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SHORT STORY COLLECTION
कहानी संग्रह
आधे कोस का चान्द
शहर के बीहड़ से दूर गांव जाने वाली सपाट आवारा सड़क पर पहुंच कर मैंने अपने आप को एकदम अकेला पाया। चारों ओर का घना सन्नाटा जैसे मेरे भीतर से फूट कर मुझ ही में वापिस स्थान पा रहा हो - घिसटते कदमों मेैं अनचाहे ही आगे बढ़ता जा रहा था - कानों में अब तक शहर की मोटर-गाडियों के भौंपू और गांव में हुए बहुत बड़े दंगे फसाद का सा शहरी शोर गूंज रहा था। मन में तो कोई साध नहीं, फिर भी एक फिजूल की प्रत्याशा रोज उस फाटक तक ले जाती है जहां कोई पहरेदार नहीं किन्तु मुझे लगता है कि भीतर घुसते ही मुझ पर कोई बुरी तरह टूट पड़ेगा और मुझे बेहाल करके बाहर खदेड़ देगा। जब भी मैं अन्दर पैर रखता हूं तो फाटक पर बन्धा कुत्ता भौं-भौं करते एक गैर आदमी के घर में घुसने की रार पीटता है। मैं उसे टैगर-टैगर पुकारता हूॅं। उसकी खोई हुई यादाशत लौटती है और वह मुझे पहचान जाता है - एक नया परिचय - हर पल का अजनबी जो मुझमें बसता है पहले शायद कभी नहीं था - यही मेरी उपलब्धि है। मेरा हासिल। ठण्डी चान्दनी का लहरिल धुआॅं, चुभता हुआ। आंखें अनायास ही भीग जाती है - सड़क के किनारों पर लगे वृक्षों की टहनियां बरबस कांप उठती हैं और पत्तों का एक वृत्ताकार मुझे घेर लेता है। मैं पतों को पैरों से उछालता हुआ आगे चला जाता हूं,...बहुत धीमे, हां मैं साक्षी हूं, बन्धुवर! तुम झर गए, जीवन की नियति इससे अधिक हो भी क्या सकती है? हर जगह मौसम की लाली में निहित मौत का गहरा और कटु अहसास। तीन साल से इस मौसम का इस नगर की सीमा पर मैं साक्षी हूं - तीन लम्बे अन्तराल... यहां जीवन जब भी शुरू हुआ तो मैने पाया कि नया लगाया पौधा असमय ही मुर्झा गया और खेत भाॅंग की फसल उगाने को लालायित हैं, उन्हें पता चला है आदमी ने एक नया तरीका सीखा है कि जीना अन्न से नहीं धन से होता है -मैंने तीन साल यहां रह कर हर चेहरे पर ये शब्द अंकित देखे सच! मैं साक्षी हूं?... किस तत्परता और निश्चय की दृढ़ता के साथ मुझे हर रोज़ सुबह बिस्तर से उठते ही एक छटपटाहट घेर लेती है - मन कितना उत्तेजित होता है। अंग-अंग मंे उस वादे के शब्द उबलने लगते है तो पूरे तीन साल पहले सारे गांव में मैने घोषणा के लहजे में कहे थे-”और लोगों की तरह मेरे शहर जाने का मक़सद आवारागर्दी न समझ जाये, मैं एक इरादे से जा रहा हूं और आप लोगों से वादा करता हूं कामयाब लौटूंगा“।
वहां उपस्थित लोगों के बीच मेरा अब्बा मेरी बातों से विक्षुब्ध और उदासीन आकाश में उगा आधे कोस का चान्द तक रहा था। उसकी आँखे उस चान्द की चान्दनी जितनी ही फीकी और त्रस्त लग रही थी। बार-बार वह लम्बा ठंडा उसांस भरता, शायद आगे की बेबसी को वह अनदेखा नहीं कर पा रहा था-मेरी बातें उसे लीड़रों के लच्छेदार भाषणों की तरह जरा देर के लिए भावुक भी न बन सकीं। उसके अनुसार मेरा शहर जाकर उच्चशिक्षा या नौकरी के लिए कोशिश करना मेरी नासमझी और अधकचरी महत्वाकांक्षा ही थी। वह अपने एक पांव को कब्र में दफना चुका था-खेत नाम को कुछ कनाल की ज़मीन,जिसमें आज भी अनाज का अच्छा-खासा हिस्सा ज़मीन के काग़जी़ मालिक को देना होता-वह मालिक भी अपने से बदतर हालत का आदमी जिसको ना करते खुदाई कहर का डर अब्बा के सिर पर बना रहता बस वही पुरानी घिसीपिटि कहानी जिसे हर सम्भव प्रत्येक निम्नवर्गीय भारतवासी को कोरस में पढ़ाया जाता है। एक अन्तहीन कथा-बाप कोठरी में हुक्का गड़गड़ाते दम तोड़ बैठता है,बहिनें छातियां पीटती है और मां....ओफ! मां नहीं बस यह लम्बी आवारा सड़क और ठिठुरता रोम-रोम....बन्द मुटिठयों में तीन साला वासी वादा लेकर रोज़ तड़के मैं किराये के कमरे से निकल कर गली में कदम रखता हूं। सड़क तक आते ही मुट्ठियां खुल चुकी होती हैं वादा फरार हो चुका होता है-शाम को उसी कमरे में जब अपने आपसे फिर भेंट होती है तो सुबह का वादा मेरे पैरों से लिपटी दो इंच धूल और मिट्टी में दम तोड़ चुका होता है -दिल को यही सोचकर तसकीन मिलती है कि एक और दिन बीत गया, जैसे आजीवन कारावास का एक लम्बा दिन घट गया।
कुछ भी हो आज उस कमरे मेें वापिस नहीं जाऊंगा-मुक्ति का छलावा ज़िन्दगी काटने का अहसास, मरने या दिन कट जाने की घिनौनी तसल्ली आज मैं न सह सकूंगा तब तब फिर इस गति से चलता हुआ मैं कहां पहुंच पाऊंगा-वापिस गांव? जहां की मात्र कुछ स्मृतियां शेष है। बाकी जो भी है.... मैं नहीं पहचान पता वह सब। वह कहते है मैं बदल चुका हूं और यह बदलना ही मेरा उनकी दृष्टि में कुछ हो जाना है-यह चान्दनी हृदय सालने वाली.... किसी मायावी सम्मोहन में बेखुद कर एक बार मुझे वह घर लौटती है जो मैं पीछे बहुत पीछे छोड़ आया हूं। घर के आंगन में उतरती शरद की महीन सी चान्दनी आंगन से सटे वृक्षों के झालारी साये-मां और ज़ेबा का आंगन में धान कूटना और साराह का बराबर किसी न किसी बहाने आंगन में आकर मुझसे बात करना-कभी जब वह अपेक्षा से अधिक बार आती तो मां उसे छेड़ते हुए कहती,” क्यों री तेरे बाप से बात करके तेरे यही रहने का प्रबन्ध करा दूं“। इठला कर साराह जवाब देती,” अरे इस झोंपड़ी में रह के सड़ना है मुझे। मैं तो....और मैं दिल ही दिल में उसके लिए एक छोटा सा साफ सुथरा घर चुन लेता। कितनी स्वाभाविक और हो जाने वाली बातें लगती थी यह सब।पर उसी समय न जाने क्यों एक अनजान सी कसक मन में बनी रहती जो आज फैल चुकी है और बहुत गहरा घाव बन चुकी है- उसी हंसी-खुशी के झिलमिल वाताकरण में वह घटना भी घटी जिसने मुझे बता दिया कि मेरा हर स्वप्न जीवन की वास्तविकता से नहीं मां की मीठी लोरियों में से जन्मा है, जो अब मेरे लिए भद्दी हरकतें हो गई हैं क्योंकि आज उन लोरियों में एक लगातार का रुॅंदन सुनाई देता है- इसी बीच एक रोज़ मैने अब्बा को अजीब तैयारियों में व्यस्त पाया। बिस्तरे के नाम पर कुछ फटीचर पैबन्द लगे कम्बल, एक मैला सिरहाना जिसके छेदों से जगह-जगह रुई उखड़ रही थी,पुराना धोया हुआ कमीज़ पाज़ामा और इसी साल गर्मियों में खरीदी गई टोपी सब सामान कमरे के एक कोने में रखा गया था- सवेरे पौ फटने से पहले मैंने अब्बा को बर्फ की तहों में दबता हुआ पाया,वह चिल्ला रहा था....बषीर...बषीर-बर्फ और धुंध में मुझे उसका आधा शरीर धुंधला सा दिखाई दे रहा था- मैं दौड़कर बर्फ की तहों तले से उसे निकालना चाहता था- कोशिश करके भी जब मैं दौड़ न पाया तो मैं हड़बड़ा कर जाग उठा- वहीं धोया हुआ कमीज़ पाजामा और नई टोपी पहने अब्बा मुझे जगा रहा था- ‘बहुत देर हो गई, साढ़े सात बजे बस निकलनी है चल उठ, मुझे बस अड्डे तक छोड़ आ-’ मैं हैरान था कि इतने तड़के बस अड्डे पर जाकर कौन सा खजा़ना उठाकर लाना है- ”तुम जा कहां रहे हो अब्बा?“ कुछ घबराहट में मैंने पूछा। ‘जम्मू’ उसने संक्षिप्त सा उतर दिया और सामान उठाकर चलने लगा। मैं उसका रहस्य भापं कर यन्त्रवत् उसके पीछे चलने लगा।
बटवारे के पश्चात जिस प्रकार की दशा देश में आये रिफयूजियों की हुई होगी, कुछ वैसी ही स्थिति में बिखरे हुए किसाननुमा मजदूर-ठंड से कम और परेशानियों से अधिक सिकुड़े हुए चेहरे, एक से पहनावे में अपनी एक सी राम कथा कहते, कागज़ के सफेद मुर्झाये फूल....अरे हबीब भी है.... अब्बा ने चैंक कर कहा। फिर अचानक वह वहां स्थिित सब आदमियां को घूरने लगा। कुछ ही क्षणों में अम्मी और कादिर भी पहुंच गये। उसे लक्ष्य करके अब्बा कहने लगा,” पट्ठा कहता था कभी नहीं जाऊंगा, बीवी बच्चों को अकेला छोड़कर कैसे जाया जा सकता है, भले ही कम खाओ पर गम न खाओ.... पूछता हूं ज़रा जाकर।“
”जाने दो अब्बा.... अगर तुम भी न जाते तो कितना अच्छा होता।“ ”बशीर ! बेटा ज़ेबा अब बच्ची नहीं, कम से कम उसकी मेंहदी का इन्तिजा़म तो करना.... और फिर घर पर भी तो कोई रहना चाहिए....।“
”अब्बा मेरी मानो, मुझे ही जाने दो....“ मैं अपमान से और अपने प्रति घृणा से दब चुका था- इस उम्र में जब उसे आराम की आवश्यकता थी, वह परदेस में एक-एक पैसे के लिए अपना शरीर घिसेगाा.... फिर भी अब्बा चला जाता है, रहीम भी चला जाता है, बीवी और जवान बेटी को अकेला छोड़कर कादिर चला जाता है। ”एक जमाना था जब हमें जबरन भेजा जाता था, तब हमने इसे ‘बेगार’ कहा था। आज हम खुशी-खुशी जाते हैं और अपनी खुशी को कोई नाम भी नहीं दे सकते....कहते हैं कि जहां धुंआ है वहीं आग होती है लेकिन यहां आग क्या थोड़ी सी उष्मा भी नहीं- ज़हरीला दमघोंटू धुंआ....
सड़क के दोनों किनारों पर दूर-दूर तक फैली पक्की धान की महक मुझे बदहवास सा करती है- मैं नज़दीक जा कर हर धान के पौधे को अलग
-अलग सूंघने लगता हूं। सहसा ही कई पौधे मेरे हाथों बुरी तरह मसल जाते हैं और मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हूं ‘यह हंसी खेत,फटा जाता है जोबन जिन का किस लिए इन में फक्त भूक उगा करती है’। खेत के बीच में कोई आदमी बिल्कुल सियाह कपड़े पहने मुझे हाथ से अजीब इशारे करता है- थोड़ी देर के लिए मैं रुक जाता हूं- हवा के तेज़ बहाव में हाथ के हिलाने की गति भी तेज़ होती है। मुझे लगता है खेत के बीच में खड़े होकर अब्बा मुझे बराबर बुला रहा है। हवा का एक अधिक तेज़ झोंका हिल रहे हाथ को बिल्कुल ज़मीन में सुला देता है। मैं कुछ देर ठिठक कर देखता हूं- हवा के धीमे पडते ही सब कुछ साफ हो जाता है और मैं सुकून का सांस लेकर आगे चलने लगता हूं और ऐसी ही स्थिति में चलते हुए मैं अनजाने ही उस फाटक के सामने आ पहुंचता हूं जिस के भीतर जाने के लिए कई क्षण तक मैं एक अनिष्चित ढंग से सोचता रहता हूं। फिर सारी आत्मगलानि और असुविधा ओढ़ कर मैं भीतर क़दम रख़ता हूं। डा. साहब कुछ देर देखकर भी मुझे अनदेखा कर देते हैं- अनायास ही उन की भृकुटि तन जाती है और वह अपने आप को ‘डिस्र्टब़ड’ पाते हैं, फिर किसी गहरे ंिचंतन से जैसे फुरसत पाकर मुझे सोफे पर बैठने का इषारा करते हैं और मैं धड़ाम से गिरता हुआ बैठ जाता हूं..... वह दोबारा वैसी ही गहरी सोच में डूब जाते हैं मुझे लगता है कि मैं ने बहुत कुछ कहा है और वह मुझसे बहुत जल्द उक्ता गए हैं और अब मुझे जाने के लिए कह रहे हैं, फिर भी मैं वहीं अपने स्थान पर टिका रहता हूं- पास पडे मेग़जीन के पृृृृष्ट अन्यमनसक ढंग से पलटने लगता हूं- डा. साहब का लेख मेग़जीन में छपा है,‘गांधी का राम राज्य और भारत’- इस के बाद किताबों के षेल्फ देखने लगता हूं। अधिकांष किताबें डा. साहब की निजी लिखी हैं,‘काव्य में नारी’...दो उपन्यास ‘लाषें’ और ‘भीमसेन की प्रियसी’.. ‘बेगर्स’....एक सिहरन मेरे सारे शनरीर में दौड़ने लगी.... मुझे लगा अनायास ही मेरे हाथ में एक झोला आ गया और मैं डा. साहब के आगे भिखारी की तरह गिडगिडा रहा हूं...तभी मुझे सुनाई देता है...
‘क्या नम्बर था तुम्हारा..?’
”सर, फिफटी वन“- मैं जैसे नींद से जागता हूं-जैसे मुझे केवल इसी प्रश्न की प्रतीक्षा थी।
”हां फिफटी वन.... मुझे याद है... पिछले साल तुमने पास किया था... क्या डिवीजन था...?“
‘सर वो क्या है कि उन्हीं दिनों फादर की ‘डेथ’ हुई थी ....ठीक से तैयारी नहीं..
-ओ हां.....हां.....
-इसी लिए सर पोजीशन सैकण्ड ही रही मेरी...
-कौन आये है? कौल साहब है क्या, बहुत दिनों बाद इधर को फुर्सत...
-नहीं यह बशीर हैं-अपनी पत्नी मिसेज़ वर्मा से लगभग बौखला कर मिस्टर वर्मा उर्फ डा. साहब सम्बोधित हुए - मुझे लगा कि यह डांट मुझे बताई गई है, मेरा चेहरा लटक सा गया।
”मैं गोरखा साहब से बात करूंगा। कल आना तुम“ - डा. साहब मुझे आश्वासन के स्वर में कह रहे थे।
”कब से बैठे बातों का रस ले रहे हो। सन्तू आज भी नहीं आया, कितनी बार कहा है सर्दियों के आते उसे घर मत जाने दिया करो, बाज़ार से सब्जी कौन लाये, चीनी और घी नहीं है...इस ने मुझे सवेरे से घेर रखा है एक सैकण्ड भी नहीं सोती... एक सांस में मिसेज़ वर्मा को जवाबी झाड़ सुना दी। इस बार मुझे लगा कि मिसेज़ वर्मा बरामदे कर मुझे बुरी तरह डांट कर कहेंगी - ”सुना नहीं तुम ने। बाज़ार से सब्ज़ी, घी और चीनी...“ मैं ज़रखरीद गुलाम सा मिसेज़ वर्मा के आगे खड़ा होकर पूछने लगा, ”सब्जी, घी और भाभी...?“ तलख निगाहों से एक कुटिल मुस्कान के साथ वह अपना पर्स खोलकर मुझे दस रुपये के दो नोट थमाते कहने लगी ”एक किलो चीनी भी...“
”आ जा मुन्ने राजा तुझे बाज़ार घुमा लायें... आ प्यारे बेटा... शाबाश अच्छे राजा।“
मुन्नी को गोद में उठाकर मैं ने फाटक पार करके पहले अपने आप को एक जकड़न से मुक्त किया फिर हवा में सीटी बजाकर भर्राये गले से गाने लगा,“ नातुवानों के निवालों पे झपटते हैं उकाब, बाजू तौले हुए मंडलाते हुए आते है।“
मुन्नी झाड़ने के अन्दाज़ में टोक कर कहने लगी, ”यह क्या बकवास गाते हो अंकल, वो गाना गाओ ना“ जूली आय लब यू। मैं गला साफ करता हूं और थूक निगल कर गले का टेस्ट लेता हूं, सहसा ही मुझे लगता है कि मेरा गला रुंध गया है और मैं बिलकुल गा नहीं सकता। एक हिच्की सी मेरे गले तक आकर रुक जाती है-मेरी नज़रें विस्तृत आकाश में खिले पूरे चान्द को तकती हैं - एक बारगी तीन साला पुरानी भीड़ मेरे सामने घूम उठती है। मैं उसी भाषण के लहजे में कह रहा हूं - ”तुम लोग मुझे यहां रोक के सब से बड़ी भूल करोगे। मुझे शहर में अपना भविष्य बनाना है“... उस छोटे से जमघटे के बीच एक बार फिर वह अकिंचन आंखें उठती है और मेरी आंखों से मिल जाती हैं जिनके लिए यह चान्द आधे कोस से ज़्यादा कभी नहीं उगा।
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एक्जिमा
आज पांच साल बाद वही दफतर वही कमरा और वही....... कुछ न बदलने की यह स्थिति मेरे लिए असहय हो रही थी। मैं फिर से कहीं दूर भागने की सोचने लगा। अपने आपको अच्छी तरह टटोलते हुए मुझे प्रतीत होने लगा कि मैं जैसे ग़लत स्थान पर बैठ गया हूॅं। आदतन मुझे जिस टेबुल के पास बैठना था, वहाॅं रियाज बैठा था और मैं उसी कुर्सी पर आज बैठा था जिसे हासिल करने की साध मेरे मन में बराबर बनी रहती थी। मैं अक्सर अपनी बेकरारी सस्ते सिग्रेट फूंक कर या कुछ घिसा-पिटा लिख कर छिपाता रहता था। ”सबस्क्राइबर्स“ समय से पहले ही आने शुरु हो गए थे। उसने सबको अपेक्षित सा कर रखा था, और बराबर
स्वेटर पर नक्श बुन रही थी। पाॅंच साल का अन्तराल मा़त्र एक रात की तरह समाप्त हो गया था । जिंदगी क्या इतनी छोटी होती है। उम्र क्या इसी रफ्तार से गुजर जाती है? जाने से पहले पांच सालों पर निगाह दौड़ाते हुए मुझे लगा था, जैसे पहाड़ के सब से ऊॅंचे शिखर पर टॅंाग दिया गया हो मुझे, जहाॅं से मैं कभी लौट कर इस धरती पर न आ सकूॅं। और कल शाम इस दफ्तर के बारे में कितने उत्साह,किस नयेपन से भर गया था..मैं । सोचा बहुत कुछ बदल गया होगा यहाॅ... सब कुछ नया और ताजा - घर कुछ देर अजीब सा लगा था । मेरे भेजे हुए रुपये घर की सही मरम्मत में लग चुके थे । बिलकुल अजनबी सा लग रहा था अपना घर - हर चीज़ बदली हुई । माया ने पूरे सेट में चाय मेरे आगे रख दी थी।
यह सब नया तो था, पर जैसे यह मेरा ना था - मै बहुत जल्द इस सारे के प्रति उदासीन होने लगा था । इस बात पर मैंने कुछ सोचा तो मैं और बैचेन होने लगा - मुझे लगा कि सोच में चैन और चैन में सोच यह नहीं हो सकता । इसलिए मुझे सोचना और बेकरार होना स्वाभाविक लगने लगा था। मैं सारी रात बेकरार होकर सोचता रहा - किस बारे में यह मैं सही तौर से नहीं कह सकता, शायद पाॅच साल की ट्रेनिंग के बारे में था। बाहर बिताए समय के बारे में कुल मिलकार मै कई बातों के बारे में सोच रहा था। कैसे बहुत मुसीबतें झेलता हुआ मैं आज तक महज़ भाग दौड़ में जिन्दगी गबुजारता रहा। मुझे अचानक गाॅंव की कच्ची-पक्की सड़क पर इक्के के आगे दौड़ता हुआ कमज़ोर घोड़ा याद आया जिसके मुहं से झाग साॅंस फूलने के साथ बराबर निकलती रहती और कोचवान कोड़ो की भरमार में उसे दौड़ता रहता। मुझे लगा मैं सर से पाॅच तक एक अजीब गीलेपर से भर दिया गया हूॅ।
मैं अपने दफ्तर के बारे में सोचना चाहता था। उन व्यक्तियों के बारे में जिन्हें मैं पाॅच साल के बाद एक अचम्भे सा मिलूॅगा। यकीनन मुझे देख कर वह हैरत से कुछ घेरे रहंेगे। सब से अधिक सरप्राइज मैं उसे ही देना चाहता था। पर इसी बात ने शुरु से ही खिन्न सा बना दिया था।
मुझे अपने बड़े-बड़े दावे याद आने लगे। मुलाजिमों की हडतालों का निचोड़ मेरा यह उज्जवल भविष्य। रात गये तक दिलचस्प किस्सों वाली किताब खोले मैं अपने ही किस्से बुनता रहा। कुछ देर बाद मुझे बिजली की रोशनी एक बोझ सी महसूस हुई। सिवच आॅफ करके बिस्तर में घुसा तो बीवी ने पाॅच साला लम्बी आह भर कर कुछ अहसास दिलाना चाहा। मुझे उसकी शिकायत के प्रति अफसोस होने लगा। मैंने इन पाॅच सालों में बाहर रह कर उसे सिर्फ खाना खाने के समय याद किया था। वह हर पकवान एक खास ढंग, अपने खास अन्दाज से बनाती है, उस तरह से खाने पीने के मुआमले में मेरी रुचि भी खास बन चुकी थी, आज मैं उसकी किसी बात के प्रति अवहेलना नहीं बरत सकता था। फिर भी न जाने क्यों मानसिक रुप से मैं पूरा अलगाव बनाये हुए था।
”तुम सोते क्यों नही“ आखिर तंग आकर उसने अपनी झॅुझलाहट उगल दी। तुम सो जाओ। मैंने अजब हड़बड़ाहट से कहा। जैसे उसे मेरी सोची हुई सभी बातों का पता चल गया हो, जैसे उसने मुझे किसी बड़े अपराध को करते पकड़ा हो। मैं शर्मिन्दा होने लगा। वैसे अभी रात के सिर्फ ग्यारह बजे थे। बाहर मैं कई रातें सो नही सकता। उसकी हर एक बात उसके साथ बिताये जिये, जिन्दगी के क्षण बराबर डिस्टर्ब करते रहते ।बिलकुल वैसे ही मुझे अपनी मरी हुई जिन्दगी बराबर सताती रहती। आज भी कुछ वैसा ही लग रहा है। मुझे लगता है आदमी अपने वर्तमान में मात्र सांस लेता है, जीता तो वह अतीत या भविष्य के सहारे ही हैै। फिर बारीकी से सोचता हूॅ, तो कोई सूत्र हाथ नहीं आता न अतीत न भविष्य न वर्तमान। सिर्फ सरकते हुए लम्हे। फिर क्या बीत जाता है। एक क्षण की दूसरे क्षण तक यात्रा सिर्फ हम चलते है। पथ उतना ही रुका हुआ होता है। तंग गलिया जिन्गी भर की उलझन खुली सड़क पर जाकर हमेशा में इतमिनान का साॅस लेता। जैसे बीहड़ जगंल से खुले मैदान में आकर आदमी मुक्त सा हो जाता है। कई बातों के सन्दर्भ खोजते रात बीती थी। माया ने करवट बदली और ऊं हाॅ करते बिल्कुल अचानक उठ बैठी। क्या सोच रहे हो इस बार उसके लहजे में चिंता का भाव झलका।
- कुछ नहीं
- रात भर सोयेे न कोई बात की, मैं डर रहीं हूॅ ।
- नहीं क्यों?
- ऐसे ही आप की तबियत ?
- अरे कोई खास बात नहीें। उमर के साथ-साथ नींद भी घट जाती है। यह तो पुरानी बात है। वह एकदम ही जैसे सकते में आ गयी, शयद उसने इस प्रकार कभी सोचा न हो । पर सच तो सच है।
उसने तीसरी बार अपनी कुर्सी को ठीक से साफ किया और बैठकर कुछ खोजते काम करने लगी। मैंने पुराने ब्रेंड का सिग्रेट सुलगाया। बाहर मैं इससे उम्दा सिग्रट पीता था।
- हैलो
शबीर ने मुझे चैंकाया ।
- कब आये यार ।
- आज ही ।
- नहीं मैं पूछ रहा था, बाहर से वापिस कब आये ?
- दो दिन हुए ।
- तुम इतने कमजोर क्यों हो....सेहत ?
- बस ठाीक हूॅ ।
- कुछ बदल से गये हो आॅफिसर बनकर ।
- हाॅ...।
- क्यों अब पहले से ज्यादा खुश हो?
- हाॅ ।
- फिर इतने दुबले क्यों हो गये हो।
- कुछ आदमीयों पर खुशी का विपरीत असर पड़ता है।
- एक बात तुमने अच्छी नहीं की।
- क्या?
- यहाॅ नहीं आना चाहिए था तुम्हें। लोग यहाॅ से बाहर भाग रहें हैं। दिल्ली में रहकर तुम्हारा कैरियर पूरा बिल्ड होता। और पाॅच सालों में पूरे सेटिल हो जाते। वहां डी.डी.ए से फलैट भी आसानी से मिलता...और फिर वहां की ज़िन्दगी..... यहां क्या रखा है। बस सिर्फ ठंडी हवा और बर्फीला पानी। सेहत अफजा मुकाम। सच कहता हूॅ बाई गाॅड, घर से निकल कर गंदी नालियों से उड़ती हुई बदबू से फेफड़े भर जाते है।
अपने कज्रिन को देखता हूॅ तो कही सुनी बात पर यकीन आने लगता है। दो बार बम्बई गया सिर्फ दोबार ‘सेफ’ कार में पूरे चालीस किलो बेच आया। बच्चे काॅवेन्ट स्कूल में पढ़ते है....और अपने गुले को नहीं जानता, पूरा मुस्टन्डा, सिर्फ एक बजे चार बजे और सात आठ घंटे की सेल बस पिक्चर पर डिपेन्ड करता है। उसके बच्चे भी.....खैर। मैं उससे जो खास बात पूछना चाहता था, उसने पूछने का मौका ही नहीं दिया। अचानक भाग खड़ा हुआ। यह उसकी पुरानी आदत है। वह शुरु भी अचानक होता है, और बात अधूरी छोड़ कर भागता भी अचानक ही है। क्यों मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है? मेरी बात अधूरी अनकही सी क्यों रह जाती है?
वह अपने मिनी बैग से स्वेटर निकाल कर बुनने लगी है। ऊन का रंग... ...तेज तेज चलती सिलाईयाॅ..... और बुत सा बना चेहरा......मेरी इसी सीट पर एकाउॅट्स आफीसर ने उसे टोका था। यह हौजरी फैक्टरी है, या दफतर? वह लाल-पीली हो गई थी। झटफट सारी ऊन समेट कर बैग में भर ली थी, और मेंज पर माथा टिका कर बहुत देर बेहोश सी पड़ी रही थी। पर आज वह इतमिनान से स्वेटर बुन रही थी। मैने सामने पड़ी फाईल देखनी शुरु की। वहीं सबस्क्राईबर्स के नाम, नाम नये थे, पर काम वैसा ही पुराना जी0 पी0 फन्ड एकाउन्ट, मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठे लोग। आखिरी पूॅजी समेंटते हुए हाथ। काॅपते हुए थर-थराहते हुए हाथ........कैसे फाइलांे में अटकता रहा इनका जीवन?
- कोई फायदा भी नहीं होगा। एकाउन्टस क्र्लक ने रिटायर्ड एस0 पी0 से जैसे पिछले जन्म का बदला लिया। एस0 पी0 जो अब महज़ एक सबसक्राईबर हैं, इस बात से विचलित नहीं होता। शायद उसने मौसम की तरह समय को समझ लिया है। किस आसानी से हम सर्दियों आते ही अपने आप को लबादों में दफन कर देते है। और कैसे मौसम बदलने के साथ एक के बाद एक तहो से निकलना शुरु करते है। यह सब हमारी इच्छानेच्छा पर निर्भर करता है?। लेकिन यह सब होकर भी मौसम और जिन्दगी जैसे अनबूझ गुज़र जाती है। एस0 पी0 अनूभवी आदमी हैं वह शरीर के ढाॅचे में फड़कती नसों का रोग जानता है। उसने जिन्दगी में अनुशासन को बारीकियों से जाना है। एकाउॅट्स क्र्लक खुश हो रहा है। उसने एस0 पी0 से हाथ मिलाया और एस0 पी0 संतुष्ट मुद्रा में उससे विदा हुआ।
एक हजार से अधिक आदमियों औरतों के चलते-बोलते चेहरे साॅसों के कसाव में मसलते हुए शब्द - एक अंतिम एकाउॅट सी बोझिल जिन्दगी, दरवाजा झाॅकती हुई नज़रे, कुछ कर गुजरने की तमन्ना दबाये, कुछ न पाने की उदासी और पछतावे से पराजित और कुछ छोटी-छोटी सुविधाओं से सुखी और सन्तुष्ट .... बहसों के बीच उठते हुए हाथों में उलझी हुई अंगुलियों पर टिके हुए माथे, मरे हुए लोगों की कसमों का वास्ता दे दे कर आॅसुओं में सबसिटाफ तक का दामन सहारे के लिए पकड़ने को दौड़ती है। -मैं रोज़-रोज़ इतनी दूर से कैसे आ सकती हॅू। कुछ तो तरस खाओं, मैंने सारी उम्र इस डिपार्टमेन्ट को दी। तुम जैसे लड़के-लड़कियों को बनाया। मुझे आज ये मुआवजा मिल रहा है? मेरा ही पैसा मुझे रुला रुला कर दिया जा रहा है।
सीनियर क्लर्क पर इन बातों का काई असर नहीं होता... चिकने घड़े पर पानी की धार... वह इनतों का काई असर नहीं होता... चिकने घड़े पर पानी की धार... वह इन बातों पर ध्यान दे तो सरकार की नौकरी का क्या होगा चुपचाप न जाने कहां और क्यों कलम घिसता रहा। मास्टरानी मायूस और पराजित आॅखों से उसे देखती हुई प्रतीक्षा करने लगी।
यह प्रतीक्षा और पराजय जैसे मेरे भीतर से उगलने लगी। मैं अजब बेचैनी से तड़पने लगा। यह रक़म लेकर वह बड़ी लड़की की शादी करेगी। या लड़के को ट्रनिंग पर भेजेगी या अपना इलाज करवायेगी? इस रकम पर जो इसकी सिर्फ इसकी है, इसका कितना अधिकार रह जायेगा। बिलकुल वैसे ही जैसे कई चीजों़ पर जो अपनी होकर भी अपनी नहीं रहती... जैसे अपना आप या....... मैं प्रतीक्षा कर रहा था, वह स्वेटर बैग में रखकर कब मेरे पास शेड्यूल चैक करवाने आयेगी... पर यह दफ्तरी फाइलों और एकाउंटों की सड़क है। यहाॅ कोई निजी गली नहीं, सब कुछ इतर की उड़ती हुई खशबू सा....क्या सचमुच वह मात्र एक फाइल है.... मेरे हाथों में से गुजर कर मेरे हस्ताक्षर ढ़ोने वाली एक नामुराद चीज़।
उस के चेहरे का चुलबुलापन एक सपाट और भाव शून्य संजीदगी में बदल गया है। अब वह हर पाॅच मिनट बाद मेंज़ पर कोहनी टिका कर कुछ सोचते हुए फाइलें पलटने लगती है। उसकी नज़रो का उत्सुक कौतूहल बुुझा-बुझा सा लग रहा है, पर उसके माथे पर जीवन से हारने वाले वे बल नहीं दिखते जो मैं आईने में खुद अक्सर देखता हूॅ।
मैं अपने टेबुल पर रखे उस टुकड़े को देखता हूॅ जिस पर लिखा है ‘एकाउट्स आॅफीसर’ जिन्दगी का आखिरी पड़ाव उपलब्धियों की चरम सीमा दुबला आदमी...छरहरा आदमी... मोटा आदमी... टुकड़े काटते आदमी...
शेड़यूल मेरी टेबुल पर था....पर वह मेरे पास नहीं आई। उसकी लिखावट में मुझे ऐसे अक्स मिल रहे थे जो बहुत पुराने परिचय के थे। - ओपनिग बैलेंस... निल... इनटेªस्ट...? मिस..?..इसके बाद हवा जैसे थम गई हो...आवाजों का सिलसिला जैसे टूट चुका हो....न मैं उस देख रहा था... न वह मुझे देख रही थी.... पर जाने क्यों ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम दोनों अनजाने ही एक ही चीज को देख रहे हैं.... पर इस बीच जो फासला हम दोनों में और उस चीज मे है वो नक्षत्रों से भी कहीं ज्यादा लम्बा हो गया था।
सिर्फ बारह वर्ष पहले जब मैं इसी कमरे मे उसके साथ टेबुल के अलावा भी बहुत कुछ शेयर करता था...
उन दिनों मैं नौकरी के इरादे से नही बल्कि समय गुजारने के इरादे से दफ्तर आया करता था... यह सब एक मशगला था... पर समय अपने साथ जो कुछ बहा रहा था... उसका अहसास आज मुझे रातों की नींद से वंचित कर रहा है - सामान्य रुप से तो अन्तर इतना ही आया ही कि उसके साथ ‘शेडयूल’ बनाने के स्थान पर अब मैं शेडयूल चैक करता हूं। किन्तु जीवन... वह पूॅंजी सरकती गई.......और ऐसा भी समय आया कि सब कुछ फटे चीथड़ो सा बेहाल हो गया... बिल्कुल कंगाल...आज... एक दूसरे के लिए सान्तवना के दरवाजे बन्द... वही लहू जो एक ही गति पर दौरा करता था आज अपरिचित बन गया है... क्यों इतनी र्निलज्जता है? क्यों इतनी असहायता है... क्या दोष है हमारा?...
सभी अपने टिद-बिटस समेटने लगे थे... सब घर जाने की पूर्व भूमिका में थे - मुझे वही पूराना अनिश्चय घेरे हुए था।
कमरे के बाहर हाल के बरामदे पर मैने उसे जिन्दगी मे दूसरी बार रोका... पर वह ठिठक कर तेजी से निकल गई....
मै अनमने भाव से सीढ़ियां उतर कर सड़क के किनारे बने नए रेस्तरा में घुस गया... बहुत देर तक चाय की प्याली को देखता रहा पता नही चाय की प्याली पी थी या......मुझे इतमिनान होने लगा कि मैंने कोई भूल नही की थी... और उसने भी कुछ ग़लत नही किया, बहुत थकान और लाचारी और विवशता में... ऐसे सफर मे जहाॅ आदमी अकेला चल रहा हो नींद आने पर बिना छत बिना बिस्तर आदमी लेट कर पत्थर पर सर टिका कर कुछ देर सो सकता है। पत्थर कभी सिराहना नही हो सकता.... बारह वर्ष पहले इसी बरान्डे की बारह पायदान वाली सीढ़ियों के बीच जब मैने उसे पहली बार रोका था तब भी वह ठिठकी थी किन्तु ठिठक कर रुक गई थी।
- क्या है ?
मैने हाथ मे रखा पूर्जा निकाला था
- मेरे पास ऐसी फिजूल की बातों के लिए न समय है न जरुरत, इस खेल मे दिलच्चस्पी रखने वाली हमारे दफ्तर मे और बहुत सी लड़कियां है ।
- तुम गलत समझी हो... यह खेल नही है... तुम इसे एक बार पढ़ लो... यदि तुम्हे बुरा लगे जो कल मेरे सामने इसे बुखारी मे जलाना... नही तो मुझे जवाब देना... अगर तुम चाहो तो मैं इसे नहीं भी देता हूॅ... क्यांेकि मैं यह बात साफ शब्दो मे भी कह सकता हॅू?
उसने लिफाफा लेने के लिए हाथ बढ़ाया... मैने वही पर नोट किया कि उसके हाथों में वैसी कोमलता नही जैसी उसके सारे साचें में है... उसके हाथ बिल्कुल घरेलू से है...
वह दो रोज़ मुझे नही मिली... शायद यह ‘लिफ्ट’ वाली बात हो...या कुछ... मै समझा नही... पर दो रोज़ बाद जब वह दफ्तर आई तो उसने मुस्करा कर मुझे देखा... बुखारी की लपटों से मुझे तनिक भी डर नही लगा... और मैं एक अजीब रोमांच से भर गया।
वह मेरे पास आकर कुछ देर चुप बैठी रही। मैं भी कुछ पूछने की स्थिति में न था... अन्त में उसने जाते समय कहा... मुझे चार बजे प्रर्दशनी में मिलना... यह रोशनियां अंधेरा होने पर रंगो में तबदील हांेगी... सारा ‘ग्राउन्ड’ अंधेरे में खिल उठेगा... और अभी दिन का खासा हिस्सा शेष था। प्रर्दशनी स्थल में हम एक दूसरे के बहुत निकट बैठे थे पर अभी हम बहुत दुर थे.... कोसांे .... मैंने यह दूरी साफ शब्दों मे समेटनी चाही थी... - मेरा आशय... साफ है... मै तुम से शादी करना चाहता हूॅ ...?
- आपने खत में यही, इसी तरह लिखा हुआ है ...
- ओ हाॅ फिर क्या सोचा तुमने?
- आपने फेसला सोच समझकर किया है या
- बहुत सोचा समझा नही..हाॅ तुम्हारे बारे में अपने सुत्रों से थोड़ी सी
आवश्यक जानकारी जरुर इकट्टा की ।
- जैसे !
- तुम... कैसी हो... स्वभाव... चरित्र... घर वगैरह... वगैरह
- तब?
- सब कुछ अपने अनुरुप पाया... किन्तु अपनी ओर से एक डर सा समाया था... मैं अपने बारे में तुम्हें बताना चाहता हूॅ। कि मैं...
- मैं जानती हूॅ सब कुछ.... उस बात का शादी से कोई सम्बन्ध नही...
आप के पिता मेहनत और मजदूरी का खाते है... दूसरों की तरह खैर...
- तो मै... आपके घर...
- नही अभी एक... खास बात... मतलब
- आप यह भी जानते होगे कि घर में मेरी स्थिति क्या है...
- कुछ... कुछ...
- मेरी बहुत लाइबलटीज़ हैं, कुछ ऐसे सूत्र जिन्हें मैं नही छोड़ सकती...
- अर्थात?
- बाबू जी की मृत्यू इसी दफ्तर में काम करते हुई थी। तब मैं बी0ए0 प्रथम वर्ष में थी... हमारी सारी जिन्दगी बदल गई, हमदर्दो के तौर पर मुझे यहाॅ टाइपिस्ट की जगह मिली... मेरी सारी जिन्दगी का रुख़ बदला... महत्वकांक्षायंें....मां की सुबकियों और बहनों की... लाचारियों में दब गई... मैं खुद बनने की प्रक्रिया में थी कि मुझे सब कुछ बनाना पड़ा, परिवार के लिए मैं अकेली ईंधन हूॅ...
- तो तुम्हारा मतलब...
- मैं किसी के घर नही जा सकती...
- मगर क्यों? बात सीधी सी है लाइबलटीज शेयर करने की... मैं तुम्हें हर प्रकार से मौखि़क ही नही लिखित रुप से भी यह आश्वासन दूंगा - कि तुम्हारी... सारी लाइ...
- ‘नही’... ऐसा नही हो सकता
- मेरे भी कुछ सूत्र हैं..पिता जी अक्सर बीमार रहते हैं, घर की आर्थिक स्थिति खराब है, और फिर ऐसी हालत में...?
- आप सोच लीजिए... मैं भी सोचूंगी? इस तरह सोच के हवाले किया हुआ फेसला मात्ऱ सोच बनकर रह गया...
- खीझ - झुझलाहट अनिश्चय की छटपटाहट मुझे बौखाला रही थी... ऐसी ही स्थिति में मैंने अपनी शादी की रज़ामन्दी ऐसी लड़की के लिए दी... जिससें मेरा देखने भर तक का पूर्व परिचय था। वह मेरे मुकाबले कम पढ़ी-लिखी ही नही रुचियों में भी भिन्न थी - बहुत हठधर्मी वाली... अन्त तक मैं किसी ऐसी स्थिति की प्रतीक्षा करता रहा जिस से नियति अपना रुख मोड़ दे - पर हालात के हवाले किया हुआ जीवन सिर्फ हालातों में चक्कर खाता है और हालात सरासर मेरे प्रतिकूल थे ।
मेरी शादी का समाचार मिलते... वह लम्बी छुट्टियां लेकर घर में पड़ी रही.. और बहुत दिनों बाद जब मैने उसे देखा तो मैं..
उसका चेहरा लम्बी खरोचों से नुचा हुआ था - वह कह रही थी ‘ऐक्जिमा’ निकला है और लोग... उसको अविश्वास से दवाईयां सुझाते। हर दिन वह अपने हाथों अपना बलात्कार करती... हर रोज वह अधिक सिमटी हुई.. दफ्तर आती... मेरा ख्याल उसके दिमाग मंे दूर तक कही न था। वह केवल अपने अकेलेपन... और अपनी अजनबी दुनिया की वीरानियों में तड़पने लगी थी... उसका सुख उसका संसार कुछ अदना जिन्दगियों के लिए मिट रहा था।
आज न वे सूत्र कही है न वे मजबूरिया,ं पर उन मजबूरियों ने जो कुछ तोड़ा उसके टुकडे़ है हम!
अभिलाशा का अधमरापन जिन्दगी को कितना भयावह बनाता है, उस स्थिति में तो और भी अधिक जब उसकी स्मृति के अतिरिक्त सब निःशेष हो। उसने अपने शरीर के दायरों को घरेलू व्यस्तताओं में संकुचित कर दिया था... वह अब बहुत कम बोलती... किन्तु उसकी आॅखें निर्जन शून्य की तरह डूबी हुई लगती है।
मैने उसे रोक कर अपराध नहीं किया था। वह ठिठक कर भाग गई उसने भी अनुचित नहीं किया - शायद यह दोहरी स्थिति ही अब हमें सम्भालें है पर उसकी भ्रांति? मैं कैसे दूर करुं..?
- मैं उससे पुछना चाहता हूॅ ,क्या मक़्सद था उन कुर्बानियों का?... क्या मिलता है इन सब बातों से? - दूसरे रोज़ दफ्तर में हमारे कमरे में निहायत ही नई नवेली सजी संवरी दुल्हिन सी बनी एक स्त्री बैठी थी। मेरे अन्दर आते ही उसने अपना परिचय दिया। मैने उसे बिठाया ‘वह थोड़ी देर मे आ रही होगी’ कहकर मैने उसे नखषिख देख लिया...
आप यहाॅ पहले भी.....
जी हाॅ क्यो क्या बात है....
जी कुछ भी नही...
पूछ लीजिए बात मन मे रखने से...
जी दीदी और मेरा मतलब है....आपकी फिर शादी हो गई थी...
जी हाॅ लेकिन...आप इस बात को...
एक रोज़ दीदी ने आपको देखने के लिए....
तो उस रोज आप ही... अच्छा... आप की दीदी ने... बड़े तप और त्याग का जीवन अपनाया... आप सबके लिए... अब आप उसकी शादी... क्यों नही कर देते... ?
जी हाॅ... आप सही कहते है उन्होने हमारे लिए अपना यौवन... अपना रुप सब कुछ... पर वह अब भी समझौता नही करना चाहती....
किससे...
स्थिति से...
मतलब....
वह... बहुत... अनरियलिस्टिक सी है... अब इस उम्र में... वे महत्वाकांक्षायें रखना... जो खास... एक पर्टीक्यूलर एज...
- कैसी महत्वाकांक्षायें?
यंग हस्बेन्ड... माने... अपने बराबर का.... अपनी रुचि का...
- तो क्या महज शादी के लिए... शादी...
- और क्या होता है अक्सर हम जैसे आदमियों के साथ...
क्यो आपकी शादी...? मतलब आप सन्तुष्ट नही है।
हूॅ... तो... पर दीदी ने उस समय बहुत जल्दबाजी से काम लिया... बहुत कुछ स्थिति पर छोड़ दिया... बेकार नियति का दामन
पकड़ा हरीश , बुरा लड़का नही था...
पकड़ा हरीश , बुरा लड़का नही था...
तो क्या आपकी शादी...?
हरीश से नही हुई... क्योकि उसे दीदी आवारा समझती थी, मैं उसे अच्छी तरह जानती थी... वह स्वभाव से ही मस्तमौला थापर
वह बहुत पुशिंग और लविंग था, मुझसे बहुत... खैर... ओह दीदी!
वह बहुत पुशिंग और लविंग था, मुझसे बहुत... खैर... ओह दीदी!
दोनो बहने गले मिली जैसे दोनो के बीच किसी प्रकार की किसी शिकायत की कोई गुजांइश न हो, दोनों ने एक दूसरे सेखुलकर
और बराबर स्नेह के साथ बात की... छोटी की आॅखें किसी प्रसंग पर छलछला गई और दफ्तर के अन्य साथी... थोड़ा डिस्टर्ब
फील करने लगे। बड़ी ने सांत्वना का हाथ उसके कंधे पर रखा कुछ देर बाद दोनों बहुत देर तक गुपचुप बैठी रही
और बराबर स्नेह के साथ बात की... छोटी की आॅखें किसी प्रसंग पर छलछला गई और दफ्तर के अन्य साथी... थोड़ा डिस्टर्ब
फील करने लगे। बड़ी ने सांत्वना का हाथ उसके कंधे पर रखा कुछ देर बाद दोनों बहुत देर तक गुपचुप बैठी रही
- अन्त में बड़ी ने उसे समझा - बुझा कर वापिस घर भेज दिया।
उसने अपना माथा दोनों हाथों मे भर दिया और फूट फूट कर रोने लगी... आज वह किसी से नही कह पा रही थी कि उसके माथे पर ‘एक्जिमा’ निकला है...।
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उखड़ा हुआ प्रात्यावर्तन
नभ में बादल तैर रहे थे, चारों और धुआंदार वातारवरण, जैसे एक दावाग्नि के पश्चात सब कुछ अथजला रह गया हो, और भीगे हुए सब कुछ में से बुना हुआ धुआं बादलों से होड़ लेना चाहता हो। लोग परिचितों से कतरा कर भाग रहे थे। शांति और धुंध ने सारी वादी घेर रखी थी। मैं बाहर बरामदे पर एकटक सड़क की चहल पहल पर वीरानियों के बढ़ते अक्स गिन रहा था। मैं अनमना सा टहलने लगा वह बगैर दूध के नमक वाली कश्मीरी चाय लेकर सामने खड़ी थी। मैने कवल हाथ में लेते एक क्षण चाय देखी और प्रतिक्रिया में उसकी आंखें झुकी। मैं चाय फैंक चुका था, वह रसोई देखने में व्यस्त।
कुछ नहीं हुआ, सब कुछ सामान्य है, हो भी क्या सकता है? बर्फ की प्रतीक्षा में हजा़रों चिं़तित उत्साहित और सामान्य चेहरे..सामान्य लगने वाले।
वह फिर आई- ”मुन्ने को ‘फल’ू हुआ है, आज नमक ओर शक्कर भी खत्म है... दूध वाला...“
”ठीक है तुम जाओ।“
वह गई किन्तु शब्द रह गये, उनकी अनुगूंज से मेरी प्रतीक्षा ऊब गई और कल्पना जाग उठी... मानो आज उसने हां करदी... आह सारे घर का नक्शा बदल दूंगा और सचमुच सारे घर का नक्शा ही दिन प्रतिदिन बनलता जा रहा था...
“वह मुन्ने से परेशान थी या मुझसे“... ”मुझे उस की परेशान से मतलब?“ हां तो मैं क्या सोच रहा था?... हां याद आया... कल की वह धूप सुहावनी... नहीं, वह धूप नहीं... तो..?...यादों पर यादें, तहों पर तह जमाती बर्फ एक साथ पिघल के पानी बनती है पर यादों पर जमी याद किस धूप की प्रतीक्षा में पानी होना चाहती है-? पानी का कोई रंग नहीं मजा़ नहीं, अर्थहीन फिर भी आवश्यक ”शाम के लिए कुछ सब्जी़ वगैरा ले क्यों नहीं आते“ वह रसोई से अनुनासिक बोल उठी मेरा बायां हाथ जेबें टटोलने लगा , वहां से जवाब मिला खाली।“
मैने उन सब कोनों की स्थानों की तलाशी आरम्भ की जिनकी इससे पहले न जाने कितनी बार पूछताछ कर आया था फिर भी खाली जेबे खाली हाथों कदमों ने सड़क पर ला खड़ा किया। बाजार उसी प्रकार भरपूर लोग भीड़ और फिर नायाबी खालीपन और सब कुछ बेढें़गा।
यह श्रीनगर है- मेेरे कुछ जान-पहचान के लोग भी हंै, इस घाटी के छोटे महानगर में दो एक परिचित घर होना बहुत कुछ है, पर कई सालों से कुछ कारणवश उनसे सम्पर्क टूट चुका है। हम गांव में रहते थे तो वह हमारे मित्र, सगे सम्बन्धी सब कुछ थे। हम दूर थे तो ऐसा सब कुछ था शहर में सब सामान्य है। वह हमारे लिए और हम उनके लिए मेहमान नहीं। शुरु में एक दूसरे के यहां आना जाना लगा रहता पर न जाने अचानक कहां क्या हुआ सब कुछ अचानक ठप हुआ। मिलते भी है तो औपचारिकता के नाते।
पुल के मध्य में कुहरे में लिपटी एक परिचित सी आकृति मेरे निकट से खिसक रही थी। मैने देखा और हठात मुख से निकला-
”शीला...“
- ”कैसे हो?“ उसने विवश हो पूछा
- ”मैं जो भूल रहा था वह स्मरण दिलाने वाली को क्या उतर दूं...“ मैं सोचने लगा। वह पूछने लगी, ”तुम वापिस गांव क्यों नहीं जाते, वहां कम से कम घर अपना है किराये के पैसे ही बचते।“
”मुर्दे को कब्र से गरज़ है ज़मीन कोई भी हो“ यह मैं कहना चाहता था पर नज़रे जेहलम के सातवें पुल से होती हुई पानी के बवंडर देखने लगी। कितना मटमेला है इस नदी का पानी फिर भी पीना पड़ता है।
”मैने पापा से कल फिर कहा था, उसका कहना है दो एक रोज़ में तुम्हारा काम हो जायेगा, राजा तुम्हें इतना परेशान नहीं होना चाहिए, यह तो सब दिनों का फेर है।
हां ऐसा ही है, ”मैं गांव जा रहा हूं यह सुनते ही तूं पागलों की भांति रो उठती थी, आज मेरे होने का अहसास भी सहन नहीं कर सकी“ अगर मेरी जुबान में कोई शक्ति शेष होती तो इतना भर अवश्य कहता पर...।
”मुन्ना कैसा है और उसकी...“ मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि उसके चेहरे पर जो कुछ लिखा था वह उभर आयेगा, मैने पढ़ने का प्रयत्न किया पर वह सब विषयांतर था, कोई ऐसा शब्द पंक्ति या वाक्य पढ़ सकूं जो मैने लिखा था। वहां एक ही शब्द उभर कर विलीन होता ‘अतीत’।
”मां उसकी“ मुझे जैसे प्यास सी लगी हो गले में कुछ अटक सा गया और मैं मुश्किल से खांस सका। वह आदतन बोल उठी, ”देर हो रही है“ मैने अंाखें सब्जी़ वाली दुकान की ओर फेर ली और कदम भी अनुकूल हो उठा रहा था। हाथ कुछ मुलायम सा महसूस कर चैंक उठे ‘प्रशाद’ है। मै खीर भवानी से आ रही हूं भाभी को भी...“।
भाभी शब्द कानों मे पड़ते ही एक धक्का सा लगा। मैने हाथ जबरदस्ती छुड़ाया। हाथों में क्या आया है यह मैने नहीं देखा, पर नदी ने जाना कि वह जिस नगर में से गुज़र रही है वहां एक और नगर बस चुका है, जो बहुत नीचे दब गया है और तहों पर जमती तह... कौन पाट सकता है? हाथों से कुछ छूटकर नदी की तह पर तैर रहा था-डूब रहा था-डूब गया है।
- ”चलो थोड़ी देर ममी से मिल आओ, कहती थी सूरत ही भूल गई हूं। तुम तो बिलकुल ही बदल गये“ अभी तक जिसे किनारा समझा था वह तिनका भी बह गया, हाथ कुछ खोज रहे थे। वह दौड़ रही थी मैं केवल चल सकता था जब उसकी गति से गति मिलाकर न चल सका तो पिछडना पड़ा ही।
सामने के.एम.डी.ए. का बस स्टैंड एक और से ”अनन्तनाग“ दूसरे ओर से तुला मुला ‘पाम्पुर’ और स्थान स्थान को जाने वाले यात्रियों को पुकारे जा रहा था। इस पुकार की छैनी ने मस्तिष्क के सूने कोने पर चोटें करनी आरम्भ की। वहां उसी अनपात से कुछ आवाज़ उगने लगी...।
”राजा... राजा..., नहीं नहीं आज नहीं, मैने टिकिट को दबा कर नोट जेब में रखते हुए शीला को तन्मय देखना आरम्भ किया था।
”तुम इतने जिद्दी हो... मेरी इतनी सी बात भी नहीं मान सकते, अगर तुम आज न रूके तो... नहीं जाना है आज तुम्हें गांव,...“ उसके नेत्र सजल होने लगे, मैने स्थिति और स्थान का ध्यान करके मुस्काने का निष्फल प्रयत्न किया, चाहा कि इस फेरे को टाल दूं, परन्तु... उसकी वह अबोध दृष्टि जो निरन्तर निर्दोष आमत्रण का अभिप्राय लिये मुझे बाध्य कर रही थी ”देखो शील मेैं तो कुछ ही दिनों में... ख़त में आज के दिन जाना ही आवश्यक... और फिर...।
- नहीं... अवश्य जाओ किन्तु आज... अतीत को लौट आने दो उसी घर की छत के नीचे कालेज जीवन के तीन वर्ष... मैं जानती हूं... आज का गया... न जाने... ओह... राजा सम्भव है तब फिर मैं भी तुम्हारे साथ...।
मैने चाहा उसे सब कुछ बता दूं किन्तु... मुझसे अधिक मेरे हाथ में आई टिकिट ने कह दिया। वह पछतावे से कह रही थी, “आज की रात रहे होते...” मैं बस में सीट खोज कर बैठ गया, वह खिड़की के पास आकर हलके होठ हिला कर कुछ कह गई शायद....निर्दयी।
बस से उतरते ही लगा कि गांव मेरे आने पर मातम मना रहा है। चारों और घोर निस्तब्दता। वृक्षों के जिन पत्तों को हरा छोड़ आया था लाल पीले ढेरों के ढेर पेड़ों घाटियों और पगड़ियों पर कुचले विद्रोहियों से सिसकियां भर रहे थे। पेड़ आवरणमुक्त शिषिर के आलिंगन को बाहें उठाये आकाश ताक रहे थे। नदी सूख कर रास्ता हो गई थी। मैने चिल्ला कर पूछना चाहा, यह सब कैसे हुआ?
सहसा मेरे मन में खरोचें लगने लगी। आह! मैं भूल कर गया! मै यह कहा भूला रहा! वापस चला जाऊं... हां इसी दम किन्तु हाथ घर के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे, भीतर से एक परिचित सी आवाज़ आई, जोर दो, खुला है।
”यह किस जन्म की सज़ा भुगत रही हूं हाय! औरों के बेटों को देखो खाते खिलाते ही नहीं थकते न जाने किसने क्या कर दिया मेरे लाल को... उस कलमुहीं की आंखें फूटे...“।
- ”मां...! मैं बिस्तर पर से अपना पूरा ज़ोर लगा के चिल्ला उठा और बेतहाशा आंसुओं की झडी बहने लगी। दौरे तेज़ पड़ने लगे-डाक्टर और नर्से अनावश्यक भीड़... ओह!
जिला अस्पताल का संकीर्ण कमरा। सफेद दीवारों पर पड़ी उसांसों की सिलवटें... लोग कहते है मुझे दिल की बीमारी है। किन्तु मेरा तो दिन प्रतिदिन का जीवन है यह।
मैने जहां भी कोई काम करना चाहा मुझे लगता मैं जबरदस्ती कर रहा हूं, ऐसा प्रतीत होने लगता कि जहां में बैठता हूं वही ज़मीन घिस जाती है और मैं मुश्किल से जान बचाकर निकल भागता हूं।
मैने मां से विनीत स्वर से कहा -
”मां मुझे एक बार वहां जाने दो, और माॅं मुझे देखकर खामोश रही।
मैने धीमे से द्वार खोला। पहले उस धर में जो बिजली सी लपक कर मेरे स्वागत को निकलती थी वह कोने में पड़ी स्वेटर बुन रही थी, पहले से अधिक स्वस्थ उतनी ही सुन्दर किन्तु गम्भीर। मैने अपने आने की सूचना खांसकर दी। उसने देखा और पुनः स्वेटर में मगन रही। यह क्या? तुम मुझे पहचानती नहीं? तब फिर...
मैने कहना चाहा मैं आया हूं... तुम उठकर हंगामा क्यों नहीं करती सबसे पागलों की भांति क्यों नहीं कहती कि...।
मैंे किसी अपराधी सा उसके निकट आकर बोला, ”आंटी कहां है...“ उसने रसोई की और इशारा किया, मैं उस और देख भर सका और फिर खोजने लगा।
- क्या मैं ग़लत जगह आया हूं...?
शीला तुम क्यों नहीं पूछती कि मैं इतने दिनों कहां रहा? कैसा रहा?...
”चाय बनाऊं“ वह पूछ रही थी!
”धत! इतने अन्तराल का मौन तोड़ा भी तो चाये की प्याली की माज़रत ने।“
- नहीं, मैने पीने की इच्छा रखते भी कह दिया... अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकता। मुझे जाना चाहिए, मैं देख रहा था दीवरों का रंग, खिड़कियो पर टंगे पर्दे, कमरे की साज सज्जा कहे जा रही थी तुम कौन हो? हम तुम्हें नहीं जानते, क्यों भटके देहाती शहर में इतने मंदिर सराय होते हमें परेशान करने क्यों आये...? शर्म भी नहीं आती।
मैने न जाने क्यों अनुसना कर दिया, बैग कंधे से उतारक नये नये सोफे से मित्रता जोड़नी चाही। रसोई से आहट हुई, ”ओहे राजा“ आंटी ने जैसे सहसा देखकर कहा - कब आये? खाना तो खाया होगा?
कुछ रोज़ ठहरने का इरादा है या अभी जा रहे हो...?
”मैं सोफे मंे धंसा जा रहा था, हां आंटी... वह आजकल बेकार ही.... रहने तो आया था... काम कुछ नहीं मिलता - वह देख लूंगां... वापस ही जाना पड़ेगा।“
”जानती हूं अब तो तुम बीवी वाले हो गये हो ना।“
- तभी तो भैया अकेले की आये भाभी को साथ लाते शर्म आई होगी।
- मुझे जैसे किसी ने तमाचा मारा आज उसने मुझे अपने से अलग कर दिया। आंटी रसोई देखने में व्यस्त थी मैने साहस बटोर कर भर्राये कंठ से शीला को पुकारा।
उसे जैसे किसी ने सुई चुभो दी वह दुगनी गति से स्वेटर बुनने लगी। मैने उसी प्रकार फिर कहा, शीला मैं तुम्हारे पास आया हूं...
केवल तुम्हारे कारण... इसी छत के नीचे वह उठकर चली गई और फिर मुझे कुछ याद नहीं... आंटी पुकार रही थी राजा राजा जा कहां रहा है, चाय तो पीते जा..
................................................................................. ......................................
कहीं कुछ
इतने इन्तजार,इतनी कोशिशों के बाद भी जब कुछ न हो सका तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि सफलता वास्तव में मेरे भाग्य में नहीं, वह सब किया जो मेरे बस में था, जिसे अपनी बेहतर योग्यता की कसौटी पर परखा था और हर बार की तरह आज भी नाकाम होकर लौट रहा था- रास्ते में वीरा मिला, खुश, आत्मविशवास से खिला हुआ चेहरा और ग़जब का सन्तोष चेहरे पर, उसे देखते ही मैं चुपके से एक और खिसककर भागने की सोचने लगा किन्तु वह मेरे इतने करीब पहुंच चुका था कि अब उसकी नज़र से बचकर निकलना मेरे लिए असम्भव था- मैं ऐसे रुका जैसे मेरे पैरों में किसी ने कील गाड़ दी हो। वह मेरे पास आकर रुक गया विधिवत उसने अपना लटकता ढीला हाथ मेरी और बढा़या और एक तात्पर्य भरी दृष्टि से देखते हुए पूछा। ”कैसे हो यार?“
मैं उसकी ओर देखता रहा एक शब्द भी नहीं बोल पाया... और वह कहे जा रहा था ”घर जाकर अपनी सूरत आइने मे देख लो...“ उससे बातचीत के दौरान ही मैं उसकी कही हुई बात भूल गया था। घर लौटकर जब मैं आदतन ड्राइंग रुम के आदमकद आईने के सामने खड़ा होकर अपने आप को देख रहा था तो जैसे मेरे पीछे वीरा खड़ा होकर बोलने लगा,” क्या मुर्दा सूरत बना रखी है... ताज्जुब है’- मैं भीतर ही भीतर भारी विरक्ति से भर गया। वीरा के कहने
खाली आईना मेरे आगे खोई हुई आवाज़ सा गुम है। मैं आईना देख रहा हूं न अपना आप। सिर्फ सोच रहा हूं... कुछ अहम कोई खास बात जो मेरी समझ में नहीं आ रही। लाख चाहने पर भी जो मैं नहीं सोच पाता या समझ नहीं पाता। क्या यह इन्तजा़र कभी खत्म न होगा? क्या सचमुच मैं इसी तरह अहिस्ता खत्म... नहीं मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए... अभी मेरी उम्र ही क्या है! ठीक है वीरा एक कामयाब आदमी साबित हो गया... पर क्या वास्तविक उपलब्धि सिर्फ कामयाबी या नाकामी से ही परखी जाती है.. क्या मेरा कोई मूल्य नहीं... क्या मैं इन्सान नहीं, इन्सान होने से क्या होता है?... क्या हो पाया है.....इन्सान..?.
मैंने कहा था,”जिन्दगी निरन्तर संघर्ष है।“
वीरा हंसकर बोला,”ज़िन्दगी पानी से भरी ऐसी बाल्टी है जिससे तूम चाहो तो नहा लो चाहो तो पी लो और न चाहो तो फेंक दो...“ उसका इतना हल्कापन मुझे बहुत अख़रता था- वह जिन्दगी के झमेले में इतना लापरवाह क्यों है? पर शयद वह लापरवाह नहीं था कुछ और था। लता कहती थी वीरा की नज़रों में मैं एक गैरजिम्मेदार आदमी हूॅ जो अपनी वास्तविकता स्वीकारता नहीं...
‘तुम एक मिडल क्लास आदमी हो, अपनी हकीकत पहचानने की कोशिश करो... ऐसा नहीं कि तुम जानते न हो... पर जान बुझकर अनजान बनते हो- खुद आफिसर बीवी आफिसर बच्चे खुशहाल, अब तुम किस बात का ग़म लेकर यह चेहरा लटकाये रहते हो, ऐसे आदमियों को उदासजीवी कहते है- यह एक बीमारी है इसका इलाज कराओ..’- ”मैं एक मिडलकलास आदमी हूं...मैं आफिसर हूं मेरी बीवी आफिसर है बच्चे खुशहाल है... मैं एक कामयाब आदमी हूं“...”तुम्हें दुख है न कि तुम वह सब नहीं कर पा रहे हो जो सोचते थे-मैं पूछता हूं क्या ज़रुरी है वह सब?“ क्या ज़रुरी है? क्यों कंरु मै? मैं ही क्यों? नहीं करुंगा... कुछ भी नहीं करुंगा, मैं एक फैमिली वाला आदमी हूं, लेकिन ऐसा सोचत ेही क्यों बेपनाह नुकीले शस्त्रों से कटने लगता है मेरा बदन..... यह क्या हो जाता है मुझे? मैं नाकारा सा हो जाता हूं
कामयाब आदमी किसे कहा जाये...?.
जो वास्तव में कुछ कर पाया हो...
और मैं? तब? मैं अपने आपको अनजानेपन के हवाले नहीं कर सकता- मुझे हमेशा अपनेपन की तलाश रही, यह तलाश मुझे वास्तव में कुछ भी करने नहीं देती।
मां का आंचल छूटते ही जब मैने अपने आपको गलियों सड़को फुटपाथों पर लोगों के फेंके कूडे से अपने खिलौने तलाशता पाया तो मैं खुश हुआ- मैं जी सकता था। नहीं जानता था कि जो मेरी छोटी सी खुशी है वह लोगों का फैंका हुआ कूड़ा है। मंै उस कूड़े में बराबर अपना बचपन तलाशता रहा हूं। आज जबकि मैं कई इंच मोटे शीशे के केबिन में बैठा अपने आपको देखता हूं तो सहसा उस गुड़िया की याद आती है जो नुमाइश की एक दुकान पर अपने पिता के साथ बचपन में देखी थी- गुडिया छोटे से शीशे के डिब्बे में बन्द हंस रही थी, मैं उसे डिब्बे से निकालकर उसके होठों पर अपनी नन्ही उंगली रखकर उसकी हंसी छूना चाहता था, मेरे क़दम ठिठक गए और पिता जी मुझे प्रदर्शनी से बाहर खीचने लगे- शायद वह मेरी लालसा समझ चुके थे- शायद एक आशंका... या असहायता की भावना से बचने के लिए वे मुझे वहां से...
अबोध विस्मय की वह लहर आज मेरे जीवन का अभिशाप बन चुकी है- कि मैं उसे अपने न होने पर भी हर तरफ अंकित देखना चाहता हूं- चांैधियाती बिजली की रोशनी में मेरे भीतर आज भी एक बालक हैरान है... मैं हर तरफ से अपने आप पर बरसते रोशनी के गाज बर्दाशत करने की हिम्मत बटोरे हुए खुुद को सम्भालता हुआ सोच रहा हूं....!
मेरी सांसो से बोझल आईना... एक स्लेट की तरह हो गया है, जिस पर मैं रुमाल फेरकर दोबारा खुद को देखता हूं- देखकर फर्श पर पसर जाता हूं एक पल की कामयाबी सारे शिकवे दूर कर देती... मैं कितना स्वत्रंत होकर जी सकता... कितना...! कितना जान लेवा है यूं नौ साल के बालक को तीस साल के शरीर में महसूसना...
एक डर बराबर बना रहता तब, वह डर एक परी का डर था, लता ने कहानी सुनायी थी... परी के वश में एक जिन्न है, परी जिन्न से जैसा करने को कहती है, जिन्न वैसा ही करता है, जो चाहे, परी को दिला सकता है। जिन्न से परी ने एक राजकुमार को मांगा और राजकुमार हाजिर हुआ- परी को दुःख हुआ राजकुमार ने परी से प्यार नहीं किया- नाराज़ होकर परी ने जिन्न को आदेश दिया कि राजकुमार को पत्थर के बुत में बदल दो... जिन्न बहुत जा़ेर से हंसा और राजकुमार देखते ही देखते सुन्दर बुत में बदल गया...!
एक रोज़ मुझे लता पहाड़ी के टीले पर बने पुराने मंदिर पर ले गयी। असंख्य देवी देवताओं के जीर्ण बिखरे बुतो के बीच एक आदमकद बुत की ओर इशारा करके बहुत धीरे से उसने मुझ से कहा ”यह रहा वह राजकुमार जिसे परी ने बुत बनाया...“ लता ऐसे कह रही थी मानो उसी ने स्वयं ऐसा किया हो- मैं बुत को निरीह दृष्टि से देखने लगा... मेरे सामने खड़े होकर लता मुझे टोकते हुए कहने लगी ”...ज़्यादा न देखो इसे.. यह सपने में आकर तुम से अपनी जान मांगेगा“ ”लेकिन यह मुस्कुरा क्यों रहा है..?“ मैने बड़ी उत्सुकता से पूछा... ”इषष्! आहिस्ता बोलो यह सब सुनता है...“ यह कहकर उसने अपने दोनों नन्हें होठ भीचे और कहा, ”चलो घर चलते...हैं“।
पत्थर के बुत पर खिली हुई असीम सन्तोष की वह मुस्कान आज मेरे लिए रहस्य नहीं फिर भी लता की खामोशी नहीं टूटती, नन्हे होठों पर छाया एक अनिश्चित विस्मय और मौन... मैं हर तरफ से झेल रहा हूं...।
परी की कहानी मै भूल गया, उस पहाड़ी पर उस मंदिर में रोज़ जाने से, वह राजकुमार का बुत भी मेरे लिए सामान्य सा हो गया। लता को मुझे नये किस्से चरित्र कहने को मिलते। अपने किस्से कहते वह उन किस्सों में इतनी जान भर देती कि हर किस्सा एक हक़ीक़त लगता-वह चाहती थी कि मैं भी उसे दिलचस्प किस्से सुनाऊं, पर मैं कभी उसके किस्से से सुन्दर कोई किस्सा सोच ही नहीं पाया।
वीरा इन दिनों भी किस्सों में अरूचि रखता था - उसकी दुनिया... तितलिंया पकड़कर उनके पर कतरने से शुरू हुई... वह गुलाब की पत्ती के साथ तितली का एक पर अपनी किताब के बीच पन्नों में रखता। एक रोज़ एक चिड़िया पकड़ लाया, उसकी टांगों को मज़बूत धागे से बांधकर उसके आगे पालतू बिल्ली बांध दी। चिड़िया सहमी अधमुर्दा बिफ़रती तड़पती फर्श पर पड़ी रही, वीरा उसके बदन में सूईया चुभोकर उसे तडपाता रहा... उसी रोज़ मुझे वीरा से घृणा हो आयी थी पर मैं उससे कुछ कह नहीं पाया था - वह अपने खेल में किसी का हस्तक्षे सहन नहीं करता - मां वीरा की हरकतें देखकर परेशान होने लगी। वह उसे सिद्वार्थ की कहानी सुनाती अंहिसा का महत्व बताती, प्रेम और सदभाव का उपदेश देती। वीरा खूब ध्यान से मन लगाकर मां की बातें सुनता, वीरा पर उन बातों का क्या असर हुआ नहीं कह सकता पर उसके बाद वह अपने खेल अक्सर एकान्त में खेलने लगा।
क्या सचमुच यह सब आदमी के खून में है? क्या इसका कोई इलाज नहीं? वीरा को देखता हूं तो बात सच्ची जान पड़ती है और लता को देखकर यह सब वाहयात लगता है। उछलती कूदती चहकती तेज़ लता कभी इस कदर लब सिलकर बैठ जायेगी-ऐसी तब्दीलियां, ज्यादा कुछ नहीं लेकिन न जाने क्यों मुझे यह सब जानबूझ कर ओढ़ा हुआ लगता है।
आवारा लंफगा फूहड़, उजड्ड... इस सदी का सबसे बदचलन आदमी वीरा... कभी जिन्दगी को इतना समझ पायेगा - किसने सोचा था, मां उसे सिद्वार्थ बनाना चाहती थी ओर वह बन गया था सिकन्दर...।
हमेशा पागलपन की बातें सोचने वाला वीरा एक रोज़ मुझसे कहने लगा - ”तुम अगर जिन्दगी में कुछ करना चाहते हो यानी कि कुछ होना चाहते हो तो जो तुम चाहते हो उसके बीच खड़ी हर दीवार को निर्मम होकर तोड़ दो... चकनाचूर कर दो उन सभी शक्तियों को जो तुम्हारे रास्ते में रुकावटें पैदा करें।“
”और अगर आदमी यह सब न कर पाये तो,“ मैने सहज भाव से पूछना चाहा। वह कह रहा था, ”तो समझौते करो... ऐसे जहां तुम्हें कुछ ज्यादा न खोना पड़े - जो अक्ल के ज्यादा हो दिल के कम...।“
”और अगर आदमी महज़ जीना चाहे कुछ खास करना न चाहे तो...।“
यह सुनकर वीरा छटपटाया और चिल्लाकर कहने लगा - ”तो उसे चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए... मैं ऐसे कीड़े की माफिक ज़िन्दगी नहीं गुजार सकता... मैं दुनिया में आया हूं कि मुझे सारी दुनिया चाहिए... सारी... समझे...“ विक्षिप्त वीरा की हंसी का भंयकर ठहाका फूटा और लता की नींद टूट गई!
”क्या हुआ है तुम लोगों को“ इतना कहकर वह एक दृष्टि मुझ पर और एक वीरा पर डालकर फिर बिस्तर में दुबक गई... वीरा की ओर उसने अतिरिक्त लावण्यता से देखा था और वीरा मेरी ओर मुस्कुराकर देख रहा था, न जाने क्यों वीरा मुझ पर ज़बरदस्ती हावी होने लगा - मुझे अपने इरादे बदलने चाहिए, मैं सोचने लगा - कोई तूफान पैदा करना चाहिए?... और मैने वीरा को रद्द नहीं किया था। वीरा ने बचपन से ही मेरी तरह लोगों के फेंके कूडे में खिलौने नहीं तलाशे, वह कूड़ा उनकी आंखों में फेंककर उनके हाथों से खिलौने छीनता... और लता किस्सों में दिलचस्पी खो चुकी थी - क्योंकि वीरा अतिमानव की तरह हो रहा था - मेरी तरह जीवन के अन्वेषण की गुत्थियां उसकी समस्या नहीं बनी...।
वास्तव में उस रोज़ वीरा से मैं घृणा नहीं कर पाया था बल्कि भीतर ही भीतर मैं कहीं वीरा होना चाहने लगा... इस पत्थर के सिमटे अस्तित्व से मुक्त होकर जीना चाहने लगा, अपने चेहरे को अपनी सही लचक के साथ देखना चाहने लगा।
लता की खामोशी देवताओं के जीर्ण अवशेषों की तरह टुकड़े-टुकड़े हर जगह बिखरने लगी। वह कभी-कभी बस कराह उठती जैसे उसके बदन में कोई नुकीली सुईयां चुभा रहा हो।
वीरा कहता चुम्बक बनो... लोहे के छोटे-छोटे कण तुम्हारे इर्द-गिर्द स्वयं ही जमा होगे...।
लता कुछ न कहती... बराबर कराहती... पर उसका माथा ऐसा प्रकाश बिखेर रहा था जिससे मुझे अभी भी बहुत साफ दिखाई दे रहा था - हालांकि उसका मस्तिष्क दिन-ब-दिन सिकुड़ता जा रहा था और वह सिमटती जा रही थी।
हम तीनों ही एक-एक कर एक साथ जी रहे थे और यह अहसास दिन-ब- दिन ख़त्म होता जा रहा था...।
‘इतिहास पढ़ाना मुझे अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मजा़क लग रहा है, सगे...’ वीरा से अपने ज़्यादा करीब जतलाने के लिए वह मुझे ‘सगे’ कहकर पुकारती थी...
”इतिहास पढ़ाना ही क्यों?“ लता झेंप गई पर झेंप को छिपा न सकी और हड़बढ़ाकर कह उठी,”इसलिए कि अपनी ज़िन्दगी से किस कदर तटस्थ होकर जीना पड़ रहा है हमें“... कुछ देर हम दोनों ही मौन बुनते रहे वह फिर कहने लगी- ”ताज्जुब है वीरा किस कदर बदल गया...“
”वीरा बदला नहीं अपने सही रुप को पा सका...“ मैने बिना पूर्वाग्रह के कहना चाहा, लता एक लम्बी सांस भरकर रह गयी ”मैं समझती थी तुम ने समझा होगा...“ उसने बहुत पछतावा प्रकट करतेे कहा-
”क्या? , क्या समझा होगा..?.“
”कुछ नहीं...“ वह बात खत्म करने के अन्दाज से बोली
कुछ पलों के मौन में मेरे जे़हन से वीरा का सन्दर्भ मिट गया और मैं लता की आंखों के गिर्द फैले चश्मे के नीचे उभर आये काले गड़ढ़ो को देखने लगा। लता की आंखों में लावाण्यता के स्थान पर विवेकशीलता के गहरे अक़स बनने लगे थे जो आहिस्ता- आहिस्ता उसे कोमल से ठोस बना देंगे।
”तुम्हे याद होगा वीरा बचपन में और बच्चों से खिलौने छीनता था...।“
”याद है मुझे...।“
”यह भी याद होगा कि वह उन खिलौनों का क्या करता था?“
”तोड़ देता था...“
”क्यों...?“
”ओफ! लता मुझे यह सब भूल जाने दो... लता खामोश हो गई और मैं सोचने लगा... मुझे इस तरह अपनी कमजोरी का अहसास दूसरों को नहीं होने देना चाहिए। लता कहने लगी, ”हमें यह बातें भूलनी नहीं, समझनी चाहिए“ - ”तुम क्या समझती हो...?“ लता जैसे इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी आपने आपको समेटते हुए अपनी सांसों पर बल देकर वह कहने लगी - ”हम तीनों ही तीन दिशाओं में फैली टहनियों की तरह हैं, हमारी जड़े एक ही पेड़ से जुडी है हमारी जमीन एक है... मैं वीरा में और तुममंे सिर्फ इतना फर्क करती हूं कि वीरा ने खुद पर पैबन्द नहीं लगने दिये और हम... अपने आपको बचा न पाये...।“
”तुम्हारा मतलब है वीरा ने जो कुछ किया सही...?“ यहां बात सही और ग़लत की नहीं... सफलता और असफलता की चल रही है वह धतूर था धतूर ही रहा...।“
”लेकिन तुम तो कह रही थी कि...“
”वीरा बदल चुका है... यही ना...“
”वीरा बदल चुका है... यही ना...“
”हां...“
”वह बात उपलब्धि की थी और यह सब उसकी ज़ात से जुड़ा है“ - कुछ देर हम दोनों फिर खामोश रहे, लता शायद अपनी कही हुई बात को फिर समझना चाहती थी क्योंकि बीच-बीच में उसकी पलकों और भवों पर निश्चित बल पड़ रहे थे। मैं उसे देखता हुआ उस के कथ्य की सार्थकता को तलाष रहा था। शायद वह सही कहती है शायद उपलब्धि एक ऐसा लबादा बनती है जो वास्तविक आदमी को आसानी से ढक लेती है।
आहिस्ता-आहिस्ता लता की पलको के बल मिट गये, उसकी भंवे चमकने लगी और हल्की सी मुस्कान का अक्स उसके चेहरे पर फैलने लगा। ...कुछ देर मुझे घूरती रहकर वह एकाएक इस तरह खिलखिलाकर हंस पड़ी जैसे अचानक वह नौ साल की छोटी बच्ची में बदल गई हो, उसकी हंसी रूक नहीं पा रही थी। वर्षों बाद इस तरह उसका हंसना मुझे तेज़ गिरते ओलों सा लगने लगा और मैं चिल्लाया, ”प्लीज़ स्टाप इट“ लेकिन उसकी हंसी रूक नहीं पा रही थी उस हंसी में विस्मय था - अकुलाहट थी खीझ थी तड़प थी। वह हंसी हंसी नहीं कांचघर के ढह जाने का शोर था - मैं कमरे से बाहर आकर बरामदे में खड़ा रहा और कांच के टूटने का अहसास मेरे मन में बराबर बना रहा... तभी एक विराट से सारा आसपास भर गया - आगंन में घुप अंधेरा, दूर तक जहां मै नज़रे गड़ाकर देख रहा था, कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। ठीक मेरे पीछे हलकी सरसराहट हुई और कुछ लम्हों में मेरे सिर के बालों को सहलाती लता की उंगलियों ने मेरे भीतर की भयानक चुप्पी तोड़ दी और मैं फूट-फूटकर रोने लगा। बचपन में अक्सर लता की डांट सुनकर इसी तरह में किसी निजी कोने में रोने जाता था वह चुपचाप आकर मुझे मनाती और तरह तरह के लालच देती।
”अब तुम बच्चा नहीं हो सगे... रोने से तुम्हारा कोई मसला हल न होगा - लोग अब कचरा भी देखकर फेंकते है“ - लता की आंखों में एक पुख्तगी थी जो उसके कहे शब्दों की सार्थकता का प्रमाण था इस बात से मैं आहत हुआ... अपनी नज़रें बचाता मैं वापस कमरे की ओर मुड़ा, सामने लता रास्ता रोके खड़ी थी।
”क्या चाहते थे तुम...?“ उसने साभिप्राय ढंग से पूछा। लता के शरीर का नुचा हुआ रोम-रोम जैसे पूछ रहा था - क्या चाहते थे तुम? एक पुरातत्व मंदिर का साकार स्मरण जून महीने की नीरव स्तब्ध सन्धयां... पश्चिम में उतरता सूर्यास्त, बाद में पहले रक्त का सागर उभरा फिर आहिस्ता-आहिस्ता वह काला पड़ने लगा और फिर नन्हें-नन्हें चांदी के चमकते बुझते दीप, मंदिर की जीर्ण मूर्तिया आंगन में पड़ी शिथिल निर्वस्त्र... अपंग हुए देवताओं के बुत... एक तरफ असीमता का उलझता सागर... और दूसरी और ज्ञान की संक्षिप्त सी पोटली, लता, जो हर बात जानती है, देवताओं के नाम तारों के नाम, स्थानों के नाम, रात और दिन का बनना... मेरी हर शंका का समाधान हर प्रश्न का उतर... और आहिस्ता-आहिस्ता इस सब के बीच उभर आता है एक सैलाब... जो सब कुछ बहाकर ले जाता है, संशय भी ज्ञान भी। तब लता अक्सर किसी शाल पर बेलबूटे बनाने में व्यस्त रहती और मैं अपनी पढ़ाई में।
वीरा रात गये तक अपनी टोली के साथ सरकारी डाक बंगले के अहाते में जुए बाजी, गुण्डागर्दी और हर तरह की बुरी कही जाने वाली बातों का प्रशिक्षण पर रहा था। मां चिंतित रहती, देखते ही देखते वीरा अपनी उम्र से बड़ा होने लगा, उसका क़द आबनूस की तरह निकलता जा रहा था। उसका रौब और दबदबा घर में, घर से बाहर बढ़ता ही जा रहा था। अचानक वह एक विवादास्पद विषय सा हो गया। शरीफ लोगों के लिए वह गुण्डा बदमाश और इलाके की उपेक्षित पार्टी के लीडर, दीन मोहम्मद के लिए काम का आदमी। दिन रात की आवारागर्दी के बीच भी वीरा अपने पढ़ने का वक्त निकाल लेता। मेरी तरह उसने कालेज में दखिला नहीं लिया, वह अपना रास्ता खुद तलाशना चाहता था, स्कूल से निकलकर उसने जो जी मे आया वही करना शुरू किया। हर विषय में दिलसस्पी ली - किसी को अपना आप नहीं सौंपा। हर चीज़ को अपने में जज़्ब किया, अपने में समोया, समोये रखने की ताकत थी उसमें। सख्त सूखी धरती से वृक्ष जैसे रस चूसते हैं - वैसे ही जी रहा था वीरा। वीरा से इतना तो मैं सीख सकता था - पर जब भी मैने वीरा होने की कोशिश की, मैं पकड़ा गया और मौत के घाट उतारा गया, फिर भी मैं जीना चाहता हूं इसलिए नहीं कि मैं वीरा नहीं बन पाता बल्कि इसलिए कि मैं बार-बार वीरा होना चाहता हूं।
”सफलता या असफलता अवकाश का वह क्षण है जब आदमी अपने आप को दूसरों के मुकाबले तौलने लगता है... और याद रखो वज़न घटना अगर बीमारी है तो वज़न का बढ़ जाना भी एक खतरनाक बीमारी है“... लता यह सब मुझसे क्यों कह रही है, आज जबकि में अपने आपको बहुत हल्का महसूस करने लगा हूं... इतना कि मैं धरती के वातावरण से निकलकर शून्य में पहुंच गया हूं... एकाएक मुझे यह डर क्यों घेरने लगा है... मैं खुद को बिल्कुल महसूस नहीं रहा... एक गूब्बारे सा बस भटक रहा हूं... आईने की दाहिनी अतिरेक सीमा पर लता का अध-मुर्झाया चेहरा मुझे घूर रहा है, उसका हाथ मेरे कंधे पर आ चिपका है और वह पूछ रही है कितनी देर यूं ही पड़े रहना है... कपड़े क्यों नहीं बदलते...’ विचार आदमी को कितना भिगो देते है... मैं अब कुछ सोचना नहीं चाहता था, सब कुछ बस गुजा़र भर देने की बात सी- जिन्दगी को समझना ही नहीं जीना भी आना चाहिए...!
”वीरा मिला था’ लता जानती है ऐसी स्थिति में किससे मिला हूंगा।
मेरी चूप्पी उसे और आंशकित करती है और वह पूछती है। आखिर तूम चाहते क्या हो...?“
मैं एक निश्चय पूर्वक सरलता में उसका हाथ पकड़कर कहता हूं... वीरा की मौत। लता और अधिक भयभीत और आशंकित होकर अविश्वास से मुझे घूरती हुई मुस्कराने का प्रयत्न करके मेरे कंधे सहलाकर कमरे से बाहर चली गई...
आदम-कद आईने मे मेरे ही आकार का कोई व्यक्ति झुककर जा़ेर-जा़ेर से हंसने लगा...।
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लम्हा लम्हा मौत
उसने पत्र को जेब में बड़ी एकतिहात से रखा। अभी तक एक आवाज़ थी जो सड़क के शोर से उसे अलग कर रही थी- वह अपार भीड़ में अपने आपको गुम होता देखना चाहता था- पर वह अलग थलग था- सभी लोग एक के बाद एक उससे अलग होते जा रहे थे।
तुम कैसी हो? हैलो... हाय! देखकर नहीं चलते जरा सा छू जाता तो हड्डी-पसली एक हो जाती है-कीप टू यूअर लेफट.....दफतर से आया हूं ! अभी ...सुना तुम्हारी वाइफ बीमार हुई है-- हम औरतों में यही तो बीमारी है-चलो मुन्ना चाट खाते हैं......दस का माल पांच में....छः छः आने... अभी लो... सिर्फ चालीस पैसें......एक रुपया दर्जन...केले... डल की ताजा मछलियां... छः रुपये किलो...सिर्फ छः.....हटो यहां से सारा फुटपाथ घेर रखा है। साहव दौरे पर है नौकरी का सवाल है, बाद में फिर बैठ जाना... उठो भी साली... वह ठिठककर रुक गया है। -अब सब कुछ बहता हुआ देख रहा है या अनदेखे सोंच रहा है- यह चिटठी लिखने के बाद जबीना ने अपने आप में कितनी राहत महसूस की होगी- वह कुछ नहीं कर सकती- स्थिति उसके काबू से बाहर हो चुकी है- अब यह चिटठी मेरी है- मेरी जेब में है- शायद वह भूल भी गई हो कि उसने किसी शबीर को चिटठी लिखी है। अधंेरा बढ़ रहा है सड़क की टयूब लाइटें जल उठी हंै- एक दिन खत्म हो गया- एक और दिन जो कल ही की तरह गुज़रा--कल मगर वह इतना खाली नहीं था कल शाम उसने कोई आवाज़ नहीं सुनी थी... सब खामोश था। एक बहरापन सा चारों ओर से टूट पड़ा था उस पर- उसने अपने कोट की जेब में पड़े बंद लिफाफे को सहलाया, शब्द उसके कानों में फिर गूंज उठे- ”अपने परिवार... अपने बच्चों के प्रति तुम्हें इस कदर लापरवाह नहीं रहना चाहिए।... इसमें उन मासूमों का क्या दोष-?- तुम्हें उनके लिए जीना होगा... जिन्दगी शायद इससे बेहतर हो नहीं सकती... बहुत सी बातें जिन्दगी में बस निभानी होती है- यह न समझना कि मैं कोई उपदेश दे रही हूं तुम्हारी कमअकल-
- जबीना“
मेरी! न रहने पर होने का अहसास दिलाना रहे-सहे से भी कितना खाली कर देता है। शुरु से ही कई ऐसी चीजें़ थी जिन्हें अपने पास सम्हालकर रखने का उसे बहुत शौक था- चाहता था- पर वे सब चीजे़ं उसकी पहंुच से बहुत दूर थीं- इसलिए उसके बारे में सोचना वह फिजूल समझता था- वह अपने साथ यह मानकर चलता था कि ऐसी चीजे़े संसार में परीकथाओं की तरह है- जिन पर उसे जरुरत से ज्यादा यकीन नहीं करना चाहिए- परीकथा सुनाने वाली जबीना उसके सामने हुआ करती -उसे ने वह सम्हालकर रखता न कहीं इस बात की जरुरत महसूस होती। शबीर से दो साल बड़ी होने के हक़ को वह आज भी प्रयोग में लाती है। लेकिन एक दिन अचानक उसने शबीर को अपने से बहुत बड़ा होते देखा था। उसके बाद अपने आपको वह कमअकल समझने लगी थी।
क्या आदमी की उपस्थिति दूसरे आदमी के लिए इतनी आवश्यक है? जबीना अगर मर गई होती और उसका कोई पुराना पत्र शबीर के हाथ इसी तरह लगा होता तो क्या वह इससे कुछ भिन्न महसूस करता जो वह इस वक्त महसूस कर रहा है। तब क्या यह एक मरे हुए प्राणी का पत्र है जो उसे अचानक किसी पुरानी यादगार की तरह पहली बार मिला है... ‘नहीं’... जबीना इतनी जल्दी मर नहीं सकती... उसे तो मेरे बाद मरना है... मेरी लाश देखकर वह सोचने लगा और उसकी आंखें एक अनोखी कडवाहट से भर गई... शाम उसे अचानक बदलती लगने लगी- और उसके कदम तेज़-तेज़ ‘बार’ की तरफ बढ़ने लगे--ठंड का अहसास उसके दिमाग से ओझल हो चुका था। फिर भी उसका शरीर जकड़-सा गया था और वह यकीनन शरीर को कुछ हरारत पहुंचाना चाहता था--उसे किसी भी चीज़ के बारे में कुछ नहीं सोचना है, बस आराम से जीते जाना है। ‘बार’ की नीम अंधेरी दुनिया में घुसते ही उसे बहुत अफसोस हुआ.....कुछ भी साफ नहीं दिख रहा था....उसे अपना आप यकायक कड़ी धूप में परछाई की तरह घटता नजर आया--वह कोई निश्चय न ले पा रहा था.....आहिस्ता आहिस्ता जैसे उसकी आंखें खुल गई और उसने अपने आपको बराबर, अपने बराबर होते पाया... मुहम्मद अली अपनी जगह बैठा-बैठा मुस्काते हुए उसे देख रहा था- उसके टेबल पर हिृस्की का आधा भरा गिलास और सलाद के टुकडे़ प्लेट मे पड़े एक निश्चित अन्त की प्रतीक्षा कर रहे थे- दीवार पर लगे क्लाॅक में ठीक नौ बज चुके थे। बार में भीड़ ज्यादा नहीं थी। कांच की ध्वनियां, रेडियो से खबरे, किचन में फ्राई होती खुशबू और आवाज़े एक साथ टूट पड़ी शबीर पर और वह काउण्टर के ठीक सामने लगे बड़े वाल मिरेर में शेष बार को अपने साथ देखने लगा- शीशे के फोरग्राउण्ड में वह स्वयं है और बैकग्राउण्ड में शेष लोग, मुहम्मद अली शहीदाना अन्दाज से सिगरेट फूंक रहा है। शबीर कभी-कभी इसी तलखी में घुलता हुआ सिगरेट पीता है... पर इस समय मुहम्मद अली को देखकर उसके भीतर अजीब-सा एतराज जागने लगा... वालक्लाॅक के निचले हिस्से में लगे मिनी कैलेण्डर पर तीस दिसम्बर का दिन चिपका है। वहां वर्ष नहीं है... सिर्फ दिन है। उसे लगा वह वर्षहीन जी रहा है- सिर्फ 30 दिसम्बर और तीस दिसम्बर... और तीस दिसम्बर... तीसरा विश्व युद्ध होगा या नहीं...? मुहम्मद अली ने बैरे का हाथ पकड़कर पूछा... बैरा हड़बड़ाया मानो किसी ने उसकी पीठ पर बन्दूक रख दी हो- ‘हजूर आप पढ़े-लिखे है, पेपर पढ़ सकते है... दुनिया जानते हैं... आप ही बताइये... बैरे ने बहुत श्लील ढंग से अपना हाथ छुडाते हुए जवाब दिया और एक सुरक्षित फासले पर मुहम्मद अली के जवाब का इन्तजार करने लगा... मुहम्मद अली अब पहले से शायद खुश था... इसलिए सिर्फ बैरे की तरफ देखा और ऐसे नज़रे हटा ली मानो कह रहा हो... ‘चलो मुआफ किया...।’ बैरा शायद सचमुच जानना चाहता था ‘तीसरा विश्व युद्ध होगा या नहीं’... उसने और प्रतिक्षा की कि मुहम्मद अली कोई स्टेटमेंट दे पर मुहम्मद अली का ध्यान विश्वयुद्ध से बिलकुल हट गया था। वह उससे किसी बड़े मक़सद की कोई बात सोचने लगा था, या शायद नशे ने उसे घेर लिया हो। बैरा निराश होकर दूसरे टेबल से क्राकरी हटाने लगा... जहां अभी अभी एक विदेशी जोड़ा आकर बैठ गया था... अचानक शबीर को याद आया दो वर्ष पहले भी मुहम्मद अली ने किसी से ऐसे ही पूछा था और उस रोज शबीर को लगा था कि उसके घर पहुंचने पर सारा विश्व, युद्ध की आग में भस्म हो चुका होगा... मुहम्मद अली ने सबसे चिल्ला-चिल्लाकर कहा था... सिर्फ पन्द्रह मिनट...बस...पन्द्रह मिनट में सारा संसार नष्ट होगा... सब कुछ होगा पर आदमी नहीं रहेगें... ये शहर... ये मकान सब यूं ही होगा पर यहां रहने वाला कोई न होगा... जानते हो समझते हो... और वह बहुत भयभीत होकर खामोश हो गया था... किसी ने उसकी बात का जवाब देना मुनासिब नहीं समझा था... आज अचानक यह सवाल फिर से पूछे जाने पर शबीर को लगा मुहम्मद अली का प्रेत कहीं से आकर बोलने लगा हो... जैसे सब खत्म हो चुका है और वे सब प्रेतोे की तरह हो गये हैं... और उसकी जेब में सिर्फ एक खत बचा है जिसे अब वह पढ़ना भी नहीे चाहता... वह विश्वयुद्ध के भावी सर्वनाश से घबराये मुहम्मद अली को नीम ऊंघते देख रहा है।
तीस दिसम्बर...
‘आप क्या लेगें साहब’... बैरा शायद अब दिन भर की थकान से टूट चुका है। इसलिए ऐसे पूछ रहा है, जैसे कह रहा होे.....यदि आप घर तशरीफ ले जाते तो हम दोनो का कितना बड़ा हित होता... आपके पैसे बचते और मुझे आराम मिलता...!
‘वन लार्ज... साथ में सोडा और कुछ खाने को...’ निराशा से बैरा फिर किचेन में घुसता है और शबीर की निगाहें फिर कैलेण्डर पर जम जाती है। तीस दिसम्बर बराबर अपनी जगह अटका हुआ पड़ा है। सबसे अलग-थलग जैसे उससे किसी को कोई सरोकार नहीं फिर भी अगर वहां वह न हो तो सब यकायक चैक उठेगें... जब तक वह है तब तक उसे होई नहीं देखेगा... सब जानते है वह है... जब नहीं होगा...लोग उसे मांगना शुरु करेगें... कहां है... तारीख कहां है... अब षबीर फेैसला नहीें कर पाताद कि उस का होना उचित है,..या न होना....शायद न होना... अधिक हितकर होता, वह आराम से पड़ा रहता... लेकिन अब यह वैसे नहीं रह सकता, क्योंकि वह जान गया है आज तीस दिसम्बर है...
बैरे ने अपने व्यावसायिक अन्दाज से ट्रे में से एक लार्ज पेग, एक फ्राई कांती और एक सोडा की बोतल शबीर के मेज़ पर रख दी फिर झुककर अदब से पूछा... कुछ और हुजूर? ”न जानें क्यों शबीर को लगा उसका मजा़क उडाया जा रहा है... उसे बैरे पर बहुत गुस्सा आया... ओर चढ़ी हुई आवाज में बोला, ‘ठीक है... रहने दो...। बैरा सम्हल-सा गया... कहीं उसने काई ग़लती तो नहीं की... फिर साहब यूं ही कैसे गर्म हो रह है...? ”वैसे भी कहां पता चलता है इन लोगांे को क्या चाहिए... न जाने क्यों सबके सब हमसे ही कुढ़े रहते है तो रहने दो...अपना क्या जाता है... टिप तो देगा ना फिर भी-“
गिलास हाथ में लेकर शबीर कुछ देर रुका... उसका निश्चय बिल्कुल टूट चुका था- वह जैसे किसी अन्य आदमी को पिलाने के लिए गिलास हाथ में थामे हो... एक ऐसा आदमी जो उसका ज़रा भी आत्मीय नहीं...।
कल इकतीस दिसम्बर है- उसका जन्म दिन- और वह पूरे इकतीस साल पार कर चुका होगा- अगर वह किसी जगह खड़ा होकर इन इकतीस सालों को पीछे मुडकर देखना चाहेगा तो उसे कैसा लगेगा- जैसे वह जहां खड़ा हो गया है बस उतना ही हिस्सा दूनिया में धरती है, बाकी न कहीं आगे कुछ है न पीछे- आगे की खाई- या खालीपन तो सम्भावित हो सकता है। लेकिन पीछे मुडते ही अपना सारा पिछला पथ ओझल हुआ देखना- कुछ भी नहीं एक पग चिन्ह भी नहीं-ओफ! उसकी आंखों में अबकी बार कड़वाहट नहीं थी- हलका सा गीलापन था- जो आंखों में ही समाकर जल्दी से जज़्ब हुआ। उसे लगा किसी ने उसके गले में कुछ ऐसा बाधं दिया है कि उसके लिए सांस लेना मुश्किल हो रहा है। वह यकीन नहीं करना चाहता कि जिन्दगी के पूरे तीस वर्ष वह बिता चुका है। वर्षो के अनुपात से अपने आप को देखने पर उसे और भी मायूसी होती है। वह इस तरह जीने के लिए नहीं बना था। जैसे एक दरिया में तैरते हुए उसका आधा शरीर गल गया हो और आधा पानी पर तैर रहा हो, समाप्त हो रहा हो- अब वह आंखांे तक समाप्त होगा- और सारी प्रलय के देखने को बची होंगी पानी पर तैरती दो आंखें। वह हैरान हो रहा है कि आज तक इस तरह वह क्यांे नहीं सोच सका- अचानक उम्र गंवा बैठने का यह अहसास उसे क्यों हुआ। उसका बाप सिर्फ पैंतीस साल की उम्र में मरा था- ‘पैंतीस साल मुझसे चार साल और ज्यादा यानी अगर मैं दो साल पहले मरा तो-मैनें -ओफ! अगर मैं सवेरे मर गया तो- जैसे मेरा जन्म हुआ ही नहीं था- दो और बच्चे यतीम हांगे- फिर उन्हें बाप का अता पता मिलेगा- वे मेरे बारे में सोचंेगे- राहील बड़ा होगा तब मेरी ही तरह- नहीं - मैं इस शहर में रह रहा हुं- राहील है- रुखसाना है-मुझसे दोनों बच्चे प्यार करते है-मैं मर नहीं सकता-मैं अभी पचास वर्ष और जिऊंगा-और असली उमर तो तीस के बाद ही शुरु होती है-ठीक है शादी हो गई थी मेरी...अगर नजमा मर गई होती-तो क्या मैं-?-तलाक हुआ है न हमारा... तलाक ही तो हुआ है-तलाक.....’
मुहम्मद अली कुर्सी से लड़खडाते हुए का प्रयत्न करने लगा। उठते हुए उसकी कमर हमेशा थोड़ी झुकी होती है। उसका दाहिना कंधा नीचे को सरका होता है और उसकी गर्दन एक खास जाविये पर हिलती रहती हैं। वह बड़े सभ्य ढंग से ‘बाथ’ में घुसकर अन्दर से चिटखनी चढ़ाता है और दस बीस मिनट लेकर बाहर आता है- इस बीच उसे कोई डिस्टर्व नहीं करता-सब आपस में समझ जाते है- किसी को परेशानी भी नहीं होती-जो नया आया हो वह दूसरों से खुदबखुद सीख जाता है- इसी आसानी इसी समझदारी से लोग सब कुछ निबाह क्यों नहीं लेते-?
‘मैं अपने परिवार के प्रति लापरवाह हूंै’ परिवार-? वह सोचने लगा- गले में दो भारी पत्थर लटकाकर चलते रहना- किसी से शिकायत न करना- पर शिकायत उसने किससे की...? उनकी मां से भी तो नहीं, जो अपने सुख की खातिर जीना जानती है। बच्चों की खातिर एक रोज़ वह तुम्हारे पास लौट आएगी-’ ज़बीना लोक- व्यवहार के तकाज़े और तजरुबे का सहारा देकर शबीर को ढांरस बंधा रही थी-और उसके होंठ अपने ही झूठ का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पा रहे- वह शबीर के ममत्व का दर्द जानती है- उसमें दिखावा नहीं था- दुनियादारी का गुर वह नहीं जानता था और नजमा इस चीज़ को आदमी का अवगुण और नाकाबलियत मानती थी-थोथे प्यार पर क्या जिन्दगी निभ सकती है- नहीं निभती ना... फिर क्या पैसे के बूते लोग जीते है? तो मुहम्मद अली-इतना मालदार होकर इस तरह कंगाल क्यों है? हमेशा एक फर्जी जंग की दहशत से वह क्यों डरा और सहमा रहता है-?
लोग हर चीज को जैसे संजीदा होकर देखना, सोचता और जीना चाहते है... शायद वैसा कुछ नहीं होता... शायद बहुत लापरवाही की तरह बहुत एहतियात भी कभी-कभी ग़लत नतीजों की ओर ले जाती है। एक बार बस एक बार उसका जीना उसके बस से बाहर हो जाता इतना कि उसे अपना सामना इस तरह न करना पड़ता कि वह तीस दिसम्बर को देखकर कहीं भी किसी भी रुप में कुछ खो न देता..
‘क्या बजा है हुजूर’... बैरे ने आकर उसकी सोच को एक विराम पर ला खड़ा किया... उसने बैरे के चेहरे की ओर देखा... उसमें याचना के स्थान पर चिंता का भाव था जो उसके समय पूछने के लहजे से भिन्न था...
‘शादी हो गई है तुम्हारी...? शबीर ने समय न बताकर सवाल पूछा...
‘हां, हजूर..’. बैरा अपने जवाब का मक़सद टटोलने लगा शबीर को बैरे से हमदर्दी होने लगी एक ऐसे आदमी की हमदर्दी जो कहीं अपने प्रति अधिक होते भी दूसरों के प्रति दर्शायी जाती है।
‘ग्यारह बज चुके है... तुम्हारा वाल क्लाक खराब लगता है...’ शबीर ने कलाई पर बंधी घड़ी को देखकर कहा... और घड़ी की ओर देखता रहा... छोटी सुई सेकेंड की... परिक्रमा... मिनट की... घंटे... की बन्द दायरे में घूमता हुआ मानव इतिहास कल्पना का सत्य पर आरोपन.. कि खत्म होते-होते सब नया बन रहा है.. जो चक्कर पूरा हुआ वह दोबारा नहीं होगा-उसी राह से चलते हुए भी, सब वैसा ही होते भी कुछ भी वैसा नहीं रहता... सब खत्म होता जाता है मिटता जाता है।
‘शुक्रिया हुजूर--आपने सही फरमाया- यह कलाॅक् थोड़ा पुराना पड़ गया है’ बैरे ने सफाई पेष की--कलाॅक पुराना पड़ने से समय बदल नहीं सकता... क्लाॅक रोक दो फिर भी कुछ नही रुकेगा... दरअसल मैं दकियानसी बातें सोचने लगा हूं.. जाने क्या हो जाता है मुझे- कभी कभी बड़ी घिसी-पिटी-आवारा मुसटण्डों की तरह सोचनें लगता हूं... बराबर मवाली-सा हो जाता हंू... शरीर को अपने आपसे और घिन्न होने लगी...
‘शादी कब हुई थी तुम्हारी...’ पास ही सोफे के सहारे खड़े हुए बैरे से उसने पूछा।
‘इसी साल साॅब’-बैरे की आंखों में एक खास चमक उभर आई और उसके हाथ अनायास आगे-पीछे हिलने लगे।
‘बीबी से बहुत प्यार करते हो -बैरा थोडा़ हिचकिचाया लेकिन फिर बोला -‘बहुत तो क्या कह सकते है थोड़ा बहुत तो कर लेते है... गुजारे जितना...’
शबीर को अब कुछ नहीं पूछना पर बैरा चुप नहीं रह सकता था- आपके ‘मेम साब नई है?...’
शबीर इस बात का कोई जवाब नहीं देता... फिर सोचने लगता है।
मेहर की रक़म...
तीस हजार सिक्का- राइज-उल-वक्त...
मन्जूर है।
मन्जूर है।
मन्जूर है-
तीस हज़ार क्या चीज़ है, नजमा जान भी मांगती तो वह भी मेहर में लिख देता...
‘नहीं शबीर यह तुमने ठीक नहीं किया...
जबीना!
मै सच कहती हूं...
मैं भी सच कहता हंू जबीं नजमा जिस रोज मुझ से अलग होने की बात सोचेगी मैं अपनी जान दे दूंगा- सब कुुछ छोड़ दूगां उसके लिए...
शबीर ने जेब से रुमाल निकालकर आंखें साफ की... उसकी नाक भी बहने लगी थी और बैरा साहब में यकायक आई इस तबदीली से परेशान होने लगा था।
‘साब हमारी बात का बुरा माना... कुछ ग़लती हुई हो तो...’ बैरा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था... आस पास बैठे लोग अपनी मस्ती में गुम थे।
दुनिया जिसे कहते है जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिटटी है खो जाये तो सोना है-
रेडियो से यह गाना बज रहा था ओर सारा वातावरण मिटटी और सोने की आंख मिचैली से भरपूर लग रहा था- विदेशी जोड़े को छोडकर सब लोग यह ग़जल कहीं किसी तरह अपने अनुरुप समझ रहे थे। विदेशी जोड़ा बातों में बहुत व्यस्त था। लड़की ने कश्मीरी वूल का मोटा स्वेटर और टोपा पहना था और लड़का कश्मीरी चोगा पहने था। लडकी कभी कभी आवेग में आकर लडके के होठां तक अपने हांेठ ले जाती वह उसे अपने होठों से हलके छूकर अपनी जगह लौटता - दोनोें प्रत्यक्ष से कटे अपने किसी संसार में खोये थे- एक ही छत के नीचे उन्होने अपनी अलग दुनिया बना ली थी और उन्हें अन्दर किसी की भी उपस्थिति का बोध नहीं था।
‘-यह तय है कि आज के बाद हमें संयोग ही मिला सकता है।’ लड़की ने लड़के से कहा ‘हां, क्यांेकि हम ऐसा खुद चाहते है-’ लड़के ने शराब का गिलास मेज पर रखकर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा...
‘हम-?’-लड़की ने अविश्वास से पूछा।
‘तब फिर-?’ लड़के ने जैसे नए सिरे तलाशना शुरु किये हों।
‘तब फिर-?’ लड़के ने जैसे नए सिरे तलाशना शुरु किये हों।
‘तुमने इस बारे में मुझसे पहले कब पूछा था-’ लड़की लगभग रुंआसी हो गई थी- और भीतर से सम्हलने का प्रयत्न खो रही थी...
”पूछने की जरुरत क्या थी- तुम पेरिस जाओगी और मुझे केलिफोरनिया जाना है- बात साफ है तुम्हें अपने पति के पास जाना पड़ेगा... उसने उस बात की ताकीद ही नहीं तुमसे गुजारिश भी की है- और मैं अब इस योग-वोग से ऊब चुका हूं- भारत मे मेरा रहना भी अब सम्भव नहीं- मैं अपने देश वापस जाना चाहता हूं...“
‘क्या यह मुमकिन नहीं-’
‘कि मैं पेरिस आ जाऊं...
‘हां! एक बार मेरे पति से मिल लो-’
‘यदि ऐसा संयोग हुआ तो...’
‘यह गलत है... तुम हर बात संयोग पर क्यों छोड़ देते हो?’
‘जिसे चाहते हुए भी करने की स्थिति में नहीं होता उसे मैं अक्सर संयोग पर ही छोड़ देता हूं।’
शबीर संयोग पर नहीं जी सकता... गिलास कांच का हो तो ज़रा हाथ से गिरते ही टूट जाता है लोहे का हो तो कभी नहीं टूटता... पर गिलास कांच का जंचता है- और उसे टूटना है... शबीर अपनी जगह से उठकर हाल के बीच में रखी बुखारी के नजदीक आ बैठा। बुखारी के पास आते ही उसके हाथ बुखारी की ओर उठ गये- वह यकायक सोचने लगा कि बुखारी से दूर रहते समय एक हाथ कोट की लिफाफे वाली जेब में बराबर रहा था- यहां आकर दोंनों हाथ बुखारी के आगे हो गये... शायद जिन्दगी में बहुत सी बातों पर ऐसे ही वश नहीं रहता... बाहर की दुनिया भीतर की दुनिया को इसी तरह बदलती है... तो फिर किसे बदलना चाहिए- भीतर को या बाहर को... शायद जहां जरुरत हो-हां! जैसे बाहर ठंड होती है तो भीतर भी ठंड लगती है... और इस ठंड को दूर करने के लिए आदमी बाहर आग जलाता है...
लेकिन तीस दिसम्बर.....‘क्या मैं इसे बदल सकता हूं किसी हाल में क्या मैं अपनी जिन्दगी को तीस दिसम्बर के अनुरुप बदल सकता हूं जो आग जल चुकी है... भस्म हो चुकी है... वह फिर...?... कौन कहता है कि इतिहास में कोई मनुष्य बचा है? किसने लिखा है अमरत्व का खोखला गीत... यह मैं कहता हूं कि इतिहास पुरुष... हमारे बीच है? वह स्वयं कहां है... सिर्फ मैं हूं... बस जितनी देर सिर्फ उतनी ही देर.. बाद में.... जो कुछ है उसका मैं अमूर्त हिस्सा जितना होऊं,....हो सकता हूं .....पर वह मेरे लिए कहां है....और जो मेरे लिए नहीं है उसके लिए मैं कहां...
कोई होता... जो... कुछ न कहता सिर्फ इतना कहता कि आज तीस दिसम्बर नहीं है- हम अब समयहीन हो गये हैं- अब किसी भी पल की कैद नहीं है- आदमी जहां चाहे जिस समय चाहे...समय नहीं--कभी नहीं..पर यह सच है कि कल मेरा जन्म दिन है.... जो मैं ने सात साल से नहीं मनाया और जिसे सिर्फ बिजली के शाक की तरह महसूसा है- जबीना मनाती है मेरा जन्म दिन--नये साल की शुभकामनाओं वाला उसका मखसूस कार्ड काम्य लिफाफे में मुझे ठीक जनवरी की पहली तारीख को मिलेगा-
‘प्यारे शबीर
नया साल हम सबके लिए शुभ हो
तुम्हारी जबीना’
फिर खत होगा,
'प्यारे श्बाीर-
तुम्हारे जन्म दिन पर घर में खुशी की जगह मायूसी और उदासी का हर साल वाला समा बना रहा सब लोग तुम्हें बहुत याद करते है-मैं पहरों आंगन में बैठी ठंड मे ठिठुरती रही... जाने कैसे मान बैठी कि तुम वैसे ही आओगे ओर मुझे मनाकर भीतर ले जाओंगे... कहोगे... खेर! बाद में मुझे कितना पछताना पड़ा शायद इससे अधिक हमारी नियति हो नहीं सकती... शायद तुम्हारा कहना सही है... हम रहते हुए भी नहीं रह पाये है... एक गुजारिश की थी तुमसे फिर करुंगी... खत लिखना क्यों बंद किया? खुदा गवाह है तुम्हारा खत पाकर मुझे कितनी तसकीन मिलती थी... जो भी हो... एक लफज ही लिख डालो-
तुम्हारे जन्म दिन पर घर में खुशी की जगह मायूसी और उदासी का हर साल वाला समा बना रहा सब लोग तुम्हें बहुत याद करते है-मैं पहरों आंगन में बैठी ठंड मे ठिठुरती रही... जाने कैसे मान बैठी कि तुम वैसे ही आओगे ओर मुझे मनाकर भीतर ले जाओंगे... कहोगे... खेर! बाद में मुझे कितना पछताना पड़ा शायद इससे अधिक हमारी नियति हो नहीं सकती... शायद तुम्हारा कहना सही है... हम रहते हुए भी नहीं रह पाये है... एक गुजारिश की थी तुमसे फिर करुंगी... खत लिखना क्यों बंद किया? खुदा गवाह है तुम्हारा खत पाकर मुझे कितनी तसकीन मिलती थी... जो भी हो... एक लफज ही लिख डालो-
कमअकल जबीना’
शबीर के गुर्दे दर्द करने लगे है। इस दर्द से वह बेहद परिचित है... जान लेवा स्थिति, घर तक पहुंचते वह एक लाश में बदल गया होगा... राहील और रुखसाना...दो प्यारे फूल उसे सम्हालेंगे... शुरु शुरु में इस दर्द का इलाज उसने डाक्टरों से करवाया था पर शीघ्र ही उसे लगा था कि इलाज के नाम पर वह बेवकूफ बनाया जा रहा है।
बीमारी की लम्बी कतार में वेटिंग रुम में बैठे-बैठे उसका दम घुटने लगता - चालीस रुपये फीस देकर भी डाक्टर चालीस सेकेंड से ज्यादा मुआयना न करता-
”कहां दर्द करता है... यहां... इधर...अच्छा ठीक हो जायेगा कोई फिक्र नहीं.. जस्ट ड्रिेंक करना छोड दीजिए... स्मोकिंग भी... कुछ देर तक... यह दवाई लीजिए... परहेज़ टमाटर... और खटटी चीज़ खाना बन्द- बाकी जो जी में आये... जस्ट एवाइड सच थिग्ंस जिस से दर्द होता हो... तुम जवाने हो... ठीक हो जाओगे।
दवाई लेता रहा शबीर। शराब भी नहीं पी। और डाक्टर भूल गया कि मरीज़ था- होगा...या नहीं ...उसके पास वैसे ही कतार-दर-कतार लोग बंधे रहे और वह अपने मेडिकल रेप्रेसन्टेटव या कम्पनी के सेल्स मैन के मशवरे पर दवाइयां बांटता रहा- दर्द का इलाज करता रहा।
तुम्हें इस तरह घबराकर जिन्दगी नहीं गुजारनी चाहिए। जरा अपने आप को फ्री करना चाहिए यह न खाओ वो ने खाओ मिस्टर शबीर यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है... तुम्हारे गुर्दे बिल्कुल ठीक हैं।
कुछ देर के लिए शबीर को लगा डाक्टर सही कह रहा है- आखिर दुनिया इतनी तरक्की कर चुकी है, यह एक्सरे की मशीन झूठ तो नहीं बोल सकती... लेकिन दिन-ब-दिन उसका दर्द बढ़ता गया- डाक्टरों के मुआयने और नुस्खे और दवाइयों के दौर भी बढ़ते गये- आखिर एक दिन उस सबसे तंग आकर शबीर ने दर्द के साथ समझौता किया- और उसको अपना लिया-बिल्कुल उसी तरह जिस तरह वह और बातें अपनाता आया है...
‘बार’ के गिलगिले वातावरण मे वह बिल्कुल भीग चुका था- शायद बुखारी ज़्यादा तेज हो चुकी थी शायद वह भीतर से ओर कमजोर हो चुका था... उसने बैठे-बैठे उस जगह को देखा जहां उसका आधा भरा गिलास कान्ती के टुकड़े सलाद की प्लेट सोडा की खाली बोतल और उसके होने का या रहे होने का अक्स मौजूद था धीरे-धीरे यह सब हट जाएगा- बैरा आकर टेबल पांेछ देगा... सोफे में पड़ा उसका शरीर वहां नहीं होगा- सब कुछ फिर से ताजा़ दिखेगा। और नया आया हुआ ग्राहक उस जगह में उतनी ही आत्मीयता तलाशेगा- जितनी शबीर अभी तक ढूंढता रहा है या पा चुका है,? उसे शायद अनुमान भी न होगा कि यहां इसी टेबुल पर एक जिन्दगी देखते देखते बासी हो गई।
सात साल में जिन्दगी आदमी को इतना अकेला कर सकती है- सिर्फ सात साल-सात दिन-सात-और उसका एक हमदर्द है। जो लफज तराशना जानता है- टुकड़े-टुकडे शब्द भेजकर उसके जख्म सहलाता है-खत उसने बुखारी की मौन लपटों पर डाल दिया और लपटों पर उसका बचा हुआ काला शरीर देखने लगा सिकुड़ा हुआ काला धब्बा जो कहीं उसके भीतर हमेशा बना रहता है। जहां शब्दों के अक्स साफ दिखते हुए भी पहचाने नहीं जाते फिर भी एक अर्थ स्पष्ट बना रहता है- वह खुश होकर जीना चाहता है। आग में सब कुछ झांेककर भी यह काला आकार बाकी क्यांे बचता है-?
वह इस कालिख से दूर एक ऐसे फासले पर बैठना चाहता है जहां इस काले दायरे में वह कैद न हो...
बैरे को भारी टिप देकर एक बार फिर सारे ‘बार’ को देखता है.. निकलने वाले दरवाजे पर खड़े होकर... आज एक फासले पर उसके ठीक सामने वाले मिरेर में सारा बार एक श्मशान की तरह सुलग रहा है- वह आईने में अपने को दूर सबसे अलग देखकर थोड़ा खुश होता है और झट से दरवाजा़ खोलकर बाहर आता है- ठंडी दिसम्बर की रात... सब कुछ जैसे जम गया है... मकान खिड़कियां रोशनियां सब जैसे जाम हो गया है, सिर्फ वह अपने तेज़ उठते कदमों की आवाज़ सुन रहा है... जो डिफंेस कालोनी की ओर बढे़ जा रहे है... जहां राहील और रुखसाना बेफिक्र सो रहे होगें- एक निश्चित सीमा तय करके शायद उन्होंने जीने की संभावना पा ली होगी...
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बाघ
आज भी उसे वैसी कोई आवाज सुनाई देती तो वह दोनों कानों में उंगलियां डालकर सब कुछ अनसुना करना चाहती। हवा का जरा भर भी तेज़ चलना और पत्तों का हिलना उसे ओर भी बेकरार कर देता- जाने क्यों इनकी सरसराहट किसी पुरानी बात को दोहराती सी लगती। वह अपने आपको थकी हुई और टूटी हुई महसूस कर रही थी- इसलिए बहुत देर तक सो जाना चाहती थी। किन्तु हर पल वह अपने आपको किसी विचार से आक्रांत पाती । अपने लिए उसके पास कोई भी व्यस्त रहने लायक काम न था- सिवा इसके कि वह सोचे, सोचती रहे- चाहे धूप सुहावनी हो या पूस की ठंड- वह नही चाहती किसी को पता चले उसने जान लिया है कि आखरी कदम तक सफर नया और आदमी पुराना ही रहता है- आदमी अपना पुरानापन अपना बासीपन किसी और ठेल देना चाहता है, पर हर बार वह उसकी राह में दीवार बनकर आता है।...
तभी तो, यह दीवारें कितनी बदल चुकी इस घर की; फिर भी इनसे आज तक वो गधं नहीं गई,‘ दरअसल मैं ही ग़लत थी, बस एक पडा़व को मंजिल समझती रही, ओफ! कितना चलती आयी मैं...?’
वह सचमुच दोड़ी थी। बहुत तेज़। उसे फिर भी पिछड़ना पड़ा, क्यों?
उसकी दौड़ पिछडेपन से उपजी एक ऊबड़-खाबड़ पगडंडी से आरम्भ होकर विस्तृत बीहडों में भटक चुकी थी और आखें बराबर जनपथ तलाशती बुझ सी गई थी- वह आंखें बन्द किए घुटनों में सर रखकर कमरे मंे बिछी टाट पर विस्तृत सी पडी़ थी- पास पड़ी चारपाई से कुछ चरमराहट सी हुई उसमें कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई- चारपाई पर लेटी अधेड़ स्त्री ने मुंह से हल्के से चादर हटा कर एक बार राज को देखा फिर उसांस भर कर सिरहाने में मंुह छिपाया। एक बार फिर धीरे से सर उठाकर राज को देखा- और अंततः क्षीण आवाज में पुकारा-”राज!“
राज ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की- मां उसी प्रकार बोलने लगी,”वहां क्या सुन्न सी पड़ी है, यहां मेरे पास आकर बैठ जा।“ राज बिना किसी उत्तर के चीथड़ांे में लिपटी बीमार मां को एकटक देखती रही- सूखी गहरी गुफाओं सी आंखें, मां राज की आंखों के बुझे स्वप्न से परिचित थी- कुंवारी का स्वप्न... एक जिन्दगी बनाने का स्वप्न। राज उठकर मां के समीप चली गई। मां ने अपनी सूखी प्राणहीन उंगलियां राज के बालों में डालने का प्रयत्न करते पूछा-
”तुम उदास हो राज?“
”हां“ राज ने ठंडा सा जबाव दिया।
”क्यों“
”क्योंकि रोज़ ऐसा प्रश्न पूछना ही उदास बना देता है। तुम्हारा आराम करना बहुत आवश्यक है मां।“ मां सोचती,”कितना सच कहती है राज मेरे सदा के लिए सो जाने से इसे छुटकारा तो मिलता। दूसरे ही क्षण वह कांप उठती,”नहीं, नहीं मंै राज को अकेला नहीं छोडूंगी... मेरी आंखें मीचते ही यहां कुत्ते आकर मुंह साफ करना शुरु करेंगे, न जाने कितने इसी आशा से इर्द-गिर्द दुम हिलाते नज़र आते हैं...पता तक न चलेगा-कब काट खायें। मेरी बच्ची बहुत नासमझ है अभी“ मां ने एक बार फिर राज की आंखों में देखा, भयंकर अधंेरी आंखें-मां की अपनी आंखें दिनोंदिन सिकुड़ती जा रही थी। पानी की हल्की सी धार पलकों के कोणों पर रुकी सी दिखाई देती- सबसे अधिक परेषानी राज को तब होती जब कोई मां के स्वास्थ्य की खबर पूछने उन के घर आता। मां की निस्बतराज को लेकर ही अधिक बात चलती- ‘बेचारी के खोटे कर्म! बाप का साया न उठता सर से अभी तक हाथ पीले होकर किसी घर की शोभा बनी होती...गंवार भी नहीं है- पूरी चैदह जमातें पढ़ी- लिखी, पर उसके लिखे-पढ़े को कौन टाल सकता है?“ यह फिजूल की बातें राज को सोचने पर मजबूर करती। उसका सर चकराने लगता। वह सोचती महामारी फैली न भंयकर अकाल पड़ा फिर अचानक इस घर को इन कुछ वर्षो में ही यह क्या हो गया? भरपूर परिवार को कौन सा बाघ खा गया? उसे लगा जैसे उनके प्राणों को वह बाघ अपने पंजों में उछाल रहा है उन्हें न खाता है न मार डालता है।
कुछ ही वर्ष पूर्व यही परिवार था-हंसता खेलता-पुरानी स्मृतियों को मां की सिहरती देह दोहराती तो वे दिन उतने हंसते-खेलते न लगते--कसमसाहट और उमस की दुपहरी में कहीं-कहीं छायाओं के धुंधले आभास से देखने में आते। राज की सूखती देह का रेशा-रेशा अपने विगत की हरियाली की पनप को दोहराता- जो अब सड़ी घास की तरह दयनीय हो चुकी थी- जिन अभावों में राज पली-बढ़ी, वे आज कुछ न लगते यदि उनका स्थायित्व इतना निश्चित और लम्बा न होता- किन्तु वे सुख के छोटे-छोटे क्षण...। उन मांसल क्षणों को वह टुकड़ा-टुकड़ा चबाना चाहती। वह दुर्लभ क्षण! जिनको बून्द-बून्द संचित कर उसने भिखारिन की तरह अपनी स्मृति की फटी पुरानी झोली में किसी अनमोल पूंजी की तरह संभाले रखा है।
उसकी डायरी के वे मैले घिसेपिटे पृष्ठ जो अनेक ऐसे फूहड़ नगमों से भरपूर हैं जिन्हें वह मदमस्त गायक उसे बसन्त की झनझनाती तानों पर गा-गा कर सुनाता- उन गाीतों को आज पढ़ कर क्यांे अजीब सी बैचेनी होती है? क्यों वह बचकाने गीत उसे बहुत परेशान करते है...
तुम्हारे लिए हूं...
भरपूर तुम्हारा...
देखो तो क्या हूं हवा की बस एक छुअन हूं’
सचमुच! हव की मात्र एक छुअन, सब बचपना कोरी भावुकता, तो इसके बाद? आज तक की जिन्दगी में क्या अहम घटा? कितना बड़ा है इस जिन्दगी का जायजा?... यह कमरा और कमरे की संक्षिप्त सी वस्तुएं आंगन से गुजरती पगडंडी फिर स्कूल को जाती सड़क और पांच मील की दूरी पर कालेज मे दम तोड़ती महत्वकांक्षाओं के तीन वर्ष- फिर वापिस घर....इसी कमरे में एक कारावास सा भुगतती मात्र एक लड़की होने की सजा? किन्तु लड़कियां तो वे भी थीं- वे चन्द एक- जिन्होंने ख्ुाद राज की प्रतिभा का लोहा माना था-पर किस कारण से वे सब उससे बहुत आगे निकल गई-?
क्या कारण है?...
क्या कारण है?...
-है, इस घर की कालिख से पुती यह दीवारें और दारिद्रय- कि वह एक मेहनत करने वाले बाप की अभागी बेटी है, जो रोग-ग्रस्त होकर भी आखरी सांस तक काम में कोल्हू के बैल सा जुटा रहा- ओैेर अंत में कमज़ोर पड़कर उस बाघ का शिकार हुआ जो उसे हर कदम पर सुरक्षा का वादा देता था और वास्तव में उसे अपनी सत्ता के, इतिहास के और संस्कृति के आवरणों में छिपे नृशंस पंजों से धीरे-धीरे चीरता राहता था। और एक दिन अंततः उसे खा गया था।
मां बाघ को पूजती है... उसे महान शक्ति समझती है-अपने स्वस्थ होनेकी उससे कामना करती है... और राज? राज को अंधेरे में अचानक उसके खूनी पंजे और आदमखोर मुंह याद आता है और वह चिल्लाती है-मां...! मां अधखुली आंखों अपने बिस्तर के करीब राज को टटोलते हुए कहती है, ‘मैं जिंदा हूं बेटी’
राज को विश्वास नहीं होता है, बिस्तर से उठकर मां के करीब जाकर उसकी नाडी पकड़ कर देखती है, फिर उसके माथे पर हाथ फेरती है,उसे चूमती है- अंधेरे में फटी आंखों से कुछ तलाशने लगती है। अचानक उसके हाथ बन्ध जाते है और वह किसी अज्ञात भय से कांपने लगती है- मां कहती है,”सो जाओ मैं स्वस्थ हूं“- स्वस्थ और अस्वस्थ का अन्तर लगता--जब परिस्थिति काबू से बाहर हो जाती तो मां अस्वस्थ होती-जब वह काबू कर पाती- जब पीड़ा हद से गुजर कर भी सिर्फ इसलिए पीड़ा नहीं रहती कि वे आदी हो गए होते तो अस्वस्थ को स्वस्थ कहने में कोई फर्क नज़र न आता। राज मान जाती मां स्वस्थ है इसलिए सो जाती, और उसका स्वप्न... सिरहाने का गीला ओर गालों से चिपका हुआ फटा लिहाफ......! उसे कोई नींद में पुचकारता ”पगली रोती है! तूं ही तो कहा करती थी, ऐसी ज़िन्दगी से अच्छा है आदमी मर जाये, पापा!“
तो पापा मर गए! तब इस घर की दीवारों से यह बरसों पुरानी पापा के शरीर की सी गंध क्यों चिपकी हुई है? हल्के-हल्के पत्तों की सरसराहट से क्यों पापा के अन्तिम असपष्ट षब्द कानों में गूंजने लगते हैं--”बेटी मैं जियूंगा..ऐसे छोड के थोडे ही जाऊंगा तुम्हें... तुम्हारे हाथ पीले करने है“ औेर वह जीवनभिलाषी फटी आंखों से पतझर में चिनारों से झरते पत्तो की चाप सुनते ही किसी शिशु की भांति सहम उठता, जैसे एक-एक पत्ते का गिरना मौत की निकटता का अहसास दिलाता हो- राज यह सब भूल जाना चाहती, कुछ तो नया हो, कुछ ऐसा जो यह अतीत उससे छुड़ाये इसी प्रतीक्षा में एक रोज...
सारा गांव सहमा हुआ लग रहा था- चारों ओर मौत का सा सन्नाटा... किसी-किसी जगह से एक अजीब सी फुसफुसाहट इस भयंकर मौन को ओर भी भयानक बना देती-हर जगह से एक साजिश की सी बू आ रही थी। सब पर बाघ का भय छाने लगा था... गहराने लगा था, किसी को नाखून से खुरचता- कइयांे को पंजे से छीलता और अधिकतर को अपने मंुह का ग्रास बनाता, वह बढ़ता चला जा रहा था- कुछ लोग बाघ को पूज कर प्रसन्न करते तो कई डर कर भक्ति जताते किन्तु मन ही मन सभी उससे छुटकारा पाना चाहते।एक रोज़ मां बहुत उदास हो कर राज से कहने लगी,”तूं डरती क्यों है बेटी... पूजा किया कर थोडी़ सी, सारा डर भाग जायेगा।“ राज मां की पूजी और पूजारी की पूजा का अन्तर समझती थी- वह सोचती कितनी भोली है मां फिर भी खामोश रहती।
तो सभी ग्रामवासी सहमत हुए- ”बाघ एक खतरनाक जानवर है, हमारा जानी दुश्मन, इसे मारा जाये। पर कुछ लोग जो बाघ के आतंक को एक दैवी प्रकोप समझते थे, इस प्रस्ताव का विरोध करने लगे- लेकिन चूंकि अधिकाशं लोग बाघ के जुल्म से तंग आ चुके थे इसलिए सभी ग्रामवासी बाघ को मारने का तहैया कर चुके थे।
इस बात को सुनकर राज बहुत खुश थी। मां को बहुत दुःख हो रहा था, लोगांे को हो क्या गया है? ऐसी पवित्र शक्ति का विनाश! वो बाघ को धार्मिक शक्ति ही नहीं जीवन संरक्षक समझती थी, और बाघ? निश्चिन्तता ऐसी किसी स्थिति की परवाह किए बगैर बहुत मस्त होकर सो रहा था। अपार जन-समूह उमड़ आया था। बाघ की आंखें खुली। उसने एक बार सारी भीड़ का जायज़ा एक नजर दौडा़ कर लिया। फिर अपनी जगह मन ही मन मुस्कराते हुए अपने पंजे चाटने लगा-बाघ न दहाडा़ और न कोई प्रतिक्रिया दिखाई। कुछ लोग जो बाघ को वाकई मार सकते थे, बाघ के पास पहुंचे। बाघ ने पुरखांे से हासिल की हुई कुछ खाल, कुुछ बाघछाल, उनके हाथ में सौंपते हएु कुटिल मुस्कान से देखा-- वे लोग विजयी मुद्रा में कु्रद्व भीड़ के आगे जा़ेर-जा़ेर से बोलने लगे, ‘शांत हो जाओ भाइयो! हमारा विश्वास सच निकला- बाघ अंहिसा का पुजारी है- वह आपकी शक्ति का सम्मान करता है। उसके लिए इतना प्रमाण काफी है कि उसने आप से न्याय की आशा की है... हमें आशा है.....उसके तुच्छ प्राण लेने से हम अंहिसावादियों को कई लाभ न होगा- आज से वह हमारी देखरेख में रहेगा।’
सब ओर शान्ति और सन्नाटा सा उतर आया था लोग कुछ निश्चित नहीं कर पा रहे थे- राज दान्त पीस रही थी। मां बीमार होकर भी यह दृष्य देखने लाठी टेकती पहुंच गई थी- उसका पक्का विश्वास था कि बाघ को कोई नहीं मार सकता- सभी अनमने भाव से घिसटते पैरों घर लौट आए थे।
राज फिर मां के पास आकर बैठ गई। बैठे-बैठे उसकी आंख लग गई। उसने देखा सारा ही गांव भयानक स्थिति में किसी अनिश्चित दिशा में भाग रहा है- लोगों को किसी चीज़ की सुध-बुध नहीं- वे सिर्फ हांप रहे है और भागते जा रहे है और उनके पीछे वही लोग जो बाघ से खाल और बाघछाल प्राप्त कर चुके थे... बाघ बने उनका पीछा कर रहे है- राज इस सारी स्थिति से घबरा कर चीखने को हुई... उसकी आंख खुली और वह जा़ेर से चिल्ला उठी, ‘मां’!... किन्तु मां गहरी नींद में सो रही थी...।
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ख़त
आखिर क्या सोच कर कलम थामी? और अगर खत ही लिखना है तो बिजली क्यों बुझा दी? कुछ समझ नहीं पा रहा था - या समझ रहा था - पर निश्चित नहीं कर पा रहा था। कश्मीर में गर्मियों के दिन - और लोगों के लिए भले ही मौज-मस्ती के हों हम जैसों के लिए - मक्खियां, मच्छर और गटर की बदबू फैलाने वाले ही होते हैं। पर उसे लिखना है... बहुत आजजी दिचााई है उसने, चिन्ता भी है उसे बहुत। उसके बगैर अकेला में कैस महसूस करता हूं, वह जानना चाहती है। मेरा जेहन उस शब्द के लिए उतावला हो उठा, ”प्रिय!“ पर न जाने क्यो यह शब्द बेहूदा सा लगने लगा... एक बैचेनी से दिल दहल उठा। प्रिय? एक झिझक सी होने लगी। लिखा तो उसने भी अपने खत में ‘प्रिय’ ही था पर मुझे कितना हास्यास्पद लगा था - जैसे किसी रोमेंटिक नावल से उधार लिया गया शब्द। फिर कौन सा शब्द है जो लिखूं? आकाश में सफेद हल्के बादलों में से चान्द बिल्कुल बाहर निकल आया था - जैसे मेरी विवशता पर कमरे में कोई हंसा हो - सहसा पहली बार मैने सारे कमरे को ध्यान से देखा-चांदनी पूरे कमरे में छितर आई थी और सारा कमरा रूआंसा लग रहा था। सभी चीजें अस्त-व्यस्त थी... सवेरे के जूठे बर्तन... निकाले हुए कपड़े और एक कोने में किचन का बिखरा हुआ सामान...
इन सब चीजों से नज़रें हटाकर मैं एकदम हाथ में लिए कोरे पैड को देखने लगा। मन में उस अनुभव को जगाने लगा जो उसके साथ जुड़ा हो - पर कहीं कुछ स्पष्ट नहीं लग रहा था। आंखें दूर आकाश में बिना उद्देश्य भटकने लगी। पडोसी मकान के बरामदे का लैम्प जला। मेरी नज़रे वहां घूमी। कुर्सी में दुबके सरदार जी बराबर जम्भाइयां ले रहे थे। बराबर फैलता और सिकुड़ता मुखमंडल। सरदार जी खिन्न होकर चान्द की और एकटक देखने लगे- उनकी हरकत से मुझे एक अजीब सी कोफत होेने लगी। क्या वे भी इसी अर्थ में चान्द देख रहे हैं जैसे मैं? अचानक उठकर वे अन्दर कमरे में चले गये- पर बिजली का लैम्प जला छोड़ गये। मेरे हाथ में पेपरवेट उछलने लगा- अचानक मेरे पांव फर्श पर गिरे पैन से छू गये- मुझे अपने कमरे का और अपनी उपिस्थति का फिर बोध हुआ। मैं फिर से ख़त लिखने में जुट गया। हल्की सी हवा चलने लगी थी- गर्मी का और अधिक अहसास हो रहा था- ”गांव में इतनी गर्मी नहीं होती,अबके अपने लिए ज़रुर ‘फैन’ खरीदना,“ उसकी जिद थी। बहुत कोशिश करके भी मैं पच्चीस रुपये से ज्यादा नहीं बचा पाया था। यह देखकर कि पच्चीस रुपये में ‘फैन’ नहीं खरीदा जा सकता मैने -बिटू’ के लिए ‘किट’ खरीदना मुनासिब समझा था। उसी शाम दीनानाथ जी बहुत सी इधर-उधर की बातें करने के बाद मुझसे पचास रुपये उधार मांगने लगे थे - यह सोचकर कि इनके मकान में रह रहा हूं- मैंने बड़ी सफाई से सिर्फ पच्चीस रुपये दे पाने की विवशता ज़ाहिर की थी - जिस प्रकार पच्चीस रुपयों का उन्होंने स्वागत किया था उससे साफ ज़ाहिर था कि उन्हें मुझसे पच्चीस की भी अपेक्षा नहीं थी - और मैं बाद में कितना पछताया था कि कम बोल कर दस ही क्यों नहीं दिये थे।
इन सब चीजों से नज़रें हटाकर मैं एकदम हाथ में लिए कोरे पैड को देखने लगा। मन में उस अनुभव को जगाने लगा जो उसके साथ जुड़ा हो - पर कहीं कुछ स्पष्ट नहीं लग रहा था। आंखें दूर आकाश में बिना उद्देश्य भटकने लगी। पडोसी मकान के बरामदे का लैम्प जला। मेरी नज़रे वहां घूमी। कुर्सी में दुबके सरदार जी बराबर जम्भाइयां ले रहे थे। बराबर फैलता और सिकुड़ता मुखमंडल। सरदार जी खिन्न होकर चान्द की और एकटक देखने लगे- उनकी हरकत से मुझे एक अजीब सी कोफत होेने लगी। क्या वे भी इसी अर्थ में चान्द देख रहे हैं जैसे मैं? अचानक उठकर वे अन्दर कमरे में चले गये- पर बिजली का लैम्प जला छोड़ गये। मेरे हाथ में पेपरवेट उछलने लगा- अचानक मेरे पांव फर्श पर गिरे पैन से छू गये- मुझे अपने कमरे का और अपनी उपिस्थति का फिर बोध हुआ। मैं फिर से ख़त लिखने में जुट गया। हल्की सी हवा चलने लगी थी- गर्मी का और अधिक अहसास हो रहा था- ”गांव में इतनी गर्मी नहीं होती,अबके अपने लिए ज़रुर ‘फैन’ खरीदना,“ उसकी जिद थी। बहुत कोशिश करके भी मैं पच्चीस रुपये से ज्यादा नहीं बचा पाया था। यह देखकर कि पच्चीस रुपये में ‘फैन’ नहीं खरीदा जा सकता मैने -बिटू’ के लिए ‘किट’ खरीदना मुनासिब समझा था। उसी शाम दीनानाथ जी बहुत सी इधर-उधर की बातें करने के बाद मुझसे पचास रुपये उधार मांगने लगे थे - यह सोचकर कि इनके मकान में रह रहा हूं- मैंने बड़ी सफाई से सिर्फ पच्चीस रुपये दे पाने की विवशता ज़ाहिर की थी - जिस प्रकार पच्चीस रुपयों का उन्होंने स्वागत किया था उससे साफ ज़ाहिर था कि उन्हें मुझसे पच्चीस की भी अपेक्षा नहीं थी - और मैं बाद में कितना पछताया था कि कम बोल कर दस ही क्यों नहीं दिये थे।
ऊपर की मंजिल में चलने की हल्की आहट हुई - मकान मालिक की लड़की पूरे पच्चीस साल की कुंआरी बेकरार टहल रही होगी और उसका बाप बीड़ी पर बीड़ी पीता इस सियाह चान्दनी को देख रहा होगा... एक लम्बा उसांसा मेरे कमरे की खिड़की से गिरता हुआ आंगन में बिखर गया -
”ओह! बिटी - नींद नहीं आ रही तुझे?“ मकान मालिक अपने बेटी से पूछ रहा था।
”वैसे ही टहल रही थी, गर्मी बहुत है...।“
”क्या खाक़ गर्मी है? थोड़े से बादल हो जाते हैं तो लिहाफ लेकर बैठ जाती हो... तुम दिनो दिन काहिल हो रही हो...।“
इस बार फिर एक भरपूर उसांस मेरे कानों से चिपक जाता है - सारे बदन में एक सिहरन सी दौड़ जाती है।
”आखिर तुम गई क्यों नहीं उनके साथ?“ इस बार पिता के स्वर में न चिड़चिड़ाहट थी न आक्रोश... एक उदास भाव, बस!
कैसे जाती?
- क्यों?
- ओफ! फैन क्यो बन्द कर दिया आपने?
- इसके चलते रहने से मुझे झपकी तक नहीं आती - खट-खट करता रहता है, बहुत पुराना है न मेरी तरह...
‘...प्रिय!’ लिखना हीे होगा, कितना ही बेहूदा और हास्यास्पद क्यांे न लगे-पर एक रिश्ता होता है जो होने-न-होने पर भी निभाना होता है और रिश्ते तो अनकहे ही चलते रहते हंै। क्या वह सब लिखूं जो सच है? मात्र सच! जैसे मेरा मकान मालिक और जवानी को अलविदा कहती उसकी कुंवारी बेटी... पर यह मात्र सच नहीं- सच है, या नहीं है... पर यह कितने हैं और कितने नहीं है... यह मैं कितना जानता हूं-? अपनी यह सफाई ख़त के लिए काफी थी- खत लिखने बैठा- बत्ती फिर से जलायी और कलम हाथ में थाम लिया- ‘बच्चों को प्यार, खूब चिन्ता रहती है... तुम छुटटी का आवेदन दे दो... कुछ रोज़ आ जायेगी तो आओगी तो...तो...।’ नहीं फाड़ दो इसे... यह मुमकिन नहीं... वह भी कहां आने वाली है... लिख देगी छुटिटयां नही मिल रही। लिख दूं नौकरी छोड़ दो... दिमाग खराब हो रहा है...
ऊपर कोई फिर चलने-फिरने लगा है... सीढ़िया उतरने की आवाज़ और मेरे दरवाजे़ पर दस्तक ... ओह! यह क्या?
- आइये... कहिए क्या सेवा...
- माचिस है आपके पास... पापा लानी भूल गए... सिग्रेट की लत है न...
वहां उस कोने में है... वही जहां बर्तन रखे हैं।
- आप सोये नहीं... मैं डर गई थी आप सो न गए हांे।
- ऐसा है कि...
- गर्मी बहुत है...
- जी हां...
- नींद नहीं आती... मैं ला रही हूं।
- नींद नहीं आती... मैं ला रही हूं।
- क्या?
- माचिस...।
- ओ, हां! ... अच्छा।
गई, पर हिला सा दिया... कभी कभार जब भी मेरे कमरे में आती है तो मेरे दिल में सौ प्रकार की प्रतिक्रियायें होती है...।
रात को खामोशी में मच्छरों और मक्खियों की मिली जुली भनभनाहट उभरती है... दूर से बजते रेडियों पर कोई कलासिकल धुन और रमज़ान भिखारी की पागलपन मंे या मच्छरों से बैचेन होकर दी गई नंगी गालियां... सब कुछ ऐसा अहसास दे रहा था जैसे सड़क पर आवारा घूम रहा हूं... बिल्कुल बेघर - फिर भी मन की एकाग्रता का निश्चय और किसी दूसरी जगह रहने का प्रयत्न ढहता हुआ नज़र आ रहा था...।
- तुम लैम्प क्यों नहीं बुझाती? कमरे में ढेर सारे मच्छर घुस जाते हैं, फिर उसी चिड़चिड़े भाव से पापा ने बिटी को टोका है।
- आप मच्छरदानी क्यों नहीं लाते? अपनी आवाज़ को और सख्त और ऊंचा करके बिटी उबल पड़ी।
- यह जवाब है तेरा, इतनी रात गये तक लैम्प जलता रखो तो नीद...
‘टिक’ लैम्प बुझ गया किन्तु दो सूनी आंखें फिर क्लांत-शांत आकाश तकने लगी। आकाश मन में उठे अभावों का प्रत्यक्ष प्रमाण - न जाने क्यों मैं ऐसा सोचता हूं , सम्भव है उसने आंख झपक पर नींद का स्वागत किया हो! पर यह कैसे हो सकता है... उसांसों का अवरिल फव्वारा मुझे बराबर छूता हुआ भिगो रहा था...।
एक बार फिर आधे लिखे खत का मज़मून मैं पड़ने लग जाता हूं - प्रत्येक शब्द कोरी लिखावट के सिवा कुछ नहीं, बस जैसे दफतर की किसी फाईल का यंत्रटंकित अक्षर... मैं कोशिश करने लगा अपनी पत्नी का वह रूप स्मरण करूं जो मुझे उतेजित करता था, भावनाओं के बवंडर मे उछालता तैराता था - एक क्षण के लिए इस स्मरण की खोज में आकाश के मनमोहक और मादक चलचित्रों में करने लगा... एक मटमैला पर्दा... गहरा अधेंरा... फिर कोशिश की... हडिडयों के अस्त-व्यस्त पिंजर... ढेर के ढेर पिघलते सीसे... ओफ! वह सौन्दर्य, वह लावण्य... वह पाठय पुस्तकों की रोमानी कवितायें... कहीं हैं क्या? नहीं, सिर्फ पढ़ा सुना है... कभी देखा नहीं... हां सोचा ज़रूर और मैं मानता आया हूं मंै छू चुका हूं - भोग चुका हूं... ऐसी कितनी बातें है जिनको सोचकर ही संतोष करना पड़ता है - किसने ये सारे स्वप्न हमारी आंखों से छीने है?
मैने आकाश की ओर से घबराहट में आंखे हटा ली और सिग्रेट सुलगाने के लिए माचिस तलाशने लगा। मैं भूल गया था कि माचिस ‘वह’ ले गई है। बाहर के गलियारे में कुछ फुसफुसाहट होने लगी... किसी के दबे कदमों चलने की आवाज़। यह सब नया नहीं है मेरे लिए - पहले पहल कुछ अजीब लगता था - उठकर दीवार से कान लगाकर या ‘चिक’ की ओट में बैठकर इनकी बातें सुनता था - पर अब शर्मिन्दा होता हूं...।
- पापा सो गये हैं तेरे?--लड़के ने षायद उससे निर्भय रहने का रास्ता पूछा था।
- तुम कई दिनों से नहीं आये... मैं डर गई थी...
- किस बात से?
- डर गई थी... ऐसे ही।
- मुझे अब यहां इस तरह आना बहुत अपमानजनक लगता है बिटू।
- शी... आहिस्ता ये सुअर अभी जाग रहा है...
- तुम्हारा वहम है बिटू... कौन जागता है? सब सो रहे है... खूब खुर्राटे ले-ले कर सो रहे है... जागने की किसे फुर्सत है?
- तुम बहुत बड़ी बातें करने लगे हो।
- जब आदमी का पेट आधा रह जाता है तो बाकी पेट वह बड़ी बड़ी बातों से भरता है।
- मुझे भी कुछ बड़ी बातें सिखाओ न। मैं तो रोज़ ही आधा पेट रहती हूं...।
- क्यांे तुम रेडियो नहीं सुनती... भाषण नहीं सुनती... अध्यात्मवाद और भारतीय संस्कृति पर किसी का लेक्चर नहीं सुनती... एक बार ध्यान से सुनो सारी भूख मिट जायेगी...
- कोई और रास्ता नहीं?
- है। चलो भाग चलें।
- कहां?
- कहीं भी।
-पागल न बनो आज मिलने का यह चोर दावाजा़ है कल फुटपाथ तक पर जगह न मिलेगी... है ही क्या हमारे पास...? किस बिसात पर भागेंगे?
- क्यों मुझ पर भरोसा नहीं... मैं और कुछ न सही मज़दूरी तो कर सकता हूं... तुम्हें खुश रख सकता हूं।
- क्या करोगे तुम... पहले ही बहुत हृष्टपुष्ट हो न... तिल-तिल करके अपने शरीर को पुस्तकों में गला दिया... अब यह शरीर कोई कठोर काम कर सकेगा?।
- पहले पहल दिक्कत तो होगी पर फिर आदी हो जाऊंगा।
- दस दिन में तुम्हारा शरीर अस्थि-पिंजर हो जायेगा... मैं इंतजार करुंगी... तुम्हे जाॅब मिलेगा... मुझे यकीन है...
- ओफ! जाॅब...
- चलो वहां... पंडाल पर कुछ देर...
- नहीं अब जाता हूं...
- ऐसे ही जाओगे... कुछ देर...
- हां ऐसे ही... आज जी कुछ अजीब सा...
-क्यों मुझसे बोर हो गये हो?
- ..............
- तब चलूं मैं... चलती हूं...
-अ-श...
- अब क्या है?
- आह!
- आह!
धत! और नहीं देखो। चिक उतार दो... आंखें बन्द कर लो... उनकी मजबूरी है... आये दिन की- कुछ याद आ रहा है... बहुत कुछ ठीक हो शायद कुछ भी नहीं... हां खत लिखना है... फिर सन्नाटा... फिर दबे कदमों ऊपर के कमरे में चलने की चरमराहट...।
- तू कहां गई थी? पापा फिर टोक रहा है...
- बाथरुम।
- क्यों?
- नहीं जाती। क्या यही इसी कमरे में...!
- ओहो... मैं पूछ रहा था, तबीयत ठीक है न?
- हां ठीक है... आप कुछ अस्वस्थ लग रहे है... गोली दूं- नीदं की?
- नींद की नही... कोई ठोस गोली दो... हमेशा सुलाने वाली...
फिर कई तकाज़,े कई सफाइयां और दो तरफा विवशता के आरोप प्रत्यारोप भरे आंसू... गीले वक्ष, सुबकती छातियां, सुलाने वाली रात की पीटती हुई थपकियां...रात बिल्कुल चुप... निरीह चुप... नींद का ऊपरी तौर पूरा साम्राज्य, फिर सोचा..., क्या खत लिखना बहुत ज़रुरी है... क्या किसी को अपना कुशल भेजना आवश्यक है? किस ज़िन्दगी का समाचार, किस खुशी की खबर, कौन सी चीज़ साझी होगी... या हो सकती है? यहीं न कि उम्र की कोई रोक न होते हुए भी एक दिक्कत है... हर प्रकार से तुम्हारा पति होकर भी सिर्फ कुछ सिक्कों की खातिर जलावतन हूं और कईयों को घरों में ही जलावतन देख रहा हूं... कोई जरुरत नहीं कि कहीं गांव से निकाल दो या शहर से निष्कासित कर दो मुझे। मैं तम्हारे पास से ही निर्वासित हूं... लिखूं फिर तुम्हें...? देखो फिर चान्द निकल आया है।...पढ़ो... यह कोरा खत पढ़ना ही शायद बेहतर रहेगा।
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बिना मतलब कहानी
काफी देर से उसका हाथ कलम थामे कागज़ पर रुका है और वह सोच रहा है - यह सब क्यों लिख रहा हूं मैं? इस बात का कोई ठोस जवाब उसे खुद से नहीं मिल पाया तो वह कुछ और ही सोचने लगा। नहीं, वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था, या फिर कोई बात बराबर भुला देना चाह रहा था - उसका मन मितलाने लगा और उसने घुटनों पर फैलाई चादर लम्बी खींचकर अपना सारा जिस्म बिस्तर पर पटक दिया। आंखें जोर से बन्द करके वह अपने आपक को हलका महसूसना चाहता था किन्तु उसका सिर बहुत भारी हो चुका था। सामने हमेशा की तरह कुछ एक किताबें, कागज़, चिटिठयां और लिफाफे बिखरे पड़े है - कमरे के एक कोने में उसकी पत्नी सन्तोष, घुटनों पर सिर टिकाये पछतावे की मुद्रा में बैठी स्वेटर बुन रही है और आंगन में पांचवें दर्जे में पढ़ रही मिनी अन्य बच्चों के साथ कोई बोसीदा खेल खेल रही है... मिनी का क़द कमान की तरह खिचा हुआ निकल रहा है... यही एक बात है जिस पर उसे सन्तोष होता है। किन्तु मिनी की कतरा-कतरा उभरती बुद्धी उसे परेशान करती, वह और बच्चों में सुन्दर, स्फूर्त, फूटते बुद्धि के चश्मे देखकर मिनी को लेकर बहुत मायूस हो जाता है - किन्तु वास्तव में मायूसी की वजह मिनी नहीं, न पत्नी का सिलेट सा कोरा और खाली चेहरा,न आसपास बिखरी उसकी ऐसी जिन्दगी जो कागज़ के टुकड़ों से रद्दी के ढेरों में बदलती मलबे में जज़्ब होकर इलाके के सीमांत पर दम तोड़ती है। ऐसा सब कुछ वह अपने हर परिचित के साथ जुड़ा देख रहा है - किन्तु इस बदतरी को छिपाने के लोगों के तरीके देखकर वह मायूस होता गया है। शायद यह बात भी सही नहीं। अपनी मायूसी पर इस क़दर सोचते हुए ही वह शायद और मायूस हो जाता है... पर मायूस तो वह है - उसे हर काम एक जोखिम सा लगता है, यहां तक कि बैठे-बैठे मज़े से कांगड़ी सेंकते हुए यदि कांगड़ी का सेंक नर्म पड़ जाये तो सेंक पलटने के लिए वह पत्नी को आवाज देना चाहता है, तभी वह सोचता है कितनी निगोड़ी है उसकी पत्नी जो इतना नहीं समझती कि सवेरे से वह एक करवट नहीं बदल सका, क्या उसे अन्दाज़ा नहीं हो सकता कि कांगड़ी का सेंक नर्म पड़ गया होगा। तभी उसका ध्यान सवेरे से ठिठुर रही पत्नी पर जाता है। उसने नल के पाला लगे पानी से सुबह बर्तन धोये, फिर गीली लकड़ी से चूल्हा सुलगाया - चाय बनायी और खाना तैयार किया था। उसे अपनी बीवी बड़ी सख्तजान लगने लगी, इतनी सक़त; ऐसा जीवट उसके पास आता कहां से है? वह सोचने लगा कि आखिर वह इतना नाकारा क्योंकर है...? लेकिन वह नाकारा कहां है?... उसके शाने तो काम करने को फड़फड़ाते रहते हैं... वह तो जैसे सारी दुनिया का दम अपनी मुट्ठी में साधे हर काम करने को उतावला है... किन्तु उसका शरीर उसके हर संकल्प को नोचकर रख देता है... वह चाहता है कि हर मशीन की तरह उसके शरीर की भी कहीं ओवरहालिंग हो सके - शरीर की बिखर चुकी और स्थानच्युत हो चुकी मांसपेशियों को किसी कारखाने में वह दुरुस्त करा आये... करने और न कर पानी की इस स्थिति से ऊबकर ही वह अकसर बिस्तर में दुबक जाता है या फिर कमरे की उस खास खिड़की से बाहर झांकता रहता है जो उसके बिल्कुल दाहिने हाथ बगल में लगी है। सामने कीशवनाथ के मकान की टेड़ी तिरछी छत कितने अर्से से उसे अपने सर पर आ गिरने को तैयार मालूम पड़ती है... कभी कभी उसका मन करता है कि पूरा ज़ोर लगाकर वह इस छत को या तो ठीक से सीधा कर दे या फिर सारे कबाड़-खाने को एक हथेली पर उठाकर घर वालों सहित दरिया में डुबो दे। कीशवनाथ की बहू, बेटियां, बेटा, बीवी और पोता अपनी धमाकचैकड़ी से सारे मकान के तार झनझनाते रहते हैै। पुराना बोसिदा मकान कभी भय से कांप उठता है तो कभी खुशी से उछलने लगता है- पर दोनों सूरतों में सारे मकान की नींवें उखड़ती नज़र आने लगती है। वहीं खिड़की पर टिककर वह आंखें बन्द करता है और लम्बी सांस खींचकर रह जाता है। कीशवनाथ की बहू, रानी, मात्र पेटीकोट और ब्लौज़ कट जम्पर में छत से टंगी रस्सी पर लटकती लम्बी बांस पर अपनी साड़ी जम्पर पेटीकोट सिलवार और कमीज़ धोकर निचोड़ते हुए सुखाने को फैलाती है... कपड़े फैलाते हुए वह जैसे खुद भी सारे बांस पर फैलाना चाहती है... या जिस तरीके से वह शरीर का एक तिहाई भाग खिड़की से बाहर झुलाती है लगता है कि सिर के बल अभी दूसरे छोर की खिड़की पर बैठे आदमी की गोद में गिर जायेगी। इस बीच वह उसे और अपने ब्लौज़ से बाहर उभर आते उरोजों़ को बार-बार देखती रहती है और वह भी र्नििर्नमेष बिना सेंसर रानी का अंग प्रत्यग खुलकर ओर खिलकर देखता रहता है। पर वह ऐसे देखता है जैसे आकाश में उड़ते बैलून देख रहा हो... सब कुछ दूर जाता हुआ...
कीशवनाथ की बेटी सुषमा हर एतिवार को दो एक घंटा इसी जगह कोई किताब या मैगजी़न थामे बाल फैलाये पड़ी रहती है। इस हिस्से में घर का कोई मर्द नज़र ही नहीं आता। सिर्फ कभी-कभी अवतार जी की दूर से आती खीझ और चिड़चिडाहट भरी आवाज रानी को पुकारती सुनाई देती है ”मैं लेट हो रहा हूं..... जल्दी करो...।“ सवेरे से लेकर रात देर गये तक इस घर में एक तहलका-सा क्यों कर मचा रहता है? उन्हें क्या इस बात का ज़रा भर भी वहम नही कि किसी भी क्षण इनका वजूद इस मकान के मलबे में दब सकता है...। सबसे अधिक रोक न पाने वाला गुस्सा या जलन या इसी प्रकार की ईष्र्या से मिला जुला उसका मन कीशवनाथ की बेटी सुषमा के ठाठ से भरे चेहरे पर खिली हुई हल्की आंच की सी लाली और धुली हुई स्वच्छ निष्कपट मुस्कान से भर जाता है। - सुषमा का हर हिस्सा अपनी जगह मुकम्मल और बराबर नपी तुली नफासत से भरपूर... जब उसके घर की दीवार से चिपकती हुई नन्हें-नन्हें डग भरते दफतर रवाना होती है तो वह सोचने लगता है... सुषमा को भी मेरी तरह दफतर न जाने का ख्याल क्यों नहीं आता? सुषमा एकटक उसे अपनी ओर देखते हुए पाकर मान से भर जाती है... इसी मान को दोहरा करके वह उसे नमस्कार करती है - अपनी पलकों को झुककर वह बिना कुछ कहे वापिस नमस्कार का जवाब देता है।
कीशवनाथ की बेटी सुषमा हर एतिवार को दो एक घंटा इसी जगह कोई किताब या मैगजी़न थामे बाल फैलाये पड़ी रहती है। इस हिस्से में घर का कोई मर्द नज़र ही नहीं आता। सिर्फ कभी-कभी अवतार जी की दूर से आती खीझ और चिड़चिडाहट भरी आवाज रानी को पुकारती सुनाई देती है ”मैं लेट हो रहा हूं..... जल्दी करो...।“ सवेरे से लेकर रात देर गये तक इस घर में एक तहलका-सा क्यों कर मचा रहता है? उन्हें क्या इस बात का ज़रा भर भी वहम नही कि किसी भी क्षण इनका वजूद इस मकान के मलबे में दब सकता है...। सबसे अधिक रोक न पाने वाला गुस्सा या जलन या इसी प्रकार की ईष्र्या से मिला जुला उसका मन कीशवनाथ की बेटी सुषमा के ठाठ से भरे चेहरे पर खिली हुई हल्की आंच की सी लाली और धुली हुई स्वच्छ निष्कपट मुस्कान से भर जाता है। - सुषमा का हर हिस्सा अपनी जगह मुकम्मल और बराबर नपी तुली नफासत से भरपूर... जब उसके घर की दीवार से चिपकती हुई नन्हें-नन्हें डग भरते दफतर रवाना होती है तो वह सोचने लगता है... सुषमा को भी मेरी तरह दफतर न जाने का ख्याल क्यों नहीं आता? सुषमा एकटक उसे अपनी ओर देखते हुए पाकर मान से भर जाती है... इसी मान को दोहरा करके वह उसे नमस्कार करती है - अपनी पलकों को झुककर वह बिना कुछ कहे वापिस नमस्कार का जवाब देता है।
वह गली में मुड़कर ओझल हो जाती है। गली की खाली नोक को वह बहुत देर तक तकता रहता है। आवाज़ का महीन गुंजन उसके कानों में तैरता रहता है - और तभी वह इस माया-मोह पर अपनी चेतना के जर्ब चस्पां करता है और कहीं वापिस लौट आता है... जहां कि वह कभी नहीं हो सकता... सिर्फ एक बोझ बराबर बना रहता है... जो उसका आकार है जो कि अभी नहीं था... उसे उस चमात्कार पर विश्वास होने लगता है जहां एक तपस्वी अपने शरीर से निकलकर आत्मरूप संसारी की हर वस्तु में घुस सकता था किन्तु विडम्बना है कि उसे फिर अपने शरीर के कटघरे में लौट आना पड़ता था... लेकिन अपने शरीर से वह इतना बदज़न हो कैसे सकता है? जबकि इसकी सुरक्षा... और लालन पालन, देखभाल और इसकी उपयोगिता का वह दीवाना रहा है। शरीर रुकावट है या मन... यह दोनों अपने आप को एक दूसरे के आगे खडा कर के दोषी बताते हैं.....मैं इन दोनो को कासता हूं ........पर कौन सा... मैं...?... जो इन्हें जानता है, समझता है, पहचानता है और फिर भी... यह शायद सच नहीं... किन्तु स्वयं होना वह कभी नहीं हो सकता जो वह मात्र है... या दिखाई देता है... और न होना मेरी पहली शर्त थी मुझसे जुड़ी हुई... जिसे मैं केवल... टालता आ रहा हूं... पर इन सब बातों का मुझसे क्योंकर सरोकर है... मैं किसी भी हालत में उतना ही हूं जितना हो पाता हूं। न हो पाना तो एक तरह की विवशता है तो मेरे बस की बात नहीं। तब, क्या मैं इन सब बातों के लिए जवाबदेह हूं जो मुझसे नहीं जुड़ी हैं...? लेकिन यह कौन तय करता है कि मुझसे क्या जुड़ा है और क्या नहीं? मैं लेखक हूं क्योंकि में लिखता हूं। मैं चोर हूं क्योंकि मैं चोरी करता हूं। क्या मैं मात्र वहीं हूं जो मैं करता हूं? और क्या मैं मात्र वहीं नही करता हूं जो मैं समझा जाता हूं कि मैं हूं...।
आवाज़ के मोहक गुंजन को उसका मन फिर तरसने लगता है, कमरे के भीतर मुडकर वह बीवी को तलाषने लगता है। सामने बैठी बीवी उसे क्यों नहीं दिख पाई... ‘खाना तो खिलाओ... दफतर को देर हो रही है।’ पत्नी का भावशून्य चेहरा और अधिक स्थिर और भावविहीन हो जाता है। तेजी से ऊन समेटकर वह पति को खाना खिलाने में जुट जाती है - ‘सच पूछो तो आज दफतर जाने का मन ही नहीं है’ - ‘ठीक है... ऐसे ही चलता हो तो जाने की जरूरत क्या है..’ पत्नी वैसे ही निर्विकार भाव से उतर देती है। उसके भीतर यह अनिच्छा का सांप क्यों घुस आया है - क्या बुराई है दफतर जाने में? वह और लोगों से अलग तो है नहीं, कपड़े पहना कर वह दफतर जाने की तैयारी में जुट जाता है। वह हैरान है कि लोग इतनी भाग दौड़ क्यों कर रहे है?
वह इन्सान की बुनियादी ज़रूरतों पर सोचने लगता है। उसे सब कुछ आसान दिखाई देता है। इस हिम्मत से तो ज़िन्दगी इतनी पेचीदा नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन दुनिया जो उसके सामने है क्या इतनी ही है - क्या यह घट नहीं सकती या कि इसका विस्तार नहीं हो सकता? अगर मुझे नहीं होना है तो मैं क्यों कर हुआ हूं... मेरे होने की अगली सम्भावना क्या है? मेरी सारी अगली सम्भावनायें एक निश्चित अन्त की द्योतक है... मैं वह निश्चित अन्त पहचान रहा हूं ओैर अपने प्रमाणों को मज़बूत कर रहा हूं... मेरा विकल्प मेरा प्रमाण नहीं... मैं अपने संसार का स्वयं एकमात्र प्रमाण हो सकता हूं... चेतनायुक्त किसी भी वस्तु सा कहीं समा सकता हूं... सुषमा... मेरी अपनी वस्तुपरकता... नमस्कार का वास्ताविक जवाब... नमस्कार नहीं... मेरा आशय है... उस आशय के पीछे छिपा तुम्हारा एक संकेत है... और इस सबके बीच एक बहुत बड़ी खाई है - जो दुनिया है वह हम दोनों की परली तरफ है ओर हम दोनो एक दूसरके के ऐन मुकाबिल हैं - और नहीं भी हैं - तुम मुझे मुक्ति का प्रलोभन देते हो। पर मेरी मुक्ति का अर्थ है तुम्हारी मुक्ति को स्वीकार करना... और मैं तुम्हें अपने से अधिक मुक्त नहीं होने दे पाता... मेरा शरीर तुम्हारी सम्पत्ति है, हो सकता है सम्पत्ति का अर्थ तुम्हारे उपयोग की वस्तु मात्र... उस रूप में तुम्हारा शरीर भी वहीं होना चाहिए... चेतना को निलम्बित कर हम एक दूसरे को मुक्त कर पाते...। वास्तवितक मुक्ति एक मुहावरा भर है... यह कहीं नहीं है, जब तक कि मैं हूं और जब मैं नहीं हूं तो मुक्ति कैसी...? मन की यह सोच विचारों का बंजारापन है... आवारा इसलिए नहीं कि यह किसी भी सूरत में मुझे होश से बेगाना नहीं बनाता... मैं जानता हूं दुनिया के इस सीमांत पर जहां मैं खड़ा हूं नहीं... दुनिया के बीच जहां मैं खड़ा हूं वहां मैं अकेला भी हूं और अन्य लोगों से घिरा हुआ भी - फिर भी मुझे यह हक है कि मैं अपने आप को उनकी इच्छा के विपरीत कुछ भी समझ लूं...।
कीशवनाथ के घर में खूब चहल-पहल है-सुषमा ने कई लोगों को खाने पर बुलाया है। उसे भी न्यौता भेजा है। वह नहीं जायेगा। अपनी बीवी को भेजेगा या फिर मिनी जायेगी। सुषमा की प्रमोशन हुई है...उसका वेतन और रूतबा बढ़ गया है।...सुषमा घर में सब का स्वागत कर रही है। सब जान पहचान के लोग हैं। कोई अपरिचित अनजाना नहीं है।
वह सोच रहा है सुषमा ने यह जमावाडा क्यों कर लिया है। क्या यह सब लोग वास्तव में सुषमा की प्रमोषन से खुश हैं या इन्हें एक खुशगवार शाम बिताने के लिए तैयार या मजबूर किया जा रहा है। खुद को बेवजह इस तरह लुटाने से सुषमा को आखिर मिलेगा क्या? सम्भावित भविष्य के प्रति पंूजीनियोग... इस सबको वापिस वसूलने के खाक़े पहले बन चूके होंगे-एक नज़दीक कल का तकाजा़..
मेगजीन का सम्पादकीय वह घर बैठे लिखेगा- देश में हो रही तरक्की की रिपोर्ट के साथ मुख्यमंत्री के सरकारी दौरे, लघुु-उद्योगों द्वारा हटायी गई बेरोजगारी ओैर गरीबी के आंकडे़, इसी बीच कुछ सिफारशी लेखकों और सरकारी ओहदेदारों के लेख, कहानियां, कविताएं आदि ही से मेग़जीन भर देगा। चार साल पहले जब उसने सरकारी मेग़जीन के सम्पादन का भार सम्भाला था तो कोई गलतफहमी पाले बगैर उसने खुद से कहा था कि जीविकोपार्जन के लिए कुछ तो करना ही होगा। ज़िन्दा रहते ही सब कुछ सम्भव है... तब उसने शायद कभी सोचा भी नहीं था कि यह साधन ही साध्य बनकर रह जायेगा- उसे जूता पालिश करने वाले फुटपाथ के मस्तमौला लड़के से ईष्र्या होती है- पालिश करते हुए जूते को कितने रुचिपूर्ण ढंग से वह चमकाता है और किस लगाव से काम करता है।
सुषमा की पार्टी ख़त्म हो चुकी है- सुषमा खस्ताहाल मकान की बोसीदा बालकनी में खड़ी खिन्न-मन आकाश का वह भाग तक रही है जो उसके सर की सीध में औंधा लटका है। उसकी गर्दन इस तरह ऊपर को उठी है और ठुड्डी का भाग ऐसा उठा हुआ है मानो कोई आहिस्ता से अपने ओंठ वहां चस्पां करने वाला हो... उसकी आंखें जैसे फट कर बाहर आने को तैयार है और वह चुपचाप आंसू बहा रही है... आंसूओं की एक तेज़ धार उसके मुलायम गालों पर से फिसल कर गिर पडी़। हाथ उठाकर उसने गाल और आंखेें पांेछ कर लम्बी आह भरी। कीशवनाथ अपने कमरे में बैठा टिटू के साथ झूठमूठ रमी खेल रहा है और बेहद खुश है- यही पार्टी अगर आज से सात साल पहले उसके घर में दी गयी होती तो शायद वह आत्महत्या कर बैठता किन्तु आज उसे इसकी सार्थकता समझ में आ रही है। ज़माना बदल गया है उसे इस बात का भीतर ही भीतर दुख है कि सब जनों से दूर उसे इस कमरे मे क्यों बंद रखा गया हालांकि वह इस बीच शम्भूनाथ के घर भी समय काट सकता था लेकिन टिटू का कौन ख्याल रखता- कीखवनाथ को समझदारी से काम लेना होगा। फिजूल बातों से खार नहीं खानी होगी। उन लोगांे की अपनी मजबूरियां हैं। मेरी वजह से पार्टी में वह खुलापन कहां से आता जो आया है... पर टिटू को मैं बाहर घुमाने भी तो ले जा सकता था... यह कमरे मेें कैद रखने की क्या ज़रुरत थी... अरे साठिया गया हंू मैं भी जो इस तरह सोचता हंू। मै तो वैसे भी सारा दिन यहीं इसी कमरे में पड़ा रहता हंू...
सुषमा का सर झटके के साथ आसमान से लौटकर ज़मीन की ओर झुक गया है... घर के पिछले हिस्से से लगातार अम्माजी बुला रही है...‘सुषमा...सुषमा...।’ यह आवाज़ उसे किसी खाई से लौटती आवाज़ सी लग रही है।...‘क्या है...?’ खीझ और छटपाहट भरे लहजे से सारा शरीर मोड़कर सुषमा घर के पिछले हिस्से की ओर चली जाती है। कुछ पल खाली बालकनी की तार पर बिखरे वस्त्र फिर उसकी दृष्टि पकड़ लेते हैं- पेटीकोट बलौज़ जम्पर पायजामे सिलवार-सब इन्सानी खालों की तरह आवेजां...
”मैं नहीं जानती... जो कुछ किया ठीक किया उसने... ग़लती मेरी थी मुझे यह सब नहीं करना चाहिए था... अपने होश में नहीं थी। मैं...“ सुषमा अपनी मां को समझा रही थी या उस पर बिगड़ रही थी..?..
”लेकिन रानी से उसे इस तरह पेश नहीं आना चाहिए था... आखिर शर्म हया भी कोई चीज़ होती है...? तुम्हारा भाई यहां होता तो जाने क्या मुसीबत खड़ी हो जाती...“
”तुम भी उसी की तरफदारी करो... मुसीबत को मेरे लिए जानबूझ कर खड़ी की है उसने... वह मेरे लोगों में मुझे बेइज्जत करना चाहती थी...
”मैंने तो मां जी के लिहाज़ में आकर खामोशी ओढ़ ली वर्ना मैं ऐसे धूर्त लम्पटों से निपटना अच्छी तरह जानती हूं...?“ रानी सफाई नहीं दे रही।
”लिहाज क्या करना था... नोचकर रख देना था उसे जान से मार देना था किसकी मजाल है जो तुम जैसी पतिव्रता स्त्री की ओर आंख उठाकर भी देख सके...।“
”कोई बड़ा आदमी है तो होगा अपने घर में... इस मुआमले मंे मैं तुम से अलग हूं...“
”बहुत अच्छी तरह जानती हूं तुम कितनी अलग हो, इस सिलेक्टिव मार्लेटी से भैया इम्प्रेस हों तो हों... हमें न डराओ...“
”जो जैसे खुद होते है, उन्हें सब वैसे ही दिखते है?“
”मैं जानती हूं तुम क्या हो-“
”हम पर अपना दफतरी रौब न चमकाओ, हम आपके मोहताजांे़ में से नहीं है, हां।“
”यही तो रोना है... इसी बात का तो दर्द है। मेरा नौकरी करना तुम्हंे फूटी आंख नहीं सुहाता... सिर्फ इसलिए कि पगार तेरे पति के हाथ में न देकर मैं अपने पिताजी को देती हंू...“
”नौकरी तो मेरे पांव की जूती है... वैसे तो लाट साहिबा आपको ये बातें अपने भाई से कहनी चाहिए। उसे भी पता चले कि उसकी मेहनत क्या रंग लाती है...?“
”मुझपर अपने पति के एहसान मत गिनाओ... सच बात बताऊंगी तो जीना मुश्किल हो जायेगा तुम्हारा...“
”बताती क्यों नहीं... कौन सा ऐसा एहसान है तुम्हारा हम पर जिसका बोझ मैं सहन नहीं कर पाऊंगी... और जीना दूभर हो जायेगा...“
”अच्छी शोभा देता है ऐसा लाड़ प्यार आपस का.... यही पढ़ा लिखा है तुम दोनों ने....हाय!... लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? तुम ही चुप हो जाओ बहू जी...“
”बेटी से भी तो कुछ कहिए ना... उसने तो कसम ही खा रखी है। मुंह लगे रहने की...“
”देखो तो, मेरी ज़रा भर प्रमोशन क्या हुई कि... अरी तुझे नौकरी करने से रोकता कौन है...?...मैं क्या शौकिया कर रही हूं...?
‘रो नहीं पगली...’ मां किसी तरह मुआमला निपटाना चाहती है...’
‘एक तो अपनी लाज-शर्म नहीं... उल्टा उस बेचारे को... अम्मा तुम...’
‘चुप रहो बस, लाज-शर्म हमंे आप न सिखाओ... आपकी सारी लाज शर्म हमें मालूम है...?
‘क्या जानती है आप... क्या किया है मैंने...?’
‘अब जुबान खुलावाकर ही रहोगी हमारी... आपके प्रमोशन का लेटर किस होटल के किस रुम मे टाइप हुआ यह उगलवाना चाहती है हम से...’
‘मां...!!’... सुषमा तड़प उठती है। बिल्कुल बाज के पंजों मे पंख फड़फडाते पंछी सी... कीशवनाथ ट्टिू से झूठमूठ बाज़ी हारता जा रहा है-
”बहूजी बहुत हो चुका अब एक लफज़ भी मुंह से नहीं निकालना...“
‘क्यों...’ बेटी के टसुवे बहाने से हक़ीक़त बदल जायेगी...’
”आने दो अवतार जी को... मैं सारी बातांे का...“
”उस बेचारे को तो जैसा कहोगे वैसा करेगा... उसकी बदोैलत ही तो यह तक भुगतना पड़ रहा है मुझे...’
‘चली क्यों नहीं जातीं... कहीं और जाकर मरती खपती क्यों नहीं?’
‘हाय! रे... इस उम्र में मुझे मरने को कहती है...?’
‘चलो मां चलो... यह सममुच ही बहुत बदलिहाज़ और बेगानी हो गई है... सुषमा इस घर में नहीं रहेगी। रानी अवतार जी को आज ही कहीं किराये पर दो कमरे लेकर यह घर छोड़ने की बात कहेगी। अम्माजी किधर जायें...? कीशवनाथ तक यह बात पहुंचेगी तो कितने दुःखी होंगे।
यह बराबर सोच रहा है... एक तरफ सारी दुनिया है और दूसरी तरफ वह है.. वह न रुकता है,न चलता है... और उसके रुकने चलने का एक ही स्थान पर प्रतीक्षा करने के बावजूद हर हालत में उसके भीतर से कुछ निःशेष हो रहा है... वह है और निरन्तर न होने की ओर अग्रसर है... नहीं... वह दोनों चीजे़ एक साथ है... हर पल वह वो नहीं... इसलिए वह वास्तव में कहां है...? किन्तु वह है... और नहीं होगा....
कल कीशवनाथ उसे बाजार में मिला था... साइकल और कीशवनाथ दोनों एक दूसरे के पर्याय से लगते है। कीशवनाथ का चेहरा उसे अपनी बेबसी और लाचारी का अहसास दिलाता है। वह अपने आपको यकायक दया के उपयुक्त समझने लगता है और कीशवनाथ बराबर उसे इसी अहसास से देखता उसके समीप आ जाता है, ‘अबके सर्दियां जोरदार गुजरेंगी..’. ‘नहीं तो अभी शुरू-शुरू के दिन ही है...नवम्बर मे ही इस तरह पाला पड़ने लगे तो आगे क्या हाल होगा,’ साइकल के कैरियर पर कोयलों का बोरा ओर हाथ में सब्जी का थैला दूसरे हाथ से साइकल का हंेडल थामे कीशवनाथ कबसे उसके साथ चलने लगा वह यह भूल जाना चाहता है कदम तेज़ करते वह कीशवनाथ से पिण्ड छुड़ाना चाहता है पर वह कीशवनाथ के साथ चल रहा है...
कीशवनाथ की नज़र आगे को उठी हुई है और वह अपनी साहिबी शान से घिसट रहा है... अवतार जी के नाम प्लाट निकल आया है... तुमने क्यों नहीं एप्लाई किया था...? नई कालोनी जहां बन रही है... जगह मैं देख आया हूं बहुत शानदार है... गवर्नमेंट प्लाटस है... जम्मू में... - हर चीज़ का पक्का प्रबन्ध होगा... यहां तो बहुत तंग आ चुके है... वैसे मुझसे पूछो तो यहां प्लाट खरीदना दुगुनी मूर्खता है... यहां अब कोई सुरक्षा नहीं रही... मेरी मर्ती तो बाहर जाने की थी... पहले देख लो जी... वैसे सुरक्षा है भी कहां अब... आये दिन हर जगह झगड़ा फसाद खून खराबा, जो भाग्य में लिखा होगा उसे कौन टाल सकता है... कबालियों से लेकर आज तक जितनी हमारी उम्र गुजरी इसी मारा-मारी से गुजरी... फिर भी चल रहा है सब कुछ... कीशवनाथ को अगर वह न मिला होता तो क्या यह सब बातें वह तब भी कहता - किससे कहता-? क्या यहीं बातें वह वास्तव में कहना चाहता है...? कीशवनाथ की बातें सुनते उसे लग रहा था कि वह किसी टेपरिकार्डर से कोई गलत रिकार्ड की हुई आवाज़ सुन रहा था... जहां उसे कुछ और सुनने की अपेक्षा थी। वह यह केसेट बदलना चाह रहा था। काश कीशवनाथ के भीतर भी ऐसी कोई मशीन होती वह झट से उसका केसेट बदल देता अपनी पसन्द को कोई फिल्मी गीत सुनता।
ज़िन्दगी में लगन और मेहनत सब कुछ है... भगवान की कृपा से आज तक किसी से कुछ मांगने नहीं गया... दुःख झेले... पीड़ायें उठाई... बच्चों को पढ़ाया लिखाया दाल चावल कमाने काबिल बनाया... सिर्फ अपनी बिसात पर... जो मिल उस पर ईश्वर को धन्यवाद कहा... ईश्वर ने भी कभी निराश नहीं किया... बड़ा दयालू है ईश्वर... ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए।
ज़िन्दगी का यह दर्शन कीशवनाथ पहली बार उसके आगे नहीं रख रहा था। वैसे यह बातें वह हर किसी से नहीं कहता... उसकी खास इज्जत है कीशवनाथ की नज़रों में... पी कीशवजी को दुःख है कि वह इतना पढ़ा लिखा होते हुए भी ईश्वर को क्यों नहीं मानता है... यही कारण है कि वह इतना बेदिल... और मायूस रहता है... एक बार अगर वह सही मन से ईश्वर से माफी मांगकर उसकी शरण में आ जाये तो उसके सभी दुख दूर हो सकते है... और वह सोचता है... अगर कीशवनाथ को ईश्वर मुक्त किया जाये तो वह कैसा लगेगा। अगर उसे यह बताया जाये कि ईश्वर के रहते उसे सचमुच किसी चीज़ की परवाह नहीं और न रहते ही हर चीज़ की परवाह है तो क्या वह अपनी धारणा बदल सकेगा...? काश! कीशवनाथ एक पल के लिए ईश्वर विहीन संसार देख पाता...। ईश्वर है या नहीं है... सवाल तो यह है ही नहीं - सवाल हमेशा यह रहा है कि उसे मानते हो या नहीं मानते हो... मानते हो तो भाड़ में जाओ नहीं मानते हो तब तो भाड़ में जाओगे ही...।
वह सोचता है उसका मन अपनी आस्थाओं के प्रति और मजबूत होता है... मैं हूं तो तुम हो... तुम्हारे न होने से मेरा होना घट नहीं जाता... पर मेरा न होना तुम्हें अप्रमाणित नहीं करता...
काशीवनाथ हनुमान जी के यहां प्रसाद चढ़ाने जा रहा है...।
कसकर बान्धी हुई एक चोटी... चेहरा साफशफाफ... वहीं नफासत और वहीं संपूर्णता नपा तुलापन... सुषमा उसके मकान की दीवार से चिपटती जा रही है... बीव का आंगन कीचड़ से लथपथ है- वैसे ही दीवार की अगली नोक पर सुषमा रुक जाती है। मुड़कर उसे मुस्कुराती हुई देखती है- ”खूब मौज मनाते है आप...“ कहकर रुक जाती है... उसकी मुस्कान मुर्झाती नहीं बराबर खिली रहती है और वह सोचता है... इसका क्या मतलब है... क्या चाहती हो तुम मुझसे... और जो मैं चाहता दूं दे सकोगी...? वलिए, ‘आज एक साथ चलते हैं...’ वह उसमें यह दिलचस्पी आज पहली बार नहीं दिखा रही। यह आदमी किस खाल का बना है... किसी बात का जैसे असर ही नहीं होता इस पर... जब टुकर-टुकर इस तरह मुझे देखने का इसका आशय क्या हो सकता है...? वह मुझे हमेशा ऐसे देखता है जैसे कारीगर कारखाने में नई आई मशीन को देखता है... एक बार उसे यह अहसास दिलाना जरूरी है। कि मैं देखने भर की चीज नहीं हूं। फिर जाये भाड़ में... मुझे क्या लेना देना इस दो टके के खडूंस से, सोचते सोचते सुषमा अपनी ज़िद पर कायम रहती है... एक अतिरेक होड़ से उसका मना दब जाता है...।
‘मुझे थोड़ा वक्त लगेगा...’ नहीं वह बहाना नहीं बना रहा... सच कह रहा है।
‘मैं इन्तिज़ार करूंगी।’
‘तो आइये।’
वह ऊपर कमरे में दरवाज़े के इस तरफ एक कोने में रखे बेड़ पर बैठ जाती है... इस बीच उसकी पत्नी ऊन का आडम्बर समेट कर टोकरी में ठूंस देती है। पत्नी के माथे पर बारीक बल पड़ जाते हैं और होठों पर व्यर्थ की मुस्कान तैरने लगती है। अपनी बीवी में अचानक आई तबदीली से वह थोड़ा नर्वस होने लगता है... औश्र उसकी बीवी अपना अपना आप समेट कर बैठ जाती है...।
‘कैसा चल रहा है मैगज़ीन... सुषमा खुद सकपकी सी होने लगती है...’
‘जैसी सरकार चलती है...’
‘मेरा एक लेख है... छापेंगे...’
‘क्यों नहीं... भला आपका ही क्यों नहीं छापेंगे।’
सुषमा और खुद वह... दोनों जैसे पकड़े जाते है... सुषमा तुरन्त सफाई पेश करते खड़ी हो जाती है, ‘जब दफतर में देने आऊंगी।’
‘विषय क्या हैं...?’ वह भी अब पहले से नार्मल होकर बोलता...
‘नौकरीपेशा औरतें।’
‘खूब...’
‘खूब...’
‘क्यों...!’
‘नहीं बहुत सार्थक विषय है,,,’
सुषमा फिर अटपटा सा महसूस कर रही है फिर भी अपना दमखम कायम रखे पूछती है ‘आप आये नहीं कल आपकी मिसेज़ भी नहीं आई...’।
‘मैं थी नहीं यहां... आप क्यों नहीं गये...?’
‘पहले जाने लगा तो सोचा अभी बहुत समय है... फिर लगा कि देर हो गई है... इसी उधेड़बुन में... सुषमा को अपनी जीत निश्चित लगती है - घड़ी देखने लगती है...।
आपको देर हो रही है... वह मुश्किल से सिग्रेट ऐशट्रे में बुझाकर खड़े होने की चेष्टा करता है। ‘नहीं आप अपने आराम से चले मैं दफतर ही में मिलूगी’... कहकर वह मुस्कुराती हुई चल देती है... सीढ़ियों से उसके उतरने की पदचाप देर तक सुनता रहता है... जैसे यह आवाज़ कभी खत्म ही नहीं होगी...।
‘यह लड़की तो निरी बेशर्म है...’ उसकी पत्नी सोचती है पर इस बात को लेकर वह कोई एतराज नहीं जागने देती - एतराज का कोई ठोस कारण है भी तो नहीं।
वह फिर सोचने लगता है... सुषमा में ऐसा क्या है जो वह उस पर इतना ध्यान दे... यदि एक बार वह उसे अपनी चेतना से खारिज कर देगा तो वह कितनी बाकी रह पायेगी? दुनिया में ऐसे कितने लोग है... जिन्हें लेकर इस तरह सोचा जा सकता है... क्या हम हर किसी के विषय इस तरह सोचते हैं... कम से कम मैं तो नहीं सोचता... मैंने यूं ही उसे अपनी चेतना पर हावी होने दिया है... वास्तव में में उसके विषय में नहीं सोचता... वह कोई विशेष व्यक्ति नहीं... मेरी किसी अन्दरूनी ज़रूरत का रूपान्तरण है... यदि वहीं अन्तिम है तो मेरी पत्नी क्या थी...? क्या इसे इतने ही सन्दर्भ के साथ अपनाया नहीं जा सकता... क्या यह लगातार का बिला वजह बन्धे रहना... मूल्यवत है... अनपेक्षित फिर भी...।
वही हालात वहीं लोग... दिनों का वहीं प्रत्यावर्तन... न बदलने भी सब कुछ तबदील हुआ जा रहा... सुषमा की दौड़ाूप बढ़ रही है - रिशते के लिए उम्मीदवारों की फेहरिस्तक भी काफी सम्पन्न हो गई है। अब उसमें डाक्टरों इंजीनियरों, बैंक आफीसरों और आर्मी पर्सनलों तक की वृट्ठि हो चुकी है... और फैसला उसके हाथ में है। केवल एक बालकनी की खस्ताहाल ज़िन्दगी पर धूप के धब्बे बिखर-बिखर कर गेंदं के फूलों में बदल रहे हैं - सुषमा स्थापित हो चुकी है औश्र एक आदमी सड़क पर साइकल घिसटता लगातार सुस्त से पैडल मारता हुआ दोनों पहियों को चलायमान रखे है... सुषमा रोज़ उसका साइकल छीनकर उसे आराम की ज़िन्दगी गुज़ाराना सिखती है - उसे अपना फर्ज हमेशा इस बात के लिए कुरेदता रहता है वह अपने भाई को सबक सिखाना चाहती है - यह आपका मकान है पिताजी... यहां आपका बेडरूम... अम्माजी... यहां पूजागृह है... और...
कीशवनाथ छाती चैड़ी करके साइकल घिसट रहा है - मेरा ही बेटा नामी वकील है, मेरी ही बेटी नामी आफिसर है और यह मैं ही हूं जो आज भी सिर्फ मैं हूं... मैंने सब कुछ अपनी विसात पर खड़ा किया और आज भी करने की ताकत रखता हूं...।
कीशवनाथ की टांगें दुखती है... शरीर जवाब दे रहा है, किन्तु दुकानदारों का हिसाब, होटलों की लेजरें और ठेकेदारों के मजदूर उसे बराबर गले लगाये है...।
खिड़की बन्द करके वह बिस्तर पर पसर जाता है और बीवी को बिजली बुझाने के लिए कहता है। बिजली बुझते ही उसे महसूस हुआ कि उसके शरीर पर अनेक हाथ रेंग रहे है और वह अजीब गुदगुदी से भी गया है - उसके कंधे फड़फड़ा उठे और वह मायूस होने लगा...
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तिनके तिनके बात
कुछ वस्तुएं यदि उन्हें कोई अपनी जगह से हिलाए नहीं वहीं की वहीं बनी रहती है जब तक कोई बाहरी ताकत उनकी स्थिति को बदल न दे। वे अपनी स्थिति या स्थान नहीं बदलती... यह ‘मोशन’ का एक महत्वपूर्ण नियम है और इसे अंग्रजी़ में इंनरशिया कहते हैं। यह पुस्तक एक मेज़ पर है यदि हम इसे यहां से नहीं उठाएं तो यह इसी टेबल पर पड़ी रहेगी... समझे आप लोग।
ये सब बातें जैसे गति मांग रही हो - वैसी ही अपने स्थान पर पड़ी हुई - उसी प्रकार स्थिर... जिसने यह कहा था उसका आकार याद नहीं आ रहा। अपना सा ही एक आकार था वह। बस इसी प्रकार के तेवर ऐसे ही चढ़ी हुई भौहें और ऐसी ही कसी हुई नसें। कुछ दिन पहले किसी सहेली या उन दिनों की सहपाठी ने बताया था कि उस आकार को गति मिल गई। कैंसर ने उसकी जान ले ही ली। उसका नाम... भला-सा नाम था। पर नाम याद नहीं आ रहा। कुछ ही दिन हुए नाम सुना था पर उस वक्त ठीक से ध्यान नहीं दे पायी थी। काॅलेज जाने में देर हो रही थी। स्टूडेंट्स, टीचर्स सब परेशान करते है। आज नल में पानी बहुत देर तक रहा। कई दिनों से दरे तक रहने लगा है। ठीक जब से बारिशें हो रही थी। आज धूप खिलकर निकल आई है। कई दिनों की मूसलाधार वर्षा के बाद उसे यह परिवर्तन बहुत अच्छा लग रहा था। बाहर-भीतर हर स्थान पर जैसे जिन्दगी उमड़-उमड़ आ रही थी। खूब चहल-पहल जो आम दिनों से हटकर लग रही थी। जैसे सब एक लम्बी रात गुज़ार कर मुंहधुले महज इसलिए हर्ष और उल्लास से झूम रहे थे कि वे सब जी भी सोकर उठे थे। उनींदी आंखों का नशा आहिस्ता-आहिस्ता घट रहा था। दोपहरी का जोर सवेरे के हरे ताज़ेपन को चटक रक गुन-गुने-गिलगिले सूखटों में बदल रहा था। और वह यह देखते हुए सोंच रही थी। बारिश के जमा हो गये पानी से उठती हुई बास, मक्खियों की निर्मिमेष भन्नाहट और वातावरण में मिटटी की मिली जुली बू... उसने खिड़कियों के पर्दे गिराकर कमरे को नीम अंधेरी खोह में बदल दिया। वह फिर से उसी वर्षा के वातावरण को जीना चाहती थी। किन्तु बाहर इनसानी आवाज़ों का सैलाब, मशीनों और मोटर-गाडियों की चीरती हुई ध्वनियां और इस सबके बीच एक प्रबल पर थकी हुई आवाज़ उसे झिझोड़ रही थी दो रुपये किलो...चेरी...सस्ती...‘उसने इस सबसे अलग होकर थोड़ी देर के लिए झपकी लेनी चाहि।
तकिये पर सिर टिकाकर बहुत देर तक पड़ी रही। किन्तु सोच का असीम सिलसिला उसे घेरे रहा और उसे हरबार यह सोचना पड़ता कि वह क्या सोंच रही थी? दरअसल वह बहुत अकेली है इसलिए केवल सोचती रहती है। आखिर यह पिकनिक पर स्टाफ के साथ गई क्यांे नहीं? सबने सोचा होगा कि क्रेजी है। कल उसे झूठ-झूठ बीमारी का बहाना बनाना पडेगा। वैसे झूठ-मूठ क्यों? उसे अतीत में इस मौसम मेें मनाई गई पिकनिकों के वे दिन याद आये जो बाद में कई बार स्मृति भर से उसमें गुदगुदी भर देते हैं... लेकिन इन बातों के बारे में सोचा ही क्यों जायें? पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनों उसे इस बात का अहसास होने लगा था कि वह एक खतरनाक बीमारी का शिकार हो रही है-सोच...जो उसे अपने इर्द-गिर्द अपने आपसे काट कर रखता है। एक बार यह जान लेने के बाद वह इस ओर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगी।
जितना इसके प्रति सजग हुई, समस्या उतनी ही उलझती गई। पर वह सोचती-आखिर सोचने में ऐसी बुराई भी क्या है? क्या बिना सोच के आदमी जिन्दा रह सकता है? तब वह अपने सोच से इतनी घबराई इतनी आहत क्यों है? उसकी जान-पहचान के सब लोग सोचते है और बहुत इतमीनान से अपने सोच व्यक्त भी करते है। पर जब भी वह अपना सोच व्यक्त करना चाहती है तो उसे ग्लानि क्यों होने लगती है? उसके पास जैसे कुछ भी कहने को स्पष्ट नहीं होता। शायद उसका सोच कोई विचार या कोई शब्द नहीं देता... केवल तरह तरह के आकार तरह तरह के बिम्ब... तो बहुत पहचाने और अपने होकर भी बहुत दूर के और धुंधलें दिखने के कारण स्पष्ट नज़र नहंी आते। जैसे सब कुछ इतना उलझ गया है कि साफ अलग कुछ नहीं दीखता सिर्फ उसका अपना आप... जिसके लिए वास्तव में यह चाहती है कि जो कुछ उसे करना है वह कोई और कर देता। यहां तक कि इस चिट्ठी का जवाब जो उसके पास कई घंटों से पड़ी मुंह ताक रही है...? वह कोई चीज़ स्पष्ट देखना चाहती है किसी विचार से कुछ क्षण चिपककर जीना चाहती है। कालेज से लम्बी छुटटी लेकर उसने किसी भ्ज्ञली जगह जाने का इरादा किया था। छुटटी का दसवां दिन बीत रहा है और वह बन्द कमरे में पड़ी सिर्फ सोच रही है...।
”पुस्तक अगर अपनी जगह पड़ी रहे... तो वह हिलेगी नहीं वैसी ही बनी रहेगी... जब तक कोई बाहरी शक्ति उसे हिला न दे। अब अगर सम्बन्ध तत्व के हिसाब से देखें तो धरती के घूमने के कारण हर चीज़ धरती के साथ घूम रही है... धरती की इस यात्रा के भागीदार वे सब हैं जो इस पर रहते हुए स्थिर अथवा अस्थिर है। किन्तु संकुलित रुप से हर वस्तु जो स्थिर है तब तक स्थिर रहेगी जब तक कि न किसी अन्य स्थिर वस्तु के मुकाबले वह... अपना स्थान बदल दे... या उसका स्थान बदल दिया जाए।“
कुछ दिन पहले उसने यह बातें स्टूडेंटस को समझाते हुए सोचा था-धरती सा वृहद आकार उसके पैरांे को सहन नहीं कर पा रहा है। वह पैर टिकाना चाहती है और धरती उसे उछाल देती है। फिर उसने एक अन्य तरीके से सोचा धरती पर यह फलूस की तरह है... फिर उसने एक भारी पत्थर-सा होना चाहा... वह पहाड़ भी हो सकती है... वह ध्रुव भी हो जाती और ‘सेटेलाइट’ भी। उसने एक लम्बी रस्सी लाकर छात्राओं को दी और ‘टग-आफ-बार’ खेलने को कहा। जब तक दोनों पक्ष बराबर शक्ति से खींच रहे थे रस्सी संतुलित और स्थिर लग रही थी। एक पक्ष के कमजो़र पड़ते ही रस्सी दूसरे पक्ष की ओर निकल भागी थी...
”तुम ने हमारी बात का कोई जवाब नहीे दिया, लड़के वाले परेशान कर रहे है लड़का काफी अच्छा है- गखमयों की छुटिटयों में बात पक्की करने का इरादा है। जल्दी से अपनी राय लिख भेजना।
खत की लिखावट जैसे अभी-अभी सूूखी हो। एक अन्तहीन खाई और रस्सियों का एक कमजा़ेर पुल। वह कहीं भीतर तक अपनी ही हंसी से कुढ़ उठी। उसे कुछ याद आया। शायद कोई सपना था। हां-कल ही देखा था उसने। बादलों के महीन तोदे चीरदी वह हवा में उड़ रही थी। सब लोग छोटे-छोटे ज़रों में बदल रहे थे। जहां वह मुख करती वहां सुहावना उजाला होता और जहां पीठ वहां हल्का अंधेरा। अचानक पीठ का अंधेरा बढ़ने लगा। रोशनी चारों ओर कम पड़ने लगी। और वह अंधेरे के एक सैलाब के साथ जमीन पर गिरने लगी। जागकर बहुत देर तक उसने आंखें नहीं खोली। सोचती रही। उसके साथ जो कुछ भी आज तक बीता उसे लगता जैसे किसी अन्य के साथ गुज़रा है। वह जैसे एक तटस्थ साक्षी की तरह जी रही हो। एक अनदेखी सी अदालत-जहां हर चीज़ है पर एक खास चीज़ हर बात ओझल रहती है। वह खास चीज़ क्या है? उसे स्वयं उसकी तलाश रही है।
‘इनशया’... सिर्फ स्थिर वस्तुओं में नहीं असिथर और गतिमान वस्तुओं में होता है। धरती कितने सालों से घूम रही है। इसकी गति न कम होती है न ज्यादा... और न इसका रास्ता बदलता है... यह बस सिर्फ चलती रही है... चलती रहती है ...चलती रहेगी। यह जो लगातार बिना किसी हेरफेर के-हू-बू-हू एक ही प्रकार होता आ रहा है, पज पे सेव जंजम वप्दिजमतजपं और इसी प्रकार मैं और तुम और हम सब... एक तरह से गतिमय होते हुए भी गतिहीन है... इतिहास में संदर्भ में रुके और ठहरे हुए है... क्योकि सब कुछ बदलता दिखने के कारण भी हममें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हम जन्मते हैं। जन्म पाकर विकास पाते हैं फिर मृत्यु को प्राप्त होते है... यह क्रम कहीं टूट सका है-? अपवाद की बात मैं नहीं करता।“
”अनवर...।“
”क्या फिर इतिहास का विकास नकार दें। इन्सान की आज की जिन्दगी ओर उस जिन्दगी का अन्तर अनदेखा कर दें जब वह वहशी था, दरिन्दा था, कमजोर था, विवश था... अज्ञान से आतंकित था?“
और आज? किस इन्सान की बात कर रही हो तुम? चान्द पर कदम रखने वाले उस इन्सान की जो भीतर से सिकुडकर अफीम की गोली बराबर हुआ जा रहा है या उस इन्सान की जो काली चादर ओढ़कर बनवास भुगतते हुए अभी भी पत्थर से औजार बनाने की सोचं रहा है। कि उठो खिलौनों के आतंक से मुक्ति मिले। मैं पागल हूं। मैं सही-सही नहीं कह पाता पर काश! कोई कह पाता। जो मैं समझ सका हूं... यह हमारे सामने इस सड़क पर कितने लोग उस सभ्यता इस संस्कृति द्वारा निर्वासित ओफ!... मैं तुम... क्या जानते हैं हम? जानकारी के नाम पर तुम ने बेसिक टीचर का जो कोर्स पढ़ा जन्म... फिर किताबें पोशाक रहने की जगह मां-बाप, रिशते, सपने, जाब,... क्या हमने सिर्फ वहीं नहीं किया जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से अपने और अपने इर्द-गिर्द के बारे में सोचने का प्रयत्न किया?... तुम्हें कभी समय मिला कि जो तुम्हें सिखाया बताया पढ़ाया जा रहा है। उसे वास्तविक जीवन में परखो...
शायद जिन्दगी इतनी ही कठिन है। यह सब कुछ अपना कर ही जिन्दा रहा जा सकता है। आखिर वह जिन्दगी से चाहती क्या है? क्या वाकई वह इस पर अपना अधिकार जता सकती है? उसे मां की बात मान लेनी चाहिए। लेकिन क्या उसे महज़ ब्याहे जाने की चिन्ता है? ब्याह तो वह कभी भी कर सकती थी। आज तक कैसे जी सकी बिन ब्याहे? एक समय था जब ब्याहे जाने के लिए उसने अपने आप को स्फूर्ति और आंकाक्षाओं से भरा हुआ पाया था। जब उसे पता चला था कि आज तुम उसने जो कुछ भी किया वह महज़ एक अदद खाविन्द प्राप्त करने के लिए किया था तो वह बहुत निराश होकर सोचने लगी... जैसे जन्म से लेकर आज तक वह सिर्फ ब्याहे जानेे केवल इसी नुक्ते से जुड़ी थी? उसे कहीं सब पलटता हुआ लगने लगा। अनवर उसमें बहुत गहरे उतरने लगा- और अनवर का पागलपन सार्थक लगने लगा। मां कहती है ठहराव भी आवश्यक है जितना बहते चले जाना। औरत को पहाड़ियों से झरणों की तरह उतरकर मैदानों में नदी की तरह हो जाना पड़ता है। सब कुछ समेटकर अपनी तह तक ले जाकर सुरक्षित करते हुए मौन बहना और झील की तरह दम लेना।
शादी!
वह अचानक अस्त-व्यस्त अनुभव करने लगी-सब कुछ बिखरने लगा- आहिस्ता से अपने आपको सहेजते हुए वह फिर सोचने लगी- क्यों करेगी वह शादी? वह किसी वास्तविक जरुरत से जुडना चाहती थी। जो शादी उपलब्ध कराती हैं? जैसे अनवरा बेगम, इंजिनियर की बीबी सीमा बहिन जी, यासमीन, शाहिदा, कमली, बेहिसाब नाम... सिन्दूर की लकीरंे... कानों की बालियां उंगलियों की अंगूठियां... चेहरे के फुलाओ... जरुरतों का मेल... बेडौल बेढगे ढांचे। कदमों की नफासत। शीशों के चेहरे। सब-चब चबते मुंह। बिस्तरों की बासी दलीलें। बनठन और अनबन। वह ये सब आकार तोड़ कर भागना चाहती है। दूर बैठकर आराम से कुछ स्पष्ट सोचना चाहती है। एक बार यह अवसर उसे मिल पाता तो वह कोई निर्णय ले पाती। एक आरामदेह कम्पाटमेंट एक सेटलमेंट से आगे। अनवर महज बच्चा है। दुनिया जो करती आई है उससे आगे क्या किया जा सकता है?... लेकिन शादी क्यों? लो अब मैं तैयार हूं। मेरी प्रमोशन ही चुकी है। घर-गृहस्थी लायक तनख्वाह भी मिल रही है। बच्चे... अच्छे स्कूल... तोतली बीलियां- किटी पार्टीज कहानियां...
अनवर एक ख्याली दुनिया का जीव है! इसीलिए नाकाम-सा बना फिर रहा है-बीबी उस पर तरस खाती है। बातें तो दुनिया भर की जानता है, करने को कुछ कहो तो हर काम उनके लिए बेकार है। ऐसे आदमी से दिन भर खेत जुतवाने चाहिए और बाद में उसे ‘इंनशया’ समझाना चाहिए। पर क्या वह झूठ बोलता है...
यह सब तो शादी के बाद ही उसके साथ घटित हुआ था। उससे पहले उसने कभी अकर्मण्यता की बात नहीं की थी। आज भी नहीं करता। पर तब उसकी बातों में सार्थकता का स्वर मिला होता। तब ऐसी निराशा और निर्रथकता से भरी नहीं होती थी उसकी बातें पर क्या उसकी कोई बात वास्तव में निर्रथक है?...
”रिश्ते चालाक साझेदारी के नियम से कामयाब बनते है-“ अनबर ने अपनी सफाई में कहा था।
”पूखत के आधार पर नहीं...? वह पूछ बैठी थी-
”तुम मुझे एक चीज़ दो मैं तुम्हें कोई दूसरी दूंगा... इसी को पूखत समझते है लोग।“
”तो इसके अलावा...“
”है... मैं खुद को पहचानना चाहता हूं। एक सापेक्ष जिन्दगी जीना चाहता हूं। जिन्दगी नितान्त अकेली नहीं गुजर सकती। पर रिश्ते जो इसे सहारा देते, ऐसी बुनियादों पर आ टिके है कि इसे और अकेला कर देते हैं। जूझ... बढ़ती है...स्वार्थ बढ़ते है।“
यह तुलना ही गलत है... आदमी वही करता है जा वह करने की सकत रखता हो। पर लगातार स्वतन्त्र रहने की चाहत रखते हुए भी मैं आज तक कैद-का अनुभव क्यों कर रही हूं... बाहर की कैद भीतर की कैद। हर दूसरा लम्हा इसे तोड़ने वाला लगता है। हर अलग क्षण मुझे अधिक संगीन सींखचों में जकड़ लेता है। मैने हर बार बगावत की और आज भी प्रयत्न भर कर रही हंू। लेकिन अब करना न करना एक सा लगता है। अंधा होने या दिखाई देने वाली दो आंखें होकर जीना बराबर है। नहीं बाहर भीतर इतना अंधेरा छाया है कि यह सच लग रहा है- अनवर भरे पड़े मिट्टी के बरतन सा हो गया है। जिसका मुंह बन्द है। मैं इस पर नन्हें नन्हें कंकर फेकती हंू एक बोझिल चुप्पी। मैं इसका मुंह खोलना चाहती हंू। भय ऐसा करने से रोकता है। मैं भारी पत्थर लेकर इसे तोड़ना चाहती हंू। नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं इस भरम को बनाये रखना चाहती हूंै तोड़कर उस सुख से वंचित न हो जाऊं जो उससे जोड़ रखा है। पर इसे टूटना होगा। स्वयं टूट जायेगा। न भी टूटे तो क्या मैने इस ओर से आंखें मूंद ली है- और मेरे आगे एक विस्तृत झील है। जैसे मैं हंू... ओफ! जैसे में...! यकायक उसे अपना आप उस झील में डूबी हुई किसी चीज़ सा लगने लगा जो तह तक चली गई है ओर जिसे हर कोई सतह से देखकर गुजरता है। किसी को उसे निकालने का हासिल करने का लोभ नहीं होता। उसे लगा कि इस झील का चप्पा-चप्पा बूंद-बूंद वह मथ चुकी है... और बहुत थक कर तलहट पर चली गई है... किन्तु वह एक बार फिर सतह पर आना चाहती है। सतह से बाहर जमीन पर कदम रखना चाहती है... सूखी तपती ठोस भूमि।
दोपहर का शोर ढल रहा है- बच्चे स्कूलों से लौट रहे है। लड़की की घड़ी पर फलंूसो का कारवां- बासुरी का बेसिर पैर नाद खट-खट खुट...धूप...प्यास नीमू स्काश रस... और नल का बहता पानी... ध्रुवों पर जाकर वस्तु का वजन बढ़ता है लेकिन मूल आकार नहीं बदलता... मपहीज- डें! उसने अगले पन्ने पर नज़र दौड़ाई- लेकिन हर पृष्ठ जैसे अपनी परतें उखाड़ रहा था।
जब वह छोटी थी तो उसे अपने से बडे़ बहुत क्रूर लगते थे। वे उसे उसकी इच्छा के अनुसार खेलने न देते। हर बार रोक-रोक डांट-डपट। उसे प्यार में भी इन चीजों की मिलावट नज़र आती। मायूस होकर वह बडांे को कोसती रहती।
साक्षात ऐसा कोई उसके सामने नहीं किन्तु पहरे जैसे टूटते नहीं। रोक जैसे उठती नहीं।
शायद वह औरत होने के साथ-साथ अनवर की तरह भी है...।
शायद मर्दो के खिलाफ उठाए गये झंडे रुप से किसी अन्य के खिलाफ उठने चाहिए जो अनवर का और मेरा हम दोनों का गला घांेट रहा है। शामा बहन जी इतमीनान से खाना खाकर सो चुकी होगी। नहीं तो बच्चें को डांट रही होंगी। क्या पता पति से यह सोचते ही वह सिहर उठी। उसका जिस्म जैसे तकाजो़ से भर गया और उसने अपने आप को अपनी बाहों में कसकर जकड़ लिया। यकायक उसकी नज़र अपनी बाहों में न समा पा रहे शरीर पर गई। उसकी अपनी बाहें उसे क्या दे सकती है? शायद कही देकर ही इन्हें पाया जा सकता है।
वह सोंचते ही उसे खुद से अजीब वितृष्णा हुई। अपनी बाहों को खुला छोड़ वह फिर खिडकी से झांकने का इरादा करने लगी। किन्तु उसका मन जवाब दे चुका था। सोच के उठकर वह कई बार बाहर झांकना चाह रही थी। किन्तु भीतर जैसे सब जम चुका था। जैसे वह पहाड़ सी भारी हो गई थी। सहसा ही उसने शरीर का सारा जोर इकटठा करके खिड़की तक दौड़ सी लगाई और कुछ कदम यू चलने से ही वह हांफने लगी। सिर खिड़की की दमदार पर कुछ देर टिकाकर जब उसने बाहर झांका सब सुनसान सा लग रहा था। पड़ोस के मकान में जो कमरा उसकी खिड़की के बिल्कुल सामने पड़ता था, हरी बती का छोटा सा नाइट लैम्प जल रहा था। उस कमरे में अपनी आंखंे जमाकर वह बहुत देर तक कुछ टटोलती रही और कुछ ही क्षणों में एक चोरशर्म से उसकी आंखें लजाती हुई झुककर उसे धुत्कारने लगीं। पड़ोस के कमरे में किसी ने खटाक से खिड़की बन्द करके कोई भद्दी सी गाली सुनाई थी। वह देर तक भाव शून्य सी उसी खिड़की की दमदार पर पड़ी रही...
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कोेई ख़बर नहीं.....
अब इन्तिज़ार के सिवा और किया भी क्या जा सकता था। चैबीस घंटे की लगातार बारिष ने तो इस छोटे से पहाड़ी इलाक़े को सारी दुनिया से एकदम अलग-थलग कर दिया था। मैं अब किसी भी हाल में इस गाॅंव से निकल कर अपनी रिपोर्ट फाइल कर के कुछ दिन आराम से गुज़ारना चाहता था। पर फिलहाल तो मैं इन पहाड़ों में कैद हो गया था और जलदी निकलने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। वह फिर बडबडाने लगी, बुख़ार से बेहाल उस का बदन सिहर सिहर कांप रहा था। मैं जानता था कि कुछ देर और अगर इसे अस्पताल नहीं पहुंचाया तो इस का ज़िन्दा बचना एकदम मुष्किल है। पिच्छली तीन रातों से मुझ से जो उपचार मुमकिन हो पाया, मैं ने किया,मेरे किटबैग़ में आपतकालीन उपचार के लिए रखी संक्रामक रोगप्रतिरोधक दवाइयां भी खत्म हो रही थीं पर उस के बुखार में कोई सुधार नहीं हो रहा था।
-घबराओ मत, मैं ठीक हो जाऊॅंगी--- वह इस प्रकार बोली जैसे यह सब उसके अपने बस में था। एक बार यह बारिष थम जाती और मुझे यहां से निकलने का रास्ता मिल जाता तब तुुम्हें ज़मीन खाती या आसमान निगल जाता, मेरी बला से, क्या पागलपन था यह मेरा, स्पेषल स्टोरी, सनसनीपूर्ण सत्य की खोज- क्या सूजी जो इस बयाबान जंगल में मरने चला आया मैं,अरे! आराम से ‘आमने-सामने’ कार्यक्रम में किसी मंत्री की बखिया उधेेढ रहा होता,पब्लिक अलग से तालिया बजाती,‘अरे! तेरे को तनिक फुंकारने को बोला तूॅं तो सारा ज़हर डंक गया, हम पत्रकार हैं,हमें अपने व्यक्तिगत विचारों को त्याग कर निष्पक्ष हो कर काम करना होता है,’.... ‘क्या भैया तूं तो बस! अरे थोडी हिम्मत दिखा, थोडा कड़क हो कर प्रष्न पूछा कर, कैसा सीधा और ढीला है तंू! पत्रकारिता में कठोर होना पडता है-गधा और मालिक दोनों एकसाथ खुष नहीं रह सकते--और फिर आज के दौर में वैसे भी लोगों का मरना-जीना किसी के लिए क्या मायने रखता है।’
स्पेशल कारस्पाॅंडेन्ट, स्पेशल स्टोरी........‘तीस आदमियों को नींद में गोलियों से भून डाला, इस से पहले कि सुरक्षाबल मदद के लिए पहुंचते सब आतंकी भाग गये’। किंतु कहां? हमेषा ऐसे ही होता है, वारदात कर के यह आतंकवादी एकदम ग़ायिब हो जाते हैं, पता नहीं इन्हें ज़मीन खा जाती है या आसमान, अचानक इस अंधेरे जंगल में विलीन हो कर फिर किसी रोज़ वापस आकर बेखबर लागों की हत्या कर देते हैं।
उस के चेहरे पर ग़ज़ब की लाली छाई थी, बुखार के कारण उस की आॅंखें एकदम लाल थीं। उस ने बदन से चाद्धर हटा कर एकतरफ कर दिया और अब उस का उन्नत वक्ष सामान्य गति से धड़क रहा था। षायद वह सच कह रही थी,वह धीरे-धीरे ठीक हो रही थी। मैं उस के कुछ समीप गया तो उस ने अपना हाथ बढ़ाकर मेरा हाथ थामा और उठ कर बैठ गई- दीवार से टेक लगा कर वह मुझे एकटक देखने लगी, उस के सजल नेत्र बहुत कुछ कह रहे थे।
‘नहीं...इस तरह रोने से बुख़ार फिर तेज़ होगा, अभी लगता है तुम्हें थोडा आराम हो रहा है.........
‘अच्छा है मैं मर जाती, भला अकेली जी कर क्या करूंगी? उन लोगों ने जाने क्यों मुझे छोड दिया, मुझे भी एक गोली मार देते.....’
‘वे लोग आये कहां से थे?’
‘पहाडों में दिन वैसे ही जल्दी ढलते हैं, रात होते ही...वे उस चोटी से टपकते नज़र आने लगे,घर में सब खाना खा कर सो गये थे,अकेली मैं जाग रही थी ,बी0एड0 के ऐक्ज़ाम की तैयारी के कारण मैं देर तक जाग कर पढाई करती.....लेकिन अब सब ख़त्म हो गया,बस सिर्फ एक पल में सब छीन लिया मुझ से...अब क्या होगा ? ....’
‘क्यों? तुम्हारा कोई तो नाते- रिशतेदार होगा कहीें...?’
‘मेरा तो दूर-दूर तक इस दूनिया में कोई नहीं बचा है’।
मैं सोचता हूं ऐसे कितने सारे बच्चे, जवान,और बूढ़े हैं जो आये दिन कहीं आतंकवाद या कहीं अन्य प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो कर ऐसी असहाय स्थिति से अकेले जूझने को विवष हो जाते हैं। बाहर वर्षा थमती नज़र आ रही है, किन्तु हवा आंधी की रफतार से अभी भी वातावर्ण में कोहराम मचाये हैं। बाहर झांकने भर से अनुमान होता है कि बारिश और तेज़ आंधी के चलते किस क़दर तुग़यानी मची है और जंगल में वृक्ष कैसे दराशायी हो गये हैं। रास्ता खुलने में तो हफतों लग सकते हैंे,तब कहीं सरकारी अहलकार हरकत में आयेंगें और उन के दौरे षुरु होंगें, नुक़सान और दौरों की लम्बी-चैडी लिस्टें और तफसीलें बनेंगीं तब तक यह ख़बर बासी बन चुकी होगी,दुनिया भूल गई होगी कि इस दूरदराज़ जंगल में ऐक भयानक घटना ने किसी का सर्वस्व छीन लिया, और वह भी उस के अपने सजातीय इनसानों ने। पर मैं क्या कर सकता हूं ? टी वी अख़बार में रिपोर्ट करुंगा, इस का नाम सारी दुनिया की नज़रों में आयेगा तब हो सकता है कोई स्वयंसेवी संस्था इस की मदद को आगे आजाये। यह इलाका भी बहुत अजीब है, एक मकान दूसरे मकान से मीलों दूर है, आतंकवादी इस बात का भी काफी लाभ उठाते होंगें।
-तुम्हारा नाम क्या है......? उस ने मेरी और हलके केवल एक मुस्कान भर देखा और एक लम्बी आह भर कर नज़रें मोड लीं। इस का क्या मतलब है?, यह ऐसा क्यों कर रही है।
-अब मेरे नाम का क्या अर्थ रह गया है.....!बी0.एड0 पूरी कर के मैं टीचर बनना चाहती थी....अपने मां बाप का इकलौता सहारा.... तुम्हारे घर में और कौन हैं....मतलब...शादी हुई है तुम्हारी....?
-हां, मेरे दो बच्चे...मतलब दो बेटियां है.....
-अच्छा!
-एक स्कूल जाने लगी है दूसरी अभी काफी छोटी है।
-तुम ने इतने दिन से कुछ खाया भी नहीं, हमें तो आदत है भूक्खे पडे रहने की...हम इस प्रदेष के सब से ग़रीब लोगों में से है, हम ने कभी किसी से इस बात की शिकायत नहीं की ,हम इसी हाल में बहुत खुश रहतें थे, न हम किसी से वैर रखते न हमारा कोई वैरी था ,जाने इन लोगों को क्या हो गया जो ये हमारे जी-जान के पीच्छे इस तरह पड़ गए। तुम हमारी कहानी किसी अख़बार या टी.वी. में देने वाले हो ना....मैं जानती हूं तुम ट.वी. रिपोेर्टर हो...और तम्हारे इस बैग़ में यह टी.वी. कैमिरा है....मुझे तुम्हारी कम्पनी में कोई जाॅब मिल सकता है.....?
-तुम ठीक हो जाओ, कुछ करेंगें...
-तुम सच में मेरी कुछ मदद करोगे..?
-मैं कोशिश करूंगा...मैं ...
-तब क्या है, मैं षहर में किसी तरह गुज़रबसर करलूंगी....मैं अब यहां नहीं रहना चाहती , तुम मुझे अपने साथ षहर ले जाओगे...देखो मैं एक दिन भी तुम पर बोझ नहीं बनूंगी....तुम एक भले और नेक इनसान हो...
-क्या मदद करुं मैं इस की और कहां ले कर जाऊं इसे....कैसे समझाऊं कि जिसे खुद का ही कुछ ठिकाना नहीं वह भला किसी की क्या मदद कर सकता है? रोज़़ कुंआ खोदता हूं रोज़ पानी पीता हूं.....
जिस दिन कम्पनी चाहेगी कुछ महीने की पगार हाथ में थमा कर चलता कर देगी....तब क्या होगा हम सब का...कुमद, मिटठू, मीनू सिर ऊँचा कर के चलते हैं कि हमारा भाई टी.वी चनल में स्पेशल कारस्पाॅंडन्ट है, सारा देश जानता है उसे, बडे-बडे लोगों के साथ मेलजोल है ,विषम से विषम विषय की विवेचना एवं विशलेषण चुटकी भर में करता है ,राजनीतिक परस्थितियों के आकलन व निष्कर्ष कितने सटीक और र्निभीक होते हैं...तभी तो इतने कम समय में कैसे टाॅप के लोगों में है आज हमारे भाइराजा....अभी कुछ ही दिन हुए कितना बड़ा कांड पकड़ा उसने.... कैसे सब को सांप सूंघ गया था....चैनल में ही नहीं पूरे देश ने हीरो बना दिया था...अरे बाप रे! कैसे बड़े-बडे नेता और मन्त्री लोग बेशर्म हो कर खुलेआम रिशवत लेते कैमरा में दिखाये उस ने...खुद चैनल के मालिक ने सब के सामने कैसे तारीफों के पुल बांदे थे...... आज दिनेष धर ने भारतीय टेलीविज़न चैनलों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा है। .....और एक हफते बाद मेरा नाम कम्पनी पेरोल से ग़ायब था.....
‘यह क्या मिस्टर सिहं..? मेरा नाम पेरोल में नहीं है, लगता है कुछ मिस्टेक हुई है आप से...’
‘नहीं मिस्टर धर, यह तो मिस्टेक सुधारी है हमने...’
‘कैसे..?
‘आप ने शायद अपना नियुक्ति-पत्र यनी अपांइन्टमेंट-लेटर नहीं देखा है’
‘अरे तो आप कहना क्या चाहते हैं...?’
‘देखिये मुझ पर बेवजह मत चिलाइये आप का चेक यह रहा .. यहां साईन कीजिए और चेक ले जाइये..’
‘लेकिन यह तो कन्ट्रेक्ट चैक है... जब कि मैं रेग्यूलर अम्पलाई हूं और पिछले छः महीने से पी. एफ. पेनष्न सब मेरे खाते में कट कर जमा हो रहा है....’
‘सर, मैं यही तो आप से विनती कर रहा हूं कि वो ग़लती हम ने सुधार ली हैं...’
‘सुधार ली है... हे मेैन.. किस को समझाता है ... क्या नया फितना है यह तुम लोगें का.....?
‘छोडो मेरा गला छोड दो....प्लीज़ इसे कोई समझाओ यार.... ’
‘मिस्टर धर प्लीज़ आप मेरे साथ आयें ... आयें मेरे साथ, मैं आप को समझाती हूं...’
‘मिसेज़ वर्मा प्लीज़ आप समझायें इन्हें....’
‘बस मिस्टर सिहं अब आप कूछ मत बोलिए..... आइये सर.....’
‘बैठें सर यह ... यहां .... थोडा षांत हो जायें और इस बात को इतना सीरियसली मत लीजिए.....बोलिइये क्या लेंगें आप..... कुछ ठंडा....?
‘मिसेज़ वर्मा आप मुझे जाने दीजिये मैं अभी इस बारे में जी.एम. से बात करुंगा...’
‘धर साहब किस बात को लेकर बैठ गये आप, यह कोई सरकारी दफतर तो है नहीं जहां ऐसे रूल्स़-रेग्यूलषन्स़ के तहत काम चलता हो और अगर हो भी तो क्या कर सकते हैं आप और हम...? आज किसी दबाव में आकर मैनेजमेन्ट मानलो आप की बात मान भी लेती है तो कल अगर ये चाहें तो तीन महीने की पगार हाथ में थमा कर किसी को भी निकाल बाहर करने से इन्हें कौन रोक सकता है.?’
मिसेज़ वर्मा सच कहती हैं , कम्पनी को पूरा हक़ है जिसे चाहे जैसे रखलें या हटा दें...नहीं ? अब सोच-समझ कर काम करना होगा। नौकरी छूट गई तो इतनी आसानी से कौन दुबारा रख लेगा, काबलियत कौन देखता है? और अगर देख भी लें तो क्या कमी है यहां काबिल लोगों की, एक से बढकर एक महारथी इसी ताक़ में रहता है कि कब कहीं मैक़ा हाथ लगे और आप का पता साफ कर दे... कुत्ते जैसे हराम पर छीना जपटी करते हैं, वैसी स्थिति है यहां, नज़र हटी नहीं कि आदमी चित। मिसेज़ वर्मा कह रहीं थी -‘यह जो सुरक्षा की फीलिंग है मिस्टर धर, यह केवल एक मानसिक अवस्था है, इस को सोच-सोच कर काम करने लगे तो हम कहीं कुछ कर नहीं पायेंगें’। षायद मिसेज़ वर्मा सही कह रहीं हों पर एक साप्ताह बाद जब मिसेज़ वर्मा को केवल इस बात पर जाॅब छोडने का नोटिस मिला कि उस ने कम्पनी के मनाह करने पर भी क्यों उसी पुराने कैमरामेन से अपना कार्यक्रम षूट करवाया जिस को कम्पनी के चीफकैमरामेन ने ब्लेकलिस्ट कर रखा था, तो वह पागलों की तरह हर दूसरे व्यक्ति को यही समझाने की कोशिश कर रही थी कि चीफकैमरामेन ने मनेजमेंट को गुमराह किया है। उस ने कैमरामैन मानस के बारे में जी.एम. को मनगढंत कहानियां कह कर और अपने चेलेचमचों से मानस के विरूध निराधार और झूठी षिकायतें लिखवा कर बेचारे मानस का खासा कैरियर चैपट कर दिया है, यह वही मानस है जिसे सब चैनल-ड्राविंग कैमरामेन कहते थे और जिस ने सचमुच सारा चैनल अकेले अपने कंधों पर सम्हाल रखा था। मानस का दोष था कि वह औरों से बेहतर और अधिाक अच्छा काम करता था। मुझ से मिसेज़ वर्मा की छटपटाहट देखी नहीें जाती, मिसेज़ वर्मा भलीभांति जानती हैं कि अब और आगे क्या होने वाला है... मीडिया में बात फैलते देर नहीं लगती और तब तो बिलकुल भी नहीं जब इस के पीछे आप के अहित को तत्पर लोग आप को मुसीबत में देखकर ही परंानन्दित होते हों।
‘तुम पागल हो मिस्टर धर, नेता लोगों को रिशवत लेते कैमरा में कैद करते हो, अरे क्या हासिल होता है ऐसा करके जब कि वही लोग हमारे साथ नहीं जिन की खातिर हम यह सब करते हैं.....अरे तेरे को रिपोर्ट चाहिये ना तो यह ले ना सनसनी और मसालेदार रेप, क़तल, मर्डर, हड़तालें, कम्यूनल फसाद और न जाने कितने चटपटे विषय हैं जिन से एक चैनल या अख़बार दिलचस्प और देखने, पढ़ने योग्य व बिकरी बढ़ाने वाला बनाया जाता है... घोटाला स्केम किसी पुलटिकिल बैकिंग के बिना एक्सपोज़ करेगा तो कौन तुम्हें बचायेगा..... साला पोल खोलने निकलता है, अपनी तो अवक़ात का पता नहीं दूसरों की पोल खोलेगा.....
हलांकि मैं ने तो सिर्फ रिपोर्ट तैयार की थी, इस को प्रसारित करना या न करना तो चैनल के सम्पादक का काम था, उस वक़्त कैसे सब इसे चाट-चाट कर मज़े ले रहे थे- तारीफे कर रहें थे कि सारा पुलटिकल सिस्टम चरमर्रा जायेगा, पर बाद में? मुझे अचानक बेकार बिटठा दिया, सारा दिन आफिस में बिना काम के.... कितना हीनभाव से भर देता है।.............. ............
‘अब तुम क्या करोगे ?.. कैसे निकल पाओगे यहां से?’..... उस ने मेरे ख्यालों को रोक लगा दी और मुझे अपनी उपस्थिति का बोध दिलाया....वर्षा थम गई थी...... हवा अभी भी कुछ तेज़ थी.....
आज से 15 वर्ष पहले इसी तरह मुझे भी अनाथ किया गया था। मेरा पिता भारत सरकार के संचार विभाग में टेलीफोन आॅपरेटर का कार्य करता था। हम श्रीनगर में हब्बाकदल के अपने पुषतनी मकान में रहते थे। मैं मुषकिल से सात वर्ष का था जब मैं ने माहौल भय और खौफ से भरा पाया। सारे घर के सदस्य सहमे, डरे, कोनों में दुबक कर रह जाते और हंसना खेलना तो दूर, बात भी सरगोषियों में होती। सर्दियों की छुटियां षुरू हो गईं थीं। स्कूल बन्द होने के कारण सडकों पर गहमागहमी भी पहले से कम लग रही थी।
पापा दफतर से लौटे और बिना किसी से बात किये अपने कमरे में चले गये। यह हर दिन जैसा नहीे था, अक्सर पापा दफतर से आ कर कुछ देर हम से हंस खेल कर ही अपने कमरे में कपड़े बदलने के लिए जाते थे। ममी कुछ भांप गईं और पापा के पीछे उन के कमरे में दाखिल हुई। फिर उन दोनो को बातें करते जो कुछ मैं ने सुना, और कुछ ही देर बाद देखा, उस सब के स्मरण मात्र से आज दहल उठता हूं।
पापा अभी कपडे़ भी न बदल पाये थे कि रशीद अपने बन्दूक बरदार साथियों के साथ घर में बेधढ़क घुस गया। उन को देखते ही पापा दो मंजिला मकान की खिडकी से आंगन में कूद पडे। इस बात से बेख़बर कि नीचे दो और व्यक्ति बन्दूक लिए ताक में खडे हैं। पापा को सब ने घेरा और काफी देर उन्हें पीटते रहे। मां ने पुलिस को ख़बर की पर कोई नहीं आया। पिता जी को अधमरा कर वे घसीटते हुए मार्केट में ले गये। वहां रषीद ने सरेआम पिता जी की बाहों, टांगों पर गोलियां चलाईं और उन्हें तडपा तडपा कर मारने लगा। रशीद चिल्ला रहा था,”बट्टा! तुझ को समझाया था भारतीय कुत्तों कोे फोन मत किया कर....ऊपर मत बोला कर, देखो मुख़बिर का क्या हश्र करते हैं हम, अब किधर है तुम्हारी भारत माता ? मर गया ना कुते की मौत....“
आज पन्द्रह साल से अधिक समय गुज़र जाने के बाद भी यह पागलपन नहीे थमा है। रशीद के सारे परिवार में कोई भी नहीं बचा है। जब तक रषीद समझ जाता कि मज़हब के जनून में आकर उस ने अपने ही लोगों के खिलाफ बन्दूक उठाई, काफी समय गुज़र चुका था। लाखों लोग बेघर हुए और सैंकडों मारे गये और अभी तक मारे जा रहें हैं।
जिन्दगी बचाना और लगातार बचाये रखना काफी कठिन काम हो गया है। इस दुनियां में जहां हम ऐसे लोग अपनी खून-पसीने की मेहनत मषक़त की कमाइ पर निर्भर हैं, और जिस को हासिल करने और बचाये रखने में ही हमारा जीवन संघर्षरत रहता है, इसी को कोई आकर अचानक इस तरह ख़त्म करता है। आज के वैज्ञानिक युग में इस से बढ़ कर और क्या चीज़ दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है कि कुछ लोगों को यकीन है कि ऐसा कर के वे किसी मानव धर्म अथवा सम्प्रदाय की सेवा करते हैं।
‘मेरा ख्याल सही निकला, तुम हिन्दू हो...’
‘ हां, मेरा नाम दिनेश है..’
‘ मैं सकीना हूं.....अगर तुम शादीशुदा न होते तो क्या मुझ से ब्याह कर लेते?’
‘ तुम क्यों जानना चाहती हो?’
‘ तुम कितने नेक इमानदार और बहादुर हो, कोई भी औरत तुम्हारी बीवी बन कर गर्व महसूस करे गी।’
‘ यह जानते भी कि मैं काफिर हूं, हिन्दू हूं ?’
‘और वो लोग? कौन थे वे? जो चोरों की तरह रात के अन्धेरे में आये और मेरे सारे परिवार को मौत की नींद सुला दिया? वो तो खुद को मुजाहिद कहते हैं, पारसा मुसलमान !’
‘ सच मानो तो मुझे इन सब बातों पर सोचने का समय ही नहीं मिला, जब से होष सम्हाला है खुद को और परिवार को किसी प्रकार मात्र बचाये रखने में लगा हूं, देष, दुनिया, मज़हब इन बातों के लिए मुझे समय ही नहीं मिला, मुझे तो अपने धर्म के बारे में भी मोटी-मोटी दो एक बातों के सिवा कुछ पता नहीं, पर मैं एक बात पुख्ता तौर पर समझता हूं कि कुदरत ने हम सब को एक ही मिटटी से बनाया है और हम सब उस की एक जैसी सन्तान हैं।’
‘एक सच्चा आदमी ही इस बेबाकी से बिना लाग लपेट के अपनी राय ज़ाहिर कर सकता है। मुझे लगता है हमें कैसे भी यहां से निकल जाना चाहिए, वो लोग कभी भी दुबारा टपक साते हैं।’
‘ तुम ठीक कहती हो, पर सारे रास्ते बन्द पडे हैं और तुम अभी पूरी स्वस्थ भी नहीं हो...’
‘ मैं सारे रास्तों से वाकिफ हूं, मेरी चिंता मत करो, मैं अब पहले से काफी ठीक हूं , चलो नहीं तो काफी देर हो जायेगी’
‘चलो......’
मीलों घुप अन्धेरे में खौफ़नाक रास्तों को पार कर के हम दोनों सुबह होते रामबन पहुंचे। वहां से जम्मू और जम्मू से सीधा दिल्ली।
दिल्ली में क़दम रखते ही मैं ने न्यूज़ एडिटर को फोन किया, वह काफी उतेजित था,‘ कहां हो तुम ! मेरे यार, मेरे हीरो, देखो मेरी बात ग़ौर से सुनो, लिस्न टु मी कियरफुली... तुम्हारे पीछे और लोग पडे़ हंै...तुम कैसे भी इसे ले कर अपने कंपनी गेस्ट हाउस पहुंच जाओ, अरे भाई तुम समझा करो, तुम चैनल के लिए गोल्डन गूस़ ले कर आये हो।’
‘हां मैं समझ गया, ओ के बाइ’
मैं मुआमला समझता हूं, लेकिन मेरे साथ बार-बार तूं ग़ेम नहीं खेल सकता और अब की बार तो बिलकुल भी नही।
‘क्या बात है, सब ठीक तो है ना?।’
‘ हां सब ठीक है, कोई तुम से पूछेगा कि वहां क्या घटा तो क्या कहोगी?।’
‘ जो कुछ हुआ और क्या कहूंगी,’
‘ ध्यान से कहना जो भी कहो, कोई भी ग़लती नहीं करना’
‘ क्या कुछ कहना ज़रूरी है?’
‘ वो तुम्हारी इछा है’
दिनेश का मोबाइल बज रहा है, वह अनइच्छा से काॅल लेता है। श्
‘ हां मैं दिनेश ही बोल रहा हूं और मैं कम्पनी गेस्ट हाउस ही आ रहा हूं, पर मेरी बात ध्यान से सुनो, यह लडकी कुछ भी बोलने को तैयार नहीे’
‘क्यों?’
‘इस की शर्त है, यह ग्रेजुअट है, इसे जाॅब चाहिए, जाॅब दे दोगे तब ही कुछ बोलेगी’
‘इस के लिए तो मालिक से बात करनी होगी’
‘हां तो बात करो न साहब से '
‘ऐसे क्या वे मुझे जाॅब दे देंगे?’
‘हम ने तो एक तुका लगाया है चल गया तो तुमहारा इस षहर में रहना फिलहाल तो मुमकिन हो जायेगा, बाद में सब का अलाह तो मालिक है ही’
‘तुम आसानी से इस मौक़े का अपने हित के लिए इस्तेमाल कर सकते थे तुम ने मेरी मदद करना मुनासिब समझा, क्यों?’
‘हम दोनो ही एक जैसे हालात के शिकार है, तुम्हारे घाव अभी हरे हैं और मैं अब तक इस सब का आदी हो चुका हूं जिस का मुकाबला तुम्हें अब करना पडे गा, वास्तव में आज से तुम्हारी जिन्दगी के असली जोख़म शुरू हो चुके हैं, यहां कोई बन्दूक ताने जान लेने को तत्पर नहीं है फिर भी जीना हर पल कठिन ही नहीं कभी-कभी असम्भव लगता है’।
‘मुझे ऐसे जोख़म मंज़ूर है, पर बिना किसी प्रतिवाद के असहाय पशु की तरह उन की गोलियों का षिकार बनना मुझे मनजूर नहीं’
‘मैं तुम्हारी सफलता की इष्वर से कामना करूंगा’
मेरे माथे से पसीना पोंछते सकीना मुझे मेरे घर के सामने छोड कर अकेले कम्पनी गेस्ट हाउस की तरफ रवाना हुई, उस के क़दमों में ग़ज़ब की फुर्र्ती और षान देखते बनती थी--
दिनेश का मोबाइल देर तक बजता रहा, दूसरे सिरे से एडिटर ही कह रहा था,
‘भेज दो उस को नौकरी पर रख दें गंे। नयी खबर क्या है?’
‘कोई खबर नहीं सर..’ दिनेश ने मोबाइल फर्श पर पटक दिया।
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मानसरोग
‘वह न बढ़ता है, न घटता है, न उस का कोई आदि है न कोई अन्त, पहले उस ने स्वयं को ब्रह्म रूप में स्थापित किया फिर यह सारा विश्व स्थापित हुआा, वो समयातीत है, हमारी तरह जीवन मरण के बन्धन में वह बन्धा नहीं है।
वो अजर-अमर प्रकृति में बीज रूप है और हम उस के अंश मात्र हैं, जो पानी के बुलबुलों की तरह बनते मिटते रहते हैं। हमारी पृथवी की तरह अनेकों अन्य ग्रह उपग्रह और हज़ारों सौरमण्डल हैं। हम वृहद्ध ब्रह्माण्ड का ही एक लघुतम अंश रूप मात्र हैं। वही पालनहार है, वही तारनहार है। ईश्वर ने हमें एक विशेष गुण दिया है जो अन्य जीवों को नहीं दिया है, जो अन्य जीव इस संसार में आहार निद्रा और मैथुन तक ही सीमित जीवन जीते हैं, वहीं मनुष्य को मन, बुद्धि, और कर्म से प्रेरित जीवन की असीमताओं को खोजने के लिए स्वतन्त्र छोडा है। इस लिए ईश्वर क्या है, कहां है, क्यों है, कैसे है, यह सब आप की मन, बुद्धि और कर्म की स्थिति पर निर्भर करता है।
आप ने यदि अपने मन, बुद्धि का समुचित विस्तार किया है, बुद्धि के सदोपयोग से ज्ञान का अर्जन कर अपना कर्मपथ प्रश्स्त किया है, तो ईश्वर स्वयं आप को वह चक्षू प्रदान करेंगें जिन से उन के साक्षत दर्शन होते हैं। ईश्वर आप के भीतर विध्यमान है, बिलकुल हिरण की कस्तूरी सा।
......लम्बा प्रवचन सुनते उसे नींद आने लगी थी, उस की मां उसे यहां ज़बरदस्ती घसीट लाई थी। वह और कुछ सुन नहीं पायेगा, वह कथाभवन से बाहर आकर आकाश की नीलिमा और स्वछता में शरद् की रात्रि में खिले पूर्णिमा के चान्द को एकटक निहारने लगा। उस के क़दम अपने आप उसे कथाभवन से दूर एक सुन्दर निर्जरन में ले आये। उसे पता भी न चला कि वह कब इतने सुनसान को लांगता इस वीराने में खडी एकमात्र पहाडी के सिरे तक पहुंच गया। उस ने अपने झोले से बांसुरी निकाली और मधुर तान छेड कर जैसे सारे वीराने में जीवन के नवांकुर बोनेे लगा।
उस की मां को यकीन था कि स्वामीजी अपने योग और अध्यात्मबल की शक्ति से उस के बेटे का मनोरोग दुर कर सकते हैं। डाक्टरों के उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ। मां तन्मयता से प्रवचन सुनने में आंखें मूंदें लीन थी। मन अपने बालक के स्वस्थ होने की कामना में विलीन था। वह काफी टूट चुकी थी। थकी हारी सोच रही थी कि उस ने कैसे सारा जीवन वायू अग्नि, नीर से पवित्र देवों को पूजते
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व्यतीत किया। कैसे अपने पतिव्रत का पालन कर अपने ग्रहस्थ में सारे जीवन को फूंक दिया, तब किस पाप किस अपराध की सज़ा ईश्वर उसे दे रहा है?
सहसा उस के सोच को जैसे झटका लगा, उस की तन्द्रा टूट गई और सामने अगल बगल महेश को न देख कर उस का दिल बैठने लगा। आयाचित अनर्थ बोध से वह सिहर उठी, एकदम से कई विचार कौंधने लगे। कहीं वह विमल या कमल कुण्ड़ की तरफ तो न गया हो, समय, स्थिति और स्थान का बोध न रहने के कारण मां को मतिभ्रम हो रहा था। उसे लग रहा था कि वह कहीं मातण्र्ड के अपने कश्मीर के कथाभवन में हैं और बालक महेश उसे छोड कर 16 फीट गहरे कुण्ड की ओर अकेला गया है, उसे चिंता होने लगी कि कहीं उस का पैर फिसल गया और वह फिर उस कुण्ड में गिर गया। दोनो कुण्ड हालांकि सूर्य देव की संतति के रूप मे पूजनीय हैं , यहां इहिलौक ही नहीं परलौक को भी लोग सुधाारने आते हैं। ं
तभी उसे सुनाई दिया, - चिंता नहीं करो, चिंता करने से कभी किसी समस्या का हल नहीं निकलता है, पुरूषार्थ करो, उसे खोजो देखो वह अवश्य यहीं कहीं तुम्हारे आस पास मिलेगा।
स्वामी जी ने किस आश्य से यह बात कही हो मां ने इसे अपने संदर्भ से जोड कर देखा और महेश को देखने कथाभवन से बाहर आई।
शरद पूनर्निमा का खिला और खुला चान्द आकाश के दूसरे छोर की ओर अग्रसर था। हर तरफ चान्दनी के झुरमुट और रहस्य छायाओं के मायावी दूत क्रीडामग्न लग रहे थे। पर मां की आंख केवल उक निरीह बीहड और वीराने से आगे कुछ नहीं देख पा रही थी। न यहां विमल कुण्ड था और न ही कोई कमल कुण्ड। दिल दहला देने वाली चुप्पी और इस को चीरती तेज़ हवा से हिलते पतों की सायं-सांय।
पेडों के झुरमुट से तांक झांक करते कुमुद ने उस का ध्यान खेंच ही लिया और इस एक इशारे ने सारी दुनियां उस के सामने ला खडी की। उस का गौना, और पहली रात, थोडा भावतौल और फिर जन्म भर के लिए आत्मसात कर आत्म संपर्ण। ठिठोली, पहेली जीवन के रंगों का फीका पडना और चान्दनी का बेमायने हो जाना। कुछ भी न तोड पाया था उसे। जीवट जुटा कर लडी थी वह। हर चुनौती से झूझी थी वह। इस तरह के जीवन में भी उसे एक उत्साह और एक आनन्द का अनुभव होता था। उस की उम्मीद बनी हुई और बन्दी थी महेश से, जिसे वह इस वीराने में तलाश रही है।
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दूर इस वीराने का सीना चीरती वहां उस छोटी पहाडी की चोटी से बांसुरी की सुरीली धुन कानों में आर्तनाद सी गूंज उठी। यह और कोई नहीं महेश ही तो है। भागते क़दमों मां ने बांसुरी की धुन का अनुसण किया और बहुत सारा नर्जिरन लांघती उस चोटी के निकट पहुंच गयी। महेश मस्त होकर बांसुरी बजा रहा था और उसे किसी भी चीज की सुध न थी। मां चुपचाप अपने लाडले से थोडी दूर बैठ कर उस की बांसुरी सुनने में मग्न हो गई।
यह रात, जंगल, और सुनसान बियाबान नहीं, स्मृति का क्रीडास्थल हैं। एक बांसुरी में अपना अतीत खोज रहा है और दूसरा उस अतीत में अपने आप को तलाशता है। दोनों वर्तमान से कट कर उन दिनों में लीन हैं जो अत्यन्त कठोर होने के पश्चात भी सुखद आश्चर्य से भर देते हैं। मां सोच भी नहीं सकती कि उस का लाडला बेटा किसी मनोरोग से ग्रस्त है। क्या कोई मनोरोगी इस प्रकार इतनी दर्दभरी धुन छेड सकता है।
आज से वर्षों पहले भी इसी प्रकार के प्रश्न किसी अन्य संदर्भ में मां के मन में उठे थे। क्या महेश का जीवन इस मुई बांसुरी से भी आगे बढेगा। जब देखो बांसुरी ही बजाता रहता है। ठीक है गांव भर में सब को इस की बांसुरी बजाना अच्छा लगता है। सब मंत्रमुग्ध हो उठते हैं पर इतना क्या काफी होगा? जीवन भी तो चलाना है और उस के लिए तो पढ लिख कर कुछ करना होगा।
महेश ने कैसे बी0ए0 पास कर लिया मां को पता भी न चला। पर महेश के पिता को अब फौजी डिप्पो में लेबर की नौकरी करते उमर बीत गई। सुख का एक पल भी न देखा। सवेरे पौ फटते उठ कर नहा धो कर तैयार होना और 10 किलोमीटर करेवा की पठार चढना उतरना, तब जा कर खुन्द्रो के डिप्पो में ठीक नौ बजे हाज़री दे पाते। गांव के कई जवान इस प्रकार अपने परिवार का पेट पालते। महेश के पिता को सतसंग और भजन कीर्तन का काफी शौक था, गला सुरीला था और मन मे ईश्वर की जितनी तीव्र भक्ति थी, उसी अनुपात से जैसे अभावों ने घेर रखा था। भक्ति भी कुछ ऐसी कि कुछ सुधबुध न रहती। भजन मंडली में साईं के साथ रम जाते तो काम के दिन छूटने के कारण वेतन में अक्सर कटौती होती। इस तरह घर में कभी कभी खाने को भी पूरा न पड़ता, पर जैसा भी हो जीवन कट रहा था। एक दूसरे की किताबें पढते हुए, तीन बेटियों और बेटे ने अपनी पढाई ठीक ठाक कर ली। इन बच्चों की मिसाल दूसरे घरों में दी जातीे, कैसे अभावग्रस्त होने पर भी इन बच्चों ने अपनी पढाई समय से पूरी की। पर साधनहीन और उचित मार्गदर्शन के अभाव में अपने लिए अछा केरियर कोई बच्चा बना नहीं पाया। बडी बेटी ब्याह दी गई थी। बाकी दो बेटियां और बेटा कुंवारे थे।
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मां को सारी बातें परत दर परत याद आ रहीं थी। वह जैसे समझना चाहती थी कि उस की किस ग़लती के कारण महेश के मन को किसी रोग ने घेर लिया। क्यों ऐसा हुआ। उस के मन और वश में जो कुछ था वह क्यों ऐसे अचानक हाथें से छूट कर सब फिसलता गया। उस के जीवन में अब क्या रह गया है? कुछ भी तो नहीं।
तभी बांसुरी की धुन बजना बन्द हो गई और मां महेश के क़रीब जा कर उसे अपने साथ वापस लेने के लिए हाथ बढ़ा कर चलने को कहने लगी।
-कौन हैं आप माता जी ? ऐसा प्रश्न सुनकर मां ठिठक गई और बेगानी आवाज़ को करीब से निरीक्षण करने लगी अरे यह क्या? यह तो कोई और ही है...मौन और स्तब्द्ध हो मां इस अजनबी को देख बिजली की चपलता से वापस मुडी और महेश, महेश चिलाते भागने लगी...अजनबी उस के पीछे भागा और कुछ ही दूर मां पछाड खा कर गिर गई।
जब मां ने आंखें खोली तो वह उस अजदबी की बाहों में सिर रख कर बैठी थी। -बेटा तुम कौन हो मेरा बेटा महेश कहां है?
अजनबी नौजवान ने मां को दिलासा दिया कि उस का बेटा यहीं कहीं होगा, लेकिन मां को अनिष्ट की आशंका ने घेर लिया। वापस कथाभवन में जाने का मन बना लिया, हो सकता है वह वापस वहीं आया हो।
-तुम परेशान न हो बेटा, मैं अपना रास्ता तलाशलूंगी, जाओ अपना काम करो, तुम ने मेरी देखबाल की तुम्हारा धन्यवाद।
-पर आप अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं।
-मेरी चिंता न करो,
नौजवान ने मां का कहा टालना मुनासिब न समझा, वह अपने पथ को लौट गया। मां सोचने लगी, कैसे उस के लाल ने उस का दामन खुशियों से भरने का हरचन्द प्रयत्न किया! कितने अच्छे दिन थे वे।
महेश कीे पोस्ट एण्ड टेलीग्रफ की नौकरी सारे घर के लिऐ वरदान साबित हुई थी। घर का सारा दारिद्र धीरे-धीरे छंटने लगाा था। खोयी प्रतिष्ठा और सम्मान वापस लौटने लगा था। महेश के लिए रिशतों का तांता लगने लगा था। मां की बचपन की सहेली तोषा की बेटी मां को बहुत पसंद थी पर महेश उसे अपनी छोटी बहन मानता था और शादी से साफ इनकार किया था। गांव वाले दबी ज़ुबान यहां
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तक बोलने लगे थे कि थोडे पैंसे क्या आगये कि खुद को राजकुमार ही समझने लगाा है। कहां करेगा शादी आखर अरे तो कितने अच्छे रिशते ठुकरा चुका है।
नौकरी के कारण महेश की बांसुरी उस की कितबें और उस की कितबों के मानसपुत्र मित्र सब छूट गये थे। सुबह सवेरे अपने पिता के ही समान अब महेश नहा धो कर तैयार हो शहर जाने वाली सब से पहली गाडी पकडकर दफतर जाता और देर रात शहर के दफतर से घर लौट पाता। अख़बार तक पढने का समय न मिलता और बुरी तरह सफर से थका शरीर खाना खाते ही बिस्तर से चिपक जाता। न किसी से हंसी मज़ाक न ठिठोली और न कोई बातचीत।
इस बीच दफतर में शहर की एक रंगचिडडृी उस को अपने रंग में रंगने लगी। वो दिखने में चंचल-चपल और बावली लगती, उसे देख कर वह ऐसे देखता रह गया था मानो कोई स्त्री ही दुनिया में पहली बार देखी हो।
और इस बीच शहर बस रहा था या बीत रहा था, महेश को इस की किंचित भन्नक आने लगी थी। जिस तरह से लोग डर कर, दुबक कर, और फुसफुसाहटों में कुछ बुदबुदाते जैसे कहना कुछ हो और कुछ और ही कह जाते। वितस्ता का नीर रंग बदल बदल कर बह रहा था, हर एक इसे देख कर भी अनदेखा कर रहा था क्यों कि हर कोई बस वही देख रहा था जिस में उसे रूचि होती और महेश की गहन रूचि सरोज में बढ़ती जा रही थी।
अपनी ओर आवश्यक्ता से अधिक लालायित इस गंवार फूहड और बेढंगे आदमी पर सरोज को केवल दया आती। सरोज के पास ऐसे बेहूदा आदमी के लिए हरगिज़ समय न था। पर सरोज हैरान थी कि यह उसे हो क्या गया हैं। क्यो वह बार बार उसी के विषय में सोच रही होती है। वह उसे देख रहा है या अपना काम कर रहा है? सरोज यह जानने के लिए बार बार कनख्यों उसे देखती रहती पर वह हमेशा अपने काम में व्यस्त होता।
किसीे आबनूस सा लम्बा क़द, मूंह पर हलकी भूरी शेव, वह सरोज को हर रंग और हर लिहाज़ से ईसा का सा रूप दिखता। मानो अभी अभी सलीब से उतर कर नया जन्म मिला हो। सरोज अपने मन पर काबू खो रही थी और अबोध भाव से भर गई थी। उसे यह क्या हो गया है। दफतर में उसे कितने लोगों ने सिर आंखों पर रखने के वादे किये पर हर एक को निराशा ही हाथ लगी।
इधर समय तेज़ी से सरक रहा था। और समय सरोज के पास भी बहुत कम रह गया था। पता ही नहीं चला कब लडकपन बीता जवानी में क़दम रखा और अब
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सहसा जैसे जवानी किसी टीले से खाई में गिरने वाली हो। वह अपने आप को दोनो हाथें से सहेजे बस महेश पर निगाह ताने बैठी थी। थक हार कर वह महेश के सामने यन्त्रवत खडी हो गई और सारे वातावर्ण से बेखबर उस की मेंज़ के सामने खाली पडी कुर्सी पर बैठ गई।
बुख़ारी में अंगाार सुलग कर राख में बदल गये थे। राख में भी काफी उष्मा बाक़ी थी। बाहर बर्फबारी रूकने का नाम नहीं ले रही थी, सवेरे से ही मौसम ने अपना रूख साफ किया था। आज कोई तूफान खडा होगा।
पर यहां दोनो चुपी साधे बैठे थे। इस चुपी को क़रीम चाचा ने तोडा, दो चाय की प्यालियां मेज़ पर रख कर।
सरोज की ओर चाय की प्याली खिसका कर महेश अपने देहाती अंदाज़ में बोलने लगा, ‘ मैं , मतलब..... कि हम ...मेरे घर में मां-बाप और तीन बहने हैं, बडी बहन की शादी हो चुकी है। मेरा कोई भाई नहीं, बाप ने मेहनत मज़दूरी कर के जैसे तैसे पढाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि ... आप से कह सकूं ...
बाहर बर्फ की घनी फुंगुनियां लहरा लहरा के आकाश से धारती की ओर सरक रहीं थी। सरोज ने भूरे रंग का शाल ओढ रखा था, उस के गुलाबी गालों में अतिरिक्त धमक और आंखों में लावण्यता की चमक साफ झलक रही थी। वह सोचने लगी क्या अभिप्राय है मुझ से यह सब कहने का, क्या मेरी अपनी हालत इस से कहीं बेहतर है ? कौन से सोने चान्दी के ढेर लगे हैं अपने यहां। प्राइवेट स्कूल में मां ने टीचर बन कर दोनें भाई बहन को पिता जी के देहांत के बाद पढाया लिखाया। भाई ने मुम्बई में जा कर किसी कम्पनी में नौकरी की वहीं शादी ब्याह किया और मुड कर कभी वापस घर में क़दम नहीं रखा। मैं मां का अकेला संबल हूंृँ और वह मेरा। टूटे हुए सपनों के कचरे भरे ढेर पर खडी ज़िन्दगी में जब भी कोई उम्मीद की कली खिलने की सम्भावना दिखी तो कचरे की तहें लिपट कर नीचे खेचती गईं।
‘ मै तुम से शादी करना चाहता हूँ। ’ महेश कह रहा था। उस ने जैसे कुछ सुना नहीं और चुपचाप बैठी रही।
इस चूपी को महेश ने फिर तोडा और कहने लगा, - आज मौसम एकदम मस्त लग रहा है, बहुत दिनों की सूखी ठंड के बाद ....आज मौसम में तरावट सी आई है।
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सरोज ने जाने क्या सोचते कहा- कल यही बर्फ जमकर पत्थर सी सख्त होगी और बर्फीली हवा हम को परेशान करेगी, अब तो कडाके का जाडा पडेगा।
महेश का हौसला बढ़ गया और कह उठा- नहीं , यह तो जाते शिशर की बर्फ है, अधिक दिन न टिकेगी। धूप निकलते ही यह बर्फ पानी बन कर पिघल जायेगी।
-पर मुझे बहार बहुत अछी जगती हैं । सरोज ने जैसे कोई ग़लत बात कह दी हो, अपनी ही कही बात पर वह सहसा सिहर सी गई।
महेश पूछ रहा था- मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया आप ने।
- हां कर दूं , ऐसा मन कहता है, सोचती हूँ कि कैसे सीधे बिना किसी लाग लपेट के बहुत स्पष्ट सब कुछ कहते हो। पर सरोज केवल ऐसे सोच रही थी। महेश से कह उठी- तुम मुझे कितना जानते हो, देखो , क्या तुम्हें मालूम है कि . ....
मुझे सब कुछ मालूम हैं-
एक ज़ोरदार धमाके नें टेलीकाम भवन की नींवें तक हिला दीं। भवन की खिडकियों के परखचे उड गये। बाहर लोगों के रेलमपेल का शोर भीतर को सज्डााटे से भर गया।
बात बिगड गई बनने से पहले। उसी रात कुछ बन्दूकबरदारों ने सरोज को घर से उठा लिया और सात दिन बाद उस की लाश सडक़ के बीचों बीच अर्दनंग्न रूप में पुलिस को बरामद हुई। बरबर्ता से सरोज का सामूहिक बलातकार और फ़िर यातना देदे कर चाकुओं से गोद गोद कर तडपा तडपा कर मार गया था।
महेश को समझ नहीं आरहा था कि यह क्यों हुआ, कैसे कोई इस क़द्धर हयवानियत पर उतर सकता है , महेश को बताया गया कि कोई मज़हब है या किसी तरह की आज़ादी की जंग जिस के लिए ऐसा करना लाज़मी बन गया था।
वह उन लोगों की मदद करने के लिए राज़ी नहीं हुई जो उस की मदद चाहते थे। खैर यह सब तो महज़ बहाने थे , सच तो यही था कि इन को एक कौम में भय और दहशत फैलानी थी।
महेश किसी भी बात से सहमत नहीं, उस के सामने से सरोज का चेहरा एक मिनेट को भी नहीं हटता। वह काठ की तरह बेखुद रहने लगा। संसार जैसे उस के लिए बेमायने सी बात हो गई। किसी को उस का दुःख या दर्द समझ न आया,
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वह बिलकुल संसार से असंपृक्त हो गया और यंत्रवत दफतर का काम करने लगा। एक रोज़ मां को यह कर घर से निकल पडा कि जम्मू जा रहा हूँ और बाद में लौटा ही नहीं।
काफी दिन प्रतीक्षा करने पर भी जब महेश नहीं लौटा और सब मुहल्ला पलायन करने लगाा तो मां ने महेश के पिता को इस वास्तविकता से दो चार किया कि यह स्थान अब बिलकुल रहने लायक नहीं रहा है। लडकियों का बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। सब ने हालात ठीक होने तक और लोगों की तरह जम्मू जा कर कहीं शर्ण लेने का मन बनाया।
महेश को देख उस की मां बिलख बिलख कर रोने लगी। कैम्प कमाडेन्ट ने सारे परिवार को मिलाया, बहनों का जिगर छलनी था, बाप कोने में बुबक कर आने वाले समय की दुदर्शा को साफ देख कर चिंतित था। उस पर महेश की हालत ने तो जैसे कमर तोड दी थी।
जम्मू के पालीटेकनीक के आधेअधूरे से बने भवन के एक लम्बें हाल में सरोज की मां और महेश सैंक्डों शर्णिथर््ायों के साथ रह रहें हैं। दोनें बस जी रहें है। सरोज की मां को बिलकुल भी पता नहीं उसे कौन यहां ले आया और क्योकर वह इस के साथ है। दोनों के सम्पर्कसू़त्र जैसे संसार से कट गये है। न कहीं पर्दा न कोई दीवार और न कोई दरकृसब केवल दरबदर....तितर बितर ...कुछ अदद गलीचों की सीमा में सिमटे परिवारों में बिखर कर पडे जी रहे थे।
मां को लगा कि जिस अरण्य में वह भटक गई है उस का कहीं से भी कोई आदि या अन्त नहीं है। कथाभवन से निकल कर वह किस छोर से इस वन में घुसी थी इस के बारे में उसे कुछ स्मरण नहीं। अब चान्द उसे काटने को दौड रहा था। हलांकि कुछ ही पल में सूरज की रौशनी शायद यह दिशाभ्रम दूर कर दे। पर मां को जैसे सूरज के उगने का कदाश्ति कोई बोध ही न रहा हो। वह बस रूंधे गले अपने बेटे को आवाज़ लगाती खोजती जा रही थी।
रास्ते में अनेकों जंगली जानवर उसे मिले, कोई उसे खाने तक को रूचि नहीं दिखा रहा था, सब उसे अनदेखा कर रहे थे। थक हार कर आखिर उस की आंख लग गयी और उसे किसी की सुद न रही।
जब जागी तो सूरज सर पर आ गया था और उसे बेहद प्यास लग रही थी। उसे बर्र्गिशाखा के उच्च शिखर का देवी मन्दिर याद आया और उस पर्वत शिखर के गोलार्द में पहलगाम जाती राह में बटकोट से निकलती नहर के पानी का स्मरर्ण हुआ। प्यास दुगनी गति से बढ़ने लगी। सूरज तप रहा था और जंगल में दूर दूर
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तक पानी का अक्स तक न था। कहीं कोई जल प्रपात या कोई छोटी बावली तक न मिली तो उस ने अपने प्राणों की आशायाग दी।
तभी महेश सा व्यक्ति सामने प्रकट हुआ। शीतल पानी की बोतल का ढक्कन खोल कर मां को पानी पिलाया और मां गहरी नींद सो गई।
महेश कथाभवन में लौटा देखा सब भक्त लोग गहरी नींद सो रहे हैं और मंच पर स्वामी के स्थान पर एक मशीन पर प्रवचन जारी था। काफी देर कथाभवन में बैठने के बाद महेश घर लौट आया। वह खुश था कि मां भी जैसे तैसे घर पुहंच गई है।
सुबह लोगों ने अख़बार के एक कोने में एक लाइन का समाचार पढा, एक मनोरोगी ने जीवन से तंग आकर आत्म हत्या की। पुलिस मगर इसे हत्या का मामला बता रही है और इस संबन्ध में मृतक के पिता को पुलिस गिरिफ़तार कर चुकी है।
सारा शणार्थी कैंप इस समाचार से त्रस्त था, और सब मूक बधिरों में बदल गये थे।
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‘वह न बढ़ता है, न घटता है, न उस का कोई आदि है न कोई अन्त, पहले उस ने स्वयं को ब्रह्म रूप में स्थापित किया फिर यह सारा विश्व स्थापित हुआा, वो समयातीत है, हमारी तरह जीवन मरण के बन्धन में वह बन्धा नहीं है।
वो अजर-अमर प्रकृति में बीज रूप है और हम उस के अंश मात्र हैं, जो पानी के बुलबुलों की तरह बनते मिटते रहते हैं। हमारी पृथवी की तरह अनेकों अन्य ग्रह उपग्रह और हज़ारों सौरमण्डल हैं। हम वृहद्ध ब्रह्माण्ड का ही एक लघुतम अंश रूप मात्र हैं। वही पालनहार है, वही तारनहार है। ईश्वर ने हमें एक विशेष गुण दिया है जो अन्य जीवों को नहीं दिया है, जो अन्य जीव इस संसार में आहार निद्रा और मैथुन तक ही सीमित जीवन जीते हैं, वहीं मनुष्य को मन, बुद्धि, और कर्म से प्रेरित जीवन की असीमताओं को खोजने के लिए स्वतन्त्र छोडा है। इस लिए ईश्वर क्या है, कहां है, क्यों है, कैसे है, यह सब आप की मन, बुद्धि और कर्म की स्थिति पर निर्भर करता है।
आप ने यदि अपने मन, बुद्धि का समुचित विस्तार किया है, बुद्धि के सदोपयोग से ज्ञान का अर्जन कर अपना कर्मपथ प्रश्स्त किया है, तो ईश्वर स्वयं आप को वह चक्षू प्रदान करेंगें जिन से उन के साक्षत दर्शन होते हैं। ईश्वर आप के भीतर विध्यमान है, बिलकुल हिरण की कस्तूरी सा।
......लम्बा प्रवचन सुनते उसे नींद आने लगी थी, उस की मां उसे यहां ज़बरदस्ती घसीट लाई थी। वह और कुछ सुन नहीं पायेगा, वह कथाभवन से बाहर आकर आकाश की नीलिमा और स्वछता में शरद् की रात्रि में खिले पूर्णिमा के चान्द को एकटक निहारने लगा। उस के क़दम अपने आप उसे कथाभवन से दूर एक सुन्दर निर्जरन में ले आये। उसे पता भी न चला कि वह कब इतने सुनसान को लांगता इस वीराने में खडी एकमात्र पहाडी के सिरे तक पहुंच गया। उस ने अपने झोले से बांसुरी निकाली और मधुर तान छेड कर जैसे सारे वीराने में जीवन के नवांकुर बोनेे लगा।
उस की मां को यकीन था कि स्वामीजी अपने योग और अध्यात्मबल की शक्ति से उस के बेटे का मनोरोग दुर कर सकते हैं। डाक्टरों के उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ। मां तन्मयता से प्रवचन सुनने में आंखें मूंदें लीन थी। मन अपने बालक के स्वस्थ होने की कामना में विलीन था। वह काफी टूट चुकी थी। थकी हारी सोच रही थी कि उस ने कैसे सारा जीवन वायू अग्नि, नीर से पवित्र देवों को पूजते
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व्यतीत किया। कैसे अपने पतिव्रत का पालन कर अपने ग्रहस्थ में सारे जीवन को फूंक दिया, तब किस पाप किस अपराध की सज़ा ईश्वर उसे दे रहा है?
सहसा उस के सोच को जैसे झटका लगा, उस की तन्द्रा टूट गई और सामने अगल बगल महेश को न देख कर उस का दिल बैठने लगा। आयाचित अनर्थ बोध से वह सिहर उठी, एकदम से कई विचार कौंधने लगे। कहीं वह विमल या कमल कुण्ड़ की तरफ तो न गया हो, समय, स्थिति और स्थान का बोध न रहने के कारण मां को मतिभ्रम हो रहा था। उसे लग रहा था कि वह कहीं मातण्र्ड के अपने कश्मीर के कथाभवन में हैं और बालक महेश उसे छोड कर 16 फीट गहरे कुण्ड की ओर अकेला गया है, उसे चिंता होने लगी कि कहीं उस का पैर फिसल गया और वह फिर उस कुण्ड में गिर गया। दोनो कुण्ड हालांकि सूर्य देव की संतति के रूप मे पूजनीय हैं , यहां इहिलौक ही नहीं परलौक को भी लोग सुधाारने आते हैं। ं
तभी उसे सुनाई दिया, - चिंता नहीं करो, चिंता करने से कभी किसी समस्या का हल नहीं निकलता है, पुरूषार्थ करो, उसे खोजो देखो वह अवश्य यहीं कहीं तुम्हारे आस पास मिलेगा।
स्वामी जी ने किस आश्य से यह बात कही हो मां ने इसे अपने संदर्भ से जोड कर देखा और महेश को देखने कथाभवन से बाहर आई।
शरद पूनर्निमा का खिला और खुला चान्द आकाश के दूसरे छोर की ओर अग्रसर था। हर तरफ चान्दनी के झुरमुट और रहस्य छायाओं के मायावी दूत क्रीडामग्न लग रहे थे। पर मां की आंख केवल उक निरीह बीहड और वीराने से आगे कुछ नहीं देख पा रही थी। न यहां विमल कुण्ड था और न ही कोई कमल कुण्ड। दिल दहला देने वाली चुप्पी और इस को चीरती तेज़ हवा से हिलते पतों की सायं-सांय।
पेडों के झुरमुट से तांक झांक करते कुमुद ने उस का ध्यान खेंच ही लिया और इस एक इशारे ने सारी दुनियां उस के सामने ला खडी की। उस का गौना, और पहली रात, थोडा भावतौल और फिर जन्म भर के लिए आत्मसात कर आत्म संपर्ण। ठिठोली, पहेली जीवन के रंगों का फीका पडना और चान्दनी का बेमायने हो जाना। कुछ भी न तोड पाया था उसे। जीवट जुटा कर लडी थी वह। हर चुनौती से झूझी थी वह। इस तरह के जीवन में भी उसे एक उत्साह और एक आनन्द का अनुभव होता था। उस की उम्मीद बनी हुई और बन्दी थी महेश से, जिसे वह इस वीराने में तलाश रही है।
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दूर इस वीराने का सीना चीरती वहां उस छोटी पहाडी की चोटी से बांसुरी की सुरीली धुन कानों में आर्तनाद सी गूंज उठी। यह और कोई नहीं महेश ही तो है। भागते क़दमों मां ने बांसुरी की धुन का अनुसण किया और बहुत सारा नर्जिरन लांघती उस चोटी के निकट पहुंच गयी। महेश मस्त होकर बांसुरी बजा रहा था और उसे किसी भी चीज की सुध न थी। मां चुपचाप अपने लाडले से थोडी दूर बैठ कर उस की बांसुरी सुनने में मग्न हो गई।
यह रात, जंगल, और सुनसान बियाबान नहीं, स्मृति का क्रीडास्थल हैं। एक बांसुरी में अपना अतीत खोज रहा है और दूसरा उस अतीत में अपने आप को तलाशता है। दोनों वर्तमान से कट कर उन दिनों में लीन हैं जो अत्यन्त कठोर होने के पश्चात भी सुखद आश्चर्य से भर देते हैं। मां सोच भी नहीं सकती कि उस का लाडला बेटा किसी मनोरोग से ग्रस्त है। क्या कोई मनोरोगी इस प्रकार इतनी दर्दभरी धुन छेड सकता है।
आज से वर्षों पहले भी इसी प्रकार के प्रश्न किसी अन्य संदर्भ में मां के मन में उठे थे। क्या महेश का जीवन इस मुई बांसुरी से भी आगे बढेगा। जब देखो बांसुरी ही बजाता रहता है। ठीक है गांव भर में सब को इस की बांसुरी बजाना अच्छा लगता है। सब मंत्रमुग्ध हो उठते हैं पर इतना क्या काफी होगा? जीवन भी तो चलाना है और उस के लिए तो पढ लिख कर कुछ करना होगा।
महेश ने कैसे बी0ए0 पास कर लिया मां को पता भी न चला। पर महेश के पिता को अब फौजी डिप्पो में लेबर की नौकरी करते उमर बीत गई। सुख का एक पल भी न देखा। सवेरे पौ फटते उठ कर नहा धो कर तैयार होना और 10 किलोमीटर करेवा की पठार चढना उतरना, तब जा कर खुन्द्रो के डिप्पो में ठीक नौ बजे हाज़री दे पाते। गांव के कई जवान इस प्रकार अपने परिवार का पेट पालते। महेश के पिता को सतसंग और भजन कीर्तन का काफी शौक था, गला सुरीला था और मन मे ईश्वर की जितनी तीव्र भक्ति थी, उसी अनुपात से जैसे अभावों ने घेर रखा था। भक्ति भी कुछ ऐसी कि कुछ सुधबुध न रहती। भजन मंडली में साईं के साथ रम जाते तो काम के दिन छूटने के कारण वेतन में अक्सर कटौती होती। इस तरह घर में कभी कभी खाने को भी पूरा न पड़ता, पर जैसा भी हो जीवन कट रहा था। एक दूसरे की किताबें पढते हुए, तीन बेटियों और बेटे ने अपनी पढाई ठीक ठाक कर ली। इन बच्चों की मिसाल दूसरे घरों में दी जातीे, कैसे अभावग्रस्त होने पर भी इन बच्चों ने अपनी पढाई समय से पूरी की। पर साधनहीन और उचित मार्गदर्शन के अभाव में अपने लिए अछा केरियर कोई बच्चा बना नहीं पाया। बडी बेटी ब्याह दी गई थी। बाकी दो बेटियां और बेटा कुंवारे थे।
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मां को सारी बातें परत दर परत याद आ रहीं थी। वह जैसे समझना चाहती थी कि उस की किस ग़लती के कारण महेश के मन को किसी रोग ने घेर लिया। क्यों ऐसा हुआ। उस के मन और वश में जो कुछ था वह क्यों ऐसे अचानक हाथें से छूट कर सब फिसलता गया। उस के जीवन में अब क्या रह गया है? कुछ भी तो नहीं।
तभी बांसुरी की धुन बजना बन्द हो गई और मां महेश के क़रीब जा कर उसे अपने साथ वापस लेने के लिए हाथ बढ़ा कर चलने को कहने लगी।
-कौन हैं आप माता जी ? ऐसा प्रश्न सुनकर मां ठिठक गई और बेगानी आवाज़ को करीब से निरीक्षण करने लगी अरे यह क्या? यह तो कोई और ही है...मौन और स्तब्द्ध हो मां इस अजनबी को देख बिजली की चपलता से वापस मुडी और महेश, महेश चिलाते भागने लगी...अजनबी उस के पीछे भागा और कुछ ही दूर मां पछाड खा कर गिर गई।
जब मां ने आंखें खोली तो वह उस अजदबी की बाहों में सिर रख कर बैठी थी। -बेटा तुम कौन हो मेरा बेटा महेश कहां है?
अजनबी नौजवान ने मां को दिलासा दिया कि उस का बेटा यहीं कहीं होगा, लेकिन मां को अनिष्ट की आशंका ने घेर लिया। वापस कथाभवन में जाने का मन बना लिया, हो सकता है वह वापस वहीं आया हो।
-तुम परेशान न हो बेटा, मैं अपना रास्ता तलाशलूंगी, जाओ अपना काम करो, तुम ने मेरी देखबाल की तुम्हारा धन्यवाद।
-पर आप अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं।
-मेरी चिंता न करो,
नौजवान ने मां का कहा टालना मुनासिब न समझा, वह अपने पथ को लौट गया। मां सोचने लगी, कैसे उस के लाल ने उस का दामन खुशियों से भरने का हरचन्द प्रयत्न किया! कितने अच्छे दिन थे वे।
महेश कीे पोस्ट एण्ड टेलीग्रफ की नौकरी सारे घर के लिऐ वरदान साबित हुई थी। घर का सारा दारिद्र धीरे-धीरे छंटने लगाा था। खोयी प्रतिष्ठा और सम्मान वापस लौटने लगा था। महेश के लिए रिशतों का तांता लगने लगा था। मां की बचपन की सहेली तोषा की बेटी मां को बहुत पसंद थी पर महेश उसे अपनी छोटी बहन मानता था और शादी से साफ इनकार किया था। गांव वाले दबी ज़ुबान यहां
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तक बोलने लगे थे कि थोडे पैंसे क्या आगये कि खुद को राजकुमार ही समझने लगाा है। कहां करेगा शादी आखर अरे तो कितने अच्छे रिशते ठुकरा चुका है।
नौकरी के कारण महेश की बांसुरी उस की कितबें और उस की कितबों के मानसपुत्र मित्र सब छूट गये थे। सुबह सवेरे अपने पिता के ही समान अब महेश नहा धो कर तैयार हो शहर जाने वाली सब से पहली गाडी पकडकर दफतर जाता और देर रात शहर के दफतर से घर लौट पाता। अख़बार तक पढने का समय न मिलता और बुरी तरह सफर से थका शरीर खाना खाते ही बिस्तर से चिपक जाता। न किसी से हंसी मज़ाक न ठिठोली और न कोई बातचीत।
इस बीच दफतर में शहर की एक रंगचिडडृी उस को अपने रंग में रंगने लगी। वो दिखने में चंचल-चपल और बावली लगती, उसे देख कर वह ऐसे देखता रह गया था मानो कोई स्त्री ही दुनिया में पहली बार देखी हो।
और इस बीच शहर बस रहा था या बीत रहा था, महेश को इस की किंचित भन्नक आने लगी थी। जिस तरह से लोग डर कर, दुबक कर, और फुसफुसाहटों में कुछ बुदबुदाते जैसे कहना कुछ हो और कुछ और ही कह जाते। वितस्ता का नीर रंग बदल बदल कर बह रहा था, हर एक इसे देख कर भी अनदेखा कर रहा था क्यों कि हर कोई बस वही देख रहा था जिस में उसे रूचि होती और महेश की गहन रूचि सरोज में बढ़ती जा रही थी।
अपनी ओर आवश्यक्ता से अधिक लालायित इस गंवार फूहड और बेढंगे आदमी पर सरोज को केवल दया आती। सरोज के पास ऐसे बेहूदा आदमी के लिए हरगिज़ समय न था। पर सरोज हैरान थी कि यह उसे हो क्या गया हैं। क्यो वह बार बार उसी के विषय में सोच रही होती है। वह उसे देख रहा है या अपना काम कर रहा है? सरोज यह जानने के लिए बार बार कनख्यों उसे देखती रहती पर वह हमेशा अपने काम में व्यस्त होता।
किसीे आबनूस सा लम्बा क़द, मूंह पर हलकी भूरी शेव, वह सरोज को हर रंग और हर लिहाज़ से ईसा का सा रूप दिखता। मानो अभी अभी सलीब से उतर कर नया जन्म मिला हो। सरोज अपने मन पर काबू खो रही थी और अबोध भाव से भर गई थी। उसे यह क्या हो गया है। दफतर में उसे कितने लोगों ने सिर आंखों पर रखने के वादे किये पर हर एक को निराशा ही हाथ लगी।
इधर समय तेज़ी से सरक रहा था। और समय सरोज के पास भी बहुत कम रह गया था। पता ही नहीं चला कब लडकपन बीता जवानी में क़दम रखा और अब
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सहसा जैसे जवानी किसी टीले से खाई में गिरने वाली हो। वह अपने आप को दोनो हाथें से सहेजे बस महेश पर निगाह ताने बैठी थी। थक हार कर वह महेश के सामने यन्त्रवत खडी हो गई और सारे वातावर्ण से बेखबर उस की मेंज़ के सामने खाली पडी कुर्सी पर बैठ गई।
बुख़ारी में अंगाार सुलग कर राख में बदल गये थे। राख में भी काफी उष्मा बाक़ी थी। बाहर बर्फबारी रूकने का नाम नहीं ले रही थी, सवेरे से ही मौसम ने अपना रूख साफ किया था। आज कोई तूफान खडा होगा।
पर यहां दोनो चुपी साधे बैठे थे। इस चुपी को क़रीम चाचा ने तोडा, दो चाय की प्यालियां मेज़ पर रख कर।
सरोज की ओर चाय की प्याली खिसका कर महेश अपने देहाती अंदाज़ में बोलने लगा, ‘ मैं , मतलब..... कि हम ...मेरे घर में मां-बाप और तीन बहने हैं, बडी बहन की शादी हो चुकी है। मेरा कोई भाई नहीं, बाप ने मेहनत मज़दूरी कर के जैसे तैसे पढाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि ... आप से कह सकूं ...
बाहर बर्फ की घनी फुंगुनियां लहरा लहरा के आकाश से धारती की ओर सरक रहीं थी। सरोज ने भूरे रंग का शाल ओढ रखा था, उस के गुलाबी गालों में अतिरिक्त धमक और आंखों में लावण्यता की चमक साफ झलक रही थी। वह सोचने लगी क्या अभिप्राय है मुझ से यह सब कहने का, क्या मेरी अपनी हालत इस से कहीं बेहतर है ? कौन से सोने चान्दी के ढेर लगे हैं अपने यहां। प्राइवेट स्कूल में मां ने टीचर बन कर दोनें भाई बहन को पिता जी के देहांत के बाद पढाया लिखाया। भाई ने मुम्बई में जा कर किसी कम्पनी में नौकरी की वहीं शादी ब्याह किया और मुड कर कभी वापस घर में क़दम नहीं रखा। मैं मां का अकेला संबल हूंृँ और वह मेरा। टूटे हुए सपनों के कचरे भरे ढेर पर खडी ज़िन्दगी में जब भी कोई उम्मीद की कली खिलने की सम्भावना दिखी तो कचरे की तहें लिपट कर नीचे खेचती गईं।
‘ मै तुम से शादी करना चाहता हूँ। ’ महेश कह रहा था। उस ने जैसे कुछ सुना नहीं और चुपचाप बैठी रही।
इस चूपी को महेश ने फिर तोडा और कहने लगा, - आज मौसम एकदम मस्त लग रहा है, बहुत दिनों की सूखी ठंड के बाद ....आज मौसम में तरावट सी आई है।
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सरोज ने जाने क्या सोचते कहा- कल यही बर्फ जमकर पत्थर सी सख्त होगी और बर्फीली हवा हम को परेशान करेगी, अब तो कडाके का जाडा पडेगा।
महेश का हौसला बढ़ गया और कह उठा- नहीं , यह तो जाते शिशर की बर्फ है, अधिक दिन न टिकेगी। धूप निकलते ही यह बर्फ पानी बन कर पिघल जायेगी।
-पर मुझे बहार बहुत अछी जगती हैं । सरोज ने जैसे कोई ग़लत बात कह दी हो, अपनी ही कही बात पर वह सहसा सिहर सी गई।
महेश पूछ रहा था- मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया आप ने।
- हां कर दूं , ऐसा मन कहता है, सोचती हूँ कि कैसे सीधे बिना किसी लाग लपेट के बहुत स्पष्ट सब कुछ कहते हो। पर सरोज केवल ऐसे सोच रही थी। महेश से कह उठी- तुम मुझे कितना जानते हो, देखो , क्या तुम्हें मालूम है कि . ....
मुझे सब कुछ मालूम हैं-
एक ज़ोरदार धमाके नें टेलीकाम भवन की नींवें तक हिला दीं। भवन की खिडकियों के परखचे उड गये। बाहर लोगों के रेलमपेल का शोर भीतर को सज्डााटे से भर गया।
बात बिगड गई बनने से पहले। उसी रात कुछ बन्दूकबरदारों ने सरोज को घर से उठा लिया और सात दिन बाद उस की लाश सडक़ के बीचों बीच अर्दनंग्न रूप में पुलिस को बरामद हुई। बरबर्ता से सरोज का सामूहिक बलातकार और फ़िर यातना देदे कर चाकुओं से गोद गोद कर तडपा तडपा कर मार गया था।
महेश को समझ नहीं आरहा था कि यह क्यों हुआ, कैसे कोई इस क़द्धर हयवानियत पर उतर सकता है , महेश को बताया गया कि कोई मज़हब है या किसी तरह की आज़ादी की जंग जिस के लिए ऐसा करना लाज़मी बन गया था।
वह उन लोगों की मदद करने के लिए राज़ी नहीं हुई जो उस की मदद चाहते थे। खैर यह सब तो महज़ बहाने थे , सच तो यही था कि इन को एक कौम में भय और दहशत फैलानी थी।
महेश किसी भी बात से सहमत नहीं, उस के सामने से सरोज का चेहरा एक मिनेट को भी नहीं हटता। वह काठ की तरह बेखुद रहने लगा। संसार जैसे उस के लिए बेमायने सी बात हो गई। किसी को उस का दुःख या दर्द समझ न आया,
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वह बिलकुल संसार से असंपृक्त हो गया और यंत्रवत दफतर का काम करने लगा। एक रोज़ मां को यह कर घर से निकल पडा कि जम्मू जा रहा हूँ और बाद में लौटा ही नहीं।
काफी दिन प्रतीक्षा करने पर भी जब महेश नहीं लौटा और सब मुहल्ला पलायन करने लगाा तो मां ने महेश के पिता को इस वास्तविकता से दो चार किया कि यह स्थान अब बिलकुल रहने लायक नहीं रहा है। लडकियों का बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। सब ने हालात ठीक होने तक और लोगों की तरह जम्मू जा कर कहीं शर्ण लेने का मन बनाया।
महेश को देख उस की मां बिलख बिलख कर रोने लगी। कैम्प कमाडेन्ट ने सारे परिवार को मिलाया, बहनों का जिगर छलनी था, बाप कोने में बुबक कर आने वाले समय की दुदर्शा को साफ देख कर चिंतित था। उस पर महेश की हालत ने तो जैसे कमर तोड दी थी।
जम्मू के पालीटेकनीक के आधेअधूरे से बने भवन के एक लम्बें हाल में सरोज की मां और महेश सैंक्डों शर्णिथर््ायों के साथ रह रहें हैं। दोनें बस जी रहें है। सरोज की मां को बिलकुल भी पता नहीं उसे कौन यहां ले आया और क्योकर वह इस के साथ है। दोनों के सम्पर्कसू़त्र जैसे संसार से कट गये है। न कहीं पर्दा न कोई दीवार और न कोई दरकृसब केवल दरबदर....तितर बितर ...कुछ अदद गलीचों की सीमा में सिमटे परिवारों में बिखर कर पडे जी रहे थे।
मां को लगा कि जिस अरण्य में वह भटक गई है उस का कहीं से भी कोई आदि या अन्त नहीं है। कथाभवन से निकल कर वह किस छोर से इस वन में घुसी थी इस के बारे में उसे कुछ स्मरण नहीं। अब चान्द उसे काटने को दौड रहा था। हलांकि कुछ ही पल में सूरज की रौशनी शायद यह दिशाभ्रम दूर कर दे। पर मां को जैसे सूरज के उगने का कदाश्ति कोई बोध ही न रहा हो। वह बस रूंधे गले अपने बेटे को आवाज़ लगाती खोजती जा रही थी।
रास्ते में अनेकों जंगली जानवर उसे मिले, कोई उसे खाने तक को रूचि नहीं दिखा रहा था, सब उसे अनदेखा कर रहे थे। थक हार कर आखिर उस की आंख लग गयी और उसे किसी की सुद न रही।
जब जागी तो सूरज सर पर आ गया था और उसे बेहद प्यास लग रही थी। उसे बर्र्गिशाखा के उच्च शिखर का देवी मन्दिर याद आया और उस पर्वत शिखर के गोलार्द में पहलगाम जाती राह में बटकोट से निकलती नहर के पानी का स्मरर्ण हुआ। प्यास दुगनी गति से बढ़ने लगी। सूरज तप रहा था और जंगल में दूर दूर
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तक पानी का अक्स तक न था। कहीं कोई जल प्रपात या कोई छोटी बावली तक न मिली तो उस ने अपने प्राणों की आशायाग दी।
तभी महेश सा व्यक्ति सामने प्रकट हुआ। शीतल पानी की बोतल का ढक्कन खोल कर मां को पानी पिलाया और मां गहरी नींद सो गई।
महेश कथाभवन में लौटा देखा सब भक्त लोग गहरी नींद सो रहे हैं और मंच पर स्वामी के स्थान पर एक मशीन पर प्रवचन जारी था। काफी देर कथाभवन में बैठने के बाद महेश घर लौट आया। वह खुश था कि मां भी जैसे तैसे घर पुहंच गई है।
सुबह लोगों ने अख़बार के एक कोने में एक लाइन का समाचार पढा, एक मनोरोगी ने जीवन से तंग आकर आत्म हत्या की। पुलिस मगर इसे हत्या का मामला बता रही है और इस संबन्ध में मृतक के पिता को पुलिस गिरिफ़तार कर चुकी है।
सारा शणार्थी कैंप इस समाचार से त्रस्त था, और सब मूक बधिरों में बदल गये थे।
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(महाराज कृष्ण शाह की कहानियां)
कहानियां अभी और हैं ----बहुत जल्द आप की भेंट में पेश करूंगा।
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