पोल खोली गई और इनके वास्तविक चेहरे लोगों के सामने लाये गये। जम्मू केंद्र ने इस प्रकार अषोक जेलखानी की कमान में योगदान दिया। इसके बाद ही फारूक नाज़की साहब ने जम्मू आकर गवर्नर कृष्णा राव की अध्यक्षता में एक मीटिंग का आयोजन किया जिसमें जम्मू-कष्मीर की टेलीविजन मीडिया नीति का एक मौखिक करार हुआ, जिसके तहत जम्मू और श्रीनगर केंद्र को प्रतिपूर्ति के स्तर पर कार्यक्रमों के आदान-प्रदान की स्वीकृति दी गई।जम्मू केंद्र ने कष्मीर में श्रीनगर स्टेषन की उस समय की हर आवष्यकता में बराबर का योगदान दिया।धीरे-धीरे जम्मू में भी दूरदर्षन की कमीषंड स्कीम के तहत बाहर के निर्माताओं को कार्यक्रम बनाने के अनुबंध मिले।अषोक जेलखानी जहां भी जिस भी पद पर गये, उस स्थान और उस पद की गरिमा को चार चांद लगाये।जम्मू से अषोक जी को जालंधर भेजा गया। यहां की सभ्यता-संस्कृति जम्मू-कष्मीर से बहुत अधिक अलग नहीं है। यहां पर काम करते हुए इन्हें इधर के लोगों का वैसे ही बहुत खुले मन से सहयोग मिला जैसे कि जम्मू में मिला था। वास्तव में अषोक जी जहां भी स्टेषन का प्रभार संभालते इनका लोगों की संस्कृति और सभ्यता को बढ़ावा देना मुख्य उद्देष्य रहता। राजनीतिक मामलों में ये अपने नियम कानून से नहीं हटते, हर कार्य दफ्तरी कारगुजारी के भीतर रहकर करते, पर दफ्तरी कारगुजारी को अच्छे कार्य में आई बाधा का बहाना कभी नहीं बनने देते। यही नतीजा है कि जो जालंधर स्टेषन घाटे में चलता था वही इनके कार्यकाल के कुछ समय के भीतर ही मुनाफा कमाने लगा। इस कार्य के लिए इन्हें सरकार ने बेस्ट स्टेषन डाइरेक्टर का खास सम्मान भी दिया।जालंधर के पष्चात अषोक जी का स्थानांतरण चैन्नई स्टेषन निदेषक के रूप में चैन्नई हुआ। यहां कार्य तो वही था जो अभी तक करते आए थे पर यहां का प्रदेष संपूर्ण रूप से तमिल बालने वाला था और अहिंदी प्रदेष होने के कारण दफ्तर में और दफ्तर से बाहर बोलचाल में बाधा आती थी क्योंकि अषोक जेलखानी को तमिल नहीं आती थी और अधिकतर स्टाफ हिंदी नहीं बोल सकते। दफ्तर से और भी दिक्कत थी। कोई हिंदी, अंग्रेजी कुछ भी नहीं समझता, केवल तमिल में ही बात हो सकती थी। परिवार को कुछ दिन यह माहौल बहुत अटपटा लगा और यहां रहने पर पुनः विचार करने लगे किंतु सभ्यता में बहुत विकसित इस प्रदेष की धर्मिक अंतरभावना ने सारे परिवार को लोगों से जोड़ दिया। अषोक जी ने दफ्तर के कामकाज की महारथ ही नहीं गृहस्थ को सुलझे ढंग से चलाने में भी अजब कौषल हासिल किया है। इनकी पत्नी धार्मिक संस्कारों की है, हिंदू धर्म से जुड़ी प्राचीन कलाकृतियां, भव्य मंदिर, मनोरम तीर्थस्थल हर सप्ताहांत पर घूमने का प्रोग्राम बनता। बच्चों का मन अपने आप लगने लगा। घर की ओर से आष्वस्त होकर अषोक जी ने अपना सारा ध्यान केंद्र के कुषल प्रबंधन में लगाया, देखते ही देखते अषोक जी की कार्यप्रणाली के लोग यहां दीवाने होने लगे। नतीजा यह निकला कि यह स्टेषन भी लाभ अर्जित करने लगा। यहां से जब उप-महानिदेषक के पद पर दिल्ली के मंडी हाउस में अषोक जेलखानी का स्थानांतरण हुआ तो यहां के स्टाफ को अषोक जेलखानी से बिछुड़ने का बहुत दुख हुआ। आज भी जब इस केंद्र से कोई अषोक जी को यहां दिल्ली मंडी हाउस मिलने आता है तो उस आगंतुक की आंखों में जेलखानी के प्रति श्रद्धा, प्रेम और आभार के भाव साफ देखे जा सकते हैं। हर जगह लोगों का मन जीतने के साथ ही देष के प्रसारण केंद्रों को मुनाफा कमाने वाले केंद्र बनाना और कार्यक्रम की मानक क्वालिटी के साथ कोई भी समझौता किए बिना केंद्र को लोकप्रियता में अगले पायदान पर रखना, अषोक जेलखानी का प्रथम सरोकार रहा।मंडी हाउस में जो भी कार्यभार दिया गया कुषलता से निभाया। विषव खेलों के आयोजन का डायरेक्ट प्रसारण हो या चीन में भारत के दूरदर्षन की उपस्थिति दर्ज करने की बात हो। कोई भी बड़े से बड़ा चैलेंज लेकर आयें, अषोक जेलखानी इससे कभी लड़खड़ायेंगे नहीं अपितु हर चैलेंज से ऐसे निपटते हैं कि लगता है अरे यह तो कितना आसान काम था , जबकि यही काम कई लोगों के लिए जान जोख्म वाले साबित होते हैं।अभी बाकी है मेरा जिक्र ही कहां आयातेज़ है धूप चलो खोजते हैं कोई छाया।। ...........................................................................................................................
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1951-52 में कश्मीर में फिर उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। शेरे कश्मीर ने संविधान सभा में डिकरी पास करके जमीनदारी से संबंधित कानून में परिवर्तन लाकर जमीन किसानों के नाम करने का एलान किया- शेख फ्रांस और रूस की क्रांति से प्रभावित थे. वहीं अमेरिका की डेमोक्रेसी के कायल भी थे। असम्बली के पहले उद्घोष मे ही उसने इस तरह की घोषणा करके कश्मीरी पंडितों को असमंजस में डाल दिया। श्रीनगर के अधिकांश कश्मीरी पंडित जमीनदारी व्यवस्था से बहुत करीबी तौर पर जुड़े थे। इनमें से काफी लोगों की जमींदारी और चकदारी फूली-फली थी और इनका अधिकांश जीवन व्यापन इसी पर निर्भर था। अब जबकि जमीनदारी का अंत होने वाला था...पढ़े-लिखे नौकरीपेशा कश्मीरी पंडित नौकरियों से अधिक चिपके रहे। जो लोग लड़कियों को पढ़ाना या नौकरी कराना बुरी बात मानते थे, उनको आनेवाले दिनों की सख्ती और कष्टों का अहसास होने लगा था। दबी जुबान सरकारी नौकरीपेशा लोगों का भाव और मान भी बढ़ने लगा। पढ़ाई को पहली प्राथमिकता मिली और अब कश्मीरी पंडित को अपनी जिजीविषा केवल पढ़ाई-लिखाई में दिखने लगी। कश्मीरी पंडितों ने समय की नजाकत को पहचान लिया और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर बल देने लगे कि यदि अपने समाज को आगे रखना है तो बच्चों को जम कर पढ़ाओ। कुन्ती जेलखानी और मोहन लाल जेलखानी ऐसे बहुत से लोग इस अभियान के प्रथम सांकेतिक स्तम्भ हैं। पूर्व राजा महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला में आपसी तनातनी के नतीजे में जवाहर लाल नेहरू को महाराजा हरिसिंह के अधिकारों में कभी लानी पड़ी-महाराजा सोचे थे कि विलय का प्रपत्र उन्होंने साइन किया है और वे अभी भी सारे अधिकार अपने पास रखते हैं। जबकि शेख अब्दुल्ला का कहना था कि कश्मीर में राजशाही खत्म हो गई है और लोकशाही शुरू हुई है। शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के निर्विवाद एकमात्र ऐसे जन-प्रतिनिधित्व हैं, जो हुकूमत करने के लिए संपूर्ण बहुमत के साथ प्रजा द्वारा चुने गए हैं। इस अर्तिविरोध ने राजा हरिसिंह को कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया-उनकी रानी कांगड़ा में अपने मायके चली गई और कम उम्र बेटे करण सिहं को कश्मीर का युवा नेता और सदरे-रियासत तैनात किया गया। इस बात से बेहद दुखी हरिसिंह अंतिम समय तक मुम्बई में पेड़र रोड स्थित बंगले में अपने बीवी-बच्चों सेे दूर एक तनहा ज़िन्दगी गुज़ारने पर विवश हुए... इस बात का कश्मीर राजनीति पर काफी प्रभाव पड़ा। कश्मीर राजनीतिक अखाड़े में बहुल साजिशें, विश्वासघात और गुन्डागर्दी व फसाद के दौर ने जन्म लिया, जिससे कश्मीरी पंडितों को प्राणों की सुरक्षा का भय उन्हें कमजोर करके तोड़ देता। शेर-बकरा लड़ाई और खानाजंगी जगह-जगह सिर उठाती- यह सब उत्पात जेलखानी मुहल्ला के इर्दगिर्द वाले इलाके में कुछ अधिक ही हो रहा था-आये दिन तरह-तरह के फसाद इस मुहल्ले को एकजुट किए थे। सभी परिवारों के एक साझे आंगन में चैकटी लगा कर और बदलते परिदृश्य पर विचार करते अकसर अपनी सुरक्षा की चिंता रहती- चारों और मुसलमान बहुल्य इलाके थे। इसके बावजूद भी पंडितों के प्रति अभी भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं दर्शाया जाता- जेलखनी मुहल्ला के बाद नवा कदल, फिर नवाहटा, जामा मस्जिद और हारी पर्वत का पवित्र और किल्ला-पर्वत के दामन में मुसलमानों की दरगाह, सिखों की छठी पादशाही गुरूद्वारा और पर्वत के शिखर पर शारिका भगवती का मंदिर, यहां सारे श्रीनगर के पंडित ब्रह्ममूर्ति में ही नंगे पांव, नगर की, हर गली-कूचे से दौड़े चले आते-आरती नमाज़, दरूद और अखण्ड पाठ की ध्वनि- लहरी के मिश्रित स्वर-संगम का समां, अनूठी अध्यात्मकता से भर देता- लोगों का ईश्वर से प्रेम, अकीदा और ईश्वर में अखण्ड विश्वास को दर्शाता यह दृश्य अद्भुद था-सब एक-दूसरे की खैरियत जानते-अपने प्रभू का स्मरण करते उससे सब की भलाई और स्वास्थ्य की प्रार्थना करते- माहौल भाई-चारे और मानवता से भरा इस को देखते राजनीतिक उपद्रव से उभरी स्थितियां बहुत, बौनी दिखती और लोग इन पर फब्तियां कसते और इन का मजाक उड़ाते।
श्रीनगर वास्तव में झेलम नदी के दोनों किनारों पर बसा एक पुराना ऐतिहासिक शहर है, जिसे प्रवरसेन ने छठीं शताब्दी में बसाया था-यह शहर कश्मीरी इतिहास के अनेकों आयाम, उतार-चढ़ाव, बसना और विनष्ट होना, जुल्म, जवर के बीच पनपती और परवान चढ़ती मानवता का अजब दौर-दौरा देखा है। इस शहर के बीचोंबीच, गांव-कदल से हब्बा-कंदल, गणपत यार, भान मुहल्ला, फते कदल, नौवा कदल, जान कदल, और आली कदल और दूसरी तरफ इन्हीं के बिलकुल सामने से गुजरते द्रब्यार , कन्य कदल....इसी दौर में श्रीनगर के जेलखानी मुहल्ला आॅली-कदल में दस-बारह घरों का एक कश्मीरी पंडित टोला रह रहा है। इस टोले के अधिकतर पंडित पढ़े-लिखे, छोटी-बड़ी सरकारी नौकरियों पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं। महोनलाल जेलखानी की शादी को एक आध साल हो चुका है। छोटे भाई चूनी लाल जेलखानी सरकारी स्कूल में अध्यापक के कार्य पर नियुक्त हैं। वे स्कूल में अंग्रेजी के बहुत अच्छे टीचर माने जाते हैं। अंग्रेजी लिट्रेचर में बहुत दिलचस्पी है और लाहौर से पढ़ाई पूरी की है।
मोहन लाल जेलखानी की पत्नी मुश्किल से 13 साल की छोटी गुडिया सरीखी नाबालिग़ बच्ची है। मोहन लाल जेलखानी खुद भी अभी छोटे हैं और इसी साल बारहवीं पास की है। मोहन लाल की बीवी कान्ता भी नवीं में पढ़ रही है और अभी आगे पढना चाहती है। किन्तु समय कठिन है, पिता की सोच प्रगतिषील होने के बावजूद विवश है। पीछे ग्रहस्थ की लम्बी गाडी जो खीचनी है। सब कुछ सोच विचार कर किया है। अभी दो लडकियों की षादी करेंगें तभी आगे और तीन लडकियों का ब्याह हो पायेगा, और फिर दो लडके भी हैं उन की पढाई लिखाई षादी सब होना अभी बाकी है। अकेला आदमी कितना कुछ कर पायेगा। सो जो भी करना है ,सोच विचार कर योजनबद्ध करना होगा। बार-बार शादियों पर अलग अलग खर्च नहीं कर सकते। कुन्ती के पिता दीना नाथ कौल ने श्रीनगर के एस पी कालेज से ग्रेजुऐशन की थी,राज्य के कस्टम विभाग में इन्सपेक्टर की नौकरी छोड कर हाईकोर्ट में मुख्य सहायक के पद पर काम करना ज़यादा उचित लगा क्यों कि अफवाह थी कि कस्टम विभाग को निरस्त किया जायेगा। दीनानाथ किसी भी रूप में जीवन में कोई अनिष्चता मोल नहीं लेना चाहता था सो कम तनखाह और छोटी पोस्ट पर स्थायित्व के आशवासन को वरीयता दी। यही सोच अपने सात बच्चों के लालन पालन और उनके जीवन को दिषा और दशा देने की युक्ति भी अपनायी। सब से बडी बेटी मनमोहनी का ब्याह आइ. एन. चक्को के साथ तय हुआ । चक्को साहब पहले कश्मीरी थे जो अकउटेंट जनरल के पद पर रिटायर हुए। इस के बाद कुन्ती के पति मोहन जी भी अकंउटेंट जनरल के दफतर में आडिटर पद पर रिटाइयर हुए। मोहन लाल जी ने भर्सक प्रयत्न किये कि विभागीय प्रमोशन की परीक्षा एस. ए. एस पास कर के पदोन्नित पा लें पर सात बार इस परीक्षा में बैठने के बाद भी इस बादा को लांघ न सके। इस बात का उन्हें काफी मलाल रहा कि हर तरह से दफतर के काम में अत्यन्त दक्ष होने के बावजूद भी दफतर की ंिखची हुई एक बारीक रेखा को पार न करने के कारण दफतर में अपने कई मातहात ज्यूनियर मुलाज़िमों से भी पिछड गये। हालांकि उन की काबलियत और काम करने की मुस्तैदी और अनुभव के आगे सारा दफतर सर झुकाता था और उन्हें उचित मान देता था पर उनके मन
का मलाल इस से दूर न हुआ।
कुन्ती से ब्याह होने के बाद मोहनजी रोज़गार की तलाश में वादी से निकल कर शेष भारत में आ गये। यहां 1941 से 1951 तक रहने के बाद जब वह घर वापस आये तो कुन्ती ने इस समय का उपयोग अपनी पढाई लिखाई पूरा करने में किया था। कुन्ती षादी के बाद भी लगभग आठ से नौ साल अपने मायके में अपने पिता के पास रही और प्रो. पी एन गंजू एवं प्रो. फिदा हुसैन, प्रो. पी एन गुरटू से दीक्षा ले कर बी ए बी टी पास किया व सरकारी मासटरानी बन गई। मोहन लाल जेलखानी को प्रतिष्ठित अकाउन्टेंट जनरल के दफ्तर में नौकरी मिली है और पत्नी को अध्यापिका का पद मिला है। इस तरह जेलखानी परिवार में दूसरी पीढ़ी के सदस्य पढ़े-लिखे होकर सरकारी पदों पर आसीन हुए हैं। घर में आर्थिक स्थायित्व का अहसास आ गया है पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। अपने पदों की प्रतिष्ठा को न केवल बनाए रखना है, अपितु सीढ़ी पकड़ कर आगे की मंजिल तक चढ़ना है। बच्चों को अच्छी तालीम देनी है और घर का जीर्णउद्धार करना है। अभी च्ुान्नी देवी, कृष्णा देवी,फूला देवी जी और अवतार कृष्ण व इन्दू भूष्ण की भी पढाई लिखाई व शादी होनी हैं।
मोहन लाल जेलखानी की पत्नी कुन्ती देवी अत्यन्त सुंदर और सुशील स्त्री है। यह वह जमाना है, जब लड़कियों को पढ़ाई और नौकरी में लगभग नहीं के बराबर भागीदारी थी। लड़कियां बालिग होते ही दूसरे परिवारों में वंशबेल बढ़ाने और गृहस्थी संवारने में ही शुक्र मनाती थी। इस दौर में कुन्ती जेलखानी स्कूल में पढ़ाने का काम करने लगी। मोहल्ले बिरादरी में जो इस बात को तरक्की और खुशहाली की राह मानते थे, उन्हें प्रेरणा मिल रही थी पर अभी अक्सर औरतें पुरातनवादी विचारों से जुड़ी थीं। उनकी नजर में मोहन लाल जी की मां के खोटे भाग्य थे। बहु के होने का सुख नसीब नहीं। बहु नौकरी के चक्कर में गांव-गांव जा रही है... देखो तो भला क्या जमाना आया है, घर की लाज को इस तरह बाहर मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने में शर्म भी नहीं आती... कुन्ती देवी पर इन बातों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता. उसे मालूम था कि वह किस प्रकार का जीवन और कैसी गृहस्थी चाहती हैं।---------------------------------------------------------------------
नवोदक
1951-52 में कश्मीर में फिर उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। शेरे कश्मीर ने संविधान सभा में डिकरी पास करके जमीनदारी से संबंधित कानून में परिवर्तन लाकर जमीन किसानों के नाम करने का एलान किया- शेख फ्रांस और रूस की क्रांति से प्रभावित थे. वहीं अमेरिका की डेमोक्रेसी के कायल भी थे। असम्बली के पहले उद्घोष मे ही उसने इस तरह की घोषणा करके कश्मीरी पंडितों को असमंजस में डाल दिया। श्रीनगर के अधिकांश कश्मीरी पंडित जमीनदारी व्यवस्था से बहुत करीबी तौर पर जुड़े थे। इनमें से काफी लोगों की जमींदारी और चकदारी फूली-फली थी और इनका अधिकांश जीवन व्यापन इसी पर निर्भर था। अब जबकि जमीनदारी का अंत होने वाला था...पढ़े-लिखे नौकरीपेशा कश्मीरी पंडित नौकरियों से अधिक चिपके रहे। जो लोग लड़कियों को पढ़ाना या नौकरी कराना बुरी बात मानते थे, उनको आनेवाले दिनों की सख्ती और कष्टों का अहसास होने लगा था। दबी जुबान सरकारी नौकरीपेशा लोगों का भाव और मान भी बढ़ने लगा। पढ़ाई को पहली प्राथमिकता मिली और अब कश्मीरी पंडित को अपनी जिजीविषा केवल पढ़ाई-लिखाई में दिखने लगी। कश्मीरी पंडितों ने समय की नजाकत को पहचान लिया और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर बल देने लगे कि यदि अपने समाज को आगे रखना है तो बच्चों को जम कर पढ़ाओ। कुन्ती जेलखानी और मोहन लाल जेलखानी ऐसे बहुत से लोग इस अभियान के प्रथम सांकेतिक स्तम्भ हैं। पूर्व राजा महाराजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला में आपसी तनातनी के नतीजे में जवाहर लाल नेहरू को महाराजा हरिसिंह के अधिकारों में कभी लानी पड़ी-महाराजा सोचे थे कि विलय का प्रपत्र उन्होंने साइन किया है और वे अभी भी सारे अधिकार अपने पास रखते हैं। जबकि शेख अब्दुल्ला का कहना था कि कश्मीर में राजशाही खत्म हो गई है और लोकशाही शुरू हुई है। शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के निर्विवाद एकमात्र ऐसे जन-प्रतिनिधित्व हैं, जो हुकूमत करने के लिए संपूर्ण बहुमत के साथ प्रजा द्वारा चुने गए हैं। इस अर्तिविरोध ने राजा हरिसिंह को कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया-उनकी रानी कांगड़ा में अपने मायके चली गई और कम उम्र बेटे करण सिहं को कश्मीर का युवा नेता और सदरे-रियासत तैनात किया गया। इस बात से बेहद दुखी हरिसिंह अंतिम समय तक मुम्बई में पेड़र रोड स्थित बंगले में अपने बीवी-बच्चों के साथ दूर एक तनहा ज़िन्दगी गुज़ारने पर विवश हुए... इस बात का कश्मीर राजनीति पर काफी प्रभाव पड़ा। कश्मीर राजनीतिक अखाड़े में बहुल साजिशें, विश्वासघात और गुन्डागर्दी व फसाद के दौर ने जन्म लिया, जिससे कश्मीरी पंडितों को प्राणों की सुरक्षा का भय उन्हें कमजोर करके तोड़ देता। शेर-बकरा लड़ाई और खानाजंगी जगह-जगह सिर उठाती- यह सब उत्पात जेलखानी मुहल्ला के इर्दगिर्द वाले इलाके में कुछ अधिक ही हो रहा था-आये दिन तरह-तरह के फसाद इस मुहल्ले को एकजुट किए थे। सभी परिवारों के एक साझे आंगन में चैकटी लगा कर और बदलते परिदृश्य पर विचार करते अकसर अपनी सुरक्षा की चिंता रहती- चारों और मुसलमान बहुल्य इलाके थे। इसके बावजूद भी पंडितों के प्रति अभी भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं दर्शाया जाता- जेलखनी मुहल्ला के बाद नवा कदल, फिर नवाहटा, जामा मस्जिद और हारी पर्वत का पवित्र और किल्ला-पर्वत के दामन में मुसलमानों की दरगाह, सिखों की छठी पादशाही गुरूद्वारा और पर्वत के शिखर पर शारिका भगवती का मंदिर, यहां सारे श्रीनगर के पंडित ब्रह्ममूर्ति में ही नंगे पांव, नगर की, हर गली-कूचे से दौड़े चले आते-आरती नमाज़, दरूद और अखण्ड पाठ की ध्वनि- लहरी के मिश्रित स्वर-संगम का समां, अनूठी अध्यात्मकता से भर देता- लोगों का ईश्वर से प्रेम, अकीदा और ईश्वर में अखण्ड विश्वास को दर्शाता यह दृश्य अद्भुद था-सब एक-दूसरे की खैरियत जानते-अपने प्रभू का स्मरण करते उससे सब की भलाई और स्वास्थ्य की प्रार्थना करते- माहौल भाई-चारे और मानवता से भरा इस को देखते राजनीतिक उपद्रव से उभरी स्थितियां बहुत, बौनी दिखती और लोग इन पर फब्तियां कसते और इन का मजाक उड़ाते। श्रीनगर वास्तव में झेलम नदी के दोनों किनारों पर बसा एक पुराना ऐतिहासिक शहर है, जिसे प्रवरसेन ने छठीं शताब्दी में बसाया था-यह शहर कश्मीरी इतिहास के अनेकों आयाम, उतार-चढ़ाव, बसना और विनष्ट होना, जुल्म, जवर के बीच पनपती और परवान चढ़ती मानवता का अजब दौर-दौरा देखा है। इस शहर के बीचोंबीच, गांव-कदल से हब्बा-कंदल, गणपत यार, भान मुहल्ला, फते कदल, नौवा कदल, जान कदल, और आली कदल और दूसरी तरफ इन्हीं के बिलकुल सामने से गुजरते द्राव पार, कन्य कदल.... फतेह कदल के बाद आली कदल में ही जेलखानी मुहल्ला है। यहीं पर मोहन लाल जेलखानी के माता-पिता ने फतेह कदत भात मुहल्ला के कौल परिवार मे अपने बेटे के लिए लड़की देखी थी। लड़की का पढ़ा-लिखा होना... माहेन लाल की मां को सशंकित कर रहा था... बेशतर औरतें उसे डरा रही भी थी कि बहु की चाकरी करनी है तो पढ़ी-लिखी लड़की को बहु बनाओ। कुछ औरतें तो इसका स्वांग रचा कर उसके सामने इस बात की एक झलक भी पेश करतीं कि कैसे पढ़ी-लिखी बहु...सवेरे देर से जागेगी और तुम्हें उसे चाय-नाश्ता देना पड़ेगा-वह तो नौकरी पर जाएगी और तुम्हें घर के काम-काज करने पड़ेंगे... तुम क्या उम्र भर यूं ही नौकरानी बनी रहोगी-तुम्हें अपना कोई होश-हवास नहीं अरी! नौकरी करने वाली बहु तुम्हारे घर को बसाएगी या नौकरी करेगी-मोहन जी की तो तकदीर खराब है... जो नौकरीपेशा लड़की से शादी होवेगी-बेचारा ज़िन्दगी भर सुखी गृहस्थी को तरसेगा-यह सब बातें तो थीं ही... आचार-विचार और चरित्र तक दूषित होने की बातें सुनते ही... बेचारी मोहन लाल की माता जी का कलेजा बैठ जाता-पर उसके पति देव ए अंग्रेजी स्कूल से मैट्रिक पास थे-उसने अंग्रेजी मेमों को देखा था-उनकी पारिवारिक जिन्दगी और सोच-विचार के बारे में किताबों में पढ़ा था-वह नए विचारों का आदमी था-उसका भाई एजुकेशन डिपार्टमेंट में खुद नौकरी कर रहा था और अच्छे पद पर आसीन था-घर में भारतीय संस्कृति और परचमी संस्कृति का संगम था-भारतीय संस्कृति के मौर्य और गुप्ता कालीन सभ्यता के सांस्कृतिक उत्थान में और कश्मीर के सांस्कृतिक उत्थान में और कश्मीर की इस समय की सांस्कृतिक प्रगति का और इसमें स्त्रियों के योगदान का उन्हें पूरा ज्ञान था।
मोहनलाल के भाई से बहस में कोई जीवन पाता-स्त्रियों की आजादी, पढ़ाई और जागरुकता के वे बहुत पक्षधर थे-अपने मोहल्ले और मोहल्ले से बाहर भी स्त्रियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करते-घर में पढ़ी-लिखी लउ़की का बहू बनकर आना और नौकरीपेशा होना एक मिसाल कायम कर देता है। उसने मां का हौंसला बढ़ाया और मोहनजी की शादी के लिए तैयार किया। चुन्नीलाल धर्मवान होने के साथ ही अपने जमाने की प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। उनकी नजर में धर्म का प्रगतिशील पथ ही उचित पथ है-दकियानूसी आडम्बरों से मुक्त मनुष्य ही सदी धार्मिक हो सकता है।
वास्तव में भारत के स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित कश्मीरी जनमानुष भी था- खासकर सांस्कृतिक रूप से। कश्मीर में एक खामोश सांस्कृतिक क्रांति के दौर के बीज रंगकर्मियों और लोक कलाकारों ने बोने शुरू किए थे। आॅल इंडिया पीपुल्स थियटर के प्रभाव में कई कश्मीरी नौजवानों ने रंगमंच की स्थापना नगर में की थी-यह मंच पहले तो पारसी थियेटर से प्रभावित होकर नाटक खेलता था... फिर सामाजिक सरोकारों से जुड़े विष्ज्ञयों पर नाटक खेलने लगा-इसके साथ श्रीनगर के शीर्ष बुद्धिजीवी जुड़ गए-सोशल रिफाॅर्म यानी सामाजिक बदलाव की लहर सारे कश्मीर में इन गतिविधियों से एक कड़ी के रूप में पनपने लगी। कश्मीर के मास्टर जिन्दॅ कौल, दीनानाथ नादिम आदि ने स्त्रियों की शिक्षा और स्वतंत्र जीवन व्यापन के लिए सरकारी नौकरी करने को न केवल समर्थन दिया अपितु इसको लेकर कश्मीरी कौम में जागरुकता फैलाने के लिए इसे प्रचारित किया- मोहन लाल जेलखानी का विवाह इन्हीं दूरदर्शी विचारों और सांस्कृतिक उत्थान की अनेकों मिसालों मंे से एक था-नई सोच, नई जीवनधारा से जुड़ने का एक प्रबल संकल्प! आज जब हम बच्चों को 30-32 साल की उम्र तक पढ़ाते हैं और 40 के होते वह स्टेल हो जाते हैं- उन दिनों जब लड़कियों का मासिक धर्म शुरू होने से पहले उन के ब्याह की चिंता मंे मां-बाप इधर-उधर रिश्ता तलाशने मंे लग जाते और इन्हें ब्याह देते-जब... लड़कियों को पर्दों और बुर्कों में रखा जाता। जब लड़की के जवान होते मां-बाप का चैन लुट जाता... वह जमाना जिसमें लड़कियां एक बार विधवा होकर उमर भर अनब्याही रह जाती। कश्मीरी पंडितों में सामाजिक बदलाव की एक लहर ने जन्म लिया-शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए रूढ़ियों की भेड़ियां उखाड़ फेंकने की क्रांति ने जन्म लिया-इसी काल को राजनीतिक स्तर पर नया कश्मीर के उद्भव और विकास की नींव का काल कहा गया।
उन्नीसवीं शती से बीसवीं शती के इस यात्राकाल ने सांस्कृतिक क्रांति का रूप धारण किया। इसी क्रांति के सहारे कौम को आगे बढ़ाने का संकल्प दृढ़ हुआ-‘आजाद’ महजूर और रसूलमीर की कविताओं ने चिंतन और भाव-भूमि के बदलाव के ताजा बीज बोए थे, जिन्हें जनमानस ने गीतों और धुनों में रचकर आत्मसात किया था। संतों और सूफियों की वाणी ने पहले ही जीवन के सार और अर्थ की व्याख्या प्रदान की थी, किंतु राजनीति की राहें इसी प्रकार फलने-फूलने की जगह बहुत जटिल और दुराग्रहों से मलिन होने लगी। हालांकि आरंभ में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जिस नए कश्मीर का सपना देखा गया और जवाहर लाल नेहरू ने जिसे बल दिया। उसी पर काले बादल मंडराने लगे थे।-----------------------------------------------------
तनातनी का दौर
शेख अब्दुल्ला की ताकत और लोकप्रियता ही उसकी दुश्मन साबित होने लगी। युवराज करण सिंह को भी वही समस्या सताने लगी, जो शायद हरिसिंह को सता रही होगी। पर जवाहर करण सिंह को बहुत कुशलता से संभाले थे और करण सिंह ने शेख अब्दुल्ला के इरादों को भांपना शुरू किया। एक राजनीतिक टोला इस बात से पूरी तरह उखड़ा नजर आ रहा था कि शेख साहब एक डिक्टेटर की तरह काम कर रहे हैं। उन्हें नेहरू की केंद्रीय सरकार से भी कोई सरोकार नहीं। बखषी गुलाम मुहम्मद, डी पी, दर, गुलाम मुहम्मद सादिक और कई अन्य नेता प्रगतिवादी सोच के थे और शेख अब्दुल्ला के खिलाफ भी। इलेक्शनों में जिस तरह से शेख साहब के खड़े किए गए नुमाइंदे बिला मुकाबला कामयाब करार दिए गए और विपक्षी दलों के फार्म खारिज हुए। यह शेख साहब के बदले हुए रूप को और भारत के लिए ख़तरे की घंटी को उजागर कर रहा था-पर जिस प्रकार से शेख साहब की असेम्बली ने विलय के दस्तावेज पर लोकशाही की मोहर लगा ली और बहुत तफसील से शेख साहब ने अपने पहले असेम्बली उदबोधन में साफ किया कि मुस्लिम बाहुल राज्य होने के बावजूद भी वे पाकिस्तान को न चाह कर हिन्दुस्तान से क्यों विलय स्वीकार करते हैं, उसे देखकर किसी तरह की संशय की गुंजाइश न थी। उन्होनंे अपने भाषण मे साफ कहा, सदियों की गुलामी, नाबराबरी और पिच्छुड़ेपन को खत्म करने के लिए कश्मीरी अवाम को मजहबी ज़ंगीरों से मुक्त होकर एक कल्याणकारी सैक्यूलर राज्य के साथ जुड़ने में अधिक औचित्य नजर आता है। इसी भाषण में इन्होंने पंडितों को दुःखी करने वाली बात भी कह डाली कि जागीरदारी और जमीनदारी का अंत करके वे जमीन किसानों को दे रहे हैं। 9 अगस्त, 1953 को कश्मीर के इतिहास में एक विचित्र और बहुत ही भयंकर दिन आया। शेख साहब को कैद किया गया-सारे शहर पर जैसे वज्र गिर गया। दंगे-फसाद भड़के...9 अगस्त, 1953 के दिन शेख अब्दुल्ला को राज्य के खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उनके कैबिनेट में डिप्टी प्राइमिनस्टर बख्शी गुलाम मुहम्मद के राजनीतिक टोले ने कश्मीर की कमान अपने हाथ में ली है। शेख अब्दुल्ला के कैबिनेट ने उनमें अवश्विास जता कर अलग कर दिया-असेम्बली के फलोर पर शेख को बहुमत प्रदर्शित करने का अवसर नहीं दिया और उसे मुल्क के विरुद्ध साजिश रचने के आरोप में जेल में नज़रबन्द किया गया। इस समाचार के आते ही...सारे कश्मीर में जगह-जगह शेख के समर्थकों ने बवाल मचाना शुरू किया और सारे कश्मीर में अफरातफरी का आलम फैल गया। किन्तु बख्शी साहब इस स्थिति के लिए पहले से तैयार दिखे। उन्होंने आनन-फानन में हालात काबू करने के लिए प्रशासन और अपने समर्थकों को तैनान किया हुआ था। शेख साहब को जैसी आशा थी वैसा जन-आंदोलन वाला विरोध खड़ा नहीं हुआ और लोगों ने फिर से मामूल का जीवन जीना शुरू किया। किन्तु शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता इस घटना के बाद कभी कम नहीं हुई। कश्मीर में वो मुसलमान तबका जो मुस्लिम कान्फ्रेंस का हामी था और शेख से नाराज़ था अब शेख से सवाल करने लगा। इधर भारत समर्थक प्रगतिशील तत्वों ने शेख साहब के असली मंशा का भांडा फोड़ने का दावा अवाम में पेश किया। जो शेख साहब अपने-आपको डेमोक्रेसी और सैक्यूलरइज़्म का हीरो कहाते थे, वे वास्तव में कश्ीमरी अवाम का एक निर्विवाद मुसलमान बादशाह बनना चाहते थे-शेख अब्दुल्ला को डेमोक्रेसी और समाजवाद या सैक्यूलरइज़्म से दूर का वास्ता नहीं-वे अवाम को सिर्फ गुमराह कर रहे थे। ऐसी ही दलीलें देकर शेख को बदनाम किया जा रहा था। इधर इन दलीलों की सच्चाई को सिद्ध करने के लिए शेख के भड़कीले भाषण और अब बदले तेवर आम लोगों को भी हैरान कर रहे थे। कल तक शेख साहब सारे कश्मीर को भारत के साथ विलय के फायदे गिनाते नहीं थकते थे, आज रातों-रात मुश्किल में पड़ते ही उन्होंने पाकिस्तान पेलबिसिट ‘रायशुमारी’ और इसलाम का राग क्यों अलापना शुरू किया...? कश्मीर की राजनीति को एक गहरा घाव दिया गया-जो आज तक भर नहीं पाया। ऊपर-ऊपर से हालात शांत लग रहे थे। पर भीतर एक मंथन के कारण काफी कुछ हिल रहा था। बख्शी गुलाम मुहम्मद ने शहर के छठे बदमाशों, गुंडों और लुटेरों को अपनी तरफ कर दिया। इस तरह इनके मुंह बंद होने से बलवों में कमी नज़र आने लगी। लोग शांति से अपने-अपने काम में जुट गए-बख्शी ने केंद्र सरकार की मदद से नया कश्मीर पुनर्निमाण का नारा लगाया। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए बख्शी ने लोकलुभावन प्राइमनिस्टर की छवि बनानी शुरू की। कम पढ़ा-लिखा होना और आम आदमी-सा होना अवाम में दर्शाया-जगह-जगह जश्न मनाने शुरू किए और लोक-कलाकारों, दस्ताकरों, किसानों, मज़दूरों को अपने साथ करने के लिए उनके रंग में रंगे दिखे। कश्मीरियों ने शेख अब्दुल्ला को एक तरह से जैसे रातोंरात भुला दिया हो ऐसा लगने लगा।(1953 में) बक्शी गुलाम मोहम्मद ने कश्मीर का प्रधानमंत्री बनते ही सामाजिक और आर्थिक सुधारों का एक प्रगतिशील दौर कश्मीरियों के लिए प्रारंभ किया-इसमें प्राइमरी क्लास से युनिवर्सिटी स्तर तक सभी व्यावसायिक और गैर व्यावसायिक सरकारी संस्थानों में शिक्षा मुफ्त करने का अहम फैसला कश्मीरियों की प्रगति के लिए मील का पत्थर साबित हुआ- ज़मीनदारी के खात्मे और जमीनदारों को मुआवजे का--बिल भी वास्तव में बख्शी ने ही लागू किया-बख्शी ने बिजली, सड़कें, पानी और राशन बहुत सस्ते दामों लोगों को मुय्यसर करना शुरू किया। गांव-गांव सड़कों के जाल बिछने लगे और बिजली पहुंचने लगी। कश्मीरी जनमानस में एक नए जोश और नई उमंग ने जन्म लिया। पुर्नोत्थान के इस दौर के साथ कश्मीरी नौजवान बढ़-चढ़ कर जुड़ने लगे। बख्शी साहब ने सांस्कृतिक उजागरता के दौर का आवाह्न किया कि कलाकारों, संगीतकारों और रंगकर्मियों के जीवन में एक नई जान भर आई। रेडियो कश्मीर जिसकी स्थापना अस्थायी रूप में पोलो ग्राउंड के मैदान में कुछ तम्बू खड़ा करके हुई थी, अब विधिवत् जीरो ब्रिज के समीप एक बहुत ही रमणीय स्थल पर स्थापित हो गया था। इसके साथ घाटी के कलाकारों और बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा समुदाय जुट गया और रेडियो कश्मीरी जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका था। गांव में जहां लोगों के पास अभी इतने साधन न थे कि वे रेडियो खरीद सके, पंचायतों को रेडियो दिए गए, जहां लोग समूहगत रूप से रेडियो प्रसारण सुनने लगे थे। कश्मीर को एक आधुनिक समाज में बदलने के लिए इन आधुनिक संचार माध्यमों ने क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अहम् भूमिका निभाई।--------------------------------------------------------------------- वितस्ता किनारे ...........
और अगस्त 1953 को माहेन लाल जेलखानी और कुन्ती जेलखानी को ईश्वर ने एक सुपुत्र दे दिया। इसका नामकरण गणपतयार के पारिवारिक गुरू महाराज राधाकृषण ने नौंवे दिन काहन्पेथर पर किया। कुन्ती के मायके से उसकी मां-बाप, भाई-बहिन बधाई लेकर आए-खूब जश्न हुआ-सारे मुहल्ले में बांटी गई और काफी दिनों घर में गहमागहमी रही। लड़का हुआ है नामकरण पर काफी नाम सुनाए गए। चुन्नी लाल...लड़के के चाचा ने एक वाक्य में कहा, अशोक.... अशोक नाम कैसा है गुरू महाराज....गुरूजी ने और सारे लोगों में एक स्वर सहमति भर दी-हां, अशोक द ग्रेट ;।ेीवां जीम हतमंजद्ध बच्चे की पत्री गुरूजी ने जन्म के दिन ही तैयार की थी। मोहन लाल को पास बुलाकर गुरूजी बोले-‘तुम बड़े भाग्यवान हो, तुम्हारे घर में भगवान शिवजी के आशीर्वाद से शोडष कला संपन्न पुत्र ने जन्म लिया है। शुरू में पढ़ाई में कमजोर होगा, उसकी चिंता मत करना। किसी सरकारी पद पर ही तरक्की करता आगे बढ़ेगा। हां इसको तस्वीरों का काफी शौक होगा। सोचने-समझने में.... ‘गुरूजी कहीं चित्रकार तो नहीं बनेगा।’ ‘अरे तो उसमें क्या बुराई है,’ चुन्नी लाल ने भाई को समझाया...‘गुरूजी मेरा भाई वास्तव में यह जानना चाहता है कि यह लड़का कुल कुटुम्ब का वंषबेल आगे बढ़ाएगा!’ ‘गुरूजी मुसकुराए और बोले ‘प्रबल ग्रहों का मालिक है। आपको पता भी न लगने देगा, कब पढ़ाई पूरी की और कब अपना रास्ता खोज लिया। हां इसको 10-12 साल घर से दूर नहीं ले जाना.... यहां बेशक अपने दादा,दादी के पास रहे...मोहन जी... खुश रहो... सब ठीक है... अपने पीछे भाई ही लाएगा...’। चुन्नी लाल मुस्कराये तो राधाकृष्ण जी नाराज़ हुए... ‘क्यों मेरी बात का विश्वास नहीं यदि ऐसा’ नहीं हुआ तो जो कहोगे वो करने को तैयार हूं।’ पंडित जी का ऐसा विश्वास किस आधार पर टिका है। चुन्नी लाल एक सुलझे दिमाग़ के आदमी हैं। साइंस पढ़ी है, दुनिया देखी है। जानते हैं लिंग का निर्णय गणित और ज्योतिष के क्रिया-कलाप से इतर कहीं प्रकृति के बीज फल पर निर्भर है, पर पुरोहित का मन रखने को कह दिया, ‘हमें इतना ज्ञान कहां, आप तो भूत, भविष्य, वर्तमान देख सकते हैं।’ ‘मोहन जी... कहीं लिखकर रखो. यह राधाकृष्ण का वचन है, दूसरी संतान भी बेटा ही होगा।’ चुन्नी लाल... थोड़ा उखड गए... ‘महाराज, यदि बेटी होगी तो क्या बुराई है?’ राधाकृष्ण, ‘आह! ऐसा कौन कहता है? जिस घर में सरस्वती या लक्ष्मी ने जन्म नहीं लिया वह भी कोई घर हुआ... उस घर में तो समझ लो सोना, चांदी सब कुछ होकर भी कांति नहीं, कांतिहीन.... षारिका, सारिका यही तो नींव है... नीवं ही न हो तो घर कैसा?’ चुन्नी लाल अब ठीक है, तो गुरूजी अब मैं भी आपका पक्का मुरीद हुआ। ‘राधाकृष्ण... ना भी होते तो बोलो मेरे वज़न में कुछ कमी आती? पर तुम्हारा कुछ घट बढ़ जाता... जीवन बहता दरिया है... बेटे... इसे जैसे चाहो देखो... वैसे दिखेगा.... प्यास हो तो पानी अमृत है, और डुबो जाए तो महाकाल.... हर शिव ओं.... एक भयंकर मौन छा गया... गुरूजी ने सारे वातावरण को गंभीर कर दिया पर इस बात को भांपते ही वे ज़ोर से शंखनाद करके मंत्र उच्चारण करने लगे और कुंड में अग्नि प्रज्वलित कर दी। काहनेथर का हवन शुरू हुआ। स्त्रियों के गाने-बजाने और उत्सव के माहौल से जेलखानी मोहल्ला गूंज रहा था-मोहन लाल की खुशी में सब शामिल थे। मोहन लाल एक देव स्वरूप आदमी है। किसी से ऊंचे स्वर मं बात नहीं। बुजुर्गों का बेहद लिहाज़ और छोटों से प्रेम भाव, मोहन जी सब की नज़र में एक सज्जन पुरुष हैं और दफ़्तर में इसी सज्जनता के लिए लोग इनका गुनगान करते नहीं थकते। मोहन जी की पत्नी कुन्ती देवी भी मिलनसार हैं, पर घर मोहल्ले की स्त्रियों से गंभीरतापूर्वक व्यवहार है। अपने से छोटी और अपने से बड़ी सब महिलाओं से मर्यादा और नियमानुसार व्यवहार रखा है। अशोक की माता जी कुन्ती देवी का समय स्कूल और ससुराल में रम गया। पर एक चिंता बहुत सता रही थी। स्कूलों में टीचरों की कमी खास कर महिला टीचरों की कमी के कारण शहर से महिला टीचरों को गांव के स्कूलों में पढ़ाई आरंभ कराने के लिए अनिवार्य रूप से भेजा जाता। आज नहीं तो कल कुन्ती देवी का भी नंबर आना है। तब अशाोक का वह क्या करेगी-अब अशोक को प्यार से सब काका कहने लगे थे। और काका बहुत प्यारा बच्चा साबित हो रहा था। नैननक्श में बहुत कुछ अपनी मां और पिता पर ही गया है। देखो आंखें बिलकुल अपनी मां जैसी है और नाक एकदम जैसे पिता की चिपकाई गई है। काका को सब प्यार दे रहे थे, पर कुन्ती देवी की आशंका को कोई नहीं समझ रहा था। काका चार-पांच वर्ष का होगा तो इसे बोर्डिंग में... पर यहां यह सब संभव कहां? मोहन लाल जेलखानी पत्नी की इस तरह के सोच से बेखबर अपनी गृहस्थी में मस्त हैं। उनका नपा-तुला-सा संसार है। मां-बाप-भाई-बहिन और अपना परिवार इसके बाद आॅफिस और वापस घर अपने परिवार में। वे अक्सर आॅफिस तक पैदल चले जाते- आली कदल से उन्हें एक मील दो कदम ही लगते। कभी-कभार घोड़ा-गाड़ी (तांगा) पर गांव कदल तक या हव्वा कदल तक जाकर वहां से फिर पैदल जाते। आते-जाते सब जान-पहचान वालों से दुआ-सलाम होती। रास्ते में ससुराल भी पड़ता, पर मजाल है कि बिना खास बुलाए वे कभी अपनी ससुराल की चैखट तक गए हों। उस सूरत में भी न जाते जब पत्नी गई होती। एक आद दिन मायके रह कर पत्नी स्वयं अपने घर लौट आती। काका के आने के बाद दोनों पति-पत्नी काका की पढ़ाई-लिखाई की चिंता करने लगे थे। किसी भी सूरत में काका सरकारी स्कूल में नहीं भेजना है। यहां बहुत देर से पढ़ाई शुरू होती है। पढ़ाई का रंग-ढंग भी इतना आधुनिक नहीं खासकर अंग्रेजी तो छठी जमात के बाद ही शुरू होती है। टीचर भी क्या मेहनत करते हैं? बच्चे भी अलग-अलग माहौल से आते हैं। हमारा बच्चा बिगड़ सकता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर दोनों मियां-बीवी ने यही सोचा कि थोड़ा-बड़ा होते ही शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी काॅन्वेंट ‘टेंडल बिसको स्कूल’ में काका का दाखिला करा देंगे। खजांचियों के मुहल्ले मे कोई बद्रीनाथ है-जो ‘टेंडेल बिसको’ में नौकरी करते हैं। मोहन जी की उनसे जान-पहचान है। दूर का कुछ रिश्ता है। बद्रीनाथ किन्तु बहु-सख्त आदमी है। अंग्रेजों की तरह बहुत ही अनुशासित जीवन जीता है। ईमानदारी और बेबाकी में उसका जवाब नहीं-मोहन जी ने बद्रीनाथ से संपर्क किया। स्कूल में फीस, और एडमिशन का तौर-तरीका समझने के लिए। बद्रीनाथ के घर मोहन जी आज से पहले कभी नहीं गए थे। जरूरत ही नहीं पड़ी थी। रास्ते में घाट पर या दुकान पर चलते-फिरते ‘नमस्कार’ हो जाती और दीन-दुनिया के बारे में बात होती। इतवार का दिन है। महोन जी आॅफिस का कोई काम घर नहीं लाते। सो, आज बिना किसी को बताए बद्रीनाथ के पास चले गए। वहां पहुंचकर बद्रीनाथ के पास चले गए। वहां पहुंचकर बद्रीनाथ से इधर-उधर की बातों में स्कूल के माहौल और एडमिशन प्रक्रिया के बारे में पूछने लगे। बद्रीनाथ का मकान दो मंजिला था। दोनों मंजिल में केवल बद्रीनाथ का परिवार रहता था-बद्रीनाथ के चार बेटे और एक बेटी है। सब बच्चे हैं और दो को सरकारी स्कूल में दर्ज किया है, दो अभी दर्ज करने लायक नहीं समझे जाते... हालांकि मोहन जी की नज़र में दोनों को घर में ष्ठंेपब उवकमष् में डाला गया होना चाहिए था... बेटी अभी छोटी एक आध साल की ही है। मकान दोमंजिला है इसलिए परिवार दरमियाना लगता है। बद्रीनाथ मोहन जी का आशय समझ गए। भीतर-ही-भीतर हंसने लगे। यह आदमी इतना उतावला क्यों है। अभी बच्चा पांच-छह वर्ष खेल-कूद में बिताना चाहिए... फिर अच्छा तगड़ा होकर स्कूल जाएगा तो कुछ सहज रहेगा। इस पर भी अंग्रेजी का भूत सवार है। ‘कैच देम यंग’ बद्रीनाथ मोहन जी की बातें कान लगाकर सुन रहे थे पर भीतर से कुछ और ही कोलाहल मचा था। यह दोनों पति-पत्नी नौकरी कर रहे हैं। बाप-दादाओं की थोड़ी बहुत हैसियत अच्छी है, मेरी तरह प्राइवेट स्कूल में कलम नहीं घिस रहे। यही लोग अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ा सकते हैं। मैं चाह कर भी नहीं, वहीं रहकर भी नहीं किसी बच्चे को वहां पढ़ा सकता हूं। अगर रमण जी वहां के टेस्ट में पास होता तो फीस में कंसेशन मिलती.... तब भी इतने थोड़े पैसे लेकर क्या पढ़ाता वहां उसे। पढ़ाई के साथ सैंकड़ों लफड़े हैं, वहां... ‘मोहन जी... अच्छा है... सयाना आदमी इसी को कहते हैं... आज से ही कल के बारे मंे सोच के रखना चाहिए... टेंडल बिस्को साहब ने स्कूल नहीं बनाया है, यह पूरी संस्था है.. जहां पर बच्चों को भविष्य के लिए तैयार किया जाता है, अनुशासन के साथ आमोद-प्रमोद के खेल इत्यादि सब कुछ.......क्या बच्चों की ट्रेनिंग होती है... यह तो हम सोच भी नहीं सकते, भाग्यशाली लोगों के बच्चे ही यहां पढ़ने आते हैं। हमारे बच्चे उनके साथ पढ़ाई कर पाएंगे, यह सोचना चाहिए। आमतौर पर बड़े-बड़े रईसों और पैसे वालों के बच्चे ही पढ़ने आते हैं। हमारे बच्चों को अक्सर उनके आगे हीनभावना का अहसास होता है और कुछ अच्छा बनने की जगह-वह और पिछड़ जाते हैं। वैसे सरकारी स्कूल ही क्या बुरे हैं। मैं तो कहता हूं कि जिस तरह से सरकार पढ़ाई पर ज़ोर दे रही और खर्चें कर रही है, युनिवर्सिटी डिग्री तक पढ़ाई मुफ्त, आपका एक रूपया भी खर्च नहीं होगा... मैं आपसे क्या कहूंगा, आप तो खुद जानते होंगे। दो, दो टीचर है आपके घर में.... क्या चुन्नी लाल जी से इस बारे में बात नहीं की...? वे तो खुद गर्वमेंट टीचर हैं...। जी उनकी भी राय यही है कि बच्चे को ‘कान्वेंट’ में ही भेजना चाहिए... अब आपने जो बात कही, कि वहां हीनभावना... का अहसास... तो मैं तो दुविधा में पड़ गया हूं... ख़ैर। अभी तो काफी समय है... मैं बस आपसे थोड़ी जानकारी प्राप्त करने के लिए आया था। चलो इसी बहाने मिल तो लिए। बद्रीनाथ की घरवाली चाय और बाकीरख्वानी लेकर आई- कश्मीरी कवल ‘खोस’ में समावार से कहवा डालते वह बच्चे के लिए मुबारक कहते बोली कि इनकी बातों पर ध्यान मत देना, कुन्ती बहन बहुत सयानी और विदुषी हैं, वह जो कहें, वैसा ही करना... आप शायद जानते न हो... मैं पांचवीं जमात तक उनके साथ पढ़ी हूं। फिर अचानक घरवालों को लगा कि मैं काफी बड़ी हो गई हूं और मेरा स्कूल छूट गया... खैर! यह तो दैव लिखित होता है, पर आप इनकी बातों पर नहीं जाना-हमारे बच्चों में क्या कमी है, कमी साधनों की है इन्हों ने कितनी कोशिश की रमण को बिस्को में एडमिशन मिले पर कहां, अपने भाग्य में कहां, इसी को कहते हैं... चिराग तले अंधेरा...। मोहनजी पहली बार किसी पत्नी को पति की ऐसी बखिया उघेड़ते देख कर असमंजस में पड़ गए। उन्हें बद्रीनाथ पर दया आने लगी। क्या बद्री की अपने बीवी की नज़र में जरा भर की इज्ज़त नहीं। क्या उसकी पत्नी को एक अनजान आदमी से इस तरह खुलकर पति के सामने ही बतिया देना चाहिए। पर कश्मीरी पंडित समाज हालांकि मर्यादा के बंधन में सख्ती से बंधे होने के बावजूद भी, औरतों को स्वतंत्रता के सामाजिक प्रभावों से अनछुआ नहीं रह पाएगा। एक जड़ समाज मे अभिव्यक्ति के स्पंदन का यह अविर्भाव था और शोभावती को जाने-अनजाने मंदिर, अस्थानों या सामाजिक समारोहों में इस बात की प्रेरणा मिली थी कि सच बोलते डरना नहीं चाहिए... इस बात का अहसास बद्रीनाथ को हो चुका था और उसकी इसी सत्यवृत्ता को वह दीवाना भी था और उसका सम्मान भी करता था। मोहन जी के भाव को भांपते बद्रीनाथ को उसे सहज कराने के लिए अपनी पत्नी की बात का समर्थन किया। ‘बात तो शोभा ने सोलह आने सच कही है, देखो यही फायदा होता है एक घर की लक्ष्मी की मंत्रणा का, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे बड़े भाई साहब पर यह फैसला छोड़ देना चाहिए... वैसे सही बात तो शोभा ने कह डाली, हम अपने सीमित साधनों के कारण ही ऐसे बड़े खर्चीले स्कूल में बच्चे नहीं भेज पाते। पर तुम्हारी बात अलग है। तुम डबल इनकम ग्रुप हो। अगर एक की तनख्वाह बच्चे की पढ़ाई पर जाए तो एक तो घर, गृहस्थी चला सकता है। देखो जब लड़का एडमिशन के लायक होगा, मैं खुद प्रिंसिपल साहब से तुम्हें मिलाऊंगा... एक बात का ध्यान रहे, एडमिशन होने के बाद बच्चे का कुछ महीनों में टेस्ट होगा-वो उसमें पास होना चाहिए-इस लिए बच्चा तीन साल का होते ही घर में तैयार करना, शुरू करो ताकि वह स्कूल में जल्दी पिकअप कर सके।’ कश्यप बन्धु, प्रेमनाथ बज़ाज आदि जो शेख अब्दुल्ला के समर्थक रहे थे और जिन्होंने महाराजा पर जोर दिया था कि कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो, शिक्षा में सुधार करके शिक्षा सबके लिए अनिवार्य और मुफ्त फराहम की जाये... एक न्यायसंगत और कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो... कश्मीरी हिन्दुओं में जागृति और सामाजिक सुधार की राहें प्रशस्त करने में ऐसे सामाजिक सुधारकों का बहुत बड़ा योगदान रहा। शादियों में दहेज जैसी बिदत और फिजूलखर्ची व पोशाक पहनावे में किफायत और सादगी लाने में इन्होंने बहुत कर्मठता से योगदान दिया। उस समय की नौजवान पीढ़ी में जेलखानी परिवार के चुन्नी लाल जेलखानी और मोहनलाल जेलखानी इन नए विचारों से काफी प्रभावित थे। इन्होंने इन विचारों को अपने जीवन मंे आत्मसात किया था। इस तरह इस परिवार में प्रगतिशीलता का पथ प्रशस्त हुआ। आडम्बरों को दरकिनार कर यह परिवार जीवन के कड़े संघर्ष में जुट गया। कुन्ती जेलखानी ने कश्मीर में स्त्रियों के पढ़ाई-लिखाई को अपने जीवन का मकसद बना लिया और इस कार्य को पूरा करने के लिए समस्त निष्ठा से जुट गई। यह एक तरह से साक्षरता फैलाने का अनोखा तजरूबा था। गांव-गांव स्कूलों के दौरे शुरू हो गए और स्कूल को पढ़ाई की व्यवस्था के प्रकार के साथ ही गांव के जनमानस में सैकड़ों वर्षों की गुलामी, पिछड़ेपन के कारण पनपी जहालत से अभिभावकों को निकाल कर अपने बच्चों को शिक्षा के द्वार तक लेकर आना और शिक्षा हासिल करने के लिए उत्प्रेरित करना एक प्रमुख उद्देश्य रहा। इस तरह एक क्रांतिकारी सोच से जुड़ने और अपने दायित्व को पहचानने के कारण, कुन्ती जेलखानी आम घरेलू स्त्रियों की प्रतिस्पर्धा का भी विषय बनने लगी। एक तरफ पारिवारिक जीवन का समय काम-काज में बंटने लगा, जिससे परिवार में थोड़ी परेशानी होने लगी, पर दूसरी ओर कुन्ती ने जो जीवन घर से बाहर देखा उसकी उसे किंचित कल्पना तो थी पर आज तक ऐसा अहसास कभी नहीं हुआ था। उसने प्रथम दर्शता अपनी आंखों से गरीब और निरीह सीधी-साधी कश्मीरी महिलाओं का शोषण, मूक, गरीबी और पिछड़ेपन से युक्त जीवन चक्र को देख लिया था और उसे यकीन था कि शिक्षा एकमात्र ऐसा अस्त्र है, जो इन गरीब औरतों की जहालत, गरीबी और शोषण की बेड़ियां तोड़ने में सहायक सिद्ध हो सकती है। चुन्नी लाल जेलखानी ने अपना सारा जीवन शिक्षा विभाग को समर्पित करने का फैसला किया। घर में हर तरह के समाचार पत्र, पत्रिकाएं और लिट्रेचर उन्होंने मंगाना शुरू किया। देश और दुनिया से खुद को जोड़ने और इसे समझने में उनकी बहुत रूचि थी। वे कश्मीर की हर स्थिति को बारीकी से अध्ययन करते और इसे अपनी डायरी में दर्ज करते-उनके अपने व्यवसाय यानी शिक्षक के तजुर्बों में इन घटनाओं की समझ काफी काम आती-कश्मीर के विषय माहौल में एक संतुलित सोच रखकर ही आदमी अपने को और अपने इर्द-गिर्द को भले के लिए बदल सकता था। उन्होंने अपनी भाभी कुन्ती जेलखानी के जीवट और हिम्मत की कदर की। घर में उनके बच्चे को बहुत लाड़ और प्यार के साथ देखभाल करनी शुरू की। अशोक जेलखानी इस प्रकार अपने पिता से अधिक अपने चाचा की देख-रेख में होश संभालने लगा। श्रीनगर को शंकराचार्य के शिखर से देखते बनता है। एक कटोरे सा शहर। यहां चढ़ाओ और ढलान है। कहीं, कहीं समतल भी। लोग व्यथ की सतह से सटे पर व्यथ के प्रकोप से हटे हुए-इन्हीं ढलानों पर बसे हैं। शहर के बीचोंबीच गुजरता दरिया जीवन की रेखा है। इसके घाटों पर छोटे-छोटे बोट के घर हैं। इनमें कश्मीर की जनता के संचार और जीवन व्यापन से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने वाले एजेंट रहते हैं। यह अपनी नावों में गांव से शाली, गन्दुम, लकड़ी, सब्जी गर्ज की जीवन की जरूरतों के हर सामान को, इन नावों में भर कर लाते हैं और ले जाते हैं। यह इस तरह से शहर की सांस की नली है। व्यथ के हर घाट पर इनकी ही रसाई है। यही दरिया पार कराते हैं और दो किनारों पर बसी दुनियां को तुरंत जोड़ते हैं। अभी मोटरगाड़ियों का वो जमाना नहीं है, जो हम आज देखते हैं-माल मवेशी और आदमी अभी भी डोंगों, नावों में एक जगह से दूसरी जगह ढोये जाते हैं। जेलखानी मुहल्ले से भान मुहल्ला चढ़ने के लिए नाव से सफर ज्यादा दिलकश और आसान समझा जाता है। इन नाव मालिकों के अपने घर-बार इन्हीं डोंगों में पलते-बसते हैं। इनकी अपनी भाषा, संस्कृति और एक अलग जीवन शैली है, जो कश्मीरी पंडितों के आचार-विचार और व्यवहार की काफी कदर करती है। दोनों के जीवन मूल्यों में जमीन-आसमान का अंतर होने पर भी दोनों का जीवन एक दूसरे के बिना कोई सोच ही नहीं सकता। इनकी आपसी समझ-बूझ जीवन व्यापन के प्रतिपूरक मानदंडों पर बहुत खरी उतरती है। हांजी, पंडितों के लिए हमाल से लेकर दैनिक सुख-सुविधाओं की सेवाओं को आज की भाषा में (डोर स्टेप) यानी दहलीज पर मुय्यसर रखता है और बदले में पडितों से जीवन व्यापन के लिए आवश्यक वस्तुओं का भरण-पोषण पाता है। दोनों की भूमिकाएं और सीमाएं निश्चित हैं और विश्वास के तार से जुड़ी है। उधर नवहटा और निचले शहर में जिन्दगी एक निरन्तर संघर्ष में पनप रही है। यहां कामगर, कारीगर और दस्तकारों के छोटे-बड़े टोले आबाद हैं। यहीं से कारीगिरी और दस्तकारी के नमूनों ने कश्मीरी प्रदेश को मुगलों, अंग्रेजों, जर्मनी और दुनिया के कोने-कोने में रहने वालों को कश्मीरी कला का मुरीद बनाया-शहर के मुख्य बाजार अमीरा कदम रेजिडेंसी रोड आदि में इन कारीगरों के कला के नमूने बड़े शो-रूमों में सजे पड़े हैं... अभी अक्सर शोरूम कश्मीरी पंडित ही चलाते हैं... पर कश्मीर की कला की जितनी तारीफ होती है, इन कलाकारों का जीवन उतना ही शोषण चक्र में लिप्त है। इसी कारण यहां का भूखा-नंगा कामगर सोजनकारा, दस्तकार, रंगरेज और कालीनबाफ अथक मेहनत के बावजूद सराफों, व्यापारियोें, दलालों और कारखानदारों के चंगुल में फंस कर फड़फड़ाता है। बाहर से अत्यन्त शांत और सौम्य पर भीतर से शोषण के ताप से उबलते इन लोगों के भीतर विद्रोह के ज्वालामुखी भरे पड़े हैं। पर इनमें विद्रोह और विरोध के स्वरों को मजहब के सभी स्वर ठंडक प्रदान करते हैं और यह सबर के जीवन में अपना दिन गुजार रहे हैं। इनमें कुछ नवजवान जिस किसी तरह आठ दस जमात पढ़े-लिखे होकर सरकारी नौकरियों और स्कूलादि में मास्टर, टीचर, चपरासी, क्लर्क के पद भी पाने लगे हैं। चूनी लाल जेलखानी जो (इस्लामिया स्कूल) नेशनल स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने का काम करते हैं... नवा कदल के गुलाम मुहम्मद से काफी निकटता महसूस करते। गुलाम मुहम्मद ने आठवीं पास करके टीचर के लिए कोशिश की थी, पर स्कूल ने टीचर के लिए दसवीं पास होना अनिवार्य शर्त रखी थी-जब तक दसवीं पास हो तक तब चपरासी की नौकरी ही सही-कम से कम कालीनवाफी के काम से तो छुटकारा मिलेगा। किसी भी सूरत में धागों के बुनने में आखून की सरपरसती में जीवन नहीं बिताना चाहता है। वह सोचता, यह कालीन तो अमीरों के दरीचे बनकर कमरे सजाते हैं। पर अपने जीवन में अंधकार भरते हैं। उसे कालीनबाफी का पुश्तैनी कमरतोड़ काम बिलकुल बेकार नजर आता। उसके मन में शेख अब्दुल्ला की तरह पढ़-लिख कर अपने कौम और मिलत की रहबरी करने का जुनून था। चूनी लाल से वह इन बातों को धीरे-धीरे खोलने लगा। चूनी लाल के आगे जीवन का एक अलग ही रूप एक अलग ही रंग उभर आया था। उसने कभी नहीं सोचा था कि जो नकदी, गहना, कालीन, शाल और दुशाले घर में पड़े हैं, इनके पीछे कितनी स्त्रियों की नाजुक उंगलियों, उनकी आंखों और जीवन की अतुल्य पूंजी का समोवश जुड़ा है। इन कारीगरों की मेहनत का फल और ही लोग लूट रहे थे। इस व्यवस्था में अभी कोई अंतर न आया था। चूनी लाल को गुलाम मुहम्मद कई बार अपने साथ अपनी बसती में लेगया, इन घरेलू कारखानों में ले गया और शोषण के कुचक्र को इस तरह निकट से देखकर चूनी लाल का मन दहल उठा-उसने अपनी डायरी में लिखा, क्या आजादी के बाद भी यह जारी रहना चाहिए, क्या केवल जमीन की अदला-बदली ही एक बहुत बड़ा मसला था, क्या मुहाशरे से शोषण की व्यवस्था को खत्म करने का कोई भी तरीका नहीं .... अगर इसको नहीं बदला गया तो मुसलमानों में बेकरारी बढ़ती जाएगी और वह इस बेकरारी को कोई भी रूप दे सकते हैं, जो शायद उनके अपने हित में भी न हो। इन बातों से अगल और जुदा कश्मीर में हर कोई बख्शी की दरियादिली और पुर्नोत्थान की योजनाओं से लाभान्वित होने के लिए किसी-न-किसाी प्रकार से यह जताने की कोशिश कर रहा था कि वह अपने काम में दक्ष और माहिर है। मंत्री और संत्री ने एक ऐसे तन्त्र को जन्म दिया, जो पैरवकारी, जीहजूरी और रिश्वतखोरी में व्यस्त रहने लगा। इस तरह परंपरागत मूल्यों से जुड़े लोगों का मन हताशा और बेइतमिनानी से भरने लगा। वे आशंकित होने लगे कि हो न हो इन कारणों से फिर लोग गुलामी के शोषक दौर में चले जाएं। चूनी लाल जेलखानी इन समस्याओं का समाधान व्यक्तिगत चरित्र निर्माण और मूल्य संवर्धन में मानते। उन्हें यकीन था कि अगर हर इंसान अपने चरित्र को सुदृढ़ और सशक्त कर ले तो सामाजिक बुराईयां व भेदभाव स्वतः नष्ट होंगे। व्यवस्था भीतर से बाहर झलकती है। ईमानदारी और सच्चाई व्यक्तिगत गुणावगुण पर निर्भर करता है। चूनी लाल विवेकानंद स्वामी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। एक तरफ रूढ़िवादी धार्मिक अनुष्ठानों का वे विरोध करते तो दूसरी और व्यक्तिगत व्यावहारिक धर्म पर बल देते। व्यक्ति के सतकर्म को मुक्ति का मार्ग समझते। चूनी लाल स्वामी विवेकानंद की समस्त रचनाओं और उनकी जीवनी को आत्मसात किए थे। नित्य आश्रम जाना, योग करना, योग सीखने और सिखाने पर जोर देना, उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। दुनिया भर के दाहिने और बाहिने (दक्षिण और वाम पंथों) के अध्ययन के पश्चात् वे इस नतीजे पर पहुंचे थे कि प्राकृतिक मनुष्य एक हिंसक पशु है और संस्कृति और धर्म उसे मानव बनाते हैं... सामाजिकता मनुष्य की कुछ स्वतंत्रता छीनती है, पर उसे परिपूर्णता भी प्रदान करती है। ऐसी स्वतंत्रता जो आत्मघाती हो भला किस काम की। आत्मनिग्रह और आत्मबल संयम से ही प्राप्त होता है और संयम स्वतःस्फूर्त होना चाहिए, व्यक्ति में भी और समाज में भी। अशोक के जीवन दर्शन पर इन बातों का बहुत प्रभाव पड़ने वाला है। क्योंकि मां और बाप से अधिक अशोक के व्यक्तित्व के विकास में इन विचारों के सान्निध्य की अपनी भूमि तयशुदा है। बाप अकाउंटेट जनरल के दफ्तर में बहुत व्यस्त हैं। आॅडिट के दौरे शहर और शहर से एतर गांव कस्बों में लगते हैं। घर एक एक, दो दो सप्ताह बाद भी आना नसीब होता है। हालांकि इसमें टीए-डीए और अन्य छोटे-छोटे भत्तों में कुछ पैसे जेबखर्च के लिए बचाना उसने अपने साथियों से सीख लिया था, पर अपनी पत्नी, बच्चे और मां-बाप से दूर, इस रेजगारी की कमाई में वह तनिक भी रूचि नहीं रखता था, उसे सुबह-शाम घर पर रहना और रात अपने परिवार के साथ बिताना अधिक अर्थपूर्ण लगता था। गुलाम मुहम्मद चूनी लाल के जीवन दर्शन की सराहना करता पर उसका मत बहुत स्पष्ट है कि जहां व्यक्ति का चारित्रिक बल उसकी जीवन की नींव तय करता है, वहीं समाज की परिस्थितियां, जन्म, स्थान, शिक्षा, दीक्षा और माहौल भी व्यक्तित्व के अनुरूप होना आवश्यक है। वह चूनी लाल से अक्सर कहता एक जहां बीज सही भूमि, खाद और आबोहवा मिलने पर फलदार वृक्ष का रूप धारण करता है वहीं उसी का भाई दूसरा दाना जमीन, खाद और सही आबहवा न मिलने के कारण पनप ही नहीं पाता-चूनी लाल कहते पत्थरों से स्वतः अंकुर फूटने से लेकर वनों बियाबानों में रसदार फलों से लदे पेड़ों, पौधों, फूलों और फलों के साक्ष्य देता जो केवल कुद्धरत की छत्रछाया में उगते और विनिष्ट होते हैं। बहस लंबी चलती पर दोनों एक-दूसरे के पक्ष प्रतिपूरक थे। नतीजों की चिंता के बगैर, दुर्भाव से कोसों दूर यह मानसिक कसरत के क्षण उन्हें बहुत सुख देते... समय बह रहा था और व्यथ के पानी की तरह उतार-चढ़ाओ से भरपूर बह रहा था। व्यथ इस शहर की ही नहीं, सारी घाटी का सांस्कृतिक और आर्थिक कर्म मार्ग है। यह यहां के हिन्दु, मुसलमान, सिख और सब मज़हबों के जीवन की कड़ी में जोड़ने वाली माला का कार्य करती हैं-इसके घाट पर, हर कोई लाभान्वित होने को उतरता है। अशोक को अपने ननिहाल आज सजा-धजा कर अपनी स्नेहल माता अपने वक्ष से सटाये, इसी व्यथ में खेह रही एक बोट में ले जा रही है। अशोक का परिचय इस ऐतिहासिक नदी के साथ आज पहली बार हो रहा है। कल अशोक का वार्षिक जन्मदिन था और आज अब कुन्ती जी के मां-बाप ने अपनी लाडली बेटी को मायके दावत पर बुलाया है। पतिदेव, मोहन जी इस वक्त साथ नहीं गए, वे दफ्तर से अवकाश नहीं लेते। यह उनका नियम है। बिना किसी गंभीर कारण के वे दफ्तर से एक दिन भी गैरहाजिर नहीं रहना चाहते। शाम को छुट्टी होने के बाद वे भी कुन्ती जी के मायके यानी आपनी ससुराल पहुंच जाएंगे। इस तरह मोहन जी आज अपने ससुराल में शाम को भेाज पर आएंगे, रात वहां रहकर कल अपने घर वापिस आएंगे, कल रविवार है वो तबीयत से घर पर आराम करेंगे। कुन्ती जेलखानी का मायका, प्रतिष्ठित और अभिजात, कश्मीरी पंडित परिवारों में से एक है। उसके पिता जी दीनानाथ कौल, लाहौर युनिवर्सिटी से डबल ग्रेजुएट हैं। उन्होंने अंग्रेजी फारसी का गहन अध्ययन किया है और यही कारण है कि पांच बेटियों और दो बेटों का ग्रेजुएट (लेबल स्तर) तक पढ़ाया। कहने में यह बात बहुत आसान लगती है, पर याद रहे कि आज जबकि अपार सुविधाओं का दौर है और शिक्षा के लिए सरकार ही अरबों रूपए खर्च करती है, यह तो जमाना था जब राजशाही थी और शिक्षा की सुविधाएं सीमित थी, व लड़कियों की शिक्षा इतनी आम न थी। दीनानाथ कौल और उनकी पत्नी अरूंदती का जीवन कितना सुदृढ़ और संकल्प कितना पक्का हुआ होगा। इन्होंने पांच कन्याओं का ऐसा लालन पालन किया कि सब अपने जीवन में उच्च पदों तक पहुंची और अपनी संतानों को भी शिक्षा, दीक्षा देकर समाज में प्रतिष्ठा का पात्र बनाया। यह कुन्ती के मां-बाप का असीम और अथक जुझारू रूप ही हैं, जो अब उनके संतति के लिए कर्मठता का और संसार में किन्हीं भी स्थितियों से मुकाबला करने का हौंसला दे रहा है। अशोक बहुत ही आकर्षक रूप का बालक है। एक वर्ष का होने पर अब वह गोद त्याग कर जमीन पर लोटने और हाथ-पांच मारने को आकुल रहता है। नाव पानी के बीचों बीच जा रही है। इधर से उधर, उधर से इधर नावों का कारवां चल रहा हे। कश्मीर में बसंत अपने चरम यौवन पर है। महीनों कड़ाके की ठंड के बाद मकान की खिड़िकियों, झरोखें को लोगों ने खोल दिया है और मकान के खिड़की की दमदार में बहता नावों में बैठे यात्रियों को तन्मयता से देख रहे हैं। बयार में बसंत की उन्मादक ठंड पसरी है, जो सारे सुक्ष्रुप्त जगत के जगाएगी और पुनः प्राणमय बनाएगी। नावों में बोटों में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, विदेशी सैलानी भी आ-जा रहे हैं। एक विदेशी जोड़े की नजर कुन्तीजी और उनके बच्चे पर पड़ी-इस तरह मां-बेटों की सुन्दरता ने उनका मन मोह लिया-बोटमैन को इशारा करके नाव कुन्तीजी की नाव के समीप लाए और अपना कैमरा निकाल कर कुन्ती जी से कहने लगे, हम आपके बच्चे की तस्वीर लेना चाहते हैं। कुन्तीजी को हालांकि पहले अजीब लगा पर दूसरे ही क्षण उन्होंने वापिस अंग्रेजी में जवाब दिया, हां-हां क्यों नहीं, आपको अच्छा लगा है, आप इसकी तस्वीर खींच सकते हैं... कश्मीरी महिला को इस तरह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते अंग्रेजी जोड़े के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई, इन्होंने ने केवल बच्चे की तस्वीर ली बल्कि बच्चे समेत मां के साथ अपनी भी तस्वीरें खिंचवाई। कुन्ती जी का पता नोट किया और लंदन जाकर बाद में तस्वीरों के प्रिंट भी भिजवा दिए। नाव भानमुहल्ला के आगे के घाट पर रूक गई-कुन्ती जी अपने लाडले के साथ आज पहली बार अपने मायके में कदम रख रही हैं। कुन्ती जी के बहिन, भाई और मां-बाप सब सवेरे से ही दोनों मां-बेटे की बाट जोह रहे हैं। दीनानाथ जी कुन्तीजी के पिताजी ने कई बार घाट तक आकर देखा कि उनकी लाडली कहीं आ गई है कि नहीं, फिर गफारा को खास हिदायत दी कि बिटिया के आते ही खबर करने आए, गफारा की नजर कुन्ती जी पर पड़ते ही वह उनके मायके की तरफ दौड़ने लगा-गफारा खुश था, कुन्ती जीजी आज बहुत दिनों बाद मायके आ रही है, लगभग बछड़े-सा कुलांचे भरता दौड़ने लगा, उधर से स्वयं दीनानाथ खुद कुन्ती जी की अगुआई में तेज-तेज घाट की तरफ आ रहे थे। उन्हें किसी मित्र ने खबर कर दी थी कि बिटिया को घाट चढ़ते देखा है। अशोक को सीने से लगाते दीनानाथ की खुशी का ठिकाना न रहा। बहुत खुश होकर अपनी लाडली बिटिया का स्वागत करते उसे घर ले आए। घर सब में कुन्ती जी के बस आने भर की प्रतीक्षा थी-सारा घर स्फूर्ति, जोश और खुशी से भर गया। सबने इस घड़ी के लिए खास तैयारी कर रखी थी। काका (अशोक) की मासियों में बहुत उत्साह और ममता का भाव स्पष्ट दिख रहा था। दोनों मामा जी अपनी बहिन से छोटे थे पर अपने (नवासों) पर एकदम फिदा दिखते-अभी दोनों काफी छोटे थे। सब से छोटा मामाजी, इन्दूभूषण कौल जिन्हें प्यार से सब इन्दू पुकारते, दो, तीन वर्ष ही काका से बड़े थे। दीनानाथ जी काका (अशोक) के नाना काफी पढ़े-लिखे होने की वजह से ही संयत और रौबदार व्यक्तित्व के मालिक हैं। घर में अनुशासन और सदाचार के साथ व्यक्तिगत इच्छा-अनइच्छा का भी मान-सम्मान होता है। पांच बेटियां, दो बेटे और खुद मियां-बीवी के अतिरिक्त पिता और माता अभी जीवित हैं। परिवार ममें हर तरह का सुख और संतोष है। बेटियों को पढ़ा-लिखा कर संभ्रांत पंडित परिवारों में ब्याहा है और लड़के अभी छोटे हैं। बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ाई कर रहा है और छोटा लड़का अभी पांच साल का हो गया है। काका, से केवल चार साल बड़ा होने के कारण काका को अपने से काफी छोटा समझता है और उसका अभी से ध्यान रखता है। कुन्ती जी के घर में प्रवेश करते ही सबने खुशी से स्वागत किया और काका को बहुत प्यार दिया-हर किसी ने छोटा-बड़ा कोई न कोई तोहफा काका को थमाया-काका के नन्हें मन, बुद्धि में इसकी कोई छाप रह पाई हो यह बताना मुश्किल है, पर इस बात से यह जाहिर तो हो ही जाता है कि मातामाल (ननिहाल) में काका को ढेरों प्यार मिलता रहा। पंडित दीनानाथ ने व उनकी पत्नी अरूंधती ने इस प्यार दुलार में कभी कमी नहीं आने दी। काका के बड़े मातामाल यानी नानी का मायका शहर के प्रतिष्ठित पंडित सतलाल (परिवार) सपरू था, इनके एक भाई उस समय पुलिस में थानेदार थे और अपनी विलक्षणता के कारण नगर भर में काफी चर्चित थे। इनका नाम सतलाल सपरू था और सत यानी सत्य पर चलने की ठान रखी थी-इन्होंने अपने रौबदाब का खासा दबदबा बनाए रखा था-हालांकि अंदर मन से बहुत दयालु और नर्म थे पर आवाज खासी भारी और तेज थी-मुंह खोलते ही गाली की जड़ी लगाते-इनसे तांगे-इक्के वाले ही नहीं अपने को तीसमार खां समझने वाले गुंडे लफंगे भी खौफ खाते थे। सतलाल का बदलते दौर की नब्ज पर हाथ था, जानते थे आगे क्या होने वाला है, अक्सर अपने दोस्तों से कहते, जितना खुश रह सकते हो रहो, जाने फिर कभी यह दौर हमारी जिन्दगी में देखने को नसीब होगा-उनके पास छोटे-मोटे उठाईगीरों से लेकर बड़े सेंधमार चोरों की पूरी तफसील रहा करती। कोई उनकी नजर से बचा नहीं था-आदमी हो या औरत सबके जनम-मरण का ब्यौरा उनके दिमाग में रिकाॅर्ड था-और अजीब मस्तानापन सारे व्यक्तित्व में छाया रहता। अशोक (काका) को देखने आज वह भी अपनी बहिन के घर आया था-साथ में उसकी बीवी भी थी-दोनों ने ढेर सारे खिलौने काका के लिए लाए थे और काका को देख-देख कर खुश हो रहे थे-काका ने उनकी लम्भी उठी हुई मूंछे पकड़ रखी थी-मानो कह रहा हो वाह रे मामा साब, इतनी रौबदार मूंछे...! कुन्ती काफी थक गई थीं-दिन भर मायके में गहमागहमी रही। अब वह घर लौटना चाहती थी, पर थकान से चूर शरीर एक कदम भी चलने को तैयार नहीं था-पर उसने घर में कह रखा था कि शाम को दिन ढलने से पहले वापिस आ जाएगी-जाने के लिए माता-पिता, भाई-बहिनों से रूखसत लेती हुई तैयारी करने लगी.... तो मां ने नाराज़ होते कहा, अरी! तो फिर आई ही क्यों थी? भला यह भी कोई आना हुआ...? अभी हमने काका को जी भर कर देखा भी नहीं कि तुम जाने लगी हो। चूनी जी कांता की बहिन भी इतनी जल्दी बहिन के वापस जाने से खुश न थी, बोली, माना कि शादी के बाद लउ़की पराई हो जाती हे, पर साल-छः महीनो तो रात-दो रात मायके रह सकती है ना।
किन्तु दीनानाथ जी ने सबको खामोश किया, कुन्ती का बैग उठाकर वह कहने लगे, चलो बेटी, अगर उनसे आज ही वापिस आने को कहा है तो आज ही जाना उचित होगा, बाद में बेशक तुम परमिशन लेकर हफ्ता भर हमारे साथ ठहरना-सब चुप हो गए-दीनानाथ की बात सुन घर में इसी तरह अंतिम होती, उसके बाद किसी को बोलने का सवाल ही नहीं था, कुन्ती, काका को गोद में उठाकर निकलने लगी।
दीनानाथ ने कुन्ती से कहा, अब दामाद जी को भी साथ लेकर आना, वे तो खास बुलाने पर भी नहीं आते क्या इतना बिजी रहते हैं? कुन्ती नहीं आप कहलवा भेजेंगे तो आ जाएंगे। वैसे भी वे शिष्टाचार में नहीं पड़ते। दीनानाथ शिष्टाचारी तो हैं, पर पता नहीं यहां आते क्यों...? नहीं, नहीं बाबूजी वे तो चलने को तैयार रहते हैं...बस मैं कहती हूं कि होवुर (ससुराल) बिना बुलाये कभी नहीं जाना चाहिए-इज्जत के साथ बुलाने पर ही शोभा और मर्यादा से ससुराल में साल खाना चाहिए- लगता है तुम्हारी हर बात मान लेते हैं, मोहन जी। कुन्ती हंसते हुए... मानेंगे क्यों नहीं हम भी तो उनकी हर बात का मान रखते हैं। दीनानाथ, शाबाश बेटी, मैं जानता हूं तुम सब बहिनें सयानी हो, बस एक बाप को और क्या चाहिए. पगड़ी का मान बना रहना चाहिए। कश्मीरी पंडित को अपनी पगड़ी के मान की चिंता इस दौर में फिर सताने लगी थी। समय करवट बदलते देर नहीं लगाता। कल तक जम्मू-कश्मीर में एक हिन्दू राजा का राज था, घाटी में मुसलमानों का बाहुल्य होने के बावजूद भी हिन्दु को राज्य का संरक्षण प्राप्त होने के कारण अपना आप सुरक्षित लगता था। हालांकि इस सुरक्षा का अधिक श्रेय वह अपने मुसलमान भाईयों को ही देते। यहां का मुसलमान जो कुछ सौ वर्ष पहले स्वयं हिन्दू था, मजहबी जुनून से दूर एक साफ-सुथरी ईमानदार जिन्दगी जीने में यकीन रखता था। पर सियासी उठा-पटक के चलते मज़हब को कभी ढाल तो कभी कट्टार बनाकर इस्तेमाल करने की जो शुरूआत 1931 में हिन्दू महाराजा के खिलाफ खिलाफत की जंग छेड़ कर हुई थी, वो अंदर ही अंदर सक्रिय थी-शेख साहब को कैद करने के बाद अवसरवादी और फिरकापरस्त ताकतों ने इस आग में घी डालने का काम जारी रखा था। सारे कश्मीर में अभी भी अफवाहों का बाजार गर्म था। कश्मीर के मसले पर हालांकि बख्शी गुलाम मुहम्मद ने बल और युक्ति से लोगों की जुबानें खामोश कर दी थीं पर शेखर साहब अपने दल-वल के साथ एक आहत शेर की तरह गुर्रा रहे थे। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल इस बात से काफी चिंतित थे कि आखिर कैसे बिना किसी ठोस सबूत के वे शेख को एक लंबे अर्से तक नजरबंद रख सकते हैं। एक लोकतांत्रिक देश की मान्यताओं और प्रतिष्ठाओं पर न केवल सार्वजनिक रूप से अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा था। इन परिस्थितियों के चलते, माहौल में शक, अविश्वाास और अल्पसंख्यक हिन्दु समाज में भय का बीज, पनपने लगा था। अब हारी पर्वत ब्रह्ममूर्ति में अकेले जाते मन घबराता, कुछ मुस्लिम युवक आते-जाते यात्रियों, भक्त, भक्तिनों पर फबतियां कसने लगते, गंदे मज़ाक और छेड़ के मुहावरे सुनाने लगते, जो काफी कष्ट देने वाले और दर्दनाक होते। जानबूझ कर पाकिस्तान में मुसलमानों कीे खुशहाली की बातें होती और आजाद कश्मीर रेडियो के हवाले से सुनी बेसिर पैर की खबरों को खूब नमक मिर्च मिलाकर दोहराया जाता। इस बात की शिकायत शहर के कुछ प्रतिष्ठित पंडितों ने बख्शी साहब से की तो बख्शी साहब ने पुर-असर मुसलमान, मौलवियों और लोगों को बुलाकर एक सभा आयोजित की और उन्हें शहर के अमन-चैन की जिम्मेदारी के साथ अल्पसंख्यक हिन्दुओं के मान-सम्मान का जिम्मा सौंपा-इस काम में किसी कोताही के लिए सीधे तौर उन्हें जवाबदेह बनाया-सारे संभ्रांत मुसलमानों ने बख्शी साहब को आश्वस्त किया कि सियासी मतभेद को दरकिनार कर वे ऐसे तत्वों को काबू में कर देंगे, जो अल्पसंख्यकों में गलत संदेश फैला रहे हैं, और उन्हें परेशान करते हैं। अमन कमीटियों और हिन्दू-मुसलमान सौहार्द, सभाओं का आयोजन हुआ-और समाज में उद्धण्ड और गैरकानूनी व गैर जिम्मेदार तत्वों पर नकेल डाली गई। यह मान-मर्यादा और भाईचारे की प्रतिष्ठा को बचाए रखने में बहुत हद तक कारगर सिद्ध हुआ। पर इससे मूल समस्या का समाधान नहीं हुआ-मूल समस्या सांप्रदायिकता का जहर था-इस जहर को शेखअब्दुल्ला की गिरफ्तारी को बहाना बनाकर कट्टरपंथी मुसलमान समाज में फैलाने में हर प्रकार से तत्पर रहते थे। इधर कश्मीर में सियासत के नाटकीय उतार-चढ़ाव के बीच जनता अपना दैनंदिन जीवन अपने रंग में रंगते जी रही थी... हिन्दुओं के त्यौहार पर्व पर मेले-रेले का समां बंध जाता-अक्सर मुसलमानों के खास वर्गों में इन त्यौहारों का बहुत इंतजार रहता और इनसे काफी उम्मीदें भी बंधी होतीं। खासकर शिवरात्रि पर हिन्दु घरों में कुम्हार मटटी के सारे नए बर्तन लेकर आता, जिसमें रसोई में खाना पकाने से लेकर पानी भरकर रखने वाले बड़े घड़े तक होते कुम्हार सारे बर्तन एक बड़ी-सी टोकरी में भर कर पीठ पर लाद कर पंडितों के घर ले जाता-यहां उसका स्वागत पारंपरिक रूप से आरती उतार कर होता-तब वो घर के भीतर बर्तन रखता और बदले में चावल, घी, तेल, नमक और रुपए इत्यादि ले जाता। इस पर्व पर दूर गांव से शहनाई बजाते भाण्ड संगीत की स्वर लहरियों में सारे नगर को डुबो देते। शहनाई और ढोल बजते और सारा नगर झूम उठता-शिव रात्रि, अक्सर फरवरी के अंतिम सप्ताह या मार्च के पहले या दूसरे सप्ताह में आती, यह त्यौहार बसंत के आगमन से, तनिक पहले आता जो बसंत की हवाओं को त्वरित घोड़ों पर वादी में आने का संकेत देता। बर्फ का गिरना इस त्यौहार पर लाजमी माना जाता-हर घर में देर रात तक भगवान शंकर की पूजा होती। कुम्हार द्वारा लाए गए बर्तनों को सजा कर बड़े घड़े को शिवजी और छोटे को पार्वती का रूप दिया जाता। छोटी कवलियों को नक्षत्र-देवादि और एक खास आकार के खुले बर्तन को भैरव और एक छोटे शिवलिंग को पूजने की क्रिया प्रारंभ होकर मध्य रात्रि तक जारी रहती-हर घर से शंखनाथ की गूंज गूंजती और सुबह मंदिरों में लोगों का तांता बंधा रहता-यह पर्व स्त्रियों के लिए विशेष महत्व का होता-उन्हें घर की साफ-सफाई करनी पड़ती और एक तरह से सारे घर की लिपाई-पुताई करके रखना होता-क्यों न हो शिवजी महाराज के ब्याह की वर्षगांठ जो मनानी होती। ब्याहता स्त्रियों के मायके से शिवरात्रि के पांचवे दिन खास भोग आता-जिसमें अखरोट नान और कहीं-कहीं मास भी बेटियों के घर भेंटस्वरूप भेजा जाता। यही समय होता था, सर्दियों की स्कूली छुट्टियों के समाप्त होकर फिर से स्कूल खुलने का-कुन्ती की पोस्टिंग हालांकि नेशनल गल्र्स स्कूल नवाकदल में हुई थी-जो घर से पैदल 10 एक मिनट का रास्ता था, पर घर की व्यवस्तताओं ने उसे काफी थका दिया था और वह चाहती थी कि अभी इतनी जल्दी छुट्टियां खत्म न हो-पर चुन्नी लाल घर बेठे-बैठे अब बोर होने लगे थे-वे चाहते थे कि स्कूल जल्दी खुल जाएं-उन्हें दरअसल अपने पेशे से खासकर बच्चों से बेहद लगाव था-वे बच्चों को पढ़ाने और खुद पढ़ने के सिवा जीवन में किसी अन्य बात को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझते, यहां तक कि शादी को भी नहीं। उन्होंने आजन्म शादी न करने का एक तरह से व्रत ले रखा था-उनका अधिकतर समय योग साधन और धार्मिक पुस्तकों खासकर विवेकानंद के आश्रम में ही व्यतीत होता-हालांकि वे समाज से बहुत जुड़े हुए थे, पर उन्होंने खुद को किसी लहर में बहने नहीं दिया था। वे एक तटस्थ दशर््क सबकुछ देखकर जी रहे थे। इसकी वजह शायद जीवन के उतार-चढ़ाव हों, कैसे वे अपने मामा जी के पास पलने-बढ़ने लगे और उन्हीं के बेटे कहलाए और चुन्नी लाल धर से चुन्नीलाल जेलखानी हुए... उन्हें इन बातों को भी सोचना व्यर्थ लगता-जीवन के गूढ दर्शन के पीछे कभी उन्हें तिकोन तो कभी गोल वृत तो कभी चकोर के से संदर्भ दिखते तो कभी एक अथाह सीधी रेखा, जिसे देखते कभी यह नहीं कहा जा सकता कि इसे दाहिने से बायें खेंचा गया है या बायें से दाहिने। मोहन जी इससे अलग सोच वाले यथाजीवी आदमी हैं। उन्हें ईश्वर ने वो सब कुछ दे दिया, जिसकी उन्हें कल्पना भी न थी। सरकारी नौकरी, सुंदर, सुशील, उच्च शिक्षा प्राप्त बीवी और फूल-सा सुंदर बच्चा-वे गणपतयार आते-जाते भगवान गणेश जी को आभार प्रकट करते और उनसे एक ही आशीष मांगते कि उनकी कर्तव्य परायणता में कभी कोताही न हो और वो निश्चित जीवन जीते रहे। मां-बाप की सेवा और परिवार का प्रेमपूर्वक लालन-पालन यही उनके जीवन का मुख्य ध्येय था। यूं तो अशोक के जन्म से कुछ महीने पहले और उसके बाद निरन्तर कश्मीर के आकाश पर अस्थिरता और अनिश्चिता के बादल हमेशा मंडराते रहे, पर यह स्थिति भयावह तब हेा जाती जब किसी विशेष राजनीतिक घटना का खामियाजा यहां की अल्पसंख्यक हिन्दू जनता को भुगतना पड़ता-जो कि अशोक के जन्म के इर्द-गिर्द भी कुछ यही हालात देखने को मिले थे। जब जवाहर लाल नेहरू जी ने 16 अगस्त को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली के साथ काफी सारी बैठकों के बाद एक संयुक्त बयान जारी करके वादी में सबको हैरत में डाल दिया, और हिन्दू जनता को निराशा के गर्त में डुबो दिया, बख्शी साहब को अपने सारे मंसूबों पर और अभी तक की, की गई अपनी सारी मेहनत पर पानी फिरता नजर आया-वे बौखला कर नेहरू जी की अदूरदर्शता पर चिल्ला रहे थे। अगर यहां पेलीबिसिट ही कराना था तो शेख साहब को क्यों कैद किया, मुझे अब लोग क्या दर्जा देंगे। लोगों की नज़र में मैं क्या कहलाऊंगा? उधर कश्मीरी पंडितों को अपना भविष्य ही चैपट नजर आने लगा था। पेलीबिसिट का अर्थ पाकिस्तान ही होगा, नेहरू जी यह क्या कह रहे हैं? पर ऐलान हो चुका था-20 अगस्त को संयुक्त बयान जारी करके एक पेलिबिसिट प्रशासक की नियुक्ति अप्रैल 14 तक की जानी थी, जिसकी देख-रेख में यह मामला सुलटा दिया जाना तय हुआ-हालांकि भारत ने इस प्रक्रिया के लिए पाकिस्तान से किन्हीं मूलगत विषयों पर आपसी रजामंदी का निबटारा होना आवश्यक करार दिया था-न वो आपसी रजामंदी कभी बन पाई और ना दोनों देशों में कोई नियत दिखी-इसके विपरीत पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ एक सामरिक संधि कर डाली, जिससे नेहरू जी की आंखें खुल गईं और उन्होंने दुबारा पाकिस्तान पर विश्वास नहीं किया। -----------------------------------------------------------------
नई डगर
इसी बीच बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू कश्मीर राज्य के संबंध शेष भारत से और सुदृढ़ करने के उपाय उठाए और 14 मई, 1954 को राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान के अन्य अनुच्छेदों को भी जम्मू-कश्मीर पर लागू किया। इधर कश्मीर में शांतिप्रिय लोगों की जान में जान आ गई-बख्शी साहब ने जश्नों के दौर और आतिथ्य सतकार के पर्व मनाने शुरू किए, देश-विदेशों से डेलिगेट्स कश्मीर आकर काॅन्फ्रेसिंग करने लगे। 21, 22 दिसंबर, 1955 को रूस के बुगेयरियन और क्रिस्चोव ने कश्मीर की यात्रा की और कश्मीर को भारत का अटूट अंग घोषित किया। हालात काफी हद तक सामान्य हो गए थे। लोग अपने काम-काज में जुट गए थे और सबकी चाह बस किसी तरह पढ़-लिख कर सरकारी नौकरियों का पद पाना था।
इसलिए पढ़ाई पर बल दिया जाता। गांव-गांव, स्कूल, अस्पातल और कढ़ाई बुनाई के प्रषिक्षण केन्द्र खुलने षुरू हुए। जिसने भी आठ दस जमातें पढ़ी होतीं तो उसे सरकार कोई न कोई नौकरी दे देती। और यही सोचकर सबने मुफ्त पढ़ाई के फैसले का मन से स्वागत किया था।जवाहरलाल नेहरू षेखअब्दुल्ला के प्रति अत्यंत चिंतित थे। वे दुनिया को गलत संदेष नहीं देना चाहते थे, बिना किसी ठोस सबूत के षेख साहब को आखिर कितनी देर जेल में रख सकते। सो उन्होंने षेख साहब की रिहाई के लिए बख्षी को मना लिया और ष्षेख साहब रिहा हो जाएं। पर षेख साहब के सोचे हुए नया कष्मीर के सारे मनसूबे को बख्षी ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उधर बख्षी की गद्दारी के प्रति षेख के मन में रोष भी था। सो छूटते ही धर्मस्थलों पर उन्होंने भारत और बख्षी के खिलाफ जहरीली आग उगलनी षुरू की। जिससे एक बार फिर कष्मीरी पंडितों में बेइतमिनानी फैलने लगी। उन्हें कष्मीर का और अपना भविष्य असुरक्षित और अनिष्चित लगने लगा।चुन्नीलाल, मोहन लाल और जेलखानी मुहल्ला ही नहीं समस्त श्रीनगर के कष्मीरी पंडितों में सुगबुगाहट तेज हो गई। षीतलनाथ की स्थली, गनपतयार और रैनाबाड़ी में पंडितों ने आपस में संपर्क स्थापित करके अपने मुस्लमान भाइयों में अभी तक कायम असर-ो-रसूख का इस्तिमाल करके हालात का जायजा लेकना आरंभ किया, भारत के खिलाफ जहर उगलने के बावजूद भी और हजरतबल के धर्मस्थल से मुस्लमानों के धार्मिक उद्वेगों और जजबातों को भारत के खिलाफ भड़काने के बावजूद भी षेख साहब कदम-कदम पर अपने कार्यकर्ताओं को सख्त हिदायते देते कि किसी भी रूप में अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौधों, सिखों, या किसी और कौम पर कोई आंच न आने पाएं। षेख साहब के जेल से छूटते ही अनंतनाग और श्रीनगर में सारे कष्मीर ने उमड़कर उनके भाषन सुने और उन्हें अपना निर्विवाद नेता घोषित किया। कष्मीर से लेकर भारत के संसद तक इस बात की चिंता गहन होने लगी कि अब इस सैलाब को कैसे रोका जाए। किंतु बख्षी की हिकमत अमली ने फिर अपना जलवा दिखाया। षेख साहब हज पर जा रहे हैं सुनकर वह उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, पर नेहरू जी ने मना किया और हज पर जाने की अनुमति प्रदान की। हज पर जाने के बाद षेख साहब वो गलती कर बैठे जिसकी नेहरू जी ने उम्मीद की थी। षेख साहब ने षत्रु देषों से मुलाकात की जिसमें चीन के चुअनलाई भी षामिल थे और भारतीय प्रषासन के खिलाफ बयान दिया। इस प्रकार भारत को मौका मिला और राजद्रोह के इलजाम में षेख साहब को नजरबंद कर दिया।फिर बेइतमिनानी फैल गई। श्रीनगर के कुछ इलाकों में दंगाइयों ने पंडितों की दुकानें लूटी और पत्थराव किए। एक बार सारे जेलखानी मुहल्ला में भय और संत्रास छा गया। हब्वा कदल ज्यादा सुरक्षित है या गनपतयार। लोग अलग-अलग तरीके से सुरक्षा के उपाय सोचने लगे। सबको बादमबारी में फौज के संरक्षण में जाना चाहिए। सबको एक ही जगह एक साथ रहना चाहिए। चूनी लाल बेखौफ होकर रेडियो से खबर सुन रहे थे। उनको यकीन था कि और तूफानों की तरह यह भी बस ऊपर से निकल जाएगा। जो भी हो भय और संत्रास में वादी में स्कूलों, काॅलेजों को अनिष्चित रूप से बंद कर दिया था। चूनी लाल और कुंती जी को अवकाष का समय मिला। चूनी लाल ने अपने अध्ययन में मन लगाया और कुंती जी अषोक की पढ़ाई पर ध्यान देने लगीं। उसने नर्सरी टाइम और बच्चों की षिक्षा में काम आने वाले खिलौनों से अपने बच्चों को षिक्षा की पहली पहचान कराने का षुभ आरंभ किया। अब अषोक लगभग तीन साल पूरे करके चैथे साल में प्रवेष कर चुका था। वह अपनी मात्र भाषा के साथ ही अंग्रेजी के षब्द भी स्पष्ट बोलने लगा था। जो उसे अपनी पढ़ी लिखी मां अपनी मात्र-भाषा के साथ बोलना सिखाती। हाथ को हैंड, नाक को नोज़, आंख को आइ, और होंट को लिप कहते हैं। षुरूआत षरीर के अंगों के नामों से की गई। तस्वीरों और ड्राइंग से विभिन्न वस्तुओं से परिचय कराया गया। चलते फिरते घूमते घामते हर समय अषोक के मस्तिष्क में कोई नई जानकारियां प्रवाहित की जाती ताकि उसके पर्सेप्शन्स डिवेलेप हों। इस काम में मोहन जी से अधिक चूनी लाल जी भी कुन्ती जी का हाथ बंाटते-चूनी लाल जी अषोक को अपने अध्ययन कक्ष में ले जाकर, ढेर सारे मैगजीन (बच्चों की सचित्र) देखने को देते। इन तस्वीरों में अषोक अतयन्त रूचि लेते, खासकर काॅमिक कार्टून के अंक जो तब टाइमाज के साथ बराबर विधिवत आते, अषोक उन तस्वीरों को देखकर पहले-पहल फाड़ देता, आहिस्ता आहिस्ता इन्हें देखना फिर षायद संबंध तत्व से जानना भी आरंभ किया। यह एक संयोग था या भविष्य के प्रति एक प्राकृतिक सांकेतिक लक्षण कि अषोक कार्टून के सचित्र मैगजीन में तीसरे, चैथे वर्ष से ही दिलचस्पी दिखाने लगा, इस चीज को चूनी लाल जी के तीव्र मस्तिष्क ने देख लिया और इन्ही कार्टूनों को अषोक के साथ अपने षिक्षक का संबंध उन्होंने स्थापित किया। उनका लक्ष्य था, अषोक की चेतना को तर्क बुद्धि के स्तर पर लाकर बिस्को स्कूल के आने वाले नर्सरी टेस्ट के लिए तैयार करना-चूनी लाल जी, मोहन जी की तरह दफतर और घर की दुनिया में ही सिमटे नहीं थे। वे बहुत खुली आंख से दुनिया देख लेते, पर दुनिया के पचडे़ में न पड़ कर एक अध्यात्मिक राह खोजने में कार्यरत रहते। उन्हें सच्चा अध्यात्मक सुख वास्तविक जीवन के सत्य को बिना पूर्वाग्रह देखने समझने और उससे निपटने में अधिक समीचीन लगता। टकराहट से अच्छा है समन्वय, दूषित वातावरण को स्वच्छ करना होता है न कि तहस नहस करता-हम किस चतुराई से घर की हर चीज को बचा कर सफाई करते हैं। षीषे जैसे नाजुक से नाजुक चीज पर खरौंच तक आने नहीं देते, यही अमल हमें सार्वजनिक जीवन में अपनाना चाहिए। बिना दम्भ, द्वेष और ईष्र्या के अपना कार्य करना चाहिए। अशोक ने चूनी लाल जी के मन में घर कर दिया था-चूनी लाल जी के शादी, ब्याह, संतान कुछ भी नहीं। एक तरह से घर, गृहस्थ में भी एक वनवासी के तपस्वी जीवन में अशोक को वह अत्यंत अनुराग से देखने लगा था। ममता जिसे स्त्रियों के साथ ही अधिक जोड़ कर देखा जाता है, वास्तव में पुरूषों में भी उसी तीव्रता से भरी होती है। मां इस जज्बे से नौ महीने पहले परिचित हो जाती है। कोख में पालती है, छाती का अमृत पिलाती है, पुरूष स्नेह देता है-निःस्वार्थ स्नेह देने की अपार क्षमता है पुरूष में... पर संसार की कठोर कर्मठता ने पुरूष को इस राग के प्रति अवहेलना भर्तना सिखाया-इसे खुले प्रदर्शित करना कमजोरी माना गया-और इन भावों को छिपा कर जीना और व्यवहार करना उसकी प्रकृति जैसे बन गई। अशोक को लेकिन एक ऐसे आदमी का संरक्षण और सान्निध्य मिल रहा था, जो दुनियादारी के दिखावे से कोसों दूर था-जिसने आत्मा की शुद्धता के साथ जीव पर्यन्त जीने का गुर सीख लिया था। अशोक के जीवन में व्यावहारिकता में जीवन के निकट रहकर जीने के लिए यही बात शायद सबसे जिम्मेदार थी। अशोक को तरह-तरह की तस्वीरों मंे काफी रूचि रहती, पर जीवन में तस्वीरों से अलग कुछ खास कोने भरने होते हैं, कहीं जगह बनानी होती है और कहीं जगह छोड़नी भी पड़ती है। यह एक लाहेअमल है, जिसमें ज्ञान, विज्ञान, गणित, राजनीति, अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म सब समाहित है। चुन्नी लाल चाहते थे कि अशोक शीघ्रातिशीघ्र बड़ा हो, ताकि वह उसे यह सब बातें बता और सिखा सकें पर कुन्ती को अभी एक छोटे से मसले का हल तलाशना था, बिस्को स्कूल में अशोक का दाखिला इतना आसान न होगा-खूब मेहनत से इसे तैयार करना होगा-अशोक की समझ में नहीं आता कि आखिर हर कोई यह किस तरह की बात करता है। उसने मोहल्ले के बच्चों को सुबह सवेरे स्कूल जाते और शाम को स्कूल से वापसि आते देखा था। रोज देखता था पर कहीं कोई इस बात के लिए खास तैयारियों में नहीं जुट जाते, बच्चे को आसमानी रंग की कमीज़, खाकी का निकर पहना कर, बस्ता कंधे से लटका कर स्कूल जाते आते देखा था। लड़कियां सफेद पायजामा और नीले आसमानी रंग का कुर्ता पहनकर स्कूल पढ़ने जाती। पर अशोक को यह कहां भेजा जा रहा है। वह किशनी से पूछेगा। किशनी एक आध साले अशोक से बड़ी है और उसकी चचेरी बहिन है, एक ही मोहल्ले में रहते हैं। हालांकि अशोक को मोहल्ले के बच्चों से ज्यादा उठना-बैठना या खेलना न था पर किशनी बहुत सलीकेमन्द बच्ची थी और अशोक से काफी हिलमिल गई थी। वो अशोक को समझा रही थी, तुम बहुत भाग्यवान हो, तुम्हें सारे कश्मीर के सबसे बड़े और बढ़िया स्कूल में पढ़ाई करने का मौका मिला है, जानते हो वहां अंग्रेजी मेमें पढ़ाती हैं। सब अंग्रेजी में होता है बोलना, चालना, उठना-बैठना यहां तक कि खाना-पीना भी अंग्रेजी में होता है।
तो क्या हुआ, नाक को नाक न कहकर नोज़ कहने से कुछ फर्क पड़ता है क्या? अशोक किशनी से पूछता-अरे! बहुत फर्क पड़ता है, अंग्रेजी में नाक को नोज़ कहते ही आदमी की नोज़ उठी हुई साफ दिख जाती है... तुम मेरी नाक पकड़कर एक बार नोज़ बोल के देख तुझे लगेगा, मेरी नाक सच में है... मैं नहीं पकड़ता तेरी गन्दी नाक। अरे धता! तू अंग्रेजी पढ़ ही नहीं सकता क्यों?तेरे को अंग्रेजी सीखनी है तो रोज मेरी नाक को ऐसे पकड़ कर नोज़ बोला कर। मैं नहीं करूंगा ऐसा.. कहकर अशोक घर के भीतर घुस गया-किशनी पीछे देखती रह गई-यह तो बड़ा उल्लू निकला अब यह अंग्रेजी कैसे सीखेगा। चलो मैं परेशान क्यों होने लगी, वैसे अभी यह बहुत छोटा है, थोड़ा और बड़ा होगा तो शायद मेरी नाक पकड़ ले। मैं उसे अपनी नाक पकड़ने को कहती तो शायद पकड़ भी लेता... पर ममी नाक पकड़ कर ही तो नोज़ कहती है, जो भी चीज़ अंग्रेजी में सिखाती हैं इसे हाथ से छूकर बताती हैं। नोज़, आई, हैण्ड, फिंगर, थम्ब, टो, हैड, हियर मुझे बिस्को स्कूल जाने के बगैर ही सब पता है। पर कैसा होता होगा अंग्रेजों का बिस्को.... मैं क्यों नहीं पढ़ सकती वहां?बुद्धि क्या है? ज्ञान क्या है? कौन देता है यह सब? कहां से आये हम? क्यों कर आये? क्या प्रयोजन है हमारा? क्यों झगड़े हैं दुनियां में? प्रश्नों का अन्त नहीं। चुन्नी लाल जी के आगे-पीछे दौड़ते-भागते इन प्रश्नों में बच्चों का पढ़ाई-लिखाई और खुद की आत्मा का अवलोकन, सतत रहस्य मंे लिपटे कुछ ठोस उतर तलाशते प्रश्नों के मध्य जीवन की उलटबांसियां। जैसे फूल मालाओं-सी टंगी है-जिन्हें अकसर शर्द ऋितु में तोड़ कर धागे में स्त्रियां पिरो कर मकानों के छजों और बाहरी दीवारों में धूप में सूखने को छोड़ देती हैं। विचारों को जवाबतलबी की खातिर ऐसे ही टांग कर सुखाने को छोड़ा जाता है। गृहस्थ के चक्कर में आटे-दाल के मोल-तोल में जीवन के गंभीर प्रश्न छूट जाते हैं। अध्यात्म की गुंथियां उलझ कर रह जाती हैं। मनुष्य थका हारा एक दिन आंख बंद करके सब प्रश्नों पर विराम लगा देता है। पर चुन्नी लाल जी इतने से हारने वाले नहीं-ढेर सारे मनीषियों के बीच रहने का फैसला किया है। भारत में वेद, पुराण से लेकर चीन, यूरोप के हर मनीषी का अध्ययन करना उन्होंने शुरू किया-अक्सर हमने जिन छोटी-बड़ी बातों को ईश्वर की इच्छा और नियति के योग पर छोड़ कर अपनी विवशता को दर्शाया है, वहीं चुन्नी लाल जी किसी भी तथ्य के मूल गूढ रहस्य को समझने के लिए अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि का प्रयोग करते... आज उन्हें यही प्रश्न परेशान कर रहा था कि आखिर मनुष्य में बुद्धि और ज्ञान का संचार होता कैसे है। एक शिशु के समझ की मात्रा कैसे विकसित होती है? उसकी परिकल्पना कैसे उजागर होती है। चुन्नी लाल ने इस बात का जवाब किताबों में खोजना शुरू किया। यहां बहुत विद्वानों ने विभिन्न तर्क से एक मूल बात समझाने का प्रयत्न किया जहां पहले-पहले अक्सर विद्वान मानते थे कि बुद्धि भीतर की ग्राह्यता पर निर्भर है, जिसकी कुछ मूलभूत आश्रय बाहर से मिलते हैं और जो दैवी योग से जागृत होकर मनुष्य की सोच को विकसित करती है यानी मैं एक बालक हूं और बुद्धि मेरे भीतर चेतना रूप में अभी सुशुप्त अवस्था में है, ज्यों, ज्यों मैं बड़ा होता जाऊंगा इस अन्तः चेतना का विकास होगा और तब मुझे विकसित बुद्धि के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होगी-इसमें सबसे पहले आत्मज्ञान यानी खुद को जानने का अत्यन्त महत्व है। खुद को दो रूप में जाना जा सकता है एक तो जो मैं शरीर रूप से इस संसार में विदित हूं... और दूसरा जो मेरे भीतर आत्मा का अंश है। मेरे शरीर के अंग, नाक, कान, आंख, चरण मुझे किन्हीं अनुभूतियों से अवगत कराते हैं, जो वास्तव में मेरे भीतर पहले से सुशुप्तावस्था में मौजूद है, और जिन्हें बाह्य संपर्क मंे आने से मैं शारीरिक अवयवों से जानता हूं , पहचानता हूं। पर जानना और पहचानना दो अलग-अलग अवस्थायें हैं-यह बाद के मनीषियों ने खुलकर समझाया। किसी भी वस्तु का अस्तित्व उस मात्रा से कहीं बहुत न्यून या अधिक हो सकता है, जितना कि हम उसे जानते हैं। मेरा संसार सीमित है, जबकि वास्तव में संसार असीमित है, पर संपूर्णता में देखा जाये काल को अपनी सीमित परिधि से बाहर निकल कर देखें तो न कहीं फासले हैं और न कहीं वह सब ऐसा है, जो मैं अपनी सीमित अस्तित्व के कारण देख या समझ पाता हूं। बच्चे को कैसे जीवन के लोहलंगर से वाकिफ कराया जाये, क्यों नाक को दूसरी भाषा में नोज़ कहने से ही उसके ज्ञान की वृद्धि होगी या कुछ और करने की आवश्यकता है। कुन्ती जी के विचारों में अशोक को अंग्रेजी स्कूल के नर्सरी की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयार करने का मतलब उसे आरम्भिक अंग्रेजी की अक्षरों से पहचान, वाक्य पटल और थोड़ी-सी गिनती और साधारण जोड़ और तोड़ यानी मायनस प्लस वाले रिडल याद कराने हैं। चुन्नी लाल इसे काफी नाकाफी मानते। उनका मत था अशोक को सबसे पहले अच्छे से अपनी देखभाल करनी सिखानी है, सुबह उठते उसे खुद अपने सारे काम करने आने चाहिए। वह उठकर दांत साफ करे, नहाये, जूते पालिश करे, अपनी वर्दी खुद पहने-शाम की सैर पर जाये-और कुछ पढ़ाई भी करे। पहले उसे नियम संयम आने चाहिए। दोनों की सोच परस्परक प्रतिपूरक थी प्रतिरोधक न थी-सो दोनों ने मिलकर अशोक पर अपने प्रयोग आरम्भ किये। अशोक की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आ रहा था, बस उसे लगने लगा था कि उसके लिए कुछ खास तैयारियां की जा रहीं हैं। कोई बात है जो शायद बहुत कठिन है और चाचाजी और ममी को परेशान कर रही है। पिता जी बहुत इत्मीनान से कहते कि इसे अपनी मुहिम अपना रास्ता खोजने में स्वयं मदद करेगी।अशोक सोच रहा था-बाकी बच्चे भी तो स्कूल जाते हैं, क्या उनको भी यही सब कराया जाता है, जो मुझे करने को कहते हैं। अशोक की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी-बिस्को स्कूल की कल्पना की तस्वीर किशनी ने उसके मस्तिष्क में उकेरी थी। वह तन्मयता से स्कूल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में अपने चाचाजी और माताजी के साथ पूरा सहयोग कर रहा था।आखिर वो दिन आया जब अशोक को सुबह प्रातः काल ही नियम से जगाया गया-ब्रश करके नहा-धोकर उसे नयीं बुशर्ट-किट और गुलाबी टाई (सफेद बुशर्ट, भरे रंग की किट और गुलाबी रंग की छोटी टाई पहनाई गई, पैरों में भूरे रंग के मोजे और नये चमचमाते चमड़े के जूते) पहनाये गये। यह वह जमाना था जब अभी भी घरों में लकड़ी की खड़ाओं ही पहनी जाती-बाहर जाने पर भी लोग खडाओं पहन कर जाते-हिन्दू अक्सर चमड़े के जूते घर से बाहर उतार देते और घर में पैर साबुन से या मिट्टी से धो लेते। अशोक पर स्कूल की वर्दी खूब निखर उठी। वह बहुत सुन्दर और भोला-सा बच्चा मन को हर लेता। सारी तैयारी कर ली गई।टेंडिल बिस्को, स्कूल शहर का सब से पुराना मिशन स्कूल है। इसकी स्थापना पहले पहल टेंडेल बिस्को नामक अंग्रेजी व्यक्ति ने मिशनरी स्कूल के रूप में फतेहकदल के पास की। इनका बखान कश्मीर के इतिहासकारों ने ही नहीं सर लाॅरेंस ने अपनी पुस्तक वेल आॅफ कश्मीर में भी किया है। इस स्कूल के उच्चि कोटि के मापदण्डों के और अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति के कारण सारे जम्मू-कश्मीर में इसका नाम और दबदबा था। अब इस स्कूल को फतेह-बदल से अमीराकदल, में लाल चैंक के पास ले जाया गया था। इस तरह आली कदल से अब यह स्कूल खासी दूरी पर आ गया था-यहां से तांगे इक्के पर चढ़कर ही लोग अमीरा बदल जाते थे।1959 के बसंत के दिन चरम सीमा पर है। बादामी बाग में बादाम के फूलों की झड़ी लगी है। सारा वातावरण मद, मस्ती और सुगंध से भरा है। अशोक को मां और पिताजी मोहन लाल एक टांगे पर बिठा कर अमीराकदल के बिस्को स्कूल में ले जाते हैं। प्रिंसिपल इरिक्क बिस्को जो अब अपने पिता टेंडेल ब्रिस्को के स्थान पर स्कूल की देख-रेख करते थे, पहले से कुछ बच्चों के अभिभावकों और बच्चों से मुलाकात में व्यस्त थे। थोड़ी देर एक बड़े हाॅल में अशोक अपने माता-पिता के साथ लकड़ी के बेंच पर बैठ गया-हाल की छत काफी ऊंची लग रही थी-दीवारें सफेद एकदम दूध-सी धुली लग रही थी और दीवारों पर सजे फुल लाइफ साइज चित्रों में एक अनोखा आकर्षण था-यह विश्व के महान विचारकों, सांइटिस्टों और हस्तियों की तस्वीरें थी जिनमें अधिकतर यूरोप के ही थे। अशोक केा इन तस्वीरों की अलग वेशभूषा और मुद्रायें ही आकर्षित कर रहीं थीं-हाल के एक खास दीवार पर एक आदमी बुरी तरह ज़ख्मी किसी सलीब पर टंगा दिख रहा था-एक अति ममतामयी मां अपने शिशु को गोद में लिए स्तनपान करा रही थी। सलीब से ट।गे व्यक्ति के चित्र में भयानक दर्द की कहानी दिख रही थी, पर उसके चेहरे पर दर्द के भाव न थे। उसकी गर्दन सिर्फ एक तरफ मुड़ी थी-और चेहरे पर दाढ़ी थी-वह अपना और आत्मज़ लग रहा था। अशोक ने पिताजी से पूछा यह कौन है? क्राइस्ट यही वह महान व्यक्ति है, जिसने धर्म की खातिर अपने ऊपर ढेरों जुल्म सहे। और मानवता के लिए इस सलीब से उतर कर पुनः जीवित हुआ। यह ईसाइयों के ऐसे देखता है जैसे हमारे श्रीकृष्ण है।अशोक हाल के गेट तक गया और बाहर खुले मैदान में फुटबाॅल खेलते बच्चों को देखा-सब बच्चे बाल के पीछे दौड़ रहे थे और इसे लातों से उछाल रहे थे-अशोक का मन यह देखकर प्रसन्न हो रहा था। यह तो बड़ी मज़ेदार जगह है। कुछ बच्चे सी, सा खेल रहे थे, कुछ झूला झूल रहे थे। वाह! यहां तो मौज भी बहुत है। तभी अंदर से प्रिंसिपल साहब ने बुलाया। अशोक अपने मां-बाप के साथ भीतर चला गया-प्रिंसिपल के कमरे में बड़ी मेज़ के पीछे प्रिंसिपल कुर्सी पर बैठे थे और मेज़ पर कलम दवात, कलेण्डर, कुछ कागज़ और डायरी थी। कमरे की साजढावट आकर्षक थी। यहां भी कुछ हस्तियों के चित्र लगे थे। बिस्को साहब ने अशोक को देखा और नाम पूछा, क्या नाम है तुम्हारा।‘माई नेम इज़ अशोक जेलखानी, सन आॅफ मिस्टर मोहन लाल एण्ड कुन्ती जेलखानी, आई लिव ऐट आॅलीकदल श्रीनगर।’बिस्को ‘ओह! गुड तो तुम पूरी तैयारी करके आया हो.... गुड। भई आप टीचर हैं... और जानते हैं बच्चे की जिम्मेदारी, पर यहां बहुत कुछ करना होता है, अच्छी अंग्रेजी के साथ मैथ भी अच्छा होना मांगता है।’हम अशोक को पास करके एडमिशन अभी दे देता है, पर इसका असली फैसला तीन महीने के बाद होने वाले टेस्ट में होगा, अगर इसने हमारे स्टेंडर्ड के हिसाब से परफार्म किया तो ठीक है, नहीं तो आपको इसके लिए कुछ अलग सोचना होगा...’‘यह जिम्मेदारी मैं लेती हूं। यह टेस्ट में आपको डिसापइंट नहीं करेगा। मैं इसको खूब पढ़ाऊंगी। ‘ठीक है, ठीक है... ऐसा ही होना चाहिए।’स्कूल में एडमिशन के दिन अशोक ने एक अन्य बालक को भी स्कूल आते देखा था। यह लड़का भी अपनी मां और बाप के साथ आया था-इसके मां-बाप अशोक के मां-बाप से बहुत खुलकर मिले थे-दोनों में काफी बातें हुइ्र-खासकर दोनों बच्चों की माताओं में-यह मोहन जी ने अशोक से कहा, जानते हो यह कौन हैं, यह हमारे कश्मीर के मायानाज ब्राडकास्टर हैं, प्राण किशोर... तुम इनसे हमेशा मिलना चाहते थे ना, लो आज मिल लो।प्राण जी ने अशोक को अपनी गोद में उठाकर उसे प्यार किया, पुचकारा और उनके बेटे से भी हाथ मिलाकर दोस्ती की। इस तरह एक ऐतिहासिक दिन का शुभारंभ हुआ-प्राण जी से अशोक जेलखानी काफी प्रभावित रहे और सारे जीवन में दोनों बच्चों की इकट्ठे तालीम पाने के कारण मेल-जोल की शुरूआत एक सुदृढ़ मित्रता के संबंध मंे पनप उठी। अशोक जी से जब भी प्राण किशोर जी के बारे में बात करते हैं तो वह बेहद इज्जत, अहतराम और प्यार से उनके और उनकी पत्नी शांता जी के बारे मंे बताते हैं। आगे इन बातों का ज़िक्र खूब आएगा।अशोक को बिस्को में दाखिला तो हो गया था पर अभी विशेष परीक्षा का समय बाकी था। इधर अशोक को बिस्को में दाखिल कराया उधर मोहन जी को फिर एक खुशखबरी सुनने को मिली। वह फिर से बाप बनने वाले हैं। यह सुनकर सारा परिवार खुशी से झूम उठा। अशोक को भी बताया गया कि जल्द ही उसके साथ खेलने के लिए उसकी मां एक प्यारे से बच्चे को जन्म देने वाली है। यह एक ऐसा समाचार था, जिसको बच्चा अपनी सीमित बुद्धि के अनुसार ग्रहण करता है। बच्चा मां के पेट में पल रहा है। अशोक के मन में बहुत से सवाल कौंध रहे थे। जाहिर है हर छोटा बच्चा अपने आस-पास के जगत से ऐसे ही परिचित होता है। उसे बहुत परोक्ष और असापेक्ष रूप से ये बात मालूम पड़ती हैं जो उसके मूलभूत जीवन और जीवन पर्यन्त मरण से संबंधित होती है। यही बताने के लिए शायद ऐसे तीज-त्यौहारों का हमारी जिन्दगी मंे हमारे पूर्वजों ने अविष्कार किया हो, जिनसे हमंे जीवन की छोटी-मोटी बातें मरहलेवार समझ मंे आती है। बसन्त में एक ऐसा दिन सोंथ है, जो बसन्त के प्रथम दिवस का होता है। जिसमें बच्चे बढ़-चढ़कर भाग लेते। ग्रामीण इलाकों के बच्चों को इस दिन का खास इंतिजार रहता-सर्दियों की सारी कबार्ड-और फालतू चीजों के ढेर को बांध कर गांव की सीमा से बाहर जला दिया जाता और लौटते हुए उसी जगह पर एक अखरोट रखकर रोप दिया जाता-कुछ महीनों में रोपे हुए अखरोट के स्थान पर एक नन्हा सा पौधा उगा दिखाई देता-जिसके चारों ओर गोलार्द्ध में बाड़ लगाई जाती-कुछ वर्षों के अंतराल मंे यह फलदार अखरोट का बृहद वृक्ष बन जाता-यह जीवन में सतकर्म के फल का पर्याय था-इस पेड़ का फल कोई एक व्यक्ति नहीं, पूरा गांव खाता, यही फल तीज-त्यौहारों पर बेटियों के मायके से जाता और उन्हें इन फलों की प्रतीक्षा रहती। यह फल ही नहीं होते, भावनाओं में पिरोय रिश्तों के महीन मनके और तार होते, जो उन्हें सामाजिक रिश्ते के बंधन से जोड़े रखते। मायके से कुन्ती के लिए आज यही फल लेकर स्वयं उसके पिता आए हैं। उन्होंने अशोक के लिए कपड़े और अपनी बिटिया के लिए साड़ी और फलों की टोकरी लाई है। वे यहां का पानी तक नहीं पीते हैं। यहां सीधे बाकी तीन बेटियों के लिए फल और वस्त्र लेकर जाएंगे। दिन भर के लिए तांगा बुक किया है और आजका पूरा दिन बेटियों को समर्पित किया है। आज उनकी बाछें खिल रही हैं। बेटियां अपने-अपने घरों में अपनी गृहस्थी खूब जमा रही हैं। मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा के साथ अपना जीवन स्थापित कर रही हैं। सवेरे कुन्ती जी के यहां निकलने से पहले दीनानाथ कौल जी ने पर्वत में माता के दरबार में शीश नवा कर खूब पूजा की, फिर विधिवत् उनसे प्रार्थना की कि उनके परिवार को अनिष्ठ से बचाए रखना-तब आते हुए पीर साहब के दरबार को सलाम किया और आते-जाते सब लोगों को बसंत के आगमन की बधाई दी।
कुन्ती जी के मन में एक परेशानी थी कि गर्भवती होने के कारण वह अशोक पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगी और कुछ ही महीनों मे उसके टेस्ट होने थे, तभी डाक से स्कूल की तरफ से चिट्ठी आई। आपको प्रिंसिपल से अपने बच्चे के संबंध में तुंरत मिलने की ताकीद की जाती हैं, चिट्ठी पढ़कर मोहन जी, कुन्ती जी और चुन्नी लाल अशोक के विषय में गंभीरता से सोचने लगे। आखिर क्या बात हो सकती है! पर उन्होंने बहुत अच्छा किया, जो अशोक से कुछ न पूछा-दोनों पति-पत्नी दूसरे रोज बिस्को स्कूल में हाजिर हुए। इरिक बिस्को ने हंस कर दोनों का स्वागत करते हुए कहा, आप कुछ ज्यादा घबरा गए हैं, वैसे सच तो यह है कि बात इतनी कम अहम भी नहीं है, जबकि यह बात बच्चे के इस स्कूल में पढ़ाई के मामले में हो- ‘आखिर क्या हुआ है...सर।’ परेषान मां-बाप पूछने लगे।
नहीं होना वोना कुछ नहीं-आपके बच्चे पर, आप का ध्यान बहुत कम है। ऐसे नहीं चलेगा, यह वैसा प्रोग्रेस नहीं दिखा रहा है, जैसा कि मैं एक्सपेक्ट करता था, क्या हुआ...? आप दोनों ही पढ़े-लिखे हैं और आप तो टीचर हैं खुद। मुझे बहुत अफसोस होगा, अगर तीन महीने में इसकी हालत कम-से-कम बाकी अच्छे बच्चों के बराबर नहीं होती तो उस सूरत में हम इसे यहां रखने की सलाह नहीं देंगे, हमारे नियम बहुत कड़े हैं... बस सिर्फ तीन महीने हैं आपके पास... श्रनेज जीतमम उवजीेए ठीक है, ‘मैं वादा करती हूं... तीन महीनों में मैं इसे बाकी अच्छे बच्चों से भी काबिल बना दूंगी।’ ‘मुझे यही आशा है आपसे।’कुन्ती जी ने बिस्को साहब को आश्वासन तो दे दिया, पर यह सब होगा कैसे? एक तरफ पांव भारी है, दूसरी तरफ नौकरी का झंझट और फिर वादी में हालात अभी फिर धुंधलकों में घिरे हैं। बहुत सारे कार्य हैं, एक तरह से पूरी जंग का ऐलान हो चुका है और यह जंग कुन्ती जेलखानी को जीतनी है। यही समय है धैर्य को बनाए रखने का-हिम्मत और हौंसले से अशोक को तैयार करने का।घर पहुंच कर उसने अशोक को अपने पास बुलाया और उससे बहुत प्यार से पूछने लगी।तुम को क्या पसंद है, उमर भर अनपढ़ रहकर ज़िन्दगी में धक्के खाना, पढ़े-लिखों से पीट जाना, दुनियां जहान की गुलामी करना या पढ़-लिख कर कुछ इज्ज़त, नाम और शोहरत पाना-अशोक को यद्यपि कुछ जयादा समझ नहीं आया पर एक बात उसे साफ समझ आ रही थी कि मां कुछ खास करने को कह रही हैं- ‘देखो चुप मत रहो, बोलो जैसे मैं कहूंगी वैसा करोगे?’हां, मैं वही करूंगा।तो सुनो, आज से तुम मेरे साथ सुबह चार बजे नींद से जागोगे-इस घड़ी में चार बजे का अलार्म मैं रखती हूं-यह घड़ी हमें जगाएगी। घड़ी की यह घंटी सुनते ही तुम जागोगे, नहा-धोकर, अपनी पढ़ाई शुरू करोगे और याद रखो यही एक रास्ता है और कुछ नहीं... समझे।आज्ञाकारी बालक ने अपनी मां का कहा, धर्मादेश की तरह विनम्र रूप से माना, मां के कहने पर पूरा अमल किया, सुबह-सवेरे नींद का परित्याग करने में बड़े-बड़े शूरवीर भी आनाकनी करते हैं, पर अशोक ने अपने जीवन मंे मां के कहे हर वाक्य को देवादेश माना और वही करने लगा, जो मां ने कहा। इस प्रकार अशोक एक नियमित जीवन में बंध गया-इसका फल भी बहुत अच्छा मिला-तीन महीने बाद की परीक्षा में उसने बिस्को साहब को हैरान कर दिया-स्कूल के सभी मापदण्ड में वह बड़ी कामयाबी से आगे बढ़ रहा था-स्विमिंग, खेलकूद, पढ़ाई और बोलचाल में वह निपुणता हासिल करने लगा था। एक बार फिर स्कूल से बिस्को साहब का पत्र आया, जिसमें उसने अशोक के साथ मां-बाप को भी मुबारकबाद और शाबाशी दी थी और कहा था कि उम्मीद है यह काम जारी रखेंगे। अशोक ने कुशल तपस्वी की तरह निंद्रा, आलस्य और अकर्मन्यता का परित्याग कर कठोर कर्म का रास्ता अपनाया और बहुत छोटी उमर से ही अथक मेहनत से सूजबूझ से लगन और साधना से फल प्राप्ति और लक्ष्यपूर्णता के गुर सीखने शुरू किए। उसकी समझ में यह बात बहुत गहरे उतर गई कि बिना कठोर परिश्रम के जीवन में और कोई चारा नहीं है। अगर सबको खुश रखकर खुश रहना है तो दूसरों की अपेक्षाओं पर पूरा उतरना है, जिम्मेदारियों को समझना और पूरा करना है। यह बातें शायद इसी संदर्भ और इतनी ही तीव्रता से समझ न आई हों, पर अशोक के समस्त जीवन पर इस तरह की प्रक्रिया से गुजरने की बुनियादी और शुरूआती दिनों की छाप, सारी जिंदगी पर पड़ी, साफ और स्पष्ट नजर आएगी। छोटे बच्चे में अपने प्रति जिम्मेदार होने की जो भावना बहुत छोटी सी उमर में जागी, उसका असर समस्त जीवनकाल पर सार्थक रूप में नजर आया-यह एक संयोग था और शायद ऐसा संयोग हर किसी के नसीब में नहीं होता यहां तक कि एक ही खून के रिश्तों में और एक ही मां से जने अनेकों बच्चों में भी कदाचित इसे नहीं दोहराया जा सकता। इस बात की गहनता इस तथ्य को भी किसी हद तक स्थापित करती है कि एक जैसे अवसर उपलब्ध होने के बावूद भी दो व्यक्तियों की परिवेश बिलकुल एक-सी होने के बावजूद भी, दोनों व्यक्तियों के विकास के मार्ग और दशा जरूरी नहीं है कि एक जैसे हांे। इसीलिए मनीषियों ने विभिन्नता को स्वीकारते हुए भी एक जैसे सामाजिक न्याय और अधिकारों की बात की और इसकी पैरवी की। यही वास्तविकता इनसानी जीवन को संतुलित रख सकती है। बराबरी का मायने या मतलब कभी नहीं कि सभी एक जैसी योग्यता, समान और प्रकृति प्रदत अवसरों में उत्पन्न हुए हैं, समानता का अर्थ है विषमता को पाटना, न्यायसंगत और साभिप्राय बनाना- एक नवजात की सीमाएं उसके साथ भेदभाव का कारण नहीं बनें।-------------------------------------------------------
संशय या सत्य ?
पाकिस्तान के इरादे और हौंसले पस्त नहीं हुए थे। वह अपनी चालों से बाज नहीं आ रहा था। पाकिस्तान ने कश्मीरी मुसलमानों को धर्म के व इस्लामी भाईचारे के नाम पर वरगलाने की मुहिम काफी तेज कर दी थी। फौज के जनरल अयूब खां ने पाकिस्तानी हकूमत की बागडोर अपने हाथ में ली थी और वह भारत के खिलाफ अपने प्रपोगेंडा तन्त्र से इसलामी रेशों और कश्मीर में जर उगल रहा था। दूसरी ओर अमेरिका भी पाकिस्तानी फौजी हकूमत की ही पुश्तपनाही कर रहा था। पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर में बहुत हाईपावर ट्रांसमिशन लगाकर एक रेडियो स्टेशन कायम किया गया था, जो खुद को आजाद कश्मीर कहता था, जबकि वास्तव में वह हिस्सा पाकिस्तान ने फौजी कार्यवाही करके जबरन हरिसिंह के राज्य से छीन लिया था। आजाद कश्मीर से नफरत, इशतियाल और फिरकावाराना फसाद खड़े करने के कार्यक्रम नशर हो रहे थे-यह सब कार्यक्रम भारत और हिन्दू विरोधी होते और इनमें कश्मीरी मुसलमानों पर भारतीय अत्याचार के मनगढंत कहानियां प्रसारित की जाती-यही नहीं इस रेडियो को सुनकर कश्मीरी मुसलमानों मंे हिन्दू भारत के प्रति नफरत और इस्लामी पाकिस्तान के प्रति महोबत का पाठ पढ़ाया जाता। इस जहर का असर कम करने के लिए और कश्मीरी अवाम को अपना सच कहने के लिए, रेडियो कश्मीर ने भी खूब तैयारी की। रेडियो कश्मीर ने किन्तु ‘आज़ाद कष्मीर’ रेडियो की तरह जहर नहीं उगला। रेडियो कश्मीर हजारों वर्षों से चली आ रही कश्मीरी सभ्यता और संस्कृति का एक मुख्य केंद्र और गहवारा बना। इसने बहुत अहम और मुख्य भूमिका अदा की। कश्मीरी मनुष्य को भावनाओं के मायनों में समाज में संप्रेषित करने के लिए यहां मीर गुलाम रसूल नाज़की, प्राण किशोर, किदार शर्मा, पुष्कर भान, सोमनाथ साधू, बशीर भट, मोती लाल साकी, मोहन निराश, गुलाम हसन साजनवान, तिबदबकाल, नसीम अख्तर, राजबेगम, माहेन लाल ऐमा ने रात-दिन एक करके कश्मीरी अवाम को एक ऐसा प्लेटफाॅर्म मुय्यसर किया जो इनके जीवन का एक मुख्य अंग बन गया। इस स्टेशन ने सोच, समझ, भाव और भाषा को एक समुचित दिशा प्रदान की। इसका एक बहुत बड़ा योगदान रहा। सामाजिक चेतना, विकास और मनोरंजन का अथाह सागर सिद्ध हुआ यह स्टेशन। यहां से समस्त वादी की प्रतिभा स्फुटित होकर विकसित हुई। जिसमें नामी गलोकार, मौसीकार, लेखक, नाटकार, और तरह-तरह के शायर उभर सके। रेडियो कश्मीर ने कश्मीर के रंगकर्मियों को अपने रेडियो नाटकों में पेश किया, इन नाटकों की ख्याति और इनमें दिलचस्पी के कारण लोगों ने जिस किसी तरह भी हो रेडियो सेट खरीदने शुरू किए। मीडियम और शाॅट वेब पर चलने वाला यह स्टेशन वादी के एक कोने से दूसरे कोने तक लोगों की रोजमर्रा ज़िन्दगी का एक आवश्यक अंग बन चुका था, कश्मीरी गाने और संगीत, नाटक, खबरें, फिल्मी गाने, फौजी भाईयों के प्रोग्राम, ग्रामीणों के प्रोग्राम स्त्रियों के प्रोग्राम और साहित्य के प्रोग्राम, हर तरह की रंगत कश्मीर की फिज़ा में बिखेरने वाले रेडियो स्टेशन ने आम कश्मीरी के मन में घर बना लिया। पाकिस्तानी झूठ का प्रचार अब कश्मीरी आम आदमी के हलक से न उतरता था-पर रेडियो कश्मीर की खबरों में भी किन्हीं कारणों से वह पारदर्शिता नहीं अपनायी जाती जिसकी लोग अपेक्षा करते। नौजवानों में रेडियो के कार्यक्रमों को सुनना और इनमें भाग लेना गौरव की बात मानी जाने लगी थी। रेडियो आर्टिस्ट को विशेष सम्मान मिलना शुरू हो गया था। अब संभ्रांत कुलीन परिवारों से भी लड़के-लड़कियां रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेने में गर्व महसूस करते। प्राण किशोर की पत्नी शांता कौल, आपकी फरमाईश कार्यक्रम बहुत खूबी से पेश करती-रेडियो ने सुधामा जी कौल, ब्रज किशोरी, बशीर भट्ट, उमा खोसला, मनोहर परोहत, त्रिलोक दास, मखनलाल सराफ, आशा जारो, भारती जारो-तबला बेगम, नयीमा बेगम और जाने कितने कलाकारों को कश्मीर के हर घर में बेहद मकबूलियत दिलाई। इनके नामों के साथ हर कोई परिचित हुआ-और इनकी रेडियो अदाकारी ने सबके दिल मोह लिये। सोमनाथ साधू, पुष्कर मान की जोड़ी ने जून डल, मचाया जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम प्रस्तुत किये-जिस कारण इन्हें पद्मश्री पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। गायन में नसीम अख्तर, राजबेगम, गुलाम अहमद कालीनबाफ, तिबदबकाल, डौलवाल, गुलाम अहमद सोफी ने बहुत मकबूलियत पाई। ये सब कलाकार बख्शी साहब के जशन कश्मीर कार्यक्रम में गांव-गांव उनके साथ संगीत और नाटक के शो करते, जिन्हें देखने, सुनने के लिए दर्शकों का मानो सेलाब उमड़ आता-इस सबके पसेपर्दा लेकिन राजनीति मंे बहुत पेचीदगी उत्पन्न हो रही थी। भीतर और बाहर संकट कहीं थमने का नाम नहीं ले रहा था। बाहर के शत्रु तो विधित थे, भीतर के कुछ प्रकट दिखते, कुछ छुप कर वार करते। बख्शी गुलाम मुहम्मद का राजनीतिक कद अगरचि काफी बढ़ गया था पर कुन्बा परवरी, रिश्वतखोरी और गुंडागर्दी ने हाल-बेहाल कर रखा था। जिस प्रकार से छितरे बादलों मंे सूरज लुका छिपी करता है, ऐसी ही हालत कश्मीरी पंडितों के जेहन में थी-अभी उनको सब स्थिर, सुरक्षित महसूस होता पर दूसरे ही क्षण अपना समूचा अस्तित्व शेर के मुंह में नज़र आता।कहीं, कहीं शायद कुछ मुसलमान भी इस बेइत्मिनानी का शिकार था। दुश्मनों के प्रचार ने उसे भारत के खिलाफ आशंकित किया था-सैक्यूलर कद्धरों का दम भरने वाला और भारत से इतिहास पर मोहर लगाने वाला उनका रहनुमा भारत में ही जेल में डाला गया था। यह एक विडम्बना से कम न था।इसी बीच एक दिन गुलाम मुहम्मद ने चुन्नी लाल जी को हैरान करने वाली बात कह डाली, मानो यहां हिन्दुस्तानी फौजें कहर डालना शुरू कर दें और जबरदस्ती बाहर के हिन्दू यहां बसना शुरू हों तो हमारी सुरक्षा की गारंटी क्या है? मान लो यहां ऐसी कोई गड़बड़ी होती है, जिसमें मुसलमान सुरक्षित न रहे तो क्या कुछ तरीका आपके मज़हब में है जो हमें फटाफट हिन्दू बना दें ? चुन्नी लाल का माथा ठनका-यही बात वह कुछ देर पहले सोच रहा था कि अगर अब के कश्मीर में हालात बिगडने दिए गए और भारत सरकार ने थोड़ी भी कोताही बरती तो कश्मीर में शायद हिन्दू सुरक्षित न रहे। कम्यूनल मुसलमानों के तेवर आक्रामक दिखने लगे थे। उनमें से मुंहजोरों ने खासा धन इकट्ठा किया था। 1957 में मार्च मंे हुए एलेक्शनों में बख्शी ने 43 में से अपने 35 गुर्गों को बिलामुकाबला कामयाब कराया था-अस्म्मबली की 75 में से 43 सीटों पर काबिज़ होने के बाद बख्शी के पास अनियंत्रित ताकत आ गई थी। यहां तक कि जम्मू में प्रजापरिषद जैसी पार्टी के हिस्से भी पांच ही सीटें आ सकी थीं। इस बात को देखकर कश्मीर में सोचने-समझने वाला लोकतंत्र की आस लगाये बैठा तबका गहरी निराशा में और आक्रोश में था। इन्हें लगने लगा था कि भारत का प्रजातंत्र कश्मीर में कभी रायज नहीं होने दिया जाएगा-और शायद भारत भी यही चाहता है। इस बात को लेकर एक और आदमी चिंतित दिखाई दे रहा था और वह था बख्शी की काबीना का ही एक नवजवान बायें बाजू की सोच का आदमी जिसका नाम गुलाम मोहम्मद साद्धिक था-उसके साथ उसी के जैसे सोच के कुछ नौजवान और शामिल थे, जिनमें प्रमुख रूप से मीर कासिम और दुर्गा प्रसाद धर शामिल थे। इनमंे से मीर कासिम अनन्तनाग के ब्रंग इलाके के रहने वाले एक किसान-मौलवी परिवार के बहुत ही होनहार चश्मोचराग था-बख्शी के चचेरे भाईयों ने उसकी ताकत का खुलेआम प्रदर्शन किया-उन्होंने रूपया पैसा ऐंठना और शहर को अपनी बाहूबल की नोंक पर चलाना शुरू किया-लोगों ने खासकर कुलीन और संभ्रांत हिन्दू, मुसलमानों ने इस बात की षिकायत जम्मू कष्मीर के पहले रीजेन्ट और अब सदरेरियास्त, जो अब बहुत जल्द रियासत के गर्वनर कहलाने वाले थे और जिन्हों ने अब तक केन्द्र के साथ अपना अच्छा तालमेल कायम कर दिया था, से की। करण सिंह को कष्मीर के लोग अभी भी एक तरह से राजा हरि सिंह का वारिस मानते थे और अब इसे राजा की तरह देखते थे। हलांकि करण सिंह बहुत हकीकत पसंद थे और जानते थे कि राजषाही के दिन खत्म हो चुके हैं। पर एन पर जो संवैधानिक ज़िम्मेवारी बनती थी इसे वे निभाने में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतना चाहत थे उन्हों ने बक्शी के कुटुम्ब की सारी हकीकत से केन्द्र को सूचित करने का कर्तव्य निभाया। दुःखी लोगों की इस गुहार को कि इन्हें बख्षी के चचेरे भाइयों के ज़ुन्म से बचाया जाये, करण सिंह ने तत्काल केन्द्र तक पहुचाई।अब मसला सिर्फ इतना ही नहीं था कि पाकिस्तान मज़हब के नाम पर कष्मीरियों को भडका रहा था और इसी फिराक़ में कष्मीर हडपना चाहता था, अपितु लोगों का लोकतन्त्र और प्रजातान्त्रिक प्रणाली से मोहभंग होने लगा था। लोगों के चहेते नेता जेलों में डाले गये थे ओर लोगों का कष्मीर में प्रजातंत्र पर विष्वास डगमाने लगा था। ष्षहर में इस का असर तेज़ पनपता दिख रहा था और गांव में यह भंकर सांप्रदायिक नफरत की दरारें पैदा करने लगा था। यह बात अलग है कि लोग इसे बाहर खुल कर प्रकट नहीं कर रहे थे और आंखों का लिहाज़ बचाये थे पर दुश्मनों ने दरार डाल दी थी। अपने पड़ोसी के साथ अपनी आंखों का लिहाज बचाये थे, पर दुश्मनों ने उनके दिल में, दरार डाल दी थी, जिसे कश्मीर के अनिश्चित हालात और गहरा चीर रहे थे। 1952 में शेख साहब ने कश्मीरियों को इसी उद्देश्य से एक संविधान देने का प्रयास किया था। किन्तु राष्ट्रीय संघ ने पहले ही एक प्रस्ताव पारित करके 30 मार्च, 1951 को किसी भी ऐसे कानून को मानने से इंकार किया-और उस समय केवल सोवियत गणराज्य ने इसका विरोध किया था। इसीलिए 25 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर की असंबली ने नया संविधान पारित किया और पुराने को निरस्त कर दिया। इसी समय के आस-पास कश्मीर के इतिहास में एक स्वर्णिम घटना घटी-बनिहाल टनल ने जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से निर्बाद रूप से मिला दिया-कहा जाता है कि जिस जर्मन इंजीनियर की देख-रेख में यह टनल बनी थी-टनल के दोनों मुहानों को उसने बीचोंबीच मिलाया था-ऐसे तो हर कोण से वह आश्वस्त था कि दोनों तरफ का मिलान बीच में होगा-पर यदि ऐसा न होता तो उस सूरत में उसने अपने सिरहाने पिस्तौल रखी थी और वह खुद को मार देता, शुक्र है कि दोनों मुहाने निर्धारित रूप से आपस में मिल गए और एक अति मूल्यवान जान बच सकी। इसी टनल को दिखाने बच्चों को स्कूल के साथ बिस्को साहब लेकर गए-यह विज्ञान और इंजीनियरिंग का जीता-जागता करिश्मा था, जिसे हम सिर्फ तिलस्मी किताबों में पढ़ते या सुनते थे। पर आदमी ने अपनी बुद्धि के कौशल पर पूरे भव्य पहाड़ को 7200 फीट की ऊंचाई पर आर-पार चीरकर एक ऐसी राह निकाली, जो किसी अजूबे से कम न थी। बच्चों को एक लाइन में ले जाकर टनल के भीतर ले जाकर टनल दिखाने की अनुमति दी गयी-इतनी लंबी गुफा और इसमें चलती मोटरगाड़ियां और एक तरफ मनुष्यों के चलने की पैदल राह, बिजली के बड़े-बड़े लेम्प और रोशनी से भरपूर राह। कुछ दूर पैदल चलकर बच्चों को बस में बिठाकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाया गया और फिर वापिस लाया गया-कुछ बच्चों को, भय भी लगा होगा-पर अशोक के मन में इस से बढ़कर आज तक कोइ्र एडवेंचर देखने को नहीं मिला-बड़े होने पर जब भी कभी बनिहाल टनल क्रास करते हैं तो वह दिन एकदम आंखों के सामने कौंध जाता है।महाराजा हरि सिंह का एक बहुत ही कुशल सैन्य जनरल जोरावर सिंह था, इसने द्रास, करगिल, असकरदू और तिब्बत के कुछ भाग व नार्थरन फ्रन्टइंयर का हिस्सा कश्मीर में मिलाकर अपने सैन्य बल का अद्भुत प्रदर्शन किया था-इन्हीं अभियानों में शहीद होकर उसने जान दी थी। हरि सिंह के जमाने का कोई भी अदालती स्टैम्प पेपर उठाकर देख लीजिए उस पर लिखा होगा-जम्मू कश्मीर तिब्बत आदि देश। विभिन्न भू-भाग, वेश-भूषा, बोलियों, जुबानों, तहजीबों और धर्म के लोगों की इकाइयों को एक करके डोगरा राजाओं ने जम्मू-कश्मीर की रियासत को विस्तार दिया था। किन्तु राजकुमार कर्ण सिंह के किशोर अवस्था में ही डोगरा का यह राज्य एक विकट समस्या में आ गया जब महाराजा हरि सिंह ने इसे भारत और पाकिसतान में विलय न करके यथास्थिति के प्रस्ताव दोनों देशों को भेजे। पाकिस्तान ने ऊपरी तौर पर महाराजा का प्रस्ताव मान कर जम्मू-कश्मीर की यथास्थिति वाले दर्जे को मंजूरी दे दी, पर भारत ने कोई जवाब नहीं दिया। इस स्थिति से आशंकित पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर का एकमात्र तिजारती रास्ता जो पाकिस्तान के लाहौर में खुलता था, बंद कर दिया-इसके तुरंत बाद कबाइलियों को हथियार देकर सैन्य बल के साथ कश्मीर पर चढ़ाई की और कत्ले आम का बाजार गर्म किया। मीरपुर में हजारों हिन्दुओं को मारा गया। जम्मू में पुंछ और राजौरी में कोहराम मचाया। जम्मू-कश्मीर के राजा की गिनती की सेना इसका कुछ भी प्रतिवाद न कर पाई। इस आक्रमण से त्रस्त राजा ने भारत से मदद मांगी और राज्य के विलय का प्रस्ताव भी प्रेषित किया-इस तरह समस्त जम्मू कश्मीर तिब्बत आदि देश कहे जाने वाले इस भू-भाग का वैधानिक रूप से भारत के साथ उसी प्रकार विलय हुआ, जिस प्रकार अन्य राज्यों का हो गया था। किन्तु राष्ट्रमंडल में हमलावर पाकिस्तान और बचाओ करने वाले भारत को एक-सा देखा जाना ही इस विषय में यूरोपीय देशों खासकर ब्रिटेन और अमेरिका की इस विषय में नेकनियत पर सवाल उत्पन्न करता है। तब से आज तक भारत पाकिस्तान में और कश्मीर में विशेषकर यह विवाद विनाशकारी युद्धों और आतंकवाद का वाहक बना है। चीन ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए 1954 में ही तिब्बत में मुदाखलत करके समस्या खड़ी कर दी थी। भारत का जवाब प्रतिवाद तक ही सीमित विरोध में सिमटा रहा। पंचशील की नीति ने चीन के हौंसले बुलंद रखे और भारत की कोताही के नतीजों में 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा-इस हार के नतीजे में लद्दाख के बड़े भू-भाग पर चीनी कब्जा हो गया-वहां पाकिस्तान पहले ही चीन को जम्मू-कश्मीर की भूमिका का 500 वर्गमील एरिया भेंट कर चुका है। 1962 की जंग ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर सैन्यबल को जगजाहिर कर दिया-पाकिस्तान के फौजी हुकमरानों में प्रथम अयूब खान कोे कश्मीर को फितना बनाकर यकायक फौजी कारवाईयां करके हड़पने का मंसूबा कारगर दिखने लगा-उसने इसी मनसूबे को अमली जामा पहनाने के लिए कश्मीर में दरअंदाज भेजने की तैयारी करनी शुरू की।परिवर्ततन का दौरइन सब बातों से प्रभावित, पर जाहरी तौर से दूर, कश्मीर की आम जनता में नए पनपते राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समीकरण में अपनी जगह तय और सुरक्षित करने की चिंता उजागर हो गई थी। दूर गांव तक शिक्षा के फैलाव का असर दिखने लगा था। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को जिनमें लड़़के-लड़कियां दोनों शामिल थे, लोग स्कूलों में दाखिल करवा रहे थे। सरकार ने, प्राइमरी, मिडल, मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था के जिला अधिकारी और जिला प्रमुख के पद और कार्यालय स्थापित करके इनके जिम्मे स्कूलों में दसवी दर्जे तक की तालीम की निगरानी का जिम्मा सौंप दिया। गांव में प्राइमरी और बुनियादी तालीम फराहम करने के लिए स्कूल प्रारंभ किए गए। किसानों के बच्चे चाव से स्कूल में पढ़ाई के लिए दाखिला लेने लगे। नंगे पांच फटे हाल होने का गम नही, स्कूल में दाखिला लेना और तालीम हासिल करना जरूरी है। पुराने आठवीं, दसवीं पास गांव के शिक्षित पुरुष महिलाओं को पढ़ाने का जिम्मा सौंपा गया-जिसके लिए इन्हें पहले महावार भत्ता दिया जाता, जो बाद में आहिस्ता, आहिस्ता नियमित करके प्राइमरी टीचर कहलाए गए। अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। शिक्षा को इस तरह विस्तार देने के लिए कुन्ती जेलखानी सरीखी प्रशिक्षित अध्यापकों व अध्यापिकाओं के लिए जिम्मेदारी को बोझ बढ़ गया-कुछ सामाजिक स्वैछिक संस्थाओं ने हिन्दुओं के सांस्कृतिक क्रांति की अगुवाई की, भातर सेवक समाज जिसके प्रधान स्वयं नेहरू जी रहे हैं, ने सार्वजनिक सामाजिक उत्थान में उत्साही युवक-युवकों को हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। कश्यप बंधु ने कश्मीरी हिन्दु समाज को एक नई दशा और दिशा दी। रूढ़िवादी सोच को समाप्त करने के लिए नौजवानों का आह्वान किया गया और नाटक, रूपक व पाॅथर के द्वारा सामाजिक बदलाव का बिगुल बज गया-कुन्ती जी इस सबमें बहुत बढ़-चढ़कर भाग ले रही थीं-डिस्ट्रिक लेवल की कई मीटिंगों में उन्हें अध्यक्ष भी बनाय गया और उनके काम की तारीफ भी हुई, पर एक तरफ अशोक की पढ़ाई से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहती, उसे डर था कि वह वापिस अपने पुराने स्थान पर न खिसके, उसकी पोजीशन न केवल कायम रखी थी, अपितु इसमें और निखार लाना था, वहीं उसके पेट में पलता बालक भी अब अपने होने का अहसास दिला रहा था। जिसके कारण कुन्ती जी की दिनचर्या प्रभावित होने लगी थी। वह बहुत चाहती थी कि प्रसव घर पर ही हो। यह नहीं कि अस्पताल या नर्सिंग होम का खर्चा नहीं उठा सकते, अपितु वह हर हाल में अशोक को अपनी नजरों के आगे रखना चाहती थी। अशोक का बिस्को स्कूल में पढ़ना बहुत आवश्यक है अपने पति मोहन जी से वह ताकीद करके कहती। अपने देवर चूनी लाल से भी इस आशय से बताती रहती। चूनी लाल जी हालांकि बताए बगैर भी अशोक के साथ ऐसे रागात्मक रूप से जुड़ गए थे कि अशोक को देखे बगैर उनको खाने तक का मन नहीं रहता।और इसी बीच गुजरते समय ने बसन्त से ग्रीष्म और ग्रीष्म से जैसे सीधे पतझड़ में कुलांच भर दी। पेड़ों के पत्ते जर्द होकर बर्फीली हवाओं से थर-थर कांप कर गिरने लगे थे। किसानों की फसलें अभी ठीक से पक भी न पाई थी कि भारी हिमपात ने सारे कश्मीर को त्रस्त कर दिया-अगस्त अभी बीत ही न पाया था-सितंबर के आखिरी दिन और अक्तूबर का लगने वाला माह था-किसानों की कमर टूट गई, सारी वादी में हाहाकार मच गया-लोगों को इस तरह के पुराने तलरत़ तजरूबों में फसलें तबाह होने की सूरत में फाकाकशी से तड़प-तड़कर जान गंवाने के दिन याद थे-अब कोहराम मचेगा-भूख और इफलास की मारी कश्मीरी जनता को आतातायी नोंच देंगे। पर सारी जनता की हैरत का ठिकाना न रहा, जब सस्ते दामों में सरकारी घाटों पर राशन का प्रबंध होते देखा गया। सचमुच अब दुनियां बदल गई है। मुंह में कौर जाते हैं चारों तरफ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद बख्शी साहब जिन्दाबाद के नारे सुनाई दिए। इसी स्थिति के चलते कुन्ती जेलखानी ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया।अशोक को मातामाल यानी अपने ननिहाल भेजा गया था। वहीं उसे पता चला कि उसकी मां ने एक नन्हें बालक को जन्म दिया है। नन्हें, मुन्ने भाई को देखेन के लिए अशोक का नन्हा-सा दिल मचल उठा था, पर उसने बिस्को स्कूल में इतनी छोटी उम्र में ही अपनी भावनाअेां को जग-जाहिर न होने देने की भी तालीम हासिल कर ली थी। अपनी नानी का बेसबरी से प्रतीक्षा करता रहा। उसे ज्ञात था कि बेटी को देखने मां अवश्य जाएगी। तो वह साथ हो चलेगा। स्कूल से ज्यादा दिन वह बाहर नहीं रह सकता।घर पहुंच कर उसे पता चला कि मां को इसी समय घर से अस्पताल शिफ्ट करना पड़ा है और वह वहां अस्पताल के एक कमरे में नन्हे बालक के साथ है। उसका मन फिर बेचैन हो उठा। वह अपने छोटे भाई को जल्द से जल्द देखना चाहता था।छोटे भाई के जन्म के बाद अक्सर बड़े भाई या बहिन को लगता है कि उसे उपेक्षित किया जा रहा है। घर मंे सबका ध्यान स्वाभाविक है कि नए आगन्तुक पर टिका होता है। कभी-कभी बच्चे इन परिस्थितियों में बहुत अनापेक्षित रूप से नए आए नौनिहाल से बर्ताव करते हैं। वह जानबूझ कर उसे बिस्तर से गिराने का प्रयास करेंगे या उसे पीटने की भी जुर्रत करेंगे। पर अशोक अपने भाई से पहले दिन से प्यार करने लगा। वह उत्सुकता से उसे देखता और उसका माथा चूमता-बचपन में पड़ी इस भ्रातृ प्रेम की नींव सारे जीवन की इमारत को ठोस आधार देती है और अशोक व दिवाकर दोनों भाईयों में प्रेम, सौहार्द और सदाचार का संबंध सुदृढ़ करने में उनके मां-बाप के समयक पालन-पोषण का संवर्द्धक योगदान रहा।
अशोक की पढ़ाई जो अब नियमित चल रही थी-अपने शैशविक दौर को शीघ्र पार करने वाली हैं। स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ, खेल-कूद और अन्य गतिविधियों पर खास ध्यान दिया जाता। अशोक इन गतिविधियों मंे बराबर भाग लेता, इनमें फुटबाॅल खेलना, तैराकी, नाटक और संगीत की गतिविधियों में भाग लेने की स्मृति आज भी अशोक के दिमाग में बिलकुल तरोताजा है।
एक बार स्कूल में पढ़ाई में रफ्तार पकड़ने के बाद अशोक ने कभी अपनी रफ्तार धीमी नहीं होने दी-खेलकूद में अशोक का मन खासा रमा रहता, पर, तैराकी में बहुत दिलचस्पी होने के बावजूद अशोक के मन में यह मलाल बना रहा कि वह कभी भी-डल झील का फासला नेहरू पार्क से निशात तक और वापस निशात से नेहरू पार्क तक पाट नहीं सका। यह फासला आने जाने का लगभग सात किलोमीटर था और अशोक कभी भी एक किलोमीटर जाना और एक किलोमीटर वापस आने से अधिक तैर नहीं पाया। इस बात का उन्हें आज भी खेद है। बिस्को में एडमिशन से पहले अशोक अपने मां के साथ ही नवाकदल गल्र्ज़ स्कूल में जाकर नर्सरी और पहली तक की पढ़ाई हालांकि पूरी कर चुका था। यानी एक तरह से स्कूल के आचार-विचार और अनुशासन का एक खाका पहले से मन में खेंचा था, पर बिस्को में इस खाके से सबकुछ ही अलग था-शायद शुरू मंे इसीलिए अशोक को दिक्कत आई हो। पर जल्द ही अपने आपको किसी भी परिस्थिति के अनुरूप डाल देना शायद अशोक ने अपने बचपन से ही सीख लिया होगा। दोनों भाईयों में प्रेम और सौहार्द का यह संबंध बचपन से आज तक निर्बाध चलता आया है। इस समय जब अशोक अपने जीवन को पलट कर देखता है तो अनेक स्मृति खण्डों में विभाजित इस जीवन की समस्त कड़ियां खुलती हैं। अनेकों प्रसंग धारावह सामने आते हैं। स्कूल में किस प्रकार शिक्षा के साथ ही संस्कृति के आयामों को जोड़ा गया था-नाटक खेलना इस गतिविधि का एक विशेष अंग था-और अशोक को नाटकों में खासी रूचि थी। इसके कारण यद्यपि कई रहे होंगे पर अशोक को लगता है कि उनके धतक चाचाजी चूनी लाल जेलखानी जो अखबार मंगाते, उसमें साप्ताहिक अंक के साथ कार्टून की एक लघु पत्रिका साथ होती-इन कार्टून कहानियों को पढ़ते हुए, चित्रवत संवादों को जब अशोक अपनी कल्पना में देखता तो उसे इसमें चरित्रों में एक्शन का आभास होता। आजकल तो कार्टून नेटवर्क पर बच्चे सीधे ऐसे पात्रों को देख पाते हैं, पर उन दिनों कल्पना के सहारे बच्चे इन पात्रों को जीवंतता प्रदान करते। बच्चों में अपनी कल्पना शक्ति का विस्तार अधिक मात्रा में होता। धीरे-धीरे अशोक के मन में यह चीजें घर करने लगी। उसका रूझान अभिनय, रंगमंच और नाटक की ओर बढ़ने लगा। उसने अपने हाउस टीचर सतलाल राजदान से नाटकों में भाग लेने की अपनी रूचि प्रकट की-सतलाल राजदान एक बहुत बड़े शिक्षाविद रहे हैं। उनकी पुस्तकें स्कूलों में कोर्स में पढ़ाई जाती और वे काफी ख्याति अर्जित कर चुके थे। सतलाल जी ने अशोक को नाटकों में भाग लेने के लिए यद्यपि प्रेरित किया पर जब नाटक में एक रोल (पात्र) के लिए उसका चयन होना था तो उसे नहीं लिया गया-उसके स्थान पर उस समय काफी प्रतिष्ठित और मशहूर प्राण किशोर जी के पुत्र अजय कौल को शायद इसलिए प्राथमिकता दी गई कि वह एक स्थापित कलाकार का बेटा है, तो हो न हो अपने पिता की तरह उसमें भी कलाकार होने के समस्त गुण नैसर्गिक रूप से समाहित हों। अशोक को इस बात का काफी मलाल रहा। उसकी कला की काबलियत पर विश्वास नहीं किया गया, जबकि नाटक मंचित होने के बाद चयन सम्मति को भी इस बात का अहसास हुआ कि उनके चयन की प्रक्र्रिया में मूलभूत खामी थी। यह आवश्यक नहीं है कि जो लक्षण बाप में हैं, वहीं बेटे में हो। अजय आज एक बहुत ही स्थापित और कामयाब इंजीनियर है और अशोक का गहरा मित्र भी। -------------------------------------------
रंगमंच की दहलीज़ पर
कश्मीर की संस्कृति के इतिहास में 1950 से 1987 तक का समय एक तरह से स्वर्णकाल के रूप में स्मरण किया जाएगा-इस काल में राजनीतिक उठा-पठक के बावजूद सांस्कृतिक गतिविधियों में भी एक तरह से बाढ़ आ गइ्र। रंगमंच से जुड़े श्रीनगर के कुछ ऐसे नौजवान लड़के जिन्हांेने रंगमंच को घाटी में ठोस आधार प्रदान किया हर प्रकार से सक्रिय हुए। इनका आलम यह था कि कुछ नौजवानों ने अपना पूरा जीवन ही रंगमंच को समर्पित किया-इनमें से एक राधा-कृष्ण ब्रारू थे। इन्होंने अपने मित्रों के साथ कश्मीर नेशनल थियेटर के नाम से एक नाटक मण्डली बनाई और प्रसिद्ध शीतलनाथ मंदिर के आंगन में खुले रंगमंच को स्थापित कर अनेकों नाटक स्टेज किए। एक तरह से शीतल नाथ का यह अहाता नाटक खेलने वालों का सक्रिय और विधिवत् स्थान बन गया। यहां नल-दम्यन्ती,कृष्ण-सुधामा, सतच-कहवट आदि जैसे धर्मिक और सामाजिक नाटक खेलने का चलन आरम्भ हो गया था।
धीरे-धीरे इस धारा में सभी रंगकर्मी जुड़ गए। यह एक क्रांतिकारी युग था। जब संभ्रांत पंडित परिवारों से जुड़े लड़के, लड़कियां नाटकों में भाग लेने लगे। इससे पहले घाटी में प्रहसन के रूप में नाटकों को केवल भाण्डों ने जीवित रखा था। भाण्ड घाटी के किन्हीं विशेष इलाकों में ही रहते थे। यह मुसलमान धर्मानुयायी थे और इनके साथ हमेशा एक नर्तक किशोर रहता, जिसे बच्चा कहते। भाण्ड प्रहसन स्वांग के द्वारा जनता का अपार मनोरंजन करते। शहनाई, ढोल और ताशे बजाते यह भाण्ड गांव, कस्बों, शहर घूम-घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन करते और बदले में लोगों से चावल, कपड़ा, तेल, नून, मसाले खैरात के रूप में कबूल करते। इन्होंने राजा-रानी से लेकर लकड़हारा आदि तक कई स्वांगों का खुले में मंचन करके लोगों का मनोरंजन तो किया सो किया पर इनके स्वांग और प्रहसन संदेशेां से भरे होते थे, जिनमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सामाजिक संरचना का सत्य सामने आता-हंसी, मजाक में यह भाण्ड कहीं दिल और दिमाग को प्रभावित करने वाली बातों को आम लोगों तक पहुंचाते, कष्मीरी मिज़ाज में छिपे व्यंग्य के पुट को ये तीखी अभिव्यक्ति प्रदान करते।कश्मीरी पंडितों की नाटक मंडिलियां भी समाज सुधार की इन्हीं धारणाओं को आधार बनाकर घटित हुईं। पर ये लड़के-लड़कियां भारतीय प्रगतिशील नाटक संघ से अधिक प्रभावित थे। इसमें इंडियन पीपल्स थियेटर मुंबई का काफी दखल था-भारत में जगह-जगह पहले पारसी नाटक कंपनियां एक विशेष शैली में नाटकों का मंचन कर रहे थे-इसी पारसी थियेटर के आधार पर कश्मीरी पंडितों ने शीतल नाथ में पहले धार्मिक विषयों और फिर सामाजिक विषयों पर नाटक खेलने शुरू किए। अशोक के सोलह-सत्रह वर्ष का होने तक यानी 1968-69 तक कश्मीर में नाटक और रंगमंच काफी हद तक स्थापित हो चुका था-इससे उभरे कलाकारों को रेडियो कश्मीर के माध्यम से समस्त कश्मीर में पहचान, प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त हो चुकी थी-पर जैसी प्रोत्साहवर्धक गतिविधि, सांस्कृतिक फ्रंट पर नजर आ रही थीं, राजनीति और सामाजिक तानाबाना कश्मीरी पंडितों के विरुद्ध उतनी ही तेज गति से बदलने लगा था। जमीन-जायदाद से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडितों को कारोबार में भी धीरे-धीरे निष्कासित किया जा रहा था-खेती-बाड़ी, सरकारी नौकरियां, ठेकेदारी, और पैसे की रसाई मुसलमानों के एक विशेष वर्ग में बढ़ गई थी और ये ताकतवर हो चुके थे। इनका सामाजिक वर्चस्व और बाहुबल खुलकर सामने नजर आ रहा था-इसके आगे बचे-खुचे संभ्रांत पंडित परिवार अपनी रही सही सामाजिक साख को बचाने के तरीके सोच रहे थे। कश्मीरी पंडितों में भविष्य की अनिश्चता को लेकर चिंता गहरी होती जा रही थी। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रशासन से वे धीरे-धीरे अलग और दूर किए जा रहे थे। जम्मू में डोगरा हिन्दू को, कश्मीरी मुसलमान केवल राजनीतिक मुहरे के रूप में प्रयोग कर रहे थे। कश्मीरीप पंडितों के नए पढ़े-लिखे और सोचने समझने वाले नौजवानों कोे नौकरियों में भेद-भाव साफ दिख रहा था-और वे माहौल में घुटन महसूस करने लगे थे। यहां से पलायन का दौर पुनः आरंभ हुआ। राज्य में अच्छे दर्जे में इम्तिहान पास करने के बावजूद भी इंजीनियरिंग और मेडिकल के दाखलों में बरती जा रहीं धांधलियों को देखते, नौकरी में प्रमोशन में बर्ते जा रहे भेद-भाव को देखते, नौकरियों में लिए जाने के भेद-भाव को देखते कश्मीरी पंडितों ने देश के बाकी इलाकों का रूख करना शुरू किया था- इस विकल्प को कष्मीरी मुसलमानों का एक बहुत बडा वर्ग भी अपनाना चाहता था पर उसे हिन्दू भारत का भय दिखा कर डराया जाता। अपने ही वो मुसलमान भाई जो अब अपनी खुषहाली में आम मुसलमानों और हिन्दुओं को शरीक नहीं करना चाहते थे इस तरह के हत्थकण्डें आज़माने लगे थे।अशोक अभी इन बातों से बिलकुल अनजान और बेखबर था-उसका बहुत आत्मीय मित्र रफीक बजाज उसे हारी पर्वत के निकट अपने घर ले जाता-रफीक का घर एक मध्य श्रेणी के परिवार का था मां स्नेहल और मिलनसार थीं, रफीक की अशोक के साथ गहरी दोस्ती की वह काफी कदर करती। अशोक जब भी घर पर आता तो बिना खाना-खिलाए जाने नहीं देतीं। अशोक को इस प्रकार एक मुसलमान दोस्त के साथ रहकर इनके तीज, त्यौहारों और संस्कृति की समझ काफी प्रगाढ़ हो चुकी थी। रफीक भी अकसर अशोक के घर आता और खेलकूद के अतिरिक्त पढ़ाई भी मिलकर करते। अशोक के मन में हिन्दू-मुसलमान में भेद-भाव का कोई कारण नजर नहीं आता-वह मानवता के हर स्तर पर, प्रेम, सौहार्द वात्सलय और अन्तः संबंधों में कोई बहुत बड़ा फर्क महसूस नहीं करता। दोनों की दुनिया में मजहब और रीति-रिवाजों में थोड़ी-बहुत भिन्नता होने के बावजूद भी संवेदनाओं के स्तर पर एक ही जीव तो हैं। जन्म, मृत्यु, जर्रा, रोग और जीवन में उतार-चढ़ाव दोनों पर एक जैसा प्रभाव डालता है। फिर भिन्नता कैसी? वह मनुष्य और मनुष्य में भेदभाव का कारण किसी भी रूप में मजहब के स्तर पर नहीं खोज पाया-हां, सब मनुष्य शक्ल और अक्ल से ईश्वर ने अलग-अलग बनाए हैं, पर भावात्मक रूप से सबमें एक समानता है। यही कारण है कि अशोक शायद कभी भी बहुत जल्दी असहज नहीं होता-उसकी दुनियां बहुत अलग थी। हालांकि अपने चाचा चूनी लाल के धार्मिक विचारों का प्रभाव अवष्य रहा होगा पर धर्मान्धता की यहां कोई गुंजाइश नहीं थी। शायद जो कोई भी स्वामी विवेकानंद की विचारधारा से परोक्ष रूप से भी संबंधित हो जाता है उसके मन-मस्तिक के दरीचे स्वच्छ हवा के लिए हमेशा खुले रहते हैं। रफीक का साथ बिस्को स्कूल छूटने के बाद भी नहीं छूटा-स्कूल के साथ अक्सर ऐसे स्थानों पर घूमने जाते जो यद्दापि कश्मीर के पर्यटन मानचित्र पर न थे, पर अत्यधिक रमणीय और सुंदर होते-यहां खुद का खाना स्वयं बनाने से लेकर कपड़े धोना, साफ-सफाई और अपनी खुद की देखभाल स्वयं करने का नियम होता-इस प्रकार छोटी उम्र से ही बच्चों को स्वालंबित जीवन जीने की सीख इसी प्रकार वास्तविक रूप में दी जाती। कठिन और कठोर यात्राओं पर ले जाकर आत्मबल को सुदृढ़ता दी जाती। यह आरंभिक दौर जीवन की मजबूत नींव रखने के लिए बहुत आवश्यक और सार्थक सिद्ध हुई।इधर कश्मीर की राजनीति निरन्तर हिचकोले खाती हर पल अपने को नए आयामों से जोड़ती, भिड़ती और तोड़ती आगे की विषम सामाजिक जटिलताओं में लोगों के जीवन को तेजी से ले जा रही थी। एक तरफ लोगों में इस बात की खुशी और इत्मिनान साफ झलक रहा था कि पुराने फाकाकशी और निरन्तर शोषण चक्र में पिसते रहने के दिन खत्म हुए, वहीं दूसरी और सोचने-समझने वाले लोग इस नई आजादी में एक तरफ एक नए घनिक वर्ग का वर्चस्व पनपता देख रहे थे और दूसरी और उच्चश्रृंखलता के लक्षण नजर आ रहे थे। पुरानी पीढ़ी के लोगों को नये लोगों का खुलापन और व्यवहार में आजादी की मादकता से एक डर लग रहा था-उन्हें धर्म संस्कार के जीवन से बंधे नियम संयम टूटते नजर आ रहे थे। जहां षराब रईसों और इज्जतमाब लोगों का मशगला समझा जाता, वहीं इसे आम नवजवान खुल्लमखुल्ला पीने लगे थे-इससे एक बुरे असर के तौर पर देखा जा रहा था। बुजुर्ग अपने बच्चों के भविष्य के बारे में चिंतित लगते-और हर मां-बाप की तरह कुन्तीजी भी बहुत चिंतित रहने लगी थीं क्योंकि उन्हें अपने गुप्त सूत्रों से पता चला था कि उनका तबादला सदूर पुंछ के इलाकों में किया गया है और जल्दी ही उनको वहां ज्वाइन करना होगा। नौकरी में ऐसा अवसर आता रहता है, जब अपने घर से दूर जाना पड़ता है, पर इस हालत में जबकि अशोक लड़कपन से धीरे-धीरे टीन एज में प्रवेश कर रहा है, मां की देख-रेख बहुत जरूरी है, कुन्ती जी ने अपने बारे में कभी यह दिक्कत महसूस की थी न इसका कभी ख्याल आया था-घर से कुछ ही पैदल दूरी पर स्कूल था और आज नौ-दस वर्ष से इसी स्कूल में पढ़ाती थी-प्रमोशन का लोभ कौन छोड़ता है-पर प्रमोशन से अधिक यह एक असहाय स्थिति थी, प्रमोशन यह नो, प्रमोशन पुंछ जाना पड़ेगा। डिस्ट्रिक्ट आॅफिसर ने बहुत कड़े शब्दों में कहा था-कुन्ती जी को अपने मुंहबोले देवर चूनी लाल में अपार आस्था थी-जानती थी कि पिता अशोक के साथ कुछ अधिक ही वात्सल्य बर्तते हैं और कभी अनुशासन में रखना नहीं जानते पर चुन्नी लाल जी प्यार के साथ सख्ती भी बर्तते। अशोक पर उनका काफी प्रभाव था। इसलिए अशोक को चुन्नी लाल की संपूर्ण निगरानी में छोड़ कर कुन्ती जी ने पुंछ जाने का मन बना लिया-श्रीनगर से सैंकड़ों मील दूर जम्मू सूबे में बसे इस कस्बे का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। यहां पाकिस्तान ने जम्मू सूबे पर 1947 में और 1965 व 1971 जोरदार तीन हमले किए। किन्तु यहां के मुसलमान जो आबादी में हिन्दुओं से काफी ज्यादा हैं, हमेशा पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देते आए हैं।कुन्ती जी को कुछ समय बाद (1967-68) यह प्रमोशन मिला होता तो शायद अधिक अच्छा लगता-अशोक को साथ ले जाने का मन कई बार किया-ममता ने बहुत मजबूर किया कि बच्चे को अकेला न छोड़ो, पर फर्ज से मुंह नहीं मोड़ सकती। अशोक को अपने साथ ले जाने का मतलब बिस्को स्कूल से निकालना होता-और यही वह नहीं चाहतीं थीं। कुन्ती जी को अपना लक्ष्य पाना है, अशोक इतना अच्छा स्कूल छोड़ कर उसके साथ कहां-कहां दर-दर भटकता रहेगा। इस तरह मां का पल्लू पकड़ते कितने दिन चल पाएगा-हृदय पर पत्थर रखना होगा-ममता को काबू में रखना होगा-पति से दूर बच्चे से दूर, घर गृहस्थी से मीलों दूर, कुन्ती जी ने पुंछ जाने का मन बना लिया-एक बार पुंछ में शिक्षा अधिकारी का पद ग्रहण करने के बाद कुन्ती जी ने यहां का शिक्षा प्रणाली का मन लगाकर अध्ययन किया-उसने पाया कि शिक्षा के संबंध में यह इलाका कश्मीर के पिछड़े इलाकों से भी गया गुजरा है। महिलाओं की शिक्षा के संबंध में यहां अधिक जोर लगाकर कार्य करना होगा। उसने योजनाबद्ध तरीके से यह काम आरंभ किया-स्कूलों का जीर्णोद्धार करवाया, गांव-गांव, गली-नाली जाकर महिलाओं को शिक्षा का महतव समझाना शुरू किया। अध्यापिकाओं को विशेष ट्रेनिंग दी और एक तरह से एक वृहद शिक्षा अभियान को आरंभ किया।कुन्तीजी सुबह-शाम जिस प्रकार लोगों की सेवा में रत रही, शायद इसी बात के फल स्वरूप उनके लाडले अशोक को भी अपने अभीष्ट पथ पर अच्छी प्रगति का फल मिला। छोटे बेटे दिवाकर के बाद कुन्ती जी ने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया। इस समय, अशोक छह-सात वर्ष का रहा होगा। इस तरह अशोक के अतिरिक्त एक भाई दिवाकर, और एक बहिन डाली, कुन्ती और मोहन लाल जेलखानी के वंशबेल बढ़ाने वाले संतान हुए। डाली को भी बराबर लाड़, प्यार से पाला जाने लगा, पर अब कुन्ती और मोहन जी दोनों बच्चों को घर पर ही पढ़ाने लगे। दो में से कोई भी बहुत समय तक विधिवत स्कूल में दर्ज नहीं हुआ। थोड़ा बड़े होने पर दोनों भाई-बहिन मां के साथ ही उनके स्कूल में ही पढ़ाई करते। बख्शी साहब के कार्यकाल में कश्मीर की तस्वीर बाहर की दुनियां के लिए सचमुच स्वर्ग-सी ही हो गई थी। काफी मात्रा में देश-विदेश से सैलानी आते और कश्मीर के सौंदर्य का लुत्फ उठाते। मुंबई से दर्जनों फिल्मकार शूटिंग के लिए कश्मीर आते। यहां की वादियों में गाने फिल्माते। यहां के लोग सच में अपना कामकाज दरकिनार करके इनकी शूटिंग देखने जोक दर जाके उमड़ आते। सबके चहेते सितारे दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, फिरोज खान, संजय खान, मीना कुमारी, मधुबाला, माला सिन्हा न जाने कितने ही सितारों को देखने भीड़ उमड़ती। निशात चश्मेशाही-पहलगांव, गुलमर्ग, कुकरनाग, अच्छाबल मैं ये सितारे शूटिंग करने आते। शम्मी कपूर और शर्मीला टैगोर की फिल्म कश्मीर की कली और बाद में शशि कपूर और नन्दा की जब-जब फूल खिले, राजेन्द्र कुमार-साधना की आरजू इन फिल्मों में कश्मीर के परिदृश्य देखकर यहां के लोगों को खासकर नवजवान पीढ़ी को ये फिल्मी कलाकार और फिल्मी दुनियां के लोग बहुत करीब लगते। वे उनकी फिल्मी लाईफ स्टाइल, बोलचाल और व्यवहार को अपने जीवन में लाने की कोशिश करते। हद तो तब हो जाती जब अक्सर नवजवान खुद को फलां हीरो, हीरोइन की तरह की समझने लगते। बहुत से नवजवान फिल्मों से इस कदर प्रभावित थे कि खुद इनमें काम करना चाहते। कई नवजवान तो मुंबई तक भी पहुंच जाते और अपनी तकदीर आजमाने की कोशिश करते। वहां अक्सर उन्हें घोर निराशा हाथ आती और उनका बुरी तरह सिनेमा की दुनियां के साथ मोहभंग होता। वे रह-रहकर उन कष्टों की कहानियां सुनाते, जो उन्हें मुंबई में झेलने पड़े हों। अक्सर फिल्म यूनिट के साथ कई लोग कश्मीर आते, जिनमें एक्स्ट्रा टैक्निशन और क्रूव के बहुत लोग होते। यहां के किसी स्थानीय लड़के की फिल्मों मंे दिलचस्पी को देखकर वे उसे अपने चंगुल में फांस लेते और अपना हित साध लेने के बाद उसे मुंबई में कहीं दिखाई भी न देते। पर यह तो ऐसे लोगों की बात हुई, जिन्हें मुंबई की फिल्म नगरी का कोई सिर पैर मालूम नहीं हो। जो यहां से मुंबई किसी जान-पहचान के सहारे गए और काफी देर वहां स्ट्रगल करते रहे, उनमें से भी बहुत कम लोग ही सफलता प्राप्त कर पाए। उनकी बात अलग है, जो कश्मीर से बहुतत पहले यानी एक आध पीढ़ी पहले निकले थे, और जिनके व्यवहार और आचरण में काफी बदलाव आ चुका था, इनमें, ए.के. हंगल, राजकुमार, सपरू, ऐमा आदि ही ऐसे कलाकार हैं, जो अपनी पहचान बना पाए। आगे चलकर इस कमी को टेलीविजन पूरी करने वाला है, इसका आभास अभी फिलहाल लगभग किसी को न था।------------------------------------------------
फितना हारा....बन्धुत्व जीता -
बख्शी गुलाम मुहम्मद का दौर यद्यपि 1947 के बाद के कश्मीर का सुनहरी दौर माना जाएगा पर जैसे हर दिन का सूरज डूबने के लिए उगा होता है, वैसे ही हर मनुष्य भी अपनी सफलता के अवसान को पहुंचता है। बख्शी रशीद ने बख्शी गुलाम मुहम्मद के लिए काफी गहरे खड्डे खोद रखे थे और अपने भाईयों के प्रेम में लगभग आंख बंद करके बख्शी इन गड्ढों में गिरते गए। यह बात कश्मीर के इतिहास में एक काली सियाह रात की तरह आई कि बख्शी साहब को जवाहर जी ने न जाने किन आरोपों के खातिर, हुकूमत से इस्तीफा दिलवाकर बरतर्फ करके उसी जेल में डाल दिया, जिसमें बख्शी साहब के वजीरअजम बनने पर शेख साहब को डाला गया था।बख्शी साहब के पास कोई चारा नहीं रखा गया या उन्हें साद्धिक साहब को हुकूमत थामनी थी या किसी कमजोर आदमी के हाथ में कमान देकर पसेपर्दा हुकूमत की भाग-दौड़ अपने भाई को सौंपनी थी। बख्शी रशीद ने अपनी कुख्याति के कारण खुलकर सामने आने की कभी जुर्रत तो नहीं दिखाई पर बख्शी साहब के काबीना में वित्तमंत्री रहे षम्सउद्दीन को वजीरअज्म बनाकर एक कठपुतली सरकार का सपना पूरा किया।पर देवी को कुछ और मंजूर था। 28 दिसंबर, 1963 को हजरत मुहम्मद साहब का पाक तबरूक, जिसकी हजरत बाल मस्जिद तीन सदियों से जकारतगाह है, जुम्मे की नमाज के बाद नदारत पाया गया। सारा कश्मीर मातम, गुस्से और विद्रोह से उबल उठा। चारों ओर सियाही छा गई। सियाह लिबास में औरतें, मर्द, बच्चे, बूड़े-जवान सड़कों पर जोक दर जोक चारों तरफ से अपना सीना पीटते सल्लेहवलेसलाम रसूल या अल्ला का आर्तनाद करते जुलूसों में उमड़ रहे थे। हालात जबर्दस्त तनावपूर्ण हो चुके थे। मुसलमानों के इस दुख और ग़म गुस्से में वादी के सभी हिन्दू, सिख और ईसाई, बौद्ध बराबर शामिल हुए पर सारे अल्पसंख्यक खासकर कश्मीरी पंडित बुरी तरह सहमे और घबराए ईश्वर से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना में जुट गए। क्यों, एक बार भी यदि कोई झूठमूठ ही सही इस बात की अफवाह उड़ाता कि यह काम किसी हिन्दू ने किया है तो शायद ही कोई हिन्दू वादी में जीवित बच पाता।मुसलमानों खासकर उस समय के सोचने, समझने वाले बुद्धिजीवी और विवेकपरक मुसलमानों के धैर्य और सूझबूझ की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। तब वास्तव में जनून पर जब्त बहुत हावी था। मुसलमानों ने भाईचारे और सद्भाव पर लेशमात्र भी दाग नहीं लगने दिया। सब असली चोर को पेश करने की मांग कर रहे थे और हुकूमत से मोयेमुकदस की बहाली और वापसी के लिए जोर डाल रहे थे। कश्मीर से केंद्र सरकार तक हिल गई। जवाहर लालजी ने राजा कर्ण सिंह के नेतृत्व में एक खुफिया टीम कश्मीर रवाना की और लगभग चार दिन बाद जब कर्ण सिंह जी खुद एक आम शहरी की तरह हजरतबाल की मस्जिद तक अपनी निजी कार में जिस पर कोई सरकारी चिह्न तक न था, अपने ड्राईवर और स्टाफ के एक अन्य आदमी के साथ पहुंच गए। जैसे ही राजा कर्ण सिंह मस्जिद पर पहुंचे उन्हें हजारों लोगों ने घेर लिया-ये लोग एक सप्ताह से यहीं डेरा डाले थे और अपने घरों को नहीं लौटे थे। अचानक लोगों के चेहरों पर खुशी की एक लहर दौड़ गई, उन्हें अब भी यकीन था कि उनका बादशाह इस घड़ी में उनके साथ है। तमाम लोग, बूढ़े-बच्चे, जवान उन्हें हाथों में उठाने लगे, उनके हाथ चूमने लगे।कर्णसिंह ने शहर के बुजुर्गों और अपने अमले के अफसरों से सलाह-मशविरा किया। दरगाह के चारों तरफ से पहरेदार हटाए गए और घोषणा की गई कि जिस किसी ने भी तबर्रूक ले लिया हो वह इसे अपने स्थान पर चापिस स्थापित करे। यह हिकतअमली काम कर गई और तबर्रूक अपनी जगह वापिस पाया गया। इसके बाद तबर्रूक की पहचान हुई और स्थिति फिर से सामान्य होने लगी।इस बीच, लेकिन पाकिस्तान ने अपने रेडियो से काफी दुष्प्रचार करना आरंभ किया था और मुसलमानों को फिरकपरस्ती के लिए उकसाने का प्रयत्न किया था। पर शहर में जो एक्शन कमिटी घटित की गई थी, जिसके सदस्य वरिष्ठ और तजुर्बेकार मौलाना मसूदी थे-उनके नेतृत्व में एक शिष्टमंडल गठित हुआ, जिसमें डाॅ. फारूख अब्दुल्ला, मौलवी फारूक, मुफ्ती जलालुद्दीन मौलवी मोहम्मद यासीन, मोहम्मद अब्बास और गुलाम रसूल शामिल थे।इन सब बातों से बेखबर और मजहब और सियासत के इस जोड़-तोड़ से कोसों दूर अशोक और रफीक, रफीक के घर पर इमतिहान की तैयारी कर रहे थे। उन्हें अशोक से बात करते यकायक याद आया कि अशोक को आए हुए काफी समय हुआ है और शहर में हालात काफी गंभीर हैं, उसके घर वाले कहीं परेशान न हों, अशोक और रफीक पढ़ाई की अपनी दुनियां में इस कदर मग्न थे कि बाहर कया हो रहा है, इसका कुछ भी अनुमान नहीं था। अशोक को बस इतना पता था कि रफीक के माता-पिता और बाकी घर के सदस्य ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि सबकुछ जल्दी ठीक-ठाक हो-कहीं किसी बेगुनाह पर इलजाम न लगा दिया जाए और जिन्होंने इस प्रकार का जघन्य अपराध किया है, उन्हें खुदाताला उनके किए की सख्त से सख्त सजा दे। मुसलमानों के इस गम और गुस्से में वादी के सब हिन्दू, सिख शामिल हुए। तबर्रूक की वापसी और प्रतिष्ठित बुजुर्ग पीर मीरकशाह ðारा इसकी पहचान करने पर सबने भाव-विभोर होकर खुदा का शुक्र किया और चारों ओर अल्लाहो अकबर, हर-हर महादेव और सतश्री अकाल के नारों से सारी वादी गूंज उठी। सब मजहबों की यह आपसी खादारी ही कश्मीरी मुशतरका खून की गवाही देता था-ऐसे खून को बहाने का साजिशें दुश्मनों ने हमेशा पसेपर्दा और सामने आकर करने की कोषिषें। पर अशोक और रफीक के प्रेम, सौहार्द और भाईचारे पर कभी आंच नहीं आई। हालांकि दुश्मनों ने हिन्दू विरोध, नफरत और जहर फैलाने में कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ी थी। पर अभी मीरकशाह ऐसे खुदा दोस्त बुजुर्ग और बा ऐतबार खुदा के पाक बन्दे कश्मीर में मौजूद थे। ऐसे पीर, फकीर और चिंतक, इनसानी दुनिया को एक ही नजर से देखते। इनके मन में सियासी मैल और ðेष नहीं था-ये पाक, पवित्र और ईमानदार लोग थे। इनके कारण कश्मीर जब तक बचा तो बचा...जेलखानी परिवार अत्यंत चिंतित था। अशोक को सवेरे चाचा जी रफीक के पास छोड़ गए थे और अभी तक दोनों का कोई पता न था। हालात हालांकि बहुत सुधर चुके थे। हफ्तों बाद आज बाजार में फिर गहमा-गहमी थी। लोग मुतबरक तबर्रूक के मिलने पर आपस में गले मिल-मिलकर बधाई दे रहे थे और अलाहो अकबर कहकर खुशी जाहिर कर रहे थे। हिन्दू भी अपने मुसलमान भाईयों से गले मिलकर खुश-खबरी का स्वागत कर रहे थे। पर अभी राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी था-सब मुट्ठियां भींचे तटस्थ प्रतीक्षा कर रहे थे। सबकी नजर ष्मसोदीन की हुकूमत गिरने पर थी। शाम चार बजते ही शाम होने लगी थी-जनवरी की ठंड ने कोहराम मचा रखा था-झील डल में कोहरा जम गया था और इस ठंड में अशोक को नहीं जाने देना चाहिए था-कुन्ती जी को बहुत अफसोस हो रहा था, उन्होंने ऐसी गलती क्यों की।अचानक अशोक को एक प्रश्न मन में कौंध उठा। उसका नन्हा-सा मस्तिष्क अजीब उलझन में उलझ गया। वह सोच में पड़ गया कि क्या ऐसा प्रश्न रफीक से पूछना चाहिए। एक बार ध्यान देकर सोचने से उसे लगा कि पता नहीं रफीक इस प्रश्न की तह तक जा भी सकेगा। उसने बहुत धैर्य से काम लेते प्रश्न अपने चाचाजी चूनी लाल से पूछने का मन बनाया। रफीक उससे कह रहा था, जानते हो अनवर चाचा कह रहे हैं कि तुम्हारे चाचाजी को आने में देर हो गई है, अब तुम आज रात यहीं रूकोगे।अशोक को चाचाजी के लिए चिंता हो रही थी। पता नहीं इतनी देर क्यों लगा दी। वो तो 3 बजे तक आने के लिए कह गए थे। अब तो पांच बजने लगे हैं। हे भगवान! चाचाजी ठीक तो हैं?अशोक यह सोच रहा था कि चाचा जी की आवाज सुनाई दी। सब घर वालों ने राहत की सांस ली। रफीक के पिता जी ने अशोक के चाचा को किसी अनिष्ठ के उनके द्वारा कल्पना की भनक नहीं पड़ने दी, पर जैसे चूनी लाल को देखते सबकी जान में जान आ गई, चूनी लाल सारी स्थिति ताड़ गए और हंस कर कहने लगे, आप लोग इतने घबराए लग रहे हैं, अभी हमारे दिलों का खून इतना पतला नहीं हुआ कि कोई किसी को मार दे, यह तो ऐसी जगह है कि जहां दूसरों के लिए लोगबाग हंसते हुए जान दे देते हैं पर किसी को बेवजह, बेकसूर मार नहीं देते, वैसे ख्वाजा साहब आप ही बताएं जो कुछ इधर हुआ किसी और जगह हुआ होता तो खुदा खैर करे क्या हाल हुआ होता? ख्वाजा साहब ने बहुत आत्मीयता और प्यार से, चूनी लाल पर निगाह जमाते हुए कहा, असतकफिरूलला, अलाह तेरा शुक्र है, मैं जेलखानी साहब को क्या जवाब देता, उनसे कैसे दुबारा आंख मिला पाता? खुदा हम सब पर रहमत बरसाओं सबको अपने फैज़ की आबयारी दें। चलो अब काफी देर हो चुकी है, आज यहीं आराम करो।चूनी लाल,- नहीं, रह तो लेते पर जैसे आप यहां फिक्रमंद थे, वैसे वो भी वहां फिक्रमंद होंगें, बस मुझे काका को लेकर निकलना चाहिए।खाजा साहब ने ड्राइवर को बुलाकर दोनों को घर तक छोड़ने का आदेश दिया।अशोक और चूनी लाल सही सलामत घर पहुंचाए गए। घर में इन्हें देखते ही सबकी जान में जान आ गई। चूनी लाल को एहसास हुआ कि उसने आने में इतनी देर कर दी और घर वालों को परेशानी में डाल दिया। पर घर में किसी ने इस बारे में कोई सवाल नहीं किया। केवल, सब रह-रह कर कह रहे थे कि परमात्मा का शुक्र है आप सही-सलामत घर पहुंच गए।एक बार फिर फजा में मस्जिदों से दरूद खानी, मंदिरों से आरती और गुरूद्वारों से अखण्ड पाठ के स्वर गूँज उठे। माहौल में जो कसाव और तनाव पैदा हुआ था, वह छंट गया और सारी घाटी मे फिजा अपने रंग में आ गई। शमसुद्दीन को हटाकर बख्शी को फिर से प्राइममिनिस्टर बनाने की अफवाहें फैलने लगी। ऐसा होता तो निश्चित रूप से बड़ा बवाल मच जाता-क्योंकि मुतबरक तबर्रूक के गायब होने में रियासत के बेशतर लोग बख्शी रशीद पर शक कर रहे थे। पर ईश्वर ने हाकिमों को सदबुद्धि दी। नेशनल कांफ्रेंस में बाएं बाजू के एक बहुत ही कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति गुलाम मुहम्मद साद्धिक को सर्वसम्मति से सदन का नेता चुनकर प्राइमिनिस्टर बनाया गया-जो बाद में मुख्यमंत्री कहलाए और सदरे रियासत राज्यपाल कहलाए गए।अशोक को अपना प्रश्न बुरी तरह बेचैन किए था। चाचा जी से पूछना चाहिए, रफीक मुसलमान है और वह खुद हिन्दू...? रफीक के परिवार वाले ईश्वर की आराधना मस्जिद में करते हैं और हम मंदिर में... हिन्दू और मुसलमान क्यों हैं? हिन्दू को मुसलमान से डरने की कया वजह हे? क्यों ऐसा है? आखिर रफीक और उसके घर के लोग कितना प्यार करते हैं उससे और रफीक को हमारे घरवाले कितना चाहते हैं। फिर यह क्योंकर कहा जाता है कि कोई अन्य रफीक-सा ही मनुष्य किसी अन्य अशोक जैसे मनुष्य को मार सकता है? उसकी हत्या कर सकता है। पाकिस्तान रेडियो क्यों मुसलमानों को भड़काता रहता है? पर दूसरे ही क्षण अशोक ने इन बातों को अपने मस्तिष्क से खारिज किया और अपने प्रश्नों को अनुतरित ही टाल दिया। शायद इससे बढ़कर यह बात अधिक आवश्यक है कि मुझे अब के परीक्षा में अच्छे अंक लेकर पास होना है। मेरा ध्यान केवल अपनी पढ़ाई पर केंद्रित होना चाहिए। इन प्रश्नों को मुझे पास भी फटकने नहीं देना चाहिए। यह जानना अधिक आवश्यक है कि मौसम क्यों बदलते हैं। मुझे मैथ में बहुत मेहनत करनी है। मुझे सब ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करना है। यही सोच रहा था कि अचानक एक अन्य प्रश्न ने कौंध कर सारे अस्तित्व में खलबली मचा दी। ईश्वर के लिए परेशान इतने लोग हैं तो क्या ईश्वर वास्तव में कहीं है? अगर है तो वह कहां रहता है, किसको दिखाई देता है। ओफ! अभी यह सब नहीं... अशोक स्कूल आते-जाते घर में हर जगह लोगों को, ईश्वर खुदा और अन्य देवी, देवताओं, पीर, फकीरों की पूजा-अर्चना और बन्दगी करते देखता। यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक था। हर चिंतनशील मनुष्य छोटी उम्र से ही अपने इर्द-गिर्द मजहबी गतिविधियों से प्रभावित होकर इस बारे में अवश्य सोचता है? और कश्मीर जैसे स्थान में मजहब का दखल जीवन के हर रंग और रूप में ऐसा हिलमिल गया था कि यह हर किसी के सोच का एक बुनियादी और अहम हिस्सा बन गया है।किन्तु अशोक के घर में मजहब का बुनियादी ढांचा बहुत व्यावहारिक और समय परिपक्व था। घर के किसी भी सदस्य में किसी अन्य धर्म अनुयायी के प्रति रोष, वैमनयस्य या पूर्वाग्रह की कोई बात नजर नहीं आती। माहौल खुला और स्वतंत्रतापूर्वक था। यहां पर कर्मशीलता को धर्म से जोड़कर देखा जाता। इस तरह काका के मन में बचपन से ही किसी धार्मिक विद्वेश की जरा भर भी गंुजाइश नहीं रही और ना ही इस प्रकार की मानसिकता ने कभी आगे घेर लिया। रफीक का भी लगभग ऐसा ही जीवन परिवेश उसे एक नेक, होनहार और काबिल वकील सिद्ध होने में सहायक रहा होगा। यह अत्यन्त आवश्यक है कि अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म या आडम्बर की अपनी ढाल बनाकर या हथियार बनाकर घर के बुजुर्ग बच्चों को धर्मान्धता के रास्ते पर न धकेल दे, जिन्होंने भी ऐसा किया उनहें पछताना पड़ा और कश्मीर इसकी एक जीती जागती मिसाल है।अशोक के मन, वचन और कर्म में एक दृढता आने लगी है। वह नियमपूर्वक अपने कार्य कर रहा है। स्कूल, खेल और घर की पढ़ाई का समय उसने बांट कर रखा है। वह एक असहाय बच्चे की परवषता को छोड़ कर स्वालंबन की ओर अग्रसर हो रहा है। दिवाकर को मां पुंछ अपने साथ ले गई है। डाली अभी छोटी है, सो उसका मां के साथ जाना तो निश्चित था ही। अशोक मां को अपने से दूर महसूस करके कभी-कभी रोने लगता है। पर उसे सारी बातें मां ने एक वयस्क लड़के की तरह समझा दी है। वह कहकर गईं हैं कि किस तरह अब आगे के जीवन में उसे अधिकाधिक मां के आंचल को छोड़कर जीवन की कठोरताओं का अकेले मुकाबला करना होगा। अशोक को अपनी मां के रूतबे और रौबदाब पर काफी गर्व होता, पर दूसरे ही क्षण वह सोचता कि यह सरकार एक क्षेत्र की मां को दूसरे क्षेत्र में क्योंकर भेजती है। क्या सरकार को इतना भी अहसास नहीं कि माताओं के परिवार किस तरह बिखरते हैं। अशोक को अपनी छोटी बहन और भाई की याद आती तो मन रोने को करता। आंगन में सब बच्चों को खेलता देख अक्सर वह अपने भाई-बहिन को देखने को तरसता पर मां ने कहा है, यह काफी लंबा समय होगा... जो उसे अकेले केवल, चाचा जी, दादाजी और पिताजी के साथ ही बिताना होगा। घर में केवल दादी ही एक महिला बची हैं। वह शरीर से अभी इतनी कमजोर तो नहीं कि गृहस्थी न संभाल सके, पर यह उम्र अब उसके कामकाज की नहीं रही। मोहन जी और चूनीलाल लगभग आधे काम स्वयं करने लगे थे। पर दादी जी को उनके किए काम में त्रुटि ही त्रुटि नजर आती। अगर उन्होंने बिस्तरा बिछाया तो उनहें लगता कि चादर सही नहीं बिछी है। चुपके से दुबारा ढंग से बिछा देती। अशोक जी की फूफियां...आकर अपनी मां की काफी देखभाल करने लगी थी।यह समय है और किस तरह कितनी जल्दी बीत जाता है, तब पता चलता है जब आदमी कुछ पल इसे पलट कर देखने लगता है। अशोक अपने बचपन की इन यादों को और अपनी अपरिपकव बुद्धि के परिपक्वता की ओर हो रही यात्रा के आयामों को जब देखता है तो उसे इतिहास और जीवन एक विसंगत गुत्थी सा नजर आता है। कभी-कभी ये घटनाएं जो हमारे जीवन के इर्द-गिर्द घटती हैं और हमारे अपने काबू से बिलकुल परे होती है। हमे और हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करके रखती है।गुलाम मुहम्मद साद्धिक के दौर में एक ऐसी ही घटना घटी, जिसने पल भर के लिए अशोक को बहुत तेज धार में बहा लिया पर ईश्वर की कृपा कहिए या घर के संस्कारों का अच्छा प्रभाव कि यह अबोध बालक बाल-बाल बच गया और हमें आज एक सुलझे व्यक्तित्व और सफल आदमी के रूप में खड़ा मिलता है। हुआ यूं कि रैणाबाड़ी की किसी हिन्दू लड़की को अपने प्रेमजाल में कोई मुसलमान लउ़का फंसा गया या यूं कहे कि एक हिन्दु लड़की का मन एक मुसलमान लड़के पर आ गया। दोनों निम्न-मध्य वर्ग के थे और इसलिए समाज की उन पर नजर थी। उन्होंने कश्मीरी समाज के मूल्यों को तोड़ा था। हालांकि यही काम जब सम्भ्रांत और प्रतिष्ठित लोग करते है। तो किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। पर साद्धिक की हकुमत के खिलाफ दाएं बाजू की सोच के पंडितों और मुसलमानों के लिए एक फितना खड़ा करने का भरपूर मसाला एक बम की शक्ल इख्तियार कर गया। पंडितों ने इस रिश्ते का विरोध किया और एक पूरी मुहिम छेड़ दी-बात कहीं की कहीं पहुंच गई-क्योंकि इस बात ने एक आंदोलन का रूप ले लिया-जिसमंे पडित समुदाय के नए-पनपते मासूम लड़के-लड़कियों को कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने तत्काल फायदों की भरपाई के लिए मजहब के नाम पर इस्तेमाल किया। अशोक इस जुनून में पड़ने से बाल-बाल बचा। क्योंकि यह वह समय था जब जुलूसों की अगुवाई में अशोक की कम उम्र के लड़कों, लड़कियों के हाथ में धर्म के परचम थमा कर कश्मीरी पंडित नेता अपनी हारी हुई और वादी में अस्तित्व के लिए आखिरी जंग लड़ने पर आमदा हुए थे। पर अफसोस कि वह लड़ाई नहीं एक कमजोर कौम का आर्तनाद था, जो एक लड्डू और एक लाठी के बल से हमेशा के लिए खामोश किया गया। इसके बाद कश्मीरी पंडित दुबारा अपने हक के लिए संगठित नहीं हो पाए। अशोक 10-11 साल का रहा होगा-इस उत्पात ने उसके मन में एक खलबली मचा दी। हर तरफ कश्मीरी हिन्दू इस बात पर विमर्श और विचार कर रहे थे कि मुस्लिम बहुल वादी का चरित्र जिस तरह हिन्दू हितों के खिलाफ मोड़ा जा रहा है, वहां हिन्दू का भविष्य क्या है? हालांकि यह सोच उतनी ही गलत थी जितना कि मुसलमानों का यह सोचना कि हिन्दू भारत के साथ रहने पर उनका भविष्य क्या होगा? इस प्रकार की दुयी की सोच जहर का काम कर रही थी, जो नवजवान पीढ़ी को कुछ अलग सोचने पर मजबूर कर रही थी। इसके कुप्रभाव से अशोक को बचाने के लिए चुन्नी लाल ने अशोक का ध्यान किताबों और खेल-कूद में लगाए रखने की नई-नई तरकीबें निकाली। उनका मत था कि समाजी नाबराबरी की जड़ में मजहब नहीं, बल्कि सदियों से चला आ रहा वो शोषण चक्र है, जहां कुछ गिने-चुने लोग ही समस्त संसाधन अपने कब्जे में करके बाकी लोगों को जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी गुलामी करने पर विवश करते हैं। अपने गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए वे लोगों को मजहबी फितनों, फसदों में उलझाए रखते हैं। सिर्फ सही और साइंसेसी तालीम ही लोगों को सच से अवगत करा सकती है। और अशोक को सामाजिक सच की तहों तक विवेकपूर्ण ढंग से ले जाने के लिए उसे एक दोष रहित शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है, जो किसी हद तक बिस्को के स्कूल में उसे मिल रही थी।------------------------------------------------
आंतरिक यात्रा
प्रगतिशील समाज ने धर्म, जाति के आधार पर मनुष्यों को बांटने की नीति का विरोध किया। पर राजनीति में प्रगतिशीलता का अर्थ समाज की कमजोर जातियों व अल्पसंख्यकों का अगुवा बनकर उन्हें भेड़ों की तरह वोटों के लिए हांकने में बदल गया। संस्कृति और सभ्यता के उत्थान में किन्तु शुरूआती दौर में प्रगतिशील लेखकों, कवितयों, नाटकारों और सामाजिक, कार्यकर्ताओं ने एक सार्थक भूमिका निभाई। कश्मीर में नाटकों का जो सिलसिला शीतलनाथ के परिसर से शुरू हुआ था, वह सरकारी संरक्षण में और विकास पाने लगे। रेडियो ने कलाकारों को स्थापित तो कर ही दिया था और रेडियो श्रोताओं में कुछ शौकियां भी एक्टिंग और गायन के लिए रेडियो में आॅडिशन देने पहुंच जाते। इस तरह इस कला ने जहां पहचान स्थापित की वहीं जम्मू-कश्मीर कलचरल अकादमी की स्थापना करके जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के तीनों प्रांतों के कलाकारों के काफी उद्भव मिला-कश्मीर में जगह-जगह नाटकों का मंचन और नाटक प्रतियोगिताएं आरंभ की गई। स्कूलों, काॅलेजों में भी नाटकों और सांस्कृतिक गतिविधियों को खास बढ़ावा मिला-अशोक को सिनेमा, थियेटर और रेडियो नाटक से खास लगाव हो रहा था। वह विधिवत् रेडियो कश्मीर से प्रसारित होने वाले नाटकों को सुनता। प्राण किशोर, पुषकर भान, सोमनाथ साधो, उमा खोसला, मनोहर परहोती बशीर भट्ट आदि की आवाजों को वह पहचान लेता। ये कोटि के रेडियो कलाकार बहुत मकबूल थे और नवजवान पीढ़ी के प्रबल प्रेरणास्रोत। अशोक का मन जल्द से जल्द पढ़ाई पूरी करके इस माहौल में कूदने को बेचैन होता। पर अभी तक उसने स्टेज पर खेले जाने वाला एक भी नाटक नहीं देखा था। हां स्कूल के नाटकों को छोड़ कर। पर अपनी इस तमन्ना को अशोक ने अपने घर में किसी पर प्रकट नहीं होने दिया। यहां तक कि इस बारे में उसने अपने चाचाजी को भी नहीं बताया। वह चुपचाप उस मौके की ताक में था, जब उसे स्टेज पर कोई भूमिका निभाने को मिले। उसने अंग्रेजी साहित्य में इब्बसन, बर्नाड शा, शेक्सपियेर के नाटकों को पढ़ने की ठान ली। स्कूल लाइब्रेरी से एक-एक कर नाटकों का अध्ययन शुरू किया। जितना वह नाटकों का अध्ययन करता उतना उसकी उत्सुकता भारतीय नाटक और स्टेज के विषय में जागती। समस्या सिर्फ इतनी थी कि वह कहीं खुल के इस विषय में बात नहीं कर पा रहा था। उसे लगा शायद अभी वह इस काम के लिए बहुत छोटा है। पर अब तो उसने दसवीं पास की है। वह अब यह बातें नहीं जानेगा तो कब जानेगा। एक दिन बात-बात में उसने अपने चाचाजी से पूछ ही लिया कालीदास और शेक्सपियेर में कौन श्रेष्ठ है?चाचाजी कुछ देर प्रश्न की तह तक गया। अचानक लड़के के दिमाग में यह सवाल कैसे उत्पन्न हुआ। चूनी लाल जी अंग्रेजी साहित्य के अच्छे पाठक थे और उन्होंने शाकुन्तलम का हिन्दी अनुवाद भी पढ़ा था। पर मूल संस्कृत पढ़े बिना वे कैसे कह पाते कि कालीदास के नाटककार में शेक्सपियेर जैसा क्या है, या नहीं है। फिर भी अशोक को उनहोंने निराश नहीं किया, बोले, यदि ऐसा कहें कि कालीदास भारत के शेक्सपियेर हैं तो गलत न होगा। अशोक को जवाब मिल गया, कालिदास कालिदास हैं, और शेक्सपियेर शेक्सपियेर। अशोक ने दसवीं पास करके ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी और अब स्कूल से रिजल्ट की प्रतीक्षा थी। यह समय पढ़ाई से इतर बाहर घूमने-फिरने का था। लड़कपन से धीरे-धीरे निकल कर जवानी की ओर कदम बढ़ाने का समय ऐसे में अक्सर मन और कर्म में उत्सुकतावश परिवर्तन भी होना स्वाभाविक है। कुछ तो बायोलाॅजिकल बदलाव और कुछ माहौल के कारण आदमी अपने चिंतन, मनन और कर्म क्षेत्र को विकसित करना चाहता है। वह अंदर से बाहर आने लगता है। अभी तक वह केवल ग्रहण कर रहा हेाता है, अब वह कुछ देना भी चाहता है। वह अपनी सीमित सी परिधि जीवन रेखा से बाहर कदम रखना चाहता है। यही दौर जीवन के आने वाले समय का निर्णायक दौर होता है। अशोक का कला प्रेम उसे उन लोगों और ठिकानों की ओर खींच रहा था जहां यह गतिविधियां हो रहीं थीं। गांवकदल की चढ़ाई चढ़ते ही पुरूषयार के पास प्रेमनाथ छटू (मास्टरजी) का प्रेम संगीत निकेतन हैं। यहां पर संगीत का अभ्यास कर रहे लड़के-लड़कियों की टोलियां निकलती तो उनकी चहक और फुर्ती देखते बनती। व्यस्त गली-मुहल्ले, तेज-तेज धरते पगों को किनारे करते, मोटर, टैम्पू, सड़क के दोनों तरफ खिले-खिले सजे-धजे बाजार और दुकानें... यहीं प्रेम संगीत निकेतन के बराबर में रंगमंच का बोर्ड लगा है। इसे आते-जाते अशोक कई वर्ष से देख रहा है। यहां से घाटी के नामवर मशहूर कलाकारों को भी आते-जाते देखा है। मन में कई बार यहां आकर इन कलाकारों से मिलने की इच्छा होती पर हमेशा संशय और अतिरिक्त सावधानी रोक लेती और अशोक कदम वापिस लेता। शहर के मशहूर अभिनेता माखन लाल सराफ को अक्सर यहां अशोक देख लेता। वह उनसे बात करना चाहता। वह उन्हें कहना चाहता कि मैं नाटकों में भाग लेना चाहता हूं। पर दो चीजें रोक रही थी, एक तो यह कि घर वाले उसे डाॅक्टर, इंजीनियरि बनाना चाहते थे और अभिनेता बनने की बात को शायद घर में कोई ध्यान भी न देता-दूसरी यह कि अभी उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई थी। अभी घर में इस बात क लिए कोई राजी न होगा कि वह अपना समय पढ़ाई की जगह नाटक खेलने जेसे फोकट के काम में नष्ट करें। नाटक खेलने वालों को उनके व्यस्न के कारण प्रतिष्ठित और अनुशासन में बच्चों को रखने वाले माता-पिता चिंता की दृष्टि से ही देखते। यद्यपि इनकी कला की काफी तारीफ होती पर इनके लाइफस्टाइल को अभी वह सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाई थी जिसके यह हकदार थे। अशोक की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह घर में कह सके कि वह करना क्या चाहता है।लेकिन घर में इस बात से भी बड़ी परेशानी यह थी कि पुंछ से वापिस ट्रांसफर होने के कुछ ही वर्ष में अशोक की माताजी का पहले बारामुला और अब अनन्तनाग तबादला किया गया था। लगातार घर से दूर रहने के कारण उसे अशोक की अब बहुत चिंता हो रही थी। अशोक अब बहुत नाजुक दौर में है। और उसको अपनी पढ़ाई मंे व्यस्त रहना होगा। अशोक की जागरुकता और परिपक्वता को देखकर लेकिन उसकी माता जी कहीं इस तरफ से आश्वस्त लगती कि अशोक कभी किसी कुप्रभाव में या कुसंगति में नहीं पड़ सकता। फिर भी उसने गांव के जीवन से अशोक को अवगत कराने के लिए गर्मियों की छुट्टियां अनन्तनाग में बिताने के लिए अपने पास बुलाया। अशोक ने हालांकि स्कूल के साथ वादी की बहुत-सी जगहों का भ्रमण किया था। जिनमंे सदूर गांव के बहुत अंदरूनी इलाके भी शामिल थे, पर स्कूल के साथ सप्ताह भर पिकनिक या सैर-सपाटे अथवा ट्रैकिंग पर जाना एक बात है और इस तरह अपनी मां के साथ अपने परिजनों के साथ, छोटे भाई और बहिन के साथ अनन्तनाग में महीना भर रहना अशोक को उत्साह और उत्सुकता से भर गया। वह नए सिरे से उन सब जगहों को देखेगा, जहां बचपन में स्कूल के साथ गया था। अच्छाबल, पहलगांव, कुकरनाग और डकसुम के नाममात्र से...उसके मन में कुतूहल और इन स्थानों के प्रति आकर्षण जाग गया। वह खुश होकर मां के पास अनन्तनाग के लिए रवाना हुआ।यहां का जीवन हालांकि काफी सीधा-साधा और कम चहल-पहल वाला था, पर यहां मां के पास विभिन्न क्षेत्रों से कोई न कोई मिलने आता। वह भी स्कूलों के दौरे करती और कभी-कभी अशोक को भी साथ ले जाती। अशोक के स्कूल में छुट्टियां खत्म होने पर सरकार स्कूलों में छुट्टियां घोषित करती। इस प्रकार सरकारी स्कूलों की छुट्टियां कुन्ती जी अपने घर पर बिताती। अशोक के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का यह स्वर्ण अवसर उसने खोज लिया था। गांव-गांव घूमते और हर जगह अपनी माता का सम्मान होते देख अशोक काफी खुश हो रहा था। कुन्ती जी ज्यूंकि अधिक महिला विद्यालयों में जाती तो अशोक को काफी संकोच होता। वह अध्यापिकाओं और लड़कियों से बहुत शर्माता और इसीलिए गांव देखने निकल जाता। अनन्तनाग में उसको यह देखकर हैरानी हुई कि यहां से कुछ ही दूर मुहिरपुर गांव में कश्मीर के ‘फोल्क’ लोक कलाकारों का एक समूचा गांव आबाद है। उसे कहीं से पता चला कि यहीं आसपास वे अपना ‘पाॅथर’ शो करने वाले हैं। अपने नए-नए बने मित्र राकेशजी को साथ लेकर अशोक भी भाण्डों का पाॅर्थर देखने गया-एक मशहूर कलाकार सुबहान भगत की मण्डली एक नए प्रहसन को खुले मैदान में खेलने जा रहे थे।अशोक इन कलाकारों का अभिनय, प्रस्तुति और कहानी प्रेषित करने के अंदाज से जबरदस्त प्रभवित हुआ। सैकड़ों लोगों को मात्र अपने अभिनय के बल पर बांधे रखे इन कलाकारों ने बिना सैट, लाइट या किसी म्यूजिकल इफेक्ट के दर्शकों को हंसाया और रूलाया। एक साम्यिक कहानी, जिसमें किसान, जमीनदार और शासक वर्ग के पात्रों के द्वारा एक लचीले तंत्र के अंतः संबंध को उजागर किया गया था और जिसमें किसान की सामान्य बुद्धि के उपयोग से जमीनदार और शासक वर्ग के पात्रों को बुरी तरह छकाया गया था, जनमानस के मन को काफी रिझा गया। इस मंच और इस कला की लोकप्रियता और इसके तत्काल प्रभाव से अशोक हैरान हो रहा था। उसको एक बात समझ में आ गई थी कि कथ्य और अभिनय का सम्यक प्रयोग सम्प्रेषणा को प्रभावशाली बनाता है। विषयवस्तु स्थिति और स्थान अनुरूप हो तो प्रस्तुति में चार चांद लगते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है दर्शक और उसका सोच व मन। घर जाकर उसने अपनी डायरी में यह सब बातें नोट की और इन्हें कभी व भुलाया। यहां पर अपने मित्रों और माता जी के संपर्क में आए हर व्यक्ति ने अशोक को विशेष प्यार और स्नेह दिया। इसी असना में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना घटी, अशोक को वह अहसास हुआ, जो हर व्यक्ति को जीवन में कभी-न-कभी कहीं न कहीं पहली बार होता है। एक शादी में अपनी मां के साथ जाने पर कुछ ऐसा ही अशोक के किशोर मन के साथ हुआ...ये लोग कुन्ती जी के खास पहचान वाले थे और दूर के कुछ रिश्तेदार भी। इनके घर में लड़के की शादी थी-मेहमानों का खासा जमघट था और काफी लोग आए थे। अशोक इतने सारे लोगों के बीच खुश नजर आ रहा था, उसने पेंट, शर्ट और आलवूल वालों का वी गले वाला स्वेटर पहना था। फिरोजी रंग की स्वेटर में वह काफी आकर्षक लग रहा था। वह बालकनी में खड़ा नीचे सहन में आए हुए लोगों को तरह-तरह से व्यस्त देख रहा था। तभी पीछे से बालकनी में किसी ने प्रवेश किया अशोक ने मुड़ कर देखा तो जैसे किसी ने दिल को निकाल कर अपनी मुट्ठी में कर दिया। वह स्तब्ध इस सारी भीड़ में आई सबसे सुंदर लड़की को एकटक देख रहा था और लड़की का आधा मुंह खुला का खुला रह गया। वह अशोक को टिकटिकी बांधे देखने लगी। अशोक को लगा जैसे सारी बलकानी में चांदनी छिटक गई है और वह इसी में नहा रहा है। लड़की ने जोर से हंसी का ठहाका लगाया। पलकों पर दोनों हथेलियां रखकर तेज वापिस मुड़ कर भाग गई। अशोक की मन की पहली घंटी बज गई थी। उसे किसी ऐसी अनुभूति ने घेरा था, जो इससे पहले उसने कभी न जानी थी। वह बेचैन होकर इस लड़की को बार-बार देखना चाहता था। अब सारी शादी की भीड़-भाड़ में वह इसे ही खोज रहा था। उसकी इस खोजी निगाहों से बचते वह लड़की, शादी का समारोह छोड़ कर घर चली गई और काफी बेचैन होकर, उसी परिदृश्य को बार-बार देखने लगी। उसके मन की बेकरारी उसे किसी पल भी घर में चैन नहीं दे रही थी। पर वह जानती थी कि अशोक उससे काफी दूर है। और ऐसे सपने सजाना कोई मायने नहीं रखता। अपने मन को संयम में करके वह इस बात को जितना भुलाना चाह रही थी उतनी ही बेकरारी बढ़ रही थी। उसने फैसला किया कि बेशक वह शादी में जाएगी और उसकी तरफ एक नजर भी नहीं देखेगी। उसे पता चलेगा, कुछ नहीं हुआ है। मैं क्या उसकी कोई कर्जदार हूं। मैं शादी का समारोह छोड़कर क्यों घर बैठी रहूं। लड़की वास्तव मंे अपने मन को झूठे तर्क देकर यह समझाने का प्रयत्न कर रही थी कि उसे देखने में कोई हर्ज नहीं है। इधर अशोक अपने मन की बात किसी से कहना चाहता था। पर वह किसी व्यक्ति को अपने भरोसे के काबिल नहीं समझ रहा था-शादी का समारोह समाप्त हो गया-मेहमान अपने घरों को चले गए। अशोक काफी दिनों उस लड़की को दुबारा देखने का प्रयत्न करता रहा। पर बिना अता-पता के उसे कहां खोज लेता। वापिस श्रीनगर जाने पर घर में काफी दिनों तक इस बात की कसक मन को तड़पाती रही और इस तरह यह अशोक का पहला क्रैश था। जिसे लोग अक्सर इनफेच्युएशन कहकर भुला देते हैं।एकाएक अशोक को कई प्रश्नां ने घरे लिया। सहसा उसे यह क्या हो गया है, जो बेकरार रखता है। क्या यही प्रेम होता है? कया अब मैं बड़ा हो गया हूं और प्रेम के काबिल भी? ओफ! यह सब क्या माजरा है। सवाल और गहराता गया आखिर आदमी, आदमी क्यों हैं बंदर नहीं! क्या प्रयोजन है यहां जीने का! समय बहुत कम है सवाल बहुत ज्यादा और इन सवालों से निकल कर इन्हें रद्द करते या टालते हुए अपनी राह निकालनी है। एक बार इन प्रश्नों के उत्तर खोजने बैठा तो जीवन निकल जाएगा। पर इतने अनुतरित प्रश्नों के संग जीना कितना अजीब और मुश्किल लगता है। खासकर इस लड़की की यह तड़प।शहर गांव से जुदा है। आदमी, आदमी से जुदा है। फिर भी सब यही कहते हैं कि कोई फर्क नहीं है। सब समान है। सब उसी ईश्वर की संतान है। पर एक ही ईश्वर की संताने इतनी भिन्न इतनी जुदा क्यों। क्यों इतने लड़ाई, झगड़े और झंझट हैं और इन सबमें मैं क्यों फंसूं? मुझे इसमें पड़ने की क्या आवश्यकता है। कहीं यह संसार भाण्डों का एक बड़ा-सा जश्न ही तो नहीं? सच! बिलकुल ऐसा ही है यहां नाटक देखने में असली पर सब नकली-ओढ़ा, रटा और धोया हुआ। पर यह सोच खतरनाक है। नाटक है तो मैं भी इसे नट की तरह खेलूंगा। कुषलता और कुशाग्रता से।यही समय होता है जब आस-पास के हमउम्र लोगों से संपर्क करने की जरूरत महसूस होती है। एस पी काॅलेज में दाखिले के बाद अशोक ने अपने व्यवहार अपनी जरूरतों में जो बदलाओ नोट किया उसमें, एक कलाकार के जन्म की तड़प थी। कोई्र है... जो उसके भीतर से बाहर आना चाहता है। जिसे बाहर लाने के लिए वैसी स्थिति और स्थान व अवसरों को पहचानना और स्थापित करना आवश्यक है। काॅलेज में सांस्कृतिक गतिविधियों का जो भी थोड़ा-बहुत माहौल था, वहां तक पहुंच बनाना, इतना आसान नहीं था-इसी दौरान अशोक को वे साथी मिल गए, जिनके उसे बराबर तलाश थी। सबसे पहले ज़ाहिद जो इन दिनों बरबरशाह में रहता था और बाद में उसका परिवार हाॅरवन की खूबसूरत जगह रहने गए। जाहिर जोशीला, फोक्सड और अत्यंत निपुण और काबिल लड़का था। शिया मुसलमान होने के बावजूद उसे लिट्रेचर, नाटक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दीवानगी की हद तक दिलचस्पी थी। वह अशोक के काफी करीब आ गया था। उसने अशोक को टैगोर हाल में नाटकों के मंचित होने की बात बताई। अशोक को बहुत अजीब लगा कि शहर में रहने के बावजूद और नाटकों में इतनी दिलचस्पी होने पर भी उसे यह मालूम न था कि टैगोर हाल भी कोई जगह है जो एस पी काॅलेज से ज्यादा दूर भी नहीं और वहां नाटकों का मंचन होता है। शहर के नामी गरामी नाटकार, कलाकार, वहां एकत्रित होते हैं। नाटकों का यह बहुत बड़ा प्रदर्शनी स्थल है। यहां आपके शहर के नामवर एक्टरों को स्टेज पर जीता-जागता अभिनय करते देख सकता है और उनसे मिल भी सकते है। जाहिद की इस बात की पुष्टि तेज-तिक्कू और अशोक जाफरानी ने की-तेज तिक्कू गांधी काॅलेज का स्टूडेंट था और एस.पी. काॅलेज यारों से मिलने-जुलने आता और अशोक जाफरानी सीनियर स्टूडेंट था। काॅलेज छोड़कर वह हिन्दी लिट्रेचर में एम.ए. करने का विचार रखता था। चारों दोस्त इस तरह से किसी न किसी रूप से लिट्रेचर और नाटकों से जुड़े थे। शहर में काफी हाउस बुद्धिजीवी लोगों के उठने-बैठने का एक बहुत ही सक्रिय स्थान था-यहां नई और पुरानी पीढ़ी एक-दूसरे से हमकलाम होती। यहीं शहर के राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल की नब्ज का अंदाजा होता। बैरों की भाग-दौड़, काफी के दौर, कभी न खत्म होने वाली बहसों के सिलसिले, यह एक तरह से मधुमक्खियों का भिन्नभिन्नाता छज्जा-सा लगता। अक्सर लोग शाालीनता में सजे-धजे यहां अपना लोहा मनवाने की होड़ में जुट जाते-यह एक आत्मीय स्थल भी था-यहां पर रेजीडेन्सी रोड का मशहूर बाजार था-जो शहर की रौनक और जनून था-पास के सिनेमा हाल और वुमन-काॅलेज में पढ़ने वाली खूबसूरत लड़कियां-इसे कश्मीर का पेरिस कहने को मन करता-दिलकश अंदाज और दिलफरेब नजारे...नौजवानों का मेला...यहां से गुजरते कभी कोई अदंाजा भी न करता कि कश्मीर में एक नासूर पल रहा है... जो इसे एक दिन नरक के गर्त में डालने को सक्रिय है।-------------------------------------------------------रंगमंच की ओर
अशोक और उसके दोस्त काॅलेज से निकल कर यहीं शाम को इकट्ठा होते। जाहिद खाते-पीते कश्मीरी शिया परिवार से था। सब दोस्तों में सिर्फ उसके पास स्कूटर था। पर वह स्कूटर किसी दुकान के सामने खड़ा करके अपने मित्र मंडली के साथ हो लेता-शुरू-शुरू में सब यार काफी हाउस में बैठते...पर रोज ही जाहिद से काफी के पैसे चुकाना किसी को मंजूर न था-तय किया गया कि सब पैसे ‘पूल’ करके काफी पिएंगे। इस तरह कुछ समय और यहां आना जाना लगा रहा-शहर, घर, दुनियां में क्या हो रहा है, यहां इस पर विचार होता-अशोक और उसके मित्र दुनियां की राजनीति से अधिक दुनियां के नाटकों पर बात करना पसंद करते। अशोक के मन में अनन्तनाग में देखी लड़की का अहसास अभी दबा नहीं गया था। पर इस अहसास को वो अपने दोस्तों के साथ नहीं बांटता। हर दोस्त उसे अपनी कुछ-कुछ सच्ची-झूठी प्रेम कथा सुनाता और उससे ऐसा वाकई सुनने की उम्मीद करता पर अशोक ने कभी इस बात को किसी दोस्त पर जाहिर नहीं होने दिया-वह चुपचाप घंटों उस लड़की की तस्वीर को आंखें बंद करके निहारता-उसे महसूस करता। उसके मन में सहसा विचार आता क्या वो भी कहीं मेरे बारे में ऐसे सोचती होगी। हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है अब तक उसे कोई मिल भी गया हो।अशोक जाफरानी अशोक जेलखानी से एक-दो श्रेणी आगे है और उमर में भी एक-दो वर्ष अधिक है। इसलिए जाफरानी का रवैया जेलखानी के साथ बड़े भाई जैसे है। जाफरानी जो अशोक की मासूमियत, साधा मिजाजी और शराफत के कारण इस बात से, चिंतित था कि कहीं इसे कोई गलत साथ न मिले और यह गुणवान व्यक्ति गलत राह न जाए, एक संरक्षक-सा अशोक के साथ बना रहा। जाफरानी के घर में थियेटर का महौल उसके चाचा जी हृदय नाथ गुरूटो के कारण था-हृदय नाथ गुरूटो कश्मीर के एक लाजवाब स्थापित स्टेज, रेडियो अभिनेता थे। अशोक जाफरानी का इस कारण टैगोर हाल में नाटक देखना वाजिब था-यही नहीं, बचपन से घर वालों के कम दखल के कारण और घर में आजाद वातावरण के कारण उसे कहीं आने-जाने पर अधिक पूछताछ भी न थी-उसके पिताजी हालांकि इस बात का पूरा धयन रखते कि अशोक जाफरानी (कुका) कहीं गड़बड़ी तो नहीं कर रहा। पर स्वच्छन्द और स्वतंत्रता का सदोपयोग अशोक जाफरानी को अच्छा आता था। वह एक तरह से अपनी म्येच्यूरिटी को अच्छे से दर्शाता। काफी हाउस में बैठे लोगों को वो बैठे ठाले कहता-पर काफी हाउस जिसे इंडिया काफी हाउस के नाम से जानते है, ही मिलने-जुलने का केंद्र था। शहर का हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति यहां किसी न किसी रूप से जुड़ जाता।नाराज और हारे हुए राजनीति में असफल रहे लोग यहां आकर जुनूनी बन जाते। लिट्रेचर में हाथ-पैर मारकर बहुत कम या कुछ भी हासिल न कर पाए व्यक्ति, मिलकर कामयाब कहे जानेवाले लोगों की बखिया उधेड़ते रहते। लेकिन आपाधापी के इस माहौल में जीवन का एक कटु सच झलक रहा था। कश्मीर के वातावरण खासकर राजनीतिक वातावरण में सबकुछ सही नहीं हो रहा है।भाई-भतीजा वाद, रिश्वतखोरी, साम्प्रदायिकता और लूट-खसोट के आधार पर कुछ लोग अपार धन-सम्पति कमाने में सफल हुए। सरकारी ठेके और धांधलियों के रिकाॅर्ड तो़ कुचक्रों से एकाकएक लोग दौलत बटोर रहे थे। चरस की खेती और कारोबार फल-फूल रहा था। कोई रोक नहीं... इस अचानक आए परिवर्तन से मूल्यों में तेजी से गिरावट आ रही थी। पारिवारिक और सामाजिक मूल्य बहुत तेजी से गिर रहे थे। नौजवानों में इस माहौल से बेकारी और बेकरारी फैल रही थी।जाहिद, कुका (अशोक जाफरानी) तेज तिक्कू और अशोक (काका) भी नवजवान थे। सादिक के पश्चात् मीर कासिम ने कश्मीर के सी एम का पदभार संभाला था।केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और राज्य में भी कांग्रेस की सराकार ही थी। इन्दिरा गांधी कश्मीर के दौरे पर आई थीं।अपने पिता की तरह वह भी शिकारे में बैठकर झेलम नदी के रास्ते सारे शहर का दौरा कर रही थी। अशोक को धुंधली-सी याद ने घेर लिया-अपनी मासी चूनी जी की गोद में वह झेलम के तट पर जवाहर लाल नेहरू की प्रतीक्षा अपार भीड़ में कर रहे थे, जब नाव पास आई तो नेहरू जी की नाव किनारे के बहुत करीब से गुजरी थी... जब अशोक ने नेहरू जी को वेव किया था और नेहरू जी बहुत करीब आकर उसका गाल सहला गए थे।बचपन की सुन्दर यादों को ताजा करती तह-ब-तह यादें जमा हो रहीं थी। कश्मीर की राजनीतिक उठा-पठक में 60 के दशक के बाद अब स्थायित्व और अमन-चैन का दौर चारों तरफ विद्यमान था। लगता था कश्मीरी मुसलमानों का पाकिस्तान समर्थक टोला कहीं इतिहास की तहों में दबकर विलीन हो गया है। पैसे और धनिक तबके के रौबदार उत्थान के बावजूद सरकार की लोकसमर्थक नीतियों के कारण लोगों में आशा बाकी थी। स्वास्थ्य, शिक्षा और खेती में क्रांतिकारी उन्नति का पथ प्रशस्त लग रहा था। सूखे और सैलाब से अब वो कहर न ढलता, जो पहले पहल आम था। निम्न वर्ग के पढ़े-लिखे नौजवान भी नौकरियों में ऊंचे पदों तक पहुंच बनाने लगे थे।किन्तु कश्मीर के जनमानस में जिस व्यक्ति केंद्रित शक्ति की पूजा का एक मूक निमंत्रण सर लारेंस ने अपने दौर में दर्ज किया था, वह कश्मीरियों की मानसिकता में यथावत बना हुआ था। लोकशाही को बार-बार शासक की व्यक्गित कुशलता से आंकना उनकी जैसे आदत बन गई है। इन्हें लोकतांत्रिक रूप से बनाई सरकार में भी व्यक्ति केंद्रित पार्टी को श्रयेस्कर मानने का ही जज्बा भरा हुआ था। जवाहर लाल नेहरू इस बात को भली-भांति समझते थे, इसीलिए हमेशा ऐसे व्यक्तियों की खोज में रहते जिसे धुरी बनाकर कश्मीर के रथ को हांक सकते। पर यही रवैया शायद कहीं आत्मघातक सिद्ध होने वाला था। जवाहर जी के मन को यह बात सदा कुरेदती थी कि शेख अब्दुल्ला को बिना किसी संगीन अपराध के आखिर कितनी देर जेल में रखा जा सकता है? इस बात से अपने जमीर को साफ रखने के लिए उन्होंने शेख को एक मौका दिया था। उसे सलाखों से आजाद घूमने दिया था-वे पाकिस्तान गए और वहां उनका भव्य स्वागत हुआ। वे कश्मीर के मसले को हमेशा के लिए हल करना चाहते थे-पर शायद दैवी इच्छा कुछ और थी-27 मई, 1965 को जवाहर जी की मृत्यु हो गई और सबकुछ ठप हो गया।इन्दिरा गांधी को जय प्रकाश नारायण इसी बात का बार-बार स्मरण दिलाते। उनका मानना था कि 1971 के बाद शेख अब्दुल्ला की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। बंगलादेश एक हकीकत बन चुका है और धर्म के नाम पर बना देश क्षेत्र के नाम पर और सांस्कृतिक दूरी के नाम पर बंट गया। शेख का मन परिवर्तित हुआ था-जयप्रकाश नारायण ने इन्दिार गांधी से शेख का समझौता कराया-पाकिस्तान को दरकिनार कर शेख इन्दिरा अवार्ड, अमल में लाने की प्रक्रिया तेज हुई। 1971 के बंगलादेश युद्ध ने भारत की पोजीशन मजबूत कर दी थी-पाकिस्तान बुरी तरह हार चुका था- पाकिस्तानी जनरल निपाज़ी ने अपनी फौज समेत भरतीय जनरल मानिक शाह के सामने घुटने टेक दिए थे। 90 हजार से अधिक युद्धबंदी भारत की जेलों में पहुंच गए थे। कश्मीर में पाकिस्तानी हामियों का टोला गिद्धों की तरह अपने टिकानों में छिपते नजर आते थे। कश्मीर ने इस दौर में सचमुच आजादी की सांस लेनी शुरू की थी। हर तरफ खुली फिजा महक उठी थी। सैलानियों का चारों ओर बहाव था और अशोक का मन कुछ कर गुजरने की उमंग से भरा था। देश के नवजवानों को युद्ध की जीत से एक आत्मविश्वास का अनुभव हो रहा था। अभिव्यक्ति को बल मिल रहा था और इस वक्त चुप रहना एक अपराध होता-अशोक ने अपनी मित्र मण्डली के साथ नित्य मिलने का कार्यक्रम बनाया-टैगोर हाल में किसी कश्मीरी वैरायटी शो का मंचन हो रहा है, यह खबर जाफरानी ने अशोक को सुनाई-इस शो को देखना तय हुआ-किसे मालूम था कि इस पहले शो को देखते ही अशोक के जीवन में एक विचित्र मोड़ आएगा, जो उसे उम्र भर के लिए इसी क्षेत्र में अग्रसर करेगा। चारों दोस्तों ने काॅफी हाउस में मिलने के बाद टैगोर हाल में ‘माखन लाल सराफ’ का शो देखने का फैसला किया। हाल में दाखिल होने पर अशोक जेलखानी को पहली बार थियेटर में बैठकर दर्शकों के साथ कश्मीरी शो देखने का अवसर मिला था- ष्षो कितनी देर चलेगा’,उसे एकाएक ख्याल आया और अशोक जाफरानी से पूछा। चलो निकलते हैं... घर चलते हैं, जाफरानी ने बहुत बेरूखे होकर जवाब दिया-क्यों तुम घर में कहकर नहीं आए? जाहिद ने बहुत सहजता से पूछा-अशोक को लगा कि शायद उसे यह बात नहीं पूछनी चाहिए-दोस्त समझेंगे कि मैं अभी घर वालों की उंगली पकड़ कर ही चल रहा हूं। पर उसे यह भी चिंता हो रही थी कि तनिक भी देर होते घर में पिताजी और दादी काफी चिंतित हो जाते हैं। चाचा जी जानते हैं कि मैं अब दोस्तों के साथ कुछ समय काॅफी होम में बिताता हूं, क्यांेकि कई बार उन्होंने यहां मुझे काॅफी की चुस्कियां लेते जाहिद और अन्य मित्रों के साथ देखा है। अशोक ने ज़ाहिद की बात का जवाब नहीं दिया और चुपचाप नाटक शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही देर में हाॅल की सारी लाइटें बुझा दी गईं और हाॅल में घुप्प अंधेरा हो गया-अंधेरे के साथ एक गहन सन्नाटे को चीरती... नाटक आरंभ होने की घोषणा सुनाई देने लगी। अशोक का दिल धड़कने लगा। वह न जाने किस अतिरिक्त उमंग से भर गया। धीरे-धीरे स्टेज पर टंगा लंबा काला पर्दा दोनों ओर से खुलने लगा और नाटक आरंभ हुआ-अशोक ने हर पहलू पर ध्यान देना आरंभ किया, उसे अनन्तनाग में खेले गए भाण्डों के नाटक की तुलना में यह नाटक ओहा-पोह से भरा और कहानी की गतिशीलता में शिथिल नजर आया। इसमें जीवन की वास्तविकता को अतिनाटकीय ढंग से प्रस्तुत करने की सायसता थी। अशोक सोचने लगा कि यह तरीका बहुत परंपरागत पारसी थियेटर के ओहा-पोह से मिलता है, जो वे शिवाला में अपने मामा जी इन्दू भूषण के साथ देखने जाता। अचानक स्टेज की लाइटों के प्रकाश में आधे प्रकाशित आॅडिटोरियम में उसने इन्दू जी को भी अगली कतार में बैठा देखा। इन्दूभूषण, अशोक जेलखानी से सिर्फ तीन-चार साल बड़ा है। वहीं अशोक को थियेटर के बारे में बहुत बातें कहता-उसे थियेटर और संगीत से काफी लगाव है और उसने अपने लिए एक बेंजू भी खरीद लिया है। वह नाटकों में पार्शव संगीत के लिए कई वाद्य भी बजाता है। उसे देखते ही अशोक का मन आश्वस्त हुआ कि यहां आकर कोई गलती नहीं की है उसने, क्योंकि घर में पूछे जाने पर वह कह सकता है कि इन्दू मामाजी भी तो वहां थे। खैर! नाटक ‘मांगेय’ का एक बहुत अच्छा प्रभाव यह हुआ कि अशोक ने माखन लाल सराफ का नाटक ग्रुप रंमंच विधिवत ज्वाइन करने का मन बनाया-उसने अपने मित्रों से कहा कि वे भी इस बात पर सोचे...चारों ने रंगमंच जाना तय किया... रंगमंच में इस समय पहले ही बहुत कलाकार काम कर रहे थे-जिनमें मक्खन लाल सराफ, बन्सी भट्टू, जवाहर वान्चू, बन्सी रैना, अशोक जालपुरी, शिब्बन, मंजू... बिहारी काक, रत्नलाल रैना, ब्रज किशोरी, बशीर मंसूर और आलोक ऐसे सब स्थापित कलाकार थे। इनमें से ब्रजकिशोरी एक ऐसी महिला कलाकार थी, जिसकी ख्याति और सफलता ने कश्मीरी महिलाओं को स्टेज और रेडियो नाटकों में भाग लेने के लिए उत्साहित और प्रेरित किया। हालांकि ब्रज किशोरी से पहले कश्मीर की एक बहुत ही क्रांतिकारी महिला ब्राडकास्टर शांता कौल ने बन्दूक उठाकर कबाइली हमलावरों से लोहा लेने की ठानी और इसी जज्बे के साथ ब्राडकास्टिंग से जुड़ी-इनकी आवाज ने दर्जनों महिलाओं को स्टेज और रेडियो से जुड़ने के लिए प्रेरित किया-एक नई पीढ़ी जिसमें आशा जारू, भारती जारू दोनों बहिन अग्रिम कतार में सामने आई। स्टेज के साथ जुड़ गई-भारती जारू एक मंजी हुई और खूबसूरत अदाकार साबित हुई -यही भारती रंगमंच में बैठी थी-जब अशोक जेलखानी, जाफरानी और तेज तिक्कू ने रंगंच के दरवाजे पर दस्तक दी, तीनों ने सोचा भी न था कि एक निहायत खूबसूरत और बेबाक लड़की दरवाजा खोलकर उनका स्वागत करेगी। अभी तक इस लड़की को सारे शहर में अभिनेत्री के रूप में कोई नहीं जानता था। यह भी इन तीनों ही की तरह रंगमंच में दाखिला लेने आई थी।
कैसा मक्खन जैसा मुलायम है तू... रहता कहां है, लगता है आते-जाते तुझे मैं देखती रही हूं।’ ब्रज किशोरी अशोक की थाह ले रही थी-वह ऐक्टर बनने आया है या यूं ही राह चलता सूंघ कर जाने वालों में से है। अशोक ने जवाब दिया कि वो उसे जानता है और यह भी जानता है कि वह कितने भाई-बहिन है। जाहिर है छोटा-सा शहर है और इस छोटे से शहर के छोटे से कोने में तो सिमट गए हैं हम सब। ये तुम्हारे दोस्त हैं-- ‘हां’ अशोक ने अपने दोस्तों का परिचयन कराया और वहां उपस्थित सब कलाकारों ने अपना परिचय दिया-अशोक ने उन्हें यह भी बताया क उसने और उसके दोस्तों ने उनका शो देखा और पसंद किया-हालांकि अशोक की राय कुछ और थी पर वह यह अभी किसी पर जाहिर नहीं करना चाहता था, क्योंकि अभी तो उसने इस क्षेत्र में कदम भी नहीं रखा था। वह अभी से अपनी राय देता तो उसे शायद ही कोई पसंद करता, क्योंकि नाटक के विषय में उसकी राय बहुत अलग थी, जिसे जानकर वहां बैठे कलाकार ज़्यादा खुश न होते। इन्हीं बातों के चलते सराफ साहब यनी माक्खन लाल सराफ भी आए और इन लड़कों के आने का कारण जान गए। एक रजिस्टर निकाल कर उसमंे से एक, एक पेज का टाइप किया गया फार्म निकाला गया-फार्म टाइप करके किसी सरकारी दफ्तर से ‘साइकलोस्टाइल’ कापी किया गया था-फार्म की कीमत और मेम्बरशिप फीस मिला कर पांच रुपए बनते थे। ज़ाहिद के बगैर किसी की जेब में फालतू के पांच रुपए न थे। ‘सराफ’ साहब ने फार्म भरवा लिए और मेम्बरशिप दो किस्तों में देने की छूट थी। रंगमंच का मेम्बर बनकर अशोक और उसके दोस्त खुश हो गए। अब सभी को अगले नाटक के मंचित होने की प्रतीक्षा थी। अगला नाटक शुरू होते ही सबको रोल मिलेंगे। पर यह सब इतना असान न था। साल भर यहां आते रहने की क्रिया थी। कब कोई नाटक हाथ लगे, तब जाकर उसकी कास्टिंग हो, तब रोल मिले। चारों दोस्त बहुत उतावले हो रहे थे। रंगमंच की रोज़ाना बैठकों मंे जाकर... दोस्तों का दायरा बढ़ रहा था। इस मंडली में एक से बढ़कर एक सूरमा कलाकार था। सो इन चारों दोस्तों को सबसे जूनियर जानकर अभी फालतू के कामों में लगाया जाने लगा। कोई भी सीनियर कलाकार किसी भी काम के लिए इन्हे दौड़ाने लगे। कभी बोतल में पानी भरना है तो कभी चाय के झूठे कप धोने हैं, कभी बाज़ार से पान, सिगरेट और पकौड़े व नदरमुंजिपा लानी है। काफी समय यही करते हुए जाहिद तंग होने लगा। वो सिर्फ अपने दोस्तों का मन रखने की खातिर ही अब यहां तक आता-शाम होते, कुछ लोग गिलास और बोतल-लेकर पकौड़ों और नंदमुजियों के साथ, बियर या व्हिस्की के जाम भी लगा लेते। अशोक के मामाजी इन्दूभूषण को इस बात का पता चला कि अशोक ने रंगमंच जाना शुरू किया तो वह भी रंगमंच पर आने-जाने लगा-उसे यही चिंता थी कि कहीं उसका भांजा, कोई गलत राह न पकड़ ले। पर मंच और नाटक से जुड़ना उसे कभी गलत न लगता-बात घर तक पहुंच गई-अब अशोक की जवाबदेही का समय आ गया था। शाम को देर से घर लौटने के उसे कई बहाने सुझाये गए। पर जब चाचाजी चुन्नी लाल ने एकदम पूछा कि तुम क्या वहां नाटकमंडली में बैठे रहते हो तो अशोक ने हठात जवाब दिया ‘हां’ और कौन होता है तुम्हारे साथ?’ मैं, ज़ाहिद, अशोक जाफरानी और कई कलाकार आते हैं, वहां कुछ दिनों में वे लोग पुषकर भान जी और सोमनाथ साधू जी का रेडियो नाटक ‘ग्रेंड रिहर्सल’ शुरू करेंगे, मुझे भी उसमें रोल मिलेगा।’ ‘तो क्या तुम एक्टर बनना चाहते हो!’ कुछ देर चुप रहने के बाद अशोक कहने लगा, ‘ऐक्टर बनना कुछ बुरा तो नहीं।’ ‘नहीं बात बुरे-भले की नहीं हो रही है, बात यह है कि तुमने यह ऐक्टिंग में जाने का मन बनाया है या यूं ही हाॅबी के तौर पर कल्ब ज्वाइन किया है?’ अशोक ने इस विषय मंे इस तरह कभी सोचा नहीं था-उसका मन एक अनायास रूप से थियेटर की तरफ खिंचता गया था-जैसे अनन्तनाग की लड़की की तरफ मन दौड़ने लगा था, कुछ इसी प्रकार अब थियेटर से लगाव होने लगा था। पात्रों के चरित्र बनकर वह भी स्टेज पर आना चाहता था-उसमें भी कला की क्षमता ठाठे मारती नज़र आ रही थी- पर अभी जो प्रश्न उत्पन्न हुआ था, वह गंभीरता से पूछा गया था और इस प्रश्न का जवाब दिल से नहीं दिमाग और विवेक से ही दिया जाना था। ‘फिलहाल तो हावी है, पर इसे कैरियर भी तो बनाया जा सकता है।’ अशोक के इस जवाब से चाचाजी कुछ हद तक संतुष्ट हुए बोले, ‘ठीक है, एक बात ध्यान से सुनो जीवन में जो भी करना चाहो, उसे खूब समझदारी, ईमानदारी, मेहनत, लग्न से करते हुए कोशिश करो कि तुम इसे बेहतर और सही ढंग से कर पाओ, किसी भी काम की कामयाबी का राज़ उस काम को करने वाले व्यक्ति मे निहित होता है, यह कभी नहीं भूलना, इसलिए जो कुछ भी करो... सोच-समझ कर गहरी सूझबूझ से करना।’ अशोक को लगा कि मामला संगीन है। यह महज़ तफरीह की या षगल की बात नहीं, अपितु एक ज़िम्मेदारी का काम है। वह काफी रात गए तब इस बारे में सोचता रहा, वह नाटकों के इस संसार में क्यों जा रहा है। उसकी सोच ने जड़ पकड़नी शुरू की, उसे अहसास होने लगा कि, यह महज़ समय बिताने वाली बात नहीं, ना ही यह मौज़-मस्ती के लिए यार दोस्तों के साथ कुछ खेल, खेलने वाली बात है। यह बात मनुष्य के जीवन से जुड़ी है। उसके सारे व्यक्तित्व से जुड़ी है उसके सारे भविष्य से जुड़ी है। उसे बहुत कुछ जानना और सीखना होगा। इस काम को अवसरों की उपलब्धता पर नहीं छोड़ा जा सकता-अवसर स्वयं उत्पन्न करने पड़ेंगे। चाचाजी के शब्दों ने सोच की कई धाराओं को एक साथ प्रवाहित किया-वह यह सब ज़ाहिद के साथ बांटना चाहता था- ज़ाहिद एक कुलीन और प्रतिष्ठित सरकारी प्रशासनिक सेवारत आफीसर का बेटा है। उसका जीवन पहले से काफी ढर्रे से चल रहा है। वह कश्मीर आर्ट्स एम्पोरियम में असेस्टेंट मैनेजर है और उसका कैरियर निश्चित है। जाफरानी भी युनिवर्सिटी में एम.ए. कर रहा है। जालपुरी भी नौकरी कर रहा है... मैं...? अशोक सोच में पड़ गया-सारी मित्र मंडली में वह ही अकेला आदमी है, जो अपने भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता। क्यों? शायद इसलिए कि अभी उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है... अभी ग्रेजुएशन के दो साल बाकी है, अभी से इस विषय में इतनी चिंता करना ठीक नहीं। अशोक ने संसार में थियेटर के उद्भव और विकास के बारे में सोचना और जानना आरंभ किया-दोस्तों से लाइब्रेरी से चाचाजी से जहां से भी बन पड़ा पुस्तकें मांग कर पढ़नी शुरू की। भारत की ही तरह यूनान, फ्रांस, रूस और समस्त यूरोप का अपना थियेटर है। रंगमंच में नाटक अब जल्द ही खेलना शुरू हो रहा था। माखन लाल सराफ इस नाटक का निर्देशन कर रहे थे। नाटक ग्रेंड रिहर्सल ही ज़ाहिद सरकारी नौकरी में था और घर से भी अच्छा खाते-पीते घटाने का था इसलिए उसके पास इस बात की अधिक चिंता नहीं थी कि उसे कब को करना क्या है? अशोक और ज़ाहिद में बहुत पटती थी क्योंकि ज़ाहिद बौद्धिक परिपक्वता से भरा था और कभी बेकार की बातें नहीं करता था। उसका चुना गया। इसे पुष्कर भान और सोमनाथ साधू जैसी दो महान रेडियो के नाटकारों ने रेडियो के लिए लिखा था, यह वर्तमान नजवान पीढ़ी पर लिखा गया नाटक था और इसीलिए इसमें काफी सारे नौजवानों की आवश्यकता थी। इस नाटक में माखनलाल सराफ स्वयं प्रोफेसर की भूमिका और ब्रजकिशोरी ने प्रोफेसर की पत्नी की भूमिका निभाई। नाटक के रिसर्हसलों से लेकर नाटक के मंचन तक जिस अनूठी प्रक्रिया से अब तक चारों मित्रों को गुज़रना पड़ा, वह कड़ी परीक्षा से कम न थी। बात-बात पर तथाकथित सीनियरों ने झिड़कियां सुनाई, हर जगह के छोटे-बड़े काम कराए और ऐसा अहसास दिलाया कि अभी उन्हें इस क्षेत्र में मातहत रहकर काम करके ही किसी अच्छे रोल की कभी अपेक्षा करनी होगी। इस नाटक के प्रदर्शन पर हाॅल में दर्शकों की खासी मौजूदगी थी-शहर के बड़े-बड़े लेखक, नाटककार, रंगकर्मियों के अतिरिक्त स्वयं नाटक के लेखक पुष्कर भान और सोमनाथ साधो भी नाटक देखने पधारे थे। अशोक ने पाश्र्व विंग से दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों में श्री प्राण किशोर और उनकी पत्नी श्रीमती शांता कौल को भी देखा। आज इन सब हस्तियों के सामने वह स्टेज पर पहली बार अपनी कला का प्रदर्शन करेगा, पर क्या कोई उसे नोटिस करेगा। बहुत सारे नौजवनों में एक नवजान की भूमिकमा उसे भी मिली है। यूं तो संवाद बहुत हैं, पर इन संवादों से किसी पात्र विशेष का चित्रण नहीं हो रहा... खैर। भूमिका तो है, निभानी है। अशोक और अन्य कलाकारों ने इस नाटक का सफल मंचन किया। सभी दर्शकों ने जगह-जगह तालियों से भी कलाकारों को प्रोत्साहित किया... परंतु अशोक के मन में इस बात की कमी खटकती रही कि इस नाटक के मंचन में अतिरिक्त कृत्रिमता से संवाद बुलवाये गए। अति नाटकीयता और ओहो-पोह का सहारा लिया गया। जाहिद ने इस नाटक में कोई भूमिका नहीं की थी। उसने बैक स्टेज का काम हाथ में लिया था। किन्तु ऐन मौके पर वह बैक स्टेज के काम से निवृत किया गया, सो उसने दर्शकों में जाकर अपने मित्रों के अभिनय कौशल को परखा-उसकी राय अशोक से बहुत मिलती थी-नाटक में बनावटीपन कतई नहीं होना चाहिए यह एकदम रियल टु लाइफ लगना चाहिए... अभी इन बातों को समझने का काफी समय था।-------------------------------------------------------------- प्रयोगी रंगकर्म
जाहिर है कि मखन लाल सराफ, पुरानी पारसी थियेटर परंपरा और उभरती आधुनिक नाटक परंपरा के संक्रमण काल में खड़े नाटककार थे और अशोक जेलखानी व उसके मित्रगण आधुनिक काल के बिलकुल द्वार पर प्रविष्टि के लिए तत्पर थे। उन्हें नाटक की संकलनत्रैयी में बाधक तत्वों को बिलकुल खारिज करने की जरूरत महसूस हो रही थी। अशोक का मत था कि दर्शक पहली नज़र में कुछ देर के लिए सेट के वैभव से प्रभावित होता है, पर जब नाटक संवादों के माध्यम से और पात्रों के अन्तःसंबंधों की निबाघ प्रक्रिया को पकड़ लेता है, तो सेट पर से आप वस्तुएं गौण रूप धारण करके दर्शक के दिमाग से उतर जाती हैं। इसलिए स्टेज पर दर्शक के लिए पात्रों का अभिनय अतिविशिष्ट हो जाता है। दर्शक पात्रों के क्रियाकलापों से जुट जाते हैं, उनको पात्रों के चरित्र, वाक्य, ध्वनियां पकड़ लेती हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं रहती कि राजा सिंहासन पर है या खड़ा... वे उसके अभिनय और तात्पर्य पर अधिक ध्यान देते हैं। दर्शकों के मन से मंच सजा दो मिनट में गायब होती है। इस मंच सजा को दिखाना आवश्यक है क्या? यह प्रश्न अशोक के मन में कौंध उठा-उसने प्रतीकों में सोचना शुरू किया-उसे भाण्डों के वे नाटक स्मरण हुए जो खुले में सैंकड़ों लोगों के बीचों-बीच खेले जाते। अशोक जम्मू-कश्मीर में नाटक की दशा और दिशा बदलने के विचारों से ओत-प्रोत हो रहा है, यह शायद उसे खुद भी पता न रहा हो पर हुआ ऐन ऐसा ही। एक नौजवान लड़का जम्मू-कश्मीर के मंच पर तूफानी परिवर्तन लाने के विचारों से जूझ रहा था-उसे दर्शक को प्रभातिव करने, और बांधे रखने के लिए सम्प्रेषण को एक अलग स्वरूप प्रदान करना पड़ेगा। स्टेज पर नाटक खेलते हुए प्रकाश और ध्वनि प्रभाव से बहुत हद तक समय और स्थान के संक्रमण को दर्शाया जा सकता है। बाहरी आडम्बर जैसे स्टेज पर माहौल पैदा करने के लिए पर्दों, प्रापर्टी और मलबूसे को त्याग कर दर्शकों के माइंड में पहले से उपस्थित विचार-अनुभव आधारित चित्रों को प्रतीकों से सजा करके उन्हें उन चीज़ों के मंच पर उपस्थिति का आभास मात्र देकर उन्हंे शेष नाटक से जोड़ना-यह बहुत जोखिम का खेल था-इसे सुनने और इस पर विश्वास करने को शायद ही कोई तैयार होता-पर अशोक को सुषुप्त यादाशत अर्थात् ‘सबकांषेस मेमोरी’ पर यकीन था। वह जानता था यह संभव है। उसने अपने दोस्तों को विश्वास में लेकर एक नाटक के इसी पद्धति पर खेलने की प्रक्रिया प्रारंभ की। इसी सोच ने वसंत थियेटर की एक तरह से नीव डाली-अषोक का कहना है कि ‘वसन्त थियेटर में हमने एक नाटक (भंगो) बाबा डिके द्वारा लिखा शुरू किया-यहां तक जाहिद ने और अशोक ने इकट्ठे उसका निर्देशन किया। मैं मैन रोल कर रहा था-यहां तक इस समय तक, (यह नाटक कलाकेंद्र ने पहले भी किया था) सबने हमारी तारीफ की। यहां तक मैंने कुछ भी जानकारी किताबों से नहीं ली थी-इसके प्रदर्शन के बाद प्राण किषोर जी ने मुझे नाटकों के क्राफ्ट पर एक पुस्तक भेंट की। मुझे पता चला कि बिना किसी जानकारी के भी मैंने आत्मज्ञान से ही सारी तकनीकी बातें अपने नाटक में शामिल की थी। यह बहुत दिलचस्प था। जाॅफरानी ने कश्मीर युनिवर्सिटी में लाइब्रेरी से काफी हिन्दी और मराठी नाटकों के हिन्दी अनुवाद छांट रखे थे। डाॅ. रमेश कुमार शर्मा अध्यक्ष हिन्दी विभाग ने उसे एक लंबी सूची लिखवाई थी, जिसमें इन नाटकों का जिक्र था। जाॅफरानी ने अशोक को यह नाटक पढ़ने के लिए दिए और कुछ खुद भी पढ़ रहा था। मन काफी विषय केंद्रित होता-वह विषय से भटकता नहीं। जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदलने जा रहा था। साद्धिक साहब की हुकूमत के बाद मीरकासिम को इंडियन नेशनल कांग्रेस की तरफ से कश्मीर का सीएम बनाया गया। कासिम साहब दूर देहात के रहने वाले थे। उनकी राजनीतिक सोच काफी परिपक्व थी। उन्होंने गांव का होने के कारण कश्मीर में आंतरिक गांव के किसानों, मज़दूरों और आम लोगों की बेहबूदी के लिए सोचना शुरू किया-उनके दौर में गांव के लोगों को पहली बार लगा कि उनकी बात को भी बल मिल रहा है। हालांकि शहर में रहने वाले इलीट तबके को मीर कासिम का सीएम होना अखर रहा था और उनको लग रहा था कासिम गांव के लोगों और गांव के हित ही अधिक वरीयता पर रखते हैं। वास्तव में यह सब कोरा बकवास और प्रलाप के सिवा कुछ ना था। कश्मीर की राजनीति में हर तरह के हथकंडे एक-दूसरे के विरुद्ध अपनाने का एक सार्वभौमिक और सार्वकालिक सिद्ध शस्तर है। कभी यह गांव-शहर कभी हिन्दू-मुसलमान, कभी भारत-पाकिस्तान और कभी क्षेत्रीय भाषायी और यहां तक कि खानदानी रसाकशी के अंतविरोधों को शह देकर उभारा जाता-इसके नतीजे में इसके कवर में पल रही नितान्त रिशवतखोरी, कालाबाजारी, चरस की खुलेतौर स्मगलिंग और ब्लैकमनी व काले करतूतों पर आसानी से पर्दा पड़ा रहता- अशोक की नज़र अपने इर्द-गिर्द घटित होते रोज के इस महानाटक से नहीं हटती। वह समाज में पल रहे नाटकीय तत्वों के प्रभावों से अतिशय रूप में प्रभावित महसूस करता-उस अमर में जब उसके अन्य दोस्तों का समय रीगल चैक में ज़नाना काॅलेज के सामने लड़कियों को काॅलेज से आते-जाते देखने में व्यतीत होता, जब लड़कियां हजूम में काॅलेज के गेट से निकलती लगता किसी फंुवारे का फुलड गेट खुल गया और सफेद पानी के झरने फूटने लगे... खूबसूरती में लाजवाब सुंदर लड़के, लड़कियां हमेशा एक दूरी बनाए वहां टहलते, भटकते निकलते, सामने रीगल सिनेमा में बारह चार के शो में कई लड़के, लड़कियां छिपकर अक्सर प्रेम की फुहारों का रसास्वादन भी करते पर अशोक का मन इन बातों से हटकर जीवन के कुछ गंभीर प्रश्नों के अर्थ खोजने में लगा रहता। जीवन का ध्येय क्या है? हमारे होने का मकसद क्या है? यह प्रश्न शायद हर वयस्क होते किशोर के मन में किसी-न-किसी स्तर पर कहीं-न-कहीं कौंधता है। हम अगर हैं तो क्यों हैं? कश्मीरी मनीषयेां, मुनियों, ऋषियेां ने जीवन की इस रहस्यमय गुत्थी को सुलझाने के अनेक प्रयत्न किए और इसके नतीजे में एक मानवपरक बन्धुत्व से भरपूर जीवन की पद्धति को जन्म दिया। कहीं यह बुद्धमत, कहीं शैवदर्शन, कहीं इस्लाम कहीं अन्य धार्मिक विश्वासों के मूल में छिपे मानवतावादी संदेशों को समेट कर अपने जीवन में डालने का प्रयत्न किया। कठिन प्राकृतिक स्थितियों में रहने के अध्यव्यवसाय ने कश्मीरियों को जीवन के सत्य के अधिक निकट पहुंचाया था। वे जीवन के रंगों, अंगों की अच्छी व्याख्या कर पाते-इसी अनुभूति को आधार मानकर इन्होंने जीवन को परिष्कृत आनंद को सबसे ऊंचा स्थान दिया था। जीवन को अध्यात्म के करीब ले जाकर इसी आनंद को प्राप्त करने का जरिया बनाया था। पर जितना कश्मीरी जनता, जीवन को जटिल से सुगम बनाने का प्रयास करते, उतना उन पर अनेकों प्रकार से बाहरी और भीतरी राजनीतिक, सामाजिक उथल-पुथल के कारण उपजी स्थितियों और विद्रूपों का सामना करना पड़ा। अशोक को इतिहास में अधिक आनेवाले कल के सुनहरे सपनों में खोने में अधिक आनंद आता-वह अपना पथ प्रशस्त करके अपने आपको इस प्रकार सक्षम देखना चाहता था, जहां पर पहुंच कर वह अपने बुद्धिबल से कोई परिवर्तन ला सके और थियेटर उसे एक बहुत प्रभावशाली माध्यम के रूप में नज़र आता। उसे अभिनय के माध्यम से अपने-आपको व्यक्त करने में अधिक सहजता महसूस होती। वह समझ गया था कि वह एक सफल और कुशल अभिनेता बनना चाहता है। शहर में जितने भी संस्थान थे, उनके द्वारा प्रदर्शित नाटकों की शैली और प्रस्तुति में उसे काफी कमियां नज़र आतीं। इन नाटकों पर पारंपरिक कथोपकथन, लंबे संवादों के बोझिल ओहा-पोह भरे दृश्य और पारसी शैली के नाटकों का काफी प्रभाव था। यहीं रेडियो कश्मीर श्रीनगर ने कश्मीरी मानसपटल को जैसे आत्मसात कर लिया था। यहां सोमनाथ साधो और पुष्करभान की जोड़ी ने क्रांतिकारी स्तर पर ब्राडकास्टिंग में एक युग-प्रर्वतक रूप से कार्यक्रमों का निर्माण करके, कश्मीर के कला सौंदर्य को निखारने का काम शुरू किया, वहीं प्राण किशोर के नाटक विभाग ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्य पर आधारित नाटकों के मोहन निराष ðारा किये गये कश्मीरी व हिन्दी रूपांतरण बहुत सफलता से प्रस्तुत किए। चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास टेल आॅफ दू सिटीज के रेडियो रूपांतरण ने कश्मीरी नौजवानों को अंग्रेजी साहित्य के पढ़ने में प्रेरित किया तो ‘हयवदन’ जैसे नाटक ने कश्मीरी रंगकर्मियों के रंगमंच पर नए प्रयोग करने को प्रेरित किया-मोहन निराश ने इन नाटकों का कश्मीरी रूपांतरण ऐसी सिद्धहस्तता और कौषलपूर्ण व रूचिकर तरीके से किया था कि नाटक कष्मीरी भाव भूमि का ही रंग अंग नज़्ार आते। ये किसी भी रूप से किसी अन्य भाषा के नाटक नहीं लगते-लगता,ै जैसे इनका जन्म ही कश्मीरी भूमि से हुआ है। सच में , यह कश्मीर में, साहित्य, कला और ब्राडकास्टिंग का सुनहरी दौर था। मरियेमा बेग़म और उमा बहन के स्त्रियों के कार्यक्रम कीं कश्मीरी स्त्री समाज में एक खास पहचान थी। इस कार्यक्रम की पकड़ सीधे कश्मीरी जनमानस में स्त्री समाज के नब्ज़ पर थी। यह कार्यक्रम ग्रहनी कश्मीरी स्त्रियों का अत्यधिक चहेता कार्यक्रम था। मचामा और जूनडब, ने तो धूम मचा रखी थी-सवेरे दफ्तर जाने से ठीक एक आधा घंटा पहले ‘जूनडब’ कार्यक्रम आरंभ होता-पहले इसका समय सवेरे 7ः30 रखा था बाद में 8ः00 का था। कश्मीर में खास ही कोई घर होगा, जिसमें रेडियो हो और वह लोग यह प्रोग्राम न सुनते! यह एक फीचर था, जिसमें सरकार का प्रतिनिधित्व एक अफसर करता और उसका परिवार और नौकर जनता के भावों को अभिव्यक्त करते। यानी, आग़ा साहब जोकि परिवार के मुखिया थे और कहीं सरकारी आफिसर भी थे, एक साफ-सुथरी, ईमानदार सरकारी अहलकार की इमेज को प्रस्तुत करते वहीं उसकी बीवी ‘आॅगबाय’ एक अवसत पढ़ी-लिखी कश्मीरी मुसलमान परिवार की ग्रहनी को, प्रतिनिधित्व करती-छोटे दो बच्चे, ननकूर और निकलाल’ एक आदर्ष परिवार को दर्शाते। ‘आगसाबं के परिवार को जनजीवन से जुड़े तमाम तरह के दैनंदिन मसलों को किसी-न-किसी रूप से दोचार दिखाते और ‘आग-साहब’ के साथ ‘मामा’ नौकर के माध्यम से इन मसलों पर विचार-विमर्श करते। इस फीचर की खूबी यह थी कि इसने अपने वजूद को आम लोगों के दैनिक जीवन से जोड़ रखा था। शहर गांव में होने वाली सारी छोटी-बड़ी घटनाओं का इस फीचर के साथ किसी-न-किसी रूप में संबंध जुड़ा होता-यही कारण है कि यह फीचर लोगों की भावनाओं को मुखरित करने का एक सफल मंच बना था। सबसे अधिक 16 साल रेडियो कश्मीर से लगातार प्रसारित होने के कारण इसमें काम करने वाले सभी मुख्य पात्रों, आग़साब (सोमनाथ साधो) मामा (पुष्कर भान) आग़बाय (मरियमा बेग़म) को भारत सरकार ने पद्मश्री से सुशोभित किया। इसी माहौल, ऐसी ही प्रेरणाप्रदत स्थितियों में अशोक जेलखानी ने आगे आकर कश्मीर के थियेटर की डोर अपने हाथों में ली। और खुशकिस्मती यह थी कि राज्य और केंद्र की प्रोत्साहन योजनाएं भी इन्हीं दिनों ज़ोर पकड़ रही थी। श्रीनगर में टैगोर हाल में कलचरल अकादमी नाटकों का एक फेस्टिवेल आयाजित करती। यहां वादी की सभी नाटक मंडलियों को, जो कलचरल अकादमी के साथ रजिस्टर्ड होती फेस्टिवल में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता। इन नाटक मंडलियों को अकादमी वार्षिक रूप से वित्तीय सहायता के रूप में कुछ रक़म धन के रूप में भी प्रदान करती-हालांकि यह रक़म मामूली थी और इसके लिए लंबी-चैड़ी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता-फिर भी इससे इन नाटक मंडलियों से जुड़े कलाकारों को अपनी ‘हाॅवी’ को आगे बढ़ाने में मदद ज़रूर मिलती। अशोक जेलखानी, अशोक जाफ़रानी, ज़ाहिद, अशोक ज़ालपुरी, विजय धर, कुलभूषण वान्टू और भी अन्य साथियों ने जिस ‘बसन्त थियेटर’ की नींव ‘भंगों’ नाटक से डाली थी उसी को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। मंगों नाटक ‘बसन्त थियेटर’ ने 1970 में मंचित किया-यह नाटक पहले कलाकेंद्र भी खेल चुका था, किन्तु अशोक जेलखानी ने तभी इसको नए अंदाज में खेलने की ठान ली थी और अशोक का तजरूबा काफी सफल रहा-इस नाटक को जोकि बाबा डिक्की का लिखा था, जाहिद हुसैन और अशोक जेलखानी ने सह-निर्देशन में मंचित किया था। इस नाटक ने पारंपरिक शैली से मंचन की विधा को निकालने का प्रयास किया और प्रयास सफल रहा। इस नाटक ने न केवल बड़े पैमाने पर दर्शक दीर्घा को प्रभावित किया अपितु कश्मीरी में रंगमंच और रेडियो के सबसे अग्रनीय और श्रेष्ठ युगपुरुष प्राणकिशोर को अत्यन्त उत्साहित और प्रभावित किया-उन्होंने गदगद होकर कहा श्जीम दमू समंकमत पद जीमंजतम पे इवतदश् कश्मीर को थियेटर का नया रहनुमा मिल गया है। प्राणजी ने अशोक जेलखानी को अपने मूल्यवान साहित्यिक लाइब्रेरी कोष से ;भ्पेजवतल व िूवतसक जीमंजतमद्ध नाम की पुस्तक भेंट की। आज के दौर का कोई भी युवक इस बात की अहमियत को समझ सकता है कि किस तरह एक उभरते कलाकार को हमारे सीनियर कलाकार हौंसला देते। प्राणकिषोर जी की इस बात को अशोक जेलखानी नम आंखों से वर्णित करते हैं। उन्हें आज भी उतनी ही श्रद्धा और उतना ही स्वेद होता है, प्राण जी के प्रति उनका मन आभार से भर जाता है। अशोक जी कहते हैं कि उनके जीवन में यदि कोई आदर्श व्यक्ति कला के क्षेत्र में रहा है तो वे श्री प्राणकिशोर हैं। प्राणजी की दी हुई पुस्तक को पढ़कर अशोक जेलखानी को संसार भर के थियेटर के साथ जुड़ने का अवसर मिला। अशोक का कहना है कि इस किताब में दिए गाये आणुनिक कला प्रयोगों से और आधुनिक थियेटर प्रयोगों को वे पहले से ही न जान किस प्रेरणा से अपने मन में संकल्पित किए थे। उनहें आश्चर्य हुआ जब अपनी संकल्पना के अनुरूप इन प्रयोगों को इस पुस्तक में वर्णित पाया। यहां पर कहना असंगत न होगा कि प्राणकिशोर जी की दूरदर्शता और परख एक सुपात्र को प्रोत्साहित कर रही थी, प्राणकिशेर अशोक से सदैव प्रसन्न होकर कहते ‘मुझे तुम पर मान है।’ 9 मई, 1970 को श्रीनगर में दूरदर्शन की नींव डाली गई। उस समय अशोक को शायद इस बात का अहसास था या नहीं कि इस संस्थान में उसके बाकी जीवन का एक बहुत बड़ा कार्यकाल गुज़रने वाला है। अशोक के मन मे एक ही बात की धुन सवार थी कि कुछ करके दिखाना है। ऐसा कोई काम जिससे नाम हो, संतोष हो और आदमी जीवन के संपर्क में रहे। अशोक ने अपनी योग्यताएं बढ़ाने के लिए ज्ञार्नाजन के माध्यम खोजने आरंभ किए। पुस्तकें एक बहुत बड़ा स्रोत साबित हुई। पुस्तकों के अतिरिक्त थियेटर से लगाव और जुड़ाव जीवंतता को बनाए रखता। इसी बीच जीवन में आगे-पीछे, दाएं-बाएं बहुत कुछ फटाफट घटित हो रहा था। 14 अक्तूबर की श्रीनगर से अमृतसर तक पहली साइकिल रेस का आयोजन हुआ। ऐसी बातों से नौजवान खुश होते। इन्दिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम में नौजवानों की उमंगों और जज़्बों का ख्याल किया गया था-रेडियो से पहले यूथ प्रोग्राम और फिर यूथ-चैनल युवा वाणी शुरू की गई। इस चैनल ने तमाम वादी में धूम मचा दी। यहां नाटकारों, रंगमंचकर्मियों, संगीत कल्बों, गायकों, लेखकों और हर हुनर के नौजवान को मंच मिला-इन नौजवानों ने अपनी कला और अपने हुनर से बाकी सारे नौजवानों में जोश भरना शुरू किया-इसका नतीजा स्पष्ट निकला, हमें गुलाम नवी, शेख, विजय मल्ला, आरती तिक्कू, कैलाश मेहरा, शांति लाल सिद्ध, संतोष सिद्ध, महाराजकृष्ण षाह और दर्जनों कलाकार मिले। महाराज षाह (म.क. शाह) अनन्त नाग ज़िले के मटटन गांव में रहने वाला एक युवक कुछ ऐसे ही सपने संजोए था... जैसे कि अशोक और उसके मित्र। महाराज शाह ने डाॅ. रत्न लाल शान्त के निर्देशन में उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ के मषहूर नाटक ‘जोंक’ में मुख्य भूमिका निभाई थी। रेडियो से आॅडिशन पास किया था और एक छोटा-सा संगीत और नाटक क्लब ‘अमर ड्रामाटिक कल्ब’ गांव में ही स्थापित किया था-मटटन में रंगमंच का एक अपना दीर्घकालीन इतिहास रहा है। श्रीनगर से आए एक फारिस्टर श्री राधाकृष्ण ने यहां रंगमंच की नींव डाली थी। कृष्ण-सुदामा, राजा हरिश्चंद्र, नल≠न्ती जैसे नाटक खेले जा चुके थे, श्री अमरनाथ जोगी और उसके साथियों ने शुरू की, उसे आगे चलकर सर्वश्री कृष्णलाल, रामेश्वर नाथ खार, हीरालाल मुक्खी, भास्करनाथ भवानी ---, व अन्य दर्जनों, नौजवानों ने आगे बढ़ाया। यहां विधिवत् हर वर्ष रामलीला और कृष्णलीला का आयोजन किया-जिसे देखने हिन्दुओं से भी ज्यादा मुसलमाना आते। सारे कस्बे में आस-पास के गांव से लोग आकर ये लीलाएं देखेते। इसकी मंच व्यवस्था और निर्वाहन बहुत सलीके से किया जाता। दृश्य परिवर्तन के बीच श्री पृथ्वीनाथ शेर रामायण की व्याख्या करते और दानवीरों के नाम माइक पर बोलते। यह आजकल की टीवी कमर्शिल ब्रेक-सा होता। व्यापारी अपने दुकानों और सेवाओं व माल का खुलकर इस मंच से प्रचार करते-नौजवान अपने मित्रों के नाम कोड-भाषा मे ंसंदेश प्रसारित करवाते। इन संदेशों में तीखे और मसालेदार वाक्यों का प्रयोग होता-कुल मिलाकर इन दिनों सारा वातावरण त्यौहार के रंग में रंग जाता। यह समय आमतौर पर सितंबर के अंत और नवंबर के आरंभ का होता, इसलिए किसान की ज़मीनदारी से अवकाश प्राप्त कर चुके हेाते और इनके मनोरंजन का यह बहुत मूल्यवान समय होता। मैं (महाराज षाह) इसी रंगारंग भूम में पला-बड़ा हूं। मैंने स्वयं इन लीलाओं में श्रीराम और श्री कृष्ण की भूमिकाएं निभाईं। भगवान की इन लीलाओं मंे हिन्दू जनता की आस्था देखकर मैं हैरान रह जाता-बड़े-बुजुर्ग मेरे पांव छूते और मनोकामनाएं मांगते-हमारे गांव के एक सज्जन के यहां शादी के आठ-दस साल तक भी कोई संतान न हुई थी। वे स्वयं बहुत धार्मिक और आस्थावान थे-उन्होंने रामलीला में बढ़-चढ़कर चन्दा दिया-और लीला के लिए चनइसपब ंककतमेे ेलेजमउ जिसे हम सवनक ेचमंामत कहते हैं-अनुदान में दिया-जिस दिन मुझे धनुष-बाण तोड़ कर सीता स्वयंवर का दृश्य अभिनीत करना था-ये सज्जन मेरे पैरों में गिरकर रोने लगे और कहने लगे, ‘हे प्रभु वचन दीजिए कि अगली रामलीला में हम अपने पुत्र को आपके चरणों मंे लेकर आऐं।’ मेरे मुंह से हठात् निकला ‘वचन दिया ऐसा ही होगा’, उन सज्जन ने भावभीनी आंखों से मुझे देखा और चरणों में फूल रखकर गये, मेरी आंखों से आंसू बह निकले। मैंने उनकी पत्नी को देवालय में काफी बार रोते देखा था। मैं नहीं जानता कि किस तरह हुआ हो पर अगले वर्ष में ये सज्जन सच में नन्हें से बच्चे को लेकर अपनी पत्नी के साथ आए और मेरी पूजा-अर्चना करके इसे मेरे चरणों में डाल दिया-मैंने इस बात का सदैव ध्यान रखा कि यह श्रद्धा और भक्ति उस छाया, उस रूप की हो रही है, जिसे हम अपना ईश मानते हैं। मुझे इस आस्था का मान रखना चाहिए था, पर समय व्यतीत होने के साथ मेरी आस्था ऐसे नाटकों और लीलाओं में खत्म हो गई थी। मेरे सामने समाज का कुरूप चेहरा आने लगा। मैंने अपने कस्बे में नए तरीके से नाटकों का चित्रण शुरू किया-जहां पहले नाटकों के विषय धार्मिक होते वहां मैंने सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं पर लिखा एक घरेलू प्रकरण मंचित करने का फैसला किया, नाटक का नाम भी ‘फैसला’ ही था और यह रमेश मेहता ने लिखा था। नाटक में एक विधवा को कैसे घर में प्रताड़ित किया जाता है, इसका चित्रण था। नौजवान पीढ़ी ने इस नाटक को बहुत पसंद किया पर बड़े-बूढ़ों ने मुझसे बात करना तक छोड़ दिया-श्रीराम के प्रतिबिंब में देखने वाले नौजवान लड़के को अत्याचारी सास के रूप मंे देखना उन्हें नागवार गुज़रा-मैं नहीं जानता था कि लोग इस तरह धार्मिक आस्था में इतने गहरे डूबे होते हैं। मुझे बहुत दुःख हुआ जब एक बुजुर्गवार मुझे दूसरे दिन नागबल में एक कोने मंे लेकर बुरी तरह कोसने लगे, ‘हमने तुम्हारी कैसी छवि मन में बसाई थी, तुमने कैसे उस छवि को एक पल मंे मिट्टी मंे मिला दिया, तुम्हें इस रोल को नहीं करना चाहिए था।’ मैं चुप रहा, उनको यह समझाना कि यह सब नाटक होता है, बनावटी होता है, बेकार था, वे भी जानते हैं सब, पर... इन सब बातों से मुझे एक निष्कर्ष निकालने में बहुत सुविधा हुई कि अभिव्यक्ति का तीव्रतम माध्यम अभिनय, मंच और अन्य प्रसारण माध्यम हैं। प्रसारण माध्यमों से लोगों की सोच सच में बदली जा सकती है। लोगों की जहालत और अपनी अशिक्षा को बहुत हद तक ख़त्म किया जा सकता है। मैंने ठान ली कि दुनियां में कुछ करना है तो यही काम करूंगा, चाहे कुछ भी हो। उधर शायद श्रीनगर में भी कुछ नौजवान इसी स्तर पर सोच रहे थे। अशोक उन में सबसे गंभीर रूप से इस सोच को कार्यान्वित करने के कार्य में जुट गया था। इधर 1971 के जनवरी मास से ही कश्मीर के हालात फिर तेज़ी से बदलने लगे-शेख साहब, बेग़ साहब, शाह साहब व कई अन्य नेताओं को कश्मीर से बाहर करके जेलों में डाला गया। कश्मीर में एक आतंवकादी संगठन ‘अलफता’ को घाटी में बदअमनी फैलाने के जुर्म मंे पकड़कर इसके रंगरोटों को जेल भेजा गया। इसी बीच 30 जनवरी, 1971 को भारतीय एयरलाईन्ज का जहाज़ अगवा करके पाकिस्तान के लाहौर शहर ले जाया गया। यह घटनाएं, कश्मीर के भविष्य से काफी हद तक जुड़ी है। क्योंकि ‘अलफता’ के लोगों के साथ नरमी बरतना, शेख साहब के साथ दिल्ली अकार्ड के तहत नेशनल काॅन्फ्रेंस को हुकूमत सौंपना और मकबूल बटट को फांसी देकर उसके पैरवकारों को खुला छोड़ना, ऐतिहासिक भूलें साबित हुईं। साद्धिक साहब ने कश्मीर के भारत के साथ संपूर्ण विलय की, जिस प्रक्रिया को शुरू किया था, मीर कासिम इसे आगे बढ़ा रहे थे। पाकिस्तान की बंगलादेश में अपमानजनक हार के बाद कश्मीर का मसला ठंडे बस्ते में पड़कर सड़ रहा था-पर 12 दिसंबर, 1972 में साद्धिक के बाद जब मीर कासिम कश्मीर के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें तीन वर्ष के भीतर ही अपनी कुर्सी शेख साहब को सौंप कर दरकिनार होना पड़ा-इसके बाद कश्मीर में कांग्रेस हाशिये पर आ गई और सत्ता में वापिस आने के लिए अपने ही हाथों खड़ा किए एक बहुत बड़े हिमालय को लांघना अब इतना आसान न था। कांग्रेस के कार्यकर्ता, जिन्हें मुफ्तखोरी और सरकारी संरक्षण कि एक तरह से लाइसेंस मिली हुई थी-अब उन लोगों के मातहत हो गए थे, जिन्हें कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जी भर कर उपेक्षा की थी और ऐसा होना स्वाभाविक भी थी। वादी में इन फितनापरस्त लोगों को ज़्यादा महत्व और बल नहीं दिया जाता जैसा कि आज देखने को मिलता है। इन के प्रति एक तरह का सामाजिक बहिष्कार किया जाता, पर अब राज्यतंत्र की डोर इन्हीं लोगों के हाथ में सौंपी गई थी और अब कांग्रेस के कार्यकर्ता अलग-थलग पड़कर सत्ता के गलियारों में अपने स्तर पर प्रशासनिक बैसाखियां तलाशने में जुटे थे। केंद्र में कांग्रेस मज़बूत स्थिति में था, इसलिए कुछ कांग्रेसी नेताओं का केंद्रीय विभागों में अभी भी खासा दबदबा था, पर राज्य में स्थिति बदल चुकी थी। अब ठेकेदारों, प्रशासनिक नियुक्तियों और नई रोज़गार योजनाओं में नेशनल कांफ्रेंस के वफादार कार्यकताओं को प्रश्रय व वरीयता और बल दिया जाता। जमात-इस्लामी को अर्से से ऐसी स्थिति की प्रतीक्षा थी। वे कांग्रेस को वादी में विवश और लाचार देखकर खुश हो रहे थे। कश्मीर के इसी राजनीतिक और सामाजिक पटल पर दूरदर्शन श्रीनगर ने अपना प्रसारण आरंभ किया-अशोक जेलखानी को फ्लोर मैनेजर के लिए दूरदर्शन से इक्ट्रव्यू आया। इक्ट्रव्यू में विशेषज्ञों ने 18-19 वर्ष के नौजवान आदमी को बेहद अनुभवी पाया। इतनी कम उम्र में ही इसने एक्टिंग और निर्देशन मंे नाम कमाया था और काफी इनाम भी प्राप्त किए थे। अशोक को फ्लोर मैनेजर की नौकरी मिली। इस नौकरी ने अशोक को एक नए माध्यम के साथ जोड़ा। यह फिल्म से मिलता-जुलता था और शहर में तेज़ी से अपने पैठ और पहुंच बना रहा था। स्टेज की तुलना में इसकी पहुंच एक साथ हज़ारों दर्शकों तक बन पाती। फ्लोर मैनेजर के पद को समझने में अशोक को अधिक समय न लगा। और इन्हीं दिनों वर्ष 1972-73 के बीच दिल्ली के टेलीविजन कार्यशाला में टेलीविजन कार्यक्रम प्रशिक्षण के लिए अशोक को भेजा गया। प्रशिक्षण के दौरान जहां टीवी की कार्यक्रम निर्माण प्रणाली के मुख्य और मोटी बातें सीखने का अवसर मिला, वहीं इनकी मित्रता टीवी के कई कर्मचारियों से हुई, जो आगे चलकर इनके अच्छे सूत्र साबित हुए। एक दिन अशोक दरियागंज में एक पुस्तक भंडार में घुस गए और हिन्दी के व हिन्दी में अनूदित मराठी, नाटकों के अनुवाद छांटने शुरू किए। तभी इसने यहां, ‘एवं इन्द्रजीत’ ‘कोणार्क’ ‘पंछी ऐसे आते हैं’ ‘किसी एक फूल का नाम लो’ ये सारे नाटक छांट निकाले , इन नाटकों को पढ़कर अब अशोक को एक उमंग ने घेर लिया-वह जल्द से जल्द कश्मीर लौट कर अपनी नाटक मंडली के साथ इन सब नाटकों का मंचन करना चाहता था। उसके हौसले बुलंद थे-क्योंकि कुछ ही समय पहले बसंत थियेटर ने मोती लाल क्यूमो का लिखा प्रहसन ‘मांगय’ किया था, जिसे यूथ फेस्टिवल निदेशालय ने प्रथम पुरस्कार दिया था। इसका निर्देशन अशोक जेलखानी ने ही किया था। इसके बाद अशोक को टीवी में नौकरी मिली-अब यह अपने टीवी की कार्यशाला में टीवी नाटक और स्टेज नाटक के अन्तःसंबंधों पर भी काफी जानकारी हासिल कर चुका था। उसे यह बात भी समझ में आ गई थी कि कश्मीर में थियेटर के लोगों में क्या कमियां हैं। यह सब जानकार ही वह कश्मीर के थियेटर में कुछ नए प्रयोग करना चाहता था। जो कुछ प्राॅडक्शन तकनीक, स्टेज एक्टिंग, संगीत के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ इसे वह अपने मित्रों के साथ बांट कर स्टेज पर लाना चाहता था। प्रशिक्षण में अशोक को पता चला कि रूस के अग्रणीय रंगमंचकार स्टेनस्ला व्हिसकी ने रगंमंच और अभिनय का किस प्रकार बारीकी से सामंजस्य बिठाया है। अभिनेता को कैसे अपने शरीर पर और अवचेतन पर अभिनय की खास तकनीक से नियंत्रण आता है। स्टेज पर दृश्य और श्रव्य के आपसी तालमेल को किस प्रकार प्रकाश और ध्वनि के सम्मिश्रण से व अभिनेताओं के लयातम तादात्मय से पिरोया जा सकता है। इन सब बातों से ओत-प्रोत अब अशोक कश्मीर पहुंचकर अपनी कार्यशाला के अनुभवों को अपने मित्रों के साथ बांटना चाहता था।------------------------------------------------------------------वसंतागमन
जिस प्रकार कहावत है कि बहार अपने आने की तैयारी शीतकाल मे ही करती है, वैसे ही शीतकाल में डार बिल्डिंग में थियेटर कल्बों का वातावरण बाहर की ठंड के अनुपात से काफी गर्म रहता। बसंत के आते फूलों के खिलने के साथ ही नाटकों के मंचन की शुरूआत होती। यह समय नाटकों के मंचन के लिए इसलिए भी अनुकूल रहता, क्येांकि सर्दियों में अथक मेहनत और परिश्रम के बाद स्टूडेंट्स ने परीक्षाएं दी होतीं और अब वे रिज़ल्ट की प्रतीक्षा में खाली समय का उपयोग, आमोद-प्रमोद के लिए कर पाते-श्रीनगर में कुछ युवकों में थियेटर देखने की आदत-सी पड़ गई थी। अक्सर स्टेज से जुड़े अभिनेता और बाकी कलाकार व तकनीशियन अपनी जानकारी में रहने वाले लोगों को टिकट बेचते या ‘पास’ दे आते-इस तरह हाल में श्रोता जुटाए जाते। अशोक जेलखानी की टीम यनी बसंत थियेटर के सदस्यों ने काॅलेज के स्टूडेंट्स युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स और चारों दोस्तों के अतिरिक्त राह चलते लोगों को भी अपना ड्रामा देखने के लिए मनाना शुरू किया-इसके लिए ख़ासी मशक़त से भी गुरेज़ नहीं किया गया। जम्मू-कश्मीर की कल्चरल अकादमी ने नाटकों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विकास के लिए क्लबों को रजिस्टर करना शुरू किया था और बसन्त थियेटर भी एक रजिस्टर्ड क्लब था-रजिस्टर्ड क्लबों को अकादमी उनकी कार्यकुशलता देखने के पष्चात अनुदान रूप मंे कुछ रूपए भी देती। इससे नाटकों के मंचन में कुछ हद तक वित्तीय सहायता मिल जाती। किन्तु अक्सर डार बिल्डिंग में कमरे के किराये का पैसा ‘क्लब’ के सदस्य अपनी जेब से देते। इस बिल्डिंग में संगरमाल, नटरंग, अभिनव भारती, अलंकार के अतिरिक्त और भी कई ‘क्लबों’ ने कमरे किराये पर ले रखे थे। शाम होते ही सब यहां जमा हेाते और हर कमरे में किसी-न-किसी नाटक का रिहर्सल के लिए लड़के-लड़कियां एकत्रित हो जाते। खुशी की बात यह थी कि अब मुसलमान नौजवान लड़के-लड़कियां भी नाटकों के मंचन में सक्रिय हो रहे थे। सजूद सैलानी और अली मोहम्मद लोन जैसे प्रतिष्ठित नाटकारों के नाटक भी मंचित होने लगे थे-पर यह सब तभी हो पाया, जब अशोक जेलखानी ने नाटकों के मंचन में एक क्रांतिकारी बदलाव की अगुवाई की। दिल्ली से प्रशिक्षण पूरा करने के बाद अशोक जेलखानी अपने सहकर्मी मित्र के साथ मुंबई गए। मित्र रविभूषण मिश्रा वास्तव में अशोक के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हेाकर इस मित्र ने अशोक को अपने साथ मुंबई आने का न्यौता दिया-इनके मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री मे काफी अच्छी जान-पहचान थी और इन्हें यकीन था कि एक बार अगर अशोक फिल्मों में ब्रेक ले लेता है तो इसे काफी सफलता प्राप्त होगी। इनका परिचय काफी सफल फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं से कराया गया और इन्हें एक निर्माता ने फिल्म भी आफर की-पर उन्होंने यह भी कहा कि तब आप नौकरी नहीं कर पाएंगे। ऐसा फैसला अशोक अकेले अपने मां-बाप से पूछे बगैर कतई नहीं करना चाहता था। घर लौट कर जब यह प्रस्ताव मां-बाप के सामने रखा गया तो कुन्ती जी यानी अशोक की मां ने साफ कहा कि हम तुम्हें अपनी नज़रों से दूर नहीं जाने देंगे, टेलीविजन एक नया माध्यम है, एक दिन इसमें तुम्हें फिल्मों से भी अधिक यष मिलेगा। नहीं, कश्मीर नहीं छोड़ना है। इस नोट पर सब खामोश हो गए। अशोक अपनी मां का फरमाबरदार बेटा, चुपचाप-वापिस दूरदर्शन के दफ्तर में अपनी ड्यूटी पर चला गया। दिल्ली से साथ लाए नाटकों में से बादल सरकार का ‘एवं इन्द्रजीत’ पढ़कर अशोक को अजीब बेकरारी ने घेर लिया-यह समय कश्मीर के राजनीतिक पटल पर भी अजीब उतार-चढ़ाव से भरपूर था। 1974 के नवंबर माह में पार्थसारथी और अफज़ल बेग़ ने श्रीमती इन्दिरा गांधी, प्रधानमन्त्री भारत सरकार और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नाते एक इकरारनाम साइन किया, जिसे दिल्ली अवार्ड के नाम से जाना गया। इसकी पृष्ठिभूमि किन्तु पाकिस्तान के दिसंबर 3 1972 के भारत पर हमले के गर्भ में छिपी पाकिस्तान की हार में लिखी गई थी। 12 दिसंबर, 1972 को साद्धिक साहब की मृत्यु के बाद मीर कासिम कश्मीर के मुख्यमंत्री बने थे और अब 1974 मे ंदिल्ली अवार्ड के बाद सत्ता का हस्तान्तरण शेख-साहब के हाथों मंे दिया गया। ‘एवं इन्द्रजीत’ के मंचन से पहले इस प्रकार, ऐसा नाटक श्रीनगर में कभी नहीं हुआ था। यह कश्मीर में युवा उत्कर्ष की घोषणा जैसा था। कश्मीर-दिल्ली अवार्ड के बाद जब शेख साहब ने कश्मीर की बागडोर संभाली तो लोगों को इत्मिनान हुआ कि अब आगे की ज़िन्दगी सुख-चैन से बीतेगी। लोगों में शांति और खुशहाली की उम्मीद जागी। इस माहौल ने लोगों को सांस्कृतिक गतिविधियों मंे रूचि लेने का अच्छा अवसर प्रदान किया। कश्मीरी संस्कृति और राज्य के बाकी क्षेत्रों की संस्कृति के विकास व संरक्षण के लिए कल्चरल अकादमी आगे आकर काम करने लगी। रेडियो कश्मीर ने और नाटक-गीत विभाग ने अपनी पैठ कश्मीर के हर जिला, हर गांव में और सुदृढ़ कर दी-यहां के लोगों मंे छिपे कलाकारों को मंच प्रदान किया और इसके नतीजे में बड़गाम, अनन्तनाग, त्राल, सोपोर, बारामुला, व अन्य जिलों से काफी कलाकार उभर कर रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेकर सफलता पाने लगे। चारों तरफ़ कलाओं के प्रोत्साहन का माहौल बन कर खिलने लगा था। टीवी के नए माध्यम ने भी सारे कलाकारों को एक नई उम्मीद प्रदान की थी, इसी माहौल के बीच ‘एवं इन्द्र्रजीत’ का मंचन नए हस्ताक्षर की स्थापना के रूप मंे सिद्ध हुआ। इस नाटक को संयोगवश ‘नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ दिल्ली क कुछ अध्यापकों ने देखा, जिनमें सोन टक्के और कविरत्न भी शामिल थे। ये लोग यहां किसी प्रशिक्षण कैम्प के सिलसिले में आए थे, और यहां पर कुछ लड़के-लड़कियों को एक पखवाड़े का प्रशिक्षण दे रहे थे। ‘एवं इन्द्रजीत’ से बहुत प्रसन्न होकर इस नाटक की चर्चा इन्होंने अपने संस्थान के स्टूडेंट्स तक पहुंचाई और उन्हें कहा कि कैसे कश्मीर में स्वप्रेरित और स्व-शिक्षित लोग थियेटर में नए आयाम जोड़ रहे हैं। यहां कश्मीर से एक नौजवान अभिनेता वीरेन्द्र राज़दन भी अध्ययनरत था। अपने क्षेत्र और लोगों की ऐसी तारीफ सुनकर उनका मन गर्व से फूल गया, उन्होंने कश्मीर आकर अशोक जेलखानी से मुलाक़ात की और उन्हें उनकी सफलता के लिए बधाई दी। वीरेन्द्र राज़दान ने थियेटर और सिनेमा और टीवी में अपने अभिनय के जौहर दिखाकर खुद खासा नाम कमाया। इस नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ को संयोगवश दूसरे या तीसरे शो में उन दिनों के पहले से काफी चर्चित और स्थापित अभिनेता एम.के. रैना ने भी देखा। एम.के. रैना ने अपने अभिनय के जलवे बिखेर कर काफी सुर्खियां बटोरी थीं और ‘नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा’ के स्टूडेंट के तौर पर नस्सीर-उ-दीन शाह, ओमपुरी आदि की ही तरह सफलता प्राप्त की थी। रैना इस नाटक से कितने प्रभावित रहे यह इस घटना से समझ सकते हैं। एम.के. रैना वास्तव में श्रीनगर में अपने पुश्तैनी घर से, जहां उनकी अच्छी-खासी किताबों की लाइब्रेरी थी और जिनमें से अधिक्तर किताबें, लिट्रेचर और थियेटर पर थी, इन किताबों को अब दिल्ली अपने निवास स्थान ले जाने के लिए आए थे। किन्तु अशोक जेलखानी का नाटक और अभिनय देखकर इन्हें मन में कुछ और सूझा। अशोक जेलखानी ने एम.के. रैना का हाालांकि काफी नाम सुना था, पर दोनों में कोई फाॅरमल परिचय नहीं थी और दोनों एक-दूसरे को निकट से नहीं जानते थे। इस बात से बेखबर कि एम.के. रैना क्या चाहते हैं, अशोक जेलखानी को एम.के. रैना की तरफ से एक मुलाकात का न्यौता बहुत प्रसन्नता से भरने वाला सिद्ध हुआ। ज्यों ही एम.के. रैना ने अशोक जेलखानी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की, अशोक का मन प्रसन्नता से भर गया। रैना साहब अब तक कश्मीर से दिल्ली में कार्यरत काफी सफल और प्रतिष्ठित रंगकर्मी और अभिनेता स्थापित हो चुके थे, दोनों की मुलाकात में काफी सारी बातें थियेटर और समूचे माहौल आदि पर हुई अशोक ने नोट किया कि एम.के. रैना के पास किताबों से भरा एक भारी-भरकम बैग है, सोचा दिल्ली निकल रहे हैं, तो कुछ खरीदारी की होगी, या... पर मीटिंग खत्म होने के समय एम.के. रैना बड़ी सौम्यता से अशोक से बोले, ‘मैं ये किताबें अपने यहां के घर से दिल्ली के घर ले जा रहा था, पर कल तुम्हारा नाटक देखकर लगा कि वहां से अधिक यहां इनका सही उपयोग होगा, क्या तुम यह भेंट स्वीकार करोगे, देखो इसके साथ एक दायित्व भी जुड़ा है।’ अशोक को लगा जैसे हीरे-मोतियों भरे अनेक खजाने उसे देने की बात की हो और कह रहा हो कि इन्हें लोक-कल्याण के लिए उपयोग में लाने का दायित्व अब तुम्हारे ज़िम्मा है... अशोक का मन हर्ष-उल्लास और संतोष से भर गया, उसका माथा अपने वरिष्ठ भाई के प्रति आभार में झुक गया और उसने इस सद्भाव को मन की गहराईयों से मंजूर किया... यह वाकिया अशोक को काफी बड़ी सीख भी दे गया, जिसे उसने जीवन भर याद रखा और वह सीख थी कि ज्ञान बांटने की चीज़ है और बांटने से यह समृद्ध होता है। एक परंपरा जो काफी प्राचीन काल से कश्मीरी जनमानसक में पनपी और फलीभूत हुई है कि बड़े छोटों को कैसे प्रोत्साहन, मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इन्हीं परंपराओं ने हमारे अंदर सामूहिक हित और सामाजिक ज़िम्मेदारी के अहसास को जन्म दिया था-मंच पर काम करने वाले लोग अब भी इस परंपरा और ज़िम्मेदारी को समझते हैं व इसका मान और पालन करते हैं। यह प्रथा आज के व्यक्तिवादी सोच से बिलकुल अलग है। व्यक्तिवादी सोच दूसरों को नीचे खेंच कर खुद ऊपर जाने की प्रेरक है पर सामाजिक हित में अपना हित समझने वाली सोच ने सबकी राह प्रशस्त और उजवल करके अपनी राह तलाशने का बीड़ा उठाया होता है। जब अधिकतर लोगों को देश-दुनिया में उन सबके योगदान से हो रही उन्नति के फल से कुछ चालाक लोग मिलकर उन्हें इस फल से वंचित करते हैं और संसाधनों पर अपना हक़ और कब्जा जमाते हैं तो उपद्रव होते हैं। बदअमनी फैलती है और मारा-मारी का माहौल पैदा होता है। आज कमोबेष ऐसा ही हम होता देख रहे हैं। ‘एवं इन्द्रजीत’ के सफल मंचन और मंच विधा की नयी तकनीक के प्रतिपादन ने अशोक जेलखानी को न केवल एक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई बल्कि छोटी उम्र में ही इसे एक स्थापित कलाकार का दर्जा भी दिलाया। इस नाटक की खूबी यह बताई जाती है कि पहली बार श्रीनगर के टैगोर हाल में, किसी नाटक में ध्वनि, प्रकाश और अभिनेताओं का संयोजन इस प्रकार से हुआ था कि दो घंटे के नाटक में केवल एक बार पर्दा गिरा। नाटक एक बार शुरू होकर अन्त में ही रूक गया। कहीं कोई पर्दा नहीं गिरा न कोई दृश्य बदलने के लिए बार-बार स्टेज पर प्राॅप्स बदले गए। किन्तु खूब बात यह रही कि इस सबका भरपूर अहसास दर्शकों को ध्वनि, प्रकाश के प्रभावों से ऐसा दिया गया कि दर्शक दीर्घा में बैठे सारे लोग, कभी यह महसूस नहीं कर पाये कि दृश्य न बदले गए हों। इतना ही नहीं, इस नाटक में एक युवती ने बहुत बढ़िया काम किया, वह आगे चलकर कश्मीर की प्रमुख अभिनेत्रियों में गिनी जाने लगी। इस अभिनेत्री को कश्मीर का हर खास, आम इसके अभिनय कौशल के कारण जानने लगा, इसका नाम भारती जाड़ू (ज़ारू) है। भारती का यह पहला हिन्दी नाटक था। भारती और आशा दोनों बहिनों ने कश्मीर के रंगमंच, रेडियो और टी.वी. में ख़ासा नाम कमाया-आशा जाड़ू अब संगीत-नाटक निदेशालय से जुड़ी है और भारती अभी भी फ्रीलांस (शोकिया) अभिनय करती हैं। दोनों अशोक के बारे में बहुत तारीफें करती हैं। भारती ने बातों-बातों मंे कहा कि उसका मन इस आदमी की अत्यन्त प्रबुधता और सकुमार सहजता व सौम्यता पर हज़ार बार न्यौछावर होने को होता-बहुत प्यारा और सहृदय साथी रहा हमारा। स्त्रियों की इज़्जत करना कोई इनसे सीखे। लड़कियां इसकी कम्पनी में हमेशा न केवल सुरक्षित महसूस करती अपितु जिस प्रकार से यह लड़कियों में विश्वास जगाते उससे इनके साथ काम करने वाली सारी लड़कियां एक स्वतन्त्रता, और आत्मविश्वास से भर जातीं। इन्हें कितना भी तंग करते या इन पर कितने भी फिकरे कसते ये कभी बौखलाते नहीं, थियेटर में लड़कियां हर काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती और अभिनय के अतिरिक्त प्राॅडक्शन के बाकी काम भी सम्हालती। वसन्त थियेटर की डार बिल्डिंग के सबसे ऊपरले तल पर हमारा कमरा था और हम रोज़ शाम को इस्टो जला कर चाय बनाते, चाय कमल ककड़ी और चावल के आटे से बनी विशेष पकौड़ियों जिन्हें कश्मीरी ‘नदिर मोंजि’ कहते हैं के साथ पी जातीं। अब चाय बनाने और जूठे कप धोने के लिए, पानी निचले तल से चार पौड़ियां चढ़कर लाना पड़ता। इसके लिए हर रोज़ बारी-बारी हर सदस्य पानी की बाल्टी नीचे से लाता। इसमें सिर्फ लड़कियों को छूट दी गई थी। सारे लड़के अपनी बारी पर बिना कहे नीचे से पानी की बाल्टी भर कर लाते, अशोक जेलखानी, जो कि अब ग्रुप के लीडर और खास प्रतिष्ठित कलाकार व आफीसर भी थे, भी अपनी बारी के दिन पानी कि बाल्टी निचले तल से भर कर लाते। यहां सब एक जैसे थे-सब एक साथ मिलजुल कर काम करते थे और सब अपनी ज़िम्मेवारी और दायित्व समझते थे-अशोक काम के समय एकदम एक सख्त और कठोर व्यक्ति में बदल जाते, किसी से कोई रियायत नहीं बरते-काम में ग़ज़ब का अनुशासन पालन पहली शर्त थी। इसके साथ कोई समझौता नहीं, वह अक्सर ‘मो-त्से-तुंग’ का यह मशहूर मुहावरा दोहराते, ‘डोंट मिक्स पलेजर विथ द बिज़नेस’ काम के बाद लड़कियों के निकलते ही ये लोग बोतल खोलकर बैठ जाते और पीने पिलाने के दौर शुरू होते। यहां वह सब कुछ होता, जिसको श्रीनगर का अवसत मध्यम वर्ग अपने घरों में पर्दें में रखकर करता-हमें मन में काफी उत्सुकता रहती कि हम भी देखें ये लोग आखिर हमारे बाद यहां करते क्या हैं, एक दिन जानबूझ कर अपनी कोई चीज़ थियेटर में भूल कर आई, कुछ समय बाद जब वे वापिस थियेटर वह चीज़ लाने गई तो देखा सारी बिल्डिंग मंे कोई नहीं है। सब तरफ सन्नाटा है। सारे कमरों के बाहर ताले पड़े हैं। बाहर पास के नानवाई से पता करने पर, जान गई कि सब लोग कोई ‘फिल्म’ देखने गए हैं। मन में बहुत अफसोस हुआ-दूसरे दिन पता चला कि सब लोग रीगल में ‘पेपीलाॅन’ देखने गए थे, ‘डस्टन’ हाफमेन और ‘मेक क्ूयन्सी’ का सब में ज़बरदस्त क्रेज़ था और यह फिल्म व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बनी थी, जिसके हम दिल से दीवाने थे।’ भारती जी से बात करके लगता है कि वह उन क्षणें को उन पलों को काफी निकट से संजोये हैं। उनकी आंखों में लेकिन एक अश्रुधारा से तैर रही थी, जब इसका कारण पूछा तो कहनी लगीं कि ‘वे दिन जैसे अचानक कहीं खाई में खो गए हों, शायद हम अब बूढ़े हो गए हैं, शायद हम अब बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए या फिर कश्मीर से निकाले जाने के कारण ऐसा लगता हो। अंधेरा रौशनी के आते मिट जाता है। आदमी आंखें खोलकर दुनियां देख पाता है। पर कुछ लोगों को दूसरों को निरन्तर अंधेरे मं रखने में ही अपनी भलाई नज़र आती हैं। वे नहीं चाहते कि जो दुनिया का सच उजाले में लोग देख सकते हैं, वह वे देख पाए। ऐसे लोगों के कारण हमारा जीवन नरक बन जाता है। किसी को गुमां भी न था कि हमारे बीच कुछ लोग, ऐसी तमना और ऐसा सच लेकर जी रहे हैं। वे मौके की तलाश में हैं। हम सब रंगकर्मी जीवन की विभिन्न अटखेलियों, रंगों, अंगों और भावनाओं व भंगिमाओं को, सहृदय तक पहुंचाने में जुटे थे। हमारे पैरों तले कोई धरती उकेर कर ले जा रहा था। किन्तु सृजनरत लोगों को भविष्य का सांप सूंघ जाता है। हम अपने इर्द-गिर्द हो रहे अंधेरे के फैलाओं को भांप और नाप रहे थे। सोहन लाल कौल कश्मीर विश्वविद्यालय में उर्दू में एम.ए. में अध्यनरत था। एक निहायत मेहनती, होनहार और काबिल लड़का। विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग को उसकी काबलियत पर नाज़ था। खूबसूरत नवजवान जाने क्यों कभी शेव नहीं करता। घने काले बाल, चमकता चेहरा, तेजस्वी, रंग-रूप कद नाटा दरमियाना, यह नवजवान ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर अशोक जेलखानी से इस कदर प्रभावित हुआ था कि लनगभग रोज़ रेज़ीडेन्सी रोड पर उसे देखने के लिए काफी देर रूका रहता। पर देखने के बाद हाथ मिलाकर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटाता। उसे लगता कि कोई भी औपचारिक बातचीत उसके परिचय के लिए काफी नहीं थी। वह काफी सारी बातें करना चाहता था। पर, किसी परिचय के अभाव में यह सब कैसे मुमकिन हो। एक साल इस तरह गुज़र गया। अशोक जेलखानी की प्रमोशन हो गई और वह प्रोड्यूसर बन गए। नाटकों में काफी नाम कमाने के कारण अब उस समय के स्टेशन डायरेक्टर शैलेन्द्र शंकर ने अशोक को नाटक ही करने को दिए। यह एक चैलेंजिंग जाॅब था। क्यों? अक्सर नाटक किसी बहुत ही अनुभवी और सिद्धहस्त निर्माता को ही बनाने को दिए जाते। एक बिलकुल कनिष्ठ निर्माता को नाटक का निर्माण कार्य देकर डायरेक्टर पर सब सवालिया उंगली उठा सकते... बल्कि अधिकतर ने, इस बात को लेकर फिकरे कसने भी शुरू किए थे। अशोक इस अवसर को अपने थियेटर के अनुभव और दिल्ली में टी.वी. के प्रशिक्षा के अनुभव पर पूरा उतरने के रूप में देख रहा था।----------------------------------------------------------------नये आयाम
हरिकृष्ण कौल, कश्मीर के जाने-माने हिन्दी और कश्मीरी साहित्य के स्थापित कथाकारों में से थे। उनके कई रेडियो नाटक लोगों ने बहुत पसन्द किए थे। हिन्दी में उनका ख़ासा नाम राष्ट्रीय स्तर पर चमका था। उनकी कहानियां प्रमुख पत्रिकाओं में छप चुकी थी-पेशे से काॅलेज प्रोफेसर, मिज़ाज से हलके-फुलके व्यंग्य के पुट लिए वे कश्मीर के स्थपित स्टार लेखकों मंे से थे। इन्हीं का लिखा एक नाटक कश्मीरी में टी.वी. के लिए बनाने का अशोक ने फैसला किया, इस नाटक का नाम ‘दस्तार’ यनी ‘पगड़ी’ रखा गया। यह नाटक एक सुपरहिट नाटक सिद्ध हुआ। इसमें कश्मीर की अत्यन्त खूबसूरत और दिलकश व निहायत कमसिन लड़की जलवा अफ़रोज हुई जो बाद में एक मंजी हुई कलाकार के रूप में रेडियो, टी.वी. और स्टेज पर एक दशक तक छायी रही। इस लड़की को बच्चा-बच्चा एक अनोखे नाम से जानता... ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ यह संवाद दफतर में काम करने वाला एक विरिष्ठ कर्मी इस लड़की को देखकर नाटक से प्रेरित होकर लिखा गया था, पर यह कश्मीरी जन-मानस की मानसिकता पर अत्यन्त फिट हो गया था। एक बुजुर्गवार कर्मचारी दफ्तर में आई नई, और यंग स्टोनों को देखकर फिर से अपने जवानी के ख्वाब देखने लगता है, इस चक्कर में वह सिर से पगड़ी हटा कर बचे-खुचे वालों में डाई लगाने, लगता है तरह-तरह से जवान दिखने की कोशिश करता है और अपने रूतबे और पोस्ट का रौब भी लड़की पर जमाना चाहता है, इस तरह लड़की को इम्प्रेस करके उससे प्यार की पेंग बढ़ाना चाहता है, लड़की अफसर की इस नियत को भांपती है और उसे बेवकूफ बनाती है। वह इसी दफ्तर में काम कर रहे दो नवजवानों से मिलकर इसका भांडा-फोड़ देती है। यह एक अति उत्कर्ष वाली काॅमड़ी थी-लोग एक्टरों का अभिनय, शाॅट और सीन के तालमेल और बैकग्राम्ड में दिए गए म्यूज़िक और ध्वनि के इफेक्टों से बहुत प्रभावित हुए थे। शाम को प्रसारित होने के बाद, हर जगह हर घर में इस नाटक की चर्चा हुई, इसमें भाग लेने वले मुख्य कलाकार, हृदय नाथ गुरूटू (वरिष्ठ आॅफीसर) ‘तेजतिक्कू’ अशोक जालपुरी (क्लर्क) और रीता जलाली स्टोनों, रातों-रात स्टार बन गए। हर घर, मुहल्ले और बाजार में इसी नाटक की चर्चा महीनों चली, और गुस्टू साहब का कहा यह संवाद ‘राम लगय चान्यि लीलाय’ लोगों का तकिया कलाम बना। वास्तव में गुरटू जब भी रीता को नाटक में देखते तो उसका स्वागत इसी संवाद से करते और जब वह इनसे अलग होती तो यही संवाद दोहराते-सारे नाटक का यह एक ‘पंचवर्ड’ साबित हुआ और अब दर्शक भी रीता से यहीं कहने लगे, ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ और गुरटू साहब से विशेष इसरार करते कि वह आंखें वैसे ही आसमान में गाड़ कर दुआ की मुद्रा में हाथ उठाकर एक बार कह दें ‘राम लगय चान्यि लीलायें’ इसका अर्थ होता है‘राम में तेरी लीला पर वारी जाऊं’। इस नाटक की सफलता ने अशोक जेलखानी का सिक्का टी.वी. नाटक निर्माता, निर्देशक के रूप कायम किया। अभी तक कुछ लोग जो अशोक के स्टेज नाटकों को देखकर इसे गिमिक मास्टर पुकारते, और कहते कि स्टेज लोगों को अचम्भित करने की जगह नहीं, अब अचानक मानने लगे थे कि नहीं भई, ‘कुछ तो बात है इस आदमी में... और यही बात नवजवान और मेधावी उर्दू लिट्रेचर के स्टूडेंट सोहन लाल को अशोक की तरफ खेंच रही थी। सोहन लाल का मन इसी प्रकार कुछ कर गुज़रने को बेकरार था। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए, सोहन लाल ने अब दूरदर्शन जाकर अशोक जेलखानी से मिलने की ठानी-वह कश्मीर विश्वविद्यालय की बस से जो जीरू ब्रिज पर रूकती, उतर कर लगभग रोज़ दूरदर्शन के जंगले को लांघ कर अशोक के कमरे तक पहुंचता। दरवाज़े पर लगे, पर्दें को हलके हटाता अंदर झांक कर वापिस निकलता-उसे कभी अशोक स्क्रिप्ट में व्यस्त नज़र आता तो कभी कलाकारों के साथ रिहर्सल करते, इस तरह बिना कुछ कहे वह निकल जाता-अशोक ने ताड़ लिया कि यह नवजवान रोज़ आता है, सिर्फ नज़र भर देखकर जाता है, जरूर इसमें कुछ राज़ है। एक बार रेजिडेन्सी मोड़ पर अशोक मित्रों और कलाकारों के साथ खड़ा था कि उसकी नज़र सामने मोड़ के दूसरे किनारे खड़े सोहन लाल पर पड़ी। अशोक ने सोहन लाल को इशारे से पास बुलाया। अशोक ‘लगता है मैंने तुम्हें दूरदर्शन में कई बार देखा है’ तुम क्या करते हो।’ सोहनलाल: मैं पढ़ाई कर रहा हूं, मेरा नाम सोहन लाल कौल है और मैं आपसे े मिलना चाहता हूं। अशोक: हां तो इसमें दिक्कत क्या है, तुम दफ्तर तो आते हो-कभी भी मिल लो-कहां पढ़ते हो? सोहन लाल: युनिवर्सिटी उर्दू में एम.ए. कर रहा हूं। अशेक: तुम ऐसा करो, कल चार से पांच के बीच में आओ, कुछ लिखा हो तो साथ लेते आना... सोहन लाल: (चेहरे पर सुर्खी छा गई) दिल की गति बढ़ गई और सोहन लाल को यह आदमी बिलकुल सहज और आसान लगा। वास्तव में एक साल पहले सोहन लाल ने एक नाटक लिखा था, यह नाटक कश्मीरी भाषा में ‘ग्रद्ध’ शीर्षक से लिखा था-ग्रद्ध कश्मीरी में, गिद्ध को कहते हैं। नाटक लेकर सोहन लाल अशोक जी के पास दूरदर्शन दफ्तर गया, वहां नाटक सौंप कर वापस आया। एक महीने तक जेलखानी के यहां से कोई खबर नहीं आई। सोहन लाल के मन में तरह-तरह के सवाल उठना स्वाभाविक था, हो सकता है नाटक पसंद नहीं आया हो, इसलिए कोई बात नहीं हो रही। या हो सकता है अभी तक पढ़ा ही न हो। कितने मसरूफ रहते हैं। फिर और भी मंजे हुए नाटकारों के नाटक पास में पड़े धूल चाट रहे होंगें फिर अपनी तो अभी इतनी अवकाल भी कहां कि जाकर पूछे भई बताओ तो सही नाटक पसंद आया या नहीं। अरे तो क्या हुआ, और कोशिश करेंगे पर कुछ तो कहो... इसी सोच में जब एक महीने से भी अधिक बीत गया तो सोहन लाल की अचानक मुलाकात अशोक जेलखानी से के.एम.डी. बस स्टेन्ड के पास हुई। यह तब लाल चैक के पीछे बड़शाह ब्रज की तरफ जाने वाली सड़क के पूरब से उत्तर की तरफ जाते दाहिने हाथ पर था। यहां युनिवर्सिटी की बस से उतरते सोहन लाल की नज़र अशोक जेलखानी पर पड़ी जो किसी दोस्त के था सिगरेट के कश लेते बातों में व्यस्त थे। तभी अशोक ने भी सोहन लाल को देखा और पास आने का इशारा किया-हाथ मिला कर अभिवादन के बाद छूटते ही कहा कि तुम्हारा नाटक मैंने पढ़ लिया-इसके बाद अशोक ने खड़े-खड़े ही नाटक के हर पहलू पर सोहन लाल से विस्तार से बात की। सोहन लाल एकदम आश्चर्यचकित देखता रह गया-उसने सोचा भी न था कि अशोक जेलखानी इस तत्परता और बारीक-बीनी से स्क्रिप्ट का निरीक्षण और पाठ करते होंगे। इस भेंट के बाद सोहन लाल कौल और अशोक जेलखानी में आपसी समझ-बूझ और मित्रता बढ़ी। सोहन लाल ‘अशोक जेलखानी के स्टेज पर अभिनय के जौहर देखकर दंग रह गया। ‘पंछी ऐसे आते हैं’ के शो को देखने साहन लाल अपने युनिवर्सिटी के मित्रों को साथ ले आया था। इस नाटक में लंबी ‘सोलोल्यूकी’ स्वागत कथन को जिस खूबी के साथ दर्शकों को अपने साथ बांध कर रखते, अशोक जेलखानी ने प्रस्तुत किया, दूसरे रोज़ इसका ज़िक्र थियेटर के दर्शकों में ही नहीं अपितु श्रीनगर मे ंउस समय के सारे प्रमुख पत्रों में था-इंडिया काफी हाउस के भीड़ भरे हाॅल में शायद ही कोई कोना खाली था, जहां लोग इस नाटक की चर्चा नहीं कर रहे थे। सोहन लाल कौल भी अपने दोस्तों के साथ काफी हाउस में यह सूरत देखकर बहुत स्तब्ध सा लगा रहा था। अशोक जेलखानी के अभिनय और निर्देशन का वह मोहतात हो चुका था। सब इस ग्रुप की मन से प्रशंसा कर रहे थे। यहां यह कहना अनुचित न होगा कि दर्शकों के वर्ग में बहुत बड़ी तादाद कश्मीरी मुस्लिम लड़के-लड़कियों की भी थी। इस नाटक में एक मुस्लिम अभिनेत्री ने ग़ज़ब का काम किया था। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक पटल पर कमोबेश शांति दिख रही थी-शेख साहब ने हकूमत संभालते ही-कृषि संबंधित गैरहाज़िर जमीनदारों के बेदखल करने का कानून पास किया-इसके बाद बचे-खुचे हिन्दू ज़मींदार ज़मीनों से बिल्कुल वंचित किए गए और ज़मीन खेतिहर को मिली जो अधिकांश मुसलमान थे। जम्मू में जम्मू युनिवर्सिटी कायम हुई-और मुंबई जम्मू के बीच एक सुपरफास्ट रेल चलाई जानी नियत हुई। जम्मू , जहां पिछले कई वर्षों से कुछ खासा विकास नहीं हुआ था, विकास के मानचित्र पर आने लगा। कलचरल अकादमी के तत्वाधान में जम्मू में अभिनव थियेटर का निर्माण हुआ। इस से जम्मू की नाट्य संस्थाओं का बहुत उत्साह जगा-यह थियेटर उस समय अपने आप में अत्याधुनिक साउंड और लाइट सिस्टम से लेस था-यहां पर अकादमी के फेस्टिवल अलग से होने लगे और जम्मू में नाटक की विधा को प्रोत्साहन मिला। शेख साहब ने सरकारी अहलकारों की तनख्वाहें केंद्र के बराबर कर दीं। अब डी.ए. केंद्र के सूचकांक के बराबर कर दिया जाने लगा। किन्तु इमरजेंसी के बाद इन्दिरा गांधी एलेक्शन हार गई-और जनता पार्टी के लीडर मुरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने। कश्मीर की राजनीति में भी इस का असर साफ देखने को मिला। जिस कांग्रेस ने शेख साहब के साथ उकार्ड करके सत्ता हस्तांतरण की-वह अब राज्य की राजनीति में अलग-थलग दिख रही थी। कांग्रेस के कार्यक्र्ता, जिन्हंे केन्द्र काफी भाव देती और जो पिछले 20-25 साल से निर्बाध राज कर रहे थे, अब राज छिन जाने से अवाम में बहुत हद तक बेअसर हो गए थे। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता ऐतिहासिक बदले की भावना से पेश आ रहे थे। निचले तबके के कांग्रेस कार्यकर्ता, जिनका रोज़गार कांग्रेस पार्टी से जुड़ा था, अब यतीमों की तरह लग रहे थे। नेशनल कांफ्रेंस जो कि पहले ‘पेलिबिस्ट फ्रंट’ था, के कार्यकर्ता जिनके घरों में कांग्रेसी मुसलमान रिश्ता नहीं जोड़ते अब अपनी बेटियों के लिए और बेटों के लिए रिश्ते खोजने में लगे थे ताकि सामाजिक शासन लौट आए। दिल्ली की सत्ता से बेदखल राज्य की सत्ता से दूर, राज्य के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को जमाते-इस्लामी के पैरवकार जंचने लगे-इनकी घनिष्ठता जमात के लीडरों से बढ़ने लगी। एक दल तो पूरा ही जमात समर्थक बना। इस फ्रिक्शन ने वादी के माहौल में साजिशों के जाल बुनने शुरू किए। अचानक ही, साहित्य और कला के इतिहास और भाषा के उद्धभव व विकास के सिलसिले में भ्रामक लेखों का छपना, प्रचारित होना और इस तरह के वाद-विवादों का चर्चा में आना प्रारंभ हुआ। कश्मीर की सदियों से चली आ रही रिवायतों पर एक अलग दृष्टिकोण से बहस छेड़ी गई। 30 जून, 1977 में शेख साहब ने वादी में पूर्ण बहुमत से इलेक्शन जीते-इसके बाद कांग्रेस हाशिये पर नज़र आई-इसी वर्ष 25 जून को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने श्रीनगर का दौरा किया था। अक्तूबर 7, 1978 में वल्र्ड बैंक के प्रेसीडेंट राबर्ट मेकनमारा श्रीनगर आए। दुनिया को यह जताया गया कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत के साथ अंतिम है और इस पर कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसी दौर में वादी के लोक-कलाकार और संगीतकार व गायकों के जत्थे दुनियां भर के दौरे पर निकले और दुनियां की बड़ी-बड़ी राजदानियों मंे अपनी कला के जौहर दिखाए गए। संगीत-नाटक विभाग रेडियो, दूरदर्शन और राज्य सरकार की कल्चरल अकादमी व सूचना प्रसारण मंत्रालय मिलकर जम्मू-कश्मीर की कलाओं के विकास के लिए काम करने लगे। श्रीनगर में बेखौफ महिलाएं, बच्चे, बूढ़े जवान रात-दिन घूमते-घामते नज़र आते। रेडियो पर लोकप्रिय गायकों के गीत कश्मीरी जीवन के रहन-सहन का पर्याय बन गए-नई पीडी के गायकों में विजय मल्ला, गुलाम नबी शेख, रहमत-उ-ल्ला खान, शमीमा देव, (बाद में षमीमा आजाद), कैलाश मेहरा, आरती तिक्कू ने धूम मचाई और नई आवाज़ों ने नए संगीत और धुनों से सम्मोहन बिखेर दिया-कश्मीर का एक अलग रंग और अपनी अलग संस्कृति को इन कलाकारों ने स्वर दिये ।इन कलाकारों को कालजयी धुने प्रदान की कषमीर के मूल्यवान रत्न भजन सोपोरी जी ने। भाजन जी आज भारत ही नहीं विष्व के प्रख्यात संगीतकारों मे गिने जाते है। नसरउल्ला खान, वीरेन्द्र मोहन का अपना एक महत्वपूर्ण योगदान रहा इस सब में। इनके कई संगीत कार्यक्रम यहां टैगोर हाॅल और अभिनय थियेटर में भी पेश हुए। इन कलाकारों ने टी.वी. पर अपने शो दिए और लोगों में यष व षोहरत पाई। इसी माहौल में हमारा कश्मीर का नाटक सांस ले रहा था-जो भाषा की हदें लांघ गया था-कश्मीरी थियेटर में एक तरफ प्यारे रैना अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी नाटकों के हिन्दी एवं कश्मीरी रूपान्तरण पेश कर रहे थे। तो दूसरी ओर अशोक जेलखानी बंगला, उड़िया, कन्नड़, हिन्दी और मराठी नाटकों के हिन्दी रूपान्तरण स्टेज पर ला रहे थे। कश्मीर की दर्शक दीर्घा को इस प्रकार अपने देश ही नहीं, सारे विश्व के नाटकों का मंचन देखने को मिल रहा था। यह इस बात को और महत्वपूर्ण बनाता है कि कश्मीरी युवा वर्ग सीमित भौगोलिक दायरे को लांघ कर विश्व भर से जुड़ने का प्रयास कर रहा था। इस प्रयास को आगे बढ़ाने में अशोक जेलखानी ने एक अग्रण्य भूमिका निभाई। पर यह तब मुमकिन हो सका, जब श्रीनगर में एक प्रबुद्ध दर्शक वर्ग पहले से मौजूदा था। यह दर्शक साहित्यिक रूचि रखता था और साधारणीकरण बोध से परिचित था-दर्शक और नट-नटी सबको इस बात का अहसास था कि काव्य की सम्प्रभुता में बाधक तत्वों को किस तरह दूर किया जाता है। और इसमें सबसे अच्छी महारथ अशोक-जेलखानी ने प्राप्त की थी। अशोक को दर्शकों की नाटक में रूचि बनाए रखने के तत्वों का खयाल रहता। लंबे बोझिल संवाद और शिथिल कथोपकथन को वह रोचक बनाने के लिए कई बार बदल भी देते। सोहन लाल कौल उर्दू साहित्य का विद्यार्थी था पर नाटकों से खासा लगाव था इसलिए अंग्रेज़ी, हिन्दी, मराठी नाटकों का अध्ययन भी करता-विश्व भर के कहानीकार और नाटककार से परिचय रखता। सोहन लाल ने अशोक जेलखानी के बसन्त थियेटर मे ंएक ऐक्टर जो मुंबई से आया था और एक भूमिका निभा रहा था, उसके मुंबई जाने पर उस पात्र की भूमिका स्टेज पर निभाई-इसके बाद अशोक जी के साथ ‘कस कुस प्रारान’ ‘दोन कोहन अन्दर’ ‘हेनरुक क्योम’ ‘अंडर सेक्रेटरी’ अंतोन चेखव’ ‘सोलह जनवरी की रात’ और ‘राहें’ नाटक दूरदर्शन के लिए लिखे। ‘राहे’ में अशोक जेलखाने ने सोहन लाल के निर्देशन में अभिनय किया। सोहल लाल कौल स्वयं दूरदर्शन में नौकरी के लिए प्रयासरत था और अशोक ने उसे इसके लिए अगाह किया था। आज सोहन लाल कौल को अपनी ग़लती का अहसास है। उसका कहना है कि मुझे यहां नौकरी नहीं करनी चाहिए थी, मैंने उर्दू में डाक्टरेट किया था, यहां आकर मैंने अपनी सारी क्रियेटिवटी खो दी। सोहन लाल कौल की यह टिप्पणी बहुत मायूस कर देती है। पर शायद यह एक सच्चाई है। जिस सच्चचाई का अहसास अशोक जेलखानी ने उसे दिलाया था-हालांकि ऊपरी तौर पर देखें तो लगता है कि सब ठीकठाक चल रहा है। पर अशोक जेलखानी बिना निजी अनुभव के ऐसी राय कदापि न देते। जब रचनात्मक सोच कायदे कानून और अफसरशाही की बंदिशों में बंध जाती है तो कलाकार घुटन महसूस करता है। उसे अपनी रचना प्रक्रिया अफसर को समझानी मुश्किल होती है। दफ्तरी नज़रिया अफसरों के मंतिक के कारण भी रचनात्मकता में बाधक बनता है। दफ्तरी तौर-तरीके खाना-पूर्ति और औपचारिक उठा-पटक में उलझे रहते हैं। हालांकि अशोक ने शायद ही कभी दफतरी तवालत को अपनी रचनात्मक क्रिया के आड़े आने दिया हो पर एक बार दफतर पटा गले में पड़ने के बाद आदमी को वही करना पड़ता है, जो आदेशित होता हो। इस बात पर यहां यह कहना अवान्तर न होगा कि एक बहुत ही काबिल निर्माता बशीर बड़गामी ने कश्मीरी में एक लाजवाब टेलीविजन फिल्म ‘हबाॅखातून’ बनायी इसके बाद उसे कई प्रकार से प्रताड़ना सहनी पड़ी। इन्दिरा गांधी जब आपातकाल में लोगों का विश्वास खोती नज़र आ रही थी, तो उन्होंने अपने प्रचार-प्रसार और कांग्रेस की नीतियों की प्रचार व्यवस्था मज़बूत करने के लिए, सरकारी संचार माध्यमों का इस्तेमाल भी किया-एक समाचार फीड दिल्ली से श्रीनगर आया और इसे शाम के बुलेटिन में शामिल करने को कहा गया था-फीड जब प्रीविव हुआ तो देखा गया कि पार्टी कार्यकर्ता बेमन होकर इन्दिरा जी का भाषण सुन रहे हैं, आमतौर पर भाषण के बाद ‘जय हिन्द’ नारा लगाने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल भर जाता, पर इसमें इन्दिरा जी ‘जय हिन्द’ बोलती तो लोग वापस कुछ नहीं कहते और भाषण समाप्त होने पर किसी ने ताली भी नहीं बजाई... टेप के केस जिसमें टेप रखा गया होता था, में एक काग़ज़ चिपका अशोक को मिला इस पर लिखा था-प्लीज ऐड क्लिेप इन द एंड। ‘कृपया आखिर में तालियां जोड़ दें’ अपने राष्ट्र की एक पावरफुल प्रधानमंत्री के भाषण पर कोई जब खुश नहीं हुआ तो हमें उस खुशी को अलग से पैदा करने को कहा गया, यह भूमिका शायद आज भी अधिक नहीं बदली है।’ प्राइवेट चैनलों में भी नहीं, वहां जो पैसा फेंकता है वह कुछ भी भजवा सकता है। एक अन्य घटना वादी के ‘शेर’ से जुड़ी है। ‘शेरे कश्मीर शेख मुहम्मद अब्दुल्ला-श्रीनगर स्टूडियो में लोगों से मुखातिब होनेे आए।’ यह शायद 1978 के इलेक्शन के संबंध मंे ही है, लोगों से उनका संबोधन रिकाॅर्ड हुआ-वे अपने स्टाॅफ के साथ निकल पड़े-अशोक की नज़र ‘डाइस’ पर पड़े उनके चश्में पर पड़ी-‘शेख’ साहब अपना चरचमा स्टूडियो में भूल गए। अशोक ने चश्मा उठाकर अपने स्टाॅफ को दिखाया-स्टाॅफ के लोग इसे आंखों से लगा कर चूमने लगे-कुछ ने यहां तक कहा कि वापिस ही मत दो किसी दिन यह आपके पास इनकी नायाब निशानी के तौर पर बहुत मूल्यवान समझी जाएगी। आज यह शब्द एक व्यंग्य की तरह लग रहे हैं-पर यह शेख साहब का वर्चस्व था। ऐसे किस्से कितने हुए होंगे। जब अधिकारियों से एक राय नहीं रहे होंगे। पर अशोक ने मुंह लगना नहीं सीखा था-इसके संस्कार और शिक्षा बिलकुल अलग थी। हर हाल में अपने सीनियर का कहा मानना और उसे इज्जत देना छोटों को प्यार और सम्मान देना-कोई इससे सीखे। इन्होंने अपने कैरियर में कभी यह नहीं सोचा कि बस इन्हें नाटकों मंे महारत है तो नाटक ही करेंगे। टीवी में इनकी भूमिका इन्हें एक कार्यक्रम निर्माता के रूप में दी गई हैं। कार्यक्रम कोई भी हो यह इसे उतनी ही खूबी के साथ बनाते हैं, जैसे नाटक बनाते, इसीलिए, म्यूजिक साहित्य, खेल-खिलाड़ी, बच्चों के प्रोग्राम, खतों के जवाब... हर तरह के कार्यक्रम इन्होंने टीवी में प्राॅड्यूस किए। इनकी इस कामयाबी से कुछ लोग हताश भी थे और इन्हीं की हताशा ने अशोक जेलखानी को एक बार बड़े विचित्र संकट में डाला। एक अभिनेत्री जो किसी भी नज़रिये से अशोक जेलखानी के व्यक्तित्व और उसकी साख के बराबर न थीं, दूरदर्शन निर्देशन से यह शिकायत कर आई कि अशोक ने उससे बुरे शब्द कहे और अभद्र भाषा का प्रयोग किया-यह बात तो किसी के गले नहीं उतर सकती। निदेशक ने चुपचाप स्वयं इस बात की तह तक जाने का फैसला किया। उसने अशोक या किसी अन्य व्यक्ति से इस बात का जिक्र नहीं किया और न इस महिला को कहीं और यह बात कहने की सलाह दी। इस महिला को वास्तव में कुछ नाराज़ अभिनेताओं ने उकसाया था और ऐसा करने का लालच दिया था। इन्हंे अशोक बुक नहीं करता-अशोक इन बातों से बेखबर था-एक बार उसके पास ऐसा नाटक आया, जिसमें इस विशेष महिला कलाकार की ज़रूरत महसूस हुई। इसके साथ वे नाराज़ कलाकार भी बुलाए गए-नाटक में काम करते-करते इस महिला ने सबका भंडाफोड़ किया और अशोक से पैर पकड़ कर माफी मांगने लगी-जब अशोक ने पूरा वृतान्त सुना तो वह दंग रह गया। उसे इन लोगों की बुद्धि पर अफसोस हुआ-पर अशोक का मन धीर था-कभी अधीर नहीं होता। सबको क्षमा किया-सब निदेशक के पास जाकर साफ-सफाई देने लगे। निदेशक ने अपने सूत्रों से जो जांच करवाई थीद्व वह बिलकुल यही बयान करती। निदेशक ने सबको कड़ी सज़ा सुनाने का फैसला सुनाया-तुम सब हमारे इदारे के काबिल नहीं, तुम्हें यहां झांकने की भी इजाजत नहीं देता। पर अशोक ने आगे आकर सबको माफ करने की पैरवी की और इन पर प्रतिबन्ध लगते-लगते रह गया। ऐसा व्यक्ति कोई दूसरा होगा...। शायद बहुत अभी है... इस भावना को सोहन लाल कौल अशोक जी की कमज़ोरी भी कहता है। वह कहता है कि यह अपवाद की हद तक शरीफ है। किसी को मनाह नहीं करते और नुकसान भुगतते है। इनकी रचनात्मक क्षमतायंे प्रशासनिक कार्यों में दब कर रह गई। केन्द्रीय सरकार की गेज़िटेड जाॅब, शोहरत, और रूतबा उम्र केवल 24, 25 वर्ष और खूबसूरत और स्वस्थ-ऐसे नौजवान के घर वालों को आए दिन लड़की वालों से कितने रिश्ते आ रहे होंगे ! यह कोई भी समझ सकता है। जिन लड़कियों की दाल नहीं गल रही थी-उनमें कुछ ने दूरदर्शन मंे काम कर रहे हर अभिनेता-अभिनेत्री के चरित्र पर ही सवाल करने शुरू किए। किसी भी लड़की के साथ अशोक को देखकर उसके उस लड़की से प्यार और ब्याह के चर्चे शुरू हो जाते। पर अशोक ने जैसे ब्याह, थियेटर और टीवी से ही रचा लिया हो। वह घर में इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता। घर वालों ने भी रिश्ता भेजने वालों को खबर कर दी थी कि अभी लड़का तैयार नहीं है। इसी बीच एक परिचित लड़की ने अपनी जगह ठान लिया कि कैसे भी हो, इस विश्वामित्र की समाधि भंग कर सके? उसने घर में पैठ बनाई। मां-बाप और चाचाजी का विश्वास जीता और अशोक से निकटता दिखाने लगी। वह मंदिरों मं जा-जाकर व्रत और प्रार्थनाएं करने लगी। उसने अपनी ओर से शत प्रतिशत अशोक को अपना पति मान लिया था-पर अशोक ने कभी इस बात के लिए उसे एनकेरेज नहीं किया। इसी में वह एक मशहूर पीर बाबा के पास चली गई। यह पीर अनन्तनाग के शांगस इलाके में बहुत मशहूर था-पीर के पास कुछ देर बैठते ही लड़की ने अपने मन में पीर से प्रश्न किया कि क्या उसकी शादी अशोक से होगी। पीर जो आमतौर पर किसी के प्रश्न का सीधे जवाब न देकर, एक अनाप-षनाप सा बकता रहता और लोग अपने सवालों के जवाब उस बकवास में खुद तलाशते, इस लड़की से सीधे मुखातिब हुआ और कहने लगा, ‘दोबारा ऐसा विचार मन में नहीं लाना, कभी शेर की शादी किसी बिल्ली से होते देखी है?’ लड़की कांप उठी-जैसे किसी ने उसका सारा धन लूट लिया हो-उसे अचम्भा, हैरत और दुःख हुआ-वह यहां आई ही क्यों-उसके मन में जो था वो था-उसके अशोक से जानने की कोशिश की होती-अब तो अशोक भी न कभी राजी होगा। अपनी अकल और किस्मत को कोसती इस लड़की ने बहुत मुश्किल से अशोक का ख्याल मन से निकाला। अशोक को लड़की की ऐसी भावना जानकर अत्यंत दुःख हुआ। उसने कभी यह नहीं सोचा था कि उस लड़की की मंशा उससे शादी करना है। वह शायद उससे दूरी बनाए रखता जैसा कि वह अन्य लड़कियों से रखता था। इस घटना के बाद अशोक लड़कियों से और सावधानी बरत कर व्यवहार करने लगा। वह किसी भी तरह किसी लड़की के मन को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था। पर ऐसा उसके अपने वश में न था। स्टेज और स्क्रीन पर उसके निर्देशन में काम करने वाली लगभग सारी लड़कियां उसको अपने निकट समझती। कुछ शायद बेहद प्यार भी करती थी। जहां जवानी और खूबसूरती होती है वहां यह एक स्वाभाविक भावना है। पर इस भावना को मर्यादा के भीतर अशोक ने हमेशा बाध्य कर रखा। किसी से धोखा, छल या गलत व्यवहार नहीं किया। अपनी भोली और ईमानदार जिन्दगी को कभी कोई दाग नहीं लगने दिया। शायद यही कारण है कि आज भी हर महिला कलाकार अशोक जी का नाम अतिरिक्त मान और मर्यादा से जोड़कर लेती हैं। उनकी नेकी और इनसान दोस्ती की दलीलों का कोई हिसाब नहीं। उनके मातहात ‘अधीनस्थ’ कर्मचारी उन्हें बहुत मान देते हैं। प्यार देते हैं, हमेशा उनकी और उम्मीद की निगाह से देखते हैं। थियेटर ने जहां अशोक को एक अनुशासन की जीवन शैली दी वहीं दारू की आदत यहीं शायद लग गई। और दारू पीने में शायद ही यह कभी उन्नीस रहे हों। शाम पांच बजते ही इनको एक अजीब बेकरारी घेरती और शाम किसी पब में गुजारते-जहां चार दोस्त मिलकर जाम टकराते और दुनियां भर की बातें होती। इतना कुछ होने के बाद भी एक अनोखी बात भी देखने को मिलती-कभी यह महीनों दारू के बगैर भी रह लेते। इन्हें नशे का गुलाम बनना कतई मंजूर नहीं था। अपने आप पर इतना काबू रखना कोई इनसे सीखे। मेरी मुलाकात अशोक जेलखानी से दूरदर्शन के एक कार्यक्रम पर हुई। मुझे एक डाक्यूमेंटरी की आॅन स्क्रीन लाईव नरेशन करती थी-अशोक उन दिनों फ्लोर मैनेजर थे। मुझे फ्लोर पर निर्देश देने वाला यह खूबसूरत नवजवान बहुत पसंद आया। इसने मुझे बहुत सहज महसूस होने दिया और अपने निर्देश चिह्न समझाए। हालांकि अब तक मैं कई ऐसे कार्यक्रम एंकर कर चुका था-पर यह अपनी ड्यूटी निबाह रहे थे। कार्यक्रम खत्म होकर हमने हाथ मिलाए और मैं ड्यूटी रूम से पचास रुपए का चेक लेकर निकलने लगा। तभी इन्होंने आकर मेरा नाम पूछा और मैंने परिचय दिया। वहां ड्यूटी रूम में प्यारे रैना भी थे-उन्होंने भी मेरी बहुत तारीफ की और इस कार्यक्रम के निर्माता-बीएल कौल ने तो मुझे यह कार्यक्रम साप्ताहिक करने का न्यौता दिया। मैं बहुत खुश था। मैं वास्तव में युनिवर्सिटी अपनी पढ़ाई आगे जारी करने के सिलसिले में शहर आया था। जेब खर्च और बाकी खर्चों के लिए रेडियो और टीवी में कुछ काम भी कर लेता। हालांकि मेरी दिली चाहत थी-नाटकों में काम करना। युनिवर्सिटी में मुझे टैगोर हाल के नाटकों के बारे मंे पता चला। प्यारे रैना जी ने अपना क्लब संगरमाल ज्वाइन करने का न्यौता दिया-इसे आजकल एनएसडी से आया एक लड़का देख रहा था-जिसका नाम चंद्रशेखर था-चंद्र ने नाट्य संस्था से अभिनय में डिप्लोमा किया था-और मैं इसे अपना सौभाग्य समझ रहा था कि चन्द्र के साथ काम करने का मौका मिलेगा। कुछ समय पूर्व श्री मोती लाल क्योमू जी ने मुझे नाट्य संस्था में भेजने का प्रस्ताव दिया था। पर घरेलू परेशानियों के कारण मैं नहीं जा सका था। मुझे एम ए 1973 में ज्वाइन करना था। इन्हीं परिस्थितियों के कारण मैं एक साल देरी से अब ज्वाइन कर पाया था। मैं शहर में एक अभिनेता के रूप में स्थापित होकर रेडियो टीवी में काम करने का इच्छुक था-संगीत, साहित्य के भी कार्यक्रम में भाग लेता था। नाटकों में भाग लेने के लिए मैंने चंद्रशेखर के निर्देशन में एक नाटक में काम करने का रिहर्सल शुरू किया। हम लोग गांव से शहर में किराये पर रहते, मेरे साथ मेरे अन्य मित्र भी थे। रिहर्सल में देर लगती तो वे लोग नाराज़ हो जाते। शाम को सब अगर देर से आएंगे तो खाना कैसे बनेगा? इन दिक्कतों को नजरन्दाज़ करते हुए जब छह महीनों से भी अधिक समय हम केवल रिहर्सल ही करते रहे और नाटक मंचित न हो पाया तो मेरा चंद्रशेखर के साथ मतभेद होने लगा। वास्तव में चंद्र का ध्यान रिहर्सल से अधिक सड़क के दूसरे किनारे पर रह रही एक लड़की की खिड़की पर अधिक रहता, जिसके साथ अन्त में उसकी शादी हुई। पर इससे पहले एक अनोखी बात हुई, हम रिहर्सल कर रहे थे कि अशोक जेलखानी, जाफरानी, चन्द्रा और कुलभूषण वान्टू हमारे कमरे में दाखिल हुए-कुछ देर रूके और चले गए-जाते हुए अशोक जाफरानी ने मुझे रिहर्सल खत्म होने के बाद ऊपर बसन्त थियेटर के कमरे में आने को कहा। इनके निकलते ही चंद्रशेखर बहुत बौखलाया-उसने मुझे ऊपर जाने से साफ मनाह किया-पर मैं इसके बावजूद गया। ‘पगला घोड़ा’ कार्तिक था। रिहर्सल कर रहे थे। मैं अंदर चला गया और अशोक जाफरानी ने बताया कि वह मेरे सारे टीचरों को जानता है और युनिवर्सिटी में एम ए हिन्दी कर चुका है। मुझे बहुत अच्छा लगा-रोल करोगे।लेकिन मैं तो कर रहा हूं। देखा वह नाटक होना होता तो आज तक हो नहीं गया होता-तुम वक्त क्यों बर्बाद कर रहे हों। मुझे लगा बात में दम है। और मुझे इनके साथ काम करना चाहिए-मैंने हां कर दी और मुझे कार्तिक का रोल दिया गया। कश्मीर की घाटी में हिन्दी में लिखने वाले गिने-चुने लेखकों, कवियों का एक ग्रुप था। यह पठन-पाठन व अध्यापन के साथ ही, हिन्दी लेखन में भी कार्यरत थे। इन लोगों ने कई बार, एक संस्था बनाने की कोशिश की। और बना भी ली, पर इन संस्थानों का दम जल्द ही घुट जाता-जाने क्यों एकजुट नहीं हो पाए-अगर इन्हें कोई चीज़ जोड़ती थी तो वह स्टेज, रेडियो और टीवी था। यहां ये लोग अपने नाटक, वार्ता या अन्य विषय के संबंध में आते-जाते एक दूसरे से मिल लेते और ऐसे आपसी चर्चा में बहुत व्यावहारिक स्तर पर छिड़ जाती। एक बार ऐसी ही चर्चा अशोक जेलखानी के स्टेज हुए नाट ‘एवं इन्द्रजीत’ पर छिड़ गई-कश्मीर के एक जाने-माने हिन्दी साहित्यकार, ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर बहुत खुश हो गए थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इस कदर एक नौजवान इस नाटक को अपनी बेहतर समझबूझ के बल पर मंचित कर सकता है, यह लेखक शशिशेखर तोषखानी थे और इन्होंने एक अन्य कश्मीरी लेखक हृदय कौल भारती को इसका समाचार दिया-भारती यह मानने को तैयार नहीं थे कि वादी में ऐसी परिपक्व समझ का रंगकर्मी है जो ‘एवं इन्द्रजीत’ स्टेज कर पाए। पर दूसरे, तीसरे शो में भारती जी भी यह नाटक देखने गए और अचंभित हुए। पर भारती जी इतनी जल्दी अपनी राय बदलने वालों में नहीं, सोचा कि चलो, इस आदमी का एक तुक्का सही लगा। पर जब भारती जी ने इस नौजवान को लगातार एक से बढ़कर एक नाटक स्टेज पर लाते देखा, तो इसके ‘फैन’ बन गए। फैन भी ऐसे कि इसे अपना छोटा भाई कहने लगे। हृदय कौल भारती न केवल जम्मू-कश्मीर के स्थापित कथाकारों और आलोचकों में से एक है, अपितु उनकी दिलचस्पी सिनेमा और टीवी में अन्य समसामयिक लेखकों से कहीं अधिक थी। इन्होंने दिल्ली में रहकर सिनेमा का गहन अध्ययन किया था और फिलम्ज़ डिविजन, रेडियो आदि संचार माध्यमों में काम भी किया था। अशोक जेलखानी को न केवल एक सफल रंगकर्मी और बहुत सफल टीवी निर्माता, निर्देशक मानते हैं अपितु इनका कहना है कि दूरदर्शन की अफसरशाही में एक बार कदम रखने के बाद क्रियेटिवटी कहीं पिछले जमाने की बात हो जाती है। हालांकि प्राण किशोर जी इस बात से अधिक सहमत नहीं दिखते, प्राण जी ने अशोक जेलखानी को बचपन से देखा है। इनका सुपुत्र अजय और अशोक एक साथ पढ़ते थे-दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना था-प्राण जी का कहना है कि ‘गोल मटोल’ बड़ी-बड़ी आंखों वाला निहायत ही आकर्षक लड़का उनके बेटे के साथ कभी-कभी राजबाग उनके घर पर आता-उसे देखकर हमेशा बहुत अच्छा लगता-प्राण जी एकदम से इस घटना को पचास-पचपन साल पहले एक दिन से जोड़ते हैं। जब अशोक जी पहली बार प्राण किशोर जी के बेटे के साथ्रा उनके घर पर आए। अपने बेटे अजय के साथ एक सुंदर गोल-मटोल लड़के को प्रवेश करते हुए प्राण जी ने देखा कि इसकी मोटी-मोटी खूबसूरत आंखों में ऐसा आकर्षण था, जिससे हर कोई उसकी तरफ खींचे बिना नहीं रहता। अजय और अशोक दोनों बिस्को मेमोरियल स्कूल में एक साथ एक ही क्लास में पढ़ते थे। प्राण जी ने दोनों दोस्तों को एक साथ जवान होते देखा-कहने का तात्पर्य यह है कि अशोक जेलखानी प्राण जी के बेटे के समकालीन हैं और प्राण जी के बेटे समान हैं। सो प्राण जी अशोक जी के बारे में कुछ भी कहने से पहले इस बात से खुद को आश्वस्त करते हैं कि जिस व्यक्ति के बारे में बोल रहे हैं वह हालांकि उनसे उम्र में उनके बेटे के बराबर हैं पर उसी कार्यक्षेत्र से जुड़ा है जिसे कि प्राण जी ने अपना जीवन धर्म बना लिया है। एक तरह से एक ही कालावधि के आगे पीछे दोनों एक ही कार्य से जुड़े हैं। एक को वरिष्ठ गुरू का दर्जा हासिल है और दूसरे ने अभी-अभी कला की दुनियां में रंगमंच और टीवी के माध्यम से काफी सफलता अर्जित की है। प्राण जी कहते हैं कि वह बिना किसी अतिरिक्त लगाव या स्नेह के एक तटस्थ रूप विवेचक की दृष्टि से जब अशोक जेलखानी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर नज़र दौड़ाते हैं तो उन्हें वह समय याद आता है जब अशोक जेलखानी ने उनके बेटे अजय के साथ वसन्त थियेटर की स्थापना की। उस समय श्रीनगर शहर में दो-चार नाटक मंडलियां सक्रिय थीं-जिनमें कलाकेंद्र, रंगमंच, नवरंग, आदि अच्छा काम कर रहे थे। इसी समय ‘बसन्त थियेटर’ का उद्भव अशोक जेलखानी के नेतृत्व में हुआ-उस ग्रुप के सबसे सक्रिय सदस्यों मंे अशोक जाफरानी, अशोक जालपुरी, तेज तिक्कू आदि भी थे।----------------------------------------------------------------- थियेटर फेडरेषनप्राण जी ने हमारे इस दृष्टिकोण की पुष्टि की है कि साठ और सत्तहर की दहाइयां कश्मीर के रंगमंच के इतिहास में सुनहरी भाग था। यह वह समय था, जब कश्मीरी रंगमंच गांव-गांव में फलने-फूलने लगा। इस समय ने कश्मीर के रंगमंच को नए आयाम दिए। इन वर्षों में न केवल भारत की विभिन्न भाषाओं के चुनींदा मशहूर नाटकों का श्रीनगर में मंचन हुआ, अपितु इनसे प्रेरित होकर कई अच्छे कश्मीरी नाटक भी लिखे और स्टेज किए गए, इस प्रकार रंगमंच को एक नई क्रांति का युग मिला। इस क्रांति को फलने-फूलने में अशोक जेलखानी ने अपना एक विशिष्ट योगदान दिया, जो बहुत महत्वपूर्ण है। अशोक जेलखानी ने नाटक मंचन की विधा को एक नई दिशा प्रदान की। उनके नाटकों के निर्देशन की सुन्दर छटा प्राण जी को उस समय दिख गई जब 1971 में पहली बार ललित सहगल के हिन्दी नाटक ‘हत्या एक आकार की’ को देखने का इन्हें अवसर मिला। प्राण जी कहते हैं कि इस नाटक को इन्हांेने दम साध कर देखा-प्राणजी की नजरों के सामने पले-बढ़े बच्चे से अब जवान हुए उस व्यक्ति का कद काफी ऊंचा दिखने लगा, जिसने ऐसा नाटक-निर्देशित किया था। प्राण जी अशोक जेलखानी के निर्देशित लगभग सभी स्टेज नाटक देखने का एक तरीके से तहया कर बैठे थे। इन्होंने शायद ही कोई नाटक छोड़ा हो। प्राण जी आगे कहते हैं कि अशोक जी के निर्देशन में मंचित कुछ नाटकों के मूल स्टेज रूप इन्होंने दिल्ली और कलकत्ता में भी देखे थे और यह महसूस कर रहे थे कि अशोक जेलखानी के नाटकों का निर्माण स्तर किसी रूप में भी इन नाटकों की तुलना में कहीं कम नहीं आंका जा सकता। प्राण जी ने महसूस किया कि समय गुजरने के साथ अशोक जेलखानी के नाटकों के मंचन में स्थिरता, गहनता और कथ्य की गहराई तक जाने की क्षमता प्रफुल्लित होकर सामने आने लगी। इस प्रकार से नाटकों के ऐसे मंचन को देखते हुए प्राण जी को भीतर से विश्वास होने लगा कि जिस चीज को थियेटर के आरंभिक दौर से आगे निकालते हुए उन्होंने पौधे के रूप में सींचा था वह अब फलदार वृक्ष का रूप लेने लगा है। इस आशवस्त मन से प्राण जी अपने इर्द-गिर्द से खुश हो रहे थे। वह परंपरा जो इन्होंने इप्टा से कश्मीर में लाई थी अब आगे प्रशस्त पथ पर चलने लगी है। प्राण किशोर जी जिस प्रकार से अशोक जेलखानी के मंचित हर नाटक का विस्तारपूर्ण विवरण देते हैं, इस बात से ही यह स्पष्ट होना चाहिए कि इन नाटकों का प्रभाव कितना गहन रहा होगा। प्राण जी ने ‘जगदीश चंद्र माथुर के कोणार्क’ बादल सरकार के ‘एवं इन्द्रजीत’ मधुराय के ‘किसी एक फूल का नाम लो’ अली मुहम्मद लोन के नाटक ‘चिनार’ विजय तेन्दुलकर के नाटक ‘गिद्ध और पंछी’ ऐसे आते हैं बादल सरकार के ‘सारी रात’ सुरेन्द्र वर्मा के ‘सूर्य की अंतिम किरण, से पहली किरण तक’ और मुद्रा राक्षस के ‘संतोला’ एवं बादल सरकार के ‘पगला घोड़ा’ के मंचन का विशेष जिक्र किया है। सारे नाटक बसन्त थियेटर के बैनर तले खेले गए और अशोक जेलखानी ने डायरेक्ट किए। इसमें से सुरेन्द्र वर्मा का नाटक, ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ अलंकार थियेटर ने प्रस्तुत किया था। इस नाटक में और ‘गिद्ध’ में महाराज षाह ने भी प्रमुख भूमिकाएं निभाईं थी और अशोक जी को असिस्ट भी किया था। प्राणजी आगे कहते हैं कि 1974 में कश्मीर के प्रमुख थियेटर कर्मियों ने कश्मीर में रंगमंच के विकास और उन्नति के लिए एकजुट होकर कश्मीर थियेटर फेडरेशन का गठन किया-इस फेडरेशन ने हज़ारों दर्शकों तक पहुंच बनाकर नाटकों के सामाजिक महत्व और पहलू से इन दर्शकों को परिचित कराया। फेडरेशन की सफलता से यह बात साबित हो गई कि बिना सरकारी अनुदान के और सरकारी संरक्षण के भी यदि नाटक कर्मी और रंगकर्मी मिलकर काम करें तो किस प्रकार एक क्रांतिकारी प्रबलता से सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं। वास्तव में प्राण किशोर ऐसे कर्मठ और दिशानिर्देशक रंगकर्मियों ने इस फेडरेशन की अगुवाई की और घाटी के रंगकर्मियों को वह प्लेटफाॅर्म प्रदान किया जिसकी यहां शिद्दत से आवश्यकता महसूस की जा रही थीं। फेडरेशन ने विधिवत यहां ड्रामा फेस्टेवल संयोजित किए। इस फेस्टेवल का लोग बहुत तत्परता से प्रतीक्षा करते। पहले ही फेस्टिवल में अशोक जेलखानी के निर्देशन में प्रस्तुत नाटक, बादल सरकार द्वारा आलेखित ‘एवं इन्द्रजीत’ को बेस्ट प्ले का अवाॅर्ड दिया गया। इस संदर्भ में प्राण जी एक महत्वपूर्ण बात की और इशारा करते कहते हैं कि फिल्म ‘महजूर’ के संकलन के सिलसिले में जब वे कलकत्ता में थे तो वहां कोई साल भर से बादल सरकार का यह नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ बंगला भाषा में स्टेज हो रहा था। नाटक स्वयं बादल सरकार कि निगरानी में मंचित हो रहा था। यहां घाटी में इसी नाटक का हिन्दी रूपान्तरण अशोक जेलखानी पेश कर रहे थे-प्राण जी के जेहन में कलकत्ता के संस्करण की छाप अभी धुली नहीं थी... और जब अशोक जी की प्राॅडक्शन देखने का अवसर मिला तो प्राण जी के शब्दों में बंगला नाटक की तुलना में हिन्दी रूपान्तरण और मंचन कहीं भी उन्नीस नहीं लगा-प्राण जी अत्यंत खुश थे कि अशोक जेलखानी ने बराबर की टक्कर का नाटक खेला था। उपरोक्त फेडरेशन के लगभग हर फेस्टिवल में अशोक जेलखानी हर वर्ष अवाॅर्ड प्राप्त करते गए। 1975 में ‘किसी एक फूल का नाम लो’, मधुराय, 1976 में ‘चिनार’ अल्ली मुहम्मद लोन, के नाटक का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक अवाॅर्ड स्वयं उस समय के सबसे कदावर राजनीतिक व्यक्तित्व मुख्यमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने इन्हंे दिया।-------------------------------------------------------------------संस्मरण अशोक जेलखानी ने केवल हिन्दी नाटकों का ही सफल मंचन नहीं किया अपितु श्री मोती लाल क्योमू के कश्मीरी प्रहसन मांगेय को निर्देशित करके यह साबित कर दिया कि इनमें कश्मीरी थियेटर को एक नया अयाम देने की प्रबल क्षमता है। प्राण जी ने अशोक जी को अपने रेडियो ड्रामा में भी काम करने के अनेक अवसर प्रदान किए पर यह यात्रा बहुत संक्षिप्त रही, क्योंकि इसी बीच इनकी नियुक्ति दूरदर्शन में हुई। घाटी के अग्रणीय वरिष्ठ रेडियो नाटक और मंच के अभिभावक का दर्जा रखने वाले श्री प्राण किशोर कौल जिन्हें प्राण किशोर और सब करीबी लोग प्राण जी के संबोधन से जानते हैं, एक दिलचस्प बात बताते हैं। रेडियो से सेवानिवृत्ति के बाद प्राण जी मुंबई में फिल्म और टीवी जगत से जुड़ गए। यहां इन्होंने कई फिल्मों के स्क्रीन प्ले और टीवी सीरियल लिखे जिनमें ‘गुल-गुलशन गुलफाम’ काफी मक़बूल रहा-इस काम में व्यस्त होने के बावजूद भी प्राण जी और अशोक जी में कभी संपकर्म नहीं टूटा-प्राण जी की नज़र बराबर अशोक जेलखानी की ब्राडकास्टिंग यात्रा पर रही। प्राण जी का कहना है कि वह हर उस नौजवान की खोज-खबर रखते हैं, जो उनकी नजरों के सामने बड़ा हुआ और समाज में किसी न किसी रूप में अपना मूल्यवान योगदान देता रहा। प्राण जी क्योंकि टीवी के लिए लेखन और निर्देशन का कार्य भी करते हैं, इसलिए अशोक जी के संपर्क में रहना एक संयोग की बात भी है, पर बात संयोग की ही नहीं, कलात्मक और रचनात्मक स्तर पर एक तरह की परिपूरकता और समरसता की भी है। प्राण जी मानते हैं कि उम्र के अलग-अलग पड़ाओं पर होने के बावजूद भी जो कलात्मक समरसता का संबंध है, वहां दोनों में साधारणीकृत संवेग स्तर का रिश्ता अब एक तरह की मित्रता का समरूप हो गया है। अशोक जेलखानी को कलात्मकता की पैनी दृष्टि और आंकलन की सूझबूझ पर जो बात यहां प्राण जी ने कही है वह इस बात का प्रमाण है कि अशोक जेलखानी की पकड़ किस संजीदगी से अपने कार्यक्षेत्र पर है। एक सीरियल निर्माता ने प्राण जी से उनके एक फिल्म स्क्रिप्ट को दूरदर्शन सीरियल में बदलने की जिद की-प्राण जी ने उन्हें काफी समझाया कि यह आलेख ‘फिल्म के लिए लिखा गया है और इसे सीरियल में लिखना शायद समुचित नहीं, पर जिद्ध करके प्राण जी से इस ‘फिल्म स्क्रिप्ट’ का सीरियल प्रपोजल बना कर वह निर्माता अशोक जेलखानी के पास दिखाने ले आए। अशोक जी ने प्रथम दृष्टि में ही प्रपोजल को यह कहकर मनाह किया कि यह फिल्म के लिए अच्छा है सीरियल के लिए नहीं-इस बात से अशोक जेलखानी की बारीकबीनी और मीडिया की अंडरस्टैंडिंग का पता चलता है। ऐसे कितने ही अवसर और मोड़ आए, जहां अशोक जेलखानी ने अपनी सारर्गिभित प्रतिभा का परिचय देकर सामने वाले को अचंभित कर दिया है। अशोक जेलखानी के थियेटर ग्रुप के साथ बहुत लड़के-लड़कियां जुटे इनमें एक बहुत ही निपुण सुंदर और प्रतिभा की धनी लड़की राजकिरण है-राजकिरण एक सहज, सुलझी और प्रबुद्ध लड़की होने के साथ ही एक विदुषी रंगकर्मी के रूप में बसन्त थियेटर में खुद को स्थापित कर सकी। -बसन्त थियेटर से जुड़ने से पहले राजकिरण संगरमाल थियेटर के साथ कुछ एक प्राॅडक्शन करके नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा में अपने नाटक में ग्रेजुएशन करने गई थी-वह घाटी की पहली एनएसडी ग्रेजुएट है। श्रीनगर वापिस आने के बाद उसे कुछ मित्रों ने बसन्त थियेटर से जुड़ने की सलाह दी। पर कुछ अन्य मित्रों ने मनाह किया और कहा कि तुम्हारी अशोक जेलखानी जैसे घमंडी लड़के से नहीं निभ पाएगी। दूर से देखने पर इस बात में राजकिरण को बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। उसे अशोक बहुत घमंडी किस्म का व्यक्ति लग रहा था। राजकिरण भी ‘एवं इन्द्रजीत’ देखकर अशोक जेलखानी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। उसके मन में, इस गुणी-मानी खूबसूरत नौजवान को जो एक सधा हुआ अभिनेता होने के साथ ही एक मंजा हुआ स्टेज निर्देशक भी साबित हो रहा था, जानने की उत्सुकता बढ़ने लगी। शहर में हर किसी की जुबान पर अशोक जेलखानी का जिक्र था। कोई उसके गुण तो कोई ऐब बयान करता-पर चर्चा हर जगह थी। इस तरह के विरोधाभासी बयानों के बीच राजकिरण कोई ठोस सकारात्मक राय अशोक के विषय में नहीं बना पा रही थी। शायद अशोक को भी मेरे बारे में कहीं पता चल गया-वहां उनके ग्रुप से मुझे संदेशें आने लगे। मैं अधिक देर खुद को रोक नहीं पाई, आव देखा न ताव और मैं उनके ग्रुप में कूद पड़ी, राजकिरण आजकल विदेश में हैं। वहां से उसने सब बातें मेल करते अशोक जी के बारे में बहुत दिलचस्प बातें बताई हैं। इन बातों से अजीम व्यक्तित्व की अपने हमउम्र नौजवान साथियों के दिलों को जीतने और उनका सहयोग पाने की काबलियत उजागर होती हैं। राजकिरण कहती हैं कि काफी देर के बाद जब उसने बसन्त थियेटर के साथ काम करता मान लिया तो पहला नाटक ‘पंछी ऐसे आते हैं’ खेला गया-यह नाटक बहुत हिट हुआ- इस बीच राजकिरण की मुलाकात अशोक से टीवी संेेटर में हो गई। राजकिरण ने पाया की अशोक जेलखानी उन लोगों में से नहीं हैं, जिन्हें अपने और अपने इर्दगिर्द के बारे में जानकारी नहीं होती। अशोक काफी फोकस्ड हैं और अपने काम को अच्छी तरह करना जानते हैं। अशोक के पास एक तय लक्ष्य था और इसको पाने के लिए वह भरसक प्रयत्नशील था। वह अपनी योजनाएं और प्रस्ताव जिस प्रकार से खुले दिल और दिमाग के साथ एक अनुभवी आदमी की तरह समझाते उससे विषय में उनकी गहरी पैठ का अंदाज़ा लग जाता-किसी भी प्रोजेक्ट के सारे पहलू वह खोलकर विस्तार से बयान करते। राजकिरण को जेलखानी के कुछ टीवी ड्रामा और एक कश्मीरी सीरियल में काम करने का अवसर मिला। कश्मीरी सीरियल ‘हरूद’ जोकि श्रीनगर दूरदर्शन का पहला लंबा सीरियल था और जो आजतक लोगों के जेहन में अपनी छाप बरकरार रखे हैं, में राजकिरण ने मुख्य महिला पात्र ‘नैला’ का रोल किया था-राजकिरण को हालांकि इस रोल के लिए इस सीरियल के लेखक अमीन शाकिर ने कास्ट किया था और अशोक जेलखानी ने शुरू में मनाह किया था। अशोक को लगा था कि राजकिरण जिस प्रकार के माहौल में पली-बढ़ी हैं और जैसे वह घाटी से अधिक समय बाहर रही है शायद वह एक मुस्लिम नौजवान महिला के पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाएगी-पर उनकी यह धारणा पहली बार राजकिरण ने गलत साबित की। राजकिरण ने अपनी भूमिका इस कदर सफलतापूर्वक निभाई कि आज तक लोग इस पात्र को नहीं भूले। पर इसके पीछे अमीन शाकिर, अशोक जेलखानी और ‘हरूद’ के बाकी अभिनेताओं का भी बहुत बड़ा हाथ है। राजकिरण को यह जानने में तनिक भी देर न लगने दी गई कि वास्तव में उसे क्या करना है और निदेशक की उसके रोल से क्या अपेक्षा है। शुरू से ही अशोक जेलखानी की यह विशेषता रही है कि वह अपने प्राॅडक्शन के हर मेम्बर को यहां तक कि स्पाॅट ब्वाॅय और टी ब्वाॅय तक को यह अहसास दिलाते कि वह ड्रामा का एक खास हिस्सा है और टीम का बहुत ही महत्वपूर्ण मेम्बर है। एक बार राजकिरण ‘नैला’ के रोल के लिए चुनी गई तो फिर उसको अशोक जेलखानी ने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि इस रोल के लिए वह उसकी पसंद नहीं थी। एक बार राजकिरण की गफलत से दिन भर का सारा शूट बर्बाद हो गया-इस रोज़ अशोक जी स्वयं सेट पर नहीं थे। अशोक जी के प्राॅडक्शन सहायक शायद राजकिरण को कुछ भी गलत करने से नहीं रोक पाए। शाम को जब प्रविव हुआ तो अशोक जी के चेहरे पर गुस्सा और असंतोष साफ झलक रहा था, ‘तुम क्या समझती हो कि तुम क्या कर रही थी? जानती हो अच्छे खासे सीन को जबरदस्ती स्लोमोशन पर डालना पड़ा, क्योंकि तुम ठीक से न दौड़ पाई हो और न सही भाव चेहरे पर ला सकी हो, राजकिरण बहुत दुःखी हुई, उसे मां बने अभी कुछ महीने ही हुए थे और वह अकसर बहुत जल्दी थक जाती। एक ओर उसका ध्यान नवजात बच्चे पर टिका रहता। वह बच्चे को सेट पर साथ ले आती। बच्चे का हालांकि दिन भर खासा ख्याल रखा जाता और एक बार भी मां को बच्चे को छोड़ने के लिए नहीं कहा जाता पर किरण को रोल पर ध्यान टिकाने में कहीं न कहीं खूब मशक्कत करनी पड़ती। किरण ने अषो के कई नाटकों में उनके साथ काम किया वह अषोक की को-स्टार भी रही और दोनो की जोड़ी बहुत सफल रही। ‘हमने कभी अपनी लाइनों का शूटिंग के दिल तक एक साथ रिहर्सल नहीं किया होता, फिर भी सीन पर हम कभी अटक नहीं जाते-हम में ग़ज़ब की केमिस्ट्री काम करती। मुझे बहुत गर्व महसूस हो रहा है कि मैंने कश्मीर के इस नायाब हीरे सरीखे कलाकार के साथ काम किया है। अब जबकि मैं खुद को इसके निकट समझती थी और यह जानती थी कि मैं उसे बहुत हद तक जान पाई हूं मैंने हिम्मत जुटाकर अपने एक प्रोजेक्ट को लेकर उससे स्टेज नाटक खेलने का प्रस्ताव रखा-‘उसने बहुत मुसकुराते जवाब दिया-तुम्हें अभी बहुत कुछ सीखना है’ और अपने काम में जुट गया।’ अशोक एक ऐसा रचनाकार है, जिसने थियेटर को टेलीविजन से जोड़ दिया। इन्होंने टेलीविजन के लिए स्टेज के एक्टरों को तैयार किया। इन्हें स्टेज और टीवी की ऐक्टिंग (अभिनय) का फर्क बताया। दोनों माध्यमों का अन्तर समझाया। यही कारण है कि जब इनके किसी अभिनेता या अभिनेत्री को दूसरे लोग बुक करते तो उन्हें काफी सम्मान और इज्जत दी जाती-किसी भी ऐसे ऐक्टर की काबलियत और हुनर में किसी को कोई शक की गुंजाइश नहीं होती। राजकिरण की इन बातों मंे जबरदस्त सच है। अशरफ शाल, गुल जावेद, जी-एम वानी, प्राणा शंगलू, भारती जारू, रीता जलाली, कमल राजदान, विजय धर, अनिल सिंह, शहनाज़ अशोक जालपुरी, अशोक जाफरानी, इदरीस हैदर, बबलू, तारिक जावेद, परवीन अख्तर, महाराज शाह, मोहन शाह, अयाश आरिफ लगभग सारे आज कश्मीर टेलीविजन के स्थापित कलाकारों में है। सबने अपने प्राॅडक्शन किए और इस फील्ड में नाम कमाया। इन नामों की सूची से सारी पुस्तक भर सकती है। राजकिरण को गर्व है कि नाटक में काम करने वाले नट-नटी को कश्मीर में जहां हकारत की नज़र से देखते थे और ‘भाण्ड’ कहकर घृणा से संबोधित करते, इस पेशे को अशोक जेलखानी ने सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाई। लड़कियां जहां स्टेज पर आने में कतराती थीं वहीं प्यारे लाल रैना, मक्खन लाल सराफ और अशोक जेलखानी के प्रयास और लगातार कोशिशों से संभ्रांत परिवारों से लड़कियां और महिलाएं स्टेज नाटकों में विधिवत भाग लेने लगी। किरण को याद है कि किस तरह बसंत थियेटर में थियेटर के खर्चे के लिए अपने जेब से सबको कुछ न कुछ योगदान देना पड़ता-तब जब कि लड़कियों के पास न्यूनाधिक और कोई नौकरी या काम करने को नहीं होता, तो किरण के बटुए में कुछ रेजगारी या एक आध नोट पड़े रहते-राज को चिढ़ाने के लिए जैफरानी उसके बटुए से पैसे निकालने लगता तो राज उसे मनाह नहीं करती-क्योंकि रिफरेशमेंट के लिए सब कन्ट्रीब्यूट करते पर अशोक जेलखानी राज के पैसे वापस रखवाते। कभी किसी लड़की से रिफ्रेशमेंट के लिए पैसे नहीं लिए जाते। राज को याद नहीं कि कभी जेलखानी साहब चार पौडियां उतर कर नीचे गलीज सी जगह पर लगे नलके से पानी भरकर लाए हों, क्योंकि उन्हें वो हमेशा अच्छे कपड़ों में सजे-संवरे ही दिखते। वे डायरेक्टर थे और आफीसर भी सो शायद ही कोई इनसे पानी लाने की अपेक्षा करता-पर यह बात शायद राजकिरण के समय में न हुई हो। अशोक जेलखानी चार पौड़ियां उतर कर पानी की बाल्टी लाने में शर्म नहीं करते। मैंने कई बार उन्हें स्वयं ऐसा करते देखा। यह शायद उनके स्कूल की शिक्षा का प्रभाव था। वहां बचपन से ही काम के प्रति ईमानदारी और स्वालम्बन की शिक्षा दी जाती थी। एक और घटना को याद करते राज कहती है कि अंतोन चेखव के नाटक ‘सीगल’ में उसे मां का रोल करने को मिला और वह कुछ सुझाव देने को तत्पर थी पर अशोक का मन नाटक में इतना डूब चुका था कि वह अपने अतिरिक्त किसी की नहीं सुनते। हालांकि इस बात का मलाल राजकिरण को काफी दिनों रहा और अशोक को इस ओर कभी ध्यान तक न गया। अपने टीम से सबसे उत्कृष्ट काम हासिल करना कोई अशोक जी से सीखे। ऐक्टर, कैमरा, साउंड, ऐडिटर, यूनिट के हर बन्दे से उसकी योग्यता के अनुसार सबसे बेस्ट काम लेते। काम खत्म होने के बाद हमेशा शाम को बड़ा खाना होता, जिसमें दारू, मीट, चिकेन और हर तरह की तरकारियां खाने को मिलती-पता नहीं इतना अमीराना खाना आता कहां से। राजकिरण अशोक जी को दारू से परहेज करने को कहती-वो मुसकुरा भर देते। आज शायद इन्हें यह अहसास होता हो कि दारू अच्छी चीज़ नहीं। अशोक का मन सामाजिक असंतुलन और समाज में व्याप्त शोषण व अन्याय के प्रति बहुत संवेदनशील रहा है। यही कारण है कि समाज के निचले स्तर से ऊपर आने वालों का वह एकदम एक कदम आगे आकर हाथ थामते। अपने समस्त कार्यकाल मे ंआज तक नौकरशाही का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद भी वह नौकरशाही और लाल फीता शाही से कोसों दूर रहें। अपना काम वह मुस्तैदी से करते हैं और अपने अधीन कर्मचारियों से भी जम कर काम करवाते हैं, पर उनके मन में हमेशा इस बात का ध्यान रहता है कि यहां सब इनसानों का समूह है। इनमें सबके घर गृहस्थी, परिवार, नाते-रिश्तेदार यार दोस्त हैं, जो सब आपस में मानवीयता और मानवीय संबंधों से जुड़े हैं। सब एक सांझा जीवन जी रहे हैं। सभी की आवश्यकताएं लगभग एक-सी हैं। घर, परिवार, मां-बाप और बच्चों से बना यह संसार मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कराता है। इसमें जुटे सारे लोग सभी भिन्नताओं के बावजूद भी मूलतः एक ही स्रोत से आते हैं और सबकी जीवन लीला का अन्त होता है। इस सोच ने अशोक जेलखानी को बहुत हद तक नियतिवादी भी बनाया होगा। तभी तो वे एक बार ज्योतिषि महाराज के चक्र में आकर बहुत परेशान हो गए थे। हुआ यों कि कश्मीर के एक मशहूर ज्योतिष श्रीरघुनाथ जी किकलू, जो काफी देर से इनके घर वालों के परिचित रहे थे, को उन्होंने न जाने क्या सोच कर अपना टीवा ‘जन्मपत्री’ दिखाया। ज्योतिष जी ने जो भविष्यवाणी की उसको सुनकर कोई भी व्यक्ति चिंतित हुए बिना नहीं रह सकता। ज्योतिष महाराज ने इनके शनि की दशा को गलत पढ़ा होगा... उन्होंने जीवन और रोजगार खतरे में बताया। अशोक को वहां मोती लाल खरू ले गए थे। मोती लाल खरू इन दिनों दूरदर्शन के श्रीनगर केंद्र में ही कार्यरत थे। यह समय लगभग 1978-80 का रहा होगा। अशोक इस समय कोई 22, 23 वर्ष की उम्र के रहे होंगे। इस प्रकार का अपना भविष्य जानकर अशोक ऐसा ज्वलन्त और उदीयमान कुलदीपक किसी हवा के निष्ठुर झोंके से कांपने लगा। अभी तो उसके जीवन की शुरूआत ही हुई है। इसी सोच में डूबे अशोक जेलखानी के पास प्राण जी के सुपुत्र और अशोक जी के सहपाठी और मित्र अजय मिलने आए। बातों-बातों में अजय को इस बात का पता चला कि उसके मित्र को कश्मीर के प्रख्यात ज्योतिष ने बहुत चिंताजनक बात कही है और इसी कारण वह विक्षुब्ध है। अजय को भी कुछ पल बहुत चिंता होने लगी। क्योंकि कश्मीरी पंडितों में ज्योतिष विद्या का बहुत जोरदार प्रचलन रहा है। वे अंधविश्वास की हद तक ज्योतिष से प्रभावित है। यह हालांकि एक गौरवशाली अतीत से जुड़ी विद्या है, जिसका कश्मीर में खगोलीय गणित के कारण खासा विकास हुआ था। खगोलीय गणित के माध्यम से ग्रहों, नक्षत्रों व उपग्रहों के स्थान गति व परिवर्तन से संबंधित धरती पर होने वाले परिवर्तनां को परिसूचित परिभाषित और पूर्वानुमानित किया जाता। इसका एक मानचित्र हर व्यक्ति से जोड़कर भी बनाया जाता जिस जन्मकुण्डली या जन्मपत्री कहते हैं। समय गुज़रने के साथ-साथ इस ज्ञान के सूक्ष्म तत्व विलुप्त होने लगे और यह कर्मकाण्डीय ब्राह्मणें के पास प्रक्षेपित अवस्था में सुरक्षित रहा। किन्तु गणित की महिमा के साथ ही ग्रहों के उपग्रहों के बारे में विभिन्न तरह के भ्रम भी जन साधारण के मानसपटल पर अंकित होने लगे। इस बात की खूबी पर ध्यान देना चाहिए कि जब हूबल टेलिस्कोप का आवषकार तो दूर रहा, किसी तरह की दूरबीन तक उपलब्ध न थी, तब खगोलशास्त्रियों ने शनि, मंगल, राहू, केतु, बुध, शुक्र आदि नवग्रहों को तलाशा और इनके बारे में जो अनुमान लगाए वे अंश प्रति अंशक सही निकल चुके हैं। कवियों की कल्पनाओं के यदि इस विज्ञान से अलग करें और अंधविश्वास से इसको दूर रखें तो यह विज्ञान का प्रथम और महत्वपूर्ण पड़ाव है मानव सभ्यता का। अजय ने अशोक की मानसिक स्थिति का सही अंदाजा लगाया। वह भयभीत था। उसके मन में ज्योतिष की भविष्यवाणी से संकोच और संदेह उत्पन्न होने लगा था। अजय ने बहुत बुद्धिमता से काम लिया। कोई और होता तो आज के युग में अशोक जेलखानी के इस अंधविश्वास पर उसे बड़ा-सा लेक्चर देकर निकल जाता, पर इससे मूल समस्या का समाधान नहीं होता। अजय एक नौजवान लड़के को जानता था, वह कश्मीरी संभ्रान्त पंडित कुल से था। उसकी खगोल विज्ञान में काफी दिलचस्पी थी पर वह ज्योतिष को भी सिरे से खारिज नहीं करता। अगर चांद से समुद्र की लहरों पर असर हो सकता है। अगर विद्युतकणों को मेगनिटिक लहरों में बदलकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक प्रेषित किया जाता है, अगर अदृश्य को दिव्य आंखों से देखा जा सकता है। तो दुनियां में कुछ भी हर्फे आखिर नहीं है... यह सोच इस नौजवान ‘अस्ट्रालजर’ की थी, जिसका नाम भी अशोक ही था। कुछ एक दिनों में ही अजय अशोक के पास इस नौजवान ज्योतिष को ले आया। अशोक जेलखानी ने इसकी उम्र और इसका हुलिया देखकर सोचा कि यह क्या ज्योतिषी जानता होगा। खैर, इसने अशोक जी की जन्मकुण्डली पर एक बारीक नज़र दौड़ाई और हट्ात कह उठा-ज्योतिषी ने सब सही कहा है... पर उनकी दृष्टि शायद आपके जन्मयोग पर नहीं गई है। शनि की दशा आपको और अगले सात साल में इसी जगह बड़े-बड़े अवसर प्रदान करेगी। आपका बाल-बांका नहीं हो सकता-अभी कुछ ही महीनों में आपको इसका आभास होने लगे गा। बहुत विस्तार से अशोक गंजू ने अशोक जेलखानी को ज्योतिष के सारी गणनाएं और इनके नतीजे समझाए। इससे बहुत हद तक अशोक संतुष्ट हुए और उनके मन से एक गहरी चिंता का निवारण हो गया। अशोक जेलखानी को कभी बाकी कश्मीरी हिन्दुओं की तरह कम ही देवास्थानों देवालयों, मंदिरों में देखा गया है, पर वह मन से ईश्वर में आस्था रखते हैं और अपने इष्टदेव को मानते हैं। ईश्वर ने भी अपने तरीके से समय≤ पर बहुत विरले तरीके से अशोक को अपने होने का अहसास दिलाया है। उनकी इस तरह की सोच और विचारों को जानकर मैं खुद बहुत अचम्भित हुए बिना नहीं रह सकता। मैंने ईश्वर और जगत के बारे में जब भी सोचा तो मुझे हमेशा यही लगा कि यह विषय मेरी सीमित बुद्धि और विवेक के परे है। ऐतिहासिक रूप से और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वरूप को देखकर, इस बात पर मुझे यकीन होता है कि यदि संसार में किसी महाशक्ति का अस्तित्व है तो वह कदापि ऐसी नहीं है, जैसा कि हम सब सोचते हैं या यकीन करते हैं। शायद यह सच है कि वह उतनी ही बड़ी है जितना कि कोई भी आस्ति और नास्कि का कण। जब संतों ने ही कहा कि ‘ज्यों गूंगे को स्वाद’ तब कौन इसे बखान कर सकता है। पर जब ईश्वर के नाम पर और ईश्वर के लिए कत्लों गारत और जंगोजदल के नजारे सामने आते हैं तो दिल कहता है कि शायद यह मनुष्य का डर है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। सीमित और असहाय का एक असीम और सहायक के प्रति निष्ठा और आस कुछ भी हो अशोक गंजू के कथन ने अशोक जेलखानी को एक तरह से चिंतामुक्त कर दिया-और इसी बात को लेकर दोनों में मित्रता भी बढ़ी। अशोक गंजू न तो नाटक से जुड़ा था, न टीवी से उसका कोई रिश्ता था। बेकार और शादीशुदा होने के बावजूद भी उसने कभी अशोक जेलखानी से किसी मदद की अपेक्षा नहीं की और न ही इससे किसी प्रकार की मदद स्वीकार की। दोनों में प्रगाढ़ और चिरकाल मित्रता बनी रही। इस मित्र को याद करके अशोक जेलखानी की आंखें भर आती हैं। दुनिया भर को भविष्य की वाणी सुनाने वाला यह बेलौस व नेक मित्र अल्प आयु में ही स्वर्ग सिधार गया-पर इससे पहले इसने बहुत चमत्कारी करिश्में किए। कश्मीर में रहते हुए जेलखानी जी के बारे में इसने जितनी भी भविष्यवाणियां की थीं वे सब बकौल अशोक जेलखानी जी चरितार्थ सिद्ध हुईं। कश्मीर से निकलने के बाद कई वर्षों बाद जब लखनऊ षहर यह मित्र अशोक जी को ढूंढता आया-तब दोनों ने विस्थापन में बहुत बुरे दिनों को देखा था। पर अब दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक-ठाक जीवन ढर्रे से जी रहे थे। अशोक गंजू ने दिल्ली में आकर पांचतारा होटलों में रहने वाले विदेशी पर्यटकों से संपर्क साधा और अपनी अच्छी-खासी विदेशी ग्राहकी तैयार की। इनके बारे में कहे गए भविष्यफल इतने सटीक निकले कि बहुत लोगों ने खुश होकर काफी कदरदानी की। माली हालात से भी मदद की। बस अब क्या था-अशोक गंजू का नोएडा में अपना भव्य मकान-गाड़ी सब बन गया-पर अपने मित्र का खयाल कभी मन से न गया सो ढूंढता तलाशता, लखनऊ पहुंचा-लखनऊ मंे एक महत्वपूर्ण घटना घटी, यहां पर अशोक जेलखानी उप-निदेशक पद पर कार्यरत थे और इनके पास एक मुख्य सहायक निदेशक प्राइवेट प्राॅड्यूसर श्री मंजुल का आना-जाना था। एक दिन जब अषोक घर पर अपने मित्र अषोक गंजू के साथ बातों में वयस्त थे तो मंजुल साहब भी पधारे। मंजुल साहब को देखते ही अषोक जी ने कहा कि इन से मिलो यही है गंजू मेरे जिगरी दोस्त जिस के बारे में मैं अक्सर आप से बात करता था। मंजुल जी को याद आया कि इन्हीं के बारे में अषोक जी ने कई बार कहा था, इन्हों ने आगे आकर गंजू जी से हाथ मिलाया और कहा कि किस तरह अषोक जी किसी न किसी रूप से आप की बात करते रहते, पर इस से पहले कि मंजुल जी कुछ और कहते गंजू साहब बोल पडे, साहब यह जो ब्रहम्मूर्ति में उठ कर आप जाप करते हैं, बहुत अधूरे ढंग से और अपूर्ण रूप से करते हैं, पहले इसे सही तरह से करना सीखिये। मंजुल के पैरों तले से ज़िमीन हिलने लगी। मेरे पाठ की त्रुटियों का इसे कैसे पता चल गया? इस बात को उस के बिना किसी को इलम न था, कि पाठ के उच्चारण में उस से कई बार गलतियां होती हैं पर यह एक नितांत गुप्त और निजी बात थी... जो भी हो मुजुल गंजू जी के मुरीद हो गये। हाथ जोड कर कहने लगे कि प्रभू आप ही मुझे सही भी कर दीजिए। अशोक गंजू ने मुसकुराते हुए कहा, ‘सब ठीक होगा, और अपनी क्रिया ठीक कीजिए।’ अशोक गंजू को अशोक जेलखानी बहुत याद करते हैं। उनके अध्यात्मिक स्वरूप का बहुत प्रभाव है इन पर। इसी प्रकार एक सम्मेलन में जालंधर में किसी अध्यात्मिक पुरूष ने कहा था कि आपको बाला जी जाना पड़ेगा। तब अशोक जी मात्र मुसकुरा कर रह गए। ‘भला इतनी दूर मैं कब और कहां जाऊं।’ पर जब इनकी नियुक्ति चिन्नाई के केंद्र में हुई तो एक ही नहीं, कई बार ये सपरिवार बाला जी के दर्शन कर आए। अशोक जेलखानी धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं रखते, किन्तु इनकी निष्ठा ईश्वर में सतत है। यह हर धर्म का सम्मान मन ही मन करते हैं और धार्मिक सतपुरुषों को बहुत इज्जत देते हैं। पर पाखंडियों और रूढ़िवादी व्यक्तियों के धार्मिक प्रपंचों से बहुत नाराज़ और दुःखी होते हैं। बुनियादपरस्त मुस्लमानों और हिन्दुओं को यह मानव की प्रगति में एक बड़ा रोड़ा मानते हैं। किन्तु एक बन्द समाज में, जहां रूढ़िगत सोच को संस्कृति का पर्याय मानकर इनसानों पर कैदोबन्द की तरह लागू किया जाता है। जहां कुछ एक लोग यह नहीं चाहते हैं कि सदियों से दबे-कुचले लोग आगे आकर समाज की तरक्की की डोर अपने हाथों में लेने को सक्षम हो सके। पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो सके। जहां यह उन लोगों को कतई मंजूर नहीं कि हर धर्म, हर जात और हर नस्ल के लोगों को बराबरी के हकूक हासिल हों। जहां औरतों को सदियों से चली आ रही मर्द की गुलामी की जंजीरों में ही हमेशा कैद देखना पसंद किया जाता हो, और जहां कुछ इनसान मालिक और बाकी सारों को गुलामों का जीवन जीने की तकलीफ दी जाती हो-ऐसे रूढ़िवादी सोच के लोगों के जीवन दर्शन और तौर-तरीकों से अशोक जेलखानी को हमेशा एतराज रहा है। हालांकि इन्होंने इस एतराज को खुलकर सामने आकर प्रकट न किया हो पर इन्हें जहां भी इसके विरुद्ध खड़ा होना पड़ा है, इन्होंने किसी चीज़ की परवाह नहीं की है। अपने विचारों को इस युग में दूषित होने से बचा पाना भी एक वैज्ञानिक सोच की ओर इशारा करता है। इतनी उपलब्धियों के साक्षी और इन से अत्यन्त प्रभावित एक और रंगकर्मी व बहुत ही प्रतिष्ठित ब्राडकास्टर व कार्यक्रम निर्माता, डाॅ. गौरीशंकर रैना भी इनकी सारी थियेटर यात्रा के समकालीन रहे हैं। डाॅ. गौरी शंकर खुद एक तरह से उस लहर से जुड़े रहे जो सत्तर के दशक में, जब घाटी में रंगमंच उत्कर्ष पर पहुंच रहा था और अशोक जेलखानी का नाम काफी प्रतिष्ठा पा चुका था। डाॅ. गौरी शंकर अशोक जेलखानी को एक नवयुग के आगन्तुक गुरू के रूप में देखते हैं। इनका कहना है कि ऐसे व्यक्ति से मिलने और इन्हें जानने और समझने की इन्हें प्रबल इच्छा हुई, जो बहुत कम समय में लगातार एक के बाद एक उपलब्धि अपने नाम कर रहा था। गौरी शंकर और सोहन लाल कौल आपस में बहुत गहरे दोस्त रहें हैं। इन्हांने नाटक ‘सन-31’ के मंचन की योजना बनाई, श्रीनगर के टैगोर हाल में अगले रंग-उत्सव की तैयारियां ज़ोरों पर थी। जम्मू-कश्मीर कला, साहित्य और संस्कृति अकादमी का थियेटर वर्कशाॅप यहीं चल रहा था और उसी की गहमागहमी में सब व्यस्त थे। गौरी शंकर रैना सोहन लाल कौल को लेकर अशोक जेलखानी से मिलने चले। गौरी शंकर अशोक जी से हुई इस प्रथम भेंट को इस प्रकार वर्णन करते हैं। एक सजग और कुशल अभिनेता के साथ ही एक ऐसे निर्देशक से चर्चा हो रही थी जो मंच सज्जा, प्रकाश, ध्वनिसंयोजन के साथ कलात्मक सृजन में माहिर थे। बहुत कुछ सुना था, बहुत कुछ देखा था, परंतु यह भेंट मंत्रमुग्ध करने वाली थी। किसी एक शक्तिशाली चुंबक के आकर्षण में बंधा हुआ मैं उनके साथ टैगोर हाॅल के गलियारे से ग्रीन-रूम की ओर बढ़ा जा रहा था। ग्रीन-रूम में अन्य मित्रों से भी मिला परन्तु यह भेंट एक चिरस्थायी-स्मृति के रूप में चिपक कर रह गई। गौरीशंकर रैना और अशोक जेलखानी एक ही संस्था में लगभग एक ही परिसर की दो अलग-अलग बिल्डिंगों में बैठे दूरदर्शन मंे कार्यरत हैं। गौरी शंकर ने दूरदर्शन कार्यक्रम निर्माता के रूप में और मीडिया विशेषज्ञ के रूप में काफी यश अर्जित किया है। आज के संदर्भ में बात करते वह कहते हैं- ‘इतने वर्षों बाद भी इनका व्यक्तिगत वैशिष्ट्य, एक जीवंत व्यक्तित्व, चिंतन और अनुभव प्रभावित करते हैं। कोई भी मिले तो देखते ही समझ जाता है कि एक सुनिश्चित विचार वाले व्यक्ति का सान्निध्य मिला है। गौरीशंकर रैना यह कहते हुए एक बार फिर अतीत के गलियारों में ले जाते हुए कहते हैं, कश्मीर पतझडकालीन लालिमा से घिरा हुआ था, लाल चिनारों के उसी माहौल में इनका नाटक ‘चिनार’ मंचित हुआ। यह अली मोहम्मद लोन साहब ने लिखा था। इसमें निर्देशन के साथ ही श्री जेलखानी ने, मुख्य पात्र, प्रोफेसर सलमान का चरित्र बखूबी निभाया था, यह नाटक किसी दूसरे शीर्षक से रेडियो नाटक के रूप में पहले ही प्रसारित हुआ था.... मगर रंगमंच पर इसका प्रारूप भिन्न था-नाटक का स्वर और योजना विन्यास अलग था। नाटक का प्रारंभ ज़ोरदार था और एक के बाद एक आने वाले चरित्र चुपचाप अवचेतना के स्तर पर काम कर जाते थे। यहां निर्देशक का कौशल नज़र आ रहा था। यह सन् 1976, अक्तूबर का महीना था। 1975 में अली मोहम्मद लोन साहब को उनके नाटक ‘सुय्या’ के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। ‘सुय्या’ ऐतिहासिक नाटक था, परन्तु ‘चिनार’ समसामयिक विषयाधारित! इसको प्रस्तुत करने की चुनौतियां अलग थीं। इसमें नाट्य आलेख नाटक के डिज़ाइन और अभिनय को व अलग से संलेषित किया गया था। इसमें इन्दू रैना (मशहूर अनउंसर) और अशोक जाफरानी ने भी प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं। उनके स्वर और अभिनय क्षमताओं को आंकते हुए निर्देशक जेलखानी ने भव्य और अनुपम रंगमंचीय रचना को प्रस्तुत करने में सफलता पाई थी। जैसे एक कोरे कैनवास पर नए चित्र रचे गए थे। वे सारी धारणाएं नकार दीं गई थीं, जो निर्देशक की स्वायत्ता और कल्प्ना को अवरुद्ध करती हैं। असीमित संभावनाओं का एक व्यक्ति अन्तहीन संभावनाओं के साथ रंगमंच पर नए नाटक शिल्प को प्रस्तुत करने लगा था। इसके बाद गौरीशंकर दिल्ली चले गए और इन्हें अशोक जेलखानी के बाकी नाटक देखने का अवसर नहीं मिल पाया, किन्तु जब दिल्ली से लौटने पर दुबारा मुलाकात हुई तो अशोक जेलखानी टेलीविजन में ड्रामा-प्राॅड्यूसर के रूप में स्थापित हो चुके थे। गौरीशंकर का कहना है कि कश्मीर में पैड़ी चेयेचस्की जैसा टेलीविजन नाटकार उपलब्ध नहीं था। गिने-चुने रेडियो नाटकार या रंगमंच के लिए लिखने वाले ही टेलीविजन के लिए भी लिखते थे और इन्हें अभी टेलीविजन के माध्यम यानी दृश्य-श्राव्य के लिए लिखने का पर्याप्त अनुभव नहीं था। इसलिए जो आलेख इन नाट्यकारों से टेलीविजन ड्रामा के लिए आतें इनमें तकनीकी त्रुटियों के अतिरिक्त कई अन्य सुधारों की गुंजाइश बनी रहती। इसलिए टेलीविजन के नाटकों का निर्माण करते समय काफी सोच-विचार से काम लिया जाता-दर्शकों को ध्यान में रखकर दृश्य संयोजन करना पड़ता और शूटिंग के लिए उपलब्ध सीमित उपकरणों, एडिटिंग की लगभग नहीं के बराबर सुविधाओं को ध्यान में रखकर ही आलेख तैयार किए जाते-इस संबंध में राजेश कौल जी ने बहुत ऐसी बातों की ओर ध्यान दिलाया जिसे आज की पीढ़ी जान कर हैरान हुए बिना नहीं रहेगी। गौरीशंकर ने इस स्थिति का ही अत्यंत समीचीन आकलन करते उस समय के सटीक और सिद्धहस्त व माहिर व्यक्ति अशोक जेलखानी के कार्य कौशल की मीमांसा की है। गौरीशंकर कहते हैं, हर पखवाड़े एक नया नाटक प्रसारित होना था। अभिनेताओं और तकनीशियनों के साथ मिलकर काम करने की अत्यंत आवश्यकता होती। कोई भी चूक सारे करे कराए पर पानी फेर सकता था। क्योंकि यह रन-थ्रू यानी बिना रूके शूटिंग और रिकाॅर्डिंग का युग था। एक बार स्टूडियू में उलटी गिनती के बाद एक्शन बोला जाता तो कट रिकाॅर्डिंग समाप्त होने पर ही होता था। अब आप समझ सकते हैं, आपने जो काम आउटडोर में 16 मि.मि. फिल्म पर शूट किया होता, उसे पहले ही रिकाॅर्डिंग के लिए एडिट कर के तैयार रखा होना चाहिए था, अक्सर यह ड्रामा के किसी सेगमेंट का हिस्सा होता और इसे लाइव ड्रामा के साथ आॅनलाइन जोड़ दिया जाता। सारी व्यवस्था दोषरहित होना ज़रूरी था-संगीत, फिल्म स्ट्रिप और खेले जा रहे ड्रामें के सेट पर बिखरे अभिनेता-इन सबको एक कमांड के तहत लाकर वास्तविक समय में रिकाॅर्ड करना होता। यहां एक बार पैनल पर बैठने के बाद सोचने के लिए शायद ही कुछ बाकी रहता था-जो कुछ होता था वह देखना और करना, बिना उच्चतम कार्यकौशल और अंग्रेजी में (एडिट) के बिना यह कार्य अंजाम देना असंभव था। इसीलिए टीवी निर्देशक पहले से सब तैयारी करते-क्या दिखाना चाहिए और कैसे दिखाना चाहिए, यह निर्देशक के निजी अनुभव, व्यक्तिगत बोध एवं संवेदनाओं पर निर्भर करता-ऐसे ही जटिल समय में अशोक जेलखानी ने जब टीवी नाटकों की कल्पना की तो एक से एक अच्छे नाटक आते रहे कश्मीर में धारावाहक नाटकों की श्रृंखला नेशनल डीडी वन से बहुत पहले अशोक जेलखानी ने आरम्भ की। अपने नाटकों की सफलता का श्रेय हमेशा उन नाटकों के लेखकों, काम करने वाले कलाकारों और तकनीशियनों को दिया। कभी इन्होंने यह नहीं कहा कि यह इनके अकेले की उपलब्धि है। गौरीशंकर जी ने जिस निकटता, सौहाद्र और अपनेपन को इनके सान्निध्य में पाया इसे इस तरह व्यक्त किया है, अत्यंत सरल घाटी का निर शोभित भाव मंच भूमि पर
कहा सुना देखा है सबने जेठ टले सावन की झर-झर
लगन-मग्न चलना निज पथ पर
खामोशी, चिनार और पतझर नील-नदी का वेग निरंतर...।
इस अनुभव को राजेश कौल जी ने अपने तरीके से अत्यंत भावुक और भाव-भीनी शब्दों में व्यक्त किया। राजेश कौल स्वयं एक विशिष्ट ब्राडकास्टर और कार्यक्रम निर्माता रहे हैं। इनको इस बात पर गर्व है कि इन्होंने अशोक जेलखानी जी के साथ इनके प्राॅडक्शन असिसटेंट की हैसियत से अपने ड्रामा कैरियर की दूरदर्शन में शुरूआत की। दूरदर्शन में बतौर प्राॅडक्शन असिस्टेंट नियुक्ति होने के बाद राजेश कौल ने अपनी काबलियत और अथक मेहनत के कारण बहुत जल्द एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम निर्माता के रूप में ख्याति अर्जित की। राजेश कौल एक संवेनदशील और गहन अनुभवी व्यक्ति हैं। इनमंे कला-कौशल के साथ ही मानव संवेदनाओं को मूर्त रूप देने का गजब का कौशल है। कार्यक्रम निर्माण की हर प्रणाली और परिपाटी से खुद को लैस करने वाले इस व्यक्ति की सोच पर और कार्यविधि पर जेलखानी का काफी प्रभाव रहा। गौरीशंकर ने जिस प्रारंभिक काल का उल्लेख करते हुए कहा था कि किस प्रकार एक रन-थ्रू रिकाॅर्डिंग होती थी, इसी संदर्भ में राजेश कौल जी एक ड्रामे की मिसाल देते हैं, जो इन्होंने अशोक जी की निगरानी में किया, इस ड्रामा में एक सीन फ्लैश बैक का है-जिसमें चरित्र के मुख पर दाढ़ी नहीं है और कभी वह वर्तमान में लौटता है तो मुख पर दाढ़ी है। अब शूटिंग तो रोकने का सवाल ही पैदा नहीं होता-जरा से अंतराल में ही सबकुछ होता है। इसके लिए ऐसी व्यवस्था तैयार की गई-एक कमरे में फ्लैश बैक और उसके साथ सटे दूसरे कमरे में वर्तमान का सेट लगा। दोनों के बीच का फासला एक संकरी गली से जोड़ा गया। इस गली में मेकअप विशेषज्ञ निसार बड़गामी स्वयं क्रेप लेकर अंधेरे में खड़ा रहता। और न्यूनतम अंतराल में चरित्र के मुख से क्रेप उतारता और चढ़ाता। समस्त नाटक को देखने के बाद किसी भी दर्शक को यह समझ नहीं आया कि इतनी जल्दी ये लोग चरित्र का हुलिया कैसे बदल पाएं। दोनों ने दोस्तों की तरह 18 वर्ष एक साथ काम किया-इस बीच कई ऐसे भी क्षण आए जब बाहरी तत्वों के हस्तक्षेप के कारण रिश्तों में तनाव भी आया-पर दोनों एक साथ बैठकर सब साफ-सफाई करते आए आगे बढ़ते। इनके जीवन की अपनी अलग-अलग उपलब्धियां हैं-पर आज भी राजेश कौल, अशोक जेलखानी के प्रति सम्मान और आभार के भाव से भर जाते हैं। इन्हें एक बीकन और गाइड का दर्जा ही देते हैं। 1976 में जब राजेश जी की शादी को केवल 10 दिन हुए थे-अशोक जेलखानी ने ‘बेगुर बाॅनाॅ’ नाटक करना था। हुआ यूं कि इस नाटक में एक प्रमुख चरित्र का रोल करने वाला अभिनेता अनन्तनाग में सैलाब के कारण फंस गया। कम से कम एक सप्ताह तक रास्ता खुलने की संभावना न थी। राजेश कौल ने एक अनूठा प्रस्ताव अशोक जेलखानी के सामने रखा, अभी राजेश कौल ड्रामा प्राॅडक्शन में अधिक माहिर नहीं थे और डायरेक्शन में भी इतना अनुभव न था। पर भीतर से कोई आवाज़ दे रहा था, ‘तुम कर सकते हो’ तो इन्होंने वे अशोक जी को रोल करने के लिए कहा और स्वयं पैनल पर बैठने का प्रस्ताव दिया-अशोक जी को इस नौजवान पर पूरा भरोसा था। इन्होंने मान लिया। अशोक जेलखानी की यही तो खासियत रही है, जब भी कोई विपरीत स्थिति खड़ी होती है तो वह अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला लेने में एक मिनट भी वहीं लगाते। रोल खुद करने का मतलब था कम-से-कम समय यानी मात्र आधे दिन में करीब दस, बारह पेज के डायलाॅग याद करना और बिना किसी कट के इन्हंे अन्य अभिनेताओं के साथ अभिनीत करना। कमाल की बात यह है कि यह नाटक सफलता पूर्वक रिकाॅर्ड हुआ, टेलीकास्ट हुआ और काफी सराहा गया। अशोक जेलखानी का रोल देखने वालों को आज भी याद है। कश्मीर एक मुस्लिम बहुल्य आबादी का प्रदेश है। यहां कश्मीर में सब से अधिकतम 99 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं। इनकी संस्कृति और सभ्यता में भारतीय सभ्यता की ही झलक साफ देखने को मिलती। किन्तु राजनीति की उठा-पटक ने यहां के मुसलमानों में एक अजीब बेइतमिनानी को जगाना प्रारंभ किया था। फिरकापरस्त और बुनियाद परस्तों को यहां की मिली-जुली गंगाजमुनी संस्कृति पर अनायस भौंवे चड़ने लगती। वे इस बात से कदापि खुश नज़र नहीं आते कि यहां के हिन्दू और मुसलमान कलाकार मिलजुल कर इस साझी संस्कृति को फलने-फूलने में सजग रूप से कार्यरत है। राजनीतिक स्तर पर इस माहौल के विरुद्ध काफी जोर-शोर से मुहिम छेड़ी जा रही थी। यहां, मुस्लिम महिलाओं को नाटकों में भाग लेने या टेलीविजन कार्यक्रमों में आने पर विरोध के स्वर सुनने पड़ते। पर इन बातों को दरकिनार कर इस केंद्र की शोभा जिन महिला कलाकारों और कर्मचारियों ने बढ़ासई उनमें प्ररमुख रूप से नसीम खान, इनकी छोटी बहन, परवीन अख्तर हफीजा कौसर आदि बहुत प्रमुख रहीं। इन सबने अशोक जेलखानी के साथ या तो कलाकार के रूप अथवा इनके अधीनस्थ कर्मचारी के रूप मंे काम किया। सब इनकी दिल से तारीफ करती। नसीम खान को अक़्सर अशोक जी मेम साहब कहकर पुकारते और वह वापस साहब जी कहकर मुखातिब होती। जिस प्रकार का सौहार्दपूर्ण माहौल यहां था-शायद ही कहीं देखने को मिलता। दूरदर्शन केंद्र वादी के कलाकारों का एक मुख्य केंद्र बिन्दु बन चुका था। यहां पर अदीब, संगीत के उस्ताद, गायक, अभिनेता, उत्कृष्ट कलाकार सब आते। यह एक संगम का रूप धारण कर चुका था-यहां पर काबिल और समझदार निर्माता, निर्देशकों की कोई कमी नहीं थी, एक से बढ़कर एक व्यक्ति ने इस केंद्र को अपने व्यक्तित्व से निखारने का प्रयत्न किया। फारूक नाज़वी, स्व. बशीर भट,ट, बशीर बड़गामी, बशारत, जावेद इक़बाल, मीर मुश्ताक, स्व. जफर अहमद, चमन लाल हक्खू, बंसी कौल, जयकिशन ज्युत्शी, प्यारे रैना, जैसे काबिल और ज़हीन निर्माता-निर्देशक थे। सब एक से बढ़कर एक और इन सबमें अपनी एक अनूठी और विशेष विलगता थी। अशोक जेलखानी की सब भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। यहां पर क्योंकि पेशावराना प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश के रहते आपसी मनमुटाव भी कमोबेश बना रहता पर इससे कभी व्यक्त्गित संबंधों में कटुता या खटास का रूप नहीं लेने दिया जाता-पास ही सटे बण्ड पर बने छोटे कैफेटेरिया और रेस्तरां में अक्सर दूरदर्शन कलाकारों, की गहमागहमी देखने को मिलती-अशोक जेलखानी को इस गहमागहमी का एक केंद्रबिन्दु समझा जाता-यहां अक्सर चाय, काफी व कान्ती का सेवन करने के बहाने लंबी बातचीत और रचनात्मक बहसें होती। इन बहसों व बातों का संबंध अक्सर कला और कला से संबंधित विषयों से लेकर, विश्व काव्य, टीवी, सिनेमा, थियेटर और राजनीति से होता। बहस से माहौल गर्मागर्म रहता। यही प्यार करने वाले जोड़े भी यदा-कदा बैठे नज़र आते। ऐसा लगता कि हम दुनियां के सबसे विकसित और सांस्कृतिक रूप से उद्धात क्षेत्र में बैठे हैं। जो तस्वीर आज का माहौल और राजनीति दुनियां के सामने कश्मीर के संबंध में पेश करता है यह इससे अलग था। यह सोचने-समझने वाले जिजीविषा से युक्त नौजवानों का मंच था। यहां प्रगति और विकास के रास्तों में आए अवरोधों को हटाने का संयुक्त मोर्चा तैयार होता-यह माहौल रचनात्मकता सौंदर्यबोध और अभिव्यक्ति को व्यापकता प्रदान करने का था। यहां किसी भी तरह की बुनियादपरस्ती का कोई प्रश्न ही नहीं उठता-यहां शांतिवीर कौल और शहज़ादी साइयमन जैसे नवयुवक निर्माता निर्देशक और सीतूनन्दा व रूप स्पार्क जैसे अंग्रेज़ी के नवीन कवि और कार्यक्रम निर्माता व दर्जनों अन्य सहृदय और प्रबुद्ध कवि देखने को मिलते। यह माहौल उत्साह और उमंग से भर देता। इस माहौल का एक अहम सूत्रधार अशोक जेलखानी था। इसके साथ अक्सर टेलीविजन के नामी अभिनेता, अभिनेत्रियां और लेखक यहां आते। मैंने 1973 में अनन्तनाग काॅलेज से बीए पास किया-काॅलेज में श्री रत्नलाल शांत मेरे हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर रहे। डाॅक्टर रत्नलाल शांत उस समय हिन्दी और कश्मीरी दोनों भाषाओं के प्रसिद्ध लेखक और कवि हो चुके थे। उनके रेडियो नाटक भी काफी मशहूर थे और हमारा सौभाग्य था कि उन्हें हमारे काॅलेज स्थान्तरित किया गया था-मेरा बी ए में यह अंतिम वर्ष था-इससे पहले मैंने अपने कस्बे में मंच पर कई प्रस्तुतियां पेश की थी। मैंने अपने तरीके से यहां एक परिवर्तन लाया था-मैंने अपने कस्बे में एक ड्रामाटिक क्लब बनाकर रमेश मेहता के कई नाटक ‘टिकट’ वसूल करके बहुत सफलतापूर्वक खेले थे। हमारे क्लब के नाटक लोगों ने बहुत पसंद किए। हमने संगीत में भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया और रेडियो पर कई कार्यक्रम ‘अमर ड्रामाटिक क्लब’ के नाम से प्रस्तुत किए। मेरे क्लब के मात्र नाम लिखने से मेरे पास लोगों की चिट्ठियां पहुंच जाती, यह जोर था हमारे गीतों का जो हम रेडियो पर प्रस्तुत करते। काॅलेज में डाॅ. शांत को यह मालूम पड़ा तो इन्हांेने मुझे अपने ड्रामा ग्रुप में बुलाया और हमने उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक जोंक खेला। कितने दुर्भाग्य की बात है कि कई लड़कियों के इस नाटक में काम करने की इच्छा होने के बावजूद हमें महिला चरित्रों के रोल लड़कों से कराना पड़े। पर यह नाटक देखने काॅलेज की लड़कियां जब सारे प्रतिबंध तोड़कर गेट क्रेश करने लगी तो उनके लिए अलग से शो रखा गया। मुझे इस नाटक ने काफी प्रोत्साहित किया और डाॅ. रत्न लाल शांत ने मुझे प्राण किशोकर साहब और सोमनाथ साधो साहब पर दो अलग-अलग पत्र लिख कर दिए कि मुझे नाटक और संगीत के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अवसर दिया जाए। हालांकि मेरा श्रीनगर जाकर रेडियो कार्यक्रमों में भाग लेना लगभग असंभव इसलिए था कि शहर में रहने का कोई ठौर ठिकाना न था। और अकसर शहर पहुंचने में ही सारा दिन निकल जाता-तब भी जब मैं किसी भी तरह शहर रेडियो स्टेशन पहुंचा तो मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। क्या मैं सचमुच उन लोगों से मिल पाऊंगा, जिन्हें सुनकर मैं हमेशा इन्हें देखने को तरसता था। गैट से पास बनाकर मैं भीतर घुसा और कमरों पर नाम पटियां पढ़ने लगा। सोमनाथ साधो के कमरे में दरवाज़ा खुला था और कुर्सी पर छरहरे बदन का एक व्यक्ति कुछ फाइलें देख रहा था। मैंने अंदर आने की अनुमति मांगी उसने हामी में सिर हिलाकर अनुमति दी। यह हरगिज साधू साहब नहीं हो सकते। मैं सोचने लगे, लगभग पंद्रह बीस मिनट उन्होंने कोई बात नहीं की अपनी फाइल पढ़ते रहे। शायद वह कोई आलेख पढ़ रहे थे। इतने अन्तराल में मेरा गला सूख गया था और मैं मुश्किल से बात करने का प्रयास कर पा रहा था। बोलो क्या बात है। उनका इतना कहना था कि मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा अरे! यह तो स्वयं साधो साहब हैं। उन्हीं का स्तर... मैंने जेब से उनके नाम का पत्र निकालकर दिखाया। अच्छा! अच्छा! पत्र पढ़कर वे बोले, ‘जल्दी में तो नहीं हो, चलो तुम्हारी रिकाॅर्डिंग कराते हैं।’ मेरे होश गुम थे और मुझे अपने आप पर विश्वास नहीं हो रहा था। इस तरह श्रीनगर मंे मेरा स्वागत हुआ। किन्तु यह सिलसिला अधिक देर न चला, क्योंकि बहुत जल्द मेरी नौकरी स्टेट बैक में लगी और यह सिलसिला टूट गया-मन मार कर मैं मुश्किल से छह-सात महीने बैंक में टिक पाया, नौकरी छोड़कर मैंने 1974 में हिन्दी विभाग में एम ए के लिए दाखिला लिया और शहर से दुबारा जुड़ गया-पर एडमिशन में एक साल का अंतराल बहुत भारी पड़ा-मेरा वज़ीफा अड़चन में पड़ गया और मुझे बहुत बुरे दिनों का सामना करना पड़ा-इन दिनों को रेडियो और टीवी के कार्यक्रमों से आनेवाले पैसों के बूते पर मैंने पढ़ाई जारी रखी। यहीं मुझे मालूम हुआ कि शहर में किसी नवयुवक अशोक जेलखानी ने एक नाटक ‘एवं इन्द्रजीत’ खेल कर काफी वाहवाही लूटी है। मेरे एक सहपाठी प्यारे लाल ने मुझे यह समाचार सुनाया-किन्तु असली विवरण मुझे काव्य शास्त्र के प्रोफेसर डाॅक्टर अयूब प्रेमी से सुनने को मिला। डाॅ. अयूब अक्सर टैगोर हाल नाटक देखने चले जाते-खासकर नाटकों के हिन्दी रूपान्तरण वह कभी न छोड़ते। इन्होंने वसन्त थियेटर के लगभग सारे नाटक देखे थे और इसके पीछे एक वजह था अशोक जाफरानी, जाफरानी यहां हिन्दी में एम ए पूरा कर चुका था-इसलिए विभाग के टीचरों को अकसर पास दे देता और इनवाइट करता। डाॅक्टर अयूब प्रेमी ने मुझे अशोक जाफरानी से परिचित कराया और मैंने उनके थियेटर को जानना शुरू किया-इससे पहले काफी दिनों तक मैं संगरमाल में चंद्रशेखर के साथ रिहर्सल करता रहा। बसन्त में बादल सरकार के ‘पगला घोड़ा’ पर काम चल रहा था। मुझे ‘कार्तिक’ का रोल मिला, पर यह नाटक बहुत अर्से तक अधर में लटका रहा। मुझे बहुत अफसोस हो रहा था। मेरा काफी समय नष्ट हो गया था। इसी बीच अशोक जेलखानी ने इस नाटक को कुछ समय छोड़ देने की बात की और बादल सरकार का ही ‘गिद्ध’ स्टेज पर करने का विचार किया। यह बसन्त थियेटर के साथ मेरा पहला नाटक था। श्रीनगर में मेरी यह पहली स्टेज परफारमेंस थी। इसमें मैंने बाप का रोल किया। मेरी उम्र तब केवल 22 साल थी। इस नाटक की बहुत प्रशंसा हुई और मेरे रोल की तो सब अखबारों में चर्चा हुई। मैं बहुत खुश था। इस तरह अशोक जेलखानी के साथ मेरा पहला अनुभव एक दीर्घकालीन मित्रता और गहन संबंध में बदल गया। मुझे काम के प्रति प्रतिबद्धता और हर मुश्किल को पार करके अपने कार्य को सफल बनाने का मंत्र सारे दुनिया में अशोक जी से बेहतर कोई न सिखा सकता। न मुझमें इस बात को जानने की अहमयत मालूम पड़ती। ‘गिद्ध’ के बाद हमने शंकर शेष के लिखे नाटक ‘फन्दी’ पर काफी समय तक काम किया पर इसके मंचन के समय मैं कहीं और व्यस्त रहा और इसमंे भाग नहीं ले पाया। इसके बाद हमने एक नाटक सुरेन्द्र वर्मा का तैयार किया ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ इस नाटक के लिए मुख्य महिला पात्र के लिए काफी अड़चनों का सामना करना पड़ा। पर अन्त में आशा जारू को लिया गया। यह नाटक मैंने सह-निर्देशक के रूप में किया था और इसमें मैंने प्रतोष का रोल किया था। मेरे लिए अशोक जी एक मार्गदर्शक और गुरू से कम नहीं। न केवल थियेटर और टेलीविजन के क्षेत्र में किन्तु जीवन के बहुत कठिन क्षणों में इन्होंने मुझे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से संभाला। मुझे इस बात का पता भी न चलने दिया कि यह मेरी गलतियों को सुधार रहे हैं। दूसरों की निंदा कभी नहीं करते न आपको करने देंगे। हमेशा ‘खुद को देखो’ पर जोर देते हैं। अपनी असफलता का दोष, दूसरों पर नहीं मड़ने देते। सफलता से बहुत खुश होकर दिमाग़ नहीं खराब होने देते और असफलता से निराश होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहने देते। कभी खाली नहीं बैठे रहने देते। काम क्षमता के अनुसार करते रहने में ही भलाई है। नाटक नहीं होता तो नाटक लिखो, लिखते नहीं हो तो अभिनय करो, कुछ न कुछ क्रिएटिव करते रहो। मेरी तरह ही श्रीनगर में दर्जनों अभिनेता अशेक जी से जुड़ कर काम करके थियेटर और टेलीविजन के क्षेत्र में आगे राह तलाशते रहे थे। इनमें कमल राजदान, रीता जलाली, विजय धर, अनिल सिंह, शशि, तारिक जावेद, मोहन शाह, अशोक जालपुरी, अय्याश आरिफ के नाम प्रमुख हैं। अय्याष आरिफ का कहना है कि 1970 के आस-पास जब उसने थियेटर की दुनिया में आंख खोली तो कश्मीर में थियेटर का प्रचलन अपने उच्चतम शिखर पर था। यह दौर कश्मीर के थियेटर का स्वर्ण युग कहलाने लायक है। और इसी युग ने जहां जिनाब अली मुहम्मद लोन, पुष्कर मान, सोमनाथ साधे, प्राण किशोर, कविरत्न, सजूद सैलानी, मखन लाल सराफ, जवाहर वान्चू और शाम लाल धर ‘बहार’ व नौजवान युवाओं में, --- प्राण चन्द्रा, वीरेन्द्र राजदान, प्यारे रैना, एमके रैना, के.के. रैना, और विशेषकर अशोक जेलखानी जैसे कलाकारों से हमें रूबरू होने का अवसर प्रदान किया। अय्याश आरिफ अशोक जेलखानी से मिलने को वैसे ही उत्सुक दिखते जैसे और नौजवानों की उत्सुकता रही होगी। इनका कहना है कि अशोक जी ने कश्मीर के थियेटर पर उस समय पर्दापण किया जब कश्मीर के थियेटर पर विभिन्न प्रकार की प्रणालियों के नाटक खेले जा चुके थे। कश्मीर में थियेटर नाटक लिखने वाले नाटककार, अपने राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिवेश पर सजग्गता से काफी जागरुक लेखन कर रहे थे। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी नाटकों के प्रति जागरुकता में कमी न थी पर कश्मीर में आधुनिक थियेटर को प्रश्रय देना और इसे सही मायन में पेश करने का श्रेय केवल और केवल अशोक जेलखानी को जाता है। इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाटक मंचित करके नए नाटकारों और कलाकारों को मार्गदर्शन किया। अय्याश ने अशोक जेलखानी के टीवी ड्रामा सीरियल ‘दुच्च’ में काम किया, जिसे तेज तिक्कू और ज़ाहिद ‘नाशाद’ यानी जाहिद हुसैन लिख रहे थे। अपनी पहली मुलाकात में ही जब अशोक जी ने अय्याश को नाम से पुकार कर इज्जत से सीनियर कलाकारों के बीच बिठाकर रोल लिखने को कहा तो अय्याश को यकीन नहीं आया। इतना बड़ा निर्माता किस सादगी और कितनी शफक़त से पेश आता है। अय्याश को लगा कि वह इस शख्स को वर्षों से जानता है। अय्याश को इस आदमी की शख्सियत में कशिश और मित्रता का आभास हुआ। दोनों के प्रेम और मित्रता की जो नींव आज से 30 वर्ष पहले पड़ी आज भी ज्यों की त्यों बरकरार है। इस बीच दुनिया ने कितनी करवट ली और कितना कुछ उखड़, उजड़ गया पर यह मित्रता आज भी बरकरार है। क्योंकि इसके मूल में मानव मूल्यों और सरोकारों की भित्ति हैं। यह कभी एक गुरू के रूप में और कभी अपने परम् हितैषी और भ्राता के रूप में अशोक जी को देखते हैं। अय्याश अपनी कामयाबी का सारा श्रेय अशोक जी को देते कहते हैं कि यदि अशोक जी सही रोल न देते, मुझे लोगों में अदाकार की पहचान न मिलती। उन्होंने हम ऐसे नौजवानों की परेशानियों को शायद सही तौर पर आत्मसात किया था, यह रिश्ता केवल एक ड्रामा निर्माता और कलाकार का न होकर एक मानवीय भ्रार्तभाव और व्यापक इनसानी संबंध का था। हम नौजवानों को जिस सरपरस्ती की आवश्यकता थी वह हमें अशोक जी जैसे अनुभवी लोगों से प्राप्त होती रही, शायद यही कारण है कि हम आग मंे से खरे सोने की तरह तप कर आज भी चट्टान की तरह हर उस जोखिम को पार करने मं कामयाब रहे हैं, जिसने वादी से सांस्कृतिक गतिविधियों को जड़ से उखाड़ने का एक मकरूह सिलसिला शुरू किया था। दूरदर्शन श्रीनगर मंे 1973 से 1976 तक शैलन्द्र शंकर, 1976 से 1979-80 तक एसपीएस किरण, 190-1983 तक ए एस गारेवाल, और 1983-88 तक मज़हर इमाम निदेशक पद पर आसीन रहे। अशोक जेलखानी की सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सब ने इसे सर्वगुणों से संपन्न और सहज व सादगी के व्यक्ति के तौर पर जाना-इस कार्यकाल में कभी भी अशोक जेलखानी के खिलाफ किसी प्रकार की शिकायत या कोई अप्रिय या विपरीत टिप्पणी नहीं लिखी गई। दर्जनों सहकर्मियों, कलाकारों, स्टाफ के अधीनस्थ कर्मियों के साथ अशोक जेलखानी का रिश्ता अत्यंत सौहार्दपूर्वक व मित्रता पूर्वक रहा। 1975 में प्राॅड्यूसर बनने के बाद इन्हंे स्क्रीन पर भी पर्याप्त लोकप्रियता मिली। इनका खतों के जवाब कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय था। स्वयं दर्शकों के खतों के जवाब इस रोचकता से देते कि लोग उन दिनों का पाकिस्तानी हिट सीरियल ‘नीलाम घर’ छोड़कर इनका कार्यक्रम देखते। इस संदर्भ में यह बात बहुत अहम है कि सरहद पार पाकिस्तान में और पाक अधिकृत कश्मीर में भी इस कार्यक्रम की लोकप्रियता कार्यक्रम देखने वालों के भेजे गए तारीफों पत्रों से मालूम पड़ती है। एक महिला दर्शक ने जोर देकर यह बात कही थी कि वह ‘नीलाम घर’ न देखकर ‘आप और हम’ कार्यक्रम ही देखती हैं। यह खत पाकधिकृत कश्मीर से आया था और यह महिला इस कार्यक्रम के लिए विधिवत् पत्र भेजती रहती। दूरदर्शन के एक अन्य व्यक्ति जिन्होंने थियेटर टेलीविजन और टेलीविजन पत्रकारिता व नाटकों के कार्यक्रम प्रस्तुति मंे काफी मान और सफलता प्राप्त की अशोक जेलखानी के बारे में कई दिलचस्प बातें बताईं, इन्हें अशोक जेलखानी के बहुत नजदीक समझा जाता है और इनका नाम शबीर मुजाहिद है। शबीर मुजाहिद और अशोक जेलखानी एक-दूसरे को 1971 सन् से जानते हैं। वास्तव में दोनों एस पी काॅलेज श्रीनगर मंे पढ़ते थे। अशोक जी शबीर मुजाहिद से सीनियर थे और काॅलेज की कलचुरल विंग के मुख्य कार्यकर्ता भी थे। शबीर मुजाहिद स्टेज ड्रामा एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते, यही कारण दोनों को नजदीक लाया। जब शबीर मुजाहिद एस पी काॅलेज में 1971 में आए तो अशोक जेलखानी का नाम पहले ही कश्मीर के रंगमंच पर स्थापित हो चुका था। शबहीर मुजाहिद जेलखानी जी से काफी प्रभावित रहे। 1973 में श्रीनगर में टेलीविजन की शुरूआत के साथ ही दोनों ने यहां नौकरी करना शुरू किया। नौकरी के अतिरिक्त दोनों स्टेज पर भी काफी सक्रिय रहे। टेलीविजन में अशोक जेलखानी को न केवल एक सीनियर अफसर अपितु एक ऐसे साथी के रूप में शबीर जी ने पाया जो हर समय कोई भी किसी भी प्रकार की मदद के लिए तैयार रहते। वो चाहे आॅफिस के काम से संबंधित होता या निजी जीवन की कोई बात होती। अशोक जी के पास एक स्पष्ट और साफ जीवन दृष्टि है, उनमंे किसी तरह का उलझाव या बिखराव नहीं है। वे दो टूक आदमी हैं। झूठी तारीफ या झूठी बात को अपने सामने नकारते हैं। कभी भी किसी का श्रेय अपने ऊपर नहीं लेते, न ही किसी की बेवजह निंदा करते हैं। उन्हें दूसरों की चुगली सुनना, या उसमें दिलचस्पी रखना कतई पसंद नहीं। वह काम के तरीके से अधिक एंड रिजल्ट यानी अंतिम नतीजे पर ध्यान देते हैं। उनको पहले से पूर्वानुमान होता है कि किस कृत्य के क्या नतीजे निकल सकते हैं। इस तरह वह बहुत सावधानी से हर काम करते हैं। शबीर साहब का कहना है कि अशोक जेलखानी से उन्हांेने न केवल टेलीविजन प्राॅडक्शन का काम सीखा अपितु जीवन की फिलोसफी सीखी, जीवन दर्शन को आत्मसात किया। शबीर साहब स्वयं आज श्रीनगर स्टेशन में डिप्टी डायरेक्टर हैं। शबीर साहब अशोक जी के अनुशासन और कार्यकुशलता के कायल हैं। इन्हें अशोक जी से बराबर बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
हाल ही में हुए कामनवेल्थ खेलों में षबीर ने अषोक जी के नेतिृृत्व में काम किया औरसब ने इन खेलों के प्रसारण की जम कर तारीफ की। यह एक अन्र्तराष्ट्रीय इवेंट था औरइस में भारत की प्रतिष्ठता एक तरह से दांव पर लगी थी। इन खेलों का न केवल सफलप्रसारण हुआ अपितु इस प्रसारण की विष्व भर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रषंसा हुई।अषोक जेलखानी भरतीय टेलीविजन ब्राडकास्टिंग सेक्टर के आज बहुत प्रभावषाली और महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके हैं। इतना कुछ करने के बावजूद अपनी धरती और अपने लोगों से बहुत नज़दीक से जुड रहते हैं। इस पुस्तक का एक मुख्य उद्धेष्य इस रिषते ओर इस की सर्वांगीय प्रक्रिया को इंगित करना है।
एक व्यक्ति का जरा भर योगदान कई लोगों का पथ प्रषस्त कर सकता है। एक योग्य व्यक्ति के अनुभव से सरकार को फायदा उठाना चाहिए। खासकर ऐसे आदमी से जो लोक सेवा में कभी कोताही नहीं बरतता, कभी पीछे नहीं हटता-जिसने आज तक कभी आगे आकर इस बात का गिला नहीं किया कि उसकी कभी उपेक्षा हुई। जिसने कभी भी अपने किये हुए काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेष करके जिस किसी तरह बड़े अफसरों से कोई रियायत या सिफारिष नहीं चाही। अषोक जेलखानी को जब जिस योग्य समझा गया उसने अगले को कभी ना नहीं की-बल्कि जब कभी इरादतन भी इन्हें ठेस पहुंचाने के लिए किसी ने यह जानकर उपेक्षा करनी चाही कि इन्हें कोई मामूली काम सौंपा जाये तो इन्होंने इस काम को इस कुषलता से किया कि वह काम गैर-मामूली लगने लगा।
लगातार सफल, नाटक और सीरियल करते रहने से श्रीनगर केंद्र में कई लोग यह सोचने लगे थे कि अगर अषोक जेलखानी ही हमेषा नाटक करते रहे तो उन्हें इस क्षेत्र में अपना लोहा मनवाने का अवसर कब मिलेगा? अषोक जेलखानी इसे नाटक की आसाइनमेंट ली गई और इन्हें खेल-खिलाड़ी का कार्यक्रम दिया गया। इस कार्यक्रम को इन्होंने इतनी कार्यकुषलता से किया कि केंद्र में ही नहीं श्रीनगर केंद्र से बाहर भी यह कार्यक्रम चर्चित हुए। खेल प्रस्तुतिकर्ता की ख्याति इतनी बढ़ी कि इन्होंने राष्ट्रीय इवेन्ट कवर किये और आज अंतर्राष्ट्रीय इवेन्ट के मुख्य कार्यकर्ता रहे। अथक मेहनत, लगन, अपने काम में ईमानदारी और पारदर्षिता इनकी कामयाबी के सौपान रहे हैं।-------------------------------------------------------- खतरे की घंटी
आठ सितंबर 1981 को षेख मुहम्मद अबदुल्ला के देहांत के बाद उनके पुत्र फारूक अबदुल्ला ने कषमीर में नेषनल कांफ्रेंस की बागडोर संभाली और राज्य के मुख्यमंत्री बने। इन्होंने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ही विकट राजनीतिक अवसरवाद का सामना किया। कांग्रेस के गुर्गे सत्ता से अधिक देर दूर नहीं रह पाये, इन्हें किसी भी तरह से राज्य की सत्ता में वापसी करनी थी। ये केंद्र में इंदिरागांधी और बाद में राजीव गांधी पर ज़ोर डालते रहे कि फारूक अबदुल्ला को किसी प्रकार सत्ता में कांग्रेस की भागीदारी के लिए मनाया जाये।
फारूक अबदुल्ला इस कुचक्र को पहचानने लगे थे और वे कांग्रेस से इतर, अन्य पार्टियों के संपर्क में रहने लगे। इस बात से नाराज केंद्र ने फारूक के बहनोई गुलाम मुहम्मद षाह को गद्दी का लालच देकर नेषनल कांफ्रेंस में फूट डलवा दी और षाह के साथ भागीदारी में सरकार बनाई। इधर षाह ने राज्य की गद्दी संभाली, उधर फारूक अबदुल्ला के सबर का बांध टूटा। उसने लंदन जाकर भारत विरोधी गुटों से संपर्क करना आरंभ किया। यहां इनकी मुलाकात अमान उल्ला खां जैसे अलगाववादी नेता से हुई-पर जल्द ही फारूक अबदुल्ला इस कुचक्र से बाहर आये। अव्वल तो उन्हें इस बात पर यकीन था कि भारत में कांग्रेस ही अकेली पार्टी नहीं। दूसरे वे कषमीर में अपनी साख खोये नहीं थे। इसका प्रमाण अगले इलेक्षन में उन्हें देखने को मिला, जब जून 1983 में पूर्ण बहुमत से फारूक अबदुल्ला जीत कर आये और सरकार बना ली। कषमीर के क्षितिज से अनिष्चितता के बादल छंट गये, केंद्र में 1983 में मुख्यमंत्री फारूक अबदुल्ला ने गवर्नर से सिफारिष करके राज्य विधान सभा भंग करके राज्य में चुनाव करवाये। राज्य की 76 चुनावी सीटों में संपूर्ण बहुमत के साथ नेका वापिस लौटी। कषमीरियों ने फारूक अबदुल्ला को बहुमत से जिताया-पर कांग्रेस को इस षर्मसार हार के बाद राज्य की गद्दी हमेषा के लिए जाती दिखी। सबर का बांध टूट गया-येन केन प्रकारेण सत्ता तक पहुंचने के लिए षड़यंत्र करके फारूक के बहनोई जी.एम. षाह के साथ गठबंधन सरकार बना ली। लोगों को दिल्ली सरकार के साथ मोहभंग तो हुआ सो हुआ, जज़्बाती कषमीरी जनता को गहरी चोट भी पहुंची। जनतंत्र से विषवास उठने लगा। जिस सरकार को बहुमत से जिताया था, वही ताष के पत्तों की मानिद गिर गई-अवसरवाद, भाई-भतीजावाद और अनैतिकता का बोलबाला सिर चढ़कर बोलने लगा। इस स्थिति का लाभ मज़हबी कट्टरपंथी जमात, जमाते-इसलामी ने उठाना षुरू किया। आम आदमी को यह समझाना षुरू किया कि इसलामी दायरे में रह कर ही और इसलामी राज्य स्थापित करके ही कषमीर में अनैतिक और भ्रष्ट लोगों से निपटा जा सकता है। भारत एक हिन्दू प्रधान देष है। यहां का सारा राजतंत्र भ्रष्ट और अवसरवाद में लिपटा है, फिर यह इसलाम विरोधी भी है, लिहाज़ा जम्मू-कषमीर में इसलामी जमहूरियत या निज़ामारे-मुस्तफा कायम करके ही सही मायनों में लोगों के भले का काम हो सकता है।भोली-भाली जज़्बाती कषमीरी जनता को राजनीति के भंवर में धकेलने वाले अवसरवादी राजनेता जमात के बढ़ते प्रभाव को अनदेखा कर रहे थे।गुलाम मुहम्मद षाह के साथ कांग्रेस का गठजोड़ अधिक देर नहीं चला। फारूक अबदुल्ला और राजीव गांधी के नये गठजोड़ की खबरें फैलने लगीं।
कांग्रेस ने षाह सरकार का साथ छोड़कर धारा 356 के तहत राज्य मे गवर्नर के छः महीनों के राज्य के पष्चात रष्ट्रपति षासन स्थापित किया।
नवम्बर 1986 को लोगों की अटकलबाजी सच साबित हुई। राजीव गांधी और फारूक अबदुल्ला का समझौता हुआ और इस प्रकार राज्य में कांग्रेस की मिली-जुली सरकार ने अब फारूक अबदुल्ल की कमान में राज्य की बागडोर संभाली। कष्मीरी लोगों को राजनेताओं का यह अवसरवाद बहुत कचोटने लगा। इन्हें लगा कि सब राजसत्ता के भूखे हैं और लोगों की किसी को चिंता नहीं। सबसे बुरी बात यह कि प्रजातन्त्र पर लोगों का विषवास डगमगाने लगा। इधर राजीव और फारूक गठजोड़ ने कांग्रेस के कुछ वरिष्ट नेताओं को राज्य में उदासीन बना दिया था-इनको अब अपनी उपयोगिता घटती नजर आने लगी थी। मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद भीतर ही भीतर जमात के लागों से संपर्क साधे थे। राजीव गांधी ने केंद्र की मदद का खजाना 1000 करोड़ रुपये देकर खोल दिया।1987 के चुनाव में मुस्लिम एकता संगठन ‘एमयूएफ’ एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर इलेक्षन में कूद पड़ी-भारी रिगिंग की षिकायतों के बीच कांग्रेस 24 और नेका 39 सीट लेकर फिर से गठबंधन की सरकार बनाने पर राजी थे।इस माहौल में और ऐसी राजनीतिक उठापटक में भीतर ही भीतर एक ज़हर पनप कर अब ऊपर सतह पर झलकने लगा था।जुलाई 13, 1988 को नेषनल कांफ्रेंस ने अपना भव्य स्वर्ण जुबली समारोह मनाया और एक अगस्त 1988 को श्रीनगर क्लब और श्रीनगर टेलीग्राफ दफ्तर के सामने दो बड़े धमाके हुए। इन धमाकों की जिम्मेदारी जे0के0एल0एफ ने ली। एक नया आयाम, एक नया पन्ना कषमीर के इतिहास में खोला गया। आतंकवाद का उद्घोष हो चुका था और अब सरकार लीपापोती में लगी अंधेरे में तीर चला रही थी।सरकारी संचार माध्यमों को पहला निषाना बनाया गया और अब लोगों को इन माध्यमों का रुख बदलने पर आतंकियों ने जोर बढ़ाना षुरू किया।इन संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों को निषाना बना कर डराया-धमकाया और मारा तक जाने लगा।सितंबर की पहली तारीख को कषमीर के पर्यटन केंद्र पर बम विस्फोट करके पर्यटकों को कषमीर में न आने का ऐलान हुआ।सितंबर 3 को बड़े डाकघर पर विस्फोट कर भारतीय डाक के तानेबाने को चुनौती दी गई।सितंबर 18 को डीजी बटाली के घर पर धावा बोला गया, इसमें एक आतंकी मारा गया, 21 आतंकी कलाइषनको राइफलों के साथ गिरफ्तार हुए। सभी आतंकी सरहद पार गुलाम कषमीर से प्रषिक्षण पाकर वादी में कत्ल और गारत का खूनी खेल खेलने को भेजे गए थे।12 अक्तूबर को सारे फितने के पीछे जम्मू-कष्मीर लिबरेषन फ्रंट का हाथ पाया गया।13 अक्तूबर को राजीव गांधी ने वादी का हवाई दौरा करके सैलाब की स्थिति पर विचार करते 53 करोड़ का पैकेज राज्य के लिए दिया और 27 अक्तूबर को षहर के विभिन्न हिस्सों में आतंकियों ने गोलियां चलाकर सब में भय और दहषत फैलाने का कार्य जारी रखा।-----------------------------------------------------खूनी दौर1989, सात जनवरी को पाकिस्तान से प्रषिक्षित इन आतंकियों के बड़े गिरोह को पकड़ा पर जून 1989 तक एक नया आतंकी टोला हिज़बुल इसलामी के नाम से उजागर हुआ। इसने औरतों को पर्दे में रहने और इस्लामी कोड आफ कंडक्ट फालो करने का फतवा जारी किया।5 अगस्त 1989 को जेकेएलएफ ने नेषनल कांफ्रेंस के राजनेताओं को पार्टी छोड़ने का अल्टीमेटम दिया।अगस्त 21, 1989 को नेषनल कांफ्रेंस के ब्लाक पे्रज़ीडेंट मुहम्मद यूसुफ हलवाई को गोलियों का निषाना बनाकर मारा गया।14 सितंबर, 1989 को बीजेपी के प्रेज़ीडेंट टिकालाल टपलू को आतंकियो ने मारा। इससे सारी घाटी सकते में आ गई। टिकालाल बहुत ही लोकप्रिय व्यक्ति थे। समाज में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान उन के भक्त थे। वह गरीबों की पैरवी कोर्ट में मुफ्त करते। स्पष्ट वक्ता और प्रबुद्ध व्यक्ति होने के साथ ही समाज में उनकी पैठ काफी गहरी थी।दिसंबर आठ को केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद की बेटी रूबिया सैय्यद का अपहरण हुआ। इस घटना ने रही-सही कसर निकाल दी। आतंकियों के सामने जिस प्रकार से केंद्र और राज्य प्रषासन ने अपने हथियार डालकर पूर्ण समर्पण का प्रदर्षन करके लोगों को यह गलत संकेत दिया कि घाटी में हालात सरकार के कंट्रोल से बाहर हो गए हैं। आतंकवादी गुट ने अवाम में यह संदेष अपने विजय घोष के साथ भेजा कि भारत और भारतीय दुमछलों का दौर कष्मीर में खत्म हो चुका है, कष्मीर की बागडोर अब उनके हाथ में है।इसमें हालांकि रत्तीभर भी सच्चाई नहीं थी पर लोगों ने जिस प्रकार की राजनीति का सामना पिछले एक दषक से किया था इन्हें इस भ्रमजाल मंे फंसाना आतंकियों के लिए यह घटना वरदान से कम न साबित हुई। रातों-रात सैलाब की तरह लोग सड़कों पर निकल आये और निज़ामे मुस्तफा के जयघोष के साथ आजादी के नारे बुलंद किए। इनमें हिंदुओं के विरुध अपमान और जहर घोलने वाले नारे भी षामिल थे। जगह-जगह हिंदू महिलाओं को अपमानित करना और इन्हें सताना षुरू हुआ। रेडियो और टी.वी. तक स्टाफ का आना-जाना नामुमकिन होने लगा। रेडियो और टेलीविजन के निदेषकों को रोज फोन पर आतंकियों के हुकुमनामें पहुंचने षुरू हुए-‘‘जैसा हम कहते हैं वैसा नहीं किया तो मारे जाओगे’’
श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल घोषित होने के समय राजनीतिक स्तर पर इसका देषभर में चाहे जितना भी विरोध हुआ हो, पर आम जनता ने इस कार्यकाल में एक तरह से राहत की सांस ली थी।
कीमतों में भारी गिरावट के चलते, देषभर मंे खाद्य पदार्थों की सुलभता सुनिष्चित हो गई थी। महंगाई की दर काफी नीचे गिरी थी, भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए प्रषासन ने कमर कस ली थी और कमजोर वर्गों की उन्नति के लिए अनेक नुकाती कार्यक्रमों को लागू किया गया, जिसमें कला और संस्कृति की उद्भव और विकास योजनाओं को प्रोत्साहन और बल मिल रहा था।इस दौर में कला और संस्कृति की सुदृढ़ता के लिए जितने भी कदम उठाये गए थे अब देष में इंदिरा गांधी के न रहने पर राजनीतिक परिदृष्य बदलने के साथ ही इस ओर से ध्यान हटने लगा था। राजीव गांधी ने हालांकि देष की अर्थव्यवस्था को आधुनिक देषों के समकक्ष लाने के लिए सूचना प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तनों की उद्घोषणा की पर अभी बहुत कुछ करने के लिए राजनीतिक इच्छाषक्ति के साथ ही सामाजिक कठिनाइयों से जूझना बाकी था। बोफोर्स तोप सौदा और जातिवादी आरक्षण के संकट ने केंद्र में उथल-पुथल मचानी षुरू की थी। इंदिरा गांधी के निधन के पष्चात जिस तरह से राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को संपूर्ण एक-तिहाई बहुमत मिला था, उसका आधार अब खिसकने लगा था। देष में विखंडन और जातीय समीकरण के बीज हर तरफ पनपने लगे थे। कमजोर केंद्रीय षासन का अर्थ था इन षक्तियों का प्रबल रूप से सामने आना।फारूक सरकार को गिराकर गुलाम मुहम्मद षाह की सरकार के साथ कांग्रेस का गठजोड़ कष्मीर की राजनीति में अवसरवाद का खुला नाच था। आम लोग एक तरफ और नेषनल कांफ्रेंस का फारूक दल दूसरी तरफ इस गठजोड़ से काफी नाराज था। यह गठजोड़ अधिक देर नहीं चला। फारूक का मन अस्थिर हो गया। उसने दूसरे विकल्पों पर अपने पिता की तरह सोचना षुरू किया। जनता में अधीरता आने लगी। यह दौर एक बुरे समय की ओर इषारा करने लगा। नेषनल कांफ्रेंस का वादी में जोर कम करने के लिए केंद्र ने कट्टरपंथी इसलामी दल जमाते-इसलामी के बढ़ते असर को नजरअंदाज करना षुरू किया। यह एक खतरनाक खेल था।1982 में जुल्फकार अली भुट्टो को जिया-उल-हक ने जब फांसी की सजा सुनाई और भुट्टो को फांसी दी गई, तब इसका एक पहलू नेषनल कांफ्रेंस और जमात इसलामी के भयंकर खूनी टकरावों में सामने आया था।कहने का तात्पर्य यह है कि कष्मीर में जिस खुषगवार फज़ा ने 1970 से 1980 के दषक तक सांस लेना षुरू किया था, उसका दम घोंटने का माहौल धीरे-धीरे इसे खत्म करने की कगार पर आने लगा था।अब काफी हाउस में यकायक, काफका, षेक्सपेयर, कालीदास, जूलियस सीज़र, ईलियट और साहित्य के मनीषियों सात्र्र और पेबला नरोदा की जगह फिलिस्तीन, इसराइल, रूस, चीन, भारत और वियतनाम या कोसावो और अर्जेंटाइना के युद्ध पर बहसें होतीं। कष्मीर के इतिहास और सांस्कृतिक गौरव को ग्याहरवीं षती के पष्चात यानी मुसलमानों के षासनकाल के बाद ही गिनती में लिया जाने लगा। कष्मीर का अति अल्पसंख्यक हिंदू भयंकर रूप से त्रस्त और ध्वस्त महसूस करने लगा था। इस बात को 1986 में अनंतनाग में भड़के हिंदू विरोधी दंगों ने साबित किया।यह दंगे केंद्र और राज्य षासन को हिलाने के उद्देष्य से ही क्यों न किए गए हों पर इनका एकमात्र षिकार कष्माीर का हिंदू हुआ। दर्जनों मंदिर रातों-रात गिराये गए और सैकड़ों घरों में घुसकर हिंदुओं को मारा-पीटा और अपमानित किया गया। घर जलाये गए और लूटे गए। ऐसे माहौल में जाहिर है कि कला और संस्कृति का दम घुटने लगा।अब कला के संस्थानांे रेडियो, टेलीविजन, गीत नाट्य विभाग, जम्मू-कष्मीर कल्चरल अकादमी में मुस्लिम कट्टरपंथी तत्वों ने कदम जमाने षुरू किए और इसी अनिष्चितकाल में अषोक जेलखानी के दायित्व और पद की जिम्मेदारियां बढ़ गईं। अषोक जेलखानी श्रीनगर दूरदर्षन में सहायक निदेषक के पद पर नियुक्त हुए। लस्सा कौल दूरदर्षन के निदेाक बने। इससे पहले लस्सा कौल रेडियो कष्मीर में उप-निदेषक थे।वास्तव में अषोक जेलखानी की पदोन्नति सहायक निदेषक के पद पर मजहर इमाम के निदेषक रहते हुई थी। अब हालांकि अषोक जेलखानी का कार्यक्षेत्र बहुत हद तक बदल गया था। कार्यक्रम निर्माता का संबंध उन दिनों प्रमुख रूप से सृजनात्मक कार्यषैली से जुड़ा होता है। पर प्रषासनिक पदों पर आकर यह भूमिका एक निगरान की हो जाती है। इसमें भूमिका एक व्यवस्थापक की हो जाती है। अब इन्हें यह देखना था कि वह स्टेषन को सुचारू ढंग से चलाने में केंद्र निदेषक को कितना सहयोग देते हैं।मजहर इमाम साहब के साथ सहायक केंद्र निदेषक और उप-केंद्र निदेषक के पद पर श्री फारूक नाज़की ऐसे सिद्धहस्त कार्यक्रम निर्माता और माहिर ब्राडकाॅस्टर काम कर चुके थे। इनकी पदोन्नति केंद्र निदेषक के रूप में रेडियो में हुई थी। फारूक नाज़की अषोक जेलखानी को काफी निकट से जानते हैं। अषोक जेलखानी के बारे में फारूक नाज़की साहब बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि अपने समय की नौजवान पीढ़ी में अषोक जेलखानी ने एक मिसाली कैरियर की नींव रखी। इसके लिए वह सबसे बढ़कर श्रेय इनके माता-पिता को देते हैं। माता को अधिक श्रेय इसलिए देते हैं कि उन्होंने खुद समाज में एक अच्छा-खासा नाम और रुतबा पाया हुआ था। वह एक सिद्धहस्त एज्युकेषिनिस्ट होने के साथ ही एक बहुत ही सफल माता साबित हुईं। फारूक नाज़की अषोक जेलखानी साहब के विषय में भी काफी जोर देकर बताते हैं कि ऐसी सद्गुणी पत्नी और स्वयं एक कलाकारों और विद्वानों के परिवार से आई नेक सीरत औरत ने, अषोक जेलखानी के जीवन को उमदा आबायारी दी। प्रेरणा जेलखानी के पिता कष्मीर के जाने-माने साहित्यकारों और विद्वानों में गिने जाते। उनके परिवार में एक से बढ़कर एक कलाकार, साहित्यकार, संगीतकार, सेट डिजाइनर, थियेटर और टेलीविजन के संयोजक, व्यक्तियों ने अपने-अपने रूप में समाज में अपना योगदान दिया है। प्रेरणा जी के सबसे बड़े भाई तेज रैना भौतिकी के प्रोफेसर हैं, उनसे छोटे भुवनेष माहिर सेट डिजाइनर, इनसे छोटे चंद्रषेखर एन.एस.डी. से अभिनय में दीक्षा लेकर सांग एंड ड्रामा डिवीजन में सीनियर पद पर कार्यरत हैं और सबसे छोटे भाई क्षेमेंद्र रैणा... अषोक जी के सबसे निकट रहे। क्षेमेंद्र रैणा एक बहुत ही प्रतिभासंपन्न, बहुआयामी गुणों के कलाकार थे।क्षेमेंद्र रैणा के साथ अषोक जी सुरेन्द्र वर्मा के नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली पहली किरण तक’ नाटक के मंचन दौरान बहुत नजदीक आ गए थे। इस नाटक में क्षेमेंद्र रैणा ने मुख्य पात्र ‘ओकाक’ की भूमिका निभाई थी। समय के बेरहम हाथों ने इस सर्वगुण संपन्न कलाकार को हमसे छीन लिया। क्षेमेंद्र से छोटा भाई पंकज मुंबई में रहता है और एक स्थापित गायक व अभिनेता होने के साथ ही अब अपनी टी.वी. प्रोडक्षन भी करता है।1986-87 में राजीव गांधी, फारूक अबदुल्ला के बीच कष्मीर में इलेक्षन पर संधि हुई। मुस्लिम एकता फ्रंट एक प्रभावषाली संगठन के रूप मंे उभरता दिखाई देने लगा। एक तरह से सारे कष्मीर में मुस्लिम सांद्रदायिकता ने अपनी जड़ें मजबूत करनी षुरू कीं। मजहब के नाम पर, भारत विरोध के नाम पर भारत के धर्म-निरपेक्षतावाद को खोखला और व्यर्थ बताकर मजहबी कट्टरपंथी के नाम पर इन तत्वों ने मुसलमानों को वरगलाना षुरू किया।इसलाम धर्म के इस नई पैरवकारी इस जमात ने, कष्मीर के परंपरागत भाईचारे पर कठोर वज्राघात करना आरंभ किया। इस भाईचारे की सुदृढ़ नींव कष्मीरी कंपोजिट कलचर को जड़ से उखाड़ फेंकना इस जमात का मुख्य अस्त्र-षस्त्र रहा। इस जमात को पुष्तपनाही केंद्र में बैठे कुछ राजनीतिक दल और सीनियर नेता भी कर रहे थे।इस जमात का निषाना कष्मीर के प्रगतिषील और प्रगतिवादी लेखक, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी और प्रचार-प्रसार के माध्यम बनने लगे। प्रचार-प्रसार माध्यमों में मुख्य रूप से रेडियो और टेलीविजन को भारत सरकार की हिंदूवादी सैक्यूलर नीतियों के परिपेक्ष में जनता में प्रचारित किया जाने लगा। इन माध्यमों में कट्टरपंथियों का जोर बढ़ने लगा। कार्यक्रमों के चयन और प्रसारण में इन्होंने दखल देना षुरू किया। इस तरह सारे माहौल में एक तरह से साजिष की बू फैलती दिखने लगी।इससे दूरदर्षन और रेडियो के कार्यक्रम संचालन करने वाले स्टाफ में बेचैनी फैलने लगी।
कुछ सांप्रदायिक मुसिलम जवानों ने रेडियो और टेलीविजन के कार्यक्रम कंटेंट व षैली को नकारना और इसका विरोध करना षुरू किया। पहले-पहल हिंदू, मुसलमान स्टाफ, कैजुअल आर्टिस्ट और प्रसारित विष्य-वस्तु को घाटी के मुसिलम बाहुल्य आबादी के अनुपात से संचालित करने को लेकर राजनीतिक प्रभाव और दखल बढ़ाना षुरू हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता इन कार्यक्रमों से जुड़े कलाकारों, निर्माताओं, निर्देषकों और लेखकों पर बल-प्रयोग से कार्यक्रमों की विष्य और षैली में मुसलमानों और इसलाम की पद्धति के अनुरूप बदलने को कहा गया। चित्रहार, नाटक, संगीत के कार्यक्रम पर अनावष्यक आपत्तियां उठनी षुरू हुईं। संस्कृति के अर्थ और आयाम अब पुरानी परिभाषा खोने लगे।
इसी माहौल में लस्सा कौल ने श्रीनगर स्टेषन के निदेषक का पद संभाला। फारूक नाज़की एक लंबे अंतराल के बाद रेडियो कष्मीर में निदेषक नियुक्त हुए।फारूक नाज़की ने दो से तीन वर्ष फारूक अबदुल्ला सरकार में मुख्यमंत्री फारूक अबदुल्ला के विषेष मीडिया सलाहकार के तौर पर बिताये थे और इस बीच दूरदर्षन और रेडियो की दैनिक गतिविधियों से इनका संपर्क टूट चुका था। एक बहुत प्रभावषाली मुस्लिम जमात का गुट इन्हें दूरदर्षन के निदेषक के रूप में आसीन देखना चाहता था। इस गुट के एक सरगना ..... थे। इनका मुख्य मुद्दा दूरदर्षन की कार्यप्रणाली पर अपना वर्चस्व स्थापित करके फारूक नाज़की को अपना मोहरा बनाना था।फारूक नाज़की ब्राडकास्टिंग के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं। वह इस ग्रुप के प्रेषर का उपयोग करके दूरदर्षन में आना चाहते थे, इसलिए इनकी हरकतों पर ढ़ील दे रहे थे पर षायद नाज़की साहब की पैनी दृष्टि घाटी के माहौल में उपजी हर तरफ की उठा-पटक पर थी और उनको अपनी दिषा तय करने में कठिनाई हो रही थी। कोई भी ताकत उभरते फिरकापरस्त कट्टरवाद से भिड़कर जोखिम नहीं लेना चाहती क्योंकि जो इन ताकतों को टक्कर देने में सक्षम थे और जो इन ताकतों को दबाकर, वादी में सेहतमंद माहौल को उद्भव देते थे वह कहीं पृष्टभूमि में रहकर इनका साथ दे रहे थे। फारूक नाज़की और इनके ऐसे कई विचारक और प्रबुद्ध बुद्धिजीवी खामोष तमाषबीनों में बदलने लगे थे। विवेक पर जनून का जब्त हावी होने लगा था।अषोक जेलखानी की नज़र में स्टेज पर नटों की भूमिका बदल गई थी। अब अलग लोग अपना नया प्रहसन लेकर आए थे और अषोक जेलखानी इस बदलाव को इससे अधिक कुछ न मानते। यह एक अजीब बात है, जिस बात को लेकर रेडियो और टेलीविजन में सारा अल्पसंख्यक हिंदू स्टाफ परेषान था, इसे अषोक जेलखानी एक नए किंतु भद्दे प्रहसन की तरह देख रहे थे। ष्तुम नहीं समझते महाराज, यार यह स्टेज है और इस पर आज कब्जा जमात का हो रहा है, क्योंकि हम लोगों ने (सैक्यूलरवादी) यह स्टेज खुद छोड़ दिया है। सैक्यूलरवाद का अर्थ बदल गया है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ अब सापेक्ष धर्मपक्षधरता हो गया है। देष की सारी राजनीति ही दूषित हो रही है तो...। अपने काम से काम रखना है, नौकरी कर रहे हैं और इसे तब तक सरकारी मानदंड से ही करेंगे जब तक कर पायेंगे...’सहायक निदेषक, भारी-भरकम फाइलों के ढेर, बड़ा मेज-कुर्सी और भव्य कमरा अषोक जेलखानी में जरा भर भी किसी प्रकार की चिंता या भय नजर नहीं आ रहा था। किंतु वास्तव में सबके लिए ही चिंता का विषय था। नरमपंथी मुसलमानों की आवाज घोंट दी जा रही थी।मज़हबी मजलसिसों पर कठमुल्लाओं का जोर बढ़ रहा था। एक तरफ धर्म की आड़ में कैदोबंद के फतवे साद्धिर हो रहे थे, दूसरी ओर धार्मिक उन्माद पैदा करके सारी ताकत अपने हाथ में करने को कुछ लोग सांस्कृतिक मंच हथिया कर इस पर भी गलबा चाहते थे।अब धर्म के नाम पर एक तरफ पाबंदियों के फरमानों और फतवों का दौर षुरू होने लगा, वहीं ‘आजादी’ के नारे बुलंद होने लगे। एक तरफ चरस और अफीम की खेती से नषे का कालाबाजार सरगर्म हुआ जिसकी दौलत से नये महल खड़ा हो रहे थे, दूसरी ओर मजहबी इखलाक और इसलामी लाहे-अमल को नये रूप में परिभाषित करने वाले, औरतों को संस्कृति का नया गुलामाना पाठ पढ़ाने लगे। अफरा-तफरी का दौर साफ दिख रहा था।इसी दौर में मजहब के नाम पर दरारें डालने वाले समाजी नाबराबरी को मजहबी रंग में तौलने लगते हैं। हिंदू को अधिक मिल रहा है, मुसलमान का हक छीना जा रहा है। रेडियो, टी.वी. में अषलीलता की सभ्यता परोसी जा रही है। यह भारतीय सभ्यता हो सकती है पर यह इसलामी अमल के खिलाफ है। भारत ने राज्य की संस्कृति को स्खलित किया है। यहां हिंदू संस्कृति थोपी जा रही है। इसलिए पहला निषाना सांस्कृतिक केंद्र का अर्थ, इन केंद्रों पर काम करने वाले हिंदू कर्मचारी व अधिकारी।लस्सा कौल और अषोक जेलखानी नम्बर एक और नम्बर दो की हैसियत से दूरदर्षन का संचालन कर रहे थे। दोनों ने अपना डेरा दूरदर्षन परिसर में ही जमा रखा था। बाहर निकल कर वे षायद भीतर न आ पायें... यह स्थिति हो गई थी। लस्सा कौल पर आतंकी अपना दबाव बढ़ा रहे थे। इधर केंद्र और राज्य प्रषासन को धुरी पर लाने के लिए राज्य में दूरदर्षन और रेडियो की भूमिका हद से ज्यादा बढ़ गई थी। स्टाफ का अभाव, काम का बढ़ता बोझ, दोनों जने, लस्सा कौल और अषोक जेलखानी अकेले सारा स्टेषन चला रहे थे। दोनों दो सिपाहियों की तरह जूझ रहे थे और मोर्चे पर डटे थे।दिसंबर की ठंडी सिकुड़ती रातों में घर के आराम से दूर, लस्सा कौल और अषोक जेलखानी रात-रात भर जागते सोचते कि आखिर इतना कायाकल्प रातों-रात कैसे हो सकता है? सारी की सारी घाटी के लोग हजूमों में सड़कों पर आकर आतंकवादियों का समर्थन क्यों कर रहे हैं? क्या इस राज्य में कोई बुद्धिजीवी, बुजुर्ग सोचने-समझाने वाले दानिषवर चन्द बंदूकबरदारों के आगे घुटने टेक कर खामोषी से इनके साथ हो गए। सदियों की रिवायतें रातों-रात मिट्टी में मिला दी गईं। जनूनी हिंदू लड़कियों की सूची तैयार की रहे थे। कितनी कहां से उठाकर ले जानी हैं। अब उन लोगों के नामों का एक हिट-लिस्ट भी प्रकाषित किया गया जो आतंकियों के निषाने पर थे। इनमें अषोक जेलखानी और लस्सा कौल का नाम भी था। अषोक जेलखानी और लस्सा कौल दोनों ही इन बातों से जरा भर भी नहीं डरे। अपना काम मुस्तैदी से करते रहे। लोगों को इस बात से आगाह करने की कोषिष करते कि हमारे भीतर दुष्मन घुसा है, दष्मन ने हमारे ही नौजवानों को गुमराह करके हमारे खिलाफ बंदूक थमा दी है। पर दूरदर्षन के स्क्रीन पर आने को कोई भी तैयार न था। न्यूज़ रीड़रों पर जानलेवा हमले हो चुके थे और कुछ महिला कर्मचारियों पर मजहबी पाबंदी आयद की गई थी।पहली जनवरी 1990 को घाटी के सारे सिनेमाहाल जेकेएलएफ ने बंद कराये। आज 20 वर्षों बाद भी एक भी सिनेमाहाल काम नहीं कर रहा है। 19 जनवरी को गवर्नर कृष्णा राव ने त्यागपत्र देकर जगमोहन को कमान सौंपी। इससे नाखुस फारूक अबदुल्ला ने त्यागपत्र दिया और असेंबली त्रिषंकू की तरह लटकने लगी। 19 जनवरी की रात घाटी के हिन्दुओं के लिए कयामत की रात साबित हुई। सारे के सारे मुसलमानों को जगह जगह मसजिदों में लगे लाउड स्पीकरों से हिदायतें दी जा रही थीं कि जहाद षुरू हो चुका है। काफरों को या तो इस का साथ देना होगा या वादी छोड कर जाना होगा। अब राज्य की बागडोर सीधे जगमोहन ने संभाल ली। जब जगमोहन ने अफरातफरी में बिखरे राज्य प्रषासनिक प्रणाली के टुकड़ों को जोड़कर देखने की कोषिष की तो पाया कि कोई भी अंग अपने सही स्थान पर नहीं है। राज्य एक अस्थि-पंजर में बदल दिया गया है। सबसे बेलगाम पुलिस और खुफिया तंत्र है। इसकी जवाबदेही लगभग समाप्त हो चुकी है। खुफिया तंत्र के पास किसी भी प्रकार की कोई भी विष्वसनीय सूचना या रिकार्ड नहीं है। तो सबसे पहले पुलिस और खुफिया तंत्र पर लगाम कसनी है, फिर प्रषासन को हरकत में लाना है। कितने नौजवान छलावे में आकर पाकाधिकृत कष्मीर में प्रषिक्षण पर गए है इसका कोई रिकार्ड क्या किसी की तस्वीर तक कहीं नहीं। यहां तक कि आम आदी मुजरिमों के रिकार्ड तक थानों से गायब हैं।गवर्नर ने मीडिया की भूमिका और इस माध्यम पर मंडराते खतरे को भांप लिया था। जगमोहन मीडिया खासकर दूरर्दान को प्रबल जनषक्ति का साधन मानते। इन्होंने लस्सा कौल के साथ 24 घंटे हाट लाइन पर रहने का निर्देष दिया। जगमोहन कष्मीर की हकीकत से वाकिफ थे। यहां के लोगों को और इनकी नब्ज़ को अच्छे से पहचानते थे। इसलिए इनके साथ मीडिया के द्वारा संपर्क साधना चाहते थे। जगमोहन ने लोगों की सुनवाई के लिए राजभवन के द्वार खुले रखे, दूरदर्षन पर कई बार जनता से संबोधित होकर राज्य की स्थिति पर अपना पक्ष रखा। जगमोहन ने सारे कदम सही दिषा में उठाने षुरू किए। आतंकियों और सरहद पार इनके आकाओं की नींद हराम होने लगी। जगमोहन आतंकियों के चक्रव्यूह को भेदने में सफल हो रहे थे और दूरदर्षन के दो अधिकारी राज्य के लोगों से प्रषासन का सीधी संपर्क साधने में मददगार हो रहे थे।अब काफी हाउस सूना हो गया था। यहां कोई जुम्बिष तक न थी। यह बंद ही हो चुका था। बंसी पारिमू, हस्सरत गड्डा, हृदय कौल भारती, गुलाम नबी ख्याल, रियाज़ पंजाबी आदि की मूल्यवान बहसों को, चर्चाओं को और सौहार्द को तितर-बितर करके बिखेर दिया गया था। उमंगों में उछलता रेज़ीडेंसी रोड़ एक बियाबान में तबदील हो रहा था। यहां लोग कम और भगदड़ ज्यादा दिख रही थी। षहर में फौज, अर्धसैनिक बल और बंकर, षहर को छावनी में बदल रहे थे। हर तरफ जंग का-सा माहौल था। लोगों को सांप सूंघने लगा था।अफसोस कि आतंक पर लगाम कसने वाला सक्षम सिपाही जगमोहन देष की राजनीतिक उठापटक का षिकार हो रहा था। राजीव गांधी और फारूक अबदुल्ला एक जुबान होकर जगमोहन की नियुक्ति का विरोध कर रहे थे। इससे आतंकियों को बल मिल रहा था। लस्सा कौल और अषोक जेलखानी को राजनीतिक संतुलन का ख्याल रखते ऐसी खबरों का भी प्रसारण करना पड़ रहा था जो जगमोहन के प्रयासों पर ही षक की सूई घुमा देते।ऐसे माहौल में ऊब से लड़ना बहुत कठिन होता है। लगातार दिन, रात काम करते षरीर की सीमित षक्ति जवाब देने लगती है। लस्सा कौल और अषोक जेलखानी ने इस ऊब को खत्म करने के लिए पंद्रह-पंद्रह दिन का बारी-बारी अवकाष लेना मान लिया। इंजीनियरिंग स्टाफ भी अब केंद्र में ही डेरा जमाये था। कार्यक्रम स्टाफ मंे उपस्थिति कम रहने लगी थी। बंद, हड़तालों ने दैनिक जीवन को पटरी से उतार फैंका था।अषोक जेलखानी पहले पंद्रह दिन अवकाष पर जायेगा, फिर इनके आने के बाद लस्सा कौल अवकाष पर जायेंगे। इस प्रकार दोनों ही रिफ्रष होकर दुबारा इक्ट्ठे मुहिम में जुटे रहेंगे।05 फरवरी को अषोक जेलखानी अपनी पत्नी और बेटी लूना के साथ मुंबई की सैर पर निकल पड़े।मंुबई पहुंचते ही सारे पुराने यार-दोस्त मिलने आये। सब कष्मीर की स्थिति पर अपडेट चाहते थे। सबका इसरार था अषोक अपने परिवार के संग उनके साथ रहे। मोहन लाल कौल (ऐमा) और ओमकार कौल (ऐमा) दोनों कष्मीरी पंडित हैं और मुंबई में काफी अर्से से रह रहे हैं। मोहन लाल ऐमा का हम पहले भी जिक्र कर चुके हैं। रेडियो के आरंभिक दिनों से ही वे श्रीनगर स्टेषन से जुड़े रहे। इन्होंने रेडियो कष्मीर श्रीनगर के संगीत विभाग को संवारा, सजाया और अत्यंत लोकलुभावना बनाया। राजबेगम, नसीम अख्तर, नबला बेगम सरीखी संगीत और नाटक की नायाब आवाजों को खोजने का श्रेय इन्हें ही जाता है। आज जिस धुन ‘बुम्बरो’ को सब मस्त होकर गाते हैं, यह इन्होंने ही पहले दीनानाथ नादिम के ओपरा ‘बोम्बुर यम्बरजवल’ में कम्पोज़ की थी। ओंकार ऐमा इनके छोटे भाई हैं। ओंकार ऐमा को तो सारी फिल्म इंडस्ट्री जानती है। इन्होंने दर्जनों फिल्मों में चोटी के कलाकारों के साथ महत्वपूर्ण भूमिकायें निभायी हैं। इन्हीं के मेहमान बनकर अषोक जी अपने परिवार के साथ मुंबई में रहे। पंद्रह जनवरी को जब इनकी छुट्टियां खत्म होने को आईं और यह वापिस श्रीनगर जाने का कार्यक्रम बनाने लगे तो मोहन जी ने रोक लिया, बोले कि ओंकार के बेटे की षादी के बाद वापिस जाओगे। पर, ओंकार के बेटे की षादी में अभी महीने भर का समय था। षादी 15 फरवरी को तय हो चुकी थी।इधर अषोक जेलखानी अपनी कमिटमेंट से बंधे थे। उन्हें लस्सा कौल को श्रीनगर जाकर रिलीव करना था ताकि अब वह छुट्टियों मनाकर लौटें। अषोक जी ने मोहन जी को सारी स्थिति समझा दी पर मोहन जी ने काफी इसरार करके रोक लिया। मोहन जी और लस्सा कौल रेडियो में इक्कट्ठे काम कर चुके थे। लस्सा कौल के वे काफी सीनियर रह चुके थे। मोहन जी वैसे भी कष्मीरी मीडियाकर्मियों में एक बुजुर्गवार की हैसियत रखते थे और इसीलिए उनका सब आदर-सत्कार करते थे। उनके कहे को षायद ही कोई टाल देता या इसकी परवाह न करता। मोहन जी ने लस्सा कौल से बात करके अषोक जी की छुट्टियां फरवरी तक बढ़ा दीं। इन्होंने लस्सा कौल से कहा कि वे इन्हें मुंबई फरवरी तक रोक रहे हैं। लस्सा कौल ने मोहन जी की बात मान ली और अषोक जेलखानी को मुंबई और रुकने की अनुमती दे दी।आतंकियों के बेहद दबाबों के बावजूद भी लस्सा कौल दूरदर्षन को बराबर नियम, कायदे से संचालित किये हुए थे। मज़हबी इसलामी षिरियत के अनुसार इस स्टेषन पर केवल मुसलमानों के मज़हब से जुड़ी बातों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। नेषनल नेटवर्क कार्यक्रम और नेषनल न्यूज़ का प्रसारण बंद होना चाहिए। आतंकवादी सोच-विचारों को और इनसे संबंधित न्यूज़ को ही खबरों में स्थान मिलना चाहिए। षहर में इनकी बढ़ती ताकत को बढ़ा-चढ़ाकर पेष किया जाना चाहिए। दिन में तरह-तरह से फोन और चिट्ठियों के माध्यम से यह आदेष लस्सा कौल को आतंकी सरगनों से रोज़ ही मिल रहे थे।लस्सा कौल कष्मीरी भाव-भूमि से जुड़े निहायत विचारषील, बुद्धिजीवि व्यक्ति थे। कष्मीरी मुसलमानों में यह अपने सूफी विचारों के लिए काफी मकबूल थे। कष्मीर की परंपरागत सांस्कृतिक धरोहर के यह पोषक और संरक्षक स्तंभों में से जाने-माने व्यक्ति के तौर पर जाने जाते थे। इनका दिमाग मजहबी संकीर्णता से परे एक वैज्ञानिक भावबोध से जुड़ा था। सारे कष्मीर में इन्हीं प्रगतिषील विचारों के लिए कष्मीरी अवाम में यह काफी लोकप्रिय थे। आज इनका मन कष्मीरियों के दुर्भाग्य पर खिन्न था। कष्मीरी बच्चों को गंदी राजनीति का मोहरा बनाकर बलि का बकरा बनाया जा रहा था। वे अपने सीमित साधनों के अंदर ही रहकर यह बात बहुत स्पष्टता से लोगों के बीच पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे थे।
13 फरवरी को काफी दिनों बाद जब लस्सा कौल स्टेषन छोड़कर एक रात के लिए अपने घर जा रहे थे तब एक सोची-समझी साजिष के तहत घर के बाहर दरवाज़े पर काफी निकट से गोली दाग कर आतंकियों ने उनकी निर्मम हत्या कर दी। सारी घाटी षोक में डूब गई। एक ऐसा व्यक्ति जो सपने में भी किसी का अहित नहीं सोचता था। जिसकी काबलियत और षराफत के आगे बड़ों-बड़ों का सर झुक जाता था, नृृषंस रूप से मारे गए। कष्मीरी पंडितों में लस्सा कौल की हत्या के बाद रोष, गम और गुस्सा इस कदर हावी हुआ कि लाचारी में कुछ न कर पाने की विवषता में इन्होंने कष्मीर छोड़ने पर विचार करना षुरू किया।
स्ंाकेत साफ था। आतंकी हिंदुओं को साफतौर पर निषाना बना रहे थे। सर्वानन्द कौल प्रेमी, उनका सुपुत्र, प्रेमनाथ भट्ट, सरला भट्ट, फिरहिस्त बढ़ती जा रही थी, बिना किसी वजह हिंदू कत्ल हो रहे थे।25 जनवरी को इससे पहले जेकेएलएफ के आतंकियों ने 4 एयरफोर्स अफसरों को मारा था। ये सारे कातिल और खूनी आतंकी आज भी खुले घूम रहे हैं।अषोक जेलखानी, लस्सा कौल का दुःखद समाचार सुनते ही सकते में आ गए। फटाफट वापिस लौअने की तैयारी करने लगे। अगर उनकी छुट्टियां न बढ़ाई होतीं? हो सकता है लस्सा कौल बच गए होते...?? अषोक जेलखानी अपने परिवार के साथ श्रीनगर वापिस लौटने को तैयार ही थे कि मां का फोन आया। ‘‘यहां हालात बहुत खराब हैं, तुम हिट लिस्ट में हो, खबर अखबार में भी आई है। यहां मत आना... हम भी यहां से निकलने की सोच रहे हैं। यहां जंग चल रही है... हिंदओंु को निषाना बनाया जा रहा है।’’अषोक के मुसलमान दोस्तों की राय इससे अलग न थी। ‘‘तुम्हारा यहां आना तुम्हारे लिए जान का खतरा हो सकता है, अभी कष्मीर भूल जाओ...’’अषोक को यकीन तब आया, जब अपने स्टाफ के कुछ लोगों ने इस बात की पुष्टि की कि वापिस आने पर उन्हें भी जान से हाथ धोना पड़ सकता है। अषोक के मन को कोई नहीं रोक सकता, वह युद्ध में पीठ नहीं दिखायेगा। लड़ेगा, वापिस जाकर। केंद्र पर आतंकियों को हावी नहीं होने देगा। इसी सोच के साथ वह मुंबई सेंट्रल से जुहू अपने एक दोस्त से मिलने जा रहा था। उसने देखा एक नवजवान लड़का काफी देर से उसका पीछा कर रहा है। वह मेरीन ड्राइव पर ट्रेन से उतर कर रेस्तरां में घुस गया। यह नवजवान यहां भी पीछा करते पहुंच गया। अषोक की धड़कन अब बढ़ने लगी। उसको मृत्यु की निकटता का अहसास होने लगा। वह लेकिन खामोषी से नवजवान पर नजर रखते हुए एक कुर्सी पर जा बैठा। नवजवान अषोक के पास खड़ा हो गया। अषोक को पक्का यकीन हो गया। टेलीविजन स्क्रीन पर उसका चेहरा कष्मीर का हर आमोखास आदमी का पहचाना था। आतंकी उसका पीछा करते यहां तक पहुंच गए हैं। अब कुछ सेंकेंड का समय है।तभी नवजवान कष्मीरी में बोल पड़ा, ‘‘सर! आप मुझे नहीं पहचानते, पर मैं आपको अच्छी तरह जानता हूं। आप अषोक जेलखानी हैं। मैंने आपको टी.वी. पर देखा है। अषोक की जान में जान आ गई। यह कोई जानकार फेन लगता है। इस प्रकार फेन आगे आकर अक्सर कष्मीर में मिलते। इस बात से हर कलाकार खुष होता और अपने फेन से दिल खोलकर बात भी करता।‘तुम यहां मुंबई में क्या कर रहे हो? अषोक ने पूछा’।‘सर, मैं कष्मीर से यहां भाग आया हूं, मेरा नाम अषरफ है, मैं आपके एक मित्र का भाई हूं... मुझे कुछ पैसे चाहिए, आपको देखकर लगा कि आप मेरी मदद कर सकते हो।’अषोक-‘हां पर तुम, यहां आटर्स एम्पोरियम में क्यों नहीं चले जाते, वहां और भी बहुत कष्मीरी काम करते हैं, हो सकता है वहां तुम्हारा कोई नजदीक का जानकार भी निकल आए?’वास्तव में अषोक को अभी भी डर लग रहा था कि हो ना हो यह कोई भागा हुआ आतंकी हो, जो इनसे आर्थिक मदद चाहता हो।अजनबी नौजवान की आंखें आंसुओं से छलछला उठीं-‘ठीक है, आप पैसा नहीं देना चाहते पर मुझे उन लोगों के पास जाने को न कहें, वे सब मेरा मज़ाक उड़ाते हैं और मुझे पुलिस में देने की धमकी देते हैं, मैं अच्छे परिवार से हूं, जान-बचाकर मिलिटेंटों के चंगुल से खुद को बचाकर यहां भाग आया हूं। लखनऊ में मेरा भाई पढ़ाई कर रहा है, मैं उसके पास जाना चाहता हूं। आप अपने दोस्त से पूछकर मेरी मदद करें। वहां फोन मिलाकर आप अभी मेरे बारे में पता कर सकते हैं...’-क्या नाम है तुम्हारा?-सर मेरा नाम अषरफ है, अषरफ भट्ट...-कितने रुपये चाहिए...-बस, लखनऊ तक का किराया...-अषोक जी ने तीन या चार सौ के नोट जेब से निकालकर नौजवान को थमा दिये। वह खुष होकर षुक्रिया कहकर लखनऊ की गाड़ी पकड़ने चला।अषोक जेलखानी के मस्तिष्क में कई सवाल एक साथ उमड़ रहे थे। अभी-अभी जो नौजवान ने उसे स्थिति बताई वह रह-रहकर इस बात की तरफ इषारा कर रही थी कि घाटी के हालात गैरमामूली रूप और खतरनाक रूप से बदल चुके थे। सारा भारतीय मीडिया इस बात से या तो बेखबर था या जानबूझकर हालात को तोड़-मरोड़कर देखना और बयान करना चाहता था। हकीकत यह थी कि पाकिस्तान से कष्मीर में आतंक प्रायोजित ढंग से चलाया जा रहा था। मज़हब को आड़ बनाकर खूनी खेल बहुत आगे बढ़ चुका था। यह बेरोज़गारी या विकास में पिछड़े होने का मामला नहीं था, न यह फौज और सुरक्षाकर्मियों द्वारा जुल्म करने का प्रतिरोध था, जैसे कि समस्त देष के तथाकथित मेनस्ट्रीम अखबार और मैगजीन लिख रहे थे। पाकिस्तान ने कषमीरियों के मजहबी जनून को जगा कर इन्हें अपने ही खिलाफ कर दिया था। ‘आजादी’ का मोहपाष खड़ा करके बारूद के साथ कष्मीरियों को जकड़ा और जोड़ा था। कष्मीर तबाह हो रहा था... रह-रहकर यहां के सांस्कृतिक और संचार माध्यम निषाने पर लिये जा रहे थे। प्रथम मार्च 1990 को सूचना विभाग के एच.एन. हण्डू जो सह-निदेषक पद पर कार्यरत थे, मारे गए। अषोक जेलखानी के लिए सारे हालात बदल गए थे। वह किसी भी सूरत में वापिस नहीं जा सकता।उसने फैसला लिया-बहुत कठिन, कठोर और दिल को रुलाने वाला फैसला, वह श्रीनगर नहीं जाएगा। और जब यह फैसला लिया तो मिनिस्ट्री आई. एण्ड बी. से संदेष मिला कि उनकी नियुक्ति उप-निदेषक दूरदर्षन श्रीनगर के पद पर हुई है। पर जेलखानी ने सारी स्थितियां अपने विरुद्ध देखते हुए, मिनिस्ट्री से निवेदन किया कि वर्तमान परिस्थितियों में वह श्रीनगर नहंी जाना चाहेंगे। वहां से वह सपरिवार निकल कर मुंबई में षरण लिए हुए हैं। इन्हें श्रीनगर से बाहर कहीं भी नियुक्त किया जाए। चार महीने इसी प्रकार बिना किसी पगार, पैसे और निष्चित स्थान पर रहने के गुजर गए। यह चार महीने अत्यंत तंगदस्ती और साधनहीनता में एक षरणार्थी की भांति गुजर गये। इन दिनों को याद करते अषोक जी उन लोगों की यातनाओं पर ध्यान देने को कहते है जिनके पास कोई सरकारी नौकरी नहीं थी, रोज़गार का साधन नहीं था, जो अन्य परिसंपतियों के साथ अपने रोजगार के साधन भी घाटी में गंवाकर बिलकुल खाली हाथों निकल कर विभिन्न कैंपों में पिछले बीस वर्षों से रह रहे हैं। किसी भी मदद के लिए वे प्रथम वरीयता पर सबसे पहले होने चाहिए।चार महीनों खाली जेबों अपनी तंगदस्ती से जूझने के बाद भारत सरकार ने अषोक जेलखानी को लखनऊ में पोस्ट किया। यहां के निदेषक विलायत जाफरी ने अषोक जी का बहुत सकारात्मक ढंग से स्वागत किया। इनसे बात-बात में पता चला कि लखनऊ में इससे पहले जो भी उपनिदेषक आता उसकी विलायत जाफरी से अधिक नहीं पटती, विलायत जाफरी ने अषोक जेलखानी का नाम स्वयं उस समय के डी.जी. को लखनऊ के लिए प्रस्तावित किया था। जाफरी साहब ने कहीं अपने सूत्रों से अषोक जी की खूबियों के बारे में काफी जानकारी हासिल की थी। इस कारण इनके लिए बात की थी। और अषोक जेलखानी ने विलायत जाफरी को कभी षिकायत का मौका नहीं दिया। कई साल बाद आज भी दोनों में सौहार्दपूर्ण संबंध हैं। विलायत जाफरी को अषोक जेलखानी की तकलीफ के बारे में अपने दोस्त से पता चला था। उन्हें मालूम था कि चार महीने इन्होंने कैसे विकट जीवन का सामना किया है। लखनऊ में इनके रहने का, खाने-पीने का, यहां तक कि घर के सारे सामान का पहले से प्रबंध जाफरी साहब ने करा रखा था। घर की जरूरत पूरी करने के लिए अपनी जेब से पैसे दिये और इन्हें किसी बात की तकनीफ न हो इस बात के लिए खास प्रबंध किये।अषोक जेलखानी एक बार फिर अपने रूप और रंग में आ गये। लखनऊ स्टेषन में दो साल उपनिदषक पद पर कार्य करते हुए इनका निदेषक पद के लिए प्रोमोषन हुआ और इन्हें रांची भेजा गया, पर रांची से इन्हें अधिक अब लखनऊ में मन लग रहा था। अषोक जेलखानी का मन रांची जाने को इसलिए भी तैयार नहीं था क्योंकि बड़ी मुष्किल से गृहस्थी के ताने-बाने को अब पटरी पर ला खड़ा किया था, एक बार इतने कम अंतराल में ही विस्थापन की चोट से उभरना संभव न था। पद का मोह त्याग कर अषोक जी ने विनीत स्वर में सरकार से निवेदन किया कि इन्हें लखनऊ से कहीं और न भेजा जाए। कुछ समय इसी प्रकार गुजर गया पर षीघ्र ही इन्हें जम्मू के स्टेषन पर केंद्र निदेषक के पद के साथ नियुक्त किया गया। यह कार्यक्रम केंद्र न होकर एक तरह से कार्यक्रम संचार केंद्र था। यहां पर किसी भी तरह की कार्यक्रम गतिविधियां नहीं हो रही थीं। ले-देकर एक न्यूज का सैक्षन था, जिसे श्रीनगर के बिगड़े हालात को नजर में रखते, कषमीरी पंडितों के स्टाफ कर्मचारियों के साथ यहां षिफ्ट किया गया था। एक अजीब परिस्थिति थी-यह कार्यक्रम स्टेषन एक कैंप आॅफिस की तरह था। यहां किसी तरह की बुनियादी सहूलियतें तक न थीं।अषोक जी को यहां हर चीज़ नये सिरे से षुरू करनी पड़ी। सिर्फ कुछ महीनों में इन्होंने इस जगह को एक कार्यक्रम उत्पादक व प्रसारण केंद्र में बदल दिया। जम्मू केंद्र आज एक स्थापित टेलीविजन केंद्र है और इस समय षबीर मुजाहिद यहां स्टेषन निदेषक हैं। आज इस केंद्र से न्यूज और समसामयिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त मनोरंजन के बाकी कार्यक्रम भी तैयार किये जाते हैं व प्रसारित किये जाते हैं। इस स्टेषन की सफलता का श्रेय भी अषोक जी को जाता है।जम्मू केंद्र को वास्तव में अषोक जी ने नींव से उठाना आरंभ किया। यहां कषमीर से विस्थापित दूरदर्षन के कार्यक्रम निर्माता एवं इंजीनियरिंग व अन्य स्टाफ मात्र उपस्थिति दर्ज करने आते थे। यहां कार्यक्रम निर्माण की कोई गतिविधि नहीं थी। यह एक कार्यक्रम प्रसारण केंद्र की भूमिका निभा रहा था, जबकि यहां से कार्यक्रमों का निर्माण भी होना था। अषोक जी ने यहां के बिखरे तंत्र को हरकत में लाया और इसका परिचालन करना आरंभ किया। मात्र एक आध साल में इस केंद्र से न्यूज और छुटपुट कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। धीरे-धीरे इस केंद्र ने रफ्तार पकड़ ली और कुषल प्रबंधन के कारण सफलता प्राप्त की।जम्मू-कषमीर में हर स्थान पर छोटे-छोटे निजी हितों की पूर्ति के लिए लोग अक्सर बड़े पूर्वाग्रहों को पनपने का अवसर देते हैं। यहां भी इस प्रकार की अनेक कोषिषें की गईं। जम्मू मंे डोगरी ज़ुबान बोलने वाले अधिक संख्या में रहते हैं। इनका एक अपना मूल्यवान कल्चर है। इनका साहित्य हालांकि अभी अभी प्रारम्भिक अवस्था से आगे निकल कर विकास की राह पर अग्रसर हुआ है किंतु यहां के लोकगीत, संगीत, पोषाक, भवन निर्माण व तीज-त्यौहारों की अपनी खास छाप है। डोगरा राज्य का अपना वैभव व सांस्कृतिक, राजनीतिक इतिहास होने के कारण यहां के लोग मस्त और जिंदादिल हैं। यहां के अधिकतर लोगों का जेलखानी साहब को बहुत सहयोग मिला। बहुत जल्द ही यहां के लोगों को इस केंद्र की विलक्षणता का अनुभव होने लगा।यहां के कलाकार, लेखक, स्थानीय संस्थायें इस केंद्र के साथ जुड़ गईं। सुदूर वनों में रहने वाले गोजर-बकरवाल आदिवासी लोगों को भी यहां अपने जनजीवन और लोक परंपराओं व कलाओं को अभिव्यक्त करने के भरपूर अवसर मिलने लगे। इस केंद्र की पहुंच हालांकि तब इतनी विकसित नहीं थी जितनी कि आज है, फिर भी यहां से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के निर्माण में कष्मीर से विस्थापित हुए दूरदर्षन के कर्मचारियों ने चार-चांद लगा दिये। जेलखानी जी के नेतृत्व में इन कर्मचारियों ने इस केंद्र की एक सुदृढ़ नींव डाल दी। डा. सोहन लाल कौल, सतीष धर, मोतीलाल खरू, सोमनाथ सुमन, रवीन्द्र नाज, अषोक भान, महेष चोपड़ा, ऐसे सिद्धहस्त और गुणी लोग मिले। यहां पर एक और व्यक्ति प्यारे लाल हण्डू का जिक्र करना बहुत जरूरी होगा। हण्डू साहब कष्मीर में न केवल स्टेज और रेडियो मोनो-एक्टिंग और मोनो लाग के अग्रणीय कलाकार रहे हैं, अपितु ये ग्रामीण अंचल पर दूरदर्षन के बहुत ही माहिर कार्यक्रम निर्माता हैं। इन्हें ग्रामीण जनजीवन की सूक्ष्मतर जीवन शैली को दूरदर्षन से जोड़ने का खास अनुभव प्राप्त था। ये अपने मोनोलाॅग खुद लिखते, इन्होंने मचामा सीरियल में सिंगाॅरी, जिंगाॅरी का रेडियो अभिनय दो स्त्रियों के विलक्षण चरित्रों के रूप में इस प्रकार निभाया कि लोग इनकी कला के दीवाने हुए। जम्मू स्टेषन पर उप-केंद्र निदषक के पद पर यह अषोक जी के कार्यकाल में नियुक्त थे। श्री महेष चोपड़ा जी यहां सह-निर्देषक के स्थान पर बाद में नियुक्त हुए। इस प्रकार यहां धीरे-धीरे एक स्टेषन निदषक, उपनिदेषक और सह-निदेषक के अतिरिक्त करीब दर्जन भर कार्यक्रम निर्माता व सह-निर्माता अषोक जी की कमान में काम करने लगे।नतीजा यह हुआ कि टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण की अविरल धारा यहां से फूटने लगी जिसने यहां की स्थानीय प्रतिभा को मंच दिया। इस केंद्र से पहला इनहाउस सीरियल ‘लावारिस’ मुझे बनाने को दिया गया। इस सीरियल का निर्माण श्री प्यारे लाल हण्डू ने किया और कहानी व निर्देषन मेरा रहा। इसमें मुख्य भूमिकाएं स्व. क्षेमेन्द्र रैना, मोहन षाह, काजल सूरी ने निभाई थीं। वहीं इसमें जम्मू के स्थानीय कलाकारों ने काफी सराहनीय भूमिकायें निभाईं। इस तरह जम्मू दूरदर्षन में नाटक सीरियलों की षुरूआत हुई। यहां के प्रमुख निर्माता-निर्देषकों को सामने आने का इस तरह अवसर मिला। टेलीमेन फिल्म्स के षिवदत्त, गोयल फिल्म्स के सुरेन्द्र गोयल, देवेन्द्र कोहली, मनहास, मोहन सिंह, मुषताक काक, विकास हाण्डा, सुधीर जम्वाल, प्रो. मदन मोहन ऐसे कलाकार, निर्माता, निर्देषक, लेखक इस स्टेषन के साथ जुड़ गए। देखते ही देखते यहां का माहौल बदल गया और उपरोक्त व्यक्तियों में से किन्हीं ने अपना आॅडियो, वीडियो स्टूडियो खोला। आज जम्मू षहर में कई आॅडियो-वीडियो स्टूडियो हैं जो दूरदर्षन कार्यक्रमों के अतिरिक्त अपने प्राइवेट वीडियो एलबम और फिल्में भी बनाते हैं। जम्मू में वीडियो और आॅडियो का कारोबार आज एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है। यहां के कलाकार, संगीतकार, नाटककार, गीतकार और अनेकों टेकनीषियन इस रोजगार से जुड़कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं।छूरदर्षन जम्मू में कार्यरत होने के समय भी अषोक जेलखानी को कष्मीर घाटी के बंदूकबरदार आतंकी सरगनों ने डराने-धमकाने की कोषिष की। एक बार जब अषोक जेलखानी जम्मू से दिल्ली किसी मीटिंग से चले गये थे तो इनके घर पर फोन करके इनकी पत्नी से कहा गया कि ‘जेलखानी साहब को कहें कि ज्यादा हाथ-पैर न फैलायें... जम्मू को कष्मीर से दूर न समझें, यह न समझना कि हम बनिहाल की इस तरफ हाथ पर हाथ धरे पड़े रहेंगे... अगर वह अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते, तो आपको पछताना पड़ेगा’...अषोक जेलखानी की पत्नी प्रेरणा जी ने काफी बुद्धिमानी का परिचय देते हुए आतंकियों से षालीन ढंग से समझाते हुए कहा कि उनके पति भारत सरकार की नौकरी करते हैं, आपकी नहीं, जब आपकी हकूमत आएगी तो सोच लेंगे। कई दिन प्रेरणा जी ने अषोक जी से इस बात का जिक्र नहीं किया पर उसे अपने परिवार और बच्चों की सुरक्षा के साथ अपनी और अपने पति के जीवन पर मंडराते खतरे की चेतावनी पर ध्यान था। एक दिन बात-बात में यह बात सुरक्षा एजेंसियों के कानों तक पहुंच गई और अषोक जी के घर के बाहर और दफ्तर में सुरक्षा और सुदृढ़ की दी गई। ये सब दिन अषोक जेलखानी के परिवार को बहुत विचलित कर देने वाले हो सकते थे, पर दोनों मियां-बीवी ने इन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला किया।वास्तव में अषोक जेलखानी जम्मू कष्मीर के बिगड़े हालात में कष्मीर में सांस्कृतिक गतिविधियों पर आये एक लंबे विराम को जम्मू में रहकर मिटाना षुरू किया था। यहां से कष्मीर के केंद्र के लिए भी कार्यक्रम निर्माण का कार्य षुरू हुआ था। कष्मीर में रह रहे कलाकारों और निर्माता-निर्देषकों ने कार्यक्रम निर्माण के लिए जम्मू का रुख किया। वे यहां पत्नीटाप, उद्धमपुर, कुद, बटोत, भ्रदवाह में कार्यक्रम सीरियलों के षूटिंग करने लगे। इस तरह आतंकी रोक के फरमान और फतवों की धज्ज्यिां उडाई जाने लगीं। इस बात से आतंकी काफी परेषान हो रहे थे पर रोजी-रोटी और अपने हुनर और फन को जम्मू-कष्मीर के लोग अधिक देर आतंकियों के फतवों और फरमानों के कैद-ो-बंद में नहीं रख सकते थे। इन्होंने न केवल श्रीनगर दूरदर्षन के लिए कार्यक्रम बनाये अपितु ऐसे कार्यक्रम बनाये जिनसे आतंकियों की पोल खोली गई और इनके वास्तविक चेहरे लोगों के सामने लाये गये। जम्मू केंद्र ने इस प्रकार अषोक जेलखानी की कमान में योगदान दिया। इसके बाद ही फारूक नाज़की साहब ने जम्मू आकर गवर्नर कृष्णा राव की अध्यक्षता में एक मीटिंग का आयोजन किया जिसमें जम्मू-कष्मीर की टेलीविजन मीडिया नीति का एक मौखिक करार हुआ, जिसके तहत जम्मू और श्रीनगर केंद्र को प्रतिपूर्ति के स्तर पर कार्यक्रमों के आदान-प्रदान की स्वीकृति दी गई।जम्मू केंद्र ने कष्मीर में श्रीनगर स्टेषन की उस समय की हर आवष्यकता में बराबर का योगदान दिया।धीरे-धीरे जम्मू में भी दूरदर्षन की कमीषंड स्कीम के तहत बाहर के निर्माताओं को कार्यक्रम बनाने के अनुबंध मिले।अषोक जेलखानी जहां भी जिस भी पद पर गये, उस स्थान और उस पद की गरिमा को चार चांद लगाये।जम्मू से अषोक जी को जालंधर भेजा गया। यहां की सभ्यता-संस्कृति जम्मू-कष्मीर से बहुत अधिक अलग नहीं है। यहां पर काम करते हुए इन्हें इधर के लोगों का वैसे ही बहुत खुले मन से सहयोग मिला जैसे कि जम्मू में मिला था। वास्तव में अषोक जी जहां भी स्टेषन का प्रभार संभालते इनका लोगों की संस्कृति और सभ्यता को बढ़ावा देना मुख्य उद्देष्य रहता। राजनीतिक मामलों में ये अपने नियम कानून से नहीं हटते, हर कार्य दफ्तरी कारगुजारी के भीतर रहकर करते, पर दफ्तरी कारगुजारी को अच्छे कार्य में आई बाधा का बहाना कभी नहीं बनने देते। यही नतीजा है कि जो जालंधर स्टेषन घाटे में चलता था वही इनके कार्यकाल के कुछ समय के भीतर ही मुनाफा कमाने लगा। इस कार्य के लिए इन्हें सरकार ने बेस्ट स्टेषन डाइरेक्टर का खास सम्मान भी दिया।जालंधर के पष्चात अषोक जी का स्थानांतरण चैन्नई स्टेषन निदेषक के रूप में चैन्नई हुआ। यहां कार्य तो वही था जो अभी तक करते आए थे पर यहां का प्रदेष संपूर्ण रूप से तमिल बालने वाला था और अहिंदी प्रदेष होने के कारण दफ्तर में और दफ्तर से बाहर बोलचाल में बाधा आती थी क्योंकि अषोक जेलखानी को तमिल नहीं आती थी और अधिकतर स्टाफ हिंदी नहीं बोल सकते। दफ्तर से और भी दिक्कत थी। कोई हिंदी, अंग्रेजी कुछ भी नहीं समझता, केवल तमिल में ही बात हो सकती थी। परिवार को कुछ दिन यह माहौल बहुत अटपटा लगा और यहां रहने पर पुनः विचार करने लगे किंतु सभ्यता में बहुत विकसित इस प्रदेष की धर्मिक अंतरभावना ने सारे परिवार को लोगों से जोड़ दिया। अषोक जी ने दफ्तर के कामकाज की महारथ ही नहीं गृहस्थ को सुलझे ढंग से चलाने में भी अजब कौषल हासिल किया है। इनकी पत्नी धार्मिक संस्कारों की है, हिंदू धर्म से जुड़ी प्राचीन कलाकृतियां, भव्य मंदिर, मनोरम तीर्थस्थल हर सप्ताहांत पर घूमने का प्रोग्राम बनता। बच्चों का मन अपने आप लगने लगा। घर की ओर से आष्वस्त होकर अषोक जी ने अपना सारा ध्यान केंद्र के कुषल प्रबंधन में लगाया, देखते ही देखते अषोक जी की कार्यप्रणाली के लोग यहां दीवाने होने लगे। नतीजा यह निकला कि यह स्टेषन भी लाभ अर्जित करने लगा। यहां से जब उप-महानिदेषक के पद पर दिल्ली के मंडी हाउस में अषोक जेलखानी का स्थानांतरण हुआ तो यहां के स्टाफ को अषोक जेलखानी से बिछुड़ने का बहुत दुख हुआ। आज भी जब इस केंद्र से कोई अषोक जी को यहां दिल्ली मंडी हाउस मिलने आता है तो उस आगंतुक की आंखों में जेलखानी के प्रति श्रद्धा, प्रेम और आभार के भाव साफ देखे जा सकते हैं। हर जगह लोगों का मन जीतने के साथ ही देष के प्रसारण केंद्रों को मुनाफा कमाने वाले केंद्र बनाना और कार्यक्रम की मानक क्वालिटी के साथ कोई भी समझौता किए बिना केंद्र को लोकप्रियता में अगले पायदान पर रखना, अषोक जेलखानी का प्रथम सरोकार रहा।मंडी हाउस में जो भी कार्यभार दिया गया कुषलता से निभाया। विषव खेलों के आयोजन का डायरेक्ट प्रसारण हो या चीन में भारत के दूरदर्षन की उपस्थिति दर्ज करने की बात हो। कोई भी बड़े से बड़ा चैलेंज लेकर आयें, अषोक जेलखानी इससे कभी लड़खड़ायेंगे नहीं अपितु हर चैलेंज से ऐसे निपटते हैं कि लगता है अरे यह तो कितना आसान काम था , जबकि यही काम कई लोगों के लिए जान जोख्म वाले साबित होते हैं।अभी बाकी है मेरा जिक्र ही कहां आयातेज़ है धूप चलो खोजते हैं कोई छाया।। ...........................................................................................................................
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